खोया पानी / भाग 29 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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सचार

सच बात कहने में खान साहब उतने ही बेबस थे जितने हम आप छींक के मामले में। मुंह पर आई हुई बात और डकार को बिल्कुल नहीं रोकते थे। अगर उनकी किसी बात से दूसरा आहत या क्रोधित हो जाये तो उन्हें पूरी तरह इत्मीनान हो जाता था कि उन्होंने सच बोला है। उन्हें सच इस तरह लगता था जैसे सामान्य आदमी को हिचकी या शायरों को ताजा गजल लगती है। इतरा-इतरा कर लिखने वाले को लिखार और खुलकर खेलने वाले को खिलाड़ कहते हैं, बिल्कुल इसी तरह बात-बेबात सच बोलने वाले को सिंधी में 'सचार' कहते हैं। खान साहब का संबंध इसी कबीले से था। मिसाल के तौर पर एक बार एक साहब से उनका परिचय कराया गया। छूटते ही पूछने लगे 'ऐसी मूंछें रख कर आप क्या साबित करना चाहते हैं?' वो साहब बुरा मान गये तो कहने लगे 'माफ करना! मैं जाहिल आदमी हूं, यूं ही अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए पूछ लिया। खलील अहमद खां 'रिंद' से पूछा 'माफ करना आपकी सेहत पैदाइशी खराब है या खुद खराब की है? क्या आप के वालिद भी नाम के आगे खान लिखते थे।' वो साहब रुहेलखंड के अक्खड़ पठान थे, सचमुच बिगड़ गये। कहने लगे, 'क्या मतलब?' वो बोले, 'हमने तो वैसे ही पूछ लिया। क्योंकि बारासिंघा मां के पेट से सींगों के झाड़ समेत पैदा नहीं होता।' एक बार बिशारत से पूछा 'आप रेशमी कमरबंद इस्तेमाल करते हैं, खुल-खुल जाने के अतिरिक्त इसके और क्या लाभ हैं?' एक और अवसर पर तीन-चार दोस्तों की उपस्थिति में बिशारत को बड़ी सख्ती से टोका, 'यारा जी! माफ करना मैं तो जाहिल आदमी हूं। मगर यह आप दिन भर आदाब अर्ज! आदाब अर्ज! तस्लीमात अर्ज! तस्लीमात अर्ज! क्या करते रहते हैं, क्या अस्सलाम अलैकुम कहने से लोग बुरा मान जायेंगे?'

इससे पहले बिशारत ने इस पहलू पर कभी गौर ही नहीं किया था। सच तो यह है कि इधर हमारा भी खयाल नहीं गया था। बिशारत ने अपने पिता को हमेशा 'आदाब-तस्लीमात' ही कहते सुना था और इसमें उन्हें बड़ी विनम्रता और सौंदर्य प्रतीत होता था। खान साहब ने दूसरी बार भरी महफिल में टोका तो वो सोच में पड़ गये। अब जो पलट कर पीछे देखा तो नजरों के सामने एक दृश्य के बाद दूसरा दृश्य आता चला गया।

1. क्या देखते हैं कि मुगल बादशाहों ने अपने पारंपरिक राजसी वस्त्र उतार फेंके और राजपूती खिड़कीदार पगड़ियां पहन लीं। शहंशाह माथे पे तिलक लगाये फत्हपुर सीकरी के इबादतखाने बैठे फैजी से फारसी रामायण का पाठ सुन रहे हैं। थोड़ी देर बाद पंडितों और मुल्लाओं के शास्त्रार्थ में वो शोर और हंगामा हुआ कि यूं लगता था जैसे मस्त खच्चर भिड़ों के छत्ते बचा रहे हैं। सम्राट अकबर ने धर्म ईजाद कर डाला। वो अपनी हिंदू जनता को जल्दी-से-जल्दी खुश करने के उद्देश्य से भी अपने पुश्तैनी दीन से बेजारी और असंबद्धता दर्शाना चाहता था। सच्चाई यह है कि इतने बड़े साम्राज्य के बावजूद वो शरीअत (इस्लामी धार्मिक कानून) से परेशान, मुल्लाओं से निराश और अपनी प्रजा के बहुसंख्यकों से भयभीत था। आहिस्ता-आहिस्ता उसने अपनी पैगंबरी का दावा कर दिया, जिस पर उसकी महारानी जोधाबाई और मुल्ला-दो-प्याजा तक ईमान न लाये। उसने सब को खुश करने के लिए सब धर्मों का एक काकटेल बनाया जिसे सबने इसी आधार पर ठुकरा दिया।

2. फिर देखा कि काले घोड़े की नंगी पीठ पर रातों-रात मंजिलें तय करने वाले और देश-देश झंडा गाड़ने वाले मुगल सूरमा अब जमना-किनारे राजपूती तर्ज के दर्शनी झरोखे और लाल झूल और पचरंगी मस्तक वाले हाथी पर विराजे नजर आ रहे हैं। लू के थपेड़ों ने उनकी वेषभूषा बदल डाली, मलमल के हवादार अंगरखों ने जिरह बख्तर (कवच) की जगह ले ली, आहिस्ता-आहिस्ता विजयी होने वालों ने अपनी मातृभाषायें अरबी, तुर्की और फारसी छोड़ कर एक नयी भाषा उर्दू बनायी, जो आरंभ में उनके लिए भी इतनी ही विदेशी और अजनबी थी, जितनी हिंदुओं के लिए तुर्की या फारसी। मुकम्मल सैनिक-विजय के पश्चात हुक्मरानों ने अपनी अस्ल भाषा त्याग कर खुशी से एक प्रकार की सांस्कृतिक पराजय स्वीकार कर ली, ताकि हारने वाले यह न समझें कि वो अपने सिक्के के साथ अपनी मातृभाषा भी प्रचलित करना चाहते हैं। मस्जिदों और खानकाहों के दरवाजों, महराबों पर हिंदुओं के पवित्र फूल कमल की नक्काशी होने लगी। शूरवीरों की महफिलों में ताजिकिस्तानी नृत्य का जोश और समरकंद और बुखारा के नगमे फिर कभी सुनायी न दिये कि समय ने लय ही नहीं, नय (बांसुरी) और नगमा भी बदल के रख दिये। हिंद पार के फनकार, अपने साज बगलों में दबाये, मुद्दतें गुजरीं, विदा हो गये। उनके जाने पर न आसमान रोया, न हिमालय की जती फटी कि उनके कद्रदानों ने अब सितार, सारंगी और मृदंग पर हिंदुस्तानी राग-रागिनियों से दिलों को गर्माना सीख लिया था।

3. लिखने वाली उंगली जो लिखती चली जाती है, सांस्कृतिक समझौते के चित्रों का एक और पृष्ठ पलट कर दिखाती है। गोमती नदी के रूप-किनारे रास का रसिया, अवध का आखिरी ताजदार, पैरों में घुंघरू बांधे स्टेज पर अपनी ही बनायी हुई हिंदी धुन पर नृत्य-भाव बता रहा है। एक पृष्ठ और पलटिये तो जमना-किनारे एक ही दृश्य नजर के सामने आता है। कुछ दाढ़ी वाले परहेजगार बुजुर्ग मसनद की टेक लगाये धर्म के पतन के कारणों, धर्म के पुनरुत्थान और जिहाद की जुरूरत पर अरबी और फारसी में पत्रिकायें निकाल रहे हैं, लेकिन जब सलाम करना हो तो दोहरे हो कर एक-दूसरे को आदाब, तस्लीमात, बंदगी और मुजरा बजा लाते हैं। अस्सलाम-अलैकुम कहने से बचते हैं कि यह रिवाज (जो बारह सौ वर्ष से मुसलमानों की पहचान रहा था, जैसे 'श्लूम' मूसा को मानने वालों की या 'जयराम जी की' और 'नमस्कार' हिंदुओं की पहचान रही है) अब बिल्कुल समाप्त हो चुका था। नौबत यहां तक आ पहुंची कि हजरत शाह वली उल्लाह के खानदान के लोग भी जब सलाम करते तो कहते थे अब्दुल कादिर तस्लीमात अर्ज करता है।

बिशारत अक्सर कहते हैं कि मैं यह कभी नहीं भूलूंगा कि पेशावर के एक अनपढ़ पठान के ताने ने चार पुश्तों का पाला-पोसा आदाब अर्ज छुड़वा दिया।


कराची वाले किसी चूजे को मुर्गा नहीं बनने देते

खान साहब बहस के दौरान हर बात और हर सूरत-हाल के आम-तौर पर दो कारण बताते थे, जिनमें से एक की हैसियत महज पख की होती थी। मिसाल के तौर पर बिशारत ने एक दिन शिकायत की 'कराची की सुब्ह कैसी गंदली-गंदली और थमी-थमी सी होती है जैसे कि सूरज को निकलने में आलस आता है। सुब्ह उठने को जी नहीं चाहता। बदन ऐसा दुखता है जैसे किसी बॉक्सर ने रात भर इस पर प्रैक्टिस की हो। मैं कानपुर में मुर्गे की पहली आवाज पर ऐसे उठ बैठता था जैसे किसी ने स्प्रिंग लगा दिया हो।' खान साहब अपनी कटी तर्जनी उनके घुटने की ओर उठाते हुए बोले कि 'इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि कराची वाले किसी चूजे को मुर्गा नहीं बनने देते, अजान देने से पहले ही उसका किस्सा तमाम कर देते हैं, दूसरा यह कि आपके स्प्रिंग को गठिया हो गया है। चालीस दिन तक मेथी दाने की भुजिया खाओ और बूढ़े घुटने पर पनघट के पौधे का लेप लगाओ। हमारा पश्तो शायर कह गया है कि पनघट का हर पौधा दवा होता है क्योंकि कुंवारियों के पल्लू उसे छूते रहते हैं। मैं तो जब भी कराची आता हूं, हैरान-परेशान रहता हूं जिससे मिलो, जिससे बोलो, कराची से कुछ-न-कुछ शिकायत जुरूर रखता है। एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो अपने शहर पर गर्व करता हो। इसके दो कारण हैं, पहला तो यह कि यहां गर्व करने लायक कोई चीज नहीं, दूसरा यह कि...'

दूसरे कारण बताने के लिए उन्होंने अपनी तर्जनी आकाश की ओर की ही थी कि मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग बीच में कूद पड़े। कहने लगे - साहब! दूसरा कारण यह कि शरणार्थी, पंजाबी, सिंधी, बिलोच, पठान - सब अपने रब का फज्ल तलाश करने के लिए यहां आ-आ कर आबाद हुए। कड़ी धूप पड़ रही थी, सबके सरों पर कराची ने करुणामयी मां की भांति अपनी फटी-पुरानी चादर की छत तान दी। उन पर भी जो बसर करने के लिए केवल ठिया-ठिकाना मांगते थे, फिर पसरते चले गये लेकिन सबको शिकायत, सब बेचैन, बिखरे, उदास परेशान। शरणार्थियों को ही लीजे दिल्ली, लखनऊ, बंबई, बाराबंकी, जूनागढ़ - हद यह कि उजाड़! झूंझनूं (जयपुर - लेखक की ओर संकेत) को याद करके आहें भरता है, उसे यह अहसास नहीं कि जिन्हें याद कर-करके वो खुद पर रोना तारी किये रहता है, वो छोड़ा हुआ शहर नहीं, बल्कि उसकी रूठी हुई जवानी है जो लौट कर नहीं आ सकती। अरे साहब! अस्ल रौला भूगोल का नहीं, जवानी और बीते समय का है, जो वर्तमान के अमृत में विष घोल देता है। पंजाबी, जिन्हें सबसे पहले सर सैयद अहमद खां ने 'जिंदादिलाने-पंजाब' का खिताब दिया था, जन्नत में पहुंच कर भी 'लहोर-लहोर ए।' पुकारेंगे। उन्हें कराची जरा नहीं भाता। वो सिंध के चित्तीदार केले, चीकू और पपीते में मुल्तान के आम और मौंटगुमरी के माल्टे का मजा न पा कर सचमुच उदास हो जाते हैं। फ्रंटियर का गुल जमान खान चौकीदार शेर शाह-कॉलोनी की झुग्गी झोपड़ी में अपने वतन के जंगल, पहाड़ और दरिया मांगता है।

कोई नहीं जो उठा लाये घर में सहरा को

वो सुब्ह दिल्ली की नहारी खाता है, तीसरे पहर को सेठ की कोठी के एक ओझल कोने में अपने मकई के बेमौसम पौधे को बड़े लाड़ से पानी देता है। वो दिन-भर पश्तो अंदाज में बंबइया उर्दू बोलने के बाद शाम को ट्रांजिस्टर पर पश्तो गानों से दिल बहलाता है और रात पेशावर रेलवे स्टेशन को आंखों में भर के सड़क के किनारे झुग्गी में सो जाता है। सड़क पर रात-भर पटाखे छोड़ती मोटरसाइकिल, रिक्शा और धड़धड़ाते ट्रक गुजरते रहते हैं, पर उसे सपने में ढोल, सुरना, रबाब और घड़े पर टप्पे सुनायी देते हैं।

उधर कोयटा से आया हुआ बिलोच कराची का नीला समुद्र देखता है और बिलोचिस्तान के चटियल पहाड़ों और उन तगड़े दुंबों को याद करके रोता है, जिनके वो बड़े खस्ता कबाब बना सकता था। अब रहा पुराना सिंधी, तो वो गरीब उस जमाने को याद करके आहें भरता है जब यह चारों हजरात कराची नहीं पधारे थे।

इस विषय में अंतिम कील खान साहब ने ही ठोकी। कहने लगे, 'खां! इसके दो कारण हैं। पहला, यह शेख सादी कह गये हैं कि जिस गांव का हर वासी उठते-बैठते, सोते-जागते किसी दूसरे गांव की याद में तड़पता रहे, वो गांव चौपट होवे ही होवे। हमारे 'मुलुक' में अगर कोई औरत दूसरी शादी के बाद अपने पहले पति को इसी तरह याद करे तो दूसरा पति दोनों की नाक काट कर एक-दूसरे की हथेली पर रख देगा। मुल्ला करम अली कहता था - जो औरत अपने पहले पति को बहुत याद करे उसे अरबी में हिनाना (छिनाल) कहते हैं। ऐसी औरत के दूसरे पति के लिए पश्तो में बहुत बुरा शब्द है।

खान साहब कठिन समस्याओं और जीवन की गुत्थियों को कभी-कभी अपनी अपढ़ सूझ-बूझ से इस तरह पानी पानी कर देते थे।

कि किताब अक्ल की ताक में

जूं धरी थी तूं ही धरी रही

दोनों पक्षों का झगड़ा अब इतना तूल खींच गया था कि दोनों एक-दूसरे को अपनी दलीलें तक सुनाते हुए कभी-कभी मुस्करा देते थे। अब यह कोई मामूली कारोबारी झगड़ा नहीं रहा था। दोनों पक्ष अपने-अपने उसूलों को तर्क के पाले में मुर्गों की तरह लड़ा रहे थे। वो भी इस शर्त पर कि जिसका मुर्गा जीत जायेगा उसे जिब्ह करके दोनों मिल के खायेंगे। यह हम इसलिए कह रहे हैं कि खान साहब अक्सर फर्माते थे कि हारा हुआ मुर्गा खाने से आदमी इतना बोदा हो जाता है कि हुकूमत की हर बात ठीक लगने लगती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि खान साहब सिर्फ दिल बहलाने के लिए मामले को खींच रहे हैं वरना वो बड़े दिल के और खुले हाथ वाले आदमी थे, यारों के यार थे। बिशारत को भी यह बात अच्छी तरह मालूम थी और यह भी कि खान साहब उन्हें जी-जान से चाहते हैं, उनकी हाजिर-जवाबी से आनंदित होते हैं। दो बरस पहले भी वो बिशारत से पेशावर में कह चुके थे कि मेरा जी चाहता है, आपको सामने बिठा कर इसी प्रकार महीनों आपकी बातें सुनता रहूं। बिशारत खुद भी खान साहब पर फिदा थे। दहकते सुर्ख अंगारा फौलाद से चिंगारियां उड़ती देखने में उन्हें बहुत मजा आता था।

एक ओर तो खान साहब के लेन-देन की यह चरम सीमा कि एक पाई छोड़ने में उनकी शान घटती थी, दूसरी ओर मुहब्बत और लिहाजदारी का यह हाल कि जहां बिशारत का पसीना गिरे, वहां उनके दुश्मन का खून बहाने के लिए तैयार। बिशारत की दुकान से एक एक्साइज इंस्पेक्टर चार बरस पहले दस हजार रुपये की लकड़ी उधार ले गया और अभी तक रकम दबाये बैठा था। तीन साल हुए प्रोनोट लिख दिया था, मगर अब कहता था कि जाओ! नहीं देते, नालिश करके देख लो। प्रोनोट की समय सीमा कब की समाप्त हो चुकी थी। बिशारत ने अपनी अन्य परेशानियों के साथ इस नुकसान का भी जिक्र किया। दूसरे दिन शाम को खान साहब अपनी पच्चीस-तीस कमांडोज की टुकड़ी लेकर उसके घर पहुंच गये। दरवाजा खटखटाया, इंस्पेक्टर ने खोला और आने का कारण पूछा तो खान साहब ने कहा कि हम वो खिड़की दरवाजे उखाड़ कर ले जाने के लिए आये हैं, जिनमें हमारे भाई बिशारत की लकड़ी का उपयोग हुआ है। यह कह कर उन्होंने एक ही झटके से दरवाजे को कब्जे, स्क्रू और हैंडल समेत उखाड़ कर इस प्रकार बगल में दबा लिया जैसे स्कूल के भगोड़े लड़के तख्ती बगल में दबाये फिरते हैं। दीवार पर से इंस्पेक्टर के स्वर्गवासी दादा का फोटो जिसके बारे में उन्हें संदेह हुआ कि इसके फ्रेम में वही लकड़ी उपयोग हुई है, कील समेत नोच कर अपने एक कमांडो को थमा दिया। इंस्पेक्टर एक ही घाघ था, मौके की नजाकत समझ गया। कहने लगा, 'खान साहब! मेरी एक अर्ज सुन लीजिये।' खान साहब बोले, 'छोड़ो भी यार! गोली मारो, अब अर्ज-वर्ज किसी और को सुनाना, होश में आओ, रकम निकालो।'

रात के बारह बजने में अभी चार-पांच मिनट बाकी थे कि खान साहब ने दस हजार के नये नोटों की दस गड्डियां ला कर बिशारत के हवाले कर दीं। इनमें से सात पर बिलैका टेक्सटाइल मिल्ज की मुहर थी, जो उस इंस्पेक्टर के रिश्वत क्षेत्र में आता था। यही नहीं उन्होंने उससे अपने पहलवान कमांडो के रिक्शों का किराया और दूध के पैसे भी एक सेर प्रति व्यक्ति के हिसाब से वसूल कर लिए।

खान साहब घर वालों में ऐसे घुल मिल गये कि अक्सर शाम को बच्चों के लिए, जो उन्हें चचा कहने लगे थे, मिठाई, कपड़े और खिलौने ले कर जाते। सबसे छोटे बच्चे को बहलाने के लिए पलंग पर चित लेट जाते और पेट को धोंकनी की तरह फुला और पिचका कर उस पर बच्चे को उछालते। पड़ोस के बच्चे उन्हें देखते ही उनके पेट के लिए मचलने लगते और मांओं के सर हो जाते। खान साहब ने अब बिशारत के साथ उनके रिश्तेदारों की शादी-ब्याह, गमी और सालगिरह के आयोजनों में भी जाना शुरू कर दिया परंतु बिशारत ने कुछ समय बाद इस सिलसिले को एकाएकी बंद कर दिया क्योंकि उन्हें कुछ बाहरी सूत्रों से पता चला कि उनके (बिशारत के) रिश्तेदारों की सारी हमदर्दी खान साहब के साथ है और एक दिन तो यह सुन कर वो भौंचक्के रह गये कि एक ऐसे शरारती रिश्तेदार ने खान साहब को अलग से आमंत्रित किया है, जिससे बिशारत के संबंध एक अर्से से खराब, बल्कि टूटे हुए थे।

बिशारत को किसी मुखबिर ने यह भी खबर दी कि खान साहब दो-तीन बार चोरी-छुपे थाने भी जा चुके हैं और एस.एच.ओ. को कराकली टोपी, एक बोरी अखरोट, अस्ली शहद और दर्रे के बने हुए बिना लाइसेंस के रिवाल्वर का तोहफा भी दे आये हैं! वो घबराये, अब यह कोई नया फड्डा है। इसके भी दो कारण हो सकते हैं, उन्होंने सोचा।


रोटी तो किसी तौर कमा खाये मछंदर

खान साहब ने अब खुद शेव करना और शलवार में कमरबंद डालना भी छोड़ दिया था। रोज खलीफा नियमित रूप से आता था। जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, खलीफा को साईसी, कोचवानी, ड्राइवरी, खाना पकाना, बैरागीरी, हजामत, बागबानी, प्लंबिंग - यह कहिये क्या नहीं आता था। उस काम में भी निपुण था जो इन सबसे अधिक लाभदायक है - चापलूसी और खुशामद। जब सब धंधे ठप हो जाते तो खलीफा अपने बुनियादी पेशे की ओर पलटता। अपने बेटे को, जो पुरखों के पेशे से घृणित एवं लज्जित था, अक्सर नसीहत करता कि बेटा! हज्जाम कभी बेरोजगार नहीं रह सकता। हज्जाम की आवश्यकता सारी दुनिया को रहेगी, जब तक कि सारी दुनिया सिख-धर्म न अपना ले! और सिख यह कभी होने नहीं देंगे। खलीफा दिन-रात खान साहब की खिदमत में जुटा रहता। शाम को उनके दोस्तों का झुंड डेरे डालता तो लपक-झपक अंदर से कहवा और चिलम भर-भर लाता। एक बार अपने घर से चार असील मुर्गों की, जिन्होंने अजान देनी नयी-नयी सीखी थी, बिरयानी बना कर लाया। इनके बारे में उसका दावा था कि जब ये जवान पट्ठे सुब्ह-सुब्ह गर्दन फुला-फुला कर अजान देते तो सारे मुहल्ले के मुल्ला और मुर्गियां बेकरार हो के बाहर निकल पड़ते थे। एक दिन कोहाट की जमीन का एक झगड़ा तय होने की खुशी में वो दोनों पक्षों के लिए मुसल्लम भेड़ रोस्ट करके लाया। सुबूत में एक बकरे की कटी हुई दुम भी उठा लाया ताकि खान साहब को यह शक न हो कि बकरे की बजाय सस्ती भेड़ भून के भेड़ दी। खान साहब उसे देखते ही बोले इतनी छोटी रान वाले बकरे की दुम इतनी बड़ी हो ही नहीं सकती। दुम के इस पहलू पर खलीफा की नजर नहीं गयी थी। हाथ जोड़ के खड़ा हो गया। फिर खान साहब के घुटने पकड़े और झूम-झूम कर टांग दबाने लगा। उन्होंने यह कह कर छुड़ायी कि बदबख्ता! घुटना पकड़ते-पकड़ते अब मेरी रान किस लिए टटोल रहा है?

खान साहब को खलीफा के पकाये हुए खानों से जियादा उसकी लच्छेदार बातों में मजा आता था। कहते थे, जिस बात को कहने वाला और सुनने वाला दोनों ही झूठ समझें, उसका गुनाह नहीं होता। वो उसकी शेखी को बढ़ावा देते। वो हर दूसरे-तीसरे दिन उनके तलवों पर रोगन-बादाम की मालिश करता। कहता था, इससे दिमाग को तरावट पहुंचती है। एक दिन अचानक खान साहब को कुछ खयाल आ गया। कहने लगे, तेरे खयाल से मेरा दिमाग मेरे तलवों में उतर आया है? लेकिन खलीफा ठीक ही कहता था, इसलिए कि सात-आठ मिनट बाद ही खान साहब रिवाल्वर तकिये के नीचे रखे, जोर-जोर से खर्राटे लेने लगते। हर तीन-चार मिनट के बाद चौंकते और खर्राटों में नया सुर लगा कर फिर से सो जाते। एक दिन वो बड़े ऊंचे सुरों में खर्राटे ले रहे थे कि पैर दबाते-दबाते खलीफा का हाथ न जाने क्यों उनकी वास्कट की जेब पर पड़ गया। आंखें खोले बगैर कहने लगे, 'बदबख्ता! नक्दी तो मेरे कोट की जेब में है!'

दरअस्ल वो उनके मुंह लग गया था। खिदमतगार, चिलम भरने वाला, हज्जाम, दास्तानगो, खानसामां, अर्दली, गाइड, मुखबिर, सलाहकार - वो उनका सभी कुछ था। तीन-चार दिन से आपस में न जाने क्या मिस्कौट हो रही थी। रोजाना शाम को भी किसी-न-किसी बहाने बिशारत के यहां आ जाता। उनकी बेगम ने दो-तीन बार कहा कि इसका आना भेद और मनहूसियत से खाली नहीं।


आदमखोर शेर को पहचानने की आसान तरकीब

एक दिन सुब्ह उठते ही खान साहब ने अचानक यह सुझाव पेश किया कि अब तक जो रकम आपने दी है उसे घटाने के बाद जो रकम देने वाली बनती है, उसके बदले यह गाड़ी जो अर्से से बेकार खड़ी है, मुझे दे दीजिये। बिशारत ने कहा लकड़ी की अस्ल मालियत किसी तरह सात हजार से अधिक नहीं जबकि इस गाड़ी की कीमत नयी बाडी और नये पुर्जों के साथ किसी तरह नौ हजार से कम नहीं, फिर जिस अंग्रेज की सवारी में यह रहती थी उसे सर का खिताब मिलने वाला था। खान साहब ने जवाब दिया, आपकी गाड़ी बहुत-से-बहुत पांच हजार की होगी, जबकि मेरी लकड़ी नौ हजार की थी। आपने तो पेट्रोल और पंक्चर जोड़ने का सारा खर्चा, खलीफा की तन्ख्वाह और उसकी पत्नी का मेहर भी कार की कीमत में जोड़ दिया। बहुत कुछ बहसा-बहसी और घुड़-सौदेबाजी के बाद अदा की जाने वाली रकम का अंतर घट कर वही आया गया, जहां से झगड़ा शुरू हुआ था। यानी 2513.9.3। अब खान साहब इस क्लेम के बदले यह गाड़ी चाहते थे।

'खान साहब! आप बिजनेस कर रहे हैं या बार्टर, (Barter)?' बिशारत ने झुंझला कर पूछा।

'यह क्या होता है सैब?'

'वही जो आप करना चाहते हैं।'

पश्तो में इसके लिए बहुत बुरा शब्द है'

वो जब पश्तो का हवाला दे दें तो फिर किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि अस्ल या अनुवाद की मांग करे। अक्सर कहते कि पश्तो गिड़गिड़ाने और रोने-पीटने की जुबान नहीं, नर आदमी की ललकार है। मतलब उनका यह था कि डंके की चोट पर बात करने, कछार में बेखबर सोते हुए शेर की मूंछें पकड़ कर जगाने और फिर उससे डायलाग बोलने की जुबान है। मिर्जा उस जमाने में कहते थे कि खान साहब उन लोगों में से हैं जो शेर की मूंछें उखाड़ने पर ही बस नहीं करते, बल्कि उसके मुंह में अपना सर दे कर यह रिसर्च करना चाहते हैं कि वेजिटेरियन है या आदम खोर!