आँख की किरकिरी / खंड 1 / पृष्ठ 9 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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इतने में दुतल्ले से महेंद्र भैया की पुकार सुनाई पड़ी। 'अरे रे, आओ... आओ...' महेंद्र ने जवाब दिया। बिहारी की आवाज से उसका हृदय खिल उठा। विवाह के बाद वह इन दोनों के सुख का बाधक बन कर कभी-कभी आता रहा है, आज वही बाधा सुख के लिए निहायत जरूरी लगी।

बिहारी का आना आशा को भी अच्छा लगा। वह जरा घूँघट खींच कर जल्दी से उठ बैठी। महेंद्र बोला - 'अरे, जा कहाँ रही हो, और कोई नहीं, बिहारी आ रहा है।'

आशा ने कहा - 'भाई साहब के लिए नाश्ता ले आऊँ?'

एक काम का मौका आ गया, इससे आशा का अवसाद कुछ हल्का हो गया।

सास की कुशल के लिए घूँघट काढ़े वह खड़ी रही। बिहारी से अभी भी वह बोलती-चालती नहीं।

अंदर कदम रखते ही बिहारी ने कहा - 'तौबा-तौबा! कैसे कवित्व के बीच आ टपका मैं! खैर फिक्र न करो भाभी, मैं बैरँग वापस जाता हूँ।'

आशा ने महेंद्र की तरफ ताका। महेंद्र ने पूछा - 'माँ की क्या खबर है, बिहारी?'

बिहारी बोला - 'माँ और चाची की चर्चा अभी क्यों भाई, काफी समय है।'

Such a night was not made for sleep nor for mothers and aunts.

कह कर बिहारी लौट पड़ा। महेंद्र ने उसे जबर्दस्ती खींच कर बिठा दिया। बिहारी ने कहा - 'देख लो भाभी, कसूर मेरा नहीं है- यह मुझे जबरन खींच लाया है- पाप इसने किया है, अभिशाप मुझ पर न पड़े।'

आशा से कोई जवाब देते नहीं बनता, इसलिए ऐसी बातों से वह खीझ उठती है। बिहारी जान कर उसे तंग करता है।

बिहारी ने कहा - 'घर की हालत आँखों से देख रहा हूँ - अब भी क्या माँ को लाने का वक्त नहीं आया?'

महेंद्र ने कहा - 'बेशक! हम तो उन्हीं की राह देख रहे हैं।'

बिहारी ने कहा - 'यही जताते हुए उन्हें पत्र लिखने में तुम्हें नाम का समय लगेगा, लेकिन उनकी खुशी का अंत न रहेगा। भाभी, उन दो मिनटों के लिए महेंद्र भैया को तुम्हें फुरसत देनी पड़ेगी, मेरी दरखास्त रही।'

आशा बिगड़ कर चली गई। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

महेंद्र बोला - 'जाने किस शुभ घड़ी में तुम दोनों की भेंट हुई थी - आखिर सुलह नहीं ही हो सकी- वही खट-पट।'

बिहारी ने कहा - 'तुम्हें तुम्हारी माँ ने तो बर्बाद किया ही, पत्नी भी बर्बाद करने पर तुली है। यही मुझसे नहीं देखा जाता, इसी से जब-तब कुछ कह देता हूँ।'

महेंद्र - 'मगर नतीजा क्या होता है उसका?'

बिहारी - 'नतीजा तुम्हारे लिए कुछ खास नहीं होता, मेरे लिए थोड़ा-बहुत होता है।'