अनुवादक की कलम से / खोया पानी / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी साहब का उपन्यास 'खोया पानी' मेरी पत्रिका 'लफ्ज' में 1 से 12 अंक तक छप चुका है, किंतु उसकी भूमिका पहली बार आ रही है। व्यंग्य मूलतः करुणा से उपजता है, इस बात की पुष्टि ये भूमिका करेगी। मैंने जब छहमाही संकलन 'रसरंग' को 'लफ्ज' में बदला तो ये भी सूझा इस बार इसे पत्रिका का रूप दिया जाये। 'रसरंग' के समीक्षकों व पाठकों के अनुसार समकालीन गजल का सर्वोत्तम रूप होने के बावजूद ये मन में था कि बाजार इसे स्वीकारेगा या नहीं। मैं मुश्ताक़ साहब को पढ़ चुका था और बातचीत में कहता भी था कि इनके उपन्यास समकालीन व्यंग्य के बेहतरीन दस्तावेज हैं।

एक फुसलाऊ और बिकाऊ नीति के तहत शायरी के साथ व्यंग्य को जोड़ने की योजना बनायी और लफ्ज के पहले अंक को बाजार में पटक दिया। जिन लोगों ने लफ्ज का पहला अंक देखा है वो मेरी बात समझ जायेंगे। मुझे पत्रिका में कॉलम बनाये जाने चाहिए जैसी बात का भी शऊर नहीं था। पहले अंक में पूरे पेज पर एक ही पंक्ति टाइप की गई, नतीजा ये निकला कि जब पाठक पंक्ति खत्म करके अगली पंक्ति के प्रारंभ पर आता तो कई बार नजरें फिसल कर इच्छित पंक्ति की जगह कहीं और पहुंच जातीं। फिर भी भरपूर कामयाबी मिली। लफ्ज अपने पहले अंक से ही पाठकों की जुरूरत का हिस्सा बन गया और अब तो ये स्थिति है कि हमारे प्रसार विभाग के लोग अगर देर से बाजार में पत्रिका पहुंचाते हैं तो बेचने वाले लड़ मरते हैं कि पाठक लौट-लौट कर जा रहे हैं। लफ्ज के स्टैबलिश होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी साहब का है।

इस उपन्यास में आप हंस और हंस के अलावा कहीं चंद्र-बिंदु नहीं पायेंगे। हमारे विचार में इन दो शब्दों के अलावा बाकी सब जगह बिंदी से काम चल जाता है। आज से पंद्रह-बीस साल पहले बहुत-से शब्दों में चंद्र-बिंदु लगता था मगर अब लगभग समाप्त-प्राय है। ये हिंदी का सरलीकरण करने के तहत है। इसी तरह गई/पाई/दिखाई जैसै शब्दों को गयी/पायी/दिखाई लिखा गया है। इसी तरह के अन्य शब्दों के साथ भी यही व्यवहार किया गया है। हम लोगों की सोच इस नियम पर आधारित है कि गई/पाई/दिखाई को जब इसी क्रम में गया/पाया/दिखाया लिखा जाता है तो इसे गयी/पायी/दिखाई ही लिखा जाना चाहिए। इसी प्रकार उर्दू के शब्दों को उनके मूल उच्चारण के हिसाब से लिखा गया है। अस्ल, वज्न, फत्ह जैसे बहुत-से शब्द हैं जो संयुक्ताक्षर होते हुए भी हिंदी में असल, वजन और फतह लिखे जाते हैं। शब्दों का अस्ली वज्न केवल शायर या कवि तय कर सकते हैं चूंकि छंद में शब्द को बांधने से ही उसका वज्न तय होता है। फत्ह का वज्न छंद में ऽ+। (2+1) होगा जबकि फतह का वज्न ।+ऽ (1+2) होगा। ये इस तरह है कि समझना को समझ-ना भी पढ़ा जा सकता है और सम-झना भी। पहले उच्चारण में इस शब्द का वज्न ।+ऽ+ऽ (1+2+2) होगा दूसरे उच्चारण का वज्न ऽ+।+ऽ (2+1+2) होगा। मैं चूंकि स्वयं शायर हूं इसलिए मेरे लिए यह विषय महत्त्वपूर्ण है और इस पुस्तक में इस बात का ध्यान रखा गया है। इस किताब की प्रूफरीडिंग बहुत ठोक-बजा कर, छान-फटक कर की गई है और इसमें मेरे साथी श्री कमलेश पांडेय ने अपनी बहुत रातें काली की हैं, दिन तो वो ऑफिस में काला करते हैं।

इस सफर में कई ऐसे मेहरबान भी साथ आये जिनकी अनुपस्थिति में मैं कुछ नहीं कर पाता। रहीम ने कहीं कहा है -

रहिमन वे नर मर चुके जे कहुं मांगन जायं

ये वो लोग थे जिन्होंने लफ्ज के लिए लोगों से बात की। इन्हें कोई आवश्यकता नहीं थी कि ये लफ्ज के लिए किसी से कहते किंतु इन्होंने मुझ पर कृपा की। इनका उल्लेख न करना कृतघ्नता होगी। मैं हृदय की गहराइयों से श्री गिरीश चतुर्वेदी, श्री सुधीर चतुर्वेदी, श्री दीनानाथ मिश्रा और श्री ललित कुमार गुप्ता का आभार प्रकट करता हूं।

अंत में अपनी पत्नी रति का आभार कि उन्होंने मेरे अनुवाद करते समय मुझे कभी डिस्टर्ब नहीं किया जो कि हर पत्नी का वैवाहिक दायित्व होता है। बल्कि कई बार तो कई-कई हफ्ते के लिए मायके चली गयीं। परिवार के लोग समझते रहे कि हम दोनों के बीच मन-मुटाव है मगर वो अनुवाद के लिए अनुकूल वातावरण बना रही थीं। मेरे मन से उनके लिए दुआ निकलती है, भगवान उनका सुहाग बनाये रखे।

किताब के बारे में कृपया लोगों को बतायें और खरीद कर पढ़ने के लिए बाध्य भी करें। क्या उपहार में देने के लिए अच्छी किताबों का चयन करना उपयुक्त होगा?