अपराध और दंड / अध्याय 6 / भाग 7 / दोस्तोयेव्स्की

Gadya Kosh से
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उसी दिन शाम को, लगभग सात बजे, रस्कोलनिकोव उस फ्लैट की ओर जा रहा था जहाँ उसकी माँ और बहन रहती थीं। बकालेयेव के मकान का यह फ्लैट उनके लिए रजुमीखिन ने किराए पर ले लिया था। सीढ़ियों पर जाने का रास्ता सड़क की तरफ से था। पास पहुँच कर रस्कोलनिकोव ने अपनी रफ्तार धीमी कर दी, गोया झिझक रहा हो कि अंदर जाए या न जाए। लेकिन उसने अपना इरादा पक्का कर लिया था। अब दुनिया की कोई भी चीज उसे अपने कदम पीछे लौटाने पर मजबूर नहीं कर सकती थी। 'और फिर,' उसने सोचा। 'उन लोगों को अभी तक कुछ मालूम भी तो नहीं, और ये तो मुझे सनकी समझने की आदी हो चुकी हैं...' उसके कपड़ों की हालत बहुत बुरी थी। उसने सारी रात बारिश में भीगते हुए बिताई थी, और हर वह चीज गंदी थी और फट कर तार-तार हो गई थी जो वह पहने हुए था। थकान के मारे, खुले में रहने की वजह से, शरीर से चूर-चूर हो कर, और लगभग चौबीस घंटे से उसके मन में अपने ही खिलाफ जो द्वंद्व मचा हुआ था, उसके चलते उसका चेहरा भयानक लग रहा था। पिछली रात भर वह अकेला रहा... भगवान जाने कहाँ। लेकिन, बहरहाल, उसने अपना इरादा पक्का कर लिया था।

उसने दरवाजा खटखटाया जो माँ ने खोला। दूनिया घर पर नहीं थी, नौकरानी भी कहीं गई हुई थी। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना पहले तो उसे देख कर खुशी और आश्चर्य के मारे अवाक रह गईं; फिर उसका हाथ पकड़ कर उसे कमरे में ले आईं।

'तुम आ गए!' उन्होंने खुशी के मारे हाँफते हुए कहा।

'रोद्या नाराज न होना बेटा कि मैं आँसू बहा कर इस तरह बेवकूफी से तुम्हारा स्वागत कर रही हूँ। मैं रो नहीं रही, ये तो खुशी के आँसू हैं। तुम समझते हो, मैं रो रही हूँ नहीं बेटा, मैं तो बहुत खुश हूँ। यह मेरी नादानीवाली आदत है कि रोने पर मेरा बस नहीं चलता। जब तुम्हारे बाप मरे तभी से जरा-जरा-सी बात पर मेरे आँसू निकल पड़ते हैं। बैठ जाओ बेटा, थक गए होगे। देख रही हूँ कि तुम कितना थके हुए हो। तुम्हारे कपड़े कितने मैले हो गए हैं!'

'कल बारिश में फँस गया था, माँ...' रस्कोलनिकोव ने कहना शुरू किया।

'नहीं, नहीं!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने जल्दी से उसकी बात काट कर कहा। 'तुम समझे मैं फौरन तुमसे सवाल-जवाब शुरू कर दूँगी, क्यों मैं जानती हूँ, बुढ़ियों की तरह मेरी भी यही बेवकूफी की आदत थी। लेकिन बेटा, तुम चिंता मत करो। मैं समझती हूँ, सब समझती हूँ। यहाँ तुम लोग जिस ढंग से काम करते हो, उसकी मुझे अब आदत पड़ गई है। मैं सचमुच मानती हूँ कि वह कहीं ज्यादा समझदारी का तरीका है। देखो बेटा, अब मैंने हमेशा के लिए फैसला कर लिया है... तुम्हारे विचार मेरी समझ में आ नहीं सकते, सो मुझे भी तुमसे कोई जवाब तलब नहीं करना चाहिए। शायद तुम्हारे दिमाग में तरह-तरह के विचार हैं, न जाने क्या-क्या मंसूबे हैं, या तुम्हारे दिमाग में तरह-तरह के और भी विचार आ सकते हैं। इसलिए यह मेरी नादानी ही होगी अगर मैं हर वक्त तुम्हें यह पूछ-पूछ कर तंग करती रहूँ कि तुम सोच क्या रहे हो। देखो, बात यह है कि मैं... लेकिन हे भगवान! मैं इधर-उधर पागलों की तरह भाग क्यों रही हूँ ...देखो, रोद्या, मैं अभी उस पत्रिका में तुम्हारा लेख तीसरी बार पढ़ रही थी, द्मित्री प्रोकोफिच ने मुझे ला कर दिया था। तुम अंदाजा लगा सकते हो कि उसे पढ़ कर मुझे कितना ताज्जुब हुआ होगा। मैं भी कितनी नासमझ और बेवकूफ हूँ, मैंने मन में सोचा। तो वह यह कर रहा है! और यह है सारी बातों की वजह! हो सकता है, उसके दिमाग में कुछ नए विचार भी हों। वह उनके बारे में सोच रहा है और मैं उसे तंग करती रहती हूँ, उसकी बातों में टाँग अड़ाती रहती हूँ! मैं तुम्हारा लेख पढ़ रही हूँ बेटा, और उसमें जाहिर है! ऐसी बहुत-सी बातें भी हैं, जो मेरी समझ में नहीं आतीं। लेकिन इसमें ताज्जुब की क्या बात मैं समझ ही भला कैसे सकती हूँ'

'मुझे तो दिखाओ, माँ।'

रस्कोलनिकोव ने पत्रिका ले ली और अपने लेख पर सरसरी-सी नजर डाली। यह बात उसकी मौजूदा हालत और उसकी मानसिक स्थिति से कितनी ही बेमेल रही हो, लेकिन उसके मन में भी अनायास वही कड़वी-मीठी भावना पैदा हुई जो हर लेखक के मन में अपनी कोई रचना पहली बार छपी हुई देख कर पैदा होती है। इसके अलावा वह तो अभी तेईस साल का ही था। लेकिन यह भावना पल भर ही रही। कुछ पंक्तियाँ पढ़ने के बाद उसने अपनी भवें सिकोड़ीं और चुपके से उसके हृदय में घोर निराशा की भावना जाग उठी। उसके दिमाग में फौरन उसका पिछले कुछ महीनों का आंतरिक द्वंद्व उभर आया। उसने अरुचि से झुँझला कर लेख मेज पर फेंक दिया।

'लेकिन रोद्या बेटा, मैं कितनी ही नासमझ सही, इतना तो समझ ही सकती हूँ कि जल्दी ही तुम हमारी वैज्ञानिक दुनिया में सबसे बड़े आदमी न सही, सबसे बड़े लोगों में से एक तो जरूर होगे। और उन लोगों की यह मजाल कि उन्होंने तुम्हें पागल समझा! हा-हा-हा! तुम्हें यह बात तो नहीं मालूम होगी, लेकिन उन लोगों ने सचमुच ऐसा समझा था! उफ, कैसे-कैसे नीच लोग हैं! उनसे असली प्रतिभा को पहचानने की उम्मीद ही भला क्या की जाए! और दूनिया... जानते हो, दूनिया भी लगभग ऐसा ही समझने लगी थी तुम्हारे पापा ने दो बार पत्रिकाओं में छपने के लिए चीजें भेजी थीं - पहली बार कुछ कविताएँ (अभी तक मेरे पास रखी हैं, कभी दिखाऊँगी तुम्हें), और फिर एक पूरा उपन्यास (मैंने उनकी बड़ी मिन्नत की थी कि मुझे उसको नकल कर लेने दें), और हम दोनों कितना मनाते रहते थे कि वे स्वीकार कर ली जाएँ! लेकिन उन लोगों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। जानते हो रोद्या, जिस तरह तुम रहते थे, जैसे कपड़े तुम पहनते थे और जैसा खाना तुम खाते थे, उसे देख कर अभी छह-सात दिन पहले तक मैं बहुत परेशान हो रही थी। लेकिन अब मेरी समझ में आ रहा है कि यह मेरी कितनी बड़ी नादानी थी क्योंकि, बेटा, जैसा दिमाग तुमने पाया है और जैसे गुण तुम्हारे अंदर हैं, उन्हें देखते हुए तो तुम जब भी कुछ चाहोगे वह तुम्हें मिल जाएगा। मैं समझती हूँ तुम इस वक्त कुछ चाहते ही नहीं हो, क्योंकि तुम्हें बहुत-सी दूसरी, बड़ी-बड़ी बातों के बारे में सोचना है...'

'दूनिया क्या घर पर नहीं है, माँ?'

'नहीं बेटा, वह नहीं है। वह इधर कुछ दिनों से काफी बाहर रहने लगी है और मुझे घर पर अकेला छोड़ जाती है। द्मित्री प्रोकोफिच, भगवान भला करे उसका, आ कर कुछ देर मेरे पास बैठ जाता है। हमेशा वह तुम्हारी ही चर्चा करता रहता है। वह तुमसे बहुत प्यार करता है बेटा, और तुम्हारी काफी इज्जत करता है। लेकिन मैं तुम्हारे मन में यह खयाल उठाना नहीं चाहती कि तुम्हारी बहन मेरा ध्यान नहीं रखती। मैं शिकायत नहीं कर रही। उसके अपने ढंग हैं, मेरा अपना ढंग है। इधर कुछ दिनों से वह न जाने कितनी बातें छिपाने लगी है, लेकिन मैं तुम दोनों से कोई बात नहीं छिपाती। यह मुझे पता है बेटा, कि दूनिया बेहद समझदार लड़की है। इसके अलावा, वह तुम्हें और मुझे प्यार भी बहुत करती है... लेकिन न जाने इस सबका नतीजा क्या होगा, मुझे बहुत खुशी हुई रोद्या कि तुम इस वक्त मुझसे मिलने आए; लेकिन उससे मुलाकात नहीं हो पाई। वह आएगी तो मैं उससे कह दूँगी कि जब वह सारे शहर में तितली की तरह उड़ती फिर रही थी, तब उसका भाई यहाँ आया था। बेटा मुझे दुलरा कर मुझे बिगाड़ मत देना। जब आ सको, आ जाया करना और न आ सको तो कोई बात नहीं। मैं इंतजार कर लूँगी क्योंकि देखो बेटा, यह मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे प्यार करते हो, और इतना ही मेरे लिए बहुत है। जो कुछ तुम लिखोगे, वह मैं पढ़ा करूँगी, सबके मुँह से तुम्हारी चर्चा सुनूँगी और बीच-बीच में तुम खुद भी तो मिलने आया करोगे। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है तुम इस वक्त भी तो अपनी माँ का कलेजा ही ठंडा करने आए हो मैं क्या इतना नहीं समझती...'

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना की आँखों से अचानक आँसू बह निकले।

'लो; मैं फिर वही सब करने लगी। बुरा न मानना बेटा, मैं तो एक नासमझ बुढ़िया ही ठहरी! हे भगवान!' वह अचानक चिल्लाईं और कुर्सी से उछल कर खड़ी हो गईं। 'मैं यहाँ बैठी क्यों हूँ। कॉफी बनी रखी है और तुम्हें देती नहीं! देखो न, बूढ़ी औरतें कैसी स्वार्थी होती हैं। मैं अभी आई, बेटा!'

'कॉफी रहने दो, माँ। मुझे अभी एक मिनट में जाना है। मैं यहाँ इसलिए नहीं आया हूँ। मेरी बात ध्यान दे कर सुनो, माँ।'

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना डरते-डरते उसके पास आ गईं।

'माँ, वाह कुछ भी हो जाए, तुम मेरे बारे में चाहे जो कुछ सुनो, लोग मेरे बारे में चाहे जो कुछ बताएँ, क्या तुम मुझे उसी तरह प्यार करती रहोगी, जैसे अब करती हो?' उसने अचानक पूछा। ये शब्द उसके दिल की गहराई से सहज भाव से निकले थे, गोया वह अपने शब्दों के बारे में न सोच रहा हो, न ही उन्हें बोलने से पहले तौल रहा हो।

'रोद्या, मेरे बेटे, बात क्या है मुझसे तुम ऐसी बात क्यों पूछ रहे हो? क्यों?, मुझसे तुम्हारे बारे में कौन कोई बात कहेगा मैं तो किसी की बात पर विश्वास ही नहीं करूँगी, वह कोई भी क्यों न हो। उसे तो मैं खड़े-खड़े निकाल दूँगी, सचमुच।'

'मैं तुम्हें यही बताने आया हूँ कि तुम्हें मैंने हमेशा प्यार किया है और मुझे खुशी है कि हम यहाँ अकेले ही हैं। मुझे इसलिए भी खुशी है कि दूनिया भी अभी यहाँ नहीं है,' वह उसी रौ मैं बोलता रहा। 'मैं तुम्हें साफ-साफ बताने आया हूँ... तुम्हें दुख तो होगा लेकिन मैं चाहता हूँ, तुम यह जान लो कि तुम्हारा बेटा अब जितना प्यार तुझसे करता है, उतना वह अपने आपसे भी नहीं करता... यह भी कि तुम मेरे बारे में जो कुछ भी सोचती थी, कि मैं निर्दयी हूँ, मैं तुमसे प्यार नहीं करता, वह सच नहीं है। मैं तुम्हें हमेशा प्यार करता रहूँगा। बस इतना ही काफी है, माँ। यह बात तुम्हें बताना मेरे लिए जरूरी था... इसलिए मैंने यहीं से शुरू करने का फैसला किया।'

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उसे चुपचाप गले से लगा लिया, कस कर सीने से चिपका लिया और चुपके-चुपके रोने लगीं।

'तुम्हें न जाने क्या हो गया है, रोद्या,' वे आखिरकार बोलीं। 'मैं तमाम वक्त यही सोचती रही कि तुम हम लोगों से तंग होते जा रहे थे; लेकिन अब हर तरह से मेरी समझ में यही आता है कि तुम्हारे ऊपर कोई बहुत बड़ी आफत आनेवाली है, और इसीलिए तुम इतने दुखी हो। मुझे बहुत दिनों से ऐसा लग रहा था कि ऐसा होनेवाला है, बेटा। बुरा न मानना बेटा, कि मैं इसकी चर्चा कर रही हूँ, लेकिन मैं हमेशा इसी के बारे में सोचती रहती हूँ, और रात भर बिस्तर पर पड़ी जागती रहती हूँ। तुम्हारी बहन भी कल रात बिस्तर पर पड़ी करवटें बदल रही थी। उसे बुखार-सा था और वह लगातार तुम्हारी ही बातें कर रही थी। मैंने कुछ सुना जरूर लेकिन समझ में कुछ नहीं आया। सबेरे मेरी बड़ी बुरी हालत रही बेटा... मैं किसी बात का इंतजार करती रही। मुझे लग रहा था कि अब कुछ होनेवाला है, और वही बात हुई। तुम जा कहाँ रहे हो, रोद्या कहीं बाहर जा रहे, बेटा?'

'हाँ, माँ।'

'यही मैं भी सोच रही थी। मगर बेटा, तुम चाहो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ! और दूनिया भी! वह तुम्हें बहुत प्यार करती है, बेटा। और अगर तुम चाहो तो सोफ्या सेम्योनोव्ना भी हमारे साथ चल सकती है। देखो बेटा, मैं उसे खुशी से अपनी बेटी बना लूँगी। द्मित्री प्रोकोफिच हम सब लोगों के जाने में मदद करेगा... लेकिन... तुम जा कहाँ रहे हो, बेटा?'

'अच्छा, अब चलूँगा माँ।'

'हे भगवान, तुम आज ही तो नहीं जा रहे हो' वे चीखीं, गोया वह हमेशा के लिए बिछड़ रहा हो।

'मुझे अफसोस है कि मैं रुक नहीं सकता, माँ। मुझे जाना ही होगा।'

'लेकिन मैं तुम्हारे साथ क्या नहीं चल सकती, बेटा?'

'नहीं माँ, तुम नहीं चल सकतीं। बेहतर यही होगा कि तुम घुटने टेक कर मेरे लिए प्रार्थना करो। शायद तुम्हारी प्रार्थना सुन ली जाए।'

'खैर, कम-से-कम तुम्हें आशीर्वाद तो दे दूँ और तुम्हारे ऊपर सलीब का निशान तो बना दूँ, बेटा! ऐसे... ऐसे। हे भगवान, यह हम लोग क्या कर रहे हैं?'

वह बहुत खुश था, बहुत ही खुश था कि वहाँ कोई नहीं था, कि वह अपनी माँ के पास अकेला ही था। लग रहा था इस पूरी दुखदायी मुद्दत के बाद उसका दिल अचानक पिघल गया था। वह माँ के पाँवों पर गिर पड़ा और उन्हें चूमने लगा। फिर दोनों एक-दूसरे से लिपट कर रोते रहे। माँ को भी कोई आश्चर्य नहीं हुआ; उसने इस बार बेटे से कोई सवाल भी नहीं पूछा। उसने बहुत पहले ही समझ लिया था कि उसके बेटे के साथ कोई बहुत ही बुरी बात होनेवाली है और यह कि अब वह भयानक घड़ी आ गई है।

'बेटा रोद्या, मेरे लाडले,' माँ ने सिसक-सिसक कर रोते हुए कहा, 'तुम अब भी बिलकुल वैसे ही हो जैसे बचपन में थे। आ कर इसी तरह मेरे कलेजे से लग जाते थे और मुझे प्यार करते थे। जब तुम्हारे बाप जिंदा थे और हमारे ऊपर बुरा वक्त पड़ा था, तब तुम हमारे पास रह कर हमें धीरज बँधाते थे। इसके अलावा बेटा, तुम्हारे बाप के मरने के बाद कितनी ही बार हम उनकी कब्र पर जा कर रो चुके हैं और तब भी हमने एक-दूसरे को आज की ही तरह गले लगाया था। अगर मैं तमाम वक्त रोती रही हूँ तो उसकी वजह सिर्फ यह है कि एक माँ के दिल ने यह महसूस किया है कि तुम किसी मुसीबत में हो। उस दिन शाम को जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था, याद है, जब हम लोग यहाँ पहुँचे ही थे... तभी तुम्हें देख कर मुझे सारी बातों का अंदाजा हो गया था। मेरा दिल तो उसी वक्त डूबने लगा था... और आज भी जब मैंने दरवाजा खोला और तुम्हें देखा तो मैंने फौरन सोचा कि जिस घड़ी का मुझे डर था, वह घड़ी आ चुकी है। रोद्या, तुम अभी, इसी वक्त तो नहीं जा रहे हो, बेटा?'

'नहीं, माँ।'

'तुम फिर आओगे न?'

'हाँ... आऊँगा।'

'रोद्या, नाराज न होना, बेटा। मुझे तुम्हारी बातों के बारे में पूछने का कोई अधिकार नहीं है। मैं जानती हूँ, मुझे यह अधिकार नहीं है, लेकिन बेटा, मुझे... बस इतना बता दो कि तुम क्या कहीं बहुत दूर जा रहे हो?'

'हाँ, बहुत ही दूर।'

'वहाँ क्या करने जा रहे हो? वहाँ कोई नौकरी मिली है क्या... या कोई रोजगार?'

'अभी ठीक से कुछ पता नहीं माँ... बस मेरे लिए प्रार्थना करना...'

रस्कोलनिकोव दरवाजे के पास गया, लेकिन माँ ने उसे पकड़ लिया और निराशा से उसे देखने लगीं। उसका चेहरा डर के मारे विकृत हो गया था।

'बस, अब रहने दो, माँ,' रस्कोलनिकोव ने कहा। उसे अब अफसोस होने लगा था कि वह यहाँ आया ही क्यों।

'हमेशा के लिए तो नहीं जा रहे, बेटा हमेशा के लिए तो नहीं न कल आओगे न?'

'आऊँगा, आऊँगा। अच्छा, अब चलता हूँ।'

आखिरकार उसने अपने आपको छुड़ा लिया।

शाम खुशगवार थी, उसमें हल्की-हल्की गर्मी थी और चमक थी। सुबह के बाद से मौसम खुल गया था। रस्कोलनिकोव वापस अपने कमरे में जा रहा था। उसे जल्दी थी। सूरज डूबने से पहले वह सब कुछ खत्म कर देना चाहता था और तब तक किसी से मिलना नहीं चाहता था। आखिरी सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त उसने देखा कि नस्तास्या समोवार छोड़ कर निकल आई थी और उसे ऊपर चढ़ते हुए गौर से देख रही थी। 'कोई मेरे कमरे में तो नहीं है?' वह सोचने लगा। यह सोच कर उसे नफरत-सी हुई कि शायद पोर्फिरी बैठा राह देख रहा हो। लेकिन जब वह कमरे में पहुँचा और दरवाजा खोला तो दूनिया दिखाई पड़ी। वहाँ वह सोच में डूबी हुई, अकेली बैठी थी, और लग रहा था बहुत देर से उसकी राह देख रही थी। वह चौखट पर ही रुक गया। वह हैरान हो कर सोफे से उठी और उसके सामने आ कर, सीधी खड़ी हो गई। उसकी आँखों में जो रस्कोलनिकोव पर जमी हुई थीं, दहशत और बेहद उदासी झलक रही थी। उसके इस तरह देखने से ही वह समझ गया कि वह सब कुछ जानती है।

'मैं अंदर आऊँ या चला जाऊँ?' उसने ढिठाई से पूछा।

'मैं दिन भर सोफ्या सेम्योनोव्ना के साथ रही। हम दोनों तुम्हारी राह देखते रहे। हमने सोचा था कि तुम उसके पास जरूर आओगे।'

रस्कोलनिकोव कमरे में आ कर बैठ गया; वह बेहद थका महसूस कर रहा था।

'मुझे काफी कमजोरी महसूस हो रही है, दूनिया। बहुत थक गया हूँ। इस वक्त तो सबसे बढ़ कर मैं यही चाहता हूँ कि अपने आप पर काबू पा लूँ।'

दूनिया ने अविश्वास से उसकी ओर आँखें उठाईं।

'कल सारी रात कहाँ रहे?'

'ठीक से याद नहीं। देखो दूनिया, मैं कोई पक्का फैसला कर लेना चाहता था और कई बार नेवा किनारे गया। इतना तो मुझे याद है। मैं सब कुछ वहीं खत्म कर देना चाहता था, लेकिन... कोई फैसला नहीं कर पाया...' उसने कानाफूसी में कहा और उसे फिर अविश्वास से देखा।

'प्रभु की दया है! हम लोगों को भी यही डर था... सोफ्या सेम्योनोव्ना को और मुझे भी! तो जिंदगी पर तुम्हें अभी तक भरोसा है प्रभु की दया है! प्रभु की!'

रस्कोलनिकोव कड़वाहट के साथ मुस्कराया।

'मुझे कभी कोई भरोसा नहीं था, लेकिन कुछ ही मिनट पहले माँ और मैं एक-दूसरे के गले लग कर रो रहे थे। मैं ईश्वर में विश्वास नहीं रखता, फिर भी मैंने अपने लिए माँ से प्रार्थना करने को कहा। न जाने ऐसा क्यों होता है, दूनिया मेरी समझ में नहीं आता।'

'माँ के पास गए थे तुम! तुमने उन्हें बता दिया?' दूनिया चिल्ला उठी। 'क्या सचमुच तुममें उन्हें बताने की ताकत थी।'

'नहीं, उन्हें नहीं बताया... साफ-साफ शब्दों में तो एकदम नहीं। लेकिन मेरा खयाल है कि वे बहुत कुछ समझती हैं। कल रात उन्होंने तुम्हें सोते से बड़बड़ाते सुना था। मुझे यकीन है कि उन्हें सच्चाई का कुछ-कुछ अंदाजा हो चुका है। मैंने शायद वहाँ जा कर ही गलती की। मालूम नहीं, मैं क्यों वहाँ गया था। मैं बहुत नीच हूँ, दूनिया।'

'नीच और फिर भी तकलीफ उठाने को तैयार हो! है न?'

'हाँ, तैयार हूँ। मैं अभी जा रहा हूँ, इसी वक्त। इस कलंक के मारे मैं तो डूब मरना चाहता था, लेकिन जब वहाँ नदी पर खड़ा था तो सोचा कि अभी तक अगर मैं अपने आपको इतना मजबूत समझता रहा तो मुझे कलंक से भी नहीं डरना चाहिए,' उसने जल्दी-जल्दी कहा। 'स्वाभिमान क्या यही है, दूनिया?'

'हाँ, रोद्या स्वाभिमान ही है।'

लग रहा था गोया रस्कोलनिकोव की बेजान आँखों में एक ज्वाला धधक उठी हो। वह इस बात से खुश लग रहा था कि उसमें अभी तक स्वाभिमान बाकी था।

'तुम यह तो नहीं समझती दूनिया, कि मैं महज पानी से डर गया?' उसने एक भयानक मुस्कराहट के साथ उसके चेहरे को गौर से देखते हुए पूछा।

'आह रोद्या, रहने दो अब!' दूनिया ने कड़वाहट के साथ चीख कर कहा।

अगले दो मिनट तक कोई नहीं बोला। वह सर झुकाए, जमीन पर नजरें गड़ाए बैठा रहा और दूनिया मेज के दूसरे छोर पर खड़ी दुख के साथ उसे देखती रही। अचानक वह उठ खड़ा हुआ : 'बहुत देर हो चुकी; मुझे अब चलना चाहिए। मैं इसी वक्त आत्मसमर्पण करने जा रहा हूँ। अलबत्ता मुझे नहीं मालूम कि मैं क्यों ऐसा कर रहा हूँ।'

दूनिया के गालों पर आँसू बह चले।

'रो रही हो दूनिया लेकिन मुझसे हाथ तो मिलाओगी न?'

'तुम्हें इसमें शक था?'

भाई के गले में बाँहें डाल कर दूनिया उससे लिपट गई।

'तुम्हारा आधा अपराध क्या बस इसी बात से धुल नहीं गया कि तुम तकलीफ उठाने को तैयार हो?' उसने रोते हुए कहा। रस्कोलनिकोव को कस कर उसने सीने से लगा लिया और उसे प्यार करने लगी।

'अपराध कैसा अपराध?' वह अचानक एक तरह के जुनून में बोला, 'यह कि मैंने एक घिनौनी, नुकसान पहुँचानेवाली, शैतान जूँ को मार डाला, एक सूदखोर खूसट बुढ़िया को एक ऐसी औरत को जो किसी का भला नहीं कर सकती थी ऐसी कि उसकी हत्या करने पर बीसियों पाप माफ कर दिए जाने चाहिए एक ऐसी औरत को, जिसने इस धरती पर गरीबों की जिंदगी को नरक बना दिया था... तुम इसे ही अपराध कहती हो मैं तो इसकी बात सोच भी नहीं रहा, और इसे धोने की बात भी नहीं सोच रहा। और उन लोगों का मतलब क्या है, जो चारों ओर से मुझ पर उँगली उठा रहे हैं : अपराध, अपराध! अब जा कर मुझे अपनी बुजदिली की सारी बेवकूफी साफ दिखाई दे रही है - अब जबकि मैंने इस बेकार के कलंक को स्वीकार कर लेने की ठान ली है! मैंने यह फैसला सिर्फ इसलिए किया है कि मैं एक कमीना और घटिया शख्स हूँ, और इसलिए भी कि शायद यही मेरे हित में हो, जैसा कि... जैसा कि पोर्फिरी ने कहा था!'

'कह क्या रहे हो रोद्या... तुमने खून बहाया है, कि नहीं?' दूनिया निराशा से चिल्लाई।

'जो सभी लोग बहाते हैं,' उसने लगभग पागलपन की हालत में कहा, 'जो बहाया जा रहा है, दुनिया में इतना बहाया गया है कि कई समुद्र भर जाएँ... जो शैंपेन की तरह उड़ेला जा रहा है, और जिसके इनाम के तौर पर लोगों को मंदिर में ले जा कर ताज पहनाया जाता है और फिर उन्हें मानवता का उद्धारक कहा जाता है। तुम कुछ और ध्यान से देखती और सोचती क्यों नहीं! मैं लोगों का भला करना चाहता था, और इस मूर्खता के बदले, जो कि सच पूछो तो ऐसी कोई मूर्खता थी भी नहीं, मैं नेकी के हजारों काम करने को तैयार था। यह पूरा विचार ऐसा कोई मूर्खता का विचार था भी नहीं, जैसा कि अब नाकाम होने के बाद लग रहा है। नाकाम होने के बाद हर बात मूर्खता लगती है! ...नादानी की यह हरकत करके मैं खुद को स्वतंत्र बनाने का पहला कदम उठाने की, आवश्यक साधन जुटाने की कोशिश कर रहा था, और बाद में चल कर जो तुलनात्मक दृष्टि से अपार लाभ होते, उनसे हर बात ठीक हो जाती। लेकिन मैं... मैं तो पहला कदम भी नहीं उठा सका, क्योंकि... क्योंकि मैं निकम्मा हूँ! इतनी-सी बात है बस! लेकिन इसके बावजूद मैं इस पूरी चीज को उस तरह नहीं देखूँगा जैसे तुम सब देखते हो। मैं अगर कामयाब हो जाता तो हर तरफ मेरी वाह-वाह होती, लेकिन अब... जेल में सड़ने दो इसे!'

'ऐसी बात नहीं है, रोद्या! तुम कह क्या रहे हो?'

'समझा! तो यह तरीका ठीक नहीं है! किसी की सौंदर्य प्रेम की भावना इससे संतुष्ट नहीं होती! खैर, मेरी समझ में यह नहीं आता कि लोगों को गोली से उड़ा देना या बाकायदा घेरेबंदी करके बमों से मार डालना ज्यादा इज्जतदार तरीका क्यों है अच्छा न लगने का डर ही बेबसी की पहली निशानी है... यह बात पहले कभी इतने साफ ढंग से मेरी समझ में नहीं आई थी जितनी कि अब आ रही है। यह बात भी अब जा कर मेरी समझ में नहीं के बराबर आ रही है कि मैंने जो कुछ किया वह अपराध क्यों है। इसका मुझे इतना पक्का यकीन कभी नहीं रहा जितना कि अब है...'

उसके पीले, मुरझाए हुए चेहरे पर लाली दौड़ रही थी। लेकिन अंतिम वाक्य कहते-कहते उसकी आँखें दूनिया की आँखों से चार हुईं। बहन की आँखों में इतनी पीड़ा थी कि वह सहम कर सँभल गया। उसने महसूस किया कि उन दोनों बेचारी औरतों को उसने यकीनन बहुत दुख पहुँचाया है। सही हो या गलत, उनके दुख का कारण निश्चित रूप से वही था।

'दूनिया, मेरी बहन! मैं अगर अपराधी हूँ तो मुझे माफ कर देना। (मैं वैसे अगर अपराधी हूँ तो मुझे माफ किया भी नहीं जा सकता।) अब मैं चलूँगा! झगड़े से अब कोई फायदा नहीं! वक्त हो गया है; अब जरा भी देर करना ठीक नहीं। मेहरबानी करके मेरा पीछा न करना। मुझे अभी कहीं और पहुँचना है... अच्छा यही होगा कि तुम फौरन जाओ और माँ के पास रहो। मेरी बात मानो; मैं तुमसे यह आखिरी और सबसे बड़ी गुजारिश कर रहा हूँ। उन्हें अकेला बिलकुल मत छोड़ना। अभी जब मैं उनके पास से आया तो वे इतनी परेशान हो गईं कि मैं नहीं समझता, वे इसे बर्दाश्त कर पाएँगी : वे या तो मर जाएँगी या पागल हो जाएँगी। इसलिए मेहरबानी करके उनके साथ ही रहना! रजुमीखिन तुम लोगों के साथ रहेगा; मैंने उससे कह दिया है... मेरे लिए रोना मत। मैं हत्यारा सही, लेकिन मैं जीवन भर साहसी और ईमानदार रहने की कोशिश करूँगा। हो सकता है तुम किसी दिन मेरी चर्चा सुनो। मैं तुम लोगों के माथे का कलंक नहीं बनूँगा, देख लेना। उन लोगों को मैं अब भी जता दूँगा! लेकिन अभी मैं चलता हूँ,' उसने जल्दी-जल्दी अपनी बात खत्म की। उसे दूनिया की आँखों में अपने शब्दों और वादों पर फिर एक अजीब-सा भाव दिखाई दिया। 'रो क्यों रही हो? इस तरह रोओ मत। मेरा कहा मानो, रोना क्या। हम लोग हमेशा के लिए तो अलग नहीं हो रहे! ...अरे हाँ, जरा ठहरो! मैं तो भूल ही गया...'

वह मेज के पास गया, एक मोटी-सी धूल भरी किताब उठाई, उसे खोला, और उसके पन्नों के बीच से हाथीदाँत पर जल-रंगों से बनी एक तस्वीर निकाली। किसी की छोटा-सी तस्वीर थी। यह उसकी मकान-मालकिन की बेटी की तस्वीर थी, जो बुखार से मर गई थी, उस अजीब लड़की की तस्वीर जो किसी मठ में जा कर रहना चाहती थी। एक मिनट तक वह उस भाव भरे, नाजुक चेहरे को गौर से देखता रहा, फिर उसने तस्वीर को चूम कर दूनिया को दे दिया।

'उससे मैं उसकी बहुत-सी बातें किया करता था, सिर्फ उससे,' उसने यादों में खो कर कहा। 'बाद में जो कुछ इतने भयानक ढंग से सामने आया, उसका बहुत-सा हिस्सा मैंने उसे दिल खोल कर बताया था। परेशान मत हो,' उसने दूनिया की ओर घूम कर कहा, 'वह भी तुम्हारी ही तरह मेरी बात से सहमत नहीं थी, और मुझे इस बात की खुशी है कि वह अब हम लोगों के बीच नहीं है। असल बात सिर्फ यह है कि अब हर चीज एकदम बदल जाएगी, दो टुकड़ों में टूट जाएगी,' वह एक बार फिर घोर अकेलेपन की मनोदशा में अचानक चिल्लाया। 'हर चीज, हर एक चीज... मैं क्या इसके लिए तैयार हूँ मैं क्या खुद ऐसा चाहता हूँ? मुझसे कहा जाता है कि मेरे लिए यह इम्तहान जरूरी है! लेकिन क्यों, ऐसे बेमतलब इम्तहान... भला क्यों? इनसे फायदा क्या है? बीस साल की बामशक्कत सजा काटने के बाद, जब मुसीबतों ने और मूर्खता ने मुझे कुचल कर रख दिया होगा और मैं बुढ़ापे से कमजोर हो जाऊँगा, तब क्या मैं जिंदगी को आज के मुकाबले में बेहतर समझ सकूँगा और तब मेरे पास जिंदा रहने के लिए बचा ही क्या होगा पर इस वक्त मैं इस तरह की जिंदगी बिताने को राजी क्यों हूँ उफ, आज सबेरे भोर में जब मैं नेवा किनारे खड़ा था, तब मुझे मालूम था कि मैं एक कमीना हूँ।'

आखिरकार वे दोनों घर के बाहर निकले। दूनिया के लिए यह सब बर्दाश्त करना काफी कठिन था, लेकिन वह उसे प्यार करती थी! वह चलते-चलते उससे दूर होती गई लेकिन कोई पचास कदम के बाद उसने मुड़ कर एक बार फिर उसे देखा। वह अब भी उसे नजर आ रहा था। सड़क के मोड़ पर पहुँच कर उसने भी पीछे घूम कर देखा। आखिरी बार उसकी आँखें मिलीं। लेकिन यह देख कर कि वह उसे देख रही है उसने बेचैन हो कर, बल्कि कुछ झुँझलाहट के साथ, हाथ के इशारे से उससे चले जाने को कहा। फिर वह तेजी से मोड़ पर मुड़ गया।

'यह मैंने बहुत ही बुरा किया, मैं जानता हूँ,' पलभर बाद ही दूनिया पर इस तरह झल्लाने पर खीझ कर उसने सोचा। 'लेकिन ये लोग मुझसे इतना प्यार ही क्यों करते हैं, जबकि मैं इस तरह के प्यार के काबिल भी नहीं हूँ... काश! मैं अकेला होता, कोई मुझसे प्यार न करता होता और मैंने भी कभी किसी से प्यार न किया होता! तब यह सब भी नहीं होता! लेकिन कहीं अगले पंद्रह-बीस साल में मेरे स्वभाव में इतना दब्बूपन तो नहीं आ जाएगा कि मैं लोगों के सामने गिड़गिड़ाता फिरूँ, और हर बात पर अपने को अपराधी कहने लगूँ हाँ, यही बात है! वे लोग मुझे इसीलिए साइबेरिया भेज रहे हैं। वे लोग यही तो चाहते हैं... देखो तो उन्हें! सड़क पर कैसे चूहों की तरह इधर से उधर भागे फिर रहे हैं... इनमें से हर कोई स्वभाव से ही बदमाश और अपराधी है, बल्कि उससे भी बदतर इनमें से हर कोई मूर्ख है! अब अगर मैं साइबेरिया भेजे जाने से बच भी गया, तो वे सब बहुत ही शरीफ बन कर सारा गुस्सा मेरे ऊपर उतारेंगे! उफ, कितनी नफरत है मुझे इन सबसे!'

वह सोचने लगा ऐसा कैसे हुआ कि वह विरोध किए बिना ही उन सबके सामने हीन बनने को, दंड भुगतने का अपमान सहने को तैयार हो गया लेकिन क्यों नहीं होना भी ऐसा ही चाहिए! क्या लगातार बीस साल का उत्पीड़न उसे कुचल कर नहीं रख देगा पानी भी तो पत्थर को घिस देता है। फिर उसके बाद किसलिए जीना, किसलिए? वह इस वक्त आत्मसमर्पण करने क्यों जा रहा था, जबकि वह जानता था कि ऐसा ही होगा, मानो यह सब कुछ किसी किताब में लिखा हुआ हो!

पिछली रात के बाद उसने अपने आप से शायद सौवीं बार यही सवाल पूछा था। फिर भी वह जा रहा था।