खोया पानी / भाग 21 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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इकबाल ने उन कवियों, कलाकारों और कहानीकारों पर बड़ा तरस खाया है जिनके मन-मस्तिष्क पर औरत सवार है। मगर हमारे मित्र और प्रशंसित बिशारत फारूकी उन बदनसीबों में से थे, जिनकी बेदाग जवानी उस शायर की शायरी की तरह थी जिसके बारे में किसी ने कहा था कि उसका कलाम गलतियों और मजे दोनों से खाली है। बिशारत की ट्रेजडी कवियों, कलाकारों और कहानीकारों से कहीं अधिक घोर गंभीर थी। इसलिए कि दुखिया के मन-मस्तिष्क पर औरत को छोड़ के हमेशा कोई-न-कोई सवार रहा। उम्र के उस दौर में जिसे अकारण ही जवानी-दीवानी से परिभाषित किया जाता है, उनकी सोच पर क्रमानुसार मुल्ला, बुजुर्ग, मास्टर फाखिर हुसैन, परीक्षक, मौलवी मुजफ्फर, दाग देहलवी, सहगल और ससुर सवार रहे। खुदा-खुदा करके वो इसी क्रम में उन पर से उतरे तो घोड़ा सवार हो गया। जिसका किस्सा हम 'स्कूल मास्टर का ख्वाब में' बता चुके हैं। वो मनहूस-कदम उनके सपनों, शांति और घरेलू बजट पर झाड़ू फेर गया। रोज-रोज के चालान, जुर्माने और रिश्वत से वो इतने तंग आ चुके थे कि अक्सर कहते कि अगर मुझे च्वायस दी जाये कि तुम घोड़ा बनना पसंद करोगे या उसका मालिक या कोचवान तो मैं बिना किसी हिचकिचाहट के वो इंस्पेक्टर बनना पसंद करूंगा जो इन तीनों का चालान करता है।

संगीन गलती करने के पश्चात hindsight करने वालों की भांति वो उस जमाने में च्वायस की बात बहुत करते थे, मगर च्वायस है कहां? महात्मा बुद्ध ने तो दो टूक बात कह दी कि अगर च्वायस दी जाती तो वो पैदा होने से ही इंकार कर देते। परंतु हम पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि घोड़े को च्वायस दी जाये तो वो अगले जन्म में भी घोड़ा ही बनना पसंद करेगा, महात्मा बुद्ध बनना नहीं, क्योंकि वो घोड़ियों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता जैसे गौतम बुद्ध ने यशोधरा के साथ किया अर्थात उन्हें बेखबर सोता छोड़ कर जंगल को निकल जाये या किसी जॅाकी के साथ भाग जाये। घोड़ा कभी अपने घोड़ेपन से शर्मिंदा नहीं हो सकता। न कभी उस गरीब को आसमान वाले से शिकवा होगा, न अपने सवार से कोई शिकायत, न हर दम किसी और की तलाश में रहने वाली मादाओं की बेवफाई से गिला। यह तो आदमी ही है जो हर दम अपने आदमीपन से लज्जित और परेशान रहता है और इस चिंता में खोया रहता है कि

'डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता'

घोड़ा-तांगा रखने और उसे ठिकाने लगाने के बाद बिशारत में दो विपरीत परिवर्तन दिखाई दिये। पहला तो यह कि घोड़े और उसके दूर-निकट के सारे संबंधियों से हमेशा के लिए नफरत हो गयी। अकेले एक लंगड़े घोड़े ने उन्हें जितना नुकसान पहुंचाया, उतना सारे हाथियों ने मिल कर पोरस को नहीं पहुंचाया होगा। दूसरा परिवर्तन यह आया कि अब वो सवारी के बिना नहीं रह सकते थे। आदमी को एक बार सवारी की आदत पड़ जाये तो फिर अपनी टांगों से उनका स्वाभाविक काम लेने में अपमान के अतिरिक्त कमजोरी भी महसूस होने लगती है। उनका लकड़ी का कारोबार अब काफी फैल गया था जिसे वो कभी अपनी दौड़-धूप का फल और कभी अपने पिता जी की जूतियों के कारण बताते थे। जबकि स्वयं आदरणीय इसे भागवान घोड़े के कदमों की बरकत मानते थे। बहरहाल, ध्यान देने योग्य बात यह थी कि उनकी तरक्की का साधन और कारण कभी पैरों और जूतियों से ऊपर नहीं गया। किसी ने बल्कि स्वयं उन्होंने भी बुद्धिमानी और कुशलता को इसका क्रेडिट नहीं दिया। लकड़ी की बिक्री बढ़ी तो कार्यालयों के चक्कर भी बढ़े। उतनी ही सवारी की आवश्यकता भी बढ़ी। उस जमाने में कंपनियों में रिश्वत नहीं चलती थी इसलिए काम निकालने में कहीं अधिक तिरस्कृत और अपमानित होना पड़ता था। हमारे यहां ईमानदार अफसर के साथ मुसीबत यह है कि जब तक अकारण सख्ती, नुक्ताचीनी, अड़ियल, सड़ियलपन और सबको अपनी ईमानदारी से दुःखी न कर दे वो अपनी नौकरी को पक्का और अपने-आप को सुरिक्षत नहीं समझता।

बेईमान अफसर से बिजनेसमैन आसानी से निपट लेता है। ईमानदार अफसर से उसे घबराहट होती है। सूरते-हाल यह थी कि कंपनी से लकड़ी और खोखों का आर्डर लेने के लिए पांच चक्कर लगायें तो बिल की वसूली के लिए दस चक्कर लगाने पड़ते थे। जब से कंपनियां लीचड़ हुईं उन्होंने दस फेरों का किराया और मेहनत भी लागत में जोड़ के कीमतें बढ़ा दीं। उधर कंपनियों ने उनकी नयी कीमतों को लुट्टस करार दे कर दस प्रतिशत कटौती शुरू कर दी। बात वहीं की वहीं रही। अंतर केवल इतना पड़ा कि दोनों पार्टियां एक दूसरे को लालची, काइयां और चोर समझ कर लेन-देन करने लगीं और यह चौकस और कामयाब बिजनेस का बुनियादी उसूल है।

अब सवारी के बिना गुजारा नहीं हो सकता था, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि वो हो कौन-सी। उस समय टैक्सी केवल खास मौकों पर उपयोग की जाती थी। उदाहरण के तौर पर हार्ट-अटैक के मरीज को अस्पताल ले जाने, अपहरण करने, डाका डालने और पुलिस वालों को लिफ्ट देने के लिए, किसी को अस्पताल ले जाते थे तो केवल यह मालूम करने के लिए ले जाते थे कि जिंदा है या मर गया, क्योंकि बड़े अस्पताल में उन्हीं मरीजों को दाखिला मिलता था जो पहले उसी अस्पताल के किसी डाक्टर के प्राइवेट क्लीनिक में Preparatory इलाज करवा के अपनी हालत इतनी खराब कर लें कि उसी डाक्टर के माध्यम से अस्पताल में आखिरी मंजिल आसान करने के लिए दाखिला मिल सके। वैसे तो मरने के लिए कोई भी जगह अनुचित नहीं, परंतु प्राइवेट अस्पताल और क्लीनिक में मरने का सब से बड़ा फायदा यह है कि मरने वाले की जायदाद, जमा-जत्था और बैंक-बैलेंस के बंटवारे पर मृतक के संबंधियों में खून-खराबा नहीं होता, क्योंकि वो सब डाक्टरों के हिस्से में आ जाता है। अफसोस! शाहजहां के समय प्राइवेट अस्पताल न थे। वो उनमें दाखिल हो जाता तो आगरा किले में इतने लंबे अर्से तक कैद रहने और ऐड़ियां रगड़-रगड़ कर जीने से साफ बच जाता और उसके चारों बेटे तख्तनशीनी की जंग में एक-दूसरे के सर काटने के जतन में सारे हिंदुस्तान में आंख-मिचौली खेलते न फिरते, क्योंकि फसाद की जड़ यानी राज्य और खजाना तो बिल अदा करने में अत्यंत शांतिपूर्ण ढंग से जायज वारिसों यानी डाक्टरों के पास चला जाता। बल्कि सत्ता परिवर्तन के लिए पुरानी एशियाई परंपरा यानी बादशाह के मरने की भी आवश्यकता न रहती। इसलिए कि जीते-जी तो हर शासक इंतकाले-इक्तिदार (सत्ता-परिवर्तन) को अपना जाती इंतकाल (निजी मृत्यु) समझता है।

बिलों की वसूली के सिलसिले में वो कई बार साइकिल रिक्शा में भी गये, लेकिन हर बार तबियत भारी हुई। पैडल रिक्शा चलाने वालों को अपने से दुगनी सवारी ढोनी पड़ती थी, जबकि खुद सवारी को इससे भी जियादा भारी बोझ उठाना पड़ता था कि वो अपने जमीर से बोझों मरती थी। हमारे विचार में आदमी को आदमी ढोने की इजाजत सिर्फ दो सूरतों में मिलनी चाहिये, प्रथम तो उस समय जब दोनों में से एक मर चुका हो, दूसरे इस सूरत में जब दोनों में से एक उर्दू आलोचक हो, जिस पर मुर्दे ढोना फर्ज ही नहीं रोजी का साधन और शोहरत का कारण भी हो।


आत्महत्या , गरीबों की पहुंच से बाहर

एकाध बार खयाल आया कि बसों में धक्के खाने और स्ट्रिपटीज करवाने से तो बेहतर है कि आदमी मोटरसाइकिल खरीद ले। मोटरसाइकिल रिक्शा का सवाल ही पैदा नहीं होता था इसलिए कि तीन पहियों पर आत्महत्या का यह सरल और शर्तिया तरीका अभी ईजाद नहीं हुआ था। उस जमाने में आम आदमी को आत्महत्या के लिए तरह-तरह की मुसीबतें और खखेड़ उठानी पड़ती थीं। घरों का यह नक्शा था कि एक-एक कमरे में दस-दस आदमी इस तरह ठुंसे होते कि एक-दूसरे की आंतों की आवाज तक सुन सकते थे। ऐसे में इतना एकांत कहां नसीब, कि आदमी फांसी का फंदा कड़े में बांध कर अकेला शांति से लटक सके। इसके अतिरिक्त कमरे में सिर्फ एक ही कड़ा होता था, जिसमें पहले ही एक पंखा लटका होता था। गर्म कमरे के वासी इसकी जगह किसी और को लटकने की अनुमति नहीं दे सकते थे। रहे पिस्तौल और बंदूक, तो उनके लिए लाइसेंस की शर्त थी जो सिर्फ अमीरों, वडेरों और अफसरों को मिलते थे, सो आत्महत्या करने वाले रेल की पटरी पर दिन-दिन भर लेटे रहते क्योंकि ट्रेन बीस-बीस घंटे लेट होती थी। आखिर गरीब मौत से मायूस हो कर कपड़े झाड़ कर उठ खड़े होते।

मोटरसाइकिल में बिशारत को सबसे बड़ी खामी यह नजर आई कि मोटरसाइकिल वाला सड़क के किसी भी हिस्से पर मोटरसाइकिल चलाये, महसूस यही होगा गलत जगह चला रहा है। ट्रैफिक की दुर्घटनाओं पर रिसर्च करने के बाद हम भी इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि हमारे यहां, पैदल चलने और मोटर साइकिल चलाने वाले का सामान्य स्थान ट्रक और मिनी बस के नीचे है। दूसरी मुसीबत यह कि हमने आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो पांच साल से मोटरसाइकिल चला रहा हो और किसी दुर्घटना में हड्डी-पसली न तुड़वा चुका हो। मगर ठहरिये, खूब याद आया, एक व्यक्ति बेशक ऐसा मिला जो सात साल से किसी दुर्घटना का शिकार हुए बिना मोटर साइकिल चला रहा था। लेकिन वो सिर्फ मौत के कुएं में (well of death) में चलाता था। तीसरी समस्या उन्हें यह नजर आई कि मेनहोल बनाते समय म्यूनिसिपल कॅारपोरेशन दो बातों का लिहाज अवश्य रखती है, पहली तो यह कि वो हमेशा खुले रहें ताकि ढकना देख कर चोरों और उचक्कों को यह जिज्ञासा न हो कि न जाने भीतर क्या है। दूसरी, मुंह इतना चौड़ा हो कि मोटरसाइकिल चलाने वाला उसमें अंदर तक बिना किसी रुकावट के चला जाये। आसानी के साथ, तेज रफ्तारी के साथ, पीछे बैठी हुई सवारी के साथ।


गधा बीती

संभवतः आपके मन में यह प्रश्न उठे कि जब हर सवारी के गुणों-अवगुणों पर बाकायदा गौर और आप से मशवरा किया गया तो गधा और गधागाड़ी को क्यों छोड़ दिया। एक कारण तो वही है जो सहसा आपके दिमाग में आया, दूसरा ये कि जब से हमने गधे पर चेस्टरटन की जबरदस्त कविता पढ़ी, हमने इस जानवर पर हंसना और इसे तुच्छ समझना छोड़ दिया। ग्यारह वर्ष लंदन में रहने के बाद हम पर स्पष्ट हो गया कि पश्चिम में गधे और उल्लू को गाली नहीं समझा जाता। विशेष रूप से उल्लू तो उच्च चिंतन तथा बुद्धिमानी का प्रतीक है। सर्वप्रथम तो यहां कोई ऐसा नहीं मिलेगा जिसे सही अर्थों में उल्लू कह दिया जाये तो वो अपने जामे बल्कि अपने परों में फूला नहीं समायेगा। लंदन के चिड़िया-घर में उल्लू के कुछ नहीं तो पंद्रह पिंजरे जुरूर होंगे। हर बड़े पश्चिमी देश का प्रतिनिधि उल्लू मौजूद है। हर पिंजरा इतना बड़ा, जितना अपने यहां शेर का होता है और हर उल्लू इतना बड़ा जितना अपने यहां का गधा। अपने यहां का उल्लू तो उनके सामने बिल्कुल ही उल्लू लगता है। इंग्लैंड में चश्मे बनाने वालों की सबसे बड़ी कंपनी Donald Aitcheson का प्रतीक चिह्न उल्लू है जो उनके साइन बोर्ड, लेटर हेड और बिलों पर बना होता है। इसी प्रकार अमरीका के एक बड़े स्टाक ब्रोकर का लोगो उल्लू है। यह महज सुनी सुनायी बात नहीं हमने खुद डोनाल्ड ऐचिसन की ऐनक लगा कर उसी स्टाक ब्रोकर की सलाह तथा भविष्यवाणी के अनुसार कंपनी शेयर्ज और बांड्ज के तीन-चार 'फारवर्ड' सौदे किये, जिनके बाद हमारी सूरत दोनों के प्रतीक चिह्न से मिलने लगी।

पूर्व राष्ट्रपति कार्टर की डेमोक्रेटिक पार्टी का निशान गधा था, बल्कि हमेशा से रहा है। पार्टी के झंडे पर भी यही बना होता है। इसी झंडे के नीचे पूरा अमरीका राष्ट्र ईरान के विरुद्ध सीसा पिलाई दीवार की भांति खड़ा रहा। हमारा मतलब है - एकदम संवेदनहीन, जड़। पश्चिम को गधे में कोई हास्यास्पद बात नजर नहीं आती। फ्रांसीसी चिंतक और निबंध लेखक मोंतेन तो इस जानवर के गुणों को इतना प्रशंसक था कि एक जगह लिखता है कि 'धरती पर गधे से अधिक विश्वसनीय, दृढ़-निश्चयी, गंभीर, संसार को तुच्छ समझने वाला और अपने ही ध्यान और धुन में मग्न रहने वाला अन्य कोई प्राणी नहीं मिलेगा।' हम एशियाई दरअस्ल गधे को इसलिए जलील समझते हैं कि इसमें कुछ मानवीय गुण पाये जाते हैं। मिसाल के तौर पर यह अपनी सहार और साहस से बढ़कर बोझ उठाता है और जितना जियादा पिटता तथा भूखों मरता है, उतना ही अपने मालिक का आज्ञाकारी और शुक्रगुजार होता है।


बेकार न रह

सवारियों के गुणों-अवगुणों पर इस बहस का उद्देश्य केवल यह दिखाना था कि बिशारत ने जाहिर यह किया कि वो खूब सोच-विचार के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि कार खरीदना कारोबारी जुरूरत से अधिक तर्कसंगत तकाजा है और अगर कार न खरीदी तो कारोबार ठप होगा सो होगा, तर्क का खून हो जायेगा और अरस्तू की आत्मा स्वर्ग में या जहां कहीं भी हैं, तड़प उठेगी। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी, उन्हें जिंदगी में किसी चीज की कमी शिद्दत से महसूस होने लगी थी जो दरअस्ल कार नहीं, स्टेटस-सिंबल था। जब कोई व्यक्ति दूसरों को आश्वस्त करने के लिए जोर-शोर से फलसफा और तर्क बघारने लगे तो समझ जाइये कि अंदर से वो बेचारा खुद भी ढुलमुल है और किसी ऐेसे भावुक नामाकूल निर्णय का बौद्धिक, तार्किक कारण ढूंढ़ रहा है, जो वो बहुत पहले ले चुका है। हेनरी सप्तम ने शादी रचाने के लिए पोप से संबंध तोड़ कर एक नये मजहब की शरुआत कर दी। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि इंग्लैंड के मजहब यानी चर्च आफ इंग्लैंड की बुनियाद एक तलाक पर रखी गयी थी। मिर्जा कहते हैं कि आज के युग में नये धर्म की ईजाद का इससे अधिक उचित कारण और हो भी नहीं सकता।


विधवा मेम की मुस्कुराहट की कीमत

बिशारत काफी अर्से से सेकेंड हैंड कार की तलाश में मारे-मारे फिर रहे थे कि एक दिन खबर मिली कि एक ब्रिटिश कंपनी के अंग्रेज अफसर की 6 सिलिंडर की बहुत बड़ी कार बिकाऊ है। अफसर का दो महीने पहले अचानक निधन हो गया था और अब उसकी जवान विधवा उसे औने-पौने ठिकाने लगाना चाहती थी। बिशारत ने विधवा को एक नजर देखते ही फैसला कर लिया कि वो उसकी कार को जिसे उन्होंने अभी तक दूर से भी नहीं देखा था, खरीद लेंगे। वो इस कंपनी को तीन साल से चीड़ के पैकिंग केस और लकड़ी सप्लाई कर रहे थे, कंपनी के पारसी चीफ एकाउटेंट ने कहा कि आप यह कार 3483 रुपये 10 आने 11 पाई में ले जाइये। हो सकता है पाठकों को यह रकम और आखिरी आने पाई तक की बारीकी अजीब लगे, मगर बिशारत को अजीब नहीं लगी, इसलिए कि यह वो रकम थी, जो कंपनी एक अर्से से इस बहाने से दबाये बैठी थी कि उन्होंने खराब खोखे सप्लाई किये। जिसके कारण चिन्योट और सियालकोट में बाढ़ के दौरान कंपनी के सारे माल की लुगदी बन गयी। बिशारत कहते थे कि मैंने बारह-बारह आने में चीड़ के खोखे सप्लाई किये थे, पनडुब्बी या नूह की नाव नहीं। कंपनी के खिसियाने अफसर Act of God का आरोप मुझ परेशान पर लगा रहे हैं।

खूबसूरत मेम ने जिसके विधवा होने से वो अप्रसन्न न थे, परंतु जिसे विधवा कहते हुए उनका कलेजा मुंह को आता था, यह शर्त और लगा दी कि तीन महीने बाद जब वो पानी के जहाज से लंदन जायेगी तो उसके सामान की पैकिंग के लिए मुफ्त क्रेट, कीलें और तुरखान साथ में सप्लाई करने होंगे। इस शर्त को उन्होंने न केवल स्वीकार किया बल्कि अपनी ओर से यह और बढ़ा दिया कि मैं रोज आपके बंगले पर आ कर आपकी और अपनी निगरानी में स्वयं पैकिंग कराऊंगा। बिशारत ने चीफ एकाउंटेंट से कहा कि कार बहुत पुरानी है, 2500 में मुझे दे दो। उसने जवाब दिया ठीक है, आप अपने खराब खोखों का बिल घटा कर 2500 कर दें। बिशारत ने मेम से गुहार लगाई कि कीमत बहुत जियादा है, कह सुन के कुछ कम करा दो। उसकी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए यह वाक्य और जोड़ दिया कि 'गरीब आदमी हूं सात-आठ बच्चे हैं। उनके अतिरिक्त तेरह भाई बहन मुझसे छोटे हैं।'

यह सुनते ही मेम के चेहरे पर आश्चर्य, सहानुभूति और प्रशंसा का मिला-जुला भाव आया, कहने लगी

"Oh! my dear! I see what you mean. Your parents too were poor but passionate"

इस पर उन्हें बहुत क्रोध आया। उत्तर में कहना चाहते थे कि तुम मेरे बाप तक क्यों जाती हो? लेकिन इस वाक्य की अंग्रेजी नहीं बनी और जो अनुवाद उनकी जबान पर आते-आते रह गया, उस पर खुद उन्हें हंसी आ गयी। उन्होंने उसी समय मन-ही-मन निर्णय किया कि अब कभी अपने बच्चों और भाई बहनों की संख्या बढ़ा चढ़ा कर नहीं बतायेंगे, राशन कार्ड बनवाते समय की बात अलग है। इतने में मेम बोली कि 'इन दामों यह कार महंगी नहीं। इससे अधिक तो मेरे पति के सागवान के ताबूत की लागत आई थी' इस पर सेल्जमैनशिप के जोश में बिशारत के मुंह से निकल गया कि 'मैडम आप आइंदा यह चीज हम से आधे दामों में ले लीजियेगा' मेम मुस्कुरा दी और सौदा पक्का हो गया। यानी 3483 रुपये, दस आने और ग्यारह पाई में कार उनकी हो गयी।

इस घटना का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि किसी ग्राहक के नाम का बिल बनाते तो यह लिहाज जुरूर रखते कि कम से कम कीमत पर माल बेचें ताकि कम से कम रकम डूबे और अगर कोई उनका बिल दिये बिना मर जाये और उसकी सुंदर विधवा से रकम के बदले कोई चीज लेनी पड़े तो कम से कम दामों में हाथ लग जाये।