खोया पानी / भाग 18 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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लालटेन से तेल निकाल कर अभी पुरानी गड्डी जलाई ही थी कि बड़ों की एक नसीहत याद आ गयी कि कोई भी काम हो, जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। जल्दी का काम शैतान का। अतः शैतान के काम पर लानत भेजी और नयी गड्डी और मसनवियां वापस ले आये। फिर दो पेन्सिलें और छह रबर खरीदे कि उनके यहां इन चीजों के इस्तेमाल का यही अनुपात था। आप भी तो पेन्सिल से लिखते हैं कि पांडुलिपि फेयर करने के झमेले से बच जायें, मगर दुश्मनों का कहना है - लिखते कम हैं, मिटाते अधिक हैं। आपने पेन्सिल की लत मुख्तार मसऊद को भी लगा दी। अब वो भी आपकी तरह रबर से लिखते हैं।

फिर मुल्ला आसी `रफ-वर्क` के लिए रद्दी वाले के यहां से रेलवे की बड़ी रसीदों और बिल्टियों की पांच सेर कापियां एक आने में खरीद लाये। उस समय के मितव्ययी लड़के उनकी पीठ पर रफ वर्क करते थे। आधा सेर सौंफ भी लाये। उसके कंकर मुहल्ले की एक कुंवारी लड़की से बिनवा कर एक शीशी में इस तरह सुरक्षित कर लिए, जिस तरह आप्रेशन के बाद कुछ वाचाल मरीज गुर्दे और पित्ते की पथरियां सजा कर रखते हैं और दिखाते, बताते हैं मगर कुंवारी लड़की की अलग कहानी है, कभी और सही। फिर सौंफ में एक पाव धनिये के बीज मिला कर दोनों मर्तबान में भर दिये। हरि प्रकाश पांडे ने कहा था कि धनिये के अर्क की दो बूंदें भी मस्त सांड़ या भड़कते ज्वालामुखी पे डाल दो तो वहीं बुलबुले की तरह बैठ जायेगा। सौंफ से आंखों की ज्योति बढ़ती है और दिमाग को तरावट पहुंचती है, चुनांचे एक फुंकी नींद के झोंके से पहले और एक बाद में मार लेते थे।

जब पढ़ाई का माहौल बन गया तो पढ़ाकू लड़कों से पूछताछ करके कोर्स की किताबों की लिस्ट बनायी; कुछ नयी, मगर अधिकतर सेकिंड-हैंड खरीदीं। सैकिंड-हैंड किताबों को कम कीमत के कारण नहीं, बल्कि केवल इसलिए प्रमुखता दी कि कई एडीशन ऐसे मिल गये जिनमें फेल होने वाली दो-तीन अनुभवी पीढ़ियों ने एक के बाद दूसरे आवश्यक हिस्सों पर निशान लगाये थे। कई निशान तो लाइट हाउस की तरह थे, जहां ज्ञान की तलाश में निकले हुए बेध्यान लड़कों की उदास नस्लों का बेड़ा गर्क हुआ था।

एक अद्भुत किताब ऐसी भी हाथ लगी जिसमें केवल अनावश्यक हिस्से अंडरलाइन किये गये थे ताकि उन्हें छोड़-छोड़ कर पढ़ा जाये। उन्हें विश्वास था कि कोर्स की किताबों की उपलब्धता के बाद परीक्षक के विरुद्ध युद्ध में आधी विजय तो प्राप्त कर ही चुके हैं। इसके बाद वो हरि प्रकाश पांडे के घर गये, जो गवर्नमेंट कॉलेज में हमेशा फर्स्ट आता था। चिरौरी, विनती करके उसकी सारी किताबें दो दिन के लिए उधार लीं और इक्के में ढोकर घर लाये, फिर छठी क्लास के एक गरीब लड़के को एक आने दैनिक की दिहाड़ी पर इस काम के लिए तैनात किया कि हरि प्रकाश पांडे की किताबों में जो हिस्से अंडरलाइन किये हुए हैं, उन्हीं के अनुसार मेरी तमाम किताबें हरी पेन्सिल से अंडर लाइन कर दो। फिर एक आने में रबर की दो मुहरें Important और Most Important की खड़े-खड़े बनवायीं और अपनी किताबों के सैट पांडे को दे आये कि जिन-जिन हिस्सों को तुम इम्तहान की दृष्टि से आवश्यक समझते हो, आवश्यकता के हिसाब से मुहरें लगा दो। ...प्लीज!

किताबों की किस्में और नकटे दुश्मन : सब निशान लग गये तो उन्होंने अनावश्यक और फालतू ज्ञान से छुटकारा पाने के लिए एक और हंगामी टैकनीक का आविष्कार किया, जिसे वो Selective Study कहते थे। इसका उर्दू पर्यायवाची तो मुझे मालूम नहीं;

विस्तृत विवरण ये कि जो सवाल पिछले साल आ चुके थे, उनसे संबंधित चैप्टर पूरे के पूरे कैंची से काट कर फेंक दिये कि उनके कारण ध्यान भटकता था और दिल पर किताब की मोटायी देख-देख कर घबराहट बैठती थी। यही नहीं उनकी अमर बेल की-सी जड़ें जो दूसरे चैप्टरों में कैंसर की Secondaries की तरह फैली हुईं जहां-जहां नजर आईं, काट कर फेंक दीं। फिर वो चैप्टर भी निकाल फेंके जिनके बारे में उनके परामर्शदाताओं और शुभचिंतकों ने कहा कि इनमें से कोई सवाल आ ही नहीं सकता। थोड़ा-बहुत अपने अंतर्ज्ञान से भी काम लिया। अंत में जी कड़ा करके वो कठिन हिस्से भी निकाल फेंके जिन्हें वो दस बार भी पढ़ते तो कुछ पल्ले न पड़ता। इस शल्यक्रिया से किताबें छंट-छंटा कर एक-चौथाई से भी कम रह गयीं।

इनमें से तीन के चिथड़े तो ऐसे उड़े कि उनके अवशेषों को क्लिप से दूसरी किताबों के नेफे में उड़सना पड़ा। एक किताब का तो केवल गत्ता ही शेष रह गया, इसके कुछ अनावश्यक पन्ने शगुन और परीक्षक का दिल बहलाने के लिए रख लिए। उनका प्रोग्राम था कि जीवन और आंखों ने साथ न छोड़ा तो इन चयनित पन्नों के खास-खास हिस्सों पर एक उचटती-सी नजर डाल लेंगे। आखिर हर किताब एक ही ढंग से तो नहीं पढ़ी जा सकती। फिर ईश्वरीय कृपा और स्वाभाविक समझ-बूझ भी तो कोई चीज है। रही फेल होने की आशंका तो `इस तरह तो होता है, इस तरह के कामों में` बहरहाल अपनी शक्तिशाली बांहों से मेहनत करके सम्मानित ढंग से फेल होना, नक्ल करके पास होने से हजार-गुना बेहतर है।

किसी ने इन्हें किताबों के बारे में बेकन का मशहूर कथन सुनाया जो उनके दिल को बहुत भाया। मजे की बात यह है कि बेकन का यह निबंध उनके कोर्स में शामिल था और उसे उन्होंने बेकार समझते हुए काट कर फेंक दिया था। वो `कोटेशन` आपको तो याद होगा। कुछ इस तरह है कि कुछ किताबें सिर्फ चखी जानी चाहिये, कुछ को निगल जाना चाहिये। कुछ इस लायक होती हैं कि आहिस्ता-आहिस्ता चबा-चबा कर हज्म की जायें; कुछ ऐसी होती हैं, जिन्हें किसी वैकल्पिक व्यक्ति से पढ़वा कर संक्षिप्त करवा लेना चाहिये। मुल्ला आसी ने इस अंतिम निष्कर्ष में इतना जोड़ अपनी ओर से किया कि अगर सब नहीं तो अधिकतर किताबें इस लायक होती हैं कि सूंघ कर ऐसों के लिए छोड़ दी जायें, जो नाक नहीं रखते।

इतिहास का कलेजा : इतिहास की समस्या को भी उन्होंने पानी कर दिया। वो इस तरह कि हरि प्रकाश पांडे से कहा कि परीक्षक की दृष्टि से जितने सन् आवश्यक हों उनकी List बना कर मुझे दे दो, ताकि एक ही हल्ले में सबसे निपट लूं, लेकिन बीस से अधिक न हों। अब तक वो केवल पांच-छह सनों से काम चला रहे थे। मास्टर फाखिर हुसैन ने एक बार कहा था कि इतिहास, जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है, सनों के संकलन के अतिरिक्त कुछ नहीं। अपने जवाब में जितने अधिक सन् लिखोगे, उतने ही अधिक नंबर मिलेंगे। लेकिन जब मास्टर फाखिर हुसैन ने यह कहा कि हमारे यहां बड़े आदमियों का मरण दिवस उनके जन्म दिवस से अधिक महत्वपूर्ण होता है तो मुल्ला आसी का माथा ठनका कि दाल में कुछ काला है। मास्टर साहब ने ये टिप भी दिया कि परीक्षक अपना मन तुम्हारे पहले उत्तर के पहले पैराग्राफ से बना लेता है। इस आंखें खोल देने वाले ज्ञानार्जन के बाद दसवीं क्लास की जो छहमाही परीक्षा हुई, उसमें मुल्ला आसी ने पहले ही सवाल में कॅापी पर इतिहास का कलेजा निकाल कर रख दिया। मतलब ये कि पहले पन्ने के पहले पैराग्राफ की गागर में वो सारे सन् भर दिये जो वो अपनी हथेली और "Swan ink" के डिब्बे के पेंदे पर लिख कर ले गये थे।

इन सनों का मूल प्रश्न से कोई संबंध नहीं था, बल्कि आपस में भी कोई संबंध नहीं था। उन सबको एक लड़ी में इस तरह पिरो देना कि मास्टर फाखिर हुसैन पर अपनी नसीहत के परिणाम प्रकट हो जायें, सिर्फ उन्हीं का काम था।

सवाल लार्ड डलहौजी की पॅालिसी पर आया था। उनका जवाब मुझे पूरा तो याद नहीं, लेकिन उसका पहला पैराग्राफ जिसमें उन्होंने धर्म-संप्रदाय की चिंता, परवाह किये बिना सारे बादशाहों को एक ही लाठी से हांक कर मौत के घाट उतारा, कुछ इस तरह था।

अशोक महान (मृत्यु 232 ई.पू.) के बाद सबसे बड़ा साम्राज्य औरंगजेब (मृत्यु 1680) का था जो 1658 ई. में अपने बाप का तख्ता उलट कर सिंहासन पर बैठा। इस बीच में पानीपत में घमासान की जंग हुई, मगर उथल-पुथल समाप्त न हुई। हालांकि औरंगजेब ने अपने भाइयों के साथ दुश्मनों का-सा सुलूक किया, यानी एक के बाद दूसरे को मौत के घाट उतारा, अगर वो ये न करता तो भाई उसके साथ यही करते। दरअस्ल, अकबर (जन्म 1542, मृत्यु 1605) की चौकस आंख बंद होते ही साम्राज्य के बिखराव के आसार शुरू हो गये जो लगातार शाही मौतों के बाद 1757 में प्लासी के युद्ध और 1799 में श्रीरंगापट्टम के युद्ध के बाद प्रखर हुए। उधर योरोप में नेपोलियन (मृत्यु 1852) का तूती रुक-रुक कर बोलने लगा था। (यहां उन्हें दो सन् और याद आ गये चुनांचे उन्हें भी आग में झोंक दिया) यह नहीं भूलना चाहिये कि फीरोज तुगलक (मृत्यु 1388) ई.) और बलबन (मृत्यु 1287) भी साम्राज्य को स्थिरता नहीं दे सके थे। यहां हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि 1757 से 1857 तक...।

सन् को परीक्षक को ढेर कर देने के उपकरण के तौर पर प्रयोग करने और इतिहास का सही मूल्यांकन करने से संबंधित मास्टर फाखिर हुसैन की नसीहत उन्होंने पल्ले में बांध ली। उन्हें अपनी सही जन्मतिथि मालूम नहीं थी; अतः उसके खाने में `नामालूम` लिख दिया करते थे। लेकिन जिस दिन मास्टर फाखिर हुसैन ने कचोका दिया कि बेटे! हमारे यहां नामालूम तो केवल वल्दियत हुआ करती है तब से अपने अनुमानित जन्म-वर्ष 1908 के बाद A. D. भी लिखने लगे ताकि भ्रम न रहे और कोई कूढ़मग्ज B. C. न समझ बैठे।

जिस जमाने का यह जिक्र है, उनकी याददाश्त खराब हो चली थी। कोई बात या जवाब दिमाग पर जोर डालने के बावजूद याद न आये तो `इस समय मन एकाग्र नहीं है` इस तरह कहते कि हम अपनी नालायकी पर लज्जित होते कि कैसे गलत समय पर सवाल कर बैठे। साहब! अगले वक्तों के शिक्षकों की शान ही कुछ और थी।

परीक्षा संबंधी चालाकियों पर मास्टर फाखिर हुसैन का एक पाइंट और याद आया। फर्माते थे कि जहां मुश्किल शब्द प्रयोग कर सकते हो वहां आसान शब्द न लिखो। तुम विद्यार्थी हो। सादगी तो केवल विद्वानों को शोभा देती है।

मुल्ला अब्दुल मन्नान और नेपालियन : इसी तरह के एक शुभ चिंतक ने एक जमाने में टिप दिया था कि अगर तीन Essays और तीन ऐतिहासिक युद्ध रट लो तो अंग्रेजी और इतिहास में फेल होना असंभव है, बशर्ते कि परीक्षक ज्ञान-गुण-अग्राही और मूर्ख न हो। ये वो जमाना था, जब वो हर मशवरे पर शब्द-शब्द अमल करते थे चुनांचे हर बार एक भिन्न ढंग से फेल होते और परीक्षक की नालायकी पर रह-रह कर अफसोस करते। वाटरलू का परिणामकारी संग्राम, जिसमें उनके हीरो नेपोलियन की चूर-चूर कर देने वाली पराजय हुई, उन तीन युद्धों में, जो उन्होंने युद्ध के नक्शे समेत रट लिए, उनका फैवरेट था। दोस्तों को अपने फेल होने की सूचना भी इन्हीं ऐेतिहासिक शब्दों में देते थे जिसमें विद्यार्थी की लज्जित विनम्रता की जगह जनरली घमंड पाया जाता था।

I have met my waterloo

बाद में अपने जीवन की अन्य असफलताओं का ऐलान भी इन्हीं ऐतिहासिक शब्दों में करने लगे थे, मगर साहब! नेपोलियन की और उनकी असफलताओं में जमीन-आसमान का अंतर था। नेपोलियन तो एक ही पराजय में ढेर हो गया था, मगर उनके पराजय के ऐलान में दुबारा पराजित होने का फौलादी संकल्प पाया जाता था।

ताला नहीं खुलता : जब परीक्षक को जाल में फांसने के तमाम हथकंडे और शार्टकट पूरे हो गये तो परीक्षा में कुल चार हफ्ते शेष रह गये थे। शार्टकट दरअस्ल उस रास्ते को कहते हैं जो बुद्धिमान मगर सुस्त लोग कम-से-कम दूरी को अधिक-से-अधिक समय में तय करने के लिए ढूंढ़ते हैं। साहब! दूरी को मीटर से नहीं, समय से नापना चाहिये। खैर अब मुल्ला आसी सचमुच पढ़ाई में जुट गये। सुब्ह सात-आठ पूरियों, पाव भर कड़ाही से उतरती जलेबियों और रात भर तारों की छांव में भीगे दस बादामों की ठंडाई का नाश्ता करने के बाद वो खुद को कमरे में बंद करके बाहर से ताला डलवा देते कि खुद भी अगर चाहें तो बाहर न निकल सकें। शाम के वक्त ताला खुलता था। दो ढाई हफ्ते यही चलता रहा, मगर परीक्षा नहीं दी। कहने लगे, दिमाग का ताला नहीं खुलता।

और साहब! ताला खुलता भी कैसे? परीक्षा के कुछ दिन पहले यह ढंग बना लिया कि शाम होते ही साइकिल ले कर निकल जाते और पौ-फटे लौटते। परचे आउट करने की मुहिम में लगे हुए थे। जिन-जिन प्रोफेसरों के बारे में उन्हें जरा भी शक हुआ कि उन्होंने परचा बनाया होगा, उनके चपरासियों, रसोइयों, मेहतरों यहां तक कि उनके दूध पीते बच्चों को आयाओं समेत cultivate कर रहे थे। जैसे ही कहीं से हिंट मिलता या गैस पेपर हाथ लगता, उसे रातों-रात घर-घर बांट रहे थे।

जब वो अधिकारी लोगों, यानी शहर के तमाम नालायक छात्रों तक पहुंच जाता तो किसी दूसरे परचे को आउट करने की मुहिम पर साइकिल और मुंह उठाये निकल जाते। एक रात देखा कि एक प्रिटिंग प्रेस के बाहर जो कागज की कतरनें, प्रूफ की रद्दी और कूड़ा करकट पड़ा था, उसे उन पर में आस्था रखने वाले खास नालायक से दो बोरियों में भरवा कर बारीक मुआयने के लिए अपने घर ले आये। उन्हें किसी ने बहुत खुफिया हिंट दिया था कि एक परचा इसी प्रेस में छपा है।

उनके जासूस शहर के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे थे। उनके कथनानुसार आगरा, मेरठ, बरेली, राजपूताना और सेंट्रल इंडिया के शहरों में, जिनका आगरा यूनिवर्सिटी से संबंध था, उनके गुप्तचरों ने जासूसी का जाल बिछा रक्खा था। (जिससे किसी परीक्षक का सम्मानित ढंग से बच निकलना असंभव था) ये सब वो थे जो कई साल से अलग-अलग विषयों में फेल हो रहे थे। हर जासूस उसी विषय के परचे में स्पेशलाइज किये हुए था जिसमें वो पिछले साल लुढ़का था। Leaakage और गुप्त सूचनाओं के सोते सूखने लगे तो उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, अपनी अंतरात्मा की आवाज और अंतर्ज्ञान से इस कमी को पूरा किया।

पहला परचा सैट करने वाले परीक्षक के घर के बाहर थड़े पर गरदन और पैर लटकाये दो घंटे तक परचे की बू लेते रहे। तीन प्रश्न इसी हालत में सूझे। घर आ कर इनमें तीन प्रश्नों की वृद्धि इस तरह की कि दस प्रश्नों की कागज की गोलियां बनायीं और उसी कुंवारी लड़की के, जिसका जिक्र पहले कर चुका हूं, पांच साला भाई से कहा कि कोई-सी तीन उठा लो। सोमवार की सुब्ह पहला परचा था। इतवार की रात को सुब्ह चार बजे तक दस सवालों पर आधारित अपना आउट किया हुआ परचा हर उस छात्र के घर पहुंचाया, जो पिछले सालों में लगातार फेल होता रहा था या जिसमें उन्हें आइंदा फेल होने की जरा भी योग्यता दिखाई दी।

इस परमार्थ से सुब्ह साढ़े तीन बजे निवृत्त हुए। घर आ कर ठंडे पानी से नहाये। बाहर निकल कर भोर के तारे की तरफ टकटकी बांधे देर तक देखा किये, एक हिंदू पड़ौसी से जो कुएं की मन पर लुटिया से स्नान कर रहा था और हर लुटिया के बाद जितनी अधिक सर्दी लगती उतने ही जोर से `हरि ओम` `हरि ओम` पुकार रहा था, बाहर से ताला लगाने को कहा। फिर अंदर आकर सो गये, किस लिए कि दिमाग का ताला नहीं खुला था।

मुल्ला आसी की सिद्धि और चमत्कार : जितनी मेहनत और साधना, परोपकार के लिए परचे आउट करने में की, उसकी 1/100 भी अपनी पढ़ाई में कर लेते तो फर्स्ट डिवीजन में पास हो जाते। बहरहाल अफसोस इसका नहीं कि उन्होंने ऐसे वाहियात काम में समय नष्ट किया, रोना इस बात का है कि परीक्षा के पहले परचे में आठ में से पांच सवाल ऐसे थे जो इनके आउट किये हुए परचे में मौजूद थे। ऐसा लगता था कि परीक्षक ने उनका परचा सामने रख कर परचा सैट किया है। ये भी सुनने में आया कि परीक्षक के खिलाफ इन्क्वायरी हो रही है। मुल्ला आसी ने तो यहां तक कहा कि परीक्षक ने वो थड़ा ही तुड़वा दिया जिस पर बैठे-बैठे उन्हें अंतर्ज्ञान (बोध) हुआ था, एक अर्से तक वो जगह सूफियों में चर्चा का विषय रही, खुदा जाने।

अब क्या था, सारे शहर में उनकी धूम मच गयी। दूसरे दिन उनके घर के सामने परीक्षा में बैठने वाले छात्रों के ठठ लग गये, इसके बाद परीक्षा में चार दिन का नागा था। इस बीच में पास और दूर के छात्रों ने... कोई बस, कोई ट्रेन, कोई पैदल... झुंड के झुंड आ कर उनके घर के सामने पड़ाव डाल दिया। यू.पी. के नालायक लड़कों का ऐसा विराट सम्मेलन आसमान ने न कभी इससे पहले, न उसके बाद देखा। ये भी सुनने में आया कि पुलिस ने केस अपने हाथ में ले लिया है; भीड़ में सी.आई.डी. के आदमी बापों को भेस बनाये फिर रहे हैं। मुल्ला आसी का बयान था कि दो बुरके वाली लड़कियां भी आई थीं, उनमें से लंबी वाली लड़की के बारे में शकील अहमद ने, जो क्लास का सबसे छोटा और चिकना लड़का था, ये गवाही दी कि उसने मेरे कूल्हे पे चुटकी ली और उसकी नकाब के पीछे मुझे ताव दी हुई मूंछ नजर आई, खुदा जाने।

हालांकि मुल्ला आसी अब खुद इम्तहान में नहीं बैठ रहे थे लेकिन औरों की खातिर दिन-रात एक किये हुए थे। कहते थे अगर खुद इम्तहान में बैठ जाऊं तो सारी सिद्धि समाप्त हो जायेगी। छात्रों में ये अफवाह आग की तरह फैल गयी कि जब से बोध हुआ है, मुल्ला आसी दुनिया से किनारा करके सूफी हो गये हैं और लगातार चमत्कार घटित हो रहे हैं। उनसे पूछा गया तो उन्हें जवाब दिया, मैं इस अफवाह का खंडन नहीं कर सकता।

वो कमरे में ताला डलवा कर दिन-भर छटी इंद्रिय की मदद से परचा बनाते। रात को ठीक बारह बजे और फिर ढाई बजे अपने मामू मरहूम सज्जाद अहमद वकील का पुराना काला गाउन पहने सिद्धि स्थान से बाहर तशरीफ लाते और परचा आउट करते। तीन दिन तक यही नक्शा रहा। सिद्धि, विद्धि के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, मुझे तो उनके चेहरे पर तपस्या करने वाले साधुओं की गंभीर शांति नजर आई। आंखें एक चौथाई से जियादा नहीं खोलते थे। गोश्त, लहसुन और झूठ छोड़ दिया था। सुब्ह तड़के ऐसे ठंडे पानी से स्नान करते कि चीख को रोकने के लिए पूरा जोर लगाना पड़ता। निगाहों की पवित्रता का ये आलम कि औरत तो औरत, मुर्गी या बकरी भी सामने आ जाये तो ब्रह्मचारियों की तरह शरमा कर नजरें नीची कर लेते। विपरीत लिंग से इतना एहतियात और परहेज कि कई ऐसे शब्दों को भी पुल्लिंग बोलने लगे जो अंधे को भी नजर आते हैं कि स्त्रीलिंग हैं। गरज कि परचे आउट करने के लिए अपनी सारी दैहिक, दैविक और भौतिक ताकतें दांव पर लगा दीं।

पहले परचे को छोड़कर, बाकी परचों में उनका बताया हुआ एक सवाल भी नहीं आया। वो मुंह दिखाने के काबिल न रहे। उनके पक्ष में बस यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अच्छे इरादे से ईश्वर की सृष्टि की रेड़ मारी। इस साल कानपुर और इसके आस-पास पचास साठ मील के दायरे में जितने भी लड़के फेल हुए उन सबका यही कहना था कि मुल्ला आसी के आउट किये हुए परचों के कारण लुढ़के हैं। हद ये कि आदी फेल हो जाने वाले लड़के, जो हर साल किस्मत और परीक्षक को गालियां दिया करते थे, वो भी मुल्ला आसी की जान के पीछे पड़ गये। नौबत गाली-गलौज पर आने लगी तो वो चुपके से अपने ननिहाल अमरोहा सटक गये। एक लड़के के मामा ने तो मुल्ला आसी के मामा को सरे-बाजार मारा-पीटा। एक-डेढ़ महीने तक उनके खानदान का कोई बुजुर्ग घर से बाहर नहीं निकल सका।

तो साहब ये थे हमारे मुल्ला आसी अब्दुल मन्नान। चंद सनकों को छोड़ दें तो जवानी उनकी भी वैसी गुजरी, जैसी उस जमाने में आम छात्रों की गुजरती थी, आपने उस दिन मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का एक चिरांदा सा जुमला सुनाया, किस-किस बवाल, बल्कि आफत से जुड़ी होती थी जवानी उस जमाने में।

साल-भर ऐश, इम्तिहान से पहले चिल्ला (चालीस दिन की साधना) मुंहासे, मुशायरों में हूटिंग, आगा हश्र काश्मीरी के ड्रामे, रिनाल्ड और मौलाना अब्दुल हलीम शरर के इस्लामी नॉविल, सोने से पहले आधा-सेर औटता दूध, बिना-नागा दंड-बैठक, जुमे के जुमे नहाना, रातों की गपशप, रेलवे स्टेशन पर लेडीज कंपार्टमेंट के सामने (बत्तख की-सी अकड़ी चाल में चहलकदमी) अंग्रेज के खिलाफ नारे और उसी की नौकरी की तमन्ना।

मुल्ला आसी ने सारी जिंदगी इसी तरह गुजार दी। सेहरा बंधा, न शहनाई बजी, न छुआरे बंटे, खुद ही छुहारा हो गये। मैंने बहुत कुरेदा, पुट्ठे पर हाथ नहीं रखने देते। गढ़े-गढ़ाये विकट वाक्य लुढ़काने लगे, जो उनके अपने नहीं मालूम होते `बस तमाम उम्र ऐसी अफरातफरी रही कि इस सुख-चैन के बारे में सोचने की फुर्सत ही न मिली, मुझे तो औरतों के बगैर जिंदगी में कोई कमी महसूस न हुई अलबत्ता उनका कोई अधिकार छिना हो तो मुझे जानकारी नहीं, अल्लाह मुआफ करे वगैरा-वगैरा।` अब भी इसी कमरे में रहते हैं जिसमें पैदा हुए। मेरा तो सोच कर ही दम घुटने लगा कि कोई शख्स, अपनी सारी जिंदगी, सत्तर-पिचहत्तर बरस एक ही मुहल्ले, एक ही मकान, एक ही कमरे में कैसे बिता सकता है। कराची में तो इतने साल आदमी कब्र में भी नहीं रह सकता, जहां कब्र खोदने वालों ने देखा, अबके शबे-बरात, ईद, बकरीद पर भी कोई फातिहा पढ़ने नहीं आया, वहीं हड्डियां और पिंजर निकाल कर फेंक दिये और ताजा मुर्दे के लिए जगह बना ली।

साहब वैसे तो दुनिया में एक-से-एक Crack Pot (सनकी) पड़ा है, लेकिन मुल्ला आसी का सवा लाख में एक वाला मामला है। इनके एक परिचित का कहना है कि आखिरी `वाटर लू` के बाद खिसक गये हैं। नमाज इस तरह पढ़ते हैं जैसे बहुत से मुसलमान शराब पीते हैं यानी चोरी छिपे। एक साहब बोले - `मुद्दत हुए इस्लाम को छोड़े।` इस पर दूसरे साहब बोले कि - `मुसलमान थे कब जो छोड़ते` हैदर मेंहदी ने बताया कि एक दिन मैंने पूछा - `मुल्ला क्या ये सच है कि तुम बुद्धिस्ट हो गये हो?` हंसे, कहने लगे `जब मैंने पचासवें साल में कदम रखा तो खयाल आया, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं, क्यों न अपनी आस्था का करेक्शन कर लूं।`

एक दिन बहुत अच्छे मूड में थे, मैंने घेरा, पूछा कि `मौलाना बुद्धिज्म में तुम्हें इसके अलावा और क्या खूबी नजर आई कि महात्मा बुद्ध अपनी बीबी यशोधरा को सोता छोड़ कर रातों-रात सटक गये?` मुस्कुराये, कहने लगे, `मेरी यशोधरा तो मैं खुद हूं, वो भाग-भरी तो, अब अगले जन्म में जागेगी,` एक रहस्य से परिचित ने तो यहां तक कहा, मुल्ला आसी ने वसीयत की है कि मेरी लाश तिब्बत ले जाई जाये, हालांकि तिब्बत वालों ने उनको कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। प्रोफेसर बिलगिरामी, जो एक स्थानीय कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं, इस अफवाह का सख्ती से खंडन करते हैं। वो कहते हैं कि मुल्ला आसी ने वसीयत लिखी है कि मेरी लाश को बगैर नहलाये जला दिया जाये। गरज कि जितने मुंह, उतने इल्जाम, उतनी लानतें। लेकिन इतना तो मैंने भी देखा कि कोने में उनकी मां की नमाज की चौकी पर नमाज की चटायी उल्टी बिछी थी यानी चटायी के डिजाइन का मुंह पश्चिम की जगह पूरब की तरफ था।

सुना है इस पर आसन मार के ध्यान और तपस्या करते हैं, तूंबी भी पड़ी देखी, जिसके बारे में एक दोस्त ने कहा - अगर उन्होंने कभी संजीदगी से कोई होल-टाइम पेशा अपनाया तो इसी तूंबी में घर-घर भीख मांगेंगे। मेज पर जेन बुद्धिज्म पर पांच छह किताबें पड़ी थीं। मैंने यूं ही पन्ने पल्टे, अल्लाह जाने उन्हें किसने अंडर लाइन कराया है। कमरे में सिर्फ एक डैकोरेशन पीस है, ये एक इंसानी खोपड़ी है जिसके बारे में मशहूर है कि गौतमबुद्ध की है निर्वाण से पहले की।

सलीके से तह की हुई एक गेरुवा चादर पर गज भर लंबा चिमटा रखा था, मुझे तो बजाने वाला, अपने आलम लाहौर वाला चिमटा लगा। पास ही लकड़ी की साधुओं वाली खड़ावें पड़ी थीं। वही जिनके पंजे पर शतरंज का ऊंट बना होता है। नमाज की चौकी पर एक मिट्टी का पियाला, इकतारा, बासी-तुलसी और बुद्ध की मूर्ति रखी थी। संक्षिप्त कथा ये कि कमरे में बुद्धिज्म के उपकरण धूल में अंटे इधर-उधर पड़े थे। मुझे तो ऐसा लगा कि उनका मकसद सिर्फ नुमाइश है, गोया दूसरों का मुंह चिढ़ाने के लिए अपनी नाक काट ली।

खुल जा सिम-सिम : आप जरा गैस कीजिये वो क्या करते हैं, मैं आपको दो मिनट देता हूं। (आधे मिनट बाद ही) जनाब! वो ट्यूशन करते हैं। गरीब लड़कों को मैट्रिक की तैयारी करवाते हैं, रात को बारह-एक बजे लौटते हैं। पांच-छह मील चल कर जाना तो कोई बात ही नहीं, कहते हैं। `सवारी से मिजाज मोटा होता है सिवाय गधे की सवारी के। इसीलिए इजराईल के पैगंबरों ने गधे की सवारी की है।` मगर सुना है पढ़ाने का पैसा एक नहीं लेते। कहते हैं - `पूरब की हजारों साल पुरानी रीत है कि पानी, उपदेश और ज्ञान का पैसा नहीं लिया जाता, पैसा ले लो तो अंग नहीं लगता और अंततः पैसा भी नहीं बचता। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि पैसा देकर बदले में प्राप्त किये हुए ज्ञान से कोई आत्मिक परिवर्तन आया हो। सच्चा परिवर्तन केवल नजर से आता है और नजर का कोई मोल नहीं।

अल्लाह जाने गुजर-बसर कैसे होती है? ईश्वरीय कृपा तो हो नहीं सकती, चूंकि बुद्धिस्ट ईश्वर और उसकी कृपा को मानते नहीं, भीख को प्रधानता देते हैं। दर्शन का एक पूरा किला खड़ा कर लिया है मुल्ला आसी ने। हम जैसों के पल्ले तो खाक नहीं पड़ता। अब इसे पागलपन कहिये, झक कहिये, बस है तो है। कौन कह सकता था कि पढ़ाई से भागने वाला लड़का, पढ़ाने में अपना निर्वाण तलाश करेगा। याद नहीं आपका कथन है कि मेरा, कि पाकिस्तान में जो लड़के पढ़ाई में फिसड्डी होते हैं वो फौज में चले जाते हैं और जो फौज के लिए Medically unfit होते हैं, वो कालिजों में प्रोफेसर बन जाते हैं। साहब, कुदरत जिससे जो चाहे काम ले, आप भी तो एक जमाने में लेक्चरर बनने की तमन्ना रखते थे। खुदा ने आप पर बड़ा अहसान किया कि इच्छा पूरा न होने दी। वैसे आपको मालूम ही है, मैंने भी कई बरस टीचरी की है, दिल की बात पूछिये तो जीवन का सुनहरा काल वही था।`

लेकिन खूब बात है; सभी कहते हैं कि पढ़ाते बहुत अच्छा हैं। अच्छा शिक्षक होने के लिए शिक्षित होने की शर्त नहीं है। कुछ समय तब गवर्नमेंट स्कूल में भी पढ़ाया। लेकिन जब एजुकेशन डिपार्टमेंट ने ये पख लगाई कि तीन साल के अंदर B.T.C. पास करो वरना डिमोट कर दिये जाओगे, तो ये कह कर इस्तीफा दे दिया कि, `मैं बेसब्रा आदमी हूं, तीन साल इस घटना के इंतजार में नहीं गुजार सकता। मैं हमेशा बी.टी. पास टीचरों से पढ़ा और फेल हुआ।` इसके बाद कहीं नौकरी नहीं की। अलबत्ता अंधों के स्कूल में मुफ्त पढ़ाने जाते हैं। लहजे में मिठास और धीरज बला का है, हमेशा से था। शब्दों से बात समझ में आती है, लहजे से दिल में उतर जाती है। जादू शब्दों में नहीं लहजे में होता है। अलिफ लैला के खजानों का दरवाजा हर ऐरे-गैरे के, `खुला जा सिम सिम` कहने से नहीं खुलता, वो इलाहदीन का लहजा मांगता है। दिलों के ताले की ताली भी शब्द में नहीं, लहजे में होती है। अपनी बात दुहरानी पड़े या दूसरा उलझने लगे तो उनका लहजा और भी रेशम हो जाता है। लगता है फालूदा गले से उतर रहा है। हर अच्छे शिक्षक के अंदर एक बच्चा बैठा होता है जो हाथ उठा-उठा कर, सर हिला-हिला कर बताता जाता है, कि बात समझ में आई कि नहीं। अच्छे शिक्षक का पढ़ाना बस उस बच्चे से वार्तालाप है जो उम्र भर चलता रहता है। उन्होंने उस बच्चे को बच्चा ही रहने दिया।

वो कमरा बात करता था : मुल्ला आसी से उसी कमरे में घमासान की मुलाकातें रहीं, जहां पैंतीस बरस पहले उन्हें खुदा-हाफिज कह कर पाकिस्तान आया था। उस जमाने में सभी पाकिस्तान खिंचे चले आ रहे थे... जमीन-जायदाद, भरे-बतूले घर..., लगे-लगाये रोजगार और अपने यारों-प्यारों को छोड़ कर। उसी कमरे में मुझे गले लगा कर विदा करते हुए कहने लगे, `जाओ, सिधारो मेरी जान, तुम्हें खुदा के सुपुर्द किया।` आज भी उन्हें इतना ही आश्चर्य होता है कि भला ठीक-ठाक होशो-हवास वाला कोई शख्स कानपुर कैसे छोड़ सकता है। कमरे में वही पंखा, उसी डगमग-डगमग कड़े में लटका, उसी तरह चर्रख-चूं करता रहता है।

मुझे तो जब बात करनी होती थी तो पंखा ऑफ कर देता था। ये पंखा चलते ही आंधी-सी आ जाती है और किताबों, दीवारों और दरी पर जमी हुई धूल कमरे में उड़ने लगती है, जिससे मच्छरों का दम घुटने लगता है। वो पंखा गर्मी से नहीं मच्छरों से बचने के लिए चलाते हैं, मगर कम बहुत ही कम। इसलिए नहीं कि बिजली की बचत होती है, बल्कि चलाने से पंखा घिसता है। इसकी लाइफ कम होती है। माशाअल्लाह! चालीस-पैंतालीस बरस का तो होगा, इन हिसाबों सौ तक तो घसीट ले जायेंगे।

कई साधुओं और जोगियों का मानना है कि इंसान के भाग्य में भगवान ने गिनती के सांस लिखे हैं, चुनांचे अधिकतर समय सांस रोके बैठे रहते हैं ताकि जिंदगी दम घुटने से लंबी हो जाये। मजबूरी और तकलीफ में सांस इसलिए ले लेते हैं कि इसे रोक सकें। बस पंखे की उम्र भी इसी तरह लंबी की जा रही है।

उनके कमरे में गोया एक दुनिया की सैर हो गयी, संसार-दर्शन का कमरा कहिये, हर चीज वैसी की वैसी है बल्कि वहीं की वहीं है। कसम से मुझे तो ऐसा लगा कि मकड़ी के जाले भी वही हैं, जो छोड़ कर आया था। केवल एक परिवर्तन देखा, दाढ़ी फिर मुंडवा दी है। पूछा तो गोल कर गये। कहने लगे, `दाढ़ी उस समय तक ही बरदाश्त है जब तक काली हो।` इस पर इनआम साहब आंख मारते हुए कहने लगे - `महात्मा जी भी तो मुंडवाते थे।` कमरे का नक्शा वही है, जो सन 47 में था। अलबत्ता दीवारों पर चीकट चढ़ गयी है, सिर्फ वो हिस्से साफ नजर आये जिनका प्लास्टर हाल में झड़ा है। बायीं दीवार पर पलंग से दो फिट ऊपर, जहां पैंतालीस साल पहले मैंने पेन्सिल से पिकनिक का हिसाब लिखा था, उनकी ऊपर की चार लाइनें अभी तक ज्यों-की-त्यों हैं। साहब रुपये में 192 पाई होती थीं और एक पाई आजकल के रुपये के बराबर थी। हैरत इस पर हुई कि दीवार पर भी हिसाब करने से पहले मैंने 786 लिखा था।

बकौल आपके मिर्जा अब्दुल वुदूद वेग के, उस जमाने में मुसलमान लड़के हिसाब में फेल होने को अपने मुसलमान होने की दलील समझते थे, हिसाब, किताब, व्यापार और हर वो काम जिसमें फायदे की जरा सी भी संभावना हो, बनियों, बक्कालों और यहूदियों का काम माना जाता था मगर मुझे चक्रवर्ती अर्थमेटिक कंठस्थ थी। पौना, सवाया और ढाई का पहाड़ा मुझे अब तक याद है। इनका फायदा-वायदा तो समझ में खाक नहीं आया। दरअस्ल ये उनकी उच्छृंखलता को मारने, बल्कि खुद उन्हीं को उच्छृंखलता समेत मारने का एक बहाना था। मुसलमान पर याद आया कि यह जो पांच वक्त टक्करें मारने का गट्टा आप देख रहे हैं, ये पच्चीस छब्बीस बरस की उम्र में पड़ चुका था। मियां तजम्मुल हुसैन की दोस्ती और नियाज फत्हपुरी के लेख भी नमाज न छुड़वा सके, आपको विश्वास नहीं होगा दो-तिहाई बाल भी उसी उम्र में सफेद हो गये थे।

खैर तो ये कह रहा था शीशम की मेज के ऊपर वाली दीवार पर मैट्रिक की फेयरवैल पार्टियों के ग्रुप फोटो लगे हैं, लगातार पांच सालों के। खुदा-खुदा करके पांचवीं साल उनका बेड़ा उस वक्त पार लगा, जब उनका एक क्लासफेलो B.A. करके उन्हें अंग्रेजी पढ़ाने लगा।, पांचों में वो हैडमास्टर के पीछे कुर्सी की पीठ मजबूती से पकड़े खड़े हैं। मशहूर था कि वो इस कारण पास नहीं होना चाहते कि पास हो गये तो मॉनीटरी खत्म हो जायेगी, कॉलेज में मास्टर का क्या काम।

एक फोटो सीपिया रंग का है। मैं तो इसमें अपना हुलिया देख कर भौंचक्का रह गया, या अल्लाह ऐसे होते थे हम जवानी में। कैसे उदास होते थे लड़के उस दिन, अंतिम सांस तक दोस्ती निभाने का वादा, दुखी मानवता की सेवा और एक-दूसरे को सारी उम्र हर तीसरे दिन खत लिखने की कैसी-कैसी कसमें। मेज पर अभी तक वही हरी बनात मढ़ी हुई है। रौशनाई के धब्बों से 9/10 नीली हो गयी है। टूट के जी चाहा कि बाकी 1/10 पर भी दवात उडेल दूं ताकि ये रंग किसी तरह खत्म तो हो। चपरासियों की वर्दी भी इसी बनात की बनती थी। सर्दी कड़ाके की पड़ने लगती तो कभी-कभी स्कूल का चपरासी बशीर डांट कर हमें घर वापस भेज देता कि मियां! कोट, लंगोट से काम नहीं चलेगा, कमरी, मिरजई (रुई की बास्कट) डाट के आओ। मगर खुद घर से एक पतली मिरजई पहन कर आता जो इतनी पुरानी हो गयी थी कि पैटर्न के चारखाने के हर खाने में रुई का अलग गूमड़ा बन गया था। यूनिफार्म की अचकन घर पहन कर नहीं जाता था। मैंने उस पर कोई सिलवट या दाग नहीं देखा। छुट्टी का घंटा इस तरह बजाता कि घड़ियाल खिलखिला उठता।

बड़े काम और छोटा आदमी : मछली बाजार की मस्जिद शहीद होने पर मौलाना शिबली की `हम कुश्तगाने-मारका-ए-कानपुर हैं` वाली अद्भुत नज्म अभी तक उसी कील पर लटक रही है, जो ठोंकने में दुहरी हो गयी थी। साहब, जिस शख्स ने कील ठोकते वक्त हथौड़ा कील के बजाय अपने अंगूठे पर कभी भी नहीं मारा मुझे उसकी वल्दियत में शक है। ऐसे चौकस, चालाक आदमी से होशियार रहना चाहिये। इस मस्जिद के बारे में ख्वाजा हसन निजामी ने लिखा था कि ये `वो मस्जिद है जिसके सामने हमारे बुजुर्गों की लाशें तड़प-तड़प कर गिरीं और उनकी सफेद दाढ़ियां खून से लाल हो गयीं।

नज्म के फ्रेम का शीशा बीच में ऐसा तड़खा है कि मकड़ी का जाला-सा बन गया है। मैंने कोई पचास साल बाद ये पूरी नज्म और `बोलीं अम्मा मुहम्मद अली की, जान बेटा खिलाफत पे दे दो` वाली नज्म पढ़ी। क्या निवेदन करूं। दिल पर वो असर न हुआ। उस काल के कई जनांदोलन, मसलन, रेशमी-रूमाल वाला आंदोलन, खिलाफत, बलकान का युद्ध (लुत्फ मरने का अगर चाहे तो चल बलकान चल) स्त्रियों की शिक्षा और साइंसी शिक्षा का विरोध (जिसमें अकबर इलाहाबादी आगे-आगे थे) शारदा एक्ट के विरोध में मुसलमानों का मौलाना मुहम्मद अली के नेतृत्व में आंदोलन... ये और बहुत ऐसे ही काम, जिनके लिए कभी जान की बाजी लगा देने का जी चाहता था, अब अजीब लगते हैं।

खिलाफत मूवमेंट ही को लीजिये। उसका समर्थन तो गांधीजी ने भी किया था। इससे अधिक जोशीले, देशव्यापी, व्यवस्थित, उल्टे और बेतुके आंदोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, मगर वो बड़े लोग थे। आज काम तो बड़े हो रहे हैं, मगर आदमी छोटे हो गये हैं। वो अजीब भावनात्मक काल था। मुझे याद है बद्री नारायण ने एक बार महमूद गजनवी को लुटेरा मुल्लड़ कह दिया तो जवाब में अब्दुल मुकीत खां ने शिवाजी को Mountain Rat कहा। इस पर बात बढ़ी और बद्री नारायण ने मुगल बादशाहों का नाम ले लेकर बुरा-भला कहना शुरू कर दिया। औरंगजेब की बेटी पर तो बहुत ही गंदा आरोप लगाया। जवाब में अब्दुल मुकीत खां ने पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, मिर्जा सवाई मान सिंह को तूम के रख दिया। लेकिन जब महाराजा रणजीत सिंह पर हाथ डाला तो ब्रदीनारायण तिलमिला उठा, हालांकि वो सिख नहीं था, गौड़ ब्राह्मण था। दोनों वहीं गुत्थमगुत्था हो गये। मुकीत खां का अंगूठा और ब्रदीनारायण की नाक का बांसा टूट गया, दोनों एक ही लौंडे पर आशिक थे।

चिड़िया की दुसराहट : दीवारों पर वही पलस्तर में उभरी हुई नसें, वही उपदेशात्मक पोस्टर और चारपायी भी वही, जिसके सिरहाने वाले पाये पर अब्दुल मुकीत खां ने चाकू से उस लौंडे का नाम खोदा था और उसी से उंगली में चीरा लगा कर खून अक्षरों में भरा था। आप भी दिल में कहते होंगे कि अजीब आदमी है, इसकी कहानी में तवायफ खुदा-खुदा करके विदा होती है तो लौंडा दर्राता चला आता है। साहब, क्या करूं? इन पापी आंखों ने जो देखा, वही तो बयान करूंगा।

आप मीर की समग्र रचनावली उठाकर देख लीजिये, उनकी आत्मकथा पढ़ लीजिये, मुसहफी के दीवान देखिये, आपको जगह-जगह इसकी तरफ खुल्लमखुल्ला इशारे मिलेंगे। साहब! औरतों के बारे में तो बात करने की जुगत बी.ए. में आ कर लगती थी। अब उस लौंडे का नाम क्या बताऊं? कांग्रेस की टिकिट पर मिनिस्टर हो गया था, करप्शन में निकाला गया। एक डिप्टी सेक्रेट्री की बीबी से शादी कर ली जो डिसमिस होने के तीन महीने बाद एक सिख बिजनेसमैन के साथ भाग गयी। उस जमाने के शारीरिक आनंद के अभाव और घोर-घुटन का आप बिल्कुल अंदाजा नहीं लगा सकते। इसलिए कि आप उस समय तक बालिग नहीं हुए थे। मजाज ने झूठ नहीं कहा था -

मौत भी इसलिए गवारा है

मौत आता नहीं है, आती है

साहब! विश्वास कीजिये, उस जमाने का हाल ये था कि औरत का एक्सरे भी दिख जाता तो लड़के उसी पर दिलो-जान से फिदा हो जाते।

रौशनदान में अब शीशे की जगह गत्ता लगा हुआ है। उसके सूराख में से एक चिड़िया बड़े मजे से आ-जा रही थी। नीचे झिरी में घोंसला बना रक्खा है। उसके बच्चे चूं-चूं करते रहते हैं। एक दिन मुल्ला आसी कहने लगे कि बच्चे जब बड़े हो कर घोंसला छोड़ देंगे तो हमारा घर बहुत सुनसान हो जायेगा। धूल में दरी की लाइनें मिट गयी हैं।

मियां तजम्मुल के सिग्रेट से चालीस, पैंतालीस बरस पहले सूराख हो गया था, वो अब बढ़ कर इतना बड़ा हो गया है कि उसमें से तरबूज निकल जाये, सूराख के हाशिये पर फूसड़ों की झालर-सी बन गयी है। उसके पीछे से वही रेलवे वेटिंग-रूम और डाक-बंगलों वाला कत्थई रंग का सीमेंट का फर्श काट खाने को दौड़ता है। मियां तजम्मुल हुसैन की उम्र उस वक्त कुछ नहीं तो तीस बरस होगी। तीन बच्चों के बाप बन चुके थे, मगर बड़े हाजी साहब (उनके पिता) का रोब इतना था कि सिग्रेट की तलब होती तो किसी दोस्त के यहां जा कर पी आते थे। हाजी साहब सिग्रेट की गिनती आवारगी में करते थे, खुद हुक्का पीते थे। बाइस्कोप की गिनती बदमाशी में करते थे चुनांचे मियां तजम्मुल हुसैन को तन्हा सिनेमा देखने नहीं जाने देते थे। खुद साथ जाते थे।

छिपकली की कटी हुई दुम : छत बिल्कुल खस्ता, दीमक की खाई हुई कड़ियां, पंखे का कड़ा घिसते-घिसते चूड़ी बराबर रह गया है। मैं ज्योतिषी तो हूं नहीं, ये कहना मुश्किल है कि इन तीनों में पहले कौन गिरेगा। मिलने आने वाले को ऐन पंखे के नीचे बिठाते हैं। उस गरीब की आंखें हर समय पंखे पर ही जमी रहती हैं। एयरगन से मैंने जहां छिपकली मारी थी, और हां, छिपकली पर याद आई, आपके उस दोस्त की, जिसकी चिट्ठी हॉस्टल के लड़कों ने चुरा कर पढ़ ली थी। उसकी बीबी ने क्या लिखा था? हिंदी में थी शायद, जगत नारायण श्रीवास्तव नाम था, नयी-नयी शादी हुई थी। लिखा था `राम कसम, तुम्हारे बिना रातों को ऐसे तड़पती हूं, जैसे छिपकली की कटी हुई दुम।`

वाह! इस उपमा के आगे बिना पानी की मछली की उपमा पानी भरती है मगर आप इसे नास्टेल्जिया के मारे लोगों के लिए सिंबल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। ये जियादती है। ये तो मैं आपको बता चुका हूं कि मुल्ला आसी की कमाई का कोई साधन नहीं है, न कभी था मगर ठाली भी नहीं रहे। बेराजगार हमेशा रहे, मगर बेकार कभी नहीं। शायद सन 50-51 की बात है, उनकी मां उनकी नौकरी लगने तथा बुद्धिज्म से छुटकारे की मिन्नत दूसरी बार मांगने अजमेर-शरीफ गयीं। वहीं किसी ने कहा, अम्मां! तुम हजरत दाता गंजबख्श के मजार पर जाओ। वहां खुद ख्वाजा अजमेरी ने चिल्ला खींचा था। सो वो छह महीने बाद मिन्नत मांगने लाहौर चली गयीं। मजार पर चढ़ाने के लिए जो कामदार रेशमी चादर वो साथ ले गयीं थीं, उसमें न जाने कैसे शाम को आग लग गयी। लोगों ने कहा कि वजीफा उल्टा पड़ गया। कृपा-दृष्टि न होनी हो तो भेंट स्वीकार नहीं होती। वो रात उन्होंने रोते गुजारी। सुब्ह को नमाज पढ़ते हुए सिजदे की हालत में परलोक सिधार गयीं। दमे और दिल की बीमारी थी। लाहौर में ही मियानी साहब कब्रिस्तान में दफ्न हैं।

मां की मौत के बाद उनके घर में चूल्हा नहीं जला। उन्होंने मकान का बाकी हिस्सा किराये पर उठा दिया। किरायेदार ने पंद्रह साल से वो भी देना बंद कर दिया है। सुना है अब उल्टा इनको कमरे से निकालने के लिए कानूनी कारवाई करने वाला है।

चपरासी की नौकरी का स्वर्णकाल : बशीर चपरासी से मिलने गया। बिल्कुल बूढ़ा फूस हो गया है, मगर बंदूक की नाल की तरह सीधा, जरा जोश में आ जाये तो आवाज में वही कड़का। कहने लगा मियां! बेगैरत हूं, अब तो इसलिए जिंदा हूं कि अपने छोटों को, अपनी गोद में खिलाये हुओं को कंधा दूं। हमारा भी एक जमाना था। अब तो पसीना और सपने आने भी बंद हो गये। छटे छमाहे कभी सपने में खुद को घंटा बजाते देख लेता हूं तो तबियत दिन-भर चोंचाल रहती है। अल्लाह का शुक्र है अभी हाथ-पैर चलते हैं। मास्टर समी `उल` हक मुझसे उम्र में पूरे 12 बरस छोटे हैं, तिस पर ये हाल कि याददाश्त बिल्कुल खराब, पेट उससे जियादा खराब। लोटा हाथ में लिए खड़े हैं और यह याद नहीं आ रहा कि पाखाने जा रहे हैं या होकर आ रहे हैं। अगर आ रहे हैं तो पेट में गड़गड़ाहट क्यों हो रही है? और जा रहे हैं तो लोटा खाली क्यों हैं?

मुझे हर लड़के का हुलिया और हरकतें याद हैं। मियां! आपकी गिनती ठीक-ठाक शक्ल वालों में होती थी। हालांकि सर मुंडाते थे। मुल्ला आसी औरतों की तरह बीच की मांग निकालता था। आपका दोस्त आसिम गले में चांदी का तावीज पहनता था। जिस दिन उसका मैट्रिक का पर्चा था, उसी दिन सुब्ह उसके वालिद की मौत हुई। जब तक वो पर्चा करता रहा, मैं खड़ा अलहम्द और आयतुल-कुर्सी पढ़ता रहा। दो बार आधा-आधा गिलास दूध पिलाया और जिस साल कोयटा में भूकंप आया, उसी साल आपके दोस्त गजनफर ने इंजन के सामने आ कर आत्महत्या की थी। अपने बाप का इकलौता बेटा था। पर मेरे तो सैकड़ों बेटे हैं। कौन भड़वा कहता है - बशीर बेऔलादा है।

शराफत से गाली देने वाले : फिर कहने लगा ये भी मालिक की कृपा है कि सही वक्त पर रिटायर हो गया। नहीं तो कैसी दुर्गत होती। अल्लाह का शुक्र है चाक चौबंद हूं। बुढ़ापे में बीमारी लानत है। फालतू तंदुरुस्ती को आदमी काय पे खर्च करे। मियां! हट्टा-कट्टा बुड्ढा न घर का न घाट का। उसे तो घाट की हेर फेरी में ही मजा आवे है। चुनांचे पिछले साल टिलकता हुआ स्कूल जा निकला। देखता-का-देखता रह गया। चपरासी साहब बिना चपरास, बिना अचकन, बिना पगड़ी-टोपी के कुदकड़े मारते फिर रहे थे। मियां! मैं तो आज तक पाखाने भी बिना टोपी के नहीं गया, और न कभी बगैर लंगोट के नहाया।

एक दिन हमीदुद्दीन चपरासी ने अपनी अचकन रफूगर को रफू करने के लिए दी और सिर्फ कुरता पहने ड्यूटी करने लगा। हैड मास्टर साहब बोले कि आज तुम बच्चों के सामने काय को नंगी तलवार से फिर रहे हो? हमारे जमाने में चपरासी का बड़ा रौब हुआ करता था। हैड मास्साब सलाम करने में हमेशा पहल करते। आपने तो देखा ही है, मुझे आज तक किसी टीचर ने बशीर या तुम कह कर नहीं पुकारा और मैंने भी किसी छोटे को तुम नहीं कहा।

एक बुरी जबान वाले हैडकांस्टेबल ने मुझे एक बार भरे बाजार में `अबे परे हट` कह दिया। मैं उस टेम अपनी सरकारी यूनिफार्म में था। मैंने उसे दोनों कान पकड़ के हवा में उठा लिया। ढाई मन की लाश थी। मैंने जिंदगी में बड़े-से-बड़े तीसमारखां का घड़ियाल बजा दिया। आजकल के तो चपरासी शक्ल-सूरत से चिड़ीमार लगे हैं। हमारे जमाने के रख-रखाव, अदब-आदाब कुछ और ही थे। शरीफ लोगों की जबान पर तू और तेरी नहीं आता था। गाली भी देते तो आप और आपकी कहते थे, मियां! आपके दादा बड़े गुस्सैल थे पर बड़ी तहजीब से गाली देते थे। संबोधित के स्तर के अनुसार भोंदू, भटियारा, भड़भूजा, भांड। कोई बहुत ही बेशर्म हुआ तो भाड़ू, भड़वा कह दिया। एक दिन उर्दू टीचर कहने लगा, वो बड़े भारी विद्वान हैं। गाली नहीं बकते, अलंकार पहनाते हैं। कमाल के टीचर थे। उनकी बातें दिल में ऐसे उतरती थीं जैसे बावली में सीढ़ियां। किस कारण कि मुझ जैसे कम पढ़े-लिखे का आदर करना जानते थे। मियां! आजकल के घमंडी मास्टर अपने-आपको सबसे बड़ा समझते हैं। नया ज्ञान इन्हें यूं चुभे है जैसे नया जूता। पर सारा समंदर डकोस के और सारी सीपियां निगल के एक भी मोती नहीं उगल सकते।