क्रांति-प्रतिक्रांति / गोपाल चौधरी

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इस तरह से कुछ तय हुआ हमारा जे एन यू की शिक्षा का सफर। न अपने सबालो का जवाब मिला और ना ही पी एच डी कर पाया। न लड़की मिली न किसी सपनों की शीतल छाया! जहाँ वास्तविकता की कड़ी धूप में पनाह मिल सके! ना ही कोई विचारधारा रास आई और न ही किसी राजनैतिक-सामाजिक मुहिम से जुड़ पाया।

बस अधूरी थीसिस, पुष्टि के इंतजार में कुछ अवधारणा। कुछ अधूरे, अस्पष्ट से स्केच, प्रारूप देश समाज की बदहाली के मद्देनजर। न किसी राजनीतिक दल की जुमलेबाजी रास आई। न ही किसी विचारधारा में हमारे सबालों का, जो अपने ही देश-समाज कि बददेहाली से ताल्लुक रखता होता। कोई मुकम्मल जवाब मिलता नज़र आया।

जे एन यू के प्रारम्भिक दिनों में भारतीय वामपंथ से जुड़ा। पर वहाँ कुछ भी भारतीय न पा सका। न देश समाज की बदहाली के मद्देनजर कोई ठोस दृष्टिकोण! आखिर उनकी खोखली, यूटोपियन और आयायित विचारधारा निराश कर गई और मैं तटस्थ-सा हो गया। फिर किसी विचारधारा या दल से नहीं जुड़ पाया। हालाकि कुछ मानते होते कि मैं फ्री थिंकर बन गया। पर वास्तविकता कुछ और ही होती: न जे एन यू शैली का फ्री थिंकर, न यूरोपियन स्टाइल का।

पर बहुत लोग बहुत तरह की बातें करते होते। कोई फ्री थिंकर समझता, तो कोई छुपा हुआ कांग्रेसी या भाजपाई। पर उन्हे क्या मालूम इनमे से कोई नहीं होता। मुद्दा आधारित विचार होते मेरे। और वह अगर किसी दल या विचारधारा के अनुरूप होते, तो इसमे मैं क्या कर सकता! अगर कोई मुझे फ्री थिंकर समझे, या दक्षिणपंथी या वामपंथी, ये उसका प्राधिकार होता। इसमे मैं क्या कर सकता?

पर वामपंथी मित्र और गुरु बहुत ही नाराज से लगे। तरह-तरह के अफवाह, प्रोपगण्डा फैली जा रही होती मेरे बारे मे। कोई राइट का गुंडा कहता होता, तो कोई प्रतिक्रियावादी! और न जाने क्या-क्या कहते होते। भला क्यों नहीं कहते? वामपंथियों के गढ़ पर पहली बार सेंध जो लगी थी! जे एन यू के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ! जब वे एक साल के लिए जे एन यू की सत्ता से बाहर हो गए! और उसका कारण मुझे मान रहे होते।

पर क्या कोई व्यक्ति या समूह या घटना किसी इतने बड़ी घटना का कारण बन सकता है! हाँ फौरी कारण (इमिडियट कॉज़) बन सकता है और बनता भी आ रहा है। पर इससे अधिक नहीं।

कार्य और कारण ऐसे जुड़े हैं जैसे रात और दिन! सुख और दुख, हार और जीत! दिन का अंतिम छोर रात और रात का दिन। जैसे वही सुख बाद में दुख में बदल जाता है! और दुख सुख का आगाज होता। कार्य और कारण भी वैसे ही जुड़े है। कारण कार्य को जन्म देता है। फिर वही कार्य अगले का कारण बनता।

इसी तरह के कुछ कारण और कार्य की अनंत शृंखला में फंसे से लगे होते जे एन यू के वामपंथी और दोष मुझे दे रहे होते! क्रांति और प्रति-क्रांति के तथाकथित मसीहा! पता होते हुए भी ऐसे दिखा रहे थे जैसे उन्हे कुछ पता ही न हो! घटना या क्रांति या प्रति-क्रान्ति के दो कारण होते है: दूरगामी और तुरंत गामी (इमिडियट और मेडियट) । इस ज्ञान भरी अज्ञानता से वे अपनी तिलमिलाहट का इजहार कर रहे थे। शायद।

विरोध, विद्रोह और क्रांति! जीवन धारा का अनिवार्य हिस्सा! जहाँ-जहाँ जीवन और उसकी धारा रुकती होती है वहाँ विरोध, विद्रोह और क्रांति। पहले विक्षेप होता है, जैसे सृष्टि के सर्जन से पहले स्रष्टा को होता है। जैसे बिग बैंग के पहले हुआ होगा। कहते है विधाता को भी अहंकार हुआ! उनमे में भी विक्षेप पैदा हुआ। वे भी जीवों के रूप में इस जीवन का आनंद लेने, हम सब के रूप में उतर आए! इस संससर मे। तभी वह एक! इस विक्षेप से अनेक बना!

युद्ध, विद्रोह, लड़ाई और संघर्ष! इस जीवन के ही हिस्से हैं! जैसे दिन और रात, दुख और सुख! हिंसा अहिंसा, सत्य और असत्य! एक ही छोर के दो किनारे। हम कभी एक को पकड़ते रहे। दूसरे को छोड़ते रहे। अहिंसा को, सत्य और जीवन का धर्म मान कर कई तमगे तो मिल गए। कई अमरता को प्राप्त हो गए। देश को तथाकथित आज़ादी भी मिल गई। ये और बात है कि गुलामी के सारे कानून, विधि-विधान, प्रशासनिक और राजनीतिक संरचना और मूल्य आज़ाद देश के लोगों पर थोप दिया गया और इसे बड़े ही चालाकी और चुपके से प्रजातन्त्र, स्वतन्त्रता और अधिकार का जामा पहना दिया गया!

उसके बाद जो हिंसक तांडव हुआ, अभी तक जारी है। चाहे नर संहार के रूप में हो या जन संहार के। गरीबी, भूख, शोषन, सामाजिक और आर्थिक अत्याचार की हिंसा बदस्तूर जारी है। फिर क्या हुआ उस अहिंसा का जो हिंसा का भीषण और कुत्सित रूप लेकर पूरी मानवता को शर्मिंदा करता आ है। यह हिंसा है या अहिंसा?

वैसे ही जे एन यू में वामपथ को सत्य मान लिया गया लगता। उस समय। और इस एकांगी सत्य से असत्य और ढोंग का प्रक्षेपन हो रहा था। इस तरह और इतने भोंडे ढंग से कि सत्य की सत्यता पर संदेह होने लगा। तियानमन स्कवेर और गोर्ब्चोव पर जे एन यू के वामपंथियो से पहले से ही मतभेद हो रखा था। उनसे अलग हो गया था और तटस्थ हुआ नयी जमीन तलाश रहा होता। किसी राजनीतिक पार्टी का नहीं, नाही किसी विचारधारा का। बल्कि अपने देश और समाज के बदहाली के कारण के निमित।

तभी जे एन यू में एक हंगामा-सा बरप गया। पूरा कैम्पस उसके गिरफ्त में आ गया। हुआ यूं कि दिल्ली पुलिस ने एक कश्मीरी छात्र को गिरफ्तार को किया। वह आतंकवादियों को कश्मीर में फंड पहुचाने का काम करता था। लंदन से पैसा आता इसके पास और यह छात्र के रूप में छिपा आतंकवादी पैसे उन तक पहुँचता। वामपंथी इस गिरफ्तार आतंकवादी के पक्ष में आंदोलन करने लगे। पर तुरंत ही इस आंदोलन कि कुरूपता और विद्रूपता दृष्टिगोचर होने लगी।

उस दिन आतंकवादी के समर्थन में निकला जुलूस! वैसे तो पहले से ही देशद्रोही और प्रशासन विरोधी था। उस पर से देश विरोधी नारे भी लगने लगे। मुझे भी खबर मिली अपने लोगों से: देश विरोधी नारे लगाए जा रहे है! एक समुदाय और पार्टी के लोग, विशेष कर उछल-उछल कर के कारत विरोधी नारे लगा रहे हैं। हमारा खून खौल उठा और मुझे इस बात पर हैरानी होती हुई: औरों का खून-खून ही या पानी, जो खौला नहीं। बचपन से देश और देश के बारे कुछ भी बोले जाने पर मुझे एक तरह का जोश आ जाता था। गुस्सा तो नहीं पर सात्विक गुस्सा माना जा सकता है।

उस दिन हमने 20-25 लड़कों का त्वरित दल बनाया। या बन गया शायद। अकिल नेतृत्व कर रहा है इस देश विरोधी ग्रुप। जब पता चला, तो हम सभी और भी उद्वेलित हो गए। उसकी ये हिमाकत? इसलिए नहीं कि वह खास धर्म का था। बल्कि वह उस पार्टी का नेता हुआ करता, जो देश को खोखली आज़ादी दिलाने के नाम पर अब तक लोगों पर शासन करती आ रही है। नहीं लूट रहे थे, कहना अधिक सटीक होगा।

हमारा त्वरित दल गंगा ढाबा की ओर बढ़ रहा था। तभी वे इधर आते दिखे। सचमुच वे देश विरोधी नारे लगा रहे थे।

हमारा खून खौल उठा और हमे टूट पड़े उनपर। जे एन यू स्टाइल मे। बिना हिंसा के हिंसा। यानी हिंसा की धमकी जो एक तरह से अहिंसा ही हुई। चाहे अहिंसावादी इससे सहमत हों या न। इतना तो तय था कि हमने हिंसा नहीं की। नहीं तो कब का जे एन यू से निकाल दिये गए होते!

मैंने अकिल का कालर पकड़ कर बोला—अब अगर देश के खिलाफ एक भी शब्द बोला तो ऐसा मारूँगा की सीधा बार्डर पार गिरेगा साला...

और हमारे त्वरित दल के लोगों उन सबों को धक्का मुक्की और गाली दे कर चुप करा दिया। सबों को अपने-अपने हॉस्टल में जाने पर मजबूर किया और उन्हे यह भी बता दिया गया: दुबारा ऐसा सोचा भी, तो हम भूल जाएगे कि जे एन यू में है! या कैम्पस के बाहर ले जा कर उन्हे सबक सिखाया जाएगा।

पर उसी दिन मैंने और जनार्दन सिंह, जो दक्षिण पंथी राजनीति में अपनी जमीन तलाश रहे थे, ने एक संकल्प लिया: इन वामपंथियो को हराना चाहिये। बस शुरू हो गया हमारा ऑपरेशन वामपंथ हटाओ। उसी दिन से। उसी वक़्त से। पूरे हो हंगामे के साथ।

उधर कैम्पस में सब कुछ शांत हो गया। उस दिन के बाद से। ऐसी ही घटना बाद में भी हुई थी। जब देश विरोधी नारे लगे। काफी हंगामा हुआ। मीडिया से लेकर संसद में इसकी गूंज कई दिनो तक सुनाई पड़ती रही। देश विदेश में इसके चर्चे होते रहे। संसद में भी इस विषय पर विशेष अधिवेशन भी बुलाया गया। कई गिरफ्तारियाँ भी हुईं। कईयो पर देश द्रोह का मुकदमा चला। बहुतों को जे एन यू से निकाला गया।

एक हम लोग थे! इस तरह की घटना के शुरू होते ही रोक दिया। बात कैम्पस के बाहर तक नहीं गई। एक आज कल के हैं! अगर उन्हे पहले ही रोक दिया गया होता, तो ये नौबत ही नहीं आती। खैर उस दिन से हमलोग वामपंथ हटाओ अभियान पर जुट गए।

और इसी देश विरोधी घटना और विषय को ही अपना मुख्य मुद्दा बनाया। वाम पंथियो के देश विरोधी गतिविधियो और बयानो के चिट्ठे निकाले जाने लगे। क्योंकि यह देश विरोधी गतिविधि वामपथियों ने की थी। हमे उन्हे बैक फुट पर रखने लगे। इस मुद्दे पर।

बड़े जद्दोजहद के बाद हम निष्कर्ष पर पहुँचे: दक्षिणपंथी पार्टी ही वामपंथ से लड़ सकती है कैम्पस मे। ये उस समय की बात है! जब कैम्पस में काँग्रेस और बीजेपी का नाम लेना भी एक तरह से वर्जित माना जाता। इसे एक प्रकार का टाबू समझा जाता।

पर उस समय हमे दक्षिण पंथी ही सक्षम लगे वाम पंथ को मात देने मे। वे भी विश्वविद्यालय में अपनी जमीन की तलाश में थे। बस क्या था हम धीरे-धीरे माहौल बनाने लगे। औपचारिक और अनौपचारिक सभा, बहस, वार्ता, संवाद का माहौल गरमाने लगा।

विश्वविद्याल्य चुनाव की घोषणा हुई। हम जी जान से जुट गए। अपने वामपंथ हटाओ अभियान को सफल बनाने मे। इसी देश विरोधी घटना को चुनावी मुद्दा बनाया गया। माहौल पहले से ही गरम रखा गया था। वाम पंथ को हम लगातार बैकफूट रखे हुए थे।

और चुनाव के परिणाम की घोषणा हुई। वामपंथ चारो खाने चित्त! दक्षिणपंथियों ने उनसे तीन 3-1 की बढ़त ले ली। इस तरह पहली बार जे एन यू में वामपथ सत्ता से बेदखल हुई! यह किसी क्रांति से कम न थी। क्योंकि यह विश्वविदयालय हमेशा से वामपंथियों का गढ़ रहा है। विश्वास ही नहीं होता। ऐसा भी हो सकता है!

पर ऐसा हुआ था और हम रातो रात नायक और खलनायक दोनों एक साथ बन गए। नायक दक्षिण पंथियो के लिए और खलनायक वामपंथियो के लिए। हमे के एस-एस के मुख्यालय बुलाया गया। पर वहाँ ऊंची जाति के लोगों को पहले बुलाया गया। वह पता नहीं क्या खुसुर फुसुर करने लगे। कुछ गुप्त मंत्रना-सी हो रही होती। तभी तो मुझे बाहर इंतजार करने को बोला गया।

क्यों अलग थलग रखा गया? शायद छोटी जात हूँ! यादव हूँ! इसलिय तो नहीं बाहर रखा गया। कुछ भी कर लो, इनके मन से जात पात का भूत जाता ही नहीं। यहाँ भी-भी भेदभाव। वही उंच नीच! मुझे एक साथ गुस्सा और दुख दोनों होता हुआ और वहाँ मुख्यालय से भाग आया और कसम ली कि कभी भी इस भेद भाव वाली जगह नहीं आऊँगा।

पर उन लोगों को बहुत खराब लगा। अगले दिन उनकी बैठक हुई। दक्षिण पंथी दल का नेता, मिश्री जी ने म्रेरे इस व्यवहार की निंदा किया और मुझे दल से निकालने की अनुषंशा की। मुझे जब पता चला, तो, वहीं कहीं आस पास था, सभा स्थल के पास। जबकि मुझे जान बुझ कर नहीं बुलाया गया था। जैसे ही हमे पता चला, दल बल सहित घुस आया। सभी इस अप्रत्याशित जीत की श्रेय लेने में लगे थे और मुझे और जनार्दन सिंह को निकालने की बात कर रहे होते!

मैंने बोला: मुझे भी मौका दिया जाय अपना पक्ष रखने को। तो वे चुप हो गए। जैसे उन्हे साँप सूंघ गया हो! मिश्री तो रिरियाने लगा। उसे एक हल्का-सा धक्का दिया और माइक छीन कर बोलने लगा: —भाइयों और बहनो! जब आपके दल में हूँ ही नहीं तो निकालने का प्रश्न नहीं उठता। आप कौन होते हो निकालने वाले? और जब मैं हूँ ही नहीं तो आप क्यों निकलन चाहते हो? क्यों मुझे बेईज्जत करना चाहते हो? क्योंकि मैं यादव हूँ, जिसे आप छोटी जात बोलते हो। जो एक जात नहीं वर्ग है शासको का। जिससे क्षत्रियत्व छीन कर, या क्षत्रियत्व का लोप करा कर, विदेशियों और देशी कबीलों से लड़ा कर उन्हे पदच्युत कर दिया गया। फिर जात च्युत भी कर दिया अब। मैं बोलता ही गया। —मैं कभी आपके दल का कुछ भी नहीं था और मैं आपके दल में कभी भी... इस जातिवादी और ब्राह्मणवादी दल से कभी भी जुड़ना नहीं चाहूँगा, जहाँ उंच-नीच और जाती-पाती का भेद भाव हो ... मैं तो अपने देश का अपमान करने वाले और देश विरोधी नारे लगाने वाले वाम पंथियो को सबक सीखना चाहता था। वह काम हो गया... बस।

सभी अवाक रह गए। हमारा त्वरित दल रास्ता बनाता हुआ निकल आया बाहर मेरे साथ। उस जातिवादी और उंच-नीच की सभा से और फिर हमने दूसरा संकल्प लिया: इन संप्रदायवादी, जातिवादी और उंच-नीच की संस्कृति के जनक और पोषक ऊंची जतियों के दल को हराना और हटाना और जनार्दन सिंह को तो इन ब्रहमनवादियों ने कैम्पस से ही भगा दिया! उसके खिलाफ पता नहीं क्या-क्या झूठे इल्जाम लगाए गए।

पूरा कैम्पस दंग-सा रह गया था। इस घिनौनी और प्रतिकीयवादी घटना से। फिर दक्षिन्पंत्थयो ने भी गंध मचनी शुरू कर दी। धर्म और जात के नाम पर वह कैम्पस में खुल कर गंदगी भी फैलाने लगे।

इधर हमारा त्वरित दल कांग्रेस के एक कर्मठ कार्यकता, कनवीर, को तैयार करने लगे। इन संप्रदायवादी और जातिवादी दल से मुकाबले के लिए। पहले उसे तैयार किया गया और फिर लोगों से उसे व्यक्तिगत समर्थन देने के लिया महौल बनाया जाने लगा। तनवीर अल्पसंख्यक समुदाय का था। पर सबसे बड़ी खासियत थी: वह किसी का भी हाथ-पैर पकड़ सकता था मत के लिए।

बस हम धीरे अगले चुनाव का इंतजार करने लगे। सांप्रदायिक और जातिवादी दल तो गंध फैलाने में लगे ही थे। कैम्पस का भी माहौल खराब होते जा रहा था। उधर कैम्पस की सत्ता से बाहर हुआ वाम पंथ फिर से राजगद्दी वापिस लेने को आतुर था। इसके लिए सब तरह हथकंडे भी अपना रहा था।

वाम पंथी भी हमसे समर्थन मांगने आए थे। उन्होने चन्द्रशेखर जी को भेजा था। वही चंद्रशेखर जिन्हे सीवान में जन आंदोलन करते समय सामंतवादी और प्रतिक्रियावादी तत्वो ने शहीद कर दिया था। उसी दिन पता चल वे सीवान के ही है। उन्होने बताया भी था कि वे अगले साले से सीवान में जन आंदोलन करने जा रहे है। मैंने उन्हे आगाह भी किया था कि अपनी सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता रखना। वे लोग जिनके खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, बहुत खतरनाक है। उन्होने सुनी नहीं और शहदात को प्राप्त हो गए।

तब चन्द्रशेखर जी ने जनार्दन सिंह और मेरी अवमानना का हवाला दिया और चिंता जाहीर की: कैसे दक्षिणपंथी ताकते विश्वविद्यालय का माहौल खराब करती जा रही हैं। उन्होने यह बताने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई के हमने ही उन्हे जीताया और अब हमारा नैतिक कर्तव्य बनता है कि उन्हे हराया जाए और हमे-हमे राजी कर लिया।

पर हम उन्हे अध्यक्ष, जो हम कनवीर को बनाना चाहते थे, को छोड़ कर सारे पदों पर समर्थन के लिए राजी हो गए। हमारा दल ऐसा कोई संघटित दल नहीं था। पर हम जे एन यू के कुल मतो में से आधे से भी अधिक पर प्रभाव रखते थे। इस तरह हम उनके खिलफ़ा मोर्चे बाँधने लगे। जनमत भी उनके खिलाफ होने लगा था।

और अगले चुनाव में ऐसे हारे कि अगले एक दशक तक खाता तक नहीं खोल पाये। बस हमारा मिशन सफल हुआ और मैं कैम्पस की राजनीति से अलग थलग रहने लगा। लोग अब भी आते मत मांगने। समर्थन मांगने। पर धीरे-धीरे इन सबों से दूर होते गया और एक दिन कैम्पस से कूच कर गया।


जब जे एन यू से निकलना! जैसे एक युग का अंत होता हुआ हो! लगभग एक दशक का सफर रहा जे एन यू का। शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, वाद-विवाद, देश-समाज-दुनिया के प्रति वादों और कसमों का। ऐसे बीता जैसे कल की बात हो!

कभी मार्कस्वाद, तो कभी समाजवाद, तो कभी लोहियावादी। तो कभी मानवीय पूंजीवाद या सामुदायिक पूंजीवाद। फिर अल्बर्ट कामू। फ्रीथिंकर—जे एन यू की तरह। फिर इन सब से निराश होना। शायद मेरे सबालो का जवाब नहीं मिला। कभी दक्षिणपंथियों से फ्लर्ट किया तो कभी वामपंथियों से। फिर भी बात नहीं बनी।

कोई लेफ्ट का गुंडा कहता, तो कोई राइट का मसलस्मैन। कोई छुपा हुआ काँग्रेस वाला कहता। तो कोई हेप फ्रीथिंकर और कोई-कोई तो पटना का गुंडा भी कहता! एक तथाकथित दोस्त था मेरा। एक दिन उसने सेंट्रल लाइब्ररी में मेरे पास वाली सीट पर कंगना को बैठेते देखा। जब वह किताब लेने डेस्क पर आई, तो वह भागता हुआ कंगना के पास आया और बोला: अरे वह तो पटना का गुंडा है।

ये बात मुझे सेंट्रल लाइब्ररी के डेस्क क्लर्क ने बतायी। तब मुझे पता चला: कंगना क्यों मेरे बाजू से तुरंत उठ गई और दूसरे सीट पर चली गई। ये अलग बात है कि इसके बावजूद कंगना उसे नहीं मिल पायी। और मैंने तो चाहत ही छोड़ दी। उस दिन चाहा था: वह बैठे मेरे पास। पर वह चली गई। बस उस दिन के बाद से किसी भी तरह के चाहत से डर लगाने लगा।

पर वह खोज जो पटना कॉलेज या उससे पहले नालंदा के एक स्कूल से शुरू हुई और जे एन यू में स्पष्ट हुई। वह भी मोटे तौर पर। वह खोज जारी रही। कोई अंजाम तक नहीं पहुँच पायी थी तब तक। न कोई विचारधारा, न कोई सुबह का तारा, न लोडस्टार ही मिल पाया: क्योकर हमारा देश-दुनिया और समाज ऐसा है!

'बाबूजी, आप कहाँ से आए हैं? जब तारादेवी यूथ हॉस्टल के केयरटकेर ने पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी।' दिल्ली से आया हूँ... यों ही घूमने। '

तारादेवी हिल्स के यूथ हॉस्टल के पहाड़ के अंतिम छोर के चट्टान पर बैठा हुआ। वहाँ से शिमला और मध्य हिमालय के सारे पहाड़ दिख रहे होते। उच्च हिमालय के धौलधर! चंबा-डाल्होजी से परे पांगी घाटी के पहाड़! सुदूर क्षितिज पर अपनी धुंधली-सी पहचान बताते से नज़र आते होते। जैसे आगत जीवन अपनी आकांक्षा, अपने-अपने सपने गुनने की अदृश्य तासीर छोड़ते रहता है और विगत दफन हुए, दबे कुचले, मसल दिये गए अरमानो, हसरतों और ख्वाहिशों की धुंधली तस्वीर!

यूथ हॉस्टल के केयरटकेर के जाने के बाद फिर खोता हुआ अपने आप को। उन वादियों मे! ऐसा लगता जैसे पूरा जीवन ही उतर आया हो। चुपके-चुपके शायद उन पहाड़ों और घाटियों के बीच से कहीं! मन अतीत की वीथियों में इस तरह भटकते होता जैसे कोई पागल शहर मे!

कल ही दिल्ली से ट्रान्सफर ले कर शिमला आया था और सुबह होते चला आया शिमला से पंद्रह किलोमीटर दूर यहाँ तारादेवी हिल्स। क्यों? उन्नीस साल पहले मैं पहली बार आया था यहाँ। एक अखिल भारतीय कैंप में भाग लेने। पंजाब रेड क्रॉस ने आयोजित किया था।

पर यहाँ तड़के आने का कारण समझ में नहीं आ पा रहा था। कुछ तो बात थी जो मुझे यहाँ खींच ले आई। शायद कुछ सोचना चाहता हूँ! अपने अतीत और माजी में कोई सुराग, कोई रोशनी ढूँढ रहा होता। भावी जीवन में जिजीविषा का कोई अर्थ!

अतीत पर ही तो वर्तमान खड़ा होता है! और फिर भविष्य! माजी की नीव पर वर्तमान का महल तैयार होता और भविष्य का पेंटहाउस! कुछ लोग अतीत और इतिहास का मज़ाक उड़ाते हैं। तो कुछ वर्तमान को ही सब कुछ मानते हैं! इसमे जीना ही जीना है!

पर अगर देखा जाय तो वर्तमान भी नहीं होता, अगर अतीत नहीं होता। पर वर्तमान तो होने में लगा है। जो है उसे नकारते हुए कुछ और होने में लगा है और भविष्य तो है नहीं। वह तो हमेशा भविष्यत ही होता रहता है!

फिर क्या बचा? एक शून्य, एक अवकाश! और अनंत आकाश कुछ नहीं का और इस कुछ नहीं (शून्य व नथींगनेस) को माया या मृगमरीचिका भी कहते हैं! क्योंकि इसे पकड़ने में पूरा जीवन बीत जाता है! पर हाथ कुछ भी नहीं आता! फिर भी जीवन है ये! और इसको जीना मात्र ही जिंदगी है!

उस दिन तो मैं सुबह होते ही निकल पड़ा था। शिमला से पंद्रह किलोमीटर दूर शोघी पहुँचा। वहाँ से तीन किलोमीटर ट्रेक कर तारा देवी। यहाँ मैं तब आया था जब मैं दसवीं में था। इतने सालों बाद यहाँ क्यों कर आया था? शायद मेरी जिजीविषा खींच लायी। तभी शायद इतने अंतराल के बाद यहाँ आना हुआ।

कल ही बर्फवारी हुई था। पूरी फिजा बर्फ के रुपहले उजाले में डूबी हुई सी! सूरज की सुनहरी रोशनी में शुभ्र धवल बर्फ से लदे पर्वत शिखर चमक रहे होते! और मैं तारा देवी हिल्स के आखिरी छोर के शिलाखण्ड पर घंटो बैठा रहा।

उन चंद घंटो में पूरा जीवन! एक युग-सा उतर आया हो मानो! यूं लगता हुआ, जैसे उन स्वर्णिम उजाले में लिपटे पर्वत शिखर से चहुं ओर घिरे सुंदर वादियों में पूरा जीवन ही उतर आया हो! कहीं यही जिंदगी तो नहीं! पर जीवन सपना तो नहीं!

और मैं! अब तक के जिए अपने जीवन की फिर से जीता रहा! सुखो को दोहरता रहा! सपनों को सहलाता रहा। दुखों को सिलता रहा। जख्मों पर मरहम पर मरहम लगाता रहा। वह लम्हे जो पल नहीं बन पाये, वह पल जो समय धारा में मिलने के पहले ही गुम हो गए! उनको फिर से जीने की असफल कोशिशें करता हुआ सा!

क्या वह सब मैंने ही जीया? वह खुशी के क्षण! तथाकथित दुखों के वे दिन! उस समय खराब लगते होते! पर जिन खुशियो की वे वजह बने, उनके आगोश में अब गुम हो गए से लगे और एक प्रश्न खड़ा कर गए: सचमुच वे दुख ही थे या और कुछ?

वो संघर्ष के दौर! आशा और निराशा के बीच झूलता सारा वजूद। वह पहाड़ से दिन! वह जागी-जागी-सी ऊँघती रातें! पत्थर से भारी लगते दिन! तो फिर कभी सपनों से फिसलते दिन! क्या वह सब मैंने जिया! गुना, या बीता मुझ पर? क्या मैं था? अगर वह मैं था, तो ये कौन है जो उन्हे देख रहा है! अगर वह दूसरा न था मैं ही था वह अभी क्यों नहीं है? अभी नहीं है, तो विश्वास ही नहीं होता कि कभी था भी! पर वे सब थे तो जरूर! तभी तो याद रहें!

कुछ कुछ उलझ-सा गया। अस्तित्व के उलझन मे। जीवन हमे अक्सर डालता ही रहता है! पर इतना तो पता चल गया कि सब कुछ हो जाता है! सब कुछ गुजर ही जाता है! हम बेवजह अपने आप को बीच में ले आते शायद! हमारी स्थिति कुछ-कुछ टिटहरी जैसी होती: कभी न गिरने वाले आकाश को अपने नन्हें पंजों से रोकने की हास्यास्पद धृष्टता! पर वह तो पैरों को गगन की ओर कर सोती ही रहती। अपनी पूरी जिंदगी। इस डर से: अगर अंबर गिरे तो अपने नन्हें पैरों से रोक लेगी! अपने ऊपर गिरने से!

मध्य हिमालय के शिवालिक पहाड़ों के बीच बैठा सोचता हुआ। अपने को देखता हुआ एक दर्शक की तरह! कहाँ गए वह डर! चिंता, शक और सुबा कि ये होगा या वह होगा! वह सब मन के वहम ही तो लगते होते। दिमाग और मन की अथक कसरत! और उसमे पल-पल खोती जिंदगी! पर वह कौन होता जिसने ये सब फालतू की बाते सोची होती? फिर वह कौन होता जो इन्हे सच मानते हुए जीता होता? क्या दोनों एक ही है या अलग?

अगर एक होता, तो दो नहीं दीखता! पर एक नहीं होता तो याद भी नहीं होता। किसने याद रखा? उसी स्व ने जो भोगता रहता है सब कुछ? पर उसके अनवरत भोग के बारे में किसे पता होता है—भोक्ता को या द्रष्टा को! पर वह तो अभी कही नहीं है! और दीखता भी नहीं है कहीं और कभी भी! फिर किसने याद रखा? कौन है जो दर्शक की तरह देख रहा है? चाहे हुए का न होना और न चाहते हुए चीजों का होना! इसमे हमारी सत्ता कहाँ है? किसके पास? कार्य या कारण? आत्मा या निज स्वरूप?

उधर सूरज की किरने पूरी घाटी को अपने लाल रंग में समेटने लगी। शाम होने की खबर देते हुए। अब चलना चाहिये, यह सोच कर उठ पड़ा।

और चल पड़ा वापिस शिमला की तरफ। पहले से हल्का और नए आत्मविश्वास से भरा हुआ। जैसे जीवन जीने की कोई नयी वजह मिल गई हो! बेवजह और बिन मांगे! जैसे कि आनंद की बारिश होती रही हो! और इसका पता अभी-अभी चला हो!