अपराध और दंड / अध्याय 3 / भाग 6 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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'मैं नहीं मानता, मान ही नहीं सकता!' रजुमीखिन ने परेशान हो कर रस्कोलनिकोव के तर्कों का खंडन करते हुए कहा।

वे लोग अब बकालेयेव के मकान के पास पहुँच रहे थे, जहाँ पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना और दूनिया देर से उनकी राह देख रही थीं। रजुमीखिन बहस के जोश में बार-बार रास्ते में रुक जाता था। इस बात से वह कुछ बौखलाया हुआ और उत्तेजित था कि वे पहली बार उसके बारे में खुल कर बातें कर रहे थे।

'तो न मानो!' रस्कोलनिकोव ने लापरवाही से, गैर-जज्बाती मुस्कान के साथ जवाब दिया। 'तुम हमेशा की तरह किसी भी बात पर ध्यान नहीं दे रहे थे, पर मैं एक-एक शब्द को तोल रहा था।'

'तुम हो शक्की, इसलिए उसके हर शब्द को तोल रहे थे... हुँ... मैं मानता हूँ कि पोर्फिरी का और उससे भी ज्यादा उस कमबख्त जमेतोव का बातें करने का ढंग कुछ अजीब था। ठीक कहते हो, उसके रवैए में कोई बात तो थी, लेकिन क्या किसलिए?'

'कल रात के बाद उसने अपनी राय बदल दी है।'

'बात बल्कि उलटी है! अगर उनके दिमाग में वह बेसर-पैर का खयाल होता तो वे उसे छिपाने की भरपूर कोशिश करते और तुम्हें अपने सारे पत्ते न दिखाते, ताकि बाद में तुम्हें पकड़ सकें... लेकिन सारी बातें ढिठाई और लापरवाही से भरी हुई थीं।'

'अगर उनके पास सबूत होते, मेरा मतलब है, ठोस सबूत-या कम से कम शक की कोई गुंजाइश ही होती, तो वे कुछ और बातें खोद निकालने की उम्मीद में अपनी चाल छिपाने की कोशिश जरूर करते। (इसके अलावा बहुत पहले ही वे तलाशी भी ले चुके होते!) लेकिन उनके पास कोई सबूत तो है नहीं, एक भी नहीं। सारा सिलसिला एक भ्रम है, एक छलावा। हर चीज धुँधली-धुँधली है, एक उड़ता हुआ बेबुनियाद खयाल। इसलिए ही वे लोग ढिठाई के सहारे मेरे पाँव उखाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। और वह शायद इस बात से भी चिढ़ रहा था कि उसके पास कोई ठोस सबूत नहीं। झुँझलाहट में उसने यह बात उगल भी दी... या शायद उसका कोई मंसूबा हो... आदमी बहुत तेज लगता है। यह जता कर कि वह सब कुछ जानता है, शायद वह मुझे डरा देना चाहता था। इन लोगों का सोचने का अलग ही एक ढंग होता है यार। लेकिन मुझे हर बात की सफाई देने से नफरत होती है। गोली मारो इसे!'

'और दूसरा आदमी अपमान महसूस करता है, सरासर। तुम्हारी बात मैं समझ रहा हूँ! लेकिन... चूँकि हम लोग इसके बारे में खुल कर बातें कर चुके (और यह बहुत अच्छी बात है कि आखिर ऐसा हुआ - मुझे बड़ी खुशी है!), इसलिए अब मैं भी साफ बता दूँ कि मैंने बहुत पहले ही इन लोगों में यह बात देख ली थी तब उसकी एक झलक भर थी - एक ढका-छिपा इशारा - लेकिन यह इशारा भी क्यों? उनकी हिम्मत पड़ी कैसे? उनके पास बुनियाद है! इसके लिए तुम नहीं जानते कि मैं कितना अंदर-ही-अंदर उबलता रहा हूँ। सोचने की बात है! महज इसलिए कि एक गरीब छात्र को, जो अपनी गरीबी और बीमारी के वहम की वजह से टूट चुका है, सख्त सरसामी बीमारी से फौरन पहले (ध्यान में रखने की बात है यह), एक ऐसे आदमी को जो शक्की, घमंडी और स्वाभिमानी है, जिसने छह महीने से किसी से मिल कर बात तक नहीं की, जिसके कपड़े तार-तार हो चुके और जिसके जूतों के तले तक नदारद हैं, उस आदमी को कुछ मनहूस पुलिसवालों का सामना करना और उनकी बदतमीजी को बर्दाश्त करना पड़ता है। फिर अचानक उसके सामने एक कर्ज के भुगतान का झंझट खड़ा कर दिया जाता है, वही प्रोनोट जो चेबारोव ने पेश किया था। नए रंग-रोगन की बदबू, तीस डिग्री की गर्मी और हवा में घुटन, लोगों की भीड़, एक ऐसी औरत के कत्ल की चर्चा जिसके यहाँ उससे कुछ ही अरसा पहले वह गया था, और ऊपर से खाली पेट। ऐसे में उसे गश आ गई तो कौन-सी बड़ी बात है! यही है वह कुल बुनियाद जिस पर उन्होंने ये सारा तूमार बाँधा है! गोली मारो उनको! मैं समझ रहा हूँ कि तुम्हें कितनी ठेस पहुँची होगी इस बात से लेकिन रोद्या, तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो इन लोगों पर हँसता, उनके मनहूस मुँह पर थूकता, एक बार नहीं दर्जन बार थूकता और हर तरफ थूकता। मैं बड़ी सफाई से उन पर चौतरफा चोट करता और इस तरह सारे सिलसिले को खत्म कर देता। जाने दो उन्हें भाड़ में! हिम्मत न हारो! बड़ी शर्मनाक बात है!'

'लेकिन सारी बात को इसने लड़ी में बड़े ढंग से पिरोया है,' रस्कोलनिकोव ने सोचा।

'भाड़ में जाएँ! लेकिन जिरह कल फिर होगी!' उसने तल्खी से कहा। 'जरूरी है क्या कि मैं उन्हें हर बात की सफाई देता फिरूँ? मुझे तो इसी बात से झुँझलाहट हो रही है कि कल रेस्तराँ में मैंने जमेतोव से बात करना भी गवारा किया...'

'छोड़ो भी! मैं खुद पोर्फिरी के पास जाऊँगा, और उससे घर के आदमी की तरह सारी बातें उगलवा लूँगा। सारी बातें पूरी तरह मुझे रत्ती-रत्ती बताए बिना वह बच कर जाएगा कहाँ! रही जमेतोव की बात तो...'

'आखिरकार इसने सारी असलियत बूझ ही ली!' रस्कोलनिकोव ने सोचा।

'रुको!' रजुमीखिन एकाएक उसका कंधा पकड़ कर उत्तेजना के मारे बोला। 'एक मिनट रुको! तब तुम गलत कह रहे थे। अब सारी बात मेरी समझ में आ गई है : कि तुम्हारा कहना गलत है! वह फंदा कैसे था? तुम कहते हो कि मजदूरों के बारे में जो सवाल किया गया वह एक फंदा था, अगर वह तुम्हारा काम होता तो तुम क्या कहते कि तुमने फ्लैट की पुताई होते देखी थी... या मजदूरों को देखा था बल्कि इसके उलटे, तुमने अगर देखा भी होता तो यही कहते कि कुछ नहीं देखा! अपने खिलाफ भला कौन ऐसी बात मान लेगा?'

'अगर मैंने वह काम किया होता तो यकीनन यह कहता कि मैंने मजदूरों को देखा था और फ्लैट को भी,' रस्कोलनिकोव ने झिझकते हुए और नफरत से जवाब दिया।

'लेकिन अपने खिलाफ कुछ कहने की जरूरत क्या है?'

'क्योंकि सिर्फ किसान या एकदम नौसिखिए अनाड़ी ही जिरह में हर बात से इनकार करते हैं। आदमी अगर जरा भी समझदार और तजर्बेकार हुआ तो वह उन तमाम बातों को मान लेने की कोशिश करेगा, जिनसे बचा नहीं जा सकता, लेकिन उनके लिए वह कोई दूसरी वजह ढूँढ़ने की कोशिश करेगा। उसे कोई ऐसा नया मोड़ देने की कोशिश करेगा, जिसका किसी को गुमान भी न हो, जिसकी वजह से उन बातों का महत्व ही कुछ और हो जाए और उनका मतलब बदल जाए। पोर्फिरी को यकीनन उम्मीद रही होगी कि मैं यही जवाब दूँगा, सच्चाई का रंग पैदा करने के लिए कहूँगा कि उन्हें मैंने देखा था, और फिर इसकी कोई सफाई दूँगा...'

'लेकिन तब वह फौरन यही कहता कि दो दिन पहले तो मजदूर वहाँ हो ही नहीं सकते थे, और इसलिए तुम वहाँ कत्ल के दिन आठ बजे निश्चित ही रहे होगे। इस तरह तो वह एक छोटी-सी बात पर तुम्हें फँसा लेता।'

'हाँ, वह यही उम्मीद तो लगाए बैठा था कि मुझे सोचने का मौका न मिले, कि मैं जल्दी से सबसे साफ नजर आनेवाला जवाब दे दूँ, और इस तरह यह बात भुला बैठूँ कि मजदूर वहाँ दो दिन पहले तो हो ही नहीं सकते थे।'

'लेकिन इस बात को तुम भूल कैसे सकते थे?'

'बहुत आसान है! ऐसी ही बेवकूफी की बातों में चालाक लोग सबसे आसानी से फँसते हैं। आदमी जितना ही सयाना होता, उतना ही कम शक उसे इस बात का रहता है कि वह किसी सीधी-सादी बात पर पकड़ा जाएगा। आदमी जितना ही सयाना होता है, उतने ही सीधे-सादे फंदे में फँसता है। पोर्फिरी उतना बेवकूफ नहीं जितना तुम समझते हो...'

'ऐसी बात अगर है तो वह काइयाँ है!'

रस्कोलनिकोव अपनी हँसी न रोक सका। लेकिन उसी पल उसे यह बात भी कुछ अजीब-सी लगी कि वह खुल कर बातें कर रहा था और सफाई देने के लिए उत्सुक था, जबकि इससे पहले सारी बातचीत वह उदास भाव से और अरुचि के साथ करता आ रहा था। जाहिर था कि इसके पीछे उसका कोई उद्देश्य था और वह अपनी जरूरत से मजबूर था।

'इसके कुछ पहलुओं ने मुझे बहका दिया है!' उसने मन में सोचा।

लेकिन अचानक उसी पल वह बेचैन हो उठा, गोया उसके दिमाग में कोई भयानक विचार पैदा हो गया हो, जिसकी उसे कोई उम्मीद न थी। उसकी बेचैनी बढ़ती गई। वे बकालेयेव के मकान के फाटक तक पहुँच चुके थे।

'तुम अकेले जाओ!' रस्कोलनिकोव ने अचानक कहा।

'मैं अभी आता हूँ।'

'जा कहाँ रहे हो? हम तो यहाँ पहुँच चुके हैं!'

'...जाना ही पड़ेगा; मुझे एक काम है... मैं आधे घंटे में आता हूँ। उन लोगों से कह देना।'

'चाहे जो करो पर मैं तुम्हारे साथ रहूँगा!'

'क्यों मुझे तुम भी सताना चाहते हो!' वह इतनी कड़वाहट से चिड़-चिड़ा कर आँखों में घोर निराशा भर कर चीखा कि रजुमीखिन सहम गया। उसके हाथ-पाँव ढीले पड़े गए। कुछ देर वह उदास भाव से चौखटे पर खड़ा देखता रहा कि रस्कोलनिकोव लंबे कदम रखता हुआ अपने घर की ओर चला जा रहा है। आखिरकार दाँत पीस कर और मुट्ठियाँ भींच कर उसने कसम खाई कि वह आज ही पोर्फिरी को पूरी तरह निचोड़ कर रख देगा। फिर वह पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना को तसल्ली देने ऊपर गया, जो उन लोगों के इतनी देर तक न आने की वजह से परेशान हो रही थी।

रस्कोलनिकोव अपने घर पहुँचा तो उसका माथा पसीने से तर था और वह बुरी तरह हाँफ रहा था। तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ कर वह ऊपर गया और अपने खुले हुए कमरे में जा कर फौरन अंदर से कुंडी लगा ली। फिर वह दहशत और बदहवासी के आलम में कोने की ओर भागा, कागज के नीचे उस खोखल की ओर अपना हाथ अंदर डाला, जहाँ उसने चीजें रखी थीं और कई मिनट तक ध्यान से उस खोखल के अंदर, हर दरार को कागज की हर शिकन टटोल कर देखता रहा। वहाँ कुछ भी न मिला तो वह उठ कर खड़ा हो गया और गहरी साँस ली। बकालेयेव के मकान की सीढ़ियों तक पहुँचते-पहुँचते वह अचानक फिर सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई चीज कोई जंजीर, कोई बटन, या उस कागज का कोई छोटा-सा टुकड़ा जिसमें उन चीजों को लपेटा गया था और जिस पर बुढ़िया के हाथ से कुछ लिखा हो, किसी तरह इधर-उधर खिसक गया हो, किसी दरार में जा पड़ा हो, और बाद में अचानक उसके खिलाफ एक पक्के सबूत की तरह बरामद हो जाए।

वह विचारों में खोया खड़ा रहा, और एक अजीब-सी, खिसियाई हुई, कुछ-कुछ बेमानी मुस्कान उसके होठों पर मँडलाती रही। आखिर अपनी टोपी उठा कर वह चुपचाप कमरे से बाहर चला गया। उसके विचार बुरी तरह उलझे हुए थे। वह खयालों में खोया-खोया-सा फाटक तक पहुँचा।

'लो, खुद ही आ गया!' किसी ने ऊँची आवाज में कहा। रस्कोलनिकोव ने नजरें उठा कर देखा।

दरबान अपनी कोठरी के दरवाजे पर खड़ा नाटे कद के एक आदमी को उसकी ओर उँगली से इशारा करके बता रहा था। वह आदमी देखने से शहरी लगता था, गाउन जैसा लंबा कोट और वास्कट पहने था, और दूर से देखने पर किसी किसान औरत जैसा मालूम होता था। कंधे कुछ झुके हुए थे और उसका तेल से चीकट टोपी से ढका सर लटका हुआ और पूरा बदन आगे की ओर झुका हुआ था। थुल-थुल झुर्रीदार चेहरे से उसकी उम्र पचास से ऊपर लगती थी। छोटी-छोटी आँखें चर्बी की तहों में छिप कर रह गई थीं और उन तहों के बीच से झाँक कर बड़ी उदासी कठोरता और असंतोष से सब कुछ देखती थीं।

'बात क्या है?' रस्कोलनिकोव ने दरबान की ओर बढ़ते हुए पूछा।

उस आदमी ने नजरें बचा कर रस्कोलनिकोव को गौर से, किसी निश्चित भाव से और ठहराव के साथ देखा और फिर धीरे-धीरे घूम कर एक शब्द भी कहे बिना, फाटक से बाहर सड़क पर चला गया।

'वह क्या चाहता है?' रस्कोलनिकोव जोर से चिल्लाया।

'वह तो पूछ रहा था कि यहाँ कोई छात्र रहता है, फिर उसने आपका नाम लिया और पूछा कि किराएदार किसका है। मैंने आपको आते देखा तो इशारा करके बता दिया और वह चला गया। बस इतनी-सी बात है!'

दरबान भी जरा चकराया हुआ लग रहा था, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं। एक पल कुछ सोचने के बाद वह मुड़ कर अपनी कोठरी में चला गया।

रस्कोलनिकोव उस अजनबी के पीछे भागा और फौरन ही देखा कि वह सड़क की दूसरी पटरी पर, इसी तरह नपे-तुले कदम बढ़ाता हुआ, सधी चाल से जमीन पर नजरें गड़ाए चला जा रहा है, गोया किसी गहरे सोच में डूबा हो। रस्कोलनिकोव ने थोड़ी ही देर में उसे पकड़ लिया और कुछ देर उसके पीछे चलता रहा। आखिरकार उसने उसके बराबर आ कर उसके चेहरे की ओर देखा। उस आदमी ने भी उसे फौरन पहचान लिया, जल्दी से उस पर एक नजर डाली, लेकिन फिर अपनी नजरें झुका लीं। वे दोनों इसी तरह एक-दूसरे के साथ, एक भी शब्द बोले बिना चलते रहे।

'आप मेरे बारे में पूछ रहे थे... दरबान से?' आखिरकार रस्कोलनिकोव ने कहा, लेकिन जरा धीमे स्वर में।

उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया, रस्कोलनिकोव की तरफ देखा तक नहीं। दोनों के बीच फिर से खामोशी छा गई।

'वजह क्या है कि आप... आए, मेरे बारे में पूछा... और अब कुछ बोलते भी नहीं... आखिर मतलब क्या है इसका?' रस्कोलनिकोव की आवाज उखड़ गई। लगा कि वह शब्दों को ठीक से बोल भी नहीं पा रहा है।

अब उस आदमी ने आँखें ऊपर उठाईं और रस्कोलनिकोव को खौफनाक नजरों से देखा।

'तू हत्यारा!' उसने अचानक शांत लेकिन साफ और स्पष्ट लहजे में कहा।

रस्कोलनिकोव उसके साथ चलता रहा। उसकी टाँगें अचानक कमजोरी महसूस करने लगीं, पीठ में ऊपर से नीचे तक सिहरन-सी दौड़ गई और लगा कि उसके दिल की धड़कन एक पल के लिए रुक गई है। उसका दिल फिर अचानक इस तरह धड़कने लगा जैसे छाती फाड़ कर निकल जाएगा। दोनों चुपचाप इसी तरह एक-दूसरे के साथ कोई सौ कदम तक चलते रहे।

उस आदमी ने रस्कोलनिकोव की ओर देखा भी नहीं।

'मतलब क्या है तुम्हारा... क्या... कौन है हत्यारा?' रस्कोलनिकोव ने इतने धीमे से बुदबुदा कर कहा कि सुनना भी मुश्किल था।

'तुम हो,' उस आदमी ने और भी स्पष्ट और रोबदार स्वर में कहा। उसके होठों पर विजय की नफरत भरी मुस्कान थी। रस्कोलनिकोव के पीले चेहरे की ओर उसकी भयभीत आँखों में आँखें डाल कर उसने एक बार फिर देखा। वे दोनों चौराहे पर पहुँच चुके थे। वह आदमी पीछे की ओर देखे बिना बाईं ओर घूम गया। अब रस्कोलनिकोव वहीं खड़ा उसे घूरता रहा। उसने देखा कि पचास कदम जाने के बाद उस आदमी ने मुड़ कर उसे वहीं खड़े हुए देखा। रस्कोलनिकोव ठीक से देख तो नहीं पा रहा था लेकिन उसे लगा कि उस शख्स के होठों पर खुली नफरत और विजय की वही मुस्कराहट थी।

धीमे, लड़खड़ाते कदमों से रस्कोलनिकोव अपने कमरे की ओर वापस चला। घुटने आपस में टकरा रहे थे, और उसे लग रहा था कि सारा शरीर बरफ की तरह ठंडा पड़ गया है। कमरे में पहुँच कर उसने मेज पर टोपी उतार कर रखी और कोई दस मिनट तक बिना हिले-डुले मूर्ति की तरह खड़ा रहा। निढाल हो कर फिर वह सोफे पर बैठ गया और फिर दर्द की एक हल्की कराह के साथ टाँगें फैला कर लेट गया। उसकी आँखें बंद थीं। कोई आधे घंटे वह इसी तरह लेटा रहा।

वह किसी भी चीज के बारे में नहीं सोच पा रहा था। कुछ विचार थे या विचारों के टुकड़े थे, कुछ अव्यवस्थित और बिखरी हुई तस्वीरें दिमाग में तैर रही थीं - उन लोगों के चेहरे जिन्हें उसने बचपन में देखा था या जिनसे कहीं एक बार मिला था, जिनकी सूरत भी वह कभी याद नहीं कर सकता था, एक गिरजाघर की वह बुर्ज, जिसमें घंटा लगा हुआ था, किसी रेस्तराँ में रखी हुई बिलियर्ड की मेज और उस पर बिलियर्ड खेलता कोई अफसर, किसी तहखाने में स्थित तंबाकू की दुकान में सिगारों की खुशबू, एक भटियारखाना अँधेरी सीढ़ियाँ जिन पर गंदा पानी बहते रहने की वजह से चिपचिपाहट और फिसलन थी और अंडों के छिलके हर तरफ बिखरे हुए थे, कहीं दूर से इतवार को गिरजाघर में बजते घंटे की आवाज हवा की लहरों पर तैरती हुई आ रही थी... ये तस्वीरें एक बवंडर की तरह चक्कर काटती हुई तेजी से एक के बाद एक चली आ रही थीं। कुछ तस्वीरें उसे अच्छी लगीं और उसने हाथ बढ़ा कर उन्हें पकड़ना चाहा लेकिन वे धुँधली होती हुई गायब हो गईं। तमाम वक्त उसके अंदर एक घुटन-सी मौजूद रही लेकिन ऐसी भी नहीं कि उसे पूरी तरह दबोच ले, वह बल्कि कभी-कभी अच्छी भी लगती थी। बदन में हलकी कँपकँपी अभी भी हो रही थी, लेकिन यह कँपकँपी भी उसे भली-सी लग रही थी।

उसे रजुमीखिन के तेज कदमों की आहट सुनाई दी। उसने आँखें बंद कर लीं और सोने का बहाना करके पड़ा रहा। रजुमीखिन ने दरवाजा खोला और कुछ देर तक गोया झिझकता हुआ दरवाजे पर ही खड़ा रहा। फिर दबे पाँव वह कमरे में आया और सावधानी से सोफे के पास गया। रस्कोलनिकोव ने नस्तास्या के चुपके-चुपके बोलने की आवाज सुनी :

'जगाने का नईं! सोने दो उसका। खाना बाद में खा लेंगा।'

'सही बात है,' रजुमीखिन ने जवाब दिया।

दबे पाँव दोनों बाहर चले गए और दरवाजा बंद करते गए। आधा घंटा और बीता। रस्कोलनिकोव ने आँखें खोलीं और करवट बदल कर सर के पीछे दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में फँसा कर पीठ के बल लेट गया।

'कौन है वह? कौन था जो धरती का सीना फाड़ कर इस तरह अचानक बाहर निकल आया था? कहाँ था वह और क्या-क्या देखा है? उसने सब कुछ देखा है, यह बात तो साफ है। उस वक्त वह कहाँ था और उसने वह सब कहाँ से देखा अब वह इसी वक्त धरती का सीना फाड़ कर बाहर क्यों निकला पर वह देख कैसे सकता था क्या यह मुमकिन है हुँह...' रस्कोलनिकोव सोचता रहा, उसका बदन ठंडा पड़ता गया और कँपकँपी बढ़ती गई। 'और वह जेवर की डिबिया जो निकोलाई ने दरवाजे के पीछे पाई थी - वह क्या मुमकिन था सुराग बाल बराबर लकीर भी नजर से चूक जाए तो पहाड़ जैसा सबूत खड़ा हो जाता है! एक मक्खी उधर से उड़ कर जा रही थी, उसने तो देखा था! क्या ऐसा मुमकिन है?'

'उसे अचानक अपने आपसे नफरत-सी होने लगी - यह महसूस करके कि वह कितना कमजोर हो गया था, उसका बदन कितना कमजोर हो गया था।'

'मुझे यह बात पता होनी चाहिए थी,' उसने तल्खी से मुस्कराते हुए सोचा। 'अपने आपको जानते हुए, और यह जानते हुए कि मुझे कैसा होना चाहिए, मैंने यह हिम्मत कैसे की भला कि कुल्हाड़ी उठाई और खून बहा दिया! मुझे पहले से पता होना चाहिए था... आह, मुझे पता तो था!' उसने निराशा के साथ बहुत धीमे स्वर में कहा।

कभी-कभी वह किसी विशेष विचार पर आ कर अटक जाता था।

'नहीं, वे लोग कुछ और ही मिट्टी के बने हुए होते हैं। जो सच्चा स्वामी होता है, जिसे हर बात की छूट होती है, वह तूलों पर तूफान की तरह चढ़ाई करता है, पेरिस में कत्लेआम करता है, मिस्र में अपनी एक पूरी फौज छोड़ आता है, मास्को के धावे में अपने पाँच लाख फौजी गँवा देता है और विएना पहुँच कर हँस कर सारी बात लफ्जों के खेल में टाल देता है। फिर उसके मरने के बाद उसके स्मारक बनाए जाते हैं और इस तरह सब कुछ माफ कर दिया जाता है। नहीं, यूँ लगता है कि ऐसे लोग हाड़-मांस के नहीं बल्कि काँसे के बने होते हैं!'

अचानक एक ऐसा फालतू विचार उसके दिमाग में आया कि उसे हँसी आ गई।

'नेपोलियन, मिस्र के पिरामिड, वाटरलू और एक कमबख्त सूखी-सी कमीनी बुढ़िया, चीजें गिरवी रखनेवाली, जिसके पलँग के नीचे एक बड़ा-सा लाल रंग का संदूक था - अच्छी खिचड़ी है पोर्फिरी पेत्रोविच जैसों के हजम करने के लिए! आखिर वे लोग ऐसी बातों को पचा कैसे जाते हैं! कितनी फूहड़ बात है। 'एक नेपोलियन घुटनों के बल रेंग कर एक खूसट बुढ़िया के पलँग के नीचे जा रहा है।' उफ, क्या बकवास है!'

कुछ पल तो ऐसे भी आते थे जब उसे लगता था कि वह पागलों की तरह बकबका रहा है। उस पर बुखार के जुनून जैसी हालत छा गई।

'बुढ़िया की कोई अहमियत ही नहीं,' उसने उत्तेजित हो कर बिना किसी प्रसंग के सोचा। 'बुढ़िया एक गलती थी शायद, लेकिन असली अहमियत उसकी है ही नहीं! बुढ़िया तो बस एक बीमारी थी... मुझे हद पार करने की जल्दी थी... मैंने एक इनसान की नहीं एक सिद्धांत की हत्या की! मैंने सिद्धांत की हत्या तो कर दी लेकिन हद के पार न जा सका, इसी तरफ रुक गया... मैं सिर्फ हत्या ही कर सकता था। पर लगता है कि मैं वह भी नहीं कर सकता था... सिद्धांत वह बेवकूफ रजुमीखिन अभी-अभी सोशलिस्टों को गाली क्यों दे रहा था, वे मेहतनी, कारोबारी लोग होते हैं, उनका नारा 'सबका सुख' है। नहीं, यह जिंदगी मुझे सिर्फ एक बार मिली है, फिर कभी नहीं मिलेगी, सो मैं 'सबके सुख' की राह नहीं देखना चाहता। अपनी जिंदगी जीना चाहता हूँ मैं, वरना बेहतर है कि जिंदा ही न रहा जाए। यह तो मैं कर ही नहीं सकता कि मेरी माँ भूखी मर रही हो और मैं अपनी जेब में रूबल रखे हुए, 'सबके सुख' की राह देखता हुआ उसके पास से हो कर आगे बढ़ जाऊँ। 'सबके सुख की इमारत खड़ी करने के लिए मैं भी उसमें अपनी एक छोटी-सी ईंट लगा रहा हूँ और इस पर मेरे मन को पूरा-पूरा संतोष है।' हा-हा! तुमने मुझे नजरअंदाज क्यों किया मुझे सिर्फ एक बार जिंदगी करनी है, मैं भी चाहता हूँ कि... छिः, मैं एक संवेदनशील जूँ हूँ, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं,' अचानक उसने पागलों की तरह हँसते हुए कहा। 'हाँ, मैं एक जूँ हूँ,' उसके विचारों का क्रम जारी रहा। उसने इस विचार को पकड़ लिया था, मन-ही-मन उस पर खुश हो रहा था और उससे खेल रहा था। उसे इसमें ऐसी खुशी मिल रही थी जैसी किसी से बदला ले कर मिलती है। 'सबसे पहले तो इसलिए कि मैं इस बारे में तर्क दे सकता हूँ कि मैं एक जूँ हूँ, और दूसरे इसलिए कि पिछले एक महीने से मैं अपनी हितैषी नियति को परेशान करता रहा हूँ, उससे इस बात की गवाह रहने को कहता रहा हूँ कि मैंने अपनी शारीरिक वासनाओं के लिए नहीं बल्कि एक सुंदर और उदात्त उद्देश्य के लिए इस काम का बीड़ा उठाया था - हा-हा! तीसरे जहाँ तक हो सका, मैंने इस काम को पूरी तरह न्यायपूर्ण ढंग से निभाने की कोशिश की। हर चीज को अच्छी तरह नाप-तोल कर और हर बात का हिसाब करके। जितनी जूँएँ थीं उनमें से मैंने सबसे बेकार जूँ को चुना और उससे बस उतना ही लिया जितना कि मुझे पहला कदम उठाने के लिए जरूरत थी, न उससे ज्यादा और न उससे कम। इसलिए कि बाकी उसकी वसीयत के अनुसार मठ को मिल जाए, हा-हा! तो जिस बात से यह पता चलता है कि मैं सिर्फ एक जूँ हूँ वह,' उसने दाँत पीस कर मन-ही-मन कहा, 'यह है कि मैं शायद उस जूँ से भी ज्यादा नीच और ज्यादा घिनावना हूँ, जिसको मैंने मार डाला, और यह तो मैंने पहले ही सोच लिया था कि उसे मारने के बाद मैं अपने आप से यही कहूँगा! क्या कोई इससे भी भयानक बात हो सकती है! कैसा ओछापन है! कैसी नीचता है! मैं तलवार हाथ में लिए घोड़े पर सवार उस 'पैगंबर को तो समझ सकता हूँ जो कहता है : यह अल्लाह का हुक्म है और 'थरथर काँपती हुई' मखलूक को उसका हुक्म मानना चाहिए! 'पैगंबर' का कहना ठीक है और 'पैगंबर' की यह करनी भी ठीक है कि वह सड़क पर लश्कर खड़ा करके गुनहगारों और बेगुनाहों दोनों का सफाया कर दे और इसकी वजह तक न बताए कि उसने ऐसा क्यों किया! ऐ थरथर काँपती हुई मखलूक, तेरा काम हुक्म मानना है, न कि ख्वाहिशें रखना, क्योंकि वह तेरे हिस्से की चीज नहीं है! ...मैं उस बुढ़िया को कभी माफ नहीं करूँगा!'

उसके बाल पसीने में भीगे हुए थे। काँपते हुए होठ सूख गए थे और नजरें छत पर जमी हुई थीं।

'मेरी माँ, मेरी बहन... उनसे मुझे कितना प्यार था! तो अब मुझे उनसे नफरत क्यों है हाँ, मैं उनसे नफरत करता हूँ, मुझे उनकी सूरत से भी नफरत है, मैं उन्हें अपने पास बर्दाश्त नहीं कर सकता... मुझे याद है मैंने अपनी माँ के पास जा कर उन्हें प्यार किया था, तो क्या मैं उनके सीने से लग जाऊँ और सोचूँ कि अगर उन्हें मालूम होता कि... तो फिर मैं उन्हें बता ही क्यों न दूँ मुमकिन है मैं यही करूँ... हुँह! वह भी बिलकुल वैसी ही होगी जैसा मैं हूँ,' उसने दिमाग पर जोर दे कर सोचने की कोशिश करते हुए मन में कहा, गोया सरसाम की हालत से लड़ने की कोशिश कर रहा हो। 'ओह, मुझे अब उस बुढ़िया से कितनी नफरत है! मुझे तो लगता है कि अगर वह फिर जिंदा हो जाए तो मैं उसे फिर कत्ल कर दूँ! बेचारी लिजावेता! वह अंदर आई ही क्यों! ...लेकिन यह भी अजीब बात है, ऐसा क्यों है भला कि मैं उसके बारे में सोचता ही नहीं, गोया उसे मैंने कत्ल न किया हो लिजावेता! सोन्या! बेजबान बेचारी, जिनकी आँखों से हरदम नेकी बरसती है... बेचारी ये नेक औरतें! ये रोतीं क्यों नहीं कराहतीं क्यों नहीं वे हर चीज छोड़ देती हैं... उनकी आँखों में नर्मी है और नेकी है... सोन्या, सोन्या, नेक दिल सोन्या!'

वह नीम बेहोश हो गया। उसे अजीब लग रहा था कि उसे यह भी याद न था कि वह सड़क पर कैसे पहुँचा। काफी देर हो चली थी। गोधूलि की वेला बीत चुकी थी और पूनम के चाँद की चमक तेज होती जा रही थी। पर हवा में एक अजीब-सी घुटन थी। सड़क पर लोगों की भीड़ थी। मजदूर और व्यापारी अपने-अपने घर जा रहे थे; बाकी लोग टहलने निकले थे। गारे, धूल और सड़ते हुए ठहरे पानी की बू चारों तरफ फैली हुई थी। रस्कोलनिकोव उदासी और चिंता में डूबा चला जा रहा था; उसे इस बात का पूरा-पूरा एहसास था कि वह किसी उद्देश्य से निकला था, उसे जल्द ही कोई काम करना था, लेकिन वह काम था क्या, इसे वह भूल गया था। अचानक वह ठिठक कर रुक गया और देखा कि एक आदमी सड़क की दूसरी पटरी पर खड़ा उसे इशारे से बुला रहा है। सड़क पार करके वह उसके पास तक गया, लेकिन वह आदमी फौरन ही मुड़ कर सर झुकाए हुए चल पड़ा, गोया उसने उसे कोई इशारा ही न किया हो। 'गोया उसने मुझे सचमुच इशारा क्या नहीं किया था' रस्कोलनिकोव सोचने लगा, लेकिन साथ ही उसके बराबर पहुँचने की कोशिश भी करता रहा। जब वह उससे कोई दस कदम दूर रह गया तो उसे पहचाना और डर गया : वह लंबा कोट पहने वही, झुके हुए कंधोंवाला आदमी था। रस्कोलनिकोव कुछ दूरी रख कर उसके पीछे चलता रहा और उसका दिल धड़क रहा था। दोनों जब एक मोड़ पर मुड़ गए तो भी उस आदमी ने पीछे पलट कर नहीं देखा। 'उसे क्या मालूम है कि मैं उसके पीछे-पीछे आ रहा हूँ?' रस्कोलनिकोव ने सोचा। वह आदमी एक बड़े से घर के फाटक में घुसा। रस्कोलनिकोव भी जल्दी से फाटक के पास तक पहुँच गया और अंदर झाँक कर देखने लगा कि वह आदमी घूम कर उसे इशारा करता है या नहीं। अहाते में पहुँच कर वह आदमी घूमा और लगा कि उसने एक बार फिर उसे इशारे से बुलाया है। रस्कोलनिकोव फौरन उसके पीछे-पीछे अहाते में पहुँच गया, लेकिन वह जा चुका था। 'वह पहले जीने से ऊपर गया होगा।' रस्कोलनिकोव उसके पीछे लपका। उसने दो मंजिल ऊपर सधे हुए, धीमे कदमों की आहट सुनी। सीढ़ियाँ कुछ अजीब-सी पहचानी हुई लग रही थीं। वह पहली मंजिल की खिड़की के पास पहुँचा जिसके काँच में से चमकते हुए चाँद की फीकी, उदास और रहस्यमयी रोशनी दिखाई दे रही थी। फिर वह दूसरी मंजिल पर पहुँचा। वाह! वह फ्लैट यही तो है जहाँ पुताई वाले मजदूर काम कर रहे थे... इसे वह फौरन क्यों नहीं पहचान सका ऊपर से उस आदमी के कदमों की आहट आनी बंद हो गई थी। 'वह रुक गया या कहीं छिप गया होगा!' वह तीसरी मंजिल पर पहुँचा। 'क्या मैं और ऊपर जाऊँ चारों ओर भयानक सन्नाटा था... लेकिन वह आगे बढ़ता गया। उसे अपने ही कदमों की आहट से अब डर लगने लगा था। कितना अँधेरा था! यहीं किसी कोने में वह आदमी छिपा होगा। आह! फ्लैट पूरी तरह खुला हुआ था। वह झिझकते-झिझकते अंदर गया। ड्योढ़ी बहुत अँधेरी और खाली-खाली लग रही थी, जैसे हर चीज हटा दी गई हो। दबे पाँव वह धीरे-धीरे बैठक में घुसा, जिसमें भरपूर चाँदनी छिटकी हुई थी। वहाँ पहले की तरह ही हर चीज मौजूद थी : कुर्सियाँ, आईना, पीला सोफा, फ्रेमों में जड़ी तस्वीरें। खिड़कियों में से बड़ा-सा, गोल और ताँबाई लाल रंग का चाँद झाँक रहा था। 'चाँद से ही चारों ओर की इतनी शांति फूट रही है; वह भी एक रहस्य का ताना-बाना बुन रहा है,' रस्कोलनिकोव ने सोचा। वहीं खड़ा वह इंतजार करता रहा और देर तक इंतजार करता रहा। लेकिन चाँदनी की खामोशी जितनी ही बढ़ती जाती थी, उसके दिल की धड़कन भी उतनी ही तेज होती जाती थी, यहाँ तक कि उसे दर्द होने लगा। सन्नाटा वैसे ही छाया रहा। अचानक उसे सूखी लकड़ी के टूटने जैसी तेज चटकने की आवाज पल भर के लिए सुनाई दी और उसके बाद सन्नाटा फिर छा गया। अचानक एक मक्खी उड़ी और दर्द-भरी भिनभिनाहट के साथ जा कर खिड़की के काँच से टकराई। उसी पल उसे खिड़की और छोटी-सी अलमारी के बीचवाले कोने में, दीवार पर लबादे जैसी कोई चीज लटकी हुई नजर आई। 'वह लबादा यहाँ क्यों है' उसने सोचा, 'पहले तो नहीं था...' वह चुपचाप उसके पास गया और उसे लगा, उसके पीछे कोई चीज छिपी हुई है। उसने सावधानी से लबादे को हटा कर देखा। वही बुढ़िया कोने में एक कुर्सी पर कमर दोहरी किए इस तरह बैठी थी कि उसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन वह थी वही। वह उसके पास खड़ा, झुक कर उसे देखता रहा। 'डर गई है,' उसने सोचा। उसने चुपके से फंदे में से कुल्हाड़ी निकाली और उसकी खोपड़ी पर एक वार किया, फिर दूसरा। लेकिन अजीब बात थी कि वह हिली तक नहीं, मानो लकड़ी की बनी हो। वह डर गया और पहले से भी ज्यादा झुक कर और भी पास से उसे देखने की कोशिश करने लगा; लेकिन उसने भी अपना सर और नीचे झुका लिया। वह एकदम जमीन तक झुक गया और नीचे से झाँक कर उसके चेहरे को देखने लगा। अब उसका पूरा बदन दहशत के मारे ठंडा पड़ गया। बुढ़िया बैठी हँस रही थी, उसका सारा बदन बेआवाज हँसी से हिल रहा था और वह पूरी-पूरी कोशिश कर रही थी कि उसकी हँसी उसे सुनाई न दे। अचानक रस्कोलनिकोव को लगा कि सोने के कमरे का दरवाजा थोड़ा-सा खुला और अंदर से हँसने और खुसफुसाने की आवाज आई। उस पर जुनून सवार हो गया और वह जोर लगा कर बुढ़िया के सर पर वार करने लगा, लेकिन कुल्हाड़ी के हर वार के साथ सोने के कमरे में से आनेवाली, हँसने और खुसफुसाने की आवाज और भी तेज होती गई। रही बुढ़िया तो वह तो हँस कर लोट-पोट हो रही थी। वह वहाँ से भागना चाहता था लेकिन गलियारे में लोग भरे हुए थे, हर फ्लैट का दरवाजा खुला था और बीच की खुली जगह में, सीढ़ियों पर और सीढ़ियों के नीचे भी हर जगह लोग खड़े थे। सरों की कतारें। सब लोग देख रहे थे, लेकिन एकदम चुप। किसी बात की आशा करते हुए वे लोग एक-दूसरे से सटे खड़े थे। उसके दिल को किसी चीज ने शिकंजे की तरह जकड़ लिया। पाँव वहीं जम कर रह गए, किसी तरह वे हिल ही नहीं रहे थे... उसने चीखने की कोशिश की और... जाग पड़ा।

उसने एक गहरी साँस ली। पर अजीब बात यह थी कि उसे लग रहा था वह सपना अभी तक चल रहा है। उसका दरवाजा खुला हुआ था और दरवाजे पर खड़ा एक आदमी, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था, गौर से उसे घूर रहा था।

रस्कोलनिकोव की आँखें अभी पूरी तरह खुली भी नहीं थीं कि उसने उन्हें फिर बंद कर लिया। वह चुपचाप हिले-डुले बिना पीठ के बल लेटा रहा। 'क्या मैं अभी तक सपना देख रहा हूँ!' वह सोचने लगा और उसने अपनी पलकें जरा-सी खोलीं कि कोई दूसरा न देख सके : वह अजनबी अभी तक उसे घूर रहा था। उसने अचानक सँभल कर कमरे में कदम रखा, अंदर आ कर सावधानी से दरवाजा बंद किया, मेज के पास तक गया, रस्कोलनिकोव पर नजरें जमाए हुए पल-भर के लिए रुका, और चुपचाप सोफे के पास की कुर्सी पर बैठ गया। उसने पास ही फर्श पर अपनी टोपी रख दी और अपनी छड़ी पर दोनों हाथ टिका कर उन पर अपनी ठोड़ी टिका ली। जाहिर था कि वह जितनी देर भी जरूरी हो, इंतजार करने के लिए तैयार था। रस्कोलनिकोव जहाँ तक उसे कनखियों से देख सका, वह आदमी अपनी जवानी की उम्र पार कर चुका था। बदन गठा हुआ था और चेहरे पर घनी भरपूर दाढ़ी थी जिसका बहुत ही हलका सुनहरा रंग लगभग पूरी तरह सफेद लगता था...।

कोई दस मिनट बीते। अभी तक थोड़ी-थोड़ी रोशनी थी लेकिन झुटपुटा छाने लगा था। कमरे में मुकम्मल खामोशी थी। सीढ़ियों पर से भी कोई आवाज नहीं आ रही थी। बस एक बड़ी-सी भिनभिनाती हुई मक्खी खिड़की के काँच से फड़फड़ा-फड़फड़ा कर टकरा रही थी। आखिरकार हालत जब बर्दाश्त से बाहर हो गई तो रस्कोलनिकोव अचानक उठ कर सोफे पर बैठ गया।

'हाँ तो कहिए, क्या काम है?'

'मैं जानता था कि आप सो नहीं रहे, सिर्फ सोने का बहाना कर रहे हैं,' अजनबी ने शांत भाव से हँसते हुए, अजीब ढंग से जवाब दिया। 'मैं अपना परिचय दे दूँ, मैं अर्कादी इवानोविच स्विद्रिगाइलोव...'