आँख की किरकिरी / खंड 3 / पृष्ठ 1 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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उस दिन फागुन की पहली बसंती बयार बह आई। बड़े दिनों के बाद आशा शाम को छत पर चटाई बिछा कर बैठी। मद्धिम रोशनी में एक मासिक पत्रिका में छपी हुई एक धारावाहिक कहानी पढ़ने लगी। एक जगह जब कहानी का नायक काफी दिनों बाद पूजा की छुट्टी में अपने घर लौट रहा था कि डकैतों के चंगुल में फँस गया। आशा का दिल धड़क उठा। इधर ठीक उसी समय नायिका सपना देख कर रोती हुई जग पड़ी। आशा के आँसू रोके न रुके। वह कहानियों की बड़ी उदार समालोचक थी। जो भी कहानी पढ़ती, वह उसे अच्छी लगती। विनोदिनी को बुला कर कहती, 'भई आँख की किरकिरी, मेरे सिर की कसम रही, इस कहानी को पढ़ देखना। ऐसी ही है! पढ़ कर रोते-रोते बेदम!'

विनोदिनी की अच्छे-बुरे की कसौटी से आशा के उमंग, उत्साह को बड़ी चोट पहुँचती।

महेंद्र को वह कहानी पढ़ाने का निश्चय करके गीली आँखों से उसने पत्रिका बंद की। इतने में महेंद्र आ गया। महेंद्र बोला - 'छत पर अकेली किस भाग्यवान को याद कर रही हो?'

आशा नायक-नायिका की बात भूल गई। उनसे पूछा - 'आज तुम्हारी तबीयत कुछ खराब है क्या?'

महेंद्र - 'नहीं, तबीयत ठीक है।'

आशा - 'फिर तुम मन-ही-मन जो कुछ सोच रहे हो मुझे साफ-साफ बताओ।'

आशा के डिब्बे में से एक पान निकाल कर खाते हुए महेंद्र ने कहा - 'मैं यह सोच रहा था कि तुम्हारी बेचारी मौसी ने न जाने कब से तुम्हें नहीं देखा। अचानक ही एक दिन तुम वहाँ पहुँच जाओ तो वे कितनी खुश हो जाएँ।'

आशा ने कोई जवाब न दिया। उसकी ओर ताकती रही। वह समझ न सकी कि एकाएक फिर क्यों यह बात महेंद्र के मन में आई।

आशा को चुप देख कर महेंद्र ने पूछा - 'तुम्हारी जाने की इच्छा नहीं होती क्या?'

इस बात का जवाब देना कठिन था। मौसी से मिलने की इच्छा भी होती है और महेंद्र को छोड़ कर जाने का दिल भी नहीं चाहता। आशा बोली - 'कॉलेज की छुट्टियाँ होने पर जब तुम चलोगे तो मैं भी साथ चलूँगी।'

महेंद्र - 'छुट्टियों में भी जाने की गुंजाइश नहीं है। इम्तहान की तैयारी करनी है।'

आशा - 'फिर रहने दो। न ही गई तो क्या?'

महेंद्र - 'रहने क्यों दे? तुमने जाना चाहा था, जाओ!'

आशा - 'नहीं, मेरी इच्छा जाने की नहीं है।'

महेंद्र - 'अभी-अभी उस दिन तो ऐसी जबरदस्त इच्छा थी और अचानक ही वह इच्छा गायब हो गई!'

आशा नजर झुकाए बैठी रही।

विनोदिनी से सुलह के लिए मौका ढूँढ़ते हुए महेंद्र का मन भीतर-ही-भीतर अधीर हो उठा था। आशा को चुपचाप देख कर नाहक ही उसे गुस्सा आ गया। बोला - 'मुझ पर तुम्हें किसी तरह का शुबहा हुआ है क्या कि आँखों की निगरानी में रखना चाहती हो मुझे?' आशा की स्वाभाविक नम्रता, कोमलता और धीरजता महेंद्र की बर्दाश्त से बाहर हो गई। अपने आप बोला - 'मौसी के यहाँ जाने की इच्छा है। - यह कहो कि मैं जा कर ही रहूँगी, जैसे भी हो। कभी हाँ, तो कभी नहीं, कभी चुप - यह क्या करती रहती हो?'

महेंद्र की ऐसी रुखाई से आशा अचरज में पड़ी डर गई, लाख कोशिश करने पर भी उसे कोई जवाब न सूझा। यह समझ ही न पाती थी कि क्यों महेंद्र कभी तो इतना आदर करता है और फिर अचानक बेरहम-सा बन जाता है। इस तरह आशा के लिए महेंद्र जितना ही दुर्बोध बनता जाता, आशा उतना ही धड़कते कलेजे से, भय और प्यार से उसे ज्यादा जकड़ती जाती।

वह महेंद्र पर शक करे, उसे आँखों की निगरानी में रखना चाहती है। यह कोई कठोर उपहास है कि निर्दय संदेह! कसम खा कर इसका प्रतिवाद करना जरूरी है कि उसे हँस कर टाल जाए?

आशा थी और अब भी चुप रहते देख कर अधीर महेंद्र तेजी से उठ कर चला गया। फिर कहाँ तो रहा कहानी का नायक और कहाँ गई नायिका। सूर्यास्त की आभा अँधेरे में खो गई, साँझ वाली बसंती बयार जाती रही और सर्द हवा चलने लगी। फिर भी आशा उसी चटाई पर लेटी रही।

जब बहुत देर बाद वह कमरे में गई, तो देखा, महेंद्र ने उसे बुलाया भी नहीं, सो गया है। मन में आया, स्नेहमयी मौसी की तरफ से उसे उदासीन देख कर महेंद्र मन-ही-मन शायद उससे घृणा करता है। खाट पर जा कर आशा ने उसके दोनों पैर पकड़ लिए। इससे महेंद्र करुणा से विगलित हो गया और उसने उसे खींच लेने की कोशिश की। लेकिन आशा बिलकुल न उठी। उसने कहा - 'मुझसे कोई कुसूर हुआ हो, तो मुझे माफ करो!'

महेंद्र ने पिघल कर कहा - 'तुम्हारा कोई कुसूर नहीं है, चुन्नी! मैं ही बड़ा पाखंडी हूँ, इसलिए नाहक ही मैंने तुम्हें चोट पहुँचाई।'

इस पर आशा की आँखें बरसती हुई महेंद्र के पैरों को भिगोने लगीं। महेंद्र उठ बैठा। अपनी बाँहों में उसे कस कर पास में सुलाया। रुलाई का वेग कुछ कम हुआ तो आशा बोली - 'भला मौसी को देखने जाने को जी नहीं चाहता मेरा? लेकिन तुम्हें छोड़ कर जाने का मन नहीं होता। इसी से जाना नहीं चाहती। तुम इससे नाराज मत हो।'

आशा के गीले गालों को धीरे-धीरे पोंछते हुए महेंद्र ने कहा - 'भला यह भी कोई नाराज होने की बात है? तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकती, इस पर मैं नाराज होऊँ? खैर, तुम्हें कहीं नहीं जाना पड़ेगा।'

आशा ने कहा - 'नहीं, मैं काशी जरूर जाऊँगी।'

महेंद्र - 'क्यों?'

आशा - 'मैं तुम पर संदेह कर रही हूँ इसलिए नहीं जाती - जब यह बात एक बार तुम्हारे मुँह से निकल गई, तो कुछ दिनों के लिए मुझे जाना ही पड़ेगा।'

महेंद्र - 'पाप मैंने किया है और प्रायश्चित तुम्हें करना पड़ेगा?'

आशा - 'मैं नहीं जानती - लेकिन कहीं-न-कहीं पाप मुझसे हुआ है, नहीं तो ऐसी बातें उठतीं ही नहीं। जिन बातों को मैं ख्वाब में भी नहीं सोच सकती, आखिर वे बातें क्यों सुननी पड़ रही हैं।'

महेंद्र - 'इसलिए कि मैं कितना बुरा हूँ, इसका तुम्हें पता नहीं।'

आशा ने परेशान हो कर कहा - 'फिर! ऐसा न कहो, मगर काशी अब मैं जरूर जाऊँगी।' महेंद्र ने हँस कर कहा - 'तो जाओ! लेकिन तुम्हारी नजरों की ओट में मैं अगर बिगड़ जाऊँ तो?'

आशा बोली - 'इतना डराने की जरूरत नहीं... मानो मैं इस विचार में ही घबरा रही हूँ।'

महेंद्र - 'लेकिन सोचना चाहिए। लापरवाही से अपने ऐसे स्वामी को अगर तुम बिगाड़ दो, तो दोष किसे दोगी?'

आशा - 'दोष कमसे-कम तुम्हें न दूँगी, बेफिक्र रहो!'

महेंद्र - 'ऐसे में अपना दोष मान लोगी?'

आशा - 'हजार बार मान लूँगी।'

महेंद्र - 'ठीक है। तो कल मैं तुम्हारे बड़े चाचा जी से मिल कर सब तय कर आऊँगा।' और महेंद्र ने कहा, 'रात बहुत हो गई।' करवट बदल कर वह सो गया।

जरा देर बाद फिर इधर पलट कर अचानक कह उठा - 'चुन्नी, रहने भी दो। न भी जाओगी तो क्या हो जाएगा?'

आशा बोली - 'फिर मनाही क्यों? अब अगर एक बार मैं जा न पाई, तो मेरे बदन से तुम्हारी वह झिड़की हमेशा लगी रहेगी। दो ही चार दिन के लिए सही, मुझे भेज दो!'

महेंद्र बोला - 'अच्छा।'

वह फिर करवट बदल कर सो गया।

काशी जाने से एक दिन पहले आशा ने विनोदिनी के गले से लिपट कर कहा - 'भई किरकिरी, मेरा बदन छू कर एक बात बताओ!'

विनोदिनी ने आशा का गाल दबा दिया। कहा - 'कौन-सी?'

आशा - 'पता नहीं आजकल तुम कैसी तो हो गई हो। मेरे पति के सामने तुम निकलना ही नहीं चाहतीं।'

विनोदिनी - 'क्यों नहीं चाहती, यह क्या तू नहीं जानतीं? उस दिन महेंद्र बाबू ने बिहारी बाबू से जो कुछ कहा, तूने अपने कानों नहीं सुना? जब ऐसी बातें होने लगीं, तो फिर कमरे में क्या निकलना!'

'ठीक नहीं है'- आशा यह समझ रही थी और ये बातें कैसी शर्मनाक हैं, फिलहाल उसने अपने मन से यह भी समझा है। तो भी बोली - 'बातें तो ऐसी जाने कितनी उठती हैं, उन्हें अगर बर्दाश्त नहीं कर सकती तो फिर प्यार क्या! तुम्हें यह सब भूलना पड़ेगा!'

विनोदिनी - 'ठीक है, भूल जाऊँगी।'

आशा - 'मैं कल काशी जा रही हूँ। तुम्हें इसका खयाल रखना होगा कि उन्हें कोई तकलीफ न हो। जैसे भागती-फिरती हो, ऐसा करने से न चलेगा।'

विनोदिनी चुप रही। उसकी हथेली दबा कर आशा ने कहा - 'मेरे सिर की कसम, वह वचन तो तुम्हें देना ही पड़ेगा।'

विनोदिनी बोली - 'अच्छा।'