कवि की मौत ही उसका जीवन है / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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रात के काले परों ने शहर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। बर्फ की सफेद चादर उसके ऊपर आ तनी थी। गलियों-बाजारों में घूमते लोग गर्माहट की तलाश में घरों की ओर बढ़ चले थे। उत्तरी हवा ने सोए हुए बगीचों में हलचल मचा दी थी। बाहरी इलाके में खड़ी एक पुरानी झोपड़ी बर्फ से इतनी दब गई कि गिरने-गिरने को हो गई। उस जर्जर झोंपड़ी के एक अँधेरे कोने में टूटी-सी एक चारपाई पर एक मरियल-सा नौजवान पड़ा था। वह अपनी लालटेन की धीमी पड़ती जा रही लौ को ताक रहा था जो हवा के झोंकों से काँप-काँप जाती थी। कम उम्र का वह नौजवान जीवन की जकड़ से अपनी मुक्ति के पल को बहुत नजदीक से देख रहा था। वह उत्सुकता से मौत का इंतजार कर रहा था। उसके पीले चेहरे पर आशा के सूर्य की लालिमा थी। उसके होठों पर दुखभरी मुस्कान थी और आँखों में क्षमाशीलता।

वह एक कवि था जो अमीरों के शहर में भूख से तड़प रहा था। अपनी जीवनदायी और सुखद वाणी द्वारा लोगों में जीवन का संचार करने के लिए उसे इस भौतिक जगत में भेजा गया था। वह पवित्र आत्मा था। मानवता की देवी ने उसे सत्कार्य के लिए पृथ्वी पर भेजा था। लेकिन हाय! धरती के वासी अजनबी और ठंडे हैं। वह उनसे एक मुस्कानभरी विदाई भी नहीं पा रहा है।

वह अपनी अंतिम साँसें ले रहा था। अकेलेपन की साथी उसकी लालटेन की लौ और कागजों के कमजोर पन्नों को, जिन पर उसने अपने हृदय के उद्गार लिख रखे थे, बचाने वाला कोई भी वहाँ नहीं था। अपनी पूरी ताकत समेटकर उसने अपने हाथ ऊपर उठाए। निराशापूर्वक अपनी आँखें बंद कीं, जैसे कि झोपड़ी की छत और बादलों के पार चमक रहे तारों को देखना चाहता हो।

वह बोला - "आओ, हे खूबसूरत मृत्यु! मेरी आत्मा तुम्हारा इंतजार कर रही है। मेरे पास आओ और जिन्दगी के लौह-वस्त्र को उतार ले जाओ क्योंकि इसे लादे-लादे मैं थक गया हूँ। आओ, हे मृदुल मौत! उन पड़ोसियों से दूर ले जाओ जो सिर्फ इसलिए कि मैं उन्हें देवत्व का पाठ सुनाता हूँ, मुझे अजनबी निगाहों से देखते हैं। जल्दी करो, हे शान्ति प्रदायिनी! इस भीड़ से, जिसने सिर्फ इसलिए कि मैं उसकी तरह निरीहों का खून नहीं कर सकता, मुझे हताशा के अँधेरे कोने में धकेल दिया है, दूर ले जाओ। आओ, मुझे अपने सफेद परों के नीचे छिपा लो क्योंकि मेरे दोस्तों को अब मेरी जरूरत नहीं है। मुझे प्यार और दुलार भरी झप्पी दो। मेरे इन होठों का चुम्बन लो, जिन्होंने माँ के चुम्बन का सुख कभी जाना ही नहीं। मैंने कभी न बहिन के गाल छुए और न ही प्रेमिका के पोरुओं का स्पर्श जाना। प्यारी मौत, आओ और मुझे उठा ले जाओ।"

तभी, उसकी चारपाई के किनारे एक देवदूत प्रकट हुआ। वह दिव्य आभा से दमक रहा था। उसके हाथ में लिली के फूलों का गुच्छा था। उसने उसे गले लगाया और पलकें बंद कर दीं। उसके बाद अपनी शरीरी आँखों से वह कुछ नहीं देख पाया। उसने उसका एक गहरा, लंबा और मुलायम-सा चुंबन लिया जिससे उसके होंठों पर सुखपूर्ण आत्मिक मुस्कान तैर आई। घर खाली हो गया। कवि द्वारा लिखे हुए पन्ने उड़कर इधर-उधर बिखर गए।

सैकड़ों साल बाद, शहर के लोग अज्ञान की नींद से जागे और उन्होंने ज्ञान के सूर्य को उगते देखा। उन्होंने उस कवि की एक खूबसूरत मूर्ति बनाकर शहर के सबसे अच्छे पार्क में स्थापित की। वहाँ उस कवि के, जिसकी वाणी ने उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखाया था, सम्मान में वे हर वर्ष मेला लगाने लगे। ओह! मानवीय अवहेलना कितनी क्रूर होती है!!