खोया पानी / भाग 19 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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आखिरी घंटा : ये कह के बशीर चचा देर तक पोपले मुंह से हंसता रहा। अब तो मसूढ़े भी घिस चले मगर आंख में अभी तक वही ट्विंकल, फिर टूटे मूढ़े पर अकड़ कर बैठ गया। शेखी ने, थोड़ी देर के लिए ही सही गर्दन, हाथ और आवाज का कांपना दूर कर दिया। कहने लगा, मियां! यकीन जानो, घंटा सुन के मुझे तो हौल आने लगा। अब हर घसियारा-डोम दिहाड़ी घंटा बजाने लगा है। अब तो सत्यानासी ऐसे घंटा बजावे हैं, जैसे दारू पी के होली का ढोल पीट रहे हों। ऐसे में बच्चे क्या खाक पढ़ेंगे। पांचवां घंटा तो मैंने जैसे-तैसे सुना, फिर फौरन से पहले भाग लिया। किस वास्ते कि छटा घंटा सुनना बर्दाश्त से बाहर था। बूढ़ा खून एक बार खौल जाये तो फिर बड़ी मुश्किल से जा कर ठंडा होवे है।

मुझे पंद्रह साल की नौकरी और जूतियां सीधी करने के बाद घंटा बजाने के अधिकार मिले थे। उस जमाने में घंटा बजाने वाला सम्मानित और अधिकार वाला होता था। एक दिन हैडमास्टर साहब के घर से खबर आई कि घरवाली के यहां बाल-बच्चा लगभग हुआ चाहता है, हड़बड़ी में वो सालाना इम्तहान के परचे मेज पर खुले छोड़ गये। उस रात मैं घर नहीं गया। रात भर परचों पर सरकारी वर्दी पहने सांप बन कर बैठा रहा। इसी तरह एक बार की बात है - भूगोल के मास्टर को मुझसे और मुझे उनसे अकारण दुश्मनी हो गयी। मियां अनुभव की बात बताता हूं। अकारण दुश्मनी और बदसूरत औरत से प्यार, वास्तव में दुश्मनी और प्यार की सबसे निखालिस और खतरनाक किस्म हैं। किस वास्ते कि ये शुरू ही वहां से होती है जहां अक्ल खत्म हो जावे है।

मतलब ये कि मेरी मत तो दुश्मनी में मारी गयी थी मगर उसकी अक्ल का दिया एक बदसूरत औरत ने बुझाया, जो मेरे ही मुहल्ले में रहती थी। मुहब्बत अंधी होती है, चुनांचे औरत का सुंदर होना जुरूरी नहीं। बस मर्द का अंधा होना काफी होता है। ये कह कर बशीर चचा पेट पकड़ कर पोपले मुंह से हंसा। आंखों से भी हंसा। फिर कहने लगा हमारी जवानी में काली-कलूटी औरत को काली नहीं कहते थे, सांवली कहते थे। काली से अफीम और शक्ति की देवी अभिप्रेत होती थी। तो मैं कहने यह चला था कि जब भूगोल का मास्टर नवीं-दसवीं का घंटा लेता तो मैं घंटा दस मिनट देर से बजाने लगा। वो तीसरे ही दिन चीं बोल गया। दूसरे टीचर भी त्राहि-त्राहि करने लगे। मुझे स्टाफ रूम में कुर्सी पे बिठाल के बोले, `बशीर मियां अब गुस्सा थूक भी दो, घुन के साथ हमें काय को पीस रहे हो।`

मैंने हमेशा अपने मर्जी और अटकल से घंटा बजाया। बंदा कभी घड़ी का गुलाम नहीं रहा। मेरे अंदर की टिक-टिक ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया। अपनी मर्जी का मालिक था। मजाल है कोई मेरे काम में टांग अड़ाये। अपने कानपुर के मौलाना हसरत मोहानी की मौत हुई तो कसम खुदा की, किसी से पूछे-पाछे बगैर मैंने छुट्टी का घंटा बजा के स्कूल बंद करवा दिया। गुलाम रसूल एक डरपोक क्लर्क था। बोला कि बशीर! तेरी खैर नहीं। डायेरक्टर ऑफ एजुकेशन तुझसे जवाब-तलब करेगा। मैं बोला, सेवक का जवाब ये होगा कि महामहिम निश्चिंत रहें, जब आप स्वर्गवासी होंगे तब भी बिना पूछे छुट्टी का घंटा बजा कर स्कूल बंद कर दूंगा।

पर जब वल्लभ भाई पटेल के मरने की सूचना मिली तो हैड मास्साब ने कहा बशीर! छुट्टी का घंटा बजा दो। मैंने दो बार सुनी-अनसुनी कर दी। तीसरी बार उन्होंने फिर कहा तो उधर को मुंह फेर के लुंज-लुंजे हाथ से बजा दिया। किसी ने सुना किसी ने नहीं सुना। सन सैंतालीस के बाद तो केवल हाते की दीवार की परछाईं देख कर घंटा बजाने लगा था। पास-पड़ौस वाले घंटे से अपनी घड़ियां मिलाते थे। रिटायर हुए अब तो पंद्रह बरस होने को आये पर अब भी पहले और आखिरी घंटे के समय सीधे हाथ में चुल-सी उठती है। बुरी तरह फड़कने लगता है।

कोई सोच नहीं सकता नौकरी का आखिरी दिन आदमी पे कितना भारी होवे है। मेरा आखिरी दिन था और मैं आखिरी घंटा बजाने जा रहा था कि रस्ते में एकाएकी जी भर आया। वहीं बैठ गया। मजीद चपरासी को मूंगरी थमते हुए बोला, `बेटा मुझमें इसकी ताकत नहीं, अपना चार्ज यहीं संभाल ले। कूच-नगाड़ा तू ही बजा।` फिर हेड मास्साब से मिलने गया तो वो बोले कि बशीर मियां, मास्टर लोग तुम्हें विदाई भेंट के रूप में एक अच्छी-सी घड़ी देना चाहते हैं। मैंने कहा, जनाबे-अली, मैं घड़ी ले के क्या कंरूगा? मुझे कौन सी टाइमकीपरी करनी है। जब घंटा ही घड़ी देखे बिना बजाता रहा तो अब अंतिम समय में कौन-सा काम है, जो घड़ी देख के करूंगा। अलबत्ता कुछ देना ही है तो ये चपरास (वर्दी) दे दीजिये। चालीस साल पहनी है। कहना पड़ेगा कि हैड मास्साब का दिल बड़ा था। त्योरी पे बल डाले बिना बोले, `ले जाओ` वो सामने खूंटी पर टंगी है। तीन चार महीने में एक बार इसके पीतल को नींबू से झमाझम चमका लेता हूं। अब हाथों में पहली-सी ताकत नहीं रही। चपरास के बिना कंधा बिल्कुल खाली-खाली उलार-सा लगे है। कभी-कभी पालिश के बाद गले में डाल लेता हूं तो आप ही मेरा कूबड़ निकल जाता है। घड़ी भर के लिए पहले की तरियों चलत-फिरत आ जावे है।

मियां! 1955 की बात है। जबरदस्ती स्कूल बंद करवाने पे तुले सैकड़ों हड़ताली गुंडों ने धावा बोल दिया। हाथापाई-मारामारी पे उतारू थे। मासूम बच्चे रुआंसे, टीचर हरियान, हैड मास्साब परेशान, मुझसे न देखा गया। मैंने ललकारा कि किसी माई के लाल की ताकत नहीं कि मेरे घंटा बजाये बिना स्कूल बंद करा दे। मनहूसो! मेरे सामने से हट जाओ, नईं तो अभी तुम सब का घड़ियाल बजा दूंगा। हैड मास्साब ने पुलिस को फोन किया। थानेदार ने कहा, आपकी आवाज साफ सुनाई नहीं दे रही। मैंने गुस्से में आन के रिसीवर एक गज डोरी समेत जड़ से उखाड़ लिया। फिर मैं एक हाथ में कागज काटने का नंगी तलवार का-सा चाकू और दूसरे में रिसीवर लठ की तरह यूं हवा में दायें-बायें, शायें-शायें घुमाता, फुल सरकारी यूनिफार्म डाटे, बंकारता-डकारता आगे बढ़ा तो जनाबे-वाला! काई-सी छंट गयी। सरों पे मौत मंडरा रई थी। कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा, जो नहीं गिरा उसे मैंने जा लिया।

उस वक्त बशीर चाचा की आंख में वही ट्विंकल थी जो सारी उम्र शरीर बच्चों की संगत में रहने से पैदा हो गयी है। बच्चों ही की तरह जागते में सपने देखने की आदत पड़ गयी है।

पांयती बैठने वाला आदमी : उसने घंटा बजाने की कला की कई ऐसी बारीकियों की तरफ ध्यान आकर्षित किया, जिनकी तरफ कभी ध्यान नहीं गया था। जैसे यही कि पहले घंटे में वो मूंगरी खींच कर घड़ियाल के ठीक दिल में मारता था। एक अटलपन और आदेशात्मक संक्षेप के साथ। खेल के घंटे का ऐलान तेज सरगम में किनारे की झन-झन से करता। सोमवार के घंटों का ठनाका सनीचर की ठठ्ठे मारती ठनठन से बिल्कुल अलग होता था। कहने लगा मियां, नयी पीढ़ी के च्मवदे को सुब्ह, दोपहर और तीन पहर के मिजाज का फर्क मालूम नहीं। उसने खुल कर तो दावा नहीं किया, मगर उसकी बातें सुनकर मुझे सचमुच महसूस होने लगा कि वो सुब्ह का पहला घंटा अपने हिसाबों भैरवी में ही बजाता होगा।

जितनी देर मैं वहां बैठा वो हिर-फिर के अपने काम का बखान करता रहा। वो चपरासी न होता, कुछ और होता तो भी अपना काम इतना जी-लगा कर ही नहीं बल्कि जी-तोड़ कर करता। जब आदमी अपने काम पर गर्व करना छोड़ दे तो बहुत जल्दी शिथिल और निकम्मा हो जाता है। फिर वो अपने काम को भी सचमुच जलील और घटिया बना देता है। बशीर चाचा कहने लगा कि मेरे रिटायरमेंट से कुछ महीने पहले हैड-मास्साब ने सिफारिश की कि पुराना नमकख्वार है, इसकी तन्ख्वाह खास तौर से बढ़ा दी जाये। इस पर महकमे से उल्टा हुक्म आया कि इसकी पेंशन कर दी जाये। ये तो वही कहावत हुई कि मियां नाक काटने को फिरें, बीबी कहे नथ गढ़ा दो। रिटायरमेंट का कारण ये बताया कि एक चपड़कनात इंस्पेक्टर ने मेरे बारे में अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ये चपरासी बहुत बूढ़ा हो गया है। कमर झुक गयी हैं और लंगड़ाने भी लगा है। मियां! खुदा की शान देखो कि छः महीने बाद इसी कुबड़े और लूले लंगड़े बूढ़े ने उसे कंधा देकर आखिरी मंजिल तक पहुंचाया। रहे नाम अल्लाह का।

फिर कहने लगा, हमारे जमाने में पलंग, चारपायी पर ही चौपाल जमती थी। बुजुर्गों की नसीहत थी कि चारपायी पर कभी सिरहाने की तरफ मत बैठो ताकि कोई तुमसे बड़ा आ जाये तो जगह न छोड़नी पड़े। सो सारी जिंदगी पांयती बैठे गुजारी। मियां, अब तो नैया किनारे आन लगी। गरीब पैदा हुआ, गरीब ही मंरूगा। पर मौला का करम है किसी का दबैल नहीं। मैंने अपनी चपरास को हमेशा जेवर समझा और यूनिफार्म को खिलअत (शाही बख्शिश की पोशाक) जान कर पहना।`

उसने ये भी कहा कि हर साल लड़कों की एक नयी खेप आई, पर एक लड़का ऐसा नहीं कि जिसे इसने नसीहत न की हो। अपनी सुनहरे चपरासी-काल में नौ हैड-मास्टरों और तेरह इंस्पेक्टरों को भुगता दिया। सब अपनी-अपनी बोलियां बोल कर उड़नछू हो गये। फकीर ने बड़े-बड़ों का घड़ियाल बजा दिया। यह कहते हुए उसकी हिलती हुई गर्दन अकड़ गयी और उसने सीना तान लिया। अपनी खांसी रोकते हुए बोला, `हैड मास्साब ने कई बार कहा कि मैं तुमको प्रोमोट करके सब चपरासियों, भिश्ती, मेहतरों वगैरह मुलाजिमों के ऊपर अफसर बनाना चाहता हूं। पर मैंने कह दिया कि जिंदगी में बड़े-बड़े अफसर टांग के नीचे से निकाल दिये। अफसरी, घमंड का ताज है। आपका गुलाम इसे जूती की नोक पे रखता है।` कहानियां गढ़ते-गढ़ते बशीर चाचा उन्हें सच भी समझने लगा है। बुढ़ापे में कपोल कल्पनायें सच मालूम देती हैं।

अब भी हमारे आगे यारो जवान क्या है : मैंने उसका दिल खुश करने के लिए कहा, `चचा तुम तो बिल्कुल वैसे के वैसे ठांठे रखे हो, क्या खाते हो?` ये सुनते ही लाठी फेंक, सचमुच सीना तान के, बल्कि पसलियां तान के खड़ा हो गया। कहना लगा, `सुब्ह निहार-मुंह चार गिलास पानी पीता हूं। एक फकीर का टोटका है। कुछ दिन हुए मुहल्ले वाले मेरे कने झुंड बना के आये। आपस में खुसर-पुसर करने लगे। मेरे सामने बात करने का हिसाब नहीं पड़ रहा था। मैंने कहा, बरखुरदारो! कुछ मुंह से फूटो, अर्ज और गरज में काहे की शर्म। कहने लगा, चचा, तुम्हारे औलाद नहीं है, दूसरी शादी कर लो। अभी तुम्हारा कुछ भी तो नहीं बिगड़ा। जिस कुंवारी की तरफ भी नजरों से इशारा कर दो, कच्चे धागे में बंधी चली आयेगी। हम खुद रिश्ता ले कर जायेंगे। मैं बोला, पंचायत का फैसला सर-आंखों पर। पर `जवान जोखों` का काम है। सोच कर जवाब दूंगा। किस वास्ते कि मेरी एक बीबी मर चुकी है। ये भी मर गयी तो सह नहीं सकूंगा। जरा दिल्लगी देखो। उनमें का एक बकबक करने वाला लौंडा बोला कि चचा, ऐसा ही है तो किसी पक्की उम्र की सख्त-जान लुगाई से निकाह कर लो। बिलकीस दो बार रांड हो चुकी है। मैंने कहा, हुश्त! क्या खूब! `घर के पीरों का, तेल का मलीदा।` साहब! मलीदे के जुमले को अब कौन समझेगा। यूं कहिये कि मुर्दे का शिकार करने के लिए घुड़सवार होने की जरूरत नहीं होती।

मैंने छेड़ा, `चचा! अब बुढ़ापे में नयी खयालों की बीबी से निकाह करना, उसे काबू में रखना बड़ा मुश्किल काम है।` बोला, `मियां, आपने वो पुरानी कहावत नहीं सुनी कि हजार लाठी टूटी हो मगर घर-भर के बरतन-बासन तोड़ने को बहुत है।` ये कह के लाठी पे सर टेक के इतनी जोर से हंसा कि दमे का दौरा पड़ गया। दस मिनट तक खूं-खूं, खुस-खुस करता रहा। मुझे तो हौल आने लगा कि सांस आयेगा भी कि नहीं।

गौतम बुद्ध बतौर पेपर वेट : एक दिन मुल्ला आसी से तय हुआ कि इतवार को लखनऊ चलेंगे और वो हसीन शहर देखेंगे जिस पर अवध की शाम समाप्त हुई। लखनऊ के आशिक और शब्दों में मोती पिरोने वाले मौलाना अब्दुल हलीम शरर ने शालीनता के शहर का ये अध्याय डूबते हुए सूरज की लाली से लिखा है। चालीस बरस बाद अकेले देखने का किसमें हौसला था। लोगों ने डरा दिया था कि जिंदगी और जिंदादिली का वो संगम जिस पर सारी रौनकें और रंगीनियां खत्म थीं, हजरतगंज - अब हसरतगंज दिखलाई देता है साहब! लखनऊ हॉन्टिड (भुतहा) शहर हो न हो, अपना दिमाग तो हॉन्टिड हई है। मुझे तो एक साहब ने ये कह के भी दहला दिया कि तुम्हें चारबाग रेलवे स्टेशन का नाम अब सिर्फ हिंदी में लिखा नजर आयेगा। अलबत्ता कब्रों के पत्थर अब भी निहायत खूबसूरत उर्दू में लिख जाते हैं। ऐसी खूबसूरत लिखाई और ऐसे मोती पिरोने वाले लेखक तुम्हें पाकिस्तान में ढूंढे से ही मिलेंगे। मैं मेहमान था। चुपका हो रहा। दो दिन पहले मैंने एक दिल्ली वाले से सीधे सुभाव कहीं ये कह दिया कि दिल्ली की निहारी और गोले के कबाब दिल्ली के मुकाबले कराची में बेहतर होते हैं। अरे साहब! वो तो सर हो गये। मैंने कान पकड़े।

आसी तय समय पर नहीं आये। पहले तो गुस्सा आया फिर चिंता होने लगी। उनके कमरे पर गया। दरी पर पुराने पीले कागजात, फाइलें, तीस बरस के सैकड़ों बिल और रसीदें फैलाये, उनके बीचों-बीच पंजों के बल बैठे थे। मेंढक की तरह फुदक कर वांछित कागज तक पहुंचते, जिस कागज का बाद में गौर से मुआयना करना हो उस पर बुद्ध की मूर्ति रख देते थे। तीन बुद्ध थे उनके पास। आंखें मूंदे हौले-हौले मुस्कुराते हुए बुद्ध। बीबी को सोता छोड़ कर घर से जाते हुए जवान बुद्ध। महीनों की लगातार भूख से हड्डियों का पिंजर बुद्ध। इन तीनों बुद्धों को वो इस समय बतौर पेपरवेट इस्तेमाल कर रहे थे। मैं तेज-तेज पैदल चल कर आया था। पसीने में शराबोर मलमल का कुर्ता प्याज की झिल्ली की तरह चिपक गया। कमरे में घुसते ही मैंने पंखा ऑन किया तो स्विच के शॉक से पजड़ खा कर फर्श पर गिरा। खैर साहब, इसे ऑन करना था कि कमरे में आंधी आ गयी और सैकड़ों पतंगें उड़ने लगीं। यहां तक कि हम एक-दूसरे को नजर आने बंद हो गये। उनका तीस साला फाइलिंग सिस्टम उड़ान भर रहा था।

उन्होंने लपक कर लकड़ी की खड़ावें पहनीं और पंखा बंद किया। चालीस-पचास साल पुराना पीतल का स्विच शॉक मारता है। ऑन और ऑफ करने से पहले खड़ाऊं न पहनो तो मृत्यु घटित होने की संभावना रहती है। फिर उन्होंने दौड़-दौड़ कर अपने दफ्तर के बल्कि जिगर के टुकड़े इस तरह जमा किये जिस तरह लौंडे पतंग लूटते हैं। कहने लगे, भाई! माफ करना, आज लखनऊ साथ न जा सकूंगा। एक आकस्मिक उलझेड़े में फंस गया हूं।

मुर्गा बनने की खासियत : साहब! वो उलझेड़ा ये था कि नगर पालिका ने पानी का जो बिल उन्हें कल भेजा था, उसमें उनके पिता का नाम एजाज हुसैन के बजाय एजाज अली लिखा था। इससे पहले उन्होंने लिखाई की ये गलती नोट नहीं की थी। अब वो बीते तीस साल के सारे बिल चैक कर रहे थे कि इस गलती की शुरुआत कब हुई। किसी और विभाग के बिल या सरकारी लिखापढ़ी में ये वल्दियत है कि नहीं। अगर है तो क्यों है? और नहीं है तो क्यों नहीं है?

खोज-बीन के क्षेत्र का एक विस्तार ये भी निकला कि जल विभाग को वल्दियत से क्या सरोकार। इसी का एक उपप्रश्न ये भी निकला कि और विभागों के बिल में संबंधित बाप की निशानदेही होती है कि नहीं। मैंने कहा कि मौलाना! बिल पैक कीजिये और खाक डालिए। क्या फर्क पड़ता है। बोले, फर्क की भी एक ही कही, अगर बाप के नाम से फर्क नहीं पड़ता तो दुनिया की किसी भी चीज से नहीं पड़ेगा।

पांचवीं क्लास में मैंने शाहजहां के बाप का नाम हुमायूं बता दिया तो मास्टर फाखिर हुसैन ने मुर्गा बना दिया। वो समझे, मजाक कर रहा हूं। यह गलती न करता तो और किसी बात पर मुर्गा बना देते। अपनी पढ़ाई का काल तो इसी पोज में गुजरा। बेंच पर आना तो उस समय होता था जब मास्टर कहता कि अब बेंच पर खड़े हो जाओ। अब भी कभी पढ़ाई के काल के सपने देखता हूं तो या तो खुद को मुर्गा बना देखता हूं या वो अखबार पढ़ता हुआ देखता हूं, जिसमें मेरा रोल नंबर नहीं होता था। मिस्टर द्वारिका दास चतुर्वेदी, डायरेक्टर ऑफ एजुकेशंस हाल में योरोप और अमरीका का दौरा करके आये हैं। सुना है, उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दुनिया के किसी और मुल्क ने मुर्गा बनाने का पोज डिस्कवर ही नहीं किया है। मैंने तंग आकर तुर्की-टोपी ओढ़नी छोड़ दी थी। मुर्गा बनता तो उसका फुंदना आंखों से एक इंच की दूरी पर पूरे समय पेंडुलम की तरह झूलता रहता था - दायें-बायें! पीरियड के आखिर में टांगें बुरी तरह कांपने लगतीं तो फुंदना आगे पीछे झूलने लगता। इसमें तुर्कों की तौहीन का पहलू भी निकलता था जिसे मैं बर्दाश्त न कर पाया। वो दिन है और आज का दिन, मैंने किसी-भी किस्म की टोपी नहीं ओढ़ी।

मैंने वाक्य चिपकाया, महात्मा बुद्ध भी तो नंगे सिर रहते थे। वाक्य को इग्नोर करते हुए कहा, आपने कभी ध्यान दिया, जब से लड़कों का मुर्गा बनाना बंद हुआ है शिक्षा और शालीनता का स्तर गिर गया है। वैसे तो मैं अपने छात्रों की हर नालायकी बर्दाश्त कर लेता हूं लेकिन अशुद्ध उच्चारण पर आज भी खट-से मुर्गा बना देता हूं। जिस्म से चिपकी हुई जींस पहनने की अनुमति नहीं देता। इसलिए कि इससे फारसी शब्दों के उच्चारण, पेशाब करने और मुर्गा बनने में दिक्कत आती है मगर आजकल के लौंडों की टांगें पांच मिनट में लड़खड़ाने लगती हैं।

मैं अपने जमाने के ऐसे लौंडों को जानता हूं जो बीस-बीस बेंत खाने पर भी `सी` नहीं करते थे। एक तो एस.पी. होकर रिटायर हुआ। दूसरा देहात सुधार विभाग में डायरेक्टर हो गया था। अब वैसे शरारती और तगड़े लड़के कहां? दरअस्ल तब करैक्टर बहुत मजबूत होता था। बस यूं समझो, जैसे रसायन बनाने में एक आंच की कसर रही जाती है? इसी तरह आजकल की शिक्षा में एक बेंत की कसर रह जाती है।

एक कटोरा चांदी का : उस दिन सख्त गर्मी थी। कोई चौथाई शताब्दी के बाद नारियल के डोंगे से पानी निकाल कर उसी कटोरे से पिया। अंदर सूरे-यासीन (कुरआन की आयत) खुदी हुई है, ठोस चांदी का है। आपने कटोरे सी आंख का मुहावरा सुना है? साहब मैंने देखी हैं। शाम को जब हम फुटबाल खेल कर लौटते तो इसके पतले किनारे को होठों के बीच में लेते ही लगता था कि ठंडक रग-रग में उतर रही है। इसी कटोरे में शहद घोल कर मुल्ला आसी को पैदा होते ही मां के दूध से पहले चटाया गया। इसी कटोरे से अंतिम समय में उनके दादा और पिता के मुंह में आबे-जमजम चुवाया गया था। अब भी आये दिन लोग मांग कर ले जाते हैं और बीमार को पानी पिलाते हैं। मैंने पीने को तो पानी पी लिया मगर अजीब-सा लगा। खुदे हुए अक्षरों में काला सियाह मैल भरा हुआ था।

साहब, सच्ची बात ये कि पानी आज भी उतना ही ठंडा है, कटोरा भी वही। पीने वाला भी वही मगर वो पहली-सी प्यास कहां से लायें।

यूं तो घर में एक मुरादाबादी काम का गिलास भी है। उन्हीं का हमउम्र होगा। पहली बार उनसे मिलने गया तो एक शिष्य को दौड़ाया। वो कहीं से एक पुड़िया में शक्कर मांग कर लाया। उन्होंने इसी गिलास में उल्टी पेंसिल से घोल कर शरबत पिलाया। मैं तो शक्कर के शरबत का स्वाद भी भूल चुका था। हमारे बचपन में अक्सर इसी से मेहमान की खातिर होती थी। सोडे और जिंजर की बोतल तो केवल बदहज्मी और हिंदू मुस्लिम दंगों में इस्तेमाल की जाती थीं।

शेर (शाह) लोहे के जाल में है : देखिये मैं कहां आ निकला। बात बिलों से शुरू हुई थी। जब उन्होंने अपना बिखरा हुआ दफ्तर समेट लिया तो मैंने फिर पंखा ऑन करना चाहा, मगर उन्होंने रोक दिया। कहने लगे, माफ करना, शेरशाह बीमार है, पंखे से बुखार और तेज हो जायेगा। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ायी। इस नाम का बल्कि किसी भी नाम का, कोई बीमार नजर नहीं आया। और आता भी कैसे, शेरशाह दरअस्ल उस बीमार कबूतर का नाम था, जो कोने में एक जालीदार नेमतखाने में बंद था। ऐसे नेमतखाने, उस जमाने में रेफ्रिजरेटर की जगह इस्तेमाल होते थे। लंबाई चौड़ाई भी लगभग वही। लकड़ी के दो तीन मंजिला फ्रेम पर चारों तरफ लोहे की महीन जाली मढ़ी रहती थी, जिसका प्रत्यक्ष उद्देश्य हवा पहुंचाना, लेकिन वास्तविक उद्देश्य मक्खियों, बिल्लियों, चूहों और बच्चों को खाने से दूर रखना था। उसके पायों के नीचे पानी से भरी चार पियालियां रखी होती थीं, जिसमें उन चटोरी चींटियों की लाशें तैरती रहती थीं जो जान पर खेल कर, यह खंदक पार करके वर्जित खाद्य-सामग्री तक पहुंचना चाहती थीं। ये नेमतखाने डीप फ्रिज और रेफ्रिजरेटर से इस लिहाज से बेहतर थे कि इन में रखा हुआ बेस्वाद खाना नौ-दस घंटे बाद ही सड़ जाता था। उसे रोज निकाल कर हफ्तों नहीं खिलाया जाता था। ऐसे नेमतखाने उस समय में हर खाते-पीते घराने में होते थे। निचले कम आमदनी वाले तबके में छींका इस्तेमाल होता था। जबकि गरीबों के यहां रोटी की स्टोरेज के लिए आज भी सबसे सुरक्षित जगह पेट ही होती है।

उल्लेखित नेमतखाना 1953 से मुल्ला आसी के बीमार कबूतरों का इंटेंसिव केयर यूनिट है। उस दिन लखनऊ जाने का एक कारण ये भी था कि वो बीमार कबूतर को अकेला छोड़ कर सैर-सपाटे के लिए जाना नहीं चाहते थे। एक कबूतरी नूरजहां अचानक मर गयी तो दस बारह दिन तक घर से नहीं निकले, क्योंकि उसके बच्चे बहुत ही छोटे और गाउदी थे, उन्हें सेते रहे। द्रोपदी नाम की एक अनारा (लाल आंखों वाली) कबूतरी की चोंच टूट गयी, उसे महीनों अपने हाथ से चुग्गा खिलाया। उन्होंने हर कबूतर का एक नाम रख छोड़ा है। इस वक्त एक लक्का कबूतर, रंजीत सिंह नाम का, दरवाजे के सामने सीना और दुम फुलाये, दूसरे संप्रदाय की कबूतरियों के आसपास इस तरह चक्कर लगा रहा था कि अगर वो इंसान होता तो सांप्रदायिक दंगों में कभी का मारा जा चुका होता। `न कभी जनाजा उठता न कहीं शुमार होता।`

कबूतरों की छतरी : कबूतरबाजी इनका पुराना शौक है। इनके वालिद को भी था। मेरे वालिद भी पालते थे। कबूतर की श्रेष्ठता के तो आपके मिर्जा अब्दुल वदूद बेग भी कायल हैं। सच्चे शौक और हॉबी की पहचान ये है कि बिल्कुल फजूल और निरर्थक हो। जानवर को इंसान किसी न किसी फायदे और स्वार्थ के तहत पालता है। उदाहरण के लिए कुत्ता वो दुखियारे पालते हैं, जो मुसाहिब और दरबारी अफोर्ड नहीं कर सकते। कई लोग कुत्ता इस भ्रम में पाल लेते हैं कि उसमें छोटे भाई की खूबियां होंगी। बकरी इस विचार से पालते हैं कि उसकी मेंगनी दूध में मिला कर जवाब में उर्दू आलोचकों को पिलायेंगे। हाथी अधिकतर वो अमीर लोग पालते थे, जिन्हें बादशाह कुपित हो कर सजा के तौर पर हाथी मय-हौदा-चांदी के बख्श देता था कि जाओ! अब इसे सारी उम्र खिलाते, ठुंसाते रहो। तोते को अरमानों से इस लिए पालते हैं कि बड़ा होकर अपनी बोली भूल जायेगा और सारी उम्र हमारा सिखाया हुआ बोल दुहराता रहेगा। मौलवी मुर्गे की अजान सिर्फ मुर्गी के लालच में बरदाश्त करते हैं और 1963 में आपने बंदर केवल इस लिए पाला था कि उसका नाम डार्विन रख सकें।

लेकिन साहब! कबूतर को केवल इसलिए पाला जाता है कि वो कबूतर है और बस, लेकिन मुल्ला आसी के एक पड़ौसी सैदुल्ला खां आशुफ्ता ने कसम खा-कर कहा कि एक दिन कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। वो सुब्ह छह बजे गर्म कश्मीरी चाय की केतली लेकर उनके यहां गये तो देखा कि कमरा ठंडा बर्फ हो रहा है और वो गरमायी के लिए हाथों में एक-एक कबूतर दबाये बोधिसत्व की मूर्ति के सामने ध्यान में डूबे हुए हैं। गुलू-ओ-गीबत, बर गरदने-रावी। (झूठ हो तो पाप, बताने वालों की गरदन पर)

एक दिन साथ में कबूतरों का जिक्र छिड़ गया तो कहने लगे, मैंने सुना है, वैसे विश्वास नहीं होता कि कराची में कबूतरों की एक भी छतरी नहीं। यारो! तुमने कैसा शहर बनाया है? जिस आसमान पर कबूतर, उषा की लाली, पतंग और सितारे न हों तो ऐसे आसमान की तरफ नजर उठा के देखने को जी नहीं चाहता। भाई अबरार हुसैन दिसंबर 1973 में कराची में थे। दो महीने रहे होंगे। आसमान हमेशा बादलों से घिरा रहा, केवल एक दिन दूरबीन की मदद से एक तारा नजर आया। वो पुच्छल तारा था। कह रहे थे कि कराची में लोग हम लखनऊ वालों की तरह पतंग, तीतर, मुर्गे और मेढ़े नहीं लड़ाते, खुद लड़ लेते हैं मगर सच तो ये है कि इस मुहल्ले में भी अब न कोई पतंग उड़ाता है न कबूतर। ले दे कि यही एक छतरी रह गयी है। लखनऊ का हाल इससे भी बुरा है और एक वो जमाना था कि तुम्हारे जाने के बाद, दिसंबर 1947 में अलीमुद्दीन ने, भाई! वही अपना शेखचिल्ली लड्डन - पाकिस्तान जाने के लिए बोरिया-बिस्तर बांध लिया था, मगर ऐन वक्त पर इरादा छोड़ दिया, किस लिए कि मास्टर अब्दुल शकूर बी.ए.बी.टी. ने उसे डरा दिया कि तुम ट्रेन में कबूतरों की छतरी साथ नहीं ले जा सकते और चोरी-छुपे ले भी गये तो वाहिगा बार्डर पर पाकिस्तान कस्टम वाले न जाने क्या समझ कर तुमको धर लें। भाई बिशारत! तुम तो पाकिस्तान जा कर परदेसी हुए। हम तो अपने शहर में बैठे-बैठे ही अजनबी हो गये। ये वो शहर थोड़ा ही है। वो शहर तो किस्सा कहानी हो गया। आकार बदल चुका है। अब इस मुहल्ले में 95 फीसद घरों में वैजिटेरियन रहते हैं। उनकी बिल्लियां गोश्त को तरस गयी हैं। चुनांचे सारे दिन मेरी छतरी के चारों तरफ मंडराती रहती हैं।

भई तुम्हें तो याद होगा, कोपर एलन एंड कंपनी का बड़ा साहब। क्या नाम था उसका? सर आर्थर अंस वूथ? उसकी मेम जब विलायत से सियामी बिल्ली लाई तो सर आर्थर ने कानपुर शहर के सारे बिल्लों को खस्सी करा दिया ताकि बिल्ली कुंवारी और पवित्र रहे। दो बंगले छोड़ कर अजमल बैरिस्टर रहते थे, कहने वाले तो यहां तक कहते थे कि एक रात उनके कुत्ते को भी पकड़ कर एहतियातन खस्सी करवा दिया। सन इकतालीस का किस्सा है - क्विट इंडिया आंदोलन से जरा पहले।

हम दोनों देर तक हंसते रहे। वो अब भी हंसते हैं तो बच्चों की तरह हंसे चले जाते हैं। फिर आंखें पोंछ कर एकाएक गंभीर हो गये। कहने लगे, अब मुझमें इतना दम नहीं रहा कि छत पर आवाज लगा कर सबको काबुकों में बंद करूं। सधे-सधाये कबूतर तो दिया-जले खुद आ-आ कर काबुक में दुबक जाते हैं, बकिया को शार्गिद घेर घार के बंद कर देते हैं। वही दाना-चुग्गा डालते हैं। शरीफों (उच्च वर्ग) के जितने शौक हैं, सब पर उतार आ गया है। शहर में ज्वार तक नहीं मिलती। पचास मील दूर एक गांव से मंगाता हूं। पटवारी मेरा शिष्य रह चुका है। आजकल के किसी ग्रेजुएट को पकड़ कर पूछ देखो, ज्वार, बाजरे और कंगनी का फर्क बात दे तो उसी के पेशाब से अपनी भवें मुंडवा दूं। निनानवे प्रतिशत ने जिंदगी में जौ नहीं देखे होंगे। अमां! क्या कराची का भी यही हाल है?

काला कबूतर और कुंवारी की बिल्ली : उनके सिड़ीपन की एक घटना हो तो सुनाऊं। मैट्रिक के समय ही (जब वो अपनी बाईसवीं सालगिरह मना चुके थे) उन्होंने यह ढंग चुन लिया था कि परीक्षाफल अखबार में नहीं देखते थे। चुनांचे अखबार लेना और पढ़ना और पढ़ने वालों से मिलना छोड़ देते थे। संभव है, इसका कारण उपेक्षा हो, डर भी हो सकता है। मिर्जा का विचार है कि अपनी सालाना नालायकी को `कोल्ड-प्रिंट` में फेस नहीं कर सकते थे। बहरहाल, परीक्षाफल आने से एक हफ्ता पहले अपने एक जिगरी दोस्त इमदाद हुसैन छौदी को अपना एक काला गिरहबाज और एक सफेद लोटन कबूतर दे आते। इमदाद हुसैन को ये इंस्ट्रक्शन थे कि जैसे ही अखबार में मेरे पास होने की खबर पढ़ो, फौरन सफेद लोटन कबूतर छोड़ देना और फेल हो जाऊं तो काला। फिर दिन भर खिड़की से आधा धड़ निकाल कर कभी आसमान और कभी छतरी को देखते कि कबूतर खबर लाया कि नहीं। हर साल मनहूस काले कबूतर को हलाल करके मरजीना (कुंवारी की बिल्ली का नाम) को खिला देते। ये बादशाहों वाली रीत उन्होंने बी.ए., तक बनाये रखी कि पुराने जमाने में बादशाह भी बुरी खबर लाने वाले एलची का सर धड़ से अलग करवा देते थे।

रिजल्ट वाले हफ्ते में घर में रोज कई बार रोना-पीटना मचता था। इसलिए कि उनकी मां और बहनें जैसे ही कोई काला कबूतर देखतीं, रोना पीटना शुरू कर देतीं। यूं तो छतरी पर दिन में कई बार सफेद कबूतर भी आते थे, मगर वो उनका कोई नोटिस नहीं लेती थीं। उन्हें भरोसा था कि गलती से आन बैठे हैं। आखिर में तीन-चार साल बाद रुला-रुला कर वो सफेद लोटन कबूतर आता जिसका इंतजार रहता था तो इस खुशी में अपने तमाम कबूतरों को, जिनकी तादाद सत्तर अस्सी के लगभग होगी, ज्वार की बजाय गेहूं खिलाते और सबको एक साथ उड़ाते।

दूसरे दिन उस कबूतर के पांव में चांदी की मुन्नी-सी पैंजनी (कबूतर की झांझन) डाल देते और उसकी काबुक में दस ताफ्ता (सफेद चमकीले रंग का कबूतर) पठोर कबूतरियां बढ़ा देते। कबूतरखाना तो हम रवानी में लिख गये, वर्ना हालत तो ये थी, जब उन्होंने बी.ए. पास किया तो मैट्रिक, इंटरमीडियेट और बी.ए. तीनों को मिला कर तीस अदद कबूतरियों की बढ़ोतरी के बाद उनका सारा घर इस सुसम्वाद लाने वाले कबूतर के निजी हरम में बदल चुका था। घर वालों की हैसियत उन कबूतरों के सेवक और बीट उठाने वालों से अधिक नहीं रही थी।


वो एक फौज जो इस तरह फौज से कम है

जिस दिन वो शेरशाह नाम के कबूतर की बीमारी के कारण मेरे साथ लखनऊ न जा सके, मैंने कुछ झुंझलाते हुए उनसे कहा, `खुदा के बंदे! दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी है, अब इस कबूतरबाजी पे खाक डालो।` बोले, `तुम्हारे वालिद भी तो बड़े पाये के कबूतरबाज थे। मैं तो उनके सामने बिल्कुल अनाड़ी हूं। अब लोग इसे घटिया शौक समझने लगे हैं वर्ना ये केवल शरीफों का शौक हुआ करता था। मैंने कहीं पढ़ा था कि बहादुरशाह जफर की सवारी निकलती थी तो दो सौ कबूतरों की टुकड़ी ऊपर हवा में सवारी के साथ उड़ती जाती और बादशाह पर छांव किये रहती। जब वाजिद अलीशाह मटियाबुर्ज में बंदी बनाये गये तो उस गयी-गुजरी हालत में भी उनके पास चौबीस हजार से अधिक कबूतर थे, जिनकी देख-रेख पर सैकड़ों कबूतरबाज तैनात थे।`

मैंने निवेदन किया, `इसके बावजूद लोगों की समझ में नहीं आता, साम्राज्य समाप्त क्यों हुआ। तलवारों की छांव में पलने वाले सरों पर जब कबूतर मंडराने लगें तो सवारी मटियाबुर्ज और रंगून जा कर दम लेती है। बहादुरशाह जफर ने कबूतरखाने पर जितना पैसा और ध्यान दिया उसका दसवां हिस्सा भी तोपखाने पर देते तो फौज बल्कि कबूतरफौज की यह दुर्गत न बनती कि डट कर लड़ना तो दूर, उसके पास हथियार डालने के लिए भी हथियार न निकले।`

`वो एक फौज जो इस तरह फौज से कम है।`

बिगड़ गये, `तो आपके विचार में मुगल साम्राज्य का पतन कबूतरों के कारण हुआ। यह बात तो यदुनाथ सरकार तक ने नहीं कही। मिस्टर चतुर्वेदी कह रहे थे कि ब्रिटेन में पिचहत्तर लाख कुत्ते हैं। फ्रांस में सवा तीन करोड़ पैट्स हैं। सरकारी गणना के अनुसार ब्रिटेन में हर तीसरा बच्चा बिना मां-बाप की शादी के होता है। इसके अलावा वहां पिछले दस साल में पच्चीस लाख गर्भपात कराये गये। आखिर उनका पतन क्यों नहीं होता?`


चड़या

मुल्ला आसी के खट्मिट्ठे मिजाज का अनुमान एक घटना से लगायें, जो एक साहब ने मुझे सुनायी। उनके पड़ौसी ने कई बार शिकायत की, `आपके किरायेदार ने एक नयी खिड़की निकाल ली है जो मेरे दालान में खुलती है, औरतों की बेपर्दगी होती है।` उन्होंने कई दिन नोटिस नहीं लिया तो एक दिन धमकी दी, `आपने खिड़की न चुनवायी तो ठीक न होगा। नालिश कर दूंगा। अगर घर के सामने कुर्की का ढोल न बजवाया तो मेरा नाम नहीं। सारा बुद्धिज्म धरा रह जायेगा।`

ये बेचारे खुद किरायेदार के सताये हुए थे, क्या कर सकते थे। अलबत्ता, पर्दे के नुक्सान बयान कर दिये जिससे वो और बिगड़ गया। दो-तीन दिन बाद उसने एक नवंबर को कानूनी नोटिस दिया कि अगर एक महीने के अंदर-अंदर आपने खिड़की बंद न करवायी तो आपके खिलाफ मुकद्दमा दायर कर दिया जायेगा। उन्होंने नोटिस पढ़ कर फाड़ दिया। उसका समय तीस नवंबर को समाप्त होता था। पहली दिसंबर को सुब्ह पांच बजे उन्होंने इस पड़ौसी के दरवाजे पर दस्तक दी। वो हड़बड़ा कर आंखें मलता हुआ नंगे पैर बाहर आया तो कहने लगे, `हुजूर! गुस्ताखी माफ, मैंने कच्ची नींद से जगा दिया। मैं सिर्फ ये याद कराने आया हूं कि आज आपको मेरे खिलाफ मुकद्दमा दायर करना है। आदाब!`

हम कराची वालों की नजर में `चड़या` (खिसके हुए) तो वो सदा के थे, मगर अब सुधार और बर्दाश्त की सीमा से पार निकल गये हैं। आठवीं क्लास से लेकर बी.ए., तक कोर्स की तमाम किताबें, जो इन्होंने पढ़ी थीं, बल्कि यूं कहना चाहिये कि नहीं पढ़ी थीं, एक अलमारी में सजा रखी हैं। परीक्षा के परचों की एक अलग फाइल है। इनके अन्नप्राशन पर जिस चांदी की पियाली में केसर घोला गया और खत्ने के समय जरदोजी के काम की जो टोपी इन्हें पहनायी गयी और इसी तरह की दूसरी, प्रसाद का दर्जा रखने वाली वस्तुऐं दूसरी अलमारी में सुरक्षित हैं। वो तो गनीमत है कि पैदाइश के समय अपना काम आप न कर सकने में सकारण असमर्थ थे वरना अपना नाल भी दूसरी यादगार चीजों की तरह सिंगवा कर रख लेते। इस बात का विस्तृत विवरण देने चलें तो पन्ने कम पड़ जायेंगे। संक्षेप में यूं समझें कि आमतौर पर इतिहासकारों या रिसर्च करने वालों को बड़े आदमियों के जीवन के बारे में बारीक विवरण खोद-खोद कर निकालने में जो मेहनत करनी पड़ती है, उन्होंने वो अपनी तमात वाहियात चीजें उनकी हथेली पर रख कर आसान कर दी हैं। मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा। मेरा विचार था कि अपनी कोई चीज नहीं फेंक सकते, अपनी आस्था के अलावा अपने कूड़े को भी एंटीक बना देते हैं। कमरा क्या है - यादों का मलबा है, जिसे बेलचे से खोदें तो अंतिम परत के नीचे से स्वयं बरामद होंगे।


छोटी बीबी के नाम

इसी तरह बीते तीस चालीस सालों में इन्हें जितनी चिट्ठियां दोस्तों, रिश्तेदारों ने लिखी हैं। वो सब की सब खड़े सूओं में दिनांक, सप्ताह, महीना, बरस के क्रम में पिरोयी हुई सुरक्षित हैं। अधिकांश पोस्टकार्ड हैं। उस जमाने में पिचानवे प्रतिशत चिट्ठियां पोस्टकार्ड पर लिखी जाती थीं। एक कोना जरा-सा काट दिया जाये तो यह एलार्म होता था कि किसी के मरने खबर आई है। अनपढ़ घरानों की औरतें नामालूम मुरदे के झूठे गुणों को बयान करके रोना-पीटना शुरू कर देती थीं। इसी कालक्रम में कोई पड़ौसी पोस्टकार्ड पढ़ देता तो बैन में मृतक के नाम की बढ़ोतरी और गुणों में कमी कर दी जाती थी। पोस्टकार्ड पर एक तरफ तीस-तीस लाइनें तो मैंने स्वयं लिखी देखी हैं, जिन्हें शायद घड़ी ठीक करने वालों की एक आंख वाली खुर्दबीन लगा कर ही लिखा और इसी तरह पढ़ा जा सकता था।

मैं एक चमड़े के व्यापारी शेख अता मुहम्मद को जानता था, जो माल बुक कराने कलकत्ता जाता तो अपनी नयी और सुंदर छोटी बीबी को (जिसे मुहल्ले वाले प्यार में सिर्फ छोटी कहते थे) खर्च बचाने के लिए पोस्टकार्ड पर चिट्ठी लिखता, लेकिन निजी बातों के प्रकरण में बिल्कुल बचत नहीं करता था। दूसरों की चिट्ठी पढ़ने का लपका उस जमाने में बहुत आम था। पोस्टमैन हमें यानी मुझे, मियां तजम्मुल हुसैन और मुल्ला आसी को पोस्टकार्ड पढ़वा देता था। हम उसे हिरन के कोफ्ते खिलाते थे। साहब! जबान का चटखारा बुरी बला है।

मैं जब इटावा के स्कूल में तैनात हो कर गया तो उसने मेरी चिट्ठी जो मैंने शादी के कुछ दिनों बाद आपकी भाभी को लिखी थी, मुल्ला आसी और मियां तजम्मुल हुसैन को पढ़वा दी। चिट्ठी का विवरण हैजे की तरह सारे शहर में फैल गया। मैंने कई सुलगते हुए वाक्य और बेकरार पैरे चमड़े के व्यापारी के पोस्टकार्डों से उड़ाये थे। हालांकि वो कच्चा चमड़ा बेचता था और निबंध लेखन उसके व्यावसायिक गुणों और पतिपन में सम्मिलित नहीं था लेकिन चौधरी मुहम्मद अली रुदौलवी ने बीबी के नाम सर्वोत्तम चिट्ठी की जो प्रशंसा की है उस कसौटी पर शेख अता मुहम्मद की चिट्ठी खरी उतरती थी यानी ऐसी हो कि दोनों किसी को दिखा न सकें। किसी दुष्ट ने शेख अता मुहम्मद को भी मेरी चिट्ठी की जानकारी दे दी। कहने लगा अगर कोई मेरी बिल्कुल अंतरंग भावनाओं को अपनी बीबी तक पहुंचाना चाहता है तो मेरा सौभाग्य है। धीरे-धीरे आपकी भाभी तक जब इस चोरी की खबर पहुंची तो उन्हें महीनों मेरे ओरीजनल वाक्यों से भी कच्चे चमड़े की बू आती रही। अजीब घपला था। वो और छोटी एक दूसरे को अपनी सौतन समझने लगे जो हम दोनों मर्दों के लिए डूब मरने की बात थी।

दिसंबर की छुट्टियों में जब मैं कानपुर गया तो इस हरमजदगी पर पोस्टमैन को आड़े हाथों लिया और धमकी दी कि अभी पोस्टमास्टर को रिपोर्ट करके तुझे डिसमिस करा दूंगा। मैंने चीख कर कहा, `बेईमान! अब तुझे वो दोनों हिरन के कोफ्ते खिला रहे हैं।` कहने लगा, `कसम कुरआन की, जब से आप गये हैं, हिरन के कोफ्ते खाये हों तो सुअर खाया हो।` मैं जूता लेकर पीछे दौड़ा तो बदमाश कुबूला कि नीलगाय के खाये थे।


ब्लैक बॉक्स

हां, तो मैं क्या कह रहा था? सूओं में पिरोयी चिट्ठियों के बारे में बता रहा था। हर सूए पर पांच पांच साल के काल खंड को सूली दी है। लकड़ी के गोल पेंदे में ठुके हुए यह सूए उस समय में फाइलिंग कैबिनेट के स्थानापन्न के रूप में प्रयोग होते थे। काले पेंदे का एक सूआ स्वर्गवासियों के लिए सुरक्षित है। कहने लगे जब किसी के देहांत का समाचार मिलता है तो उसकी तमाम चिट्ठियां अलग सूओं से निकाल कर इसी काले पेंदे वाले सूए में लगा देता हूं और ये ब्लैक बॉक्स बहुत ही अहम और निजी कागजों के लिए रख छोड़ा है। मैंने वसीयत की है कि मरने के फौरन बाद जला दिया जाये। मेरा मतलब है कागजात को।

पलंग के नीचे रखे जिस काले संदूक की तरफ उन्होंने इशारा किया था, वो दरअस्ल एक कैश बॉक्स था। उनके पिता के दिवाले और उसके परिणाम में उनकी मौत के बाद बस यही जमा-जथा उन्हें विरसे में मिली। अब भी अक्सर बताते हैं कि इसमें एक लाख नकदी की जगह है। लोगों का विचार है कि इस बक्स में उनकी वसीयत है जिसमें स्पष्ट हिदायत है कि उनके शव का क्या किया जाये। मतलब यह कि मुसलमानों की तरह दफ्न किया जाये या पारसियों की तरह लाश चील कव्वों को खिला दी जाये या बौद्ध परंपरा के अनुसार ठिकाने लगाई जाये। जहां आस्थाओं का इतना घालमेल हो वहां यह स्पष्टीकरण आवश्यक है। गालिब को उसकी, `गलियों में मेरी लाश को खींचे फिरो कि मैं` वाली इच्छा के विपरीत उसके सुन्नी शिष्य सुन्नी तरीके से गाड़ आये जबकि उस गरीब का संप्रदाय शिया था। साहब! इस बात पर याद आया गालिब ने कैसी जालिम बात कही है,

`हैफ काफिर मुर्दनो-आदख मुसलमां जीस्तन`

यानी हे ईश्वर! मुझे काफिरों की तरह से मरने और मुसलमानों की तरह जीने से बचा। सब कुछ छह शब्दों की एक लाइन में सुमो दिया।

उनके एक निकट के दोस्त सय्यद हमीदुद्दीन का बयान है कि वसीयत में यह लिखा है कि मैं मुसलमान था, मुसलमान ही मरा, बाकी सब ढोंग था, जो मुसलमानों को चिढ़ाने के लिए रचना पड़ा यानी उनका कुफ्र अस्ल में मक्कारी थी। ये भी सुनने में आया कि उन्होंने ये भी हिदायत की है कि मेरी वसीयत उसी दिन खोली जाये जब मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब के अनछपे हिस्से बैंक के सेफ डिपाजिट लॉकर से निकाले जायें। इस पर एक दिलजले ने ये नीम चढ़ाया कि वसीयत में मुल्ला आसी ने मौलाना आजाद के बारे में अपनी गाली-भरी राय लिख दी है, जिसका प्रकटन वो अपने जीवन में पब्लिक से पंगे और पिटने के डर से नहीं कर सकते थे। मगर सोचिये तो सही मुल्ला आसी ने कौन-सी तोप चलाई होगी? बुरे-से-बुरा अनुमान यही हो सकता है कि सच बोला होगा। लेकिन साहब! वो सच्चाई क्या, जिसके एलान की जीते जी जुर्रत न हुई हो।

हर लम्हे की अपनी सच्चाई, अपनी सूली और अपना ताज होता है। इस सच्चाई का एलान इसी और इसी लम्हे जुरूरी होता है। सो, जो चुप रहा, उसने इस लम्हे से और अपने-आप से कैसी दगा की। बकौल मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग के, सारे जीवन आवश्यकता के कारण समझौते करने और हंसी खुशी गुजारने के बाद कब्र में पहुंच कर, कफन फाड़ कर सच बोलने और मुंह चिढ़ाने की कोशिश करना मर्दों ही को नहीं, मुर्दों को भी शोभा नहीं देता।