खोया पानी / भाग 28 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुड़ के तकते थे कि अब कोई मना कर ले जाये

बिशारत ने चार बजे उनके पैर पकड़ लिए तो वो घर चलने के लिए इस शर्त पर राजी हुए कि पहले अपने हाथ से मुझे पान खिलाओ लेकिन इसके बाद खान साहब के रवैये में एक अच्छा बदलाव आ गया। बिशारत तो खैर अपने कहे पर लज्जित थे बल्कि अंग्रेजी मुहावरे के अनुसार अपने ही पानी में डूबे जा रहे थे, परंतु खान साहब भी अपनी तीव्र प्रतिक्रिया पर कुछ कम लज्जित न थे। तरह-तरह से भरपायी करने का प्रयास करते। मिसाल के तौर पर बिशारत कभी उदास या बुझे नजर आते या घमासान की बहस में अचानक मैदान छोड़ कर भाग जाते कि खान साहब डान क्योटे की तरह अकेले हवा में तलवार चलाते रह जाते, तो ऐसे अवसर पर वो एक अजीब दिलकश अदा से कहते 'हुजूरे-वाला! काबुली वाला को तलब हो रही है, पान खिलाइये' उन्होंने इससे पहले पान कभी चखा तक नहीं था। बिशारत शर्म से जमीन में गड़ जाते। कभी कुछ खिसियाने, कभी Mock-serious अंदाज से हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते, कभी घुटने छूते और कभी यूं भी होता कि खान साहब उनके हाथ चूम कर आंखों से लगा लेते।


पलंग जेब खान

शाम को वो खुले आंगन में पलंग बिछा कर उस पर मच्छरदानी लगवाते। कुछ दिनों से कुर्सी पर बैठना छोड़ दिया था। बिशारत से कहते थे कि तुमने मेहमान की शलवार के लिए कीलों को नंगा छोड़ रखा है। अपने पलंग से कुछ फासले पर मिलने आने वालों के बैठने के लिए चार चारपाइयां मच्छरदानी के साथ बिछवाते। कहते थे अगर फ्रंटियर के बिच्छुओं के पर लग जायें तो कराची के मच्छर बन जायेंगे। सारी बहस बैठे-बैठे होती। हां, किसी को तकरीर के दौरान जोश आ जाता तो वो मच्छरदानी इस तरह हटाता जैसे दूल्हा निकाह के बाद सेह्रा उलट देता है। कराची की दूर-दराज बस्तियों से उनके पठान दोस्तों, गिरांईं और भक्तों के समूह मिलने आते। उनकी आवभगत ऐसे करते, मानों यह सब अपने ही घर में हो रहा है। देर रात तक तामचीनी की नीली छींट वाली प्लेटें और हुक्के घूमते रहते। चाय के रसिया उबलती चूरा चाय में मर्दान के गुड़ के अतिरिक्त खशखश का बूरा भी डलवाते। जो भी आता खान साहब के लिए कुछ न कुछ भेंट अवश्य लाता। अखरोट, चिलगोजे, पेशावर के काले गुलाब-जामुन, शहद के छत्ते और डेरा इस्माईल खान का सफेद तंबाकू, कराकुली और जवान असील मुर्ग जिन्हें खान साहब बड़े शौक से खाते थे। दिन भर घर में दर्जनों असील मुर्गे छूटे फिरते। सुर्ख सीमेंट के फर्श पर हरी बीट और भी खलती थी (इसे 'खिलती' पढ़ें तब भी मजा देगी।) जो मुर्ग बेवक्त या जियादा जोर से अजान देता, उसे खान साहब सबसे पहले जिबह करते। एक दिन एक नौजवान गलती से मुर्गी दे गया, सुब्ह सारे मुर्गे आपस में बड़ी खूंखारी से लड़े। यह पहला अवसर था कि मुर्गे किसी स्पष्ट और उचित उद्देश्य के लिए लड़े वरना रोज अकारण ही एक-दूसरे बल्कि तीसरे पर भी झपटते और कटते-मरते रहते। कोई उन्हें लड़ने से दूर रखने की कोशिश नहीं करता था, इसलिए कि जब वो आपस में नहीं लड़ते थे तो घर वालों को काटने लगते। इकलौती मुर्गी पर लड़ कर वो ऐसे लहूलुहान हुए कि सुब्ह अजान देने के लायक भी न रहे। दड़बे में चुपके पड़े, मुल्ला की अजान सुनते रहे।

खान साहब इतवार को सारे दिन पलंग पर आधे लेट कर कबाइली झगड़ों और बन्नू तथा कोहाट की जमीनों के फैसले करते। अब वो औरंगजेब खान की बजाय पलंगजेब खान जियादा लगते थे। हां, रात को फर्श पर सोते। कहते थे कि इससे अहंकार और कमर का दर्द दूर होता है। हमारे फ्रंटियर में जाड़े में शौकीन लोग पयाल (बारीक सूखी घास) पर सोते हैं। पयाल से जंगलों और पहाड़ों की खुशबू आती रहती है। जिस आदमी को जंगल की खुशबू आती और भाती रहे वो कभी की किसी की गुलामी स्वीकार नहीं करेगा।

एक दिन यानी इतवार को लंच के बाद नमाज अदा करते। अगर खाना बदमजा होता या मिर्चें जियादा होतीं तो मूड बिगड़ जाता। नमाज छोड़ देते। कहते कि दिल का हाल जानने वाले के सामने मुझसे तो झूठ नहीं बोला जाता। किस दिल से बारह बार 'अल्हम्दुलिल्लाह' (अल्लाह तेरा शुक्र है) कहूं? कमरे में बहस और गीबत (पीठ पीछे बुराई करना) की महफिल उसी तरह गर्म रहती और वो अकेले एक कोने में जानमाज बिछा कर नमाज के लिए खड़े हो जाते मगर कान इसी तरफ लगे रहते। नमाज के बीच भी कोई व्यक्ति आपस में ऐसी बात कह देता जो खान साहब के स्वभाव या उद्देश्य के विरुद्ध होती तो तुरंत सिजदे की हालत में हों तब भी, नमाज तोड़ कर उसे पश्तो में गाली देते और फिर से उसी तरफ कान लगा कर नमाज पढ़ने लगते।

नमाज के बाद कुर्ता उतार कर पसरा करते। अधिकतर बनियानों में बड़े-बड़े छेद हो गये थे। कहते थे क्या करूं, मेरे साइज का बनियान सिर्फ रूस से स्मगल हो कर आता है। कभी-कभार लंडी कोतल में मिल जाता है तो ऐश आ जाते हैं। कोई-कोई बनियान तो इतना खूबसूरत होता है कि कुर्ते के ऊपर पहनने को जी चाहता है। खान साहब गहरी सांस लेते या हंसी का दौरा पड़ता तो चवन्नी बराबर सूराख फैल कर पिंग-पोंग की गेंद के बराबर हो जाते। इन फैलती सुकड़ती झांकियों में से बदन घटते-बढ़ते फोड़ों की तरह उबला पड़ता था। कैसी भी गर्मी हो, कुर्ता उतारने के बाद भी कुलाह नहीं उतारते थे। कहते थे, जब तक कुलाह सर पर है, बंदा खुद को नंगा और बेहया महसूस नहीं करता। अंग्रेज इसलिए तो औरतों को देखते ही हैट उतार देते हैं।

एक रात उपस्थित-गणों की चारपायी ओवर-लोडिंग की वज्ह से दस-बारह सवारियों समेत बैठ गयी। पांच-छः मिनट तक वो मच्छरदानियों और बानों के जाल से खुद को आजाद न करा सके। उसके अंदर ही मछलियों की तरह एक-दूसरे पर छलकते, फुदकते, कुलबुलाते रहे। चारपायी का एक पाया, पट्टी और एक कोहाटी खान की कलाई टूट गयी। जैसे ही यह मालूम हुआ कि कलाई टूट गयी है उस कोहाटी खान ने शुक्र अदा किया कि खुदा ने बड़ी खैर की, घड़ी बच गयी। दूसरे दिन औरंगजेब खान ने अपने कमरे में चांदनी बिछवा दी और अपने बिस्तर को गोल करके गाव-तकिया बना लिया। यह चांदनी (चादर) उन मुशायरों के लिए आरक्षित थी जो बिशारत के यहां हर इतवार के इतवार बड़ी पाबंदी से होते थे। खान साहब भी दो मुशायरों में शरीक हुए। शेर में जरा भी ऐंच-पेंच होता तो पास बैठने वाले से पूछते कि ये कहना क्या चाहता है? वो फुसफुसा कर मतलब बयान कर देता तो जोर से कहते, 'लाहौल विला कुव्वत।'


फटी चांदनी और इजाफत -खोर शाइर

(इजाफत का शाब्दिक अर्थ है संबंध, फारसी में दो शब्दों को मिलाने वाला चिन्ह जैसे शामे-गम इसमें 'ए' इजाफत है)

दूसरे मुशायरे के बाद खान साहब ने बड़ी हैरत से पूछा, 'क्या यहां हर बार यही होता है?' जवाब मिला, 'और क्या!' बोले, 'खुदा की कसम! इस चांदनी पर इतना झूठ बोला गया है कि इस पर नमाज जायज नहीं! ऐसे झूठे शायर की मैय्यत (शव) को तो हुक्के के पानी से नहलाना चाहिये ताकि कब्र में कम-से-कम तीन दिन तक तो पूछ-ताछ करने वाले फरिश्ते न आयें। चांदनी पर जहां-जहां शाइरों ने सिग्रेट बुझाये थे, वहां-वहां छोटे-छोटे सूराख हो गये थे, जिन्हें बाद में शेर कहने और दाद देने के दौरान उंगली डाल-डाल कर बड़ा किया गया था। चांदनी कई जगह से फट भी गयी थी। खान साहब के लिए शाइरों का इतनी बड़ी संख्या में इकट्ठा होना एक अजूबे से कम न था। कहने लगे, अगर कबाइली इलाके में किसी आदमी के घर के सामने ऐसा जमघट लगे तो इसके दो कारण होते हैं, या तो उसके चाल-चलन पर जिरगा बैठा है या उसका बाप मर गया है।

कभी कोई शेर पसंद आ जाये, हालांकि ऐसा कभी-कभार ही होता था, तो 'वई!' कह कर आनंद से आंखें बंद कर लेते और झूमने लगते। शायर वो शेर दोबारा पढ़ने लगता तो उसे हाथ के इशारे से रोक देते कि इससे उनके आनंद में बाधा पड़ती थी।

एक दिन एक नौजवान शाइर ने दूसरे से पूछा कि तुमने मेरी जमीन में गजल क्यों कही? उसने कहा, सौदा की जमीन है, तुम्हारे बाप की नहीं। उस शायर ने यह आरोप भी लगाया गया कि वो इजाफत बहुत खाता है। इस पर दोनों में बहस हो गयी। शुरू में तो खान साहब की समझ में ही न आया कि झगड़ा किस बात का है। अगर खेत, मकान का झगड़ा है तो जबानी क्यों लड़ रहे हैं। हमने जब रदीफ, काफिये और इजाफत का मतलब समझाया तो खान साहब दंग रह गये। कहने लगे 'लाहौल विला मैं तो जाहिल आदमी हूं। मैं समझा, इजाफतखोर शायद रिश्वत या सुअर खाने वाले को कहते हैं। फिर सोचा, नहीं! बाप को गाली दी है, इस पर लड़ रहे हैं। फर्जी जमीनों पर जूतम-पैजार होते हमने आज ही देखी। क्या ये अपनी औलाद के लिए यही जमीनें विरासत में छोड़ के मरेंगे कि बर्खुरदारो! हम तो चले, अब तुम इन पुश्तैनी जमीनों की चौकीदारी करना। इनमें काफियों की पनीरी लगाना और इजाफतों का मुरब्बा बना के खाना। पश्तो में इसके लिए बहुत बुरा शब्द है।'

न हुई गालिब अगर उम्र तबीई न सही

उन्हें खुशी के आलम में बार-बार गाते, गुनगुनाते भी देखा। लहराती, गटकरी लेती आवाज में तंबूरे के तार का सा खरज का एक अचल सुर भी था, जो कानों को अच्छा लगता था। अपने जमाने में राग-रंग के रसिया रह चुके थे अर्थात संगीत का इस हद तक ज्ञान था कि यह अच्छी तरह जानते थे कि खुद बेसुरा गाते हैं। अक्सर कहते कि हमारे यहां सुशील, सज्जन व्यक्तियों में अच्छा गाने को ऐब समझा जाता है। मैं बिगाड़ के गाता हूं। शुद्ध गायकी को सिर्फ गायकों, तवायफों, मीरासियों और नाचने वाले सुंदर लड़कों के केस में क्षमायोग्य समझते थे। उन्हें अनगिनत टप्पे याद थे मगर एक पश्तो गीत उनका फेवरेट था। उसका मुखड़ा कुछ इस तरह था कि देख दिलदारा! मैंने तेरी मुहब्बत में प्रतिद्वंद्वी को नंगी तलवार से कत्ल कर डाला। कानों पे हाथ रख कर 'या कुर्बान!' अलाप के बाद जिस अंदाज से वो गाते थे, उससे तो यही टपकता था कि उन्हें जो आनंद कत्ल में प्राप्त हुआ, मिलन में उसका अंश मात्र भी न मिला। इस बोल की अदायगी वो ऐसे पहलवानी जोश और अधाधुंध ढंग से करते कि शलवार में हवा भर-भर जाती।

कहते थे कि दुश्मनी और इंतकाम के बिना मर्द का जीवन निरुद्देश्य, अप्राप्त और फिजूल हो कर रह जाता है।

एक न एक दुश्मन अवश्य होना चाहिये, इसलिए कि दुश्मन न होगा तो इंतकाम किससे लेंगे? फिर बरसों मुंह अंधेरे कसरत करने, बाल्टियों दूध पीने और तकिये के नीचे पिस्तौल रख कर सोने से क्या लाभ? सारे पुश्तैनी और कीमती हथियार बेकार हो जायेंगे। नतीजा यह कि शेर-दिल लोग सम्मान-जनक मृत्यु को प्राप्त होने की बजाय दमे और उल्टी-दस्त से मरने लगेंगे। स्वाभाविक उम्र तक तो सिर्फ कव्वे, कछुए, गिद्ध, गधे और वो जानवर पहुंचते हैं, जिनका खाना धार्मिक-नियमानुसार हराम है। खान साहब यह भी कहते थे कि जब तक आपका कोई बुजुर्ग बेदर्दी से कत्ल न हो, आप बदले के आनंद से परिचित नहीं हो सकते। सिर्फ मंगतों (भिखारियों) मुल्लाओं, जनानों, मीरासियों, बिना बाप के आदमी और शायरों को कोई कत्ल नहीं करता। अगर आपका दुश्मन आपको कत्ल योग्य नहीं समझता तो इससे अधिक अपमान की बात नहीं हो सकती। इस पर तो खून हो जाते हैं। ईमान से! ऐसे बेगैरत आदमी के लिए पश्तो में बहुत बुरा शब्द है।


घोड़ा, गुल्लैल और विनम्रता

'यूं मेरा दादा बड़े उग्र स्वभाव का था। उसने छः खून किये और छः ही हज किये। फिर कत्ल से तौबा कर ली। कहता था अब मैं बूढ़ा हो गया, अब मुझसे बार-बार हज नहीं होता। वो पिचानवे साल की उम्र में अपनी मर्जी और इच्छानुसार मरा! जब तक आखिरी दुश्मन मर नहीं गया, उसने अपने आपको मरने नहीं दिया। कहता था कि मैं किसी दुश्मन को अपने जनाजे को कंधा नहीं देने दूंगा, न ही मैं अपने पत्नी का सुहाग लुटते देख सकता हूं। दादा सचमुच बड़े डील-डौल और रोब-दाब का आदमी था। पैदल भी चलता तो यूं लगता जैसे घोड़े पर आ रहा है। वो बड़ा बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति था। इस समय मुझे घोड़े के जिक्र पर याद आया, वो कहता था कि सबसे बेहतरीन सवारी अपनी टांगें हैं। घोड़ों की टांगों का इस्तेमाल सिर्फ दो सूरतों में जायज है। एक मैदाने-जंग में दुश्मन पर तेज-रफ्तार से हमला करने के लिए, दूसरे हमला नाकाम हो तो मैदाने-जंग से दुगनी तेज-रफ्तार से भागने के लिए। मजाक अपनी जगह, मेरा दादा कजाकिस्तानी घुड़सवारों की तरह तेज दौड़ते हुए घोड़े की जीन को छोड़ कर उसके पेट के गिर्द चक्कर लगाता हुआ दूसरी तरफ से दोबारा जीन पर बैठ जाता था। मेरे पास उसकी तलवार और जड़ाऊ छोटी कटार है। इनमें उसी फौलाद का उपयोग हुआ है, जिससे नादिर शाह की तलवार ढाली गयी थी। हमारे खानदान में सौ साल के अरसे में मैं पहला आदमी हूं जिसने कत्ल नहीं किया, कम-से-कम अब तक। मेरे ताया ने भी कत्ल नहीं किया, इसलिए कि वो जवानी में ही कत्ल कर दिया गया।'

खान साहब को घोड़े से बहुत दिलचस्पी थी। काला घोड़ा उनकी कमजोरी था। बन्नू में पांच-छः घोड़े अस्तबल में बेकार खड़े खाते थे, सब काले। किसी का उपहार में दिया हुआ एक ऊंची नस्ल का बादामी रंग का घोड़ा भी था, जिसकी दुम और रानें काली थीं लेकिन उसे सिर्फ दुम ओर रानों की हद तक पसंद की दृष्टि से देखते थे। अक्सर कहते, हमारे कबीले में जिस मर्द का निशाना चूकता हो, जिसकी वंशावली में लोग केवल कत्ल हुए हों या जिसको घोड़ा बार-बार जमीन पर पटख देता हो, उससे निकाह जायज नहीं। घोड़ा मैंने हमेशा रखा। उस जमाने में भी जब बेहद तंगी थी और मैं बिना ब्रेक की साइकिल पर आता-जाता था। बाहर एक मुश्की (काला घोड़ा) खड़ा हिनहिनाता रहता था। किसी ने पूछा इसमें कौन-सी तुक थी, खान साहब? बोले, अव्वल तो अपने गांव में घोड़े पर टंगे-टंगे फिरना अहंकार की निशानी समझी जाती थी। दूसरे, घोड़ा बूढ़ा था - अब्बा की आखिरी निशानी। मुझे मेरे दादा ने पाला। वो अभिमान और दुष्टता के एकदम विरुद्ध था। कहता था, हमेशा गर्दन झुका कर चलो, यही खरे पख्तूनों का तरीका है। मेरी उठती जवानी, गर्म खून था। एक दिन मैं सीना ताने और गर्दन को इतना अकड़ाये कि सिर्फ आसमान नजर आता था, उसके सामने से गुजरा तो उसने मुझे रोक लिया। मेरे भाई के हाथ से गुलेल छीन कर उसके दोशाखे को मेरी गुद्दी में पीछे से फंसा कर गर्दन को इतना झुकाया कि मुझे अपनी ऐड़ी नजर आने लगी। मैंने कसम खाई कि आइंदा कभी गर्दन अकड़ा के नहीं चलूंगा। फिर गुलेल गर्दन से अलग करके भाई को वापस करना चाहा तो दादा ने सख्ती से मना कर दिया। कहने लगा, इसे संभाल के रख ले, काम आयेगी। बुढ़ापे में इसे दूसरी तरफ से इस्तेमाल करना, ठोड़ी के नीचे लगा कर गर्दन खड़ी कर लेना।


अहले - खानाबदोश

खान साहब अपने किसी साथी के साथ जब कच्ची आबादियों और पठान बस्तियों का दौरा करते और रास्ते में कोई भारी पत्थर पड़ा नजर आता तो खिल उठते। वहीं रुक जाते, जवानों को इशारा करते कि इसे उठा कर दिखाओ तो जानें। अगर किसी से न उठता तो आस्तीन चढ़ा कर आगे बढ़ते और या अली! कह कर सर से ऊंचा उठा कर दिखाते। राह चलते लोग और मुहल्ले के बच्चे तमाशा देखने खड़े हो जाते, कभी कराची की खुशहाल और साफ-सुथरी बस्तियों से गुजरते तो अफसोस करते कि खान! यह कैसी झाड़ू-फिरी खाना-खराब बस्ती है कि एक पत्थर पड़ा नजर नहीं आता, जिसे कोई मर्द बच्चा उठा सके। मेरे बचपन में गांव में जगह-जगह बड़े-बड़े पत्थर और चट्टानें पड़ी होती थीं, जिन पर खड़े हो कर आप दुश्मन को गाली दे सकते थे, टेक लगा कर सुस्ता सकते थे। इन्हीं पत्थरों पर जाड़े में बड़े-बूढ़े स्लेटी रंग का कंबल इस तरह ओढ़ के बैठते थे कि सिर्फ दो आंखें दिखाई देती थीं। धूप सेंकने के बहाने वो इन आंखों से नौजवानों के चाल-चलन पर नजर रखते थे। उधर जब कुंवारी लड़कियां, जिनके सफेद बाजू उथले पानी की मछलियों की भांति किसी प्रकार पकड़ में नहीं आते, पनघट से अपने सरों पर घड़े उठाये गुजरतीं तो इन्हीं पत्थरों पर बैठे गबरू जवान अपनी नजरें उठाये बिना, सिर्फ चाल से बता देते थे कि किसका घड़ा लबालब भरा है और किसका आधा खाली और कौन घूंघट में मुस्करा रही है। कोई लड़की मोटी चादर के नीचे फंसा-फंसा कुर्ता पहन कर या दांतों पर अखरोट का ताजा दंदासा लगा कर आती, तब भी चाल में फर्क आ जाता था। जवान लड़की की ऐड़ी में भी आंखें होती हैं। वो चलती है तो उनसे पता होता है कि पीछे कौन, कैसी नजरों से देख रहा है। गांव की सरहद पर मलिक जहांगीर खान की बुर्जी के पास एक तिकोना-सा पत्थर आधा जमीन में धंसा, आधा राक्षस के पंजे की तरह बाहर निकला हुआ था। उस पर अभी तक उन गोलियों के निशान हैं जो पचास बरस पहले ईद के दिन मैंने निशानेबाजी के दौरान चलाई थीं। एक गोली का टुकड़ा पत्थर से टकरा कर उचटता हुआ नसीर गुल की रान में घुस गया। वो कच्ची उम्र का सुंदर लड़का था। लोगों ने तरह-तरह की बातें बनायीं। उसका बाप कहने लगा कि मनहूस के बच्चे! मैं तेरी दोनों जांघों में गोली से ऐसा दर्रा खोलूंगा कि एक लिहाफ की रुई से भी मूसलाधार खून बंद नहीं होगा। गांव में कभी सन्नाटे में फायर होता तो उसकी प्रतिध्वनि को दूर-निकट के पहाड़, अपनी गरज में शामिल करके, बारी-बारी लौटाते तो जमीन देर तक कांपती रहती और दिल दहल जाते। औरतें अपने-अपने मर्द के लिए दुआयें करतीं कि खुदा खैर से लौटाये।

मुहब्बत और नफरत दोनों खान साहब 'वेट लिफ्टिग' से व्यक्त करते। मतलब यह कि बहस में हार जायें तो प्रतियोगी को उठा कर जमीन पर पटख देते और अगर मुद्दत के बिछड़े दोस्त मिल जायें या हम जैसे कद-काठी वाले भक्तगण सलाम करें तो गले मिलने के दौरान हमें इस तरह हिलाते, झंझोड़ते जैसे फलदार वृक्ष की शाख को झड़झड़ाते हैं। फिर जोशे-मुहब्बत से हमें जमीन से अधर उठा लेते, हमारे माथे को अपनी lip level तक लाते और चूम कर वहीं हवा में न्यूटन के सेब की भांति गिरने के लिए छोड़ देते।

इसी प्रकार उनके एक पसंदीदा टप्पे से, जो वो अक्सर गाते और गुनगुनाते थे, यह जाहिर होता था कि महबूब भी उन्हें सिर्फ इसलिए भाता है कि उसे दोनों हाथों में उठा कर घड़े की तरह सर पर रखा जा सकता है। उस टप्पे का अर्थ था कि जानां आ! मेरे पहलू का घड़ा बन जा कि तुझे सीने के रास्ते से सर पर चढ़ा लूं। गाने में कटी उंगली से अपने सीने पर गुदाज घड़े के सफर का ऐसा नक्शा खींचते कि -

मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे सर पे है

महबूब का, वज्न के अतिरिक्त रूप-रंग में भी घड़े के सदृश होना हालांकि लाजमी शर्त नहीं, लेकिन एक्स्ट्रा क्वालिफिकेशन अवश्य प्रतीत होती थी। घड़े को अपने शर्माये हुए पहलू से जुदा करके सर पर रख लेने से शायद पवित्र निगाह और निकाह का यह पहलू दिखाना था कि सुंदर घड़े को सारा समय सर पर उठाये फिरने वाला अहले-खानाबदोश खुद कभी इसका पानी नहीं पी सकता। उस दुखिया की सारी उम्र घड़े को सर पर संतुलित करने और लौंडों की गुलेल से बचाने में ही गुजरेगी।