कछुए के दिन लद गए, खरगोश का दौर है / जयप्रकाश चौकसे

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कछुए के दिन लद गए, खरगोश का दौर है
प्रकाशन तिथि :02 जनवरी 2015


दशकों पूर्व सई परांजपे ने पंचतंत्र की कहानी से प्रेरित 'कथा' नामक फिल्म बनाई थी। एक खरगोश आैर कछुए में तेज दौड़ की प्रतियोगिता हुई। कछुआ अपनी स्वाभाविक धीमी चाल से चलता है, खरगोश आगे निकलते हुए अपने कमजोर प्रतिद्वंद्वी का मखौल उड़ाता है आैर बार-बार खूब तेज दौड़कर केवल मखौल उड़ाने के लिए वापस आता रहता है। इस प्रक्रिया में वह थक कर सो जाता है, यह मानकर कि कछुए को देर लगेगी तो क्यों एक झपकी ली जाए। उसे तेज दौड़ने से अधिक मखौल उड़ाने की नकारात्मक प्रवृति ने थकाया आैर जब वह उठा तो कछुआ रेस जीत चुका था। सई परांजपे ने एक गरीब बस्ती में नसीरुद्दीन शाह आैर फारुख शेख को खरगोश आैर कछुए की भूमिका दी आैर दोनों ही पड़ोसन दीप्ति नवल से प्रेम करते हैं। इस फिल्म में जीत 'कछुए' की होती है आैर उस काल खंड में कछुए की गीत पर दर्शक अति प्रसन्न हुए थे, क्योंकि वे स्वयं जीवन में 'कछुए' ही थे। इस तरह के फेबल सभी देशों में हैं। अब प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक खालिद मोहम्मद सई परांजपे की कथा पर ही नई फिल्म बना रहे हैं।

ज्ञातव्य है कि टाइम्स आैर फिल्मफेयर में संपादक रहे खालिद की उन दिनों बहुत धाक थी। उन्होंने 'टाइम्स' के शिखर प्रदीप गुहा के साथ भागीदारी में उस दौर की शिखर सितारा करिश्मा कपूर आैर उभरते रितिक रोशन के साथ 'फिजा' बनाई। फिजा के प्रदर्शन पूर्व ही रितिक की पहली फिल्म 'कहो ना प्यार है' सुपरहिट हुई थी, अत: फिजा महंगे दामों में बिकी परंतु बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई आैर इसके बाद बनाई उनकी फिल्में अच्छी होते हुए भी सफल नहीं रही। हिन्दुस्तानी सिनेमा के जितने भी समालोचकों ने फिल्में बनाई, वे असफल रही आैर यह सिलसिला बाबूराव पटेल की 'द्रोपदी' से चला रहा है। दूसरों की फिल्मों में दोष निकालना आैर स्वयं फिल्म बनाने में अंतर है। कुछ लोगों को गलतियां पकड़ने में महारत हासिल होती है परंतु स्वयं उनके सृजन में कही कमी रह जाती है। अनेक शिक्षक उत्तर पुस्तिका जांचने में प्रवीण होते हैं परंतु वे स्वयं प्रश्न पत्र हल करे तो फेल हो जाए, जैसे विपक्ष का नेता सरकार के दोष तो गिनाता है परंतु स्वयं सत्ता सिंहासन पर बैठते ही गलतियां करने लगता है।

बहरहाल खालिद मोहम्मद एक पढ़े-लिखे अच्छे इंसान हैं परंतु उनकी फिल्म आलोचना की शैली में उस खरगोश की तरह मखौल उड़ाने की आदत थी। उनकी समीक्षाएं सिनेमाई गुण दोष से अधिक मखौल से भरी होती थी। उनकी तीन कहानियों पर श्याम बेनेगल ने सार्थक फिल्में गढ़ी हैं जिनमें 'मम्मो' मेरी प्रिय फिल्म है। 'फिजा' के कारण टाइम्स ने प्रदीप गुहा आैर खालिद को अलबिदा कह दिया। अपनी प्रकाशन संस्था के पॉवर से हटने के बाद वे दोनों स्वयं मखौल बन गए। जीवन के उतार-चढ़ाव के परे खालिद प्रदीप गुहा अच्छे इंसान रहे हैं।

गौरतलब यह है कि खालिद सई परांजपे की फिल्म इस दौर में बना रहे हैं जब खरगोश ही विजयी होता है आैर हालात ऐसे हो गए हैं कि जहां खरगोश सो रहा है, अंपायर उसी स्थान को विजय का स्थान घोषित कर देता है। अब कछुए के दिन लद गए हैं परंतु उसकी पीठ के सशक्त कवच की आवश्यकता अब बुद्धिजीवियों को बहुत अधिक है क्योंकि उन्हें खामोश रहने की हिदायत है आैर ऐसा करने पर पीठ पर कोड़ा पड़ सकता है। आज का माहौल वर्षों पूर्व पढ़ी कमलेश्वर की कथा 'हवा में ठहरा चाकू' की याद दिलाता है जो जाने कब किसकी पीठ में धंस जाए। आज सदियों पुरानी ज्ञान की सारी कथाएं झूठी सिद्ध की जाने लगी हैं आैर खोटे सिक्के असल सिक्कों को चलन से बाहर फेंक रहे हैं।

सई परांजपे की 'स्पर्श' एक क्लासिक थी, कथा आैर 'चश्मे बद्दूर' निर्मल आनंद की फिल्में थी। उनकी 'चश्मे बद्दूर' के डेविड धवन ने बनाया परंतु सई परांजपे को कोई धन नहीं दिया आैर ही स्वीकार किया कि असल माल किसका है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि खालिद उन्हें धन भी देंगे आैर नाम भी देंगे क्योंकि वे स्वयं लेखक हैं। सिनेमा का यह कैसा दौर है कि सई परांजपे को उसने सोता हुआ खरगोश बना दिया है?