अपराध और दंड / अध्याय 2 / भाग 1 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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वह बहुत देर तक उसी तरह लेटा रहा। बीच-बीच में लगता कि उसकी नींद टूट गई है, और ऐसे पलों में उसे लगता जैसे रात बहुत बीत चुकी है, लेकिन उसे उठ बैठने की बात नहीं सूझती थी। आखिर उसने देखा कि दिन निकल आया है। अपनी कुछ देर पहले की तंद्रा से अभी तक मूढ़ बना वह पीठ के बल लेटा हुआ था। सड़क से भयभीत, निराशा में डूबी कर्कश चीखें ऊपर आ रही थीं, वैसे ही आवाजें जिन्हें अपनी खिड़की के नीचे वह रोज रात को दो बजे के बाद सुनता रहता था। अब इन आवाजों को सुन कर उसकी नींद खुल गई। 'ओह! नशे में धुत शराबी अब शराबखानों से बाहर आ रहे हैं,' उसने सोचा, 'दो बज चुके हैं,' और यह सोच कर वह फौरन उछल पड़ा, जैसे किसी ने उसे झिंझोड़ कर सोफे पर से घसीट लिया हो। 'अरे दो बज गए क्या?' वह उठ कर सोफे पर बैठ गया और अचानक हर बात उसे याद आती चली गई! एक क्षण में, बिजली के कौंधे की तरह हर बात उसे याद आ गई!

पहले पल में उसे लगा, गोया वह पागल होता जा रहा है। भयानक सिहरन से उसका बदन काँप उठा, लेकिन यह सिहरन उस बुखार की वजह से थी, जो उसे बहुत पहले, नींद के ही दौरान चढ़ आया था। अब अचानक उसके बदन में इतने जोर की कँपकँपी पैदा हुई कि उसके दाँत बजने लगे, हाथ-पाँव काँपने लगे। उसने दरवाजा खोला और कान लगा कर सुनने लगा। पूरा घर नींद में डूबा हुआ था। हैरान हो कर वह अपने आपको और कमरे की हर चीज को घूरने लगा। उसे इस बात पर ताज्जुब हो रहा था कि पिछली रात अंदर आ कर वह दरवाजे की कुंडी चढ़ाना कैसे भूल गया था और कपड़े उतारे बिना, हैट तक उतारे बिना, सोफे पर कैसे ढेर हो गया था। हैट सोफे से लुढ़क कर नीचे फर्श पर तकिए के पास पड़ा था। 'अगर कोई अंदर आ जाता तो क्या सोचता कि मैं पिए हुए हूँ, लेकिन... वह लपक कर खिड़की के पास गया। रोशनी काफी थी। वह जल्दी-जल्दी सर से पाँव तक अपने आपको, अपने सारे कपड़ों को देखने लगा : कहीं कोई निशान तो नहीं रह गया है! लेकिन इस तरह यह काम तो नहीं किया जा सकता था। काँपते-ठिठुरते हुए उसने हर चीज को उतारना और एक बार फिर से देखना शुरू किया। उसने हर चीज के एक-एक रेशे को, एक-एक धागे को ध्यान से देखा। पर भरोसा न रह जाने के कारण उसने हर चीज की अच्छी तरह, तीन बार छानबीन की। कहीं कुछ भी नहीं था, कोई भी निशान नहीं था। बस एक जगह पतलून की मोरी के निचले सिरे पर, जो घिस कर फट चला था, खून की कुछ जमी हुई बूँदें चिपकी थीं। उसने एक बड़ा-सा कमानीदार चाकू उठा कर लटकते हुए चीथड़े को काट डाला। अब कहीं कुछ भी नहीं रहा। अचानक याद आया उसे कि बुढ़िया के बटुए और संदूक में से उसने जो चीजें निकाली थीं, वे अभी तक उसकी जेबों में ही हैं। अब तक उसने उनको निकाल कर कहीं छिपाने की बात सोची भी नहीं थी! अपने कपड़ों की जाँच करते समय भी उसने इसके बारे में नहीं सोचा था! हो क्या गया था उसे उसने फौरन झपट कर वे सारी चीजें निकालीं और मेज पर डाल दीं। जब उसने जेबों का अस्तर तक बाहर निकाल कर पूरा-पूरा भरोसा कर लिया कि उनमें कुछ भी नहीं रहा, तब वह उस पूरे ढेर को समेट कर एक कोने में ले गया। दीवार के निचले सिरे पर कागज उखड़ा हुआ था और चीथड़ों की तरह लटक रहा था। उसने कागज के नीचे की खोखली जगह में सारी चीजें ठूँसनी शुरू कर दीं। 'सब चली गईं! अब कुछ भी नहीं दिखाई देता, बटुआ भी!' उसने बेहद खुश हो कर सोचा, उठ कर खड़ा हो गया और सूनी-सूनी आँखों से उस कोने और खोखल को घूरने लगा, जहाँ हमेशा से ज्यादा उभार दिखाई दे रहा था। अचानक खौफजदा हो कर वह सर से पाँव तक काँप गया। 'हे भगवान!' उसने निराशा में डूबी हुई कमजोर आवाज में कहा, 'मुझे हो क्या गया है? क्या सब कुछ छिप गया? क्या चीजें छिपाने का तरीका यही है?'

उसने नहीं सोचा था कि उसे छोटे-छोटे माल-जेवर भी छिपाने पड़ेंगे। उसने तो बस पैसों की बात सोची थी, और इसलिए छिपाने की कोई जगह भी तैयार नहीं की थी। 'लेकिन अब... अब मैं इतना खुश किस बात पर हो रहा हूँ?' उसने सोचा। 'क्या इसे ही चीजें छिपाना कहते हैं मेरी समझ जवाब देती जा रही है, और कुछ नहीं!' वह निढाल हो कर सोफे पर धम से बैठ गया और अचानक नाकाबिले-बर्दाश्त कँपकँपी के एक और दौरे ने उसे आन दबोचा। मशीनी ढंग से उसने बगल में पड़ी कुर्सी पर से अपना पुराना, छात्रोंवाला, जाड़े का लंबा गर्म कोट खींचा जो अब तार-तार हो चुका था, उसे सर तक ओढ़ा और एक बार फिर बेहोशी और बेहवासी में डूब गया। अब गहरी नींद सो रहा था।

पाँच मिनट भी नहीं बीते थे कि वह एक बार फिर उछल कर खड़ा हो गया, और उन्मादियों की तरह एक बार फिर अपने कपड़ों पर झपटा। 'कुछ किए बिना ही मैं दोबारा कैसे सो गया अरे हाँ, कोट की बगल में से मैंने वह फंदा तो निकाला ही नहीं है! एकदम भूल गया था, वह भी ऐसी बात! एकदम पक्का सबूत!' उसने खींच कर फंदा उखाड़ा, जल्दी-जल्दी काट कर उसके टुकड़े किए और उन टुकड़ों को तकिए के नीचे रखे कपड़ों के ढेर के बीच डाल दिया। 'कुछ भी हो, फटे कपड़ों की चिंदियों से कोई शक पैदा नहीं हो सकता। हाँ, यही ठीक है!' कमरे के बीचोंबीच खड़े हो कर उसने कई बार दोहराया और तकलीफदेह हद तक अपना ध्यान केंद्रित करके एक बार फिर अपने चारों ओर घूरने लगा। फर्श पर और हर जगह। कहीं कोई बात भूल तो नहीं रहा है! उसे पक्का विश्वास हो चला था कि उसकी सारी चेतनाएँ, उसकी यादें और सोचने की मामूली-सी शक्ति भी जवाब देती जा रही थी और यह बात उसके लिए असहनीय यातना का सबब बन गई थी। 'कहीं ऐसा तो नहीं कि इसका सिलसिला शुरू हो चुका हो! कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे मेरा दंड मिलने लगा हो! यही बात है!' उसने अपनी पतलून से जो घिसी हुई चिंदियाँ काटी थीं वे कमरे के बीचोंबीच फर्श पर ही पड़ी हुई थीं, जहाँ अंदर आनेवाला कोई भी आदमी उन्हें देख सकता था! 'मुझे हो क्या गया है?' वह एक बार फिर चिल्लाया, जैसे बदहवास हो गया हो।

फिर एक अजीब-सा विचार उसके दिमाग में आया : शायद उसके सारे कपड़े खून में सने हुए हैं, शायद उन पर बहुत सारे धब्बे हैं लेकिन उसे दिखाई नहीं दे रहे हैं, वह उन्हें इसलिए नहीं देख पा रहा कि उसके हवास जवाब देते जा रहे हैं, वे बिखरते जा रहे हैं... उसकी सोचने की शक्ति धुँधलाती जा रही है... अचानक उसे याद आया कि खून बटुए पर भी तो लगा था... 'अरे! तब तो जेब में भी लगा होगा, क्योंकि मैंने गीला बटुआ अपनी जेब में ही रख लिया था!' पलक झपकते उसने जेब का अस्तर बाहर निकाला। हाँ, उस पर निशान थे, जेब के अस्तर पर धब्बे थे! 'तो मेरी अक्ल ने पूरी तरह मेरा साथ नहीं छोड़ा है। अभी तक कुछ अक्ल और याद बाकी है, क्योंकि यह बात मुझे खुद सूझी थी,' उसने राहत की गहरी साँस ले कर विजयी भावना के साथ सोचा, 'बस बुखार की कमजोरी है, एक पल की बेहोशी।' यह सोचते ही उसने अपने पतलून की बाईं जेब का सारा अस्तर नोच डाला। उसी पल धूप की किरण उसके बाएँ जूते पर पड़ी। उसे अब शक हुआ कि उसके मोजे पर, जो बूट के बाहर झाँक रहा था, कुछ निशान थे। उसने झटके से अपना बूट उतार फेंका, 'सचमुच निशान थे! मोजे का सिरा खून में लथपथ था,' उसका पाँव अनजाने ही फर्श पर जमे खून में पड़ गया होगा, 'लेकिन अब मैं इसका क्या करूँ अब मैं यह मोजा, ये फटी हुई चिंदियाँ और जेब का अस्तर कहाँ रखूँ'

वे सब चीजें अपने हाथों में बटोरे हुए वह कमरे के बीचोबीच खड़ा था। 'आतिशदान में! लेकिन आतिशदान की तलाशी तो वे सबसे पहले लेंगे। जला दूँ लेकिन इन चीजों को जलाऊँ किस तरह माचिस भी तो नहीं है। नहीं, बेहतर तो यह होगा कि बाहर जा कर यह सब कहीं फेंक आऊँ। हाँ, इन्हें कहीं फेंक आना ही बेहतर होगा,' उसने सोफे पर फिर बैठते हुए दोहराया, 'और फौरन, इसी दम बिना कोई देर किए...' लेकिन इसकी बजाय उसका सर तकिए पर जा टिका। एक बार फिर बर्फ जैसी ठंडी असहनीय कँपकँपी ने उसे दबोचा लिया और अपना कोट एक बार फिर ओढ़ लिया। बड़ी देर तक, कई घंटों तक, यह बेचैनी भूत की तरह उस पर सवार रही कि वह 'फौरन, इसी वक्त, कहीं चला जाए और ये सारी चीजें फेंक आए, ताकि वे हमेशा के लिए उसकी आँखों से ओझल हो जाएँ और उनका नाम-निशान भी बाकी न रहे। फौरन!' कई बार उसने सोफे से उठने की कोशिश की लेकिन उठ नहीं पाया। आखिरकार किसी के जोरों से दरवाजा खटखटाने की आवाज सुन कर वह पूरी तरह जाग गया।

'दरवाजा तो खोल, जिंदा है कि नहीं पड़ा-पड़ा सोता रहता है!' नस्तास्या मुक्के से दरवाजा पीटते हुए चिल्लाई। 'दिन-दिन भर पड़ा कुत्ते की तरह खर्राटे लेता रहता है! है भी बिलकुल कुत्ता! मैं कहती हूँ, दरवाजा खोल! दस बज चुके!'

'हो सकता है घर से बाहर हो,' किसी मर्द की आवाज सुनाई दी।

'अरे, यह तो दरबान की आवाज है... उसे क्या चाहिए?'

वह उछल पड़ा और सोफे पर बैठ गया। अपने दिल की धड़कन उसके लिए तकलीफ का सबब बन गई थी।

'फिर अंदर से कुंडी किसने लगाई, यह तो बताओ,' नस्तास्या ने पलट कर पूछा। 'अच्छा सिलसिला शुरू किया है! अंदर से कुंडी चढ़ाने का! डरता है कोई उसे उठा ले जाएगा! दरवाजा खोल नासमझ, उठ भी जा!'

'इन्हें क्या चाहिए? दरबान क्यों आया है? मेरी हर बात का पता लग गया! टक्कर लूँ या दरवाजा खोल दूँ खोल देना ही ठीक रहेगा! जो होना है, हो...'

वह आधा उठ कर आगे की ओर झुका और दरवाजे की कुंडी खोल दी।

उसका कमरा इतना छोटा था कि बिस्तर से उठे बिना ही वह कुंडी खोल सकता था।

उसका खयाल सही था : दरबान और नस्तास्या वहाँ खड़े थे।

नस्तास्या अजीब ढंग से उसे घूर रही थी। दरबान को उसने बड़ी ढिठाई और बेबसी से, कनखियों से देखा। उसने बिना कुछ कहे, एक तह किया हुआ बादामी कागज उसकी तरफ बढ़ा दिया जिसे लाख से मुहरबंद कर दिया गया था।

'दफ्तर से सम्मन आया है,' दरबान ने कागज आगे बढ़ाते हुए कहा।

'किस दफ्तर से?'

'पुलिस थाने से। वहीं से बुलावा आया है। ये तो तुम्हें पता होगा कि वह किस तरह का दफ्तर है।'

'पुलिस से... किसलिए भला...'

'कौन जाने तुम्हें तलब किया है तो जाना तो पड़ेगा।' उस आदमी ने उसे बड़े ध्यान से देखा, कमरे में चारों ओर नजर दौड़ाई और मुड़ कर जाने लगा।

'बहुत बीमार जान पड़ता है!' नस्तास्या ने उस पर नजरें जमाए रह कर अपना मत व्यक्त किया। दरबान ने एक पल के लिए सर घुमा कर देखा। 'कल से बुखार है,' नस्तास्या ने आगे कहा।

रस्कोलनिकोव ने कोई जवाब नहीं दिया। कागज को खोले बिना हाथ में लिए बैठा रहा।

'उठने की जरूरत नहीं,' नस्तास्या ने उसे सोफे पर से पाँव नीचे उतारते देख कर दया-भाव से कहा। 'तुम बीमार हो, सो जाने की कोई जरूरत नहीं। कोई ऐसी जल्दी नहीं मची है। वह तुम्हारे हाथ में क्या है?'

रस्कोलनिकोव ने देखा : अपने दाहिने हाथ में उसने पतलून से काटी हुई लटकनें, मोजा और जेब का फटा हुआ अस्तर पकड़ रखा था। तो वह उन्हें हाथ में लिए-लिए सो गया था! बाद में इसके बारे में सोचते हुए उसे याद आया कि बुखार में जब उसकी नींद उचटती थी तो वह इन चीजों को मजबूती से हाथ में जकड़ लेता था और फिर उसी तरह सो जाता था।

'देखो तो, जाने कहाँ-कहाँ के चीथड़े उठा लाता है और उन्हें ले कर सो जाता है, जैसे कोई बहुत बड़ी दौलत मिल गई हो...' नस्तास्या दीवानों की तरह खिलखिला कर हँसी। फौरन उसने वे सारी चीजें अपने लंबे कोट के नीचे घुसेड़ लीं और नजरें गड़ा कर बड़े गौर से नस्तास्या को देखता रहा। उस दम उसमें समझ-बूझ के साथ सोचने की ताकत तो कम ही रह गई थी, लेकिन उसने महसूस किया कि एक ऐसे आदमी के साथ, जो किसी भी पल गिरफ्तार किया जा सकता हो, कोई इस तरह पेश नहीं आ सकता। 'लेकिन... पुलिस?'

'चाय पिओगे? एक प्याली जी चाहे तो मैं अभी लिए आती हूँ। थोड़ी-सी बची हुई है।'

'नहीं... मैं जा रहा हूँ; मैं अभी जाऊँगा,' उसने खड़े होते हुए बुदबुदा कर कहा।

'अरे, तुम तो सीढ़ियों के नीचे तक भी नहीं पहुँच पाओगे!'

'मैं तो जाऊँगा...'

'जैसी तुम्हारी मर्जी।'

दरबान के पीछे-पीछे वह भी बाहर चली गई। वह मोजे और उन चीथड़ों की पड़ताल करने के लिए झपट कर रोशनी में पहुँच गया... 'धब्बे हैं तो लेकिन आसानी से दिखाई नहीं देते। सब पर मिट्टी जमी है, और रगड़ खा कर वे बदरंग हो चुके हैं। जिस आदमी को पहले से कोई शक न हो, वह कुछ पहचान नहीं सकता। खैरियत है कि नस्तास्या ने दूर से कुछ नहीं देखा होगा!' फिर काँपते हाथों से उसने नोटिस पर लगी हुई मुहर तोड़ी और पढ़ने लगा। वह बड़ी देर तक पढ़ता रहा, तब जा कर कुछ समझ में आया। कोतवाली से मामूली सम्मन था कि उसी दिन साढ़े नौ बजे उसे थानेदार के दफ्तर में हाजिर होना था।

'मेरे साथ ऐसा तो कभी नहीं हुआ; पुलिस से मेरा कभी कोई वास्ता नहीं रहा! तो फिर आज क्यों?' उसने दुखी हो कर आश्चर्य से सोचा। 'हे भगवान, बस सब कुछ जल्दी निबट जाए!' वह प्रार्थना के लिए घुटने टेक कर बैठने जा रहा था कि अचानक ठहाका मार कर हँस पड़ा - प्रार्थना करने के विचार पर नहीं, बल्कि अपने आप पर। उसने जल्दी-जल्दी कपड़े पहनते हुए सोचना शुरू किया; 'मिटना है तो मिट ही जाऊँ, कोई चिंता मुझे नहीं। मोजा पहन लूँ!' वह अचानक सोच में पड़ गया। 'उस पर और धूल जम जाएगी और सारे निशान मिट जाएँगे।' लेकिन मोजा पहनते ही उसने घृणा और आतंक से घबरा कर उसे फिर उतार दिया लेकिन यह सोच कर कि उसके पास कोई दूसरा मोजा नहीं था, उसे फिर उठाया और पहन लिया। वह एक बार फिर हँस पड़ा।

'ये सब तो रस्मी बातें हैं, दिखावे की, और कुछ नहीं,' उसके दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंध गया, लेकिन केवल ऊपरी सतह पर। सारा शरीर थर-थर काँप रहा था, 'यह लो, झगड़ा ही खत्म हो गया! मैंने उसे पहन कर झगड़ा ही सारा निबटा दिया!' लेकन इस हँसी के फौरन बाद उस पर घोर निराशा छा गई। 'नहीं, यह मेरे बूते के बाहर है...' उसने सोचा। उसके पाँव काँप रहे थे। 'डर के मारे,' वह बुदबुदाया। सर चकराने लगा और बुखार की वजह से उसमें दर्द होने लगा। 'यह चाल है! वे लोग मुझे तिकड़म से वहाँ बुलाना चाहते हैं,' बाहर सीढ़ियों से उतरते हुए उसने सोचा, 'सबसे बुरी बात यह है कि मुझे खुद अपने दिमाग पर लगभग काबू नहीं रहा... शायद खुद मेरे मुँह से कोई बेवकूफी की बात निकल जाए...'

सीढ़ियों पर उसे याद आया कि वह सारी चीजें दीवार के खोखल में ज्यों की त्यों छोड़े जा रहा था। 'बहुत मुमकिन है कि उनकी चाल यही हो कि तब तलाशी लें जब मैं बाहर निकल जाऊँ,' उसने सोचा और ठिठक गया। लेकिन उसे ऐसी घोर निराशा ने, और आनेवाली तबाही से मुतल्लिक ऐसी बेफिक्री ने आ दबोचा कि हवा में हाथ झटक कर वह आगे बढ़ता रहा।

'किसी तरह यह झंझट तो मिटे!'

सड़क पर वही असहनीय गर्मी थी; इतने दिनों से एक बूँद पानी भी नहीं बरसा था। फिर वही धूल, ईंटें, गारा, फिर वही दुकानों और शराबखानों की बदबू, फिर वही शराबी, वही फेरीवाले और टूटी-फूटी घोड़ागाड़ियाँ। सूरज की तेज चमक सीधी उसकी आँखों में इस तरह पड़ रही थी कि उसे किसी भी चीज को देखने में तकलीफ हो रही थी। उसका सर घूम रहा था - उसी तरह जैसे उस आदमी का घूमता है जो बुखार में पड़ा रहा हो और अचानक तेज धूप में बाहर सड़क पर निकल आए।

जब वह उस सड़क के मोड़ पर पहुँचा तो खौफजदा हो कर उसने उस पर नजर डाली... उस घर पर नजर डाली... और फौरन ही अपनी आँखें फेर लीं।

'अगर मुझसे पूछेंगे तो शायद मैं सब कुछ साफ-साफ बता दूँ,' थाने के पास पहुँचते-पहुँचते उसने सोचा।

थाना वहाँ से कोई चौथाई वेर्स्त दूर रहा होगा। अभी हाल ही में हटा कर एक नई इमारत की चौथी मंजिल पर लाया गया था। एक बार थोड़ी देर के लिए वह पुराने पुलिस स्टेशन में तो गया था, लेकिन वह बहुत पहले की बात थी। फाटक में मुड़ने पर उसे दाहिनी तरफ सीढ़ियाँ नजर आईं जिन पर एक आदमी हाथ में किताब लिए नीचे उतर रहा था। 'जरूर दरबान होगा; तो थाना यहीं है,' और वह इसी अटकल के आधार पर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। वह किसी से कोई बात नहीं पूछना चाहता था।

'मैं अंदर जाऊँगा, घुटने टेक दूँगा और सारी बातें मान लूँगा...' उसने चौथी मंजिल पर पहुँचते हुए सोचा।

सीढ़ियाँ बहुत खड़ी और तंग थीं और उन पर गंदा पानी बहने की वजह से फिसलन थी। चारों मंजिलों के फ्लैटों के रसोईघरों के दरवाजे सीढ़ियों की तरफ खुलते थे और लगभग दिन भर खुले ही रहते थे। इसलिए वहाँ बुरी तरह गंध थी और गर्मी छाई रहती थी। सीढ़ियों पर बगल में किताबें दबाए चढ़ते-उतरते दरबानों, चपरासियों और तरह-तरह के मर्दों-औरतों की रेल-पेल रहती थी। थाने का दरवाजा पूरा खुला हुआ था। अंदर आ कर वह ड्योढ़ी में रुक गया। अंदर कई किसान खड़े राह देख रहे थे। गर्मी की वजह से यहाँ बेहद घुटन थी और नए पुते कमरों से ताजे रंग-रोगन और सड़े हुए तेल की बू आ रही थी, जिससे मतली होने लगती थी। कुछ देर इंतजार करने के बाद उसने अगले कमरे में जाने का फैसला किया। सभी कमरे छोटे-छोटे थे और उनकी छतें नीची थीं। एक अंदर से जलानेवाली बेचैनी के साथ वह आगे बढ़ता रहा। किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। दूसरे कमरे में कुछ लोग बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। उनके कपड़े उससे कुछ खास अच्छे नहीं थे, और देखने में वे बहुत विचित्र किस्म के लोग लगते थे। वह उनमें से एक के पास गया।

'क्या है?'

उसने सम्मन दिखाया, जो उसे मिला था।

'तुम छात्र हो!' उस आदमी ने नोटिस पर नजर दौड़ाते हुए पूछा।

'पहले था।'

क्लर्क ने उसकी ओर देखा जरूर लेकिन उसमें जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह बहुत ही मैला-कुचैला आदमी था और उसकी आँखों से लगता था कि उसके दिमाग में कोई एक ही बात बैठी हुई है।

'इससे कोई काम नहीं बनने का; क्योंकि इसे किसी चीज में कोई दिलचस्पी ही नहीं,' रस्कोलनिकोव ने सोचा।

'अंदर बड़े बाबू के पास जाओ,' क्लर्क ने सबसे दूरवाले कमरे की तरफ इशारा करते हुए कहा।

वह उस कमरे में गया - लाइन से बने हुए कमरों से चौथा कमरा। छोटा-सा कमरा था और लोग ठसाठस भरे हुए थे। ये बाहरवाले कमरों के लोगों से कुछ बेहतर पोशाक पहने हुए थे। उनमें दो औरतें भी थीं। एक तो किसी का सोग मना रही थी और बहुत मामूली कपड़े पहने हुए थी, बड़े बाबू की मेज पर उसके ठीक सामने बैठी थी, और वह जो कुछ बताता जा रहा था, उसे लिखती जा रही थी। दूसरी बहुत हट्टी-कट्टी, गदराई हुई, ऊदी-ऊदी चित्तियोंवाले चेहरे की औरत थी। वह बहुत बढ़िया कपड़े पहने थी और उसने अपने सीने पर तश्तरी जितनी बड़ी एक जड़ाऊ पिन लगा रखी थी। जाहिर है एक ओर खड़ी वह किसी चीज का इंतजार कर रही थी। रस्कोलनिकोव ने अपना सम्मन बड़े बाबू के सामने सरका दिया। बड़े बाबू ने उस पर एक नजर डाली और बोला, 'एक मिनट ठहरो,' और फिर उस शोकग्रस्त महिला के काम की ओर ध्यान देने लगा।

रस्कोलनिकोव की जान में जान आई। 'वह बात नहीं हो सकती!' धीरे-धीरे उसमें फिर से भरोसा आता गया। वह अपने आपको हौसला और सुकून रखने के लिए प्रेरित करता रहा।

'किसी भी बेवकूफी से एक जरा-सी लापरवाही से मेरा सारा भाँडा फूट जाएगा! हुँह... कितनी बुरी बात है कि यहाँ एकदम हवा नहीं है,' वह अपने मन में कहता रहा, 'बड़ी घुटन है... सर पहले से भी ज्यादा... चकराने लगता है... और आदमी का दिमाग भी...'

उसे इस बात का एहसास था कि उसके अंदर एक भयानक तूफान मचा हुआ था। वह डर रहा था; ऐसा न हो कि उसे अपने आप पर काबू न रहे। उसने कोई चीज ढूँढ़ कर उस पर अपना ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की, कोई ऐसी चीज जिसका इन बातों से कोई संबंध न हो, लेकिन इसमें वह असफल रहा। फिर भी बड़े बाबू में उसे बड़ी दिलचस्पी पैदा हुई : वह उम्मीद करता रहा कि किसी तरह वह उसके अंदर की थाह पा ले और उनके चेहरे से कुछ अनुमान लगा ले। वह एक नौजवान शख्स था, लगभग बाईस साल का होगा, साँवला, चंचल चेहरा जिससे वह अपनी उम्र से बड़ा लगता था। वह बहुत फैशनेबुल कपड़े पहने था और बहुत बना-ठना हुआ था। बालों में अच्छी तरह कंघी करके बीच में से माँग निकाल रखी थी और क्रीम लगा कर उन्हें चिपका भी रखा था। उसने बहुत रगड़-रगड़ कर साफ की हुई उँगलियों पर कई अँगूठियाँ पहन रखी थीं और वास्कट में सोने की जंजीरें लगा रखी थीं। उसने एक विदेशी से, जो उस कमरे में था, फ्रांसीसी में कुछ शब्द कहे और उनका उच्चारण काफी सही ढंग से किया।

'आप बैठ जाइए लुईजा इवानोव्ना,' उसने लगे हाथ बढ़िया पोशाक पहने ऊदी-ऊदी चित्तियोंदार चेहरेवाली महिला से कहा, जो अभी तक खड़ी हुई थीं, गोया उनकी बैठने की हिम्मत न हो रही हो, हालाँकि उनकी बगल में ही एक कुर्सी पड़ी हुई थी।

'प्बी कंदाम1,' उन महिला ने कहा और बहुत आहिस्ता से, रेशम की सरसराहट के साथ उस कुर्सी पर बैठ गईं। उसकी सफेद लैस लगी आसमानी रंग की पोशाक मेज के पास से हवा भरे गुब्बारे की तरह लहराती हुई कुर्सी के चारों और फैल गई और उसने लगभग आधा कमरा घेर लिया। वह इत्र से महक रही थीं। लेकिन साफ मालूम हो रहा था कि आधा कमरा घेर लेने और इस तरह इत्र की खुशबू बिखेरने पर वह कुछ अटपटा महसूस कर रही थीं। हालाँकि उनकी मुस्कराहट में ढिठाई भी थी और गिड़गिड़ाहट भी, लेकिन साफ जाहिर हो रहा था कि वह कुछ बेचैन-सी हैं।

शोकग्रस्त महिला का काम आखिर खत्म हो गया और वह उठ खड़ी हुईं। अचानक कुछ शोर-गुल के साथ एक अफसर बहुत अकड़ता हुआ, हर कदम पर अपने कंधों को एक खास तरीके से झटकता हुआ अंदर आया। उसने अपनी बिल्ला लगी टोपी मेज पर फेंकी और एक आरामकुर्सी पर बैठ गया। उसे देखते ही वह बनी-सँवरी महिला फुदक कर उठ खड़ी हुईं और गद्गद हो कर, झुक-झुक कर उसे सलाम करने लगीं; लेकिन अफसर ने उनकी ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया, और उसके सामने उसकी भी दोबारा बैठने की हिम्मत नहीं पड़ी। वह असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट था। उसकी मूँछें मेहँदी के रंग की थीं और चेहरे पर दोनों ओर आड़ी-आड़ी निकली हुई थीं। उसके नाक-नक्शे में हर चीज बेहद छोटी थी और उससे थोड़े-से अक्खड़पन के अलावा और किसी बात का पता नहीं चलता था। उसने तिरछी नजर से और कुछ गुस्से से रस्कोलनिकोव को देखा : रस्कोलनिकोव बहुत गंदे कपड़े पहने हुए था और अपनी अपमानजनक स्थिति के बावजूद उसके तेवर उसकी पोशाक से कोई मेल नहीं खा रहे थे। रस्कोलनिकोव अनजाने ही बड़ी देर तक और नजरें जमा कर उसे घूरता रहा, जिसकी वजह से वह निश्चित ही नाराज हो गया।

'क्या चाहिए तुम्हें?' वह चिल्लाया। साफ मालूम हो रहा था : उसे इस बात पर बड़ी हैरत थी कि ऐसे फटे-पुराने कपड़े पहननेवाला आदमी उसकी नजरों के रोब में नहीं आया था।

'मुझे यहाँ बुलाया गया था... सम्मन भेज कर...' रस्कोलनिकोव ने झिझकते हुए कहा।


1. धन्यवाद (जर्मन)।


'बकाया रकम की वसूली के लिए इस छात्र से,' बड़ा बाबू जल्दी से अपने कागजात की ओर से ध्यान हटा कर बीच में बोला। 'यह लो!' उसने एक दस्तावेज रस्कोलनिकोव की ओर बढ़ा दिया और उसके एक हिस्से की तरफ इशारा किया। 'पढ़ो! इसे।'

'रकम, कैसी रकम,' रस्कोलनिकोव ने सोच, 'लेकिन... इसका मतलब है... यह यकीनन वह वाला मामला नहीं है।' वह खुशी के मारे काँप उठा। अचानक उसने ऐसी गहरी राहत महसूस की कि बयान नहीं कर सकता था। सर से एक बोझ हट गया था।

'तो जनाब, आपसे आने को किस वक्त कहा गया था?' असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट दहाड़ा। न जाने क्यों उसकी नाराजगी लगातार बढ़ती जा रही थी। 'कहा गया था नौ बजे आने को, और अब बारह बज रहे हैं!'

'सम्मन अभी पंद्रह मिनट पहले मिला है,' रस्कोलनिकोव ने अफसर से ऊँचे स्वर में कहा, जो उसकी ओर पीठ किए हुए था। उसे खुद भी इस बात पर ताज्जुब हो रहा था कि अचानक उसे गुस्सा आ गया था और इसमें उसे कुछ आनंद भी मिल रहा था। 'यह क्या कम है कि तेज बुखार में भी मैं यहाँ चला आया।'

'मेहरबानी करके चीखिए मत!'

'मैं चीख नहीं रहा, मैं तो शांत भाव से बोल रहा हूँ; चीख आप रहे हैं मुझ पर। मैं कॉलेज में पढ़ता हूँ और किसी को इस बात की इजाजत नहीं देता कि वह मुझ पर चीखे।'

असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट को इतना ताव आया कि एक मिनट तक वह अटक-अटक कर बोलता रहा, इस तरह कि कुछ समझ ही में नहीं आता था कि क्या कह रहा है। वह अपनी कुर्सी से उछल कर खड़ा हो गया।

'खामोश रहिए जनाब! आप एक सरकारी दफ्तर में हैं,' बदतमीजी मत कीजिए, जनाब!'

'आप भी सरकारी दफ्तर में हैं,' रस्कोलनिकोव भी चिल्लाया, 'और आप चीखने के अलावा सिगरेट भी पी रहे हैं और इस तरह हम सब लोगों की तौहीन कर रहे हैं।' यह कह कर उसने अद्भुत आनंद महसूस किया।

बड़े बाबू ने मुस्करा कर उनकी ओर देखा। जाहिर था कि बिफरा हुआ असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट सिटपिटा गया।

'इससे आपको कोई मतलब नहीं!' आखिर वह अस्वाभाविक रूप से ऊँचे स्वर में चिल्लाया। 'लेकिन आपसे जो कहा जा रहा है। उसे लिख कर दीजिए। दिखा दो इन्हें, अलेक्सांद्र ग्रिगोरियेविच। आपके खिलाफ शिकायत है! आप अपना कर्जा नहीं चुकाते! खूब आदमी हैं आप भी!'

लेकिन रस्कोलनिकोव उसकी बात नहीं सुन रहा था। उसने बड़ी उत्सुकता से वह कागज ले लिया। उसे यह पता लगाने की जल्दी थी कि बात क्या है। उसने उस कागज को एक बार पढ़ा, दूसरी बार पढ़ा, लेकिन उसकी समझ में कुछ न आया।

'यह है क्या?' उसने बड़े बाबू से पूछा।

'प्रोनोट पर दिए गए पैसे की वसूली का सम्मन है। या तो सारे खर्चे, जुर्माने वगैरह के साथ भुगतान करो या लिख कर दे दो कि रकम कब तक अदा कर सकते हो, और साथ ही यह भी लिख कर दो कि पैसा चुकाए बिना राजधानी छोड़ कर कहीं जाओगे नहीं, और अपनी जायदाद न किसी को बेचोगे न छिपाओगे। लेनदार को तुम्हारी जायदाद बिकवा देने और तुम्हारे खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की छूट होगी।'

'लेकिन मैं... मैं तो किसी का कर्जदार नहीं!'

'इससे हमें कोई मतलब नहीं। यह हमारे सामने है एक सौ पंद्रह रूबल का प्रोनोट, पक्का कानूनी दस्तावेज, जिसकी मियाद पूरी हो चुकी है। यह हमारे पास वसूली के लिए लाया गया है। यह प्रोनोट तुमने नौ महीने पहले असेसर जारनीत्सिन की विधवा को दिया था, और विधवा जारनीत्सिन ने यह प्रोनोट चेबारोव नामक कोर्ट कौंसिलर को दे दिया था। इसलिए तुम्हारे नाम सम्मन जारी किया जाता है।'

'लेकिन वह तो मेरी मकान-मालकिन है!'

'तुम्हारी मकान-मालकिन है तो क्या हुआ?'

बड़े बाबू ने दया के भाव से मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा, गोया उस पर कुछ उपकार कर रहा हो। लेकिन उस मुस्कराहट में कुछ विजय का भाव भी था, गोया वह किसी ऐसे नौसिखिए पर मुस्करा रहा हो, जो पहली बार जाल में फँसा हो - गोया उससे कहना चाहता हो : 'कहो, अब कैसा लग रहा है?' लेकिन अब रस्कोलनिकोव को प्रोनोट की, वसूली के सम्मन की, क्या परवाह थी क्या यह सब कुछ अब इस लायक रह गया था कि उसकी चिंता की जाए, उसकी ओर ध्यान दिया जाए वह वहाँ खड़ा रहा, उसने पढ़ा, उसने सुना, उसने जवाब दिया, उसने खुद सवाल भी पूछे, लेकिन सब कुछ मशीनी ढंग से सुरक्षा की, एक बहुत बड़े खतरे से छुटकारा पाने की, विजय भरी भावना उस पल उसकी सारी आत्मा में व्याप्त थी। उसमें भविष्य का कोई अनुमान नहीं था, कोई विश्लेषण नहीं था, कोई अटकल, कोई शंका न थी, कोई सवाल नहीं था। वह संपूर्ण, प्रत्यक्ष, शुद्ध रूप से सहज उल्लास का पल था। लेकिन उस पल थाने में ऐसी घटना हुई जैसे बिजली टूटी हो। रस्कोलनिकोव की बदतमीजी पर असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट अभी तक तिलमिला रहा था, अभी तक गुस्से से खौल रहा था और स्पष्ट था कि अपनी आहत प्रतिष्ठा को फिर से कायम करने के लिए बेचैन था। वह उस बेचारी बनी-सँवरी महिला पर झपट पड़ा, जो दफ्तर में उसके घुसने के समय से ही बेहद बेवकूफी भरी मुस्कराहट के साथ उसे घूरे जा रही थीं।

'सुनो फलाँ-फलाँ-फलाँ,' वह अचानक अपनी पूरी आवाज से चिल्लाया (शोकग्रस्त महिला दफ्तर से जा चुकी थीं), 'तुम्हारे घर पर कल रात हो क्या रहा था? क्यों, फिर वही बेहूदगी तुम्हारी वजह से पूरे मोहल्ले की नाक में दम है। फिर वही लड़ाई-झगड़ा, पीना-पिलाना। जेल जाना चाहती हो क्या मैं दस बार तुम्हें चेतावनी दे चुका हूँ कि ग्यारहवीं बार नहीं छोड़ूँगा। और तुम... फिर... फिर वही हरकत करने लगीं... बदचलन कहीं की!'

ताज्जुब के मारे रस्कोलनिकोव के हाथों से कागज गिर पड़ा। उसने बौखला कर उस बनी-सँवरी महिला को देखा, जिसके साथ ऐसा अभद्रता का व्यवहार किया जा रहा था। लेकिन जल्दी ही उसकी समझ में आ गया कि यह सारा किस्सा क्या था, और उसे वाकई इस पूरे कांड में मजा आने लगा। वह मजे ले कर सुनने लगा। उसका जी चाहा कि जी खोल कर खूब हँसे... वह बेहद तनाव से भरा हुआ था।

'इल्या पेत्रोविच!' बड़े बाबू ने चिंतित हो कर कुछ कहना शुरू किया था लेकिन बीच में ही रुक गया, क्योंकि वह अपने अनुभव से जानता था कि भड़के हुए असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट को जोर-जबर्दस्ती से काबू में नहीं किया जा सकता।

जहाँ तक उस बनी-ठनी महिला का सवाल था, शुरू में वह इस तूफान के आगे जरूर काँपी। लेकिन अजीब बात थी कि गालियों की विविधता और उनकी सख्ती जितनी बढ़ती जाती थी, वह उतनी ही विनम्र होती जाती थीं और उस रोबदार असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट पर जो मुस्कराहटें वह बिखेर रही थीं, उनमें रिझाने का गुण और बढ़ता जाता था। वह बड़ी बेचैनी से कसमसा रही थीं, लगातार झुक-झुक कर सलाम कर रही थीं, बड़ी बेताबी से अपनी बात कहने के मौके की ताक में थीं, और आखिरकार वह मौका उसे मिल भी गया।

'अपुन का घर में किसी माफिक शोर-फोर या दंगा-पंगा नईं होएला, कप्तान साब,' उसने एक साँस में अपनी सारी बात पटर-पटर कही। लगता था जैसे मटर के दाने टपक रहे हों। वह बड़े भरोसे के साथ रूसी बोल रही थी, हालाँकि उसके उच्चारण में गहरा जर्मन पुट था, 'होर हंगामे भी कोई नहीं होएला, और साब बहादुर नशे में टाइट आएला होता। हम सब बात सच्ची-सच्ची बोलता, कप्तान साब। अपुन का राई-रत्ती भी मिश्टेक नईं होएला उसमें... अपुन का घर सरीफ लोगों का घर होता और सारा बात पूरा जैसा सरीफ लोग का होता कप्तान साहब। अपुन तो खुद नईं माँगता कबी कोई दंगा-पंगा, शोर-फोर होने का। पन वह आया होता एकदम नसे में टाइट और बोलने को लगा तीन बोतल और चाहिए; वह एक टाँग उठाया ऊपर और पाँव से पियानो को बजाने लगा। सरीफ का घर में कोई ऐसा करने सकता! अपुन का फस्ट क्लास पियानो खलास कर डाला। ऐसा बदतमीजी नईं करना माँगता सो, अपुन उसको साफ-साफ बोला यह बात। पन वह एक बोतल उठाता, इसको मारता, उसको मारता। अपुन क्या करने सकता... दरबान को ताबड़तोड़ बुलाया, और कार्ल बरोबर आया। पन, साब, कार्ल को वह पकड़ा और उसका आँख को चोट करने होता और हेनरिएट का भी आँख को चोट करने मारता होता और अपुन का गाल ऊपर पाँच तमाचा... तड़-तड़ मारने होता। कप्तान साब, किसी सरीफ का घर में कोई ऐसा करने को बोलता कबी। अपुन तो रोने को लगा, पन वह नहर साइड का खिड़की खोलने को होता और खिड़की के पास में जाने होता और सुअर की माफिक घुर्र-घुर्र करने होता; कैसा बड़ा सरम का बात होता। खिड़की के सामने में खड़ा होने का... फेर सड़क की साइड मुँह उठाने का और सुअर की माफिक घुर्र-घुर्र बोलने का। ऐसे भी करने सकता कोई जंटलमैन आदमी! छिः-छिः! कार्ल उनका कोट पकड़ लेने होता और खिड़की का साइड से इधर को घसीटने होता... अपुन सच्ची-सच्ची बोलता, कप्तान साब, इसमें कोट उसका पीछू से छोटा-सा फट जाता होता। बस वह क्या बमकने को होएला। बोलने को लगा कोट फाड़ा तो पंद्रह रूबल जुर्माना देने को होता। और कप्तान साब, उसको पाँच रूबल भी दिएला, कोट फाटने का। बिलकुल जंटलमैन सरीफ आदमी नहीं होता वह और सारा खिट-पिट जो होएला उसी का कारन से। अपुन को बोलता होता कि अपुन का बारे में सारा बुरा-बुरा बात पेपर में लिखने का, काहे से कि वह सारा पेपर को अपुन का बारे में कुछ भी लिखने को सकता।'

'तो वह कलमची था?'

'हाँ, कप्तान साब, बरोबर जंटलमैन आदमी नहीं वो... किसी सरीफ आदमी का घर में।'

'बस-बस! बहुत हो गया! मैं तुझे पहले भी बता चुका हूँ...'

'इल्या पेत्रोविच!' बड़े बाबू ने एक बार फिर अर्थपूर्ण ढंग से कहा। असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट ने तेजी से उसे एक नजर देखा; बड़े बाबू ने अपना सर थोड़ा-सा हिला दिया।

'...तो शरीफों की शरीफ लुईजा इवानोव्ना, मैं यह बात तुम्हें बताए देता हूँ और आखिरी बार बता रहा हूँ,' असिस्टेंट का चरखा चलता रहा। 'अगर फिर कभी तुम्हारे शरीफोंवाले घर में कोई हंगामा हुआ तो मैं तुम्हीं को, वो जिसे शरीफों की जबान में कहते हैं न, हवालात में डलवा दूँगा। सुन लिया तो एक आलिम-फाजिल आदमी ने, कलमची लेखक ने, 'शरीफोंवाले घर' में अपना कोट फटने पर पाँच रूबल वसूल कर लिए... कमाल के होते हैं ये कलमची लोग भी!' और उसने रस्कोलनिकोव पर फिर तिरस्कारभरी नजर डाली। 'अभी उस दिन एक रेस्तराँ में हंगामा हुआ। एक लेखक साहब ने खाना खा लिया और पैसे नहीं निकाले थे; बोले : 'मैं एक व्यंग्य तुम्हारे बारे में लिखूँगा।' इसी तरह एक स्टीमर पर पिछले हफ्ते ऐसे ही एक साहब ने एक सिविल कौंसिलर साहब के खानदान, उनकी बीवी-बेटी के बारे में निहायत बेहूदा बातें कीं। और इसी बिरादरी के एक सज्जन को अभी उस दिन मिठाई की एक दुकान से निकाला गया था। ये लोग होते ही ऐसे हैं, लेखक हुए, साहित्यकार हुए, छात्र हुए, ढिंढोरची हुए... छिः! तुम फूटो अब यहाँ से! मैं खुद तुम्हारे यहाँ एक दिन मुआइना करने आऊँगा। सो इसका खयाल रखना! सुन लिया?'

बड़े अदब से जल्दी-जल्दी हर तरफ झुक कर सलाम करती हुई लुईजा इवानोव्ना पीछे हटते-हटते दरवाजे तक पहुँच गई। लेकिन दरवाजे पर वह खिले हुए किताबी चेहरे और घने सुनहरे गलमुच्छोंवाले एक खूबसूरत अफसर से टकरा गई। यह उसी मोहल्ले के सुपरिंटेंडेंट थे, निकोदिम फोमीच। लुईजा इवानोव्ना ने जल्दी से लगभग जमीन तक झुक कर सलाम किया और छोटे-छोटे कदमों से तितली की तरह पर फड़फड़ाती, दफ्तर के बाहर निकल गई।

'फिर वही गरज, वही कड़क, वही तूफान!' निकोदिम फोमीच ने इल्या पेत्रोविच से शरीफाना और दोस्ताना अंदाज में कहा। 'फिर तुम भड़क उठे, फिर तुम्हारा ज्वालामुखी फूट पड़ा! मैंने सीढ़ियों पर से सुना!'

'किसे परवाह है!' इल्या पेत्रोविच ने शब्दों को खींच कर शरीफाना लापरवाही से कहा और कुछ कागज ले कर, हर कदम पर अकड़ से कंधों को झटका देता हुआ दूसरी मेज पर चला गया। 'जरा तुम्हीं इस मामले को देखो : एक लेखक या छात्र या जो कभी छात्र रह चुका है, अपना कर्ज अदा नहीं करता, प्रोनोट लिख कर दे रखे हैं, कमरा खाली नहीं करता, और उसके खिलाफ लगातार शिकायतें आती रहती हैं, और ऊपर से उसे अपने सामने मेरे सिगरेट पीने पर भी एतराज है! खुद कमीनों जैसी हरकतें करते हैं हजरत, जरा इनकी सूरत तो देखो। ये हैं वह साहब, कैसी खूबसूरत शक्ल पाई है!'

'गरीबी कोई ऐब नहीं है दोस्त, लेकिन यह बड़ी आसानी से भड़क उठता है, बारूद की तरह, और मैं समझता हूँ कि किसी बात पर चिढ़ गया होगा। और शायद आप,' सुपरिंटेंडेंट रस्कोलनिकोव से बड़ी शिष्टता से बात कर रहा था, 'आपने भी बुरा माना होगा और अपने आपको काबू में न रख सके होंगे। लेकिन मैं आपको यकीन दिलाता हूँ साहब, बुरा मानने की कोई तुक नहीं थी, यह असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट आदमी बड़ा लाजवाब है। बस मिजाज का गर्म है, बहुत जल्दी भड़क उठता है! जल्दी भड़क उठता है, गुस्सा फूट पड़ता है और फिर तो जल कर राख हो जाता है! फिर थोड़ी ही देर में सब मामला ठंडा भी हो जाता है! बुनियादी तौर पर, दिल का हीरा आदमी है। रेजिमेंट में इसका नाम लोगों ने रख छोड़ा था : बारूदी लेफ्टिनेंट1...'

'और रेजिमेंट थी भी कैसी!' इल्या पेत्रोविच अपने मतलब की इस दोस्ताना छेड़छाड़ पर खुश हो कर चिल्लाया, हालाँकि उसका मुँह अब भी कुछ फूला हुआ था।


1. उसका असली नाम पोरोख था, जिसका अर्थ 'बारूद' होता है।


अचानक रस्कोलनिकोव का जी चाहा कि उन सबसे कोई खास तौर पर खुशगवार बात कहे।

'माफ कीजिएगा, कप्तान साहब,' उसने एकाएक निकोदिम फोमीच को संबोधित करके कहना शुरू किया, 'आप अपने आपको मेरी जगह पर रख कर देखिए, मैंने अगर कोई बदतमीजी की हो, तो मैं माफी माँगने को तैयार हूँ। मैं एक गरीब छात्र हूँ, बीमार और गरीबी से चकनाचूर।' (उसने 'चकनाचूर' शब्द का ही इस्तेमाल किया था।) 'अभी पढ़ाई भी नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि आजकल मैं अपना खर्च तक नहीं चला सकता। लेकिन मुझे पैसा मिलनेवाला है... मेरी माँ और बहन रियाजान प्रांत में रहती हैं... वे मुझे पैसा भेजेंगी, तब मैं... भुगतान कर दूँगा। मेरी मकान-मालकिन दिल की बड़ी नेक औरत है, लेकिन मेरे ट्यूशन छूट जाने की वजह से और पिछले चार महीने से मुझसे कुछ न मिलने की वजह से इतनी तंग आ चुकी है कि मेरे लिए ऊपर खाना भेजना भी बंद कर दिया है ...और यह प्रोनोट तो एकदम मेरी समझ में नहीं आता। वह मुझसे इस प्रोनोट का भुगतान करने को कहती है। मैं कहाँ से अदा करूँ आप खुद ही फैसला कीजिए...'

'लेकिन हमें इससे कोई मतलब नहीं, समझे न,' बड़े बाबू ने अपनी राय दी।

'हाँ, आपकी यह बात मैं मानता हूँ। लेकिन मुझे पूरी बात समझाने का मौका दीजिए...' रस्कोलनिकोव ने फिर कहा। वह अभी तक निकोदिम फोमीच को संबोधित कर रहा था, लेकिन अपनी बात इल्या पेत्रोविच के कानों तक भी पहुँचा देने की कोशिश कर रहा था, हालाँकि वह लगातार अपने कागजात को उलटने-पुलटने में व्यस्त मालूम होता था और तिरस्कार के साथ उसकी ओर जरा-सा भी ध्यान नहीं दे रहा था। 'मैं आपको इतना बता दूँ कि मैं उसके यहाँ लगभग तीन साल से रह रहा हूँ, जब मैं एक कस्बे से आया तभी से, और शुरू में... शुरू-शुरू में... मेरे लिए यह बात मान लेने में बुराई ही क्या है, शुरू में मैंने उसकी बेटी से शादी करने का वादा भी किया था। मैंने जबानी वादा किया था, और अपनी मर्जी से किया था... अच्छी लड़की थी... सचमुच मुझे अच्छी लगती थी, हालाँकि मुझे उससे कोई प्यार नहीं था... सच पूछिए तो जवानी के जोश का मामला था... मेरे कहने का मतलब यह कि मेरी मकान-मालकिन उन दिनों मुझे बेझिझक कर्ज दिया करती थी, और मेरे दिन भी... मैं बहुत लापरवाही बरतता था...'

'आपकी निजी जिंदगी की ये बातें आपसे किसने पूछीं साहब, हमारे पास बेकार की बातों में खोटा करने के लिए वक्त नहीं है।' इल्या पेत्रोविच बड़ी रुखाई से और कुछ जोर दे कर बात काट कर बोला। रस्कोलनिकोव ने उसे गर्मजोशी से बीच में ही रोक दिया, हालाँकि अचानक उसे ऐसा लगा कि उसे बोलने में कठिनाई हो रही थी।

'लेकिन मुझे यह तो कहने दीजिए... कि यह सब कुछ कैसे हुआ... हालाँकि अपनी हद तक... आपकी यह बात मैं मानने को तैयार हूँ कि... यह गैर-जरूरी है। लेकिन एक साल हुआ वह लड़की टाइफस से मर गई। मैं पहले की तरह वहीं रहता रहा, और जब मेरी मकान-मालकिन घर बदल कर इस नई जगह में आई तो मुझसे कहा... और बड़े दोस्ताना ढंग से कहा... कि उसे तो मुझ पर पूरा भरोसा है पर फिर भी मैं एक सौ पंद्रह रूबल का प्रोनोट लिख कर दे दूँ, उस पूरी रकम का जो मेरी तरफ निकलती थी। उसने कहा कि अगर मैं यह प्रोनोट लिख कर दे दूँ, तो वह मुझ पर फिर जितना भी मैं चाहूँगा, कर्ज दे देगी, और यह कि वह तब तक उस प्रोनोट को हरगिज-हरगिज - ये खुद उसके शब्द थे - इस्तेमाल नहीं करेगी, जब तक कि मैं पैसा चुकाने की हालत में न हो जाऊँ... और अब, जबकि मेरे ट्यूशन छूट गए हैं और मेरे पास खाने तक को नहीं है, उसने मेरे ऊपर यह नालिश कर दी है। मैं इसे क्या कहूँ?'

'इस दर्दभरी दास्तान से हमें कोई सरोकार नहीं है,' इल्या पेत्रोविच बड़े रूखेपन से बीच में बोल पड़ा। 'आपको लिख कर पक्का वादा करना होगा; जहाँ तक आपके इश्क-मुहब्बत के किस्सों और इन दुख भरी दास्तानों का सवाल है, हमें उनसे कोई मतलब नहीं है।'

'जाने दो... तुम जरूरत से ज्यादा सख्ती कर रहे हो,' निकोदिम फोमीच ने मेज पर बैठते हुए बुदबुदा कर कहा और वह भी कुछ लिखने लगा। वह कुछ शर्मिंदा-सा लग रहा था।

'लिखो,' बड़े बाबू ने रस्कोलनिकोव से कहा।

'क्या लिखूँ?' उसने झल्ला कर पूछा।

'मैं बताता हूँ।'

रस्कोलनिकोव को लगा कि उसके भाषण के बाद बड़े बाबू उसके साथ ज्यादा बेरुखी और हिकारत के साथ पेश आ रहा था। लेकिन अजीब बात यह थी कि अचानक उसे लगा उसे किसी की राय की रत्ती भर भी परवाह नहीं रह गई थी। यह विरक्ति उसमें पलक झपकते, एक पल में, पैदा हो गई थी। अगर उसने जरा भी सोचने की कोशिश की होती तो उसे इस बात पर सचमुच ताज्जुब होता कि अभी एक ही मिनट पहले उन लोगों से वह उस तरह की बातें कर ही कैसे सका, उन पर ही भावनाएँ थोप कैसे सका फिर ये भावनाएँ भी पैदा कहाँ से हुई थीं अगर उस वक्त उस कमरे में पुलिस अफसरों की बजाय उसके अपने करीबी दोस्त-रिश्तेदार भी होते, तो उसके पास उनसे कहने के लिए इनसानोंवाली एक भी बात न होती। उसका दिल किस कदर खाली हो चुका था। उसकी आत्मा में चिरस्थायी अकेलापन और दुराव की संवेदना चेतन रूप धारण करती जा रही थी। उसके मन में यह विरक्ति पैदा होने की वजह न तो इल्या पेत्रोविच के सामने व्यक्त किए गए भावों की तुच्छता थी, और न ही उस पर एक पुलिस अफसर की विजय की तुच्छता। आह, लेकिन अब उसे स्वयं अपनी तुच्छता से, अहंकार की इन छोटी-मोटी बातों से, अफसरों से, जर्मन औरतों से, कर्जों से, पुलिस थानों से क्या लेना-देना था उस पल अगर उसे जिंदा जलाए जाने की सजा भी सुना दी जाती, तब भी वह विचलित न होता, वह सजा आखिर तक सुनता भी नहीं। उसे कुछ ऐसा हो रहा था, जो पहले कभी नहीं हुआ था, जो अचानक हो रहा था और जिससे वह एकदम परिचित नहीं था। ऐसा नहीं था कि वह इस बात को समझ रहा था, लेकिन संवेदना की भरपूर तीव्रता के साथ वह इस बात को साफ महसूस कर रहा था कि जिस तरह के उद्गार अभी कुछ देर पहले फूट पड़े थे, वह थाने के लोगों के आगे अब कभी उस तरह के भावुक उद्गारों का या किसी चीज का भी सहारा ले कर गिड़गिड़ा नहीं सकता था, और यह कि अगर वे पुलिस के अफसर न हो कर उसके अपने भाई-बहन होते तो भी किसी भी परिस्थिति में उनके सामने गिड़गिड़ाने का कोई सवाल नहीं उठता था। उसने पहले कभी ऐसी अजीब और भयानक संवेदना अनुभव नहीं की थी। पर सबसे अधिक दुखदायी बात यह थी कि यह एक संकल्पना या विचार की अपेक्षा एक संवेदना अधिक थी। एक प्रत्यक्ष संवेदना, अपने जीवन में उसने जितनी संवेदनाएँ झेली थीं उन सबसे अधिक दुखदायी!

बड़ा बाबू उसे बँधा-टँका बयान लिखाने लगा : कि वह अभी रकम अदा नहीं कर सकता, कि आगे चल कर यह रकम चुका देने का वादा करता है, कि वह शहर छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा, न अपनी जायदाद बेचेगा, न किसी के नाम करेगा, वगैरह-वगैरह।

'लेकिन तुमसे तो लिखा भी नहीं जा रहा है, कलम भी ठीक से नहीं पकड़ पा रहे हो,' बड़े बाबू ने बड़े कौतूहल से रस्कोलनिकोव को देखते हुए कहा। 'तबीयत ठीक नहीं है?'

'हाँ... और चक्कर भी आ रहा है... आप बोलते जाइए!'

'बस इतना ही। इस पर दस्तखत कर दो।'

बड़े बाबू ने कागज ले लिया, और किसी दूसरे काम की ओर ध्यान देने लगा।

रस्कोलनिकोव ने कलम लौटाया, लेकिन उठ कर चले जाने की बजाय अपनी कुहनियाँ मेज पर टिका दीं और हाथों से सर को कस कर थाम लिया। लग रहा था जैसे उसकी खोपड़ी में कोई कील ठोंक रहा है। अचानक एक अजीब विचार उसके मन में उठा, कि उठ कर फौरन निकोदिम फोमीच के पास जाए, कल जो कुछ हुआ था, सब साफ-साफ बता दे, फिर उसके साथ अपने कमरे पर जाए और उसे कोनेवाले खोखल में रखी हुई सारी चीजें दिखा दे। यह भाव इतना प्रबल था कि वह उसे पूरा करने के लिए अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। 'क्या यह न होगा कि एक पल इसके बारे में सोच लूँ' उसके दिमाग में बिजली की तरह यह विचार कौंधा। 'नहीं, बिना सोचे ही सारा बोझ उतार फेंकना अच्छा रहेगा!' लेकिन वह पत्थर की तरह उसी जगह गड़ा रह गया। निकोदिम फोमीच बड़ी तल्लीनता से इल्या पेत्रोविच से कुछ बातें कर रहे थे, और उनके शब्द उसके कानों तक पहुँचे :

'हो ही नहीं सकता ऐसा, दोनों छोड़ दिए जाएँगे। पहली बात यह कि सारी दलील अपनी काट खुद करती है। अगर यह काम उन्होंने किया होता तो दरबान को बुला कर क्यों लाते अपने खिलाफ मुखबिरी करने के लिए या आँख में धूल झोकने के लिए लेकिन यह तो हद से ज्यादा धूर्तता की बात होती! और फिर उस पेस्त्र्याकोव को दोनों दरबानों ने और एक औरत ने फाटक से अंदर आते हुए देखा था। वह तीन दोस्तों के साथ आया था, जिन्होंने उसे फाटक पर ही छोड़ा था, और उसने अपने दोस्तों के सामने दरबानों से किराए के किसी कमरे के बारे में पूछा था। सो तुम्हीं बताओ : अगर वह इस इरादे से जा रहा होता तो दरबानों से कमरे की बात पूछता जहाँ तक कोख का सवाल है, ऊपर बुढ़िया के यहाँ जाने से पहले वह नीचे आधे घंटे तक सुनार के यहाँ बैठा रहा और उसके यहाँ से वह ठीक पौने आठ बजे उठा। जरा सोचो...'

'लेकिन माफ कीजिएगा, अपने बयान में ये दोनों जो एक-दूसरे से उलटी बातें हैं, उनका क्या जवाब आपके पास है वे खुद कहते हैं कि उन्होंने दरवाजा खटखटाया और दरवाजा बंद था, लेकिन तीन मिनट बाद ही जब दरबान को ले कर ऊपर गए तो कुंडी खुली हुई थी।'

'असल बात यही तो है। हत्यारा वहीं होगा और दरवाजा अंदर से बंद कर रखा होगा। सो कोख अगर इतना बड़ा गधा न होता कि दरबान को खोजने खुद भी चला जाता तो वे लोग हत्यारे को पकड़ भी लेते। उसने जो वक्त बीच में मिला, उसका फायदा उठाया और नीचे उतर कर, किसी तरह उन्हें चकमा दे कर खिसक गया। कोख कसमें खा-खा कर कहता है : अगर मैं वहाँ मौजूद होता तो वह झपट कर बाहर निकलता और उसी कुल्हाड़ी से मुझे भी मार डालता। अब वह जान बचने पर चर्च में प्रसाद बँटवाएगा - ही-ही-ही!'

'और किसी ने हत्यारे को देखा तक नहीं?'

'उनका उसे न देखना कोई बड़ी बात नहीं है। वह जगह तो एकदम भानुमती का पिटारा है,' बड़े बाबू ने कहा। वह सारी बातें सुन रहा था।

'बात साफ है, एकदम साफ,' निकोदिम फोमीच ने जोश से अपनी बात दोहराई।

'नहीं बिलकुल साफ नहीं है,' गोया इल्या पेत्रोविच ने बात का निचोड़ पेश किया।

रस्कोलनिकोव अपना हैट उठा कर दरवाजे की ओर चला लेकिन वहाँ तक पहुँच नहीं पाया...

होश आया तो उसने देखा कि वह एक कुर्सी पर बैठा हुआ है, किसी ने दाहिनी ओर से उसे सहारा दे रखा है, एक दूसरा आदमी बाईं ओर पीले रंग के गिलास में पीले रंग का पानी लिए खड़ा है, और निकोदिम फोमीच सामने खड़ा उसे गौर से देख रहा है। वह कुर्सी से उठा।

'क्या बात है तबीयत खराब है क्या?' निकोदिम फोमीच ने कुछ तीखेपन से पूछा।

'दस्तखत करते वक्त कलम भी ठीक से पकड़ नहीं पा रहा था,' बड़े बाबू ने अपनी जगह बैठते हुए और अपना काम फिर से सँभालते हुए कहा।

'बहुत दिन से बीमार हो क्या?' इल्या पेत्रोविच जहाँ कुछ कागज उलट-पुलट कर देख रहा था, वहीं से ऊँची आवाज में बोल उठा। जब रस्कोलनिकोव बेहोश हुआ था, तब वह उसे देखने जरूर उठा था, लेकिन उसके होश आते ही वह फिर अपनी जगह वापस चला गया था।

'कल से,' रस्कोलनिकोव ने बुदबुदा कर जवाब दिया।

'कल तुम कहीं बाहर गए थे?'

'हाँ।'

'इस बीमारी की हालत में?'

'हाँ।'

'किस वक्त?'

'कोई सात बजे।'

'मैं क्या पूछ सकता हूँ कि कहाँ गए थे?'

'सड़क पर।'

'दो-टूक और साफ-साफ।'

रस्कोलनिकोव ने, जिसका रंग एकदम सफेद पड़ गया था, तीखे स्वर में, कुछ झटके के साथ जवाब दिए थे। इल्या पेत्रोविच के घूरने के बावजूद उसने अपनी जलती हुई काली-काली आँखें नहीं झुकाई थीं।

'उससे सीधे तो खड़ा हुआ नहीं जा रहा, और तुम...' निकोदिम फोमीच ने कुछ कहना शुरू किया।

'कोई बात नहीं,' इल्या पेत्रोविच ने कुछ अजीब ढंग से फैसला सुनाया। निकोदिम फोमीच कुछ और भी जोड़नेवाला था लेकिन बड़े बाबू पर एक नजर डालने के बाद, जो उसे नजरें जमाए घूर रहा था, वह कुछ नहीं बोला। कमरे में एक अजीब-सी खामोशी फैल गई थी।

'अच्छी बात है फिर,' इल्या पेत्रोविच ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, 'हम तुम्हें अब और ज्यादा नहीं रोकेंगे।'

रस्कोलनिकोव बाहर चला आया। वहाँ से जाते हुए उसने उन लोगों को बड़ी उत्सुकता से आपस में बातें करते हुए सुना; निकोदिम फोमीच की सवाल करती हुई आवाज सबकी आवाजों के ऊपर सुनाई दे रही थी। सड़क पर पहुँच कर उसकी बेहवासी एकदम दूर हो चुकी थी।

'तलाशी होगी, यकीनन तलाशी होगी,' उसने जल्दी-जल्दी घर की ओर कदम बढ़ाते हुए मन में दोहराया 'बदमाश कहीं के! उन्हें मुझ पर शक हो गया है!' एक बार फिर पहलेवाली दहशत ने आन दबोचा।