एक गर्व है कि हमने उस कालखंड में जन्म लिया, जब चौकसे साहब लिखते थे / अखिलेश जैन

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याद नहीं आता लेकिन शायद 1998 का साल था, पहली बार जब इंदौर में 'परदे के पीछे' पढ़ा तो दिमाग में करंट लगा फिर चस्का लग गया और किसी और नशे की आदत नहीं हुई। इंदौर में रोज़ाना दैनिक भास्कर पढ़ने लगा, बम्बई आया तो स्टालों पर भास्कर खोजा..नहीं मिला, एक रोज़ सेंट्रल लाइब्रेरी गया और कई दिनों के अखबार एक साथ पढ़ लिया। फिर मित्र अमित ने रोज़ाना बिना नागे 'परदे के पीछे' को गद्यकोश में संकलित करना शुरू कर दिया और फिर नियमित पाठन होने लगा। खूब पढ़ा, उसमें लिखीं/बताईं किताबें/फिल्में खोजी और पढ़ीं। विचारों के बीहड़ में भीड़ से इतर एक अपनी स्वतंत्र सोच और विचारप्रक्रिया बनाने में परदे के पीछे आलेख स्तंभ का बहुत योगदान है। आज आखिरी स्तंभ पढ़कर आँखें भर आईं। लेखक पीढ़ियों को दिशा देते हैं। मित्र अमित द्वारा संकलित आलेख मेरा बेटा भी पढ़े और अपना जीवन सँवारे, यही भावना।

आदरणीय चौकसे जी ने मुझे दिशा दी, उनका धन्यवाद करने के लिए मेरी लेखनी की स्याही कम पड़ जाएगी। एक गर्व है कि हमने उस कालखंड में जन्म लिया, जब चौकसे साहब लिखते थे।