खोया पानी / भाग 27 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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खान साहब ने अपने हाल पर मगरमच्छ के आंसू बहाये

खान साहब दिन में दो-तीन बार बिशारत को यह धमकी जुरूर देते कि 'एक पाई भी नहीं छोड़ूंगा, चाहे मुझे एक साल तुम्हारे यहां मेहमान रहना पड़े' अक्सर यह भी कान में डालते रहते कि कबाइली शिष्टाचार में अतिथि सत्कार के तकाजे कुछ और हैं। अगर आप अतिथि से यह पूछ बैठें कि तुम कब जाओगे और इस पर वो आपका खून न कर दे तो उसकी शराफत, गैरत और वल्दियत में संदेह होगा।

सुब्ह से शाम तक दोनों बारहसिंघे आपस में सींग फंसाये फुंकार मारते। अच्छे संबंधों का वास्ता, व्यापार की रीत-रस्म, रहम की अपील और एक-दूसरे से जुल्म और धांधली से बाज रहने की वार्निंग के अतिरिक्त कोई ओछा हथियार न था जो इस झगड़े में खुल कर इस्तेमाल न किया गया हो। उदाहरण के तौर पर खान साहब अपने अनपढ़ होने की दुहाई देते। उत्तर में बिशारत स्वयं को सीख लेने वाली दृष्टि से दिखाते कि शाइर हूं, बी.ए. हूं, फारसी पढ़ी है और लकड़ी बेच रहा हूं! खान साहब अपने बिजनेस में घाटे की बात करते, तो बिशारत कहते, अरे साहब! यहां तो सिरे से बिजनेस है ही नहीं, गिरह का खा रहे हैं। बिशारत तो खैर विधवा मेम के साथ अपनी फर्जी दरिद्रता और बहुसंतान की रिहर्सल कर चुके थे। लेकिन खान साहब भी आवश्यकता पड़ने पर अपने हाल पर मगरमच्छ के आंसू बहा सकते थे। एक दिन तो उनकी अदाकारी इतनी संपूर्ण थी कि सीधी आंख से एक सचमुच का आंसू श्रीलंका के नक्शे की भांति लटक रहा था। साइज भी वही। एक बार खान साहब ने अपनी फर्जी बेचारगी का तुरुप फेंका कि मेरे हिस्से की जमीनों पर चचा ने चौथाई शताब्दी से कब्जा कर रखा है। बिशारत ने इसको इस प्रकार काटा कि अपने पेट के अल्सर पर हाथ रख कर कहा कि वो इतनी ही मुद्दत से पेट की बीमारी से पीड़ित हैं। खाना नहीं पचता, पेट में दवा और हवा तक नहीं ठहरती। खान साहब बोले, 'ओ हो। पच्चीस बरस से पेट खराब है, आप तो पोतड़ों के मरीज निकले।' वैसे इन चोंचों में आम-तौर पर बिशारत ही का पल्ला भारी रहता, लेकिन एक दिन जब खान साहब ने आधी आंसू-भरी आंख (आधी इसलिए कि दूसरी आंख मुस्करा रही थी) से यह कहा कि मेरे तो पिता का भी देहांत हो चुका है तो बिशारत को अपने आदरणीय पर बहुत गुस्सा आया कि उन्हें भी इसी समय जीना था।

शब्दों के युद्ध में विजय किसी की भी

हो, शहादत सिर्फ सच्चाई की होती है

खान साहब किसी प्रकार रकम छोड़ने के लिए तैयार न थे। बिशारत ने तंग आकर यहां तक कहा कि कौन सही है, कौन गलत, इसे भूल जाइये, यह देखिये कि आपका हमारा व्यापार, व्यवहार आगे भी रहेगा, फिर कभी कसर निकाल लीजियेगा। खुदा न करे, यह आखिरी सौदा तो है नहीं। इस पर खान साहब बोले कि खान संग मर्जान खान ने मुझे नसीहत दी थी कि दोस्त से मिलो तो ऐसे मिलो जैसे आखिरी मुलाकात है। अब के बिछड़े फिर नहीं मिलेंगे और किसी से सौदा करो तो यह समझ के करो कि आखिरी सौदा है, दोबारा यह 'दल्ला' नहीं आने का। शेख सादी कहते हैं कि बावले से बावला कुत्ता भी यह उम्मीद नहीं रख सकता कि जिसे उसने काटा है वो खुद को फिर कटवाने के लिए दोबारा-तिबारा आयेगा।

एक बार बिशारत का स्वर कुछ कटु हो गया और उन्होंने बार-बार 'खान साहब! खान साहब' कहकर ताना दिया तो कहने लगे, 'देखो सेठ। गाली-गुफ्तार करनी है तो मुझे 'खान साहब' मत कहो, 'हाजी साहब' कहके गाली दो ताकि मुझे और तुम्हें दोनों को कुछ तो शर्म आये।

बिशारत ने उनके गले में बांहें डाल कर माथा चूम लिया।


अरबपति और कराची की पांच सौगातें

डूबी हुई रकमों की वसूली के सिलसिले में कराची के फेरों ने खान साहब को बहुभाषी बना दिया था। हमारा मतलब है - उर्दू, फारसी और गुजराती के अलावा चारों क्षेत्रीय भाषाओं में रवानी से गाली दे सकते थे। गाली की हद तक अपने शिकार का सम्मान उसकी मातृ-भाषा में बढ़ाते थे। अगर कहीं तंगी या झोल महसूस करते या संबोधित जियादा ही बेशर्म होता तो अंत में उसके ताबूत में पश्तो की ऐसी कील ठोकते कि कई पुश्तों के आर-पार हो जाती। इसमें शक नहीं कि जैसी कोक शास्त्रीय गालियां हमारे यहां प्रचलित हैं, उनके सामने अंग्रेजी और अन्य भाषाओं की गालियां फूलों की छड़ियां और बच्चों की गांउ-गांउ प्रतीत होती है जिससे कच्चे दूध की गंध आती है। आर.के. नारायण के नॉवल इंग्लैंड और अमरीका के पाठकों के लिए जो विशेष आकर्षण रखते हैं उसमें उन देसी गालियों का भी योगदान है, जिनका वो अंग्रेजी में शाब्दिक अनुवाद करके संवाद में बारूदी सुरंगें बिछाता चला जाता है। हमारी गालियों में जो अनोखापन, जोर आजमाइश, भौगोलिक-चित्रण, कामेच्छा कूट-कूट कर बल्कि साबुत-संपूर्ण भरी है, उसका सही-सही अनुमान हमें 1975 में दुबई में हुआ। वहां के गल्लादारी बंधुओं की गिनती अरब-अमीरात और मध्य-पूर्व के अरब-पतियों में होती थी। बल्कि यह कहना चाहिये कि अत्यंत अमीर अरब-पतियों में होती थी, क्योंकि अरब-पति तो वहां सभी होते हैं। अब्दुल वहाब गल्लादारी और अब्दुल लतीफ गल्लादारी जो अरब हैं और जिनकी मातृ-भाषा अरबी है, बेहतर शिक्षा और बदतर प्रशिक्षण के सिलसिले में कुछ अर्सा कराची रह चुके हैं। हमारे आश्चर्य की सीमा न रही जब हमने देखा कि वो किसी से खफा होते हैं, या किसी अरब से उनका झगड़ा होता है और कोई अरब ऐसा नहीं, जिससे उनका झगड़ा न हुआ हो तो अरबी बोलते-बोलते उर्दू में गाली देने लगते हैं, जो अरबी के पवित्र प्रकरण में और भी गलीज लगती है। अब्दुल लतीफ गल्लादारी का कहना है कि कराची की पांच चीजों का कम-से-कम इस दुनिया में तो जवाब नहीं। जड़ाऊ जेवरात, कव्वाली, बिरयानी, गाली और इत्र। 1983 में जब उनके बैंक और बिजनेस का दीवाला निकला तो जेवर, कव्वाली, बिरयानी और इत्र तो दुश्मनों के हिस्से में आ गये, अब सिर्फ पांचवीं चीज पर गुजारा है और यह दौलत समाप्त होने वाली नहीं, जितनी देते हैं, लोग उसकी सात-गुनी लौटा देते हैं।


कबाब परांठे और बड़ा शत्रु -वर्ग

खान साहब छल-कपट से दूर, मिलनसार और मुहब्बत वाले आदमी थे। बहस में कितनी ही गर्मा-गर्मी हो जाये, दिल में जरा मैल नहीं रखते थे। मजाक-मजाक में दोस्तों को छेड़ने और गुस्सा दिलाने में उन्हें बड़ा मजा आता। नाश्ते में तीन तरतराते परांठे और शामी कबाब खाने और लस्सी के दो गिलास पीने के बाद दिन-भर तंद्रा की स्थिति में अधखुली आंखों से दुनिया और दुनिया वालों को देखते रहते। यह कहना गलत न होगा कि पलकों को महज आंखें ढकने के लिए इस्तेमाल करते और कठहुज्जती का जवाब जम्हाई और डकार से देते। ऐसे बेहोशी लाने वाले नाश्ते के बाद आदमी एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग कर सकता है, 'स्ट्रीम आफ कान्शियसनेस' वाला नॉवल लिख सकता है, सरकार की पंचवर्षीय योजना बना सकता है, परंतु दिमागी काम नहीं कर सकता। न ढंग से बहसा-बहसी कर सकता है। खान साहब को दूसरे दिन यह याद नहीं रहता था कि कल क्या कहा था, इसलिए नये सिरे से हुज्जत आरंभ करते, जैसे इससे पहले इस समस्या पर कभी बात नहीं हुई। फैज के मिसरे में 'उल्फत' के बजाय हुज्जत जड़ दें तो उनके वारदात करने के ढंग पर एकदम पूरा उतरता है।

वो जब मिले हैं तो उनसे हर बार

की है 'हुज्जत' नये सिरे से

किसी से जियादा देर खफा नहीं रह सकते थे, शाइरी से नफरत के बावजूद अक्सर यह शेर पढ़ते परंतु कुछ शब्दों को इतना खींच या सिकोड़ कर पढ़ते कि मिसरा वज्न और बह्र से खारिज (बाहर) हो कर गद्य बन जाता :

इंसान को इंसान से कीना नहीं अच्छा

जिस सीने में कीना हो वो सीना नहीं अच्छा

और इस पर फर्माते कि मुसलमान से कीना रखना उस पर जुल्म है। इससे तो बेहतर है कि उसे कत्ल कर दिया जाये। यह भी गर्व से फर्माते कि हम तो आजाद कबाइली आदमी हैं, उर्दू तो हमने डूबी हुई 'रकमों' की वसूली के लिए व्यापारियों से लड़ाई-दंगे के दौरान सीख ली। नतीजा यह कि उनका सारा शब्दकोश शांति की स्थिति में बिल्कुल निकम्मा और नाकारा हो जाता था। राणा सांगा के शरीर की भांति उनकी लड़ाका उर्दू पर भी 72 घावों के चिह्न थे। उनकी उर्दू का विश्लेषण करने से पता चलता था कि कहां-कहां के और किस-किस राज्य के आदमी ने रकम दबायी है। उनकी जुबान से गुजराती, हैदराबादी और दिल्ली की करखंदारी जुबान के ठेठ शब्द सुन कर अनुमान होता था कि उनकी बहस और झगड़े के डांडे कहां-कहां मिलते हैं।


लोक लहजा

खान साहब की बातचीत और झगड़े की भाषा पर तो खैर रुपया लेकर न देने वालों की छाप थी, लेकिन बोलते अपने ही खरे, खनकते पश्तून स्वर में थे जो कानों को भला लगता था। इसके मुकाबले में बिशारत को अपना स्वर बिल्कुल सपाट और बेनमक लगता। पश्तून उर्दू स्वर में एक नर्म-सा संकोच और तेज-ओ-ताजा महक है जो किसी भारी-भरकम और द्विअर्थी बात को स्वीकार नहीं करती। यह कौंधता-ललकारता स्वर संदेहास्पद सरगोशियों का लहजा नहीं हो सकता, इसी तरह पंजाबी उर्दू में एक खुलापन, गर्मजोशी और घुलावट की अनुभूति होती है। उसमें मैदानी दरियाओं का पाट, धीरज और दिल-दरिया पार गमक है और सहज-सहज रास्ता बनाने के लिए अपनी लहरी कगार काट पर पूरा विश्वास। बिलूच स्वर में एक हूक-सी, एक हुमकती पहाड़ी गूंज और दिल को खींचने वाली सख्त कैफियत के अतिरिक्त एक चौकन्नापन भी है, जो कठोर पहाड़ और जलहीन रेगिस्तान अपने आजादों को बख्श देते हैं। सिंधी उर्दू-स्वर लहकता, लहराता, lyrical स्वर है। एक ललक, एक मेहराब लहर जो अपने-आपको चूम-चूम कर आगे बढ़ती है। उर्दू के क्षेत्रीय स्वरों में वो लोक-ठाठ, मिठास और रस-जस है, जिसका हमारे घिसे-पिटे टकसाली और शह्री स्वर में दूर-दूर पता नहीं मिलता, लोक-स्वर के समावेश से जो नया उर्दू स्वर उभरा है उसमें बड़ी ताजगी, लोच और समाई है।


'भरे हैं यहां चार सिम्तों से दरिया '

बहस और तकरार के मध्यांतर में खान साहब पैदल सैर को निकल जाते। कोहाट और बन्नू के दस-पंद्रह भक्त जो सारे दिन वास्कटों में पिस्तौल रखे, बाहर प्रतीक्षा में बैठे होते, उनकी अर्दली में चलते। ये उनके कमांडोज थे जो उनकी कटी हुई उंगली के आधे इशारे पर अपनी कमर से बारूद बांध कर किसी भी प्रकार का खतरा मोल लेने को तत्पर रहते थे। खान साहब ने उनके लेटने, बैठने और खातिरदारी के लिए बाहर तीन चारपाइयां और काबुली समोवार रखवा दिया था। उसमें दिन-भर चाय उबलती रहती, जिसके निकास के लिए बिशारत को टीन की नालीदार चादरों का एक अस्थायी टायलेट बनवाना पड़ा। इसमें वो यूज्ड ब्लाटिंग पेपर रखवा देते थे। लोगों ने कच्ची रोशनाई की शिकायत की तो उन्होंने पिछले दिन का अखबार रखवाना शुरू कर दिया, जो हर सरकार का तरफदार रहा था। अब यह टायलेट पेपर के तौर पर उपयोग किया जाने लगा। इसमें कम-से-कम अखबार के साथ जियादती नहीं थी। दिन भर गप्पें, चुहलें और वज्न उठाने के मुकाबले होते रहते। जवान अपने रोजगार, खेल-कूद, महंगाई, सिनेमा, खाने-पीने और निशानेबाजी की बातें करते, जबकि अधेड़ उम्र वाले जियादा चीनी की चाय और गंदे लतीफों से खुद को रीचार्ज करते रहते। दोनों की गर्मी से घड़ी-भर के लिए गुलाबी बुढ़ापे की ठिरक दूर हो जाती तो ठरक सर पे चढ़ के ऐसी दीवानी बातें करने लगती कि जवान सुन के शर्मा जाते। जिसकी मूंछ में जितने अधिक सफेद बाल होते या कमर जितनी अधिक झुकी होती, उसका लतीफा उतना ही दूर-मार और नशीला होता।

खान साहब को कभी कोई जियादा ही मजेदार किस्सा सुनाना होता तो कल्ले में गुड़ या मिश्री की डली दबा कर सी-सी-सी करते हुए चाय पीते जाते। झूमते हुए कहते, यारा जी! समरकंद और फर्गाना में इसी तरह पी जाती है।

फुर्सत का सारा समय खान साहब कराची और कराची वालों को देखने और जो कुछ देखते उस पर लानत भेजने और भिजवाने में गुजारते। कहते थे कराची में सांस लेने के लिए भी खुद कोशिश करनी पड़ती है। कबाइली इलाके की हवा हल्की और शफ्फाक (प्रदूषण रहित) होती है अपने-आप गोली की तरह अंदर दाखिल हो जाती है, खास-तौर पर जाड़े में। सुब्ह रेडियो कह रहा कि हवा में नमी का प्रतिशत 90 है, इसका मतलब तो यह हुआ कि कराची में दूध वाले हवा में सिर्फ दस प्रतिशत मिला कर दूध बना लेते हैं। आप जिन अवसरों पर नारे, शेर और वजीफे पढ़ने लगते हैं, वहां हम ठांय से गोली मार देते हैं। मैं इतने दिन से यहां हूं, शहर के एक आदमी के हाथ में बंदूक नहीं देखी। हमारे यहां तो निकाह के वक्त भी पिस्तौल साथ रखते हैं कि पता नहीं मेहर पर गोली की नौबत कब आ जाये। किसी-किसी दुल्हन का बाप और रिश्तेदार एकदम खबीस, कंजूस, वाहियात और बेहूदा निकलता है। मैं तो एहतियात के तौर पर छोटी मशीनगन ले गया था, उससे मेरे मामू ने 1937 में खैसूरा के पास कतूरी खैल इलाके में एक पहाड़ी खोह से तीन गोरे मार गिराये थे, जिनमें एक कप्तान था। उसकी सूरत बुलडाग जैसी थी। उस सुअर के बच्चे ने फकीर ऐपी के अनगिनत मुरीद (भक्त) शहीद किये थे। मामू ने उसके कान और नाक काट कर चील कौओं को खिला दिये। दूसरे गोरे की जेब से, जो मामूली सिपाही था, उसकी झुकी हुई कमर वाली बूढ़ी मां और एक साल की बड़ी प्यारी-सी बच्ची के फोटो निकले। बच्ची के हाथ में गुड़िया थी। फोटो देख कर मेरा मामू बहुत रोया। लाश के हाथ पर से जो सोने की घड़ी उसने उतार ली थी, वो वापस बांध दी। लाश को छांव में रखकर वापस जा रहा था कि थोड़ी ही दूर चल कर कुछ खयाल आया। वो पल्टा और अपनी चादर उतार के उस पर डाल दी।

तो मैं यह कह रहा था कि मैं मामू की मशीनगन से लैस हो कर गया था। बच्चों, काजी और नाई के अलावा कोई और निहत्था नहीं था। ठीक निकाह के समय लड़की वाले पसर गये। कहने लगे कि मेहर एक लाख का होगा। इस पर मामू झगड़ा करने लगा, वो शरई (धार्मिक कानून के अनुसार) मेहर यानी पौने तीन रुपये भर चांदी पर अड़ा था, जिसका कीमत उस समय तेरह रुपये साढ़े पांच आने थी। कबीले के एक बुद्धिमान बुजुर्ग ने सुझाव पेश किया कि कुछ लड़की वाले कम करें, कुछ लड़के वाले मेहर बढ़ायें। दोनों पार्टियां औसत रकम पर समझौता कर लें। इस पर एक और बुद्धिमान बोला, सरदार! होश करो, तेरह रुपये साढ़े पांच आने और एक लाख के बीच कोई औसत रकम नहीं होती। ऐसे में औसत तलवार से निकलता है।

राड़-रौला बढ़ा तो मैंने सेहरा हटा कर जोर से कहा, मैं तो पांच लाख का मेहर बांधूंगा, इससे कम में मेरे खानदान की बेइज्जती होगी। ये सुन कर मामू सन्नाटे में आ गया। मेरे कान में कहने लगा 'क्या तू आज पोस्त पी के आया है? पांच लाख में तो कलकत्ते की गौहर जान और एक सौ एक रंडियों का नाच हो सकता है।' मैंने कहा, 'मामू! तू बीच में मत बोल! तूने जिंदगी में बायीं आंख मींच कर दायीं आंख से राइफल का निशाना बांध कर सिर्फ अपने दुश्मन को देखा है या फिर कलदार रुपयों पर क्वीन विक्टोरिया का चेहरा देखा है। तूने दुनिया नहीं देखी, न तुझे मर्दों की आन का कुछ खयाल है, अगर मुझे देना ही नहीं है तो बड़ी रकम मारूंगा। छोटी रकम मारना जलीलों और दय्यूसों का काम है।

मुझे आये इतने दिन हो गये, कराची में एक भी दंगा फसाद नहीं हुआ, क्या यहां रिश्तेदार नहीं रहते? क्या यहां सब एक दूसरे को अनाथ, लावारिस समझ के माफ कर देते हैं? परसों की बात है मैं एक दोस्त से मिलने लांडी गया था। बस-कंडक्टर ने मेरी रेजगारी नहीं लौटायी। मैंने उतरते समय गाली दी तो सुनी-अनसुनी कर गया। मैंने दिल में कहा, 'बदबख्ता! मैंने गाली दी है, नसीहत तो नहीं दी, जो यूं एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दी।'

इस लतीफे के बाद बड़ी देर तक उनके हल्क से कमजोर बैट्री वाली कार को बार-बार स्टार्ट करने की आवाजें निकलती रहीं और शरीर जेली की तरह थुलथुलाता रहा।

परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि खान साहब को कराची बिल्कुल पसंद नहीं आया। कहते थे कराची में अगर कराची वाले नहीं हों और समुद्र डेढ़ दो सौ मील परे हट जाये तो ट्रक और घोड़े दौड़ाने के लिए शहर बुरा नहीं। कराची के कुछ हिस्से उन्हें बेहद पसंद आये। ये कच्ची बस्तियों के वो इलाके थे, जो तहसील कोहाट जैसे लगते थे और जहां एक जमाने में उनकी जवानी ने, उनके कहे अनुसार पूरी तहसील को अपनी लपेट में ले लिया था।


यार जिंदा, फजीहत बाकी

बिशारत और खान साहब के बीच हुज्जत और तकरार सिर्फ दफ्तरी समय यानी 9 से 5 के बीच होती, जो हार-जीत का फैसला हुए बिना कल तक के लिए टल जाती, ताकि ताजा-दम हो कर झगड़ सकें।

सुल्ह है इक मुहलते-सामाने-जंग

करते हैं भरने का यां खाली तुफंग

सुना है पुराने जमाने में पड़ोसनें इसी तरह लड़ती थीं, लड़ते-लड़ते गला बैठ जाता और शाम पड़ते ही वो मर्द घर लौटने लगते जिन पर गालियां पड़ती रहीं, तो दोनों मकानों की सरहद अर्थात सांझी दीवार पर एक हांडी उल्टी करके रख दी जाती थी, जिसका मतलब यह होता था कि अंधेरे के कारण अस्थायी गाली-बंदी हो गयी है। कल फिर होगी। बात यह कि जब तक दूसरे पक्ष का चेहरा दिखाई न पड़े, गाली में Third dimension पैदा नहीं होती। जिस दुकान में हर समय झगड़े और दंगल का माहौल हो और बाहर एक पक्ष के दस-पंद्रह मुस्टंडे हिमायती समोवार के गिर्द पड़ाव डालें हों, उसके ग्राहक बिदकें नहीं तो और क्या करें। बकौल हमारे पहले उस्ताद मौलवी मुहम्मद इस्माईल मेरठी के, जिनकी 'रीडर' से हमने बचाव और फरार का पहला पाठ पढ़ा -

जबकि दो मूजियों में हो खट-पट

अपने बचने की फिक्र कर झट-पट

कोई ग्राहक मारे बांधे ठहर भी जाता तो खान साहब उसके सामने अपनी डूबी हुई रकम को इस तरह याद करते कि वो क्षमतानुसार डर कर या रुआंसा हो कर भाग जाता।

बहसा-बहसी का प्रभाव खान साहब की सेहत पर अत्यंत रोचक सिद्ध हुआ। उनकी जुबान और भूख दिन-प्रतिदिन खुलती जा रही थीं। वो किसी तौर लकड़ी की कीमत कम करने को तैयार नहीं थे, इसलिए कि घर में उन्हें इतने ही की पड़ी थी। उधर बिशारत बार-बार कहते 'पहले तो लकड़ी दागी और गुट्ठल थी, उस पर तेज से तेज आरी खुट्टल हो गयी। दूसरे, सीजन भी नहीं हुई थी। कई तख्तों में बल आ गया था। कोई बेदाग नहीं निकला। तीसरे, छिजत (काट-छांट या लादने उतारने से माल में आई कमी) बहुत हुई। चौथे, जगह-जगह कीड़ा लगा हुआ था।'

खान साहब ने लुक्मा दिया 'पांचवें, यह लकड़ी चोरी हो गयी। यह भी मेरा ही कुसूर है। छठे, यह कि हमने आपको लकड़ी दी थी, लड़की तो नहीं दी कि आप उसके दहेज में हजार कीड़े निकालने बैठ जायें। आप तो पान खा-खा के बिल्कुल जनानियों की तरह लड़ने लगते हैं।'

बिशारत ने 'जनानों' सुना और समझा। तड़ से जवाब दिया 'आप भी तो काबुली वाला से कम नहीं।'

'यह क्या होता है सैब?'

बिशारत ने काबुली वाला का मतलब बताया तो वो आग-बगूला हो गये। कहने लगे 'हमारे कबीले में आज तक किसी ने सूद लिया, न सूद दिया। सुअर बराबर समझते हैं, जबकि आप खुलेआम सूद देते भी हैं और खाते भी हैं। आपके घर का तो शोरबा (सालन का रसा) भी हराम है। उसमें आधा पानी, आधी मिर्चें और आधा सूद होता है। अगर आइंदा यह शब्द मुंह से निकाला तो ठीक न होगा।'

यह कह कर उन्होंने क्रोध से मेज पर इतने जोर से मुक्का मारा कि उस पर रखे हुए कप, चम्मच, पिन और तले हुए मटर हवा में एक-एक बालिश्त ऊंचे उछले और मेज पर रखे हुए टाइम पीस का अलार्म बजने लगा। फिर उन्होंने मुंह से तो कुछ नहीं कहा, अपने टर्किश कोट की जेब से भरा हुआ रिवाल्वर निकाल कर मेज पर रख दिया। मगर थोड़ी देर बाद नाल का मुंह फेर कर अपनी ओर कर लिया।

बिशारत सहम गये। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि जहर में बुझे हुए इस तीर को जो न सिर्फ कमान से निकल चुका था बल्कि प्यारे मेहमान के सीने में उतर चुका था, अब कैसे वापस लायें। खान साहब ने उसी समय अपने एक कमांडो को हुक्म दिया कि तुरंत जाकर पेशावर का टिकट लाओ। दोपहर का खाना भी नहीं खाया। बिशारत मिन्नतें करते रहे। खान साहब बार-बार बिफर कर दफ्तर से बाहर जाते, मगर इस अंदाज से कि हर कदम पर