अपराध और दंड / अध्याय 2 / भाग 2 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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'और अगर उस जगह की तलाशी हो भी चुकी हो तो मैं अपने कमरे पर पहुँचूँ और वे लोग वहाँ मौजूद हों तो?'

उसका कमरा आ गया था। उसमें कुछ भी नहीं था, कोई भी नहीं था। किसी ने उसमें झाँका तक नहीं था। नस्तास्या तक ने किसी चीज को हाथ नहीं लगाया था। लेकिन, हे भगवान, वह खोखल में उन सब चीजों को छोड़ कर चला कैसे गया था!

वह लपक कर कोने में पहुँचा, कागज के नीचे अपना हाथ डाला, सब चीजें बाहर निकालीं, और उन्हें अपनी जेबों में भर लिया। कुल मिला कर आठ नग थे : कान की बालियों या इसी तरह की किसी और चीज की दो छोटी-छोटी डिबियाँ - उसने ठीक से देखा भी नहीं; फिर चमड़े के चार छोटे-छोटे केस थे। एक जंजीर भी थी, जिसे अखबार के एक टुकड़े में यूँ ही लपेटा हुआ था। अखबार में ही लिपटी हुई एक और चीज थी, जो कोई तमगा मालूम होती थी...

उसने उन सब चीजों को अपने ओवरकोट की अलग-अलग जेबों में और अपने पतलून की बच रही दाहिनी जेब में रख लिया और इस बात की पूरी कोशिश की कि उन पर किसी की नजर न पड़े। बटुआ भी ले लिया। फिर दरवाजा खुला छोड़ कर वह कमरे से बाहर निकल गया।

वह जल्दी-जल्दी सधे कदमों के साथ चल रहा था। हालाँकि वह पूरी तरह टूटा हुआ महसूस कर रहा था पर उसकी सारी चेतनाएँ सजग थीं। पीछा किए जाने का डर लगा हुआ था; वह डर रहा था कि अभी आधे घंटे या पंद्रह मिनट में ही उसका पीछा करने का हुक्म जारी हो जाएगा, इसलिए उसे सारे सबूत उससे पहले ही, हर कीमत पर छिपा देने चाहिए। जब तक उसके शरीर में थोड़ी-बहुत ताकत बाकी थी, जब तक उसकी अक्ल थोड़ा-बहुत काम कर रही थी, उसे सब कुछ ठीक कर देना चाहिए... लेकिन वह जाए तो कहाँ

उसका इरादा बहुत पहले ही पक्का हो चुका था, 'उन्हें नहर में फेंक दूँगा, सारे सबूत पानी में छिप जाएँगे और किस्सा ही खत्म हो जाएगा।' यह फैसला उसने रात को सरसाम की हालत में ही कर लिया था, जब कई बार उसके दिल में यह जोश पैदा हुआ था कि उठे, चल दे और जल्दी-से-जल्दी उन सब चीजों से छुटकारा पा ले। लेकिन उनसे छुटकारा पाना टेढ़ी खीर निकला।

वह आधे घंटे तक या उससे भी ज्यादा समय तक एकतेरीनिंस्की नहर के किनारे टहलता रहा। उसने कई बार उन सीढ़ियों को देखा जो पानी की सतह तक चली गई थीं, लेकिन अपनी योजना पूरी करने की बात वह सोच भी नहीं सका। या तो सीढ़ियों के छोर पर कोई-न-कोई बेड़ा खड़ा होता था या औरतें वहाँ बैठी कपड़े धो रही होती थीं, या कोई न कोई नाव वहाँ लगी होती थीं, और हर जगह लोगों के झुंड मँडराते होते थे। इसके अलावा किनारे पर हर तरफ से उसे देखा जा सकता था और उसको पकड़ा जा सकता था। किसी का इरादा करके नीचे उतरना, वहाँ रुकना और पानी में कोई चीजें फेंकना शक पैदा कर सकता था। और अगर डब्बे डूबने की बजाय तैरते रहे तो वे तैरेंगे तो जरूर। हर कोई देखेगा। यूँ भी, जो उसे रास्ते में मिलता था वह उसे घूरता हुआ और गौर से उसे देखता हुआ ही मालूम होता था, गोया उसे उस पर नजर रखने के अलावा कोई काम न हो। 'ऐसा क्यों है या यह सिर्फ मेरा वहम है' उसने सोचा।

उसे आखिरकार यह बात सूझी कि नेवा नदी पर जाना ही सबसे सही होगा; वहाँ इतने सारे लोग नहीं होते, उस पर लोगों की नजर भी कम पड़ेगी, और वहाँ हर तरह से ज्यादा सुविधा रहेगी। सबसे बड़ी बात यह कि वह जगह और भी दूर थी। उसे ताज्जुब हो रहा था कि वह पूरे आधे घंटे तक इस खतरनाक जगह में परेशानी और चिंता में डूबा फिरता रहा और उसे यह बात नहीं सूझी! यह आधा घंटा उसने एक बेतुकी योजना में खो दिया था, महज इसलिए कि वह उसे सरसाम की हालत में सूझ गई थी! वह बदहवास होता जा रहा था और हर बात जल्दी ही भूल जाता था; उसे इस बात का एहसास हुआ। उसे अब जल्दी करनी ही होगी।

वह व. प्रॉस्पेक्ट से होता हुआ नेवा की ओर चला, लेकिन रास्ते में उसे एक और बात सूझ गई : 'नेवा की ओर क्यों? पानी में क्यों? क्या ज्यादा बेहतर यह न होगा कि कहीं और दूर निकल चलें, शायद द्वीपों की ओर, और वहाँ किसी सुनसान जगह पर, जंगल में या किसी झाड़ी में, इन चीजों को छिपा दें और पहचान के लिए उस जगह पर कोई निशान लगा दें' यूँ तो वह महसूस कर रहा था कि उसमें साफ-साफ कोई बात तय करने की क्षमता नहीं है, फिर भी उसे यह विचार बहुत जँचा।

लेकिन संयोग ने उसे वहाँ तक पहुँचने नहीं दिया। व. प्रॉस्पेक्ट से निकल कर चौक की तरफ आते वक्त उसे बाईं ओर एक गलियारा दिखाई दिया, जो दो सपाट दीवारों के बीच से हो कर एक दालान की ओर जाता था। दाहिनी ओर एक चौमंजिले मकान की सपाट, बिना पुती दीवार दालान में दूर तक चली गई थी। बाईं ओर उसके समानांतर लकड़ी का बड़ा-सा बाड़ा दालान में कोई बीस कदम की दूरी तक जा कर अचानक बाईं ओर को घूम गया था। यह जगह चारों ओर से घेर कर अलग कर दी गई थी और वहाँ हर तरह की फालतू चीज इधर-उधर पड़ी थी। दालान के सिरे पर, लकड़ी की बाड़ के पीछे से नीची छतवाली एक कालिख लगी पत्थर की इमारत झाँक रही थी। जो देखने से किसी कारखाने का हिस्सा मालूम होती थी। वह शायद किसी गाड़ी बनानेवाले या किसी बढ़ई का शेड था। फाटक से ले कर वहाँ तक हर जगह कोयले की गर्द बिछी थी। 'यहाँ फेंकने लायक कोई जगह होगी,' उसने सोचा। दालान में किसी को न देख कर वह चुपके से अंदर गया। फाटक के पास ही उसे लोहे की एक खुली नाली नजर आई, जैसी कि अकसर उन जगहों में होती है, जहाँ बहुत से मजदूर या कोचवान रहते हैं। उसके ऊपर लकड़ी के तख्ते पर खड़िया से वही युगों पुराना नारा लिखा हुआ था : 'यहाँ पेशाब करना मना है!' यह तो अच्छी बात थी, क्योंकि यहाँ अंदर जाने पर किसी को शक नहीं होगा। 'मैं सब कुछ यहीं कहीं इस ढेर में फेंक कर चुपचाप निकल जाऊँगा।'

जेब में अपना हाथ डाले हुए उसने एक बार फिर चारों ओर नजर दौड़ाई। दालान की दीवार के पास, फाटक और नाली के बीच की लगभग एक गज सँकरी जगह में एक बड़ा-सा अनगढ़ पत्थर पड़ा नजर आया, जिसका वजन शायद साठ पौंड रहा हो। दीवार की दूसरी ओर एक सड़क थी। उसे राहगीरों की आवाजें सुनाई दे रही थीं, जिनकी वहाँ कभी कोई कमी नहीं रहती थी, लेकिन जब तक वह सड़क से अंदर न आ रहा हो, जैसा कि किसी वक्त भी हो सकता था, उसे फाटक के पीछे कोई देख नहीं सकता था। इसलिए जल्दी जरूरी थी।

वह पत्थर पर झुका, उसका ऊपरी सिरा कस कर दोनों हाथों से पकड़ा और पूरी ताकत लगा कर उसे पलट दिया। पत्थर के नीचे, जमीन में एक छोटा-सा गड्ढा था और उसने अपनी जेबें फौरन उसमें खाली कर दीं। बटुआ सबसे ऊपर था। फिर भी गड्ढा पूरी तरह भरा नहीं। उसने एक बार फिर पत्थर को पकड़ कर हिलाया-डुलाया और उसे एक ही झटके में फिर सीधा कर दिया। पत्थर अब अपनी पहलेवाली हालत में आ गया, बस बहुत थोड़ा-सा ऊँचा हो गया था। लेकिन उसने उसके चारों ओर की मिट्टी खुरची और अपने पाँव से पत्थर के चारों ओर दबा दी। अब किसी को हरकत का कुछ भी सुराग नजर नहीं आ सकता था।

इसके बाद बाहर जा कर वह चौक की ओर मुड़ा। एक बार फिर पल भर के लिए उस पर बहुत गहरा, लगभग असहनीय आनंद छा गया, जैसा कि थाने में हुआ था। 'मैंने सारे सुराग दफन कर दिए हैं! पत्थर के नीचे देखने की बात भला किसके दिमाग में आएगी शायद जबसे यह घर बना है, यहीं पड़ा है और इतने ही बरसों तक अभी और पड़ा रहेगा। अगर पता लग भी गया तो मुझ पर किसे शक होगा सारा किस्सा खलास रहा! कोई सुराग बाकी नहीं!' वह हँसा। आगे भी उसे याद रहा कि उसने एक महीन-सी, घबराई हुई, बिना आवाज की हँसी हँसना शुरू किया था और चौक पार करते हुए पूरे वक्त इस तरह हँसता रहा था। लेकिन क. बुलेवार पर पहुँच कर, जहाँ दो दिन पहले वह लड़की उसे मिली थी, उसकी हँसी अचानक रुक गई। दिमाग में धीरे-धीरे दूसरे विचार आने लगे। उसे लगा उस बेंच के सामने से गुजरते उसे घिन आएगी, जिस पर लड़की के चले जाने के बाद वह बड़ी देर तक बैठा सोचता रहा था, और उस गलमुच्छोंवाले सिपाही से मिल कर भी बड़ी नफरत होगी, जिसे उसने बीस कोपेक दिए थे : 'भाड़ में जाए!'

वह विक्षिप्त हो कर खाली दिमाग अपने चारों ओर देखता हुआ चलता रहा। लग रहा था उसके सारे विचार किसी एक ही बिंदु के चारों ओर चक्कर काट रहे हैं। उसे महसूस हुआ कि सचमुच एक ऐसा बिंदु है और यह कि अब, इस समय वह उसी बिंदु के सामने खड़ा है। पिछले दो महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था।

'भाड़ में जाए सब कुछ!' एकाएक अदम्य क्रोध में भर कर उसने सोचा। 'जो कुछ अब शुरू हो चुका है, शुरू हो चुका है। उस पर भी भेजो लानत और एक नई जिंदगी पर भी। हे भगवान, कैसी नादानी है! ...मैं भी आज कैसे-कैसे झूठ बोल गया! कैसे घिनौने ढंग से मैंने उस कमबख्त इल्या पेत्रोविच की खुशामद की! यह सब कुछ बेवकूफी ही तो थी। मुझे उन सब लोगों की, उनकी खुशामद करने की अब क्या परवाह! नहीं-नहीं, बात यह है ही नहीं!'

अचानक वह रुक गया। एक नया, बिलकुल अप्रत्याशित और बेहद सीधा-सादा सवाल उसे परेशान करने लगा और उसे बुरी तरह उलझन में डाल दिया :

'यह सब कुछ अगर बूझ-समझ कर किया गया था, न कि मूर्खों की तरह, अगर सचमुच मेरा कोई निश्चित और पक्का मकसद था, तो फिर क्या वजह भी इसकी कि मैंने बटुए में भी झाँक कर नहीं देखा और मुझे यह भी नहीं मालूम कि उसके अंदर था क्या, जिसके लिए मैंने ये सारी तकलीफें सहीं और जान-बूझ कर इस नीच, गंदे और घिनौने काम का बीड़ा उठाया मैं उस बटुए को और उसके साथ ही उन सारी चीजों को फौरन पानी में फेंक भी देना चाहता था, जिन्हें मैंने ठीक से देखा तक नहीं था... क्या वजह थी इसकी?'

फिर भी मामला ऐसा ही था। वैसे ये सारी बातें उसे पहले से मालूम थीं; उसके लिए यह कोई नया सवाल नहीं था, उस वक्त भी नहीं, जब रात को किसी झिझक या किसी दुविधा के बिना उसे पानी में फेंकने का फैसला किया गया था, गोया ऐसा ही होना चाहिए, गोया इसके अलावा कुछ और हो ही न सकता हो। हाँ, उसे यह सब कुछ मालूम था, और उसने यह सब कुछ अच्छी तरह समझ लिया था। यह सब कुछ तो पक्के तौर पर कल उसी वक्त तय हो गया था, जब वह बक्स पर झुका हुआ उसमें से गहनों की डिब्बियाँ निकाल रहा था... बिलकुल यही बात थी...

'इस सबकी वजह यह है कि मैं बहुत बीमार हूँ,' आखिरकार उसने उदास मन से फैसला किया। 'मैं चिंता करता रहा हूँ, अंदर-ही-अंदर कुढ़ता रहा हूँ और यह भी नहीं जानता कि कर क्या रहा हूँ... कल और परसों और इस पूरे दौरान मैं अपने आपको चिंता की आग में जलाता रहा हूँ... मैं ठीक हो जाऊँगा और मैं चिंता नहीं करूँगा... लेकिन अगर मैं बिलकुल ही ठीक न हुआ तो हे भगवान, मैं इस सबसे कितना तंग आ चुका हूँ!'

यह बिना रुके चलता रहा। उसका जी बेहद चाह रहा था कि ध्यान बँटाने के लिए कोई चीज मिल जाए, लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, किस बात की कोशिश करे। हर पल एक नई, बहुत ही शक्तिशाली संवेदना उसे अधिकाधिक अपने शिकंजे में कस रही थी। यह थी अपने चारों ओर की हर चीज से अथाह, और लगभग शारीरिक विरक्ति नफरत की एक जड़ और घिनौनी भावना। जो भी उसे दिखाई देता था, वही उसे घिनौना मालूम होता था-उसे उसकी सूरत से, उसकी चाल-ढाल से, उसके हाव-भाव से घिन आती थी। लग रहा था कि उनमें से कोई अगर उसे संबोधित करता, तो वह उसके मुँह पर थूक देता, या उसे काट भी खाता...

वसील्येव्स्की ओस्त्रोव में छोटी नेवा के किनारे पहुँच कर पुल के पास वह अचानक रुक गया। 'वह तो यहीं रहता है, इसी घर में,' उसने सोचा, 'हे भगवान, मैं रजुमीखिन के यहाँ तो नहीं पहुँच गया लो, फिर वह सिलसिला शुरू... काश मुझे मालूम होता कि मैं यहाँ जान-बूझ कर आया हूँ खैर, कोई बात नहीं। मैंने अभी परसों ही तो कहा था कि उससे मिलने मैं उसके बादवाले दिन जाऊँगा; तो अब जा कर उससे मिल ही क्यों न आऊँ'

वह चौथी मंजिल पर रजुमीखिन के कमरे तक गया और रजुमीखिन को उसके दड़बे में ही देखा। वह उस समय बड़ी एकाग्रता से कुछ लिख रहा था। दरवाजा उसने खुद खोला। वे दोनों चार महीने से एक-दूसरे से नहीं मिले थे। रजुमीखिन एक झीना, फटीचर ड्रेसिंग गाउन और अपने नंगे पाँवों में चप्पलें पहने बैठा था। बिखरे हुए बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, लगता था उसने मुँह-हाथ भी नहीं धोया है; उसके चेहरे से हैरत टपक रही थी।

'तुम हो!' वह चिल्लाया। उसने अपने साथी को सर से पाँव तक देखा, फिर कुछ देर रुक कर सीटी बजाई।

'ऐसी कंगाली आ गई! यार, तुमने तो हम सबको मात कर दिया!' उसने रस्कोलनिकोव के तार-तार कपड़ों को देखते हुए आगे कहा। 'आओ बैठो, एकदम थके हुए लगते हो।' फिर जब वह मोमजामा मढ़े हुए सोफे में धँस कर बैठ गया, जिसकी हालत उसके अपने सोफे से भी बदतर थी, तब रजुमीखिन ने अचानक देखा कि उसका मेहमान बीमार है।

'कुछ खबर भी है कि तुम बहुत बीमार हो' उसने उसकी नब्ज देखते हुए कहना शुरू किया। रस्कोलनिकोव ने अपना हाथ खींच लिया।

'कोई बात नहीं,' वह बोला, 'मैं यहाँ आया था; बात यह है कि मेरे पास कोई ट्यूशन नहीं है... मैं चाहता था... नहीं, दरअसल मुझे पढ़ाने का काम नहीं चाहिए...'

'लेकिन, तुम्हें सरसाम हो गया है, कुछ पता भी है!' रजुमीखिन ने उसे गौर से देखते हुए अपना विचार व्यक्त किया।

'नहीं, सरसाम नहीं है।' रस्कोलनिकोव उठ खड़ा हुआ। रजुमीखिन के कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ते समय उसने यह तो नहीं सोचा था कि अपने दोस्त से उसका आमना-सामना होगा। अब पलक झपकते वह समझ गया था कि उस पल जो चीज वह सबसे कम चाहता था, वह यह थी कि दुनिया में किसी से भी उसका सामना न हो। उसका पित्त खौलने लगा। रजुमीखिन के कमरे की चौखट पार करते ही उसे अपने आप पर इतना गुस्सा आया कि दम घुटने लगा।

'तो मैं चला, फिर मिलेंगे,' उसने एकाएक कहा और दरवाजे की ओर चल दिया।

'ठहरो! तुम भी अजीब आदमी हो!'

'मेरा जी नहीं चाहता,' रस्कोलनिकोव ने फिर अपना हाथ खींचते हुए कहा।

'तो फिर कमबख्त यहाँ आए क्यों थे? पागल हुए हो क्या? अरे, यह तो... सरासर मेरे मुँह पर तमाचा है! मैं तुम्हें इस तरह नहीं जाने दूँगा।'

'खैर, बात यह है कि मैं तुम्हारे पास इसलिए आया था कि तुम्हारे अलावा मैं ऐसे किसी दूसरे को नहीं जानता जो मेरी मदद कर सके... शुरुआत के लिए चूँकि तुम औरों से ज्यादा नेक हो, मेरा मतलब है समझदार हो, और भले-बुरे की परख कर सकते हो... और अब मैं समझता हूँ कि मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो न कुछ भी नहीं... न किसी की मदद... न किसी की हमदर्दी। मैं खुद... बस खुद... अकेला। खैर, बहुत हो चुका! मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।'

'पल-भर तो ठहर, बाँगड़ू! तू तो बिलकुल पागल है। वैसे तुम्हारी मर्जी, मेरा क्या। बात यह है कि मेरे पास भी कोई ट्यूशन नहीं है, और मुझे इसकी परवाह भी नहीं है, लेकिन किताबें बेचनेवाला एक आदमी है, खेरुवीमोव... उसने ट्यूशनों की कमी पूरी कर दी है। उसे छोड़ कर तो मैं सेठों के घर पाँच-पाँच बच्चों के ट्यूशन भी न लूँ।' वह प्रकाशन का थोड़ा-बहुत काम करता है। प्रकृति विज्ञान की छोटी-छोटी किताबें भी छापता है, और क्या बिक्री होती है उनकी! उनके नाम पढ़ कर ही पैसे वसूल हो जाते हैं! तुम हमेशा कहा करते थे कि मैं बेवकूफ हूँ, लेकिन भगवान जानता है मेरे यार कि इस दुनिया में मुझसे भी बड़े बेवकूफ पड़े हैं! अब वह भी प्रगतिशील बनने की सोच रहा है, इसलिए नहीं कि उसे किसी रुझान का पता है, बल्कि, दरअसल मैं ही उसे उकसाता रहता हूँ। ये रहे मूल जर्मन पुस्तक के दो फरमे - मेरी राय में इससे भोंडी धूर्तता नहीं हो सकती : इसमें इस सवाल पर बहस की गई है कि क्या औरत इनसान है और बड़े कायदे के साथ साबित किया गया है कि वह है। खेरुवीमोव नारी-समस्या के समाधान में अपने योगदान के रूप में इसे प्रकाशित करनेवाला है। मैं इसका अनुवाद कर रहा हूँ; वह इन ढाई फरमों को फैला कर छह देगा; हम लोग इसका कोई भारी-भरकम नाम, कोई आधे पन्ने का रख देंगे और आधे रूबल में किताब हाथों-हाथ बिक जाएगी। वह मुझे एक फरमे के छह रूबल देता है, इस तरह पूरे काम के पंद्रह रूबल बनते हैं, और छह रूबल मुझे पेशगी मिल चुके हैं। इस काम के खत्म होने के बाद हम लोग ह्वेल मछलियों के बारे में एक किताब का अनुवाद शुरू करनेवाले हैं, और फिर स्वीकारोक्तियाँ1, भाग दो में से कुछ बेहद नीरस किस्से, जो हमने अनुवाद करने के लिए छाँट लिए हैं। किसी ने खेरुवीमोव को बता दिया है कि रूसो बहुत कुछ रदीश्चेव2 जैसा आदमी था। और जाहिर है मैं उसकी किसी बात का खंडन नहीं करता। मेरी बला से! तुम 'क्या औरत इनसान है' का दूसरा फरमा करना चाहोगे अगर चाहो तो मूल जर्मन, कलम और कागज लेते जाओ... यह सब कुछ वहीं से मिलता है, और तीन रूबल भी लेते जाओ क्योंकि मुझे शुरू में पूरे काम के पेशगी छह रूबल मिले थे - तुम्हारे हिस्से के तीन रूबल बनते हैं। तुम जब यह फरमा पूरा कर लोगे तो तुम्हें तीन रूबल और मिलेंगे। अब मेहरबानी करके यह न समझना कि मैं तुम्हारे ऊपर कोई एहसान कर रहा हूँ। बात बल्कि उलटी है। जैसे ही तुमने अंदर कदम रखा था, मैंने सोच लिया था, मुझे तुमसे क्या मदद लेनी है। पहली बात तो यह है कि मेरे स्पेलिंग कमजोर है, और दूसरे, जर्मन भाषा में भी बिलकुल भटक जाता हूँ, इसलिए अनुवाद करते-करते बीच-बीच में ज्यादातर अपनी तरफ से ही घुसेड़ता जाता हूँ। तसल्ली की बात बस यह है कि वह मूल से सब यकीनन अच्छा ही होता होगा। लेकिन कौन जाने, शायद वह बेहतर नहीं बल्कि बदतर ही हो... ले जाओगे... या नहीं?'


1. ज्यॉ जाक रूसो की आत्मकथा।

2. अलेक्सांद्र रदीश्चेव (1749-1820) : रूसी लेखक, भूदास प्रथा का आलोचक।


रस्कोलनिकोव ने चुपचाप जर्मन रचना के पन्ने ले लिए, तीन रूबल भी ले लिए, और कुछ कहे बिना बाहर निकल गया। रजुमीखिन अचरज से उसे जाते हुए, एकटक देखता रहा। लेकिन रस्कोलनिकोव अगली सड़क पर पहुँच कर वापस लौटा, रजुमीखिन के कमरे की सीढ़ियाँ फिर चढ़ा, और जर्मन लेख और तीन रूबल मेज पर रख कर फिर बाहर चला आया। इस बार भी उसने कोई शब्द नहीं कहा।

'कुछ दीवाने तो नहीं हो गए?' रजुमीखिन आखिरकार गुस्से में आ कर जोर से चिल्लाया। 'यह क्या नाटक है! तुम मुझे भी पागल बना दोगे... कमबख्त, मेरे पास फिर आए ही क्यों थे?'

'मुझे नहीं चाहिए... कोई अनुवाद का काम,' रस्कोलनिकोव ने सीढ़ियों पर से बुदबुदा कर कहा।

'तो फिर कमबख्त, क्या चाहिए तुम्हें?' रजुमीखिन ने ऊपर से चिल्ला कर कहा। रस्कोलनिकोव चुपचाप सीढ़ियाँ उतरता रहा।

'अरे, सुनो! कहाँ रहते हो तुम?'

कोई जवाब नहीं मिला।

'जाओ, फिर भाड़ में जाओ!'

लेकिन अब तक रस्कोलनिकोव सड़क पर पहुँच चुका था। निकोलाएव्स्की पुल पर पहुँच कर उसे एक अप्रिय घटना की वजह से फिर जा कर पूरी तरह होश आया। एक कोचवान ने उस पर तीन-चार बार चीखने के बाद उसकी पीठ पर एक चाबुक जोर से जड़ दी, क्योंकि वह उसके घोड़े की टापों के नीचे कुचलते-कुचलते बचा था। चाबुक पड़ते ही वह गुस्से से ऐसा तिलमिला उठा कि झपट कर सीधे पुल के कगार की तरफ जा पहुँचा। वह न जाने क्यों गाड़ियों की उस आवाजाही में पुल के बीचोंबीच चल रहा था। गुस्से से वह दाँत पीसने लगा। जाहिर है उसने लोगों को हँसने का सामान थमा दिया था।

'अच्छा हुआ!'

'बदमाश!'

'पुरानी तिकड़म है, नशे में होने का बहाना करो और जान-बूझ कर पहियों के नीचे आ जाओ ताकि हर्जाने का दावा कर सको।'

'धंधा बना लिया है, यही काम है इसका।'

वह कगार के पास खड़ा गुस्से से, भौंचक्का हो कर दूर जाती हुई गाड़ी को देख रहा था, और अपनी पीठ सहला रहा था कि इतने में उसने किसी को अपने हाथ में कुछ पैसे रखते महसूस किया। उसने देखा सर पर रूमाल बाँधे और पाँवों में बकरी की खाल के जूते पहने एक अधेड़ उम्र की औरत थी; उसके साथ एक लड़की थी, शायद उसकी बेटी होगी, जो हैट लगाए हुए थी और हरे रंग की छतरी लिए थी। 'ले, भले आदमी, मसीह के नाम पर ये ले!' उसने पैसे ले लिए और वे दोनों आगे बढ़ गईं। बीस कोपेक का सिक्का था। उसके कपड़ों और सूरत-शक्ल से लोगों ने उसे सड़क का भिखारी समझा होगा। तो बीस कोपेक का यह दान उसे चाबुक खा कर मिला था, जिसकी वजह से उन्हें उस पर दया आ गई थी।

सिक्के को अपनी मुट्ठी में बंद करके वह दस कदम चला, और फिर मुड़ कर नेवा नदी की ओर मुँह करके खड़ा हो गया और शरद महल की ओर देखने लगा। आसमान पर एक भी बादल नहीं था और नदी का पानी गहरा नीला लग रहा था, जो कि नेवा नदी में कभी-कभार होता है। गिरजाघर का गुंबद, जिसका सबसे अच्छा दृश्य छोटे गिरजाघर से कोई बीस कदम दूरी पर पुल से दिखाई देता है, धूप में चमक रहा था और साफ हवा में उसकी सजावट की एक-एक तफसील अलग-अलग पहचानी जाती थी। चाबुक की मार का दर्द दूर हो गया और रस्कोलनिकोव उसके बारे में भूल भी गया। इस समय उसके दिमाग पर एक बेचैन करनेवाला विचार पूरी तरह छाया हुआ था। जो पूरी तरह स्पष्ट भी नहीं था। वह शांत खड़ा, देर तक टकटकी बाँधे क्षितिज को घूरता रहा। इस जगह से वह बखूबी परिचित था। जब वह यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तब सैकड़ों बार आम तौर पर अपने घर जाते हुए - इस जगह शांत खड़ा रह कर इस भव्य दृश्य को टकटकी बाँधे देखता रहता था। यह दृश्य उसके अंदर एक अस्पष्ट-सी, रहस्यमयी भावना पैदा करता था, जिस पर वह हमेशा ही आश्चर्य करता रहता था। उसे देख कर उस पर एक विचित्र उदासीनता छा जाती थी; यह शानदार रंगारंग चित्र उसे गूँगा और बेजान लगता था। हर बार उसे अपने मन पर पड़नेवाली इस धुँधली, रहस्यमयी छाप पर हैरत होती थी, और अपने आप पर विश्वास न करके वह इसका कारण जानने का काम फिर कभी के लिए टाल देता था। अब उसे अपनी पुरानी शंकाएँ और उलझनें साफ-साफ याद आ रही थीं और उसे लग रहा था कि इस समय उनका याद आना केवल संयोग नहीं था। यह बात उसे कुछ अजीब और बेतुकी लग रही थी कि वह पहले की ही तरह ठीक उसी जगह आ कर रुका था, गोया उसने यह कल्पना की हो कि वह उन्हीं विचारों को सोच सकेगा, उन्हीं मान्यताओं और चित्रों में दिलचस्पी ले सकेगा जिनमें... थोड़े समय पहले ही... उसे दिलचस्पी थी। यह बात उसे कुछ हास्यास्पद लगी पर फिर भी उसका दिल तड़प उठा। तब उसे यह सब कुछ बहुत दूर गहराई में, कहीं उसके पाँवों के नीचे ही, आँखों से ओझल मालूम हो रहा था। उसका सारा अतीत, पुराने विचार, पुरानी समस्याएँ और मान्यताएँ, पुरानी स्मृतियाँ और यह चित्र, और वह स्वयं-सब कुछ। ...उसे लगा वह ऊपर की ओर उड़ा चला जा रहा है और आँखों से हर चीज ओझल होती जा रही है... अनजाने ही हाथ को हवा में घुमाते हुए, उसे अचानक मुट्ठी में बंद उस सिक्के की याद आई। उसने मुट्ठी खोल दी, कुछ देर सिक्के को घूरता रहा, और फिर जोर-से बाँह घुमा कर उसे पानी में फेंक दिया। फिर वह मुड़ा और घर की ओर चल पड़ा। उसे लग रहा था उस पल उसने अपने आपको हर आदमी से और हर चीज से चाकू से काट कर अलग कर लिया है।

जब वह घर पहुँचा तो दिन ढल रहा था। इसका मतलब है कि वह छह घंटे तक चला होगा। कैसे और कहाँ-कहाँ हो कर वह वापस आया, यह सब उसे याद नहीं था। कपड़े उतार कर बुरी तरह काँपता हुआ, वह सोफे पर लेट गया। हालत दौड़ा-दौड़ा कर निढाल कर दिए गए घोड़े जैसी हो रही थी। उसने अपना ओवरकोट ओढ़ लिया और फौरन फरामोशी के गर्त में डूब गया...

शाम ढल रही थी, जब वह एक भयानक चीख सुन कर जाग उठा। हे भगवान, कैसी भयानक चीख थी! ऐसी अजीब आवाजें, ऐसी चीख-पुकार, ऐसा रोना-पीटना, ऐसी मार-पीट, ऐसे आँसू, ऐसे लात-घूँसे और ऐसी गालियाँ उसने पहले कभी नहीं सुनी थीं। ऐेसे जंगलीपन, ऐसे जुनून की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। दहशत के मारे वह उठ कर पलँग पर बैठ गया, और तीखे दर्द के मारे उस पर बेहोशी-सी छाने लगी। लेकिन लड़ने, रोने और गाली-गलौज की आवाज तेज होती जा रही थी। फिर वह अपनी मकान-मालकिन की आवाज पहचान कर हक्का-बक्का रह गया। वह दहाड़ें मार कर चिल्ला रही थी, चीख रही थी और रो-रो कर तेजी से जल्दी-जल्दी उखड़े-उखड़े शब्दों में कुछ कह रही थी। इसलिए वह क्या कह रही है, उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। यह तो जाहिर था कि वह गिड़गिड़ा रही थी कि उसे पीटा न जाए, क्योंकि उसे सीढ़ियों पर बड़ी बेरहमी से पीटा जा रहा था। जो आदमी उसे मार रहा था उसकी आवाज चिढ़ और क्रोध के कारण इतनी भयानक हो गई थी कि मेंढक की टर्र-टर्र जैसी लग रही थी। लेकिन वह भी उतनी ही तेजी से, उतने ही अस्पष्ट ढंग से, जल्दी-जल्दी और हकला-हकला कर कुछ कह रही थी। एकाएक रस्कोलनिकोव सिहर उठा। इल्या पेत्रोविच यहाँ! और वह मकान-मालकिन को मार रहा था! वह उसे ठोकरों से मार रहा था और उसका सर सीढ़ियों पर पटक रहा था, रोने की और धड़-धड़ की आवाजों से इतना तो पता चल ही रहा था। बात क्या है, सारी दुनिया यूँ उलट-पुलट क्यों होती जा रही है सभी मंजिलों और सभी सीढ़ियों पर उसे झुंड के झुंड लोगों के भागने की आवाज सुनाई दे रही थी। उसे लोगों के बोलने की, भय और आश्चर्य से चिल्लाने की, टकराने की और दरवाजे भड़भड़ाने की आवाजें आ रही थीं। 'लेकिन क्यों, आखिर क्यों और यह सब हुआ कैसे?' उसने कई बार दोहराया और सचमुच सोचने लगा कि वह पागल हो गया है। लेकिन नहीं, उसने एकदम साफ सुना था! और फिर इसके बाद वे लोग उसके पास आएँगे, 'क्योंकि इसमें कोई शक ही नहीं है... कि यह सब कुछ उसी सिलसिले में है... कल के बारे में... हे भगवान!' उसने अपने दरवाजे की कुंडी चढ़ा ली होती, लेकिन वह तो अपना हाथ भी नहीं उठा पा रहा था... और इससे फिर फायदा ही क्या था! दहशत ने उसके दिल को अपने शिकंजे में जकड़ लिया, जैसे बर्फ की सिल के अंदर कोई चीज जम गई हो। खौफ उसे दहलाता रहा और वह चेतनाशून्य हो गया। आखिर कोई दस मिनट के बाद धीरे-धीरे यह सारा शोर-गुल ठंडा पड़ने लगा। मकान-मालकिन सिसक-सिसक कर रो रही और कराह रही थी; इल्या पेत्रोविच अब भी उसे धमका रहा था और गालियाँ दे रहा था। लेकिन, आखिरकार लगा कि वह भी शांत हो गया। अब उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ रही थी। 'चला गया क्या चलो, जान छूटी!' हाँ, और मकान-मालकिन भी अब जा रही है। वह अभी भी रो रही है, बिलख रही है... फिर उसका दरवाजा भी धड़ से बंद हो गया। ...अब भीड़ सीढ़ियों से अपने-अपने कमरों की ओर जा रही थी; लोग जोर-जोर से बोल रहे थे, आपस से बहसें कर रहे थे, एक-दूसरे को पुकार रहे थे। कभी उनकी आवाज ऊँची हो कर चीख की शक्ल ले लेती थी, और कभी इतनी धीमी हो जाती थी कि लगता था वे कानाफूसी कर रहे हैं। बहुत से लोग रहे होंगे - उस मकान में रहनेवाले लगभग सभी लोग। 'लेकिन, हे भगवान, यह हो कैसे सकता है और वह यहाँ आया क्यों था, किसलिए?'

कमजोरी के मारे रस्कोलनिकोव सोफे पर दराज हो गया, लेकिन अपनी आँखें नहीं बंद कर सका। ऐसी वेदना से, अपार भय की ऐसी असहनीय अनुभूति से तड़पता हुआ, जैसी उसने पहले कभी अनुभव नहीं की थी, वह आधे घंटे तक सोफे पर पड़ा रहा। अचानक उसकी कोठरी में एक तेज रोशनी चमकी। नस्तास्या एक हाथ में मोमबत्ती और दूसरे में सूप की प्लेट ले कर आई थी। उसे ध्यान से देख कर और इस बात का भरोसा करके कि वह सो नहीं रहा है, उसने मोमबत्ती मेज पर रख दी और जो कुछ लाई थी, उसे मेज पर सजाने लगी-रोटी, नमक, प्लेट और चम्मच।

'मैं महसूस करती हूँ कि तुमने कल से कुछ खाया नहीं। दिन-भर इधर-उधर मारे फिरे हो, और बुखार से सारा बदन कैसा बुरी तरह काँप रिया है।'

'नस्तास्या... वे लोग मकान-मालकिन को पीट क्यों रहे थे?'

नस्तास्या ने उसे घूर कर देखा।

'उसको पीटा कौन?'

'अभी... असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट इल्या पेत्रोविच ने, कोई आधा घंटा हुआ, सीढ़ियों पर... उसके साथ वह क्यों इतनी बुरी तरह पेश आ रहा था, और... यहाँ क्यों आया था'

नस्तास्या ने कुछ कहे बिना आँखें, सिकोड़ कर उसे ऊपर से नीचे तक देखा, और देर तक देखती रही। उसकी तीखी नजरों के आगे वह बेचैनी-सी महसूस करने लगा, बल्कि उसे उससे कुछ हौल-सा लगने लगा।

'नस्तास्या, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं' उसने आखिरकार कमजोर आवाज में, डरते-डरते पूछा।

'खून का मामला होता है,' आखिर उसने बहुत धीमे से जवाब दिया, गोया अपने आपसे कुछ कह रही हो।

'खून कैसा खून?' दीवार की ओर सरकते हुए वह बुदबुदाया। रंग बिलकुल सफेद पड़ गया था। नस्तास्या अब भी कुछ बोले बिना एकटक उसे देखे जा रही थी।

'मकान-मालकिन को कोई भी पीट नहीं रहा था,' आखिरकार उसने सधी हुई, भरपूर आवाज में कहा।

रस्कोलनिकोव नजरें जमाए उसे घूरता रहा। उसे साँस लेने में कठिनाई हो रही थी।

'खुद सुना था मैंने... सो नहीं रहा था मैं... उठ कर बैठा हुआ था,' उसने और भी दबी जबान में डरते-डरते कहा। 'बड़ी देर तक मैंने सुना... असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट आया था... सभी घरों से लोग भाग कर सीढ़ियों पर आ गए थे...'

'यहाँ तो कोई भी नहीं आएला, बस तुम्हारा खून बोलने रहा है। उसे जब निकासी का कोई रास्ता नहीं मिलेंगा और वह जम जाएला है तब ऐसा ही होएला है। तुम यह सब अपना मन में सोचेला है... कुछ खाएगा?'

उसने कोई जवाब नहीं दिया। नस्तास्या अब भी उसके ऊपर झुकी खड़ी थी और उसे गौर से देख रही थी।

'मुझे पीने को कुछ दे दो... नस्तास्या।'

वह नीचे गई और चीनी के सफेद मग में पानी ले आई। लेकिन इसके बाद क्या हुआ, उसे कुछ भी याद नहीं रहा। रस्कोलनिकोव को बस इतना याद था कि उसने एक घूँट पानी पिया था और कुछ पानी अपने सीने पर छलका दिया था। इसके बाद वह फिर फरामोशी की गोद में चला गया।