खोया पानी / भाग 3 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है

हवेली के मुख्य दरवाजे से कुछ कदम के फासले पर जहां फोटो में घूरे पर एक काला मुर्गा गर्दन फुलाये अजान दे रहा था, वहां एक टूटे चबूतरे के चिह्न नजर आ रहे थे। उसके पत्थरों के जोड़ों और झिरियों में से पौधे रोशनी की तलाश में घबरा कर बाहर निकल रहे थे। एक दिन उस चबूतरे की ओर संकेत कर कहने लगे कि यहां साफ पानी से भरा हुआ पत्थर का आठ कोण वाला हौज हुआ करता था, जिसमें विलायती गोल्डफिश तैरती रहती थीं। आरिफ मियां उसमें पायनियर अखबार की किश्तियां तैराया करते थे। यह कहते-कहते किबला जोश में अपनी छड़ी लेकर उठ खड़े हुए। उससे फटी हुई दरी पर हौज का नक्शा खींचने लगे। एक जगह काल्पनिक लकीर कुछ टेढ़ी खिंची तो उसे पैर से रगड़ कर मिटाया। छड़ी की नोक से शैतान मछली की तरफ इशारा किया जो सबसे लड़ती फिरती थी। फिर एक कोने में उस मछली की ओर भी इशारा किया जिसका जी निढाल था। उन्होंने खुल कर तो नहीं कहा कि आखिर हम उनके छोटे थे, लेकिन हम समझ गये कि इस मछली का जी खट्टी चीजें और सोंधी मिट्टी खाने को चाह रहा होगा।

किबला कभी तरंग में आते तो अपने इकलौते बेतकल्लुफ दोस्त रईस अहमद किदवाई से कहते कि जवानी में मई-जून की ठीक दुपहरिया में एक हसीन कुंवारी लड़की का कोठों-कोठों नंगे पांव उनकी हवेली की तपती छत पर आना अब तक (मय डायलाग के) याद है। यह बात मिर्जा की समझ में आज तक न आई। इसलिए कि उनकी हवेली तीन मंजिला थी। जबकि दायें-बायें पड़ोस के दोनों मकान एक-एक मंजिल के थे। हसीन कुंवारी अगर नंगे पैर हो और लाज का गहना उतारने के लिए उतावली भी हो, तब भी यह करतब संभव नहीं (जब तक कि हसीना उनके इश्क में दो टुकड़ों में न बंट जाये।)

पिलखन

फोटो में हवेली के सामने एक ऊंची-घनी पिलखन उदास खड़ी थी। इसका बीज उनके परदादा काली टांगों वाले भूरे घोड़े पर सवार, कारचोबी काम के चोगे में छुपा कर अकाल के जमाने में दमिश्क से लाये थे। किबला के कहे अनुसार उनके परदादा के अब्बा जान कहा करते थे कि निर्धनता के आलम में यह नंगे-खलाइक, नंगे-असलाफ, नंगे-वतन (लोगों, बुजुर्गों और देश के लिए अपमान का कारण) नंगे सर, नंगे पैर, घोड़े की नंगी पीठ पर, नंगी तलवार हाथ में लिए, खैबर के नंगे पहाड़ों को फलांगता हिंदुस्तान आया। जो चित्र वो खींचते थे, उससे तो यही लगता था कि उस समय किबला के बुजुर्ग के पास बदन ढंकने के लिए घोड़े की दुम के सिवा और कुछ न था। जायदाद, महलसरा, नौकर-चाकर, सामान, रुपया पैसा सब कुछ वहीं छोड़ आये, परंतु सामान का सबसे कीमती हिस्सा यानी वंशावली और पिलखन का बीज साथ ले आये। घोड़ा जो उन्हीं की तरह खानदानी और वतन से बेजार था, बीज और वंशावली के बोझ से रानों-तले निकला पड़ रहा था।

जिंदगी की धूप जब कड़ी हुई और पैरों-तले से जमीन-जायदाद निकल गई तो आइंदा नस्लों ने उसी वृक्ष और वंशावली की छांव-तले विश्राम किया। किबला को अपने पुरखों की बुद्धि और समझ पर बड़ा मान था। उनका प्रत्येक पुरखा अदभुत था और उनकी वंशावली की हर शाख पर एक जीनियस बैठा ऊंघ रहा था। किबला ने एक फोटो उस पिलखन के नीचे ठीक उस जगह खड़े हो कर खिंचवाया था, जहां उनकी नाल गड़ी थी। कहते थे कि अगर किसी को मेरी हवेली की मिल्कियत में शक हो तो नाल निकाल कर देख ले। जब आदमी को यह न मालूम हो कि उसकी नाल कहां गड़ी है और पुरखों की हड्डियां कहां दफ्न हैं, तो वो मनीप्लांट की तरह हो जाता है, जो मिट्टी के बगैर सिर्फ बोतलों में फलता-फूलता है। अपनी नाल, पुरखों और पिलखन का जिक्र इतने गर्व के साथ और इतना अधिक करते-करते हाल यह हुआ कि पिलखन की जड़ें वंशावली में उतर आईं, जैसे घुटनों में पानी उतर आता है।

इंपोर्टिड बुजुर्ग और यूनानी नाक

वो जमाने और शराफत के ढंग और थे। जब तक बुजुर्ग अस्ली इंपोर्टिड यानी मध्य एशिया और खैबर के उस पार से आये हुए न हों, कोई हिंदुस्तानी मुसलमान खुद को इज्जतदार और शरीफ नहीं कहता था। गालिब को तो शेखी बघारने के लिए अपना (फर्जी) उस्ताद मुल्ला अब्दुस्समद तक ईरान से इंपोर्ट करना पड़ा। किबला के बुजुर्गों ने जब बेरोजगारी और गरीबी से तंग आकर वतन छोड़ा तो आंखें नम और दिल पिघले हुए थे। बार-बार अफसोस में अपना हाथ घोड़े की रान पर मारते और एक-दूसरे की दाढ़ी पर हाथ फेर के तौबा-तौबा कहते। यह नये आने वाले, जिससे भी मिले अपने आचरण से उसका दिल जीत लिया।

'पहले जां, फिर जाने - जां, फिर जाने - जानां हो गये'

फिर यही प्यारे लोग आहिस्ता-आहिस्ता पहले खां, फिर खाने-खां, फिर खाने-खानां हो गये।

हवेली के आर्किटेक्चर की भांति किबला के रोग भी राजसी होते थे। बचपन में दायें गाल पर शायद आमों की फस्ल में फुंसी निकली थी, जिसका दाग अभी तक बाकी था। कहते थे, जिस साल मेरे यह औरंगजेबी फोड़ा निकला, उसी साल बल्कि उसी हफ्ते महारानी विक्टोरिया रांड हुई। साठ के पेटे में आये तो शाहजहानी 'हब्से-बोल' (पेशाब का बंद हो जाना) में गिरफ्तार हो गये। फर्माते थे कि गालिब मुगल-बच्चा था। सितम-पेशा डोमनी को अपने इश्क के जहर से मार डाला मगर खुद इसी, यानी मेरी वाली बीमारी में मरा। एक खत में लिखता है कि घूंट-घूंट पीता हूं और कतरा-कतरा बाहर निकालता हूं। दमे का दौरा जरा थमता तो बड़े गर्व से कहते कि फैजी को यही रोग था। उसने एक जगह कहा है कि दो आलम मेरे सीने में समा गये, मगर आधा सांस किसी तौर नहीं समा रहा। अपने स्वर्गवासी पिता के बारे में बताते थे कि राज-रोग यानी अकबरी संग्रहणी में इंतकाल फर्माया। मतलब इससे, आंतों की टी.बी. था। मरज तो मरज, नाक तक अपनी नहीं थी - यूनानी बताते थे।

'मुर्दा अज गैब बरूं आयदो-कारे-बकुनद'

( मुर्दा परोक्ष से आया और काम कर गया )

किबला को दो गम थे। पहले गम का बयान बाद में आयेगा। दूसरा गम दरअस्ल इतना उनका अपना नहीं जितना बीबी का था, वो बेटे की इच्छा में घुल रही थीं। उस गरीब ने बड़ी मन्नतें मानीं, शर्बत में नक्श (कुरआन की आयतें लिखे पर्चे) घोल-घोल कर पिलाये। उनके तकिये के नीचे तावीज रखे। छुप-छुप कर मजारों पर चादरें चढ़ाई। हमारे यहां जब जीवित लोगों से मायूस हो जाते हैं तो बस यही आस बाकी रह जाती है। पचास मील के दायरे में कोई मजार ऐसा न बचा जिसके सिरहाने खड़े होकर वो इस तरह फूट-फूट कर न रोयी हों कि कब्र-वाले के रिश्तेदार भी दफ्न करते समय क्या रोये होंगे। उस जमाने में कब्र के अंदर वाले चमत्कारी हों या न हों, कम-से-कम कब्र के भीतर अवश्य होते थे। आजकल जैसा हाल नहीं था कि मजार अगर मैयत से खाली है तो गनीमत जानिये, वरना अल्लाह जाने अंदर क्या दफ्न है, जिसका इस धूम-धाम से उर्स मनाया जा रहा है। खैर यह तो एक वाक्य था जो रवानी में फैल कर पूरा पैरा बन गया। निवेदन यह करना था कि किबला खुद को किसी सिद्ध पुरुष से कम नहीं समझते थे। उन्हें जब यह पता चला कि बीबी लड़के की मन्नत मांगने चोरी-छुपे नामहरमों (जिनके साथ निकाह जायज हो) के मजारों पर जाने लगी है, तो बहुत नाराज हुए। वो जब बहुत नाराज होते तो खाना छोड़ देते थे। हलवाई की दुकान से रबड़ी, मोती-चूर के लड्डू और कचौड़ी लाकर खा लेते। दूसरे दिन बीबी कासनी रंग का दुपट्टा ओढ़ लेतीं और उनकी पसंद के खाने यानी दोप्याजा, डेढ़गुनी शक्कर वाला जर्दा, बहुत तेज मिर्च के उड़द के दही-बड़े खिला कर उन्हें मना लेतीं। किबला इन्हीं खानों पर अपने ईरानी और अरबी नस्ल के पुरखों की नियाज दिलवाते (श्राद्ध करते), लेकिन उनके दही-बड़ों में मिर्चें बस नाम को डलवाते।

मजारों पर जाने पर पाबंदी लगी। बीबी बहुत रोयीं-धोयीं तो किबला कुछ पिघले। मजारों पर जाने की इजाजत दे दी, लेकिन इस शर्त पर कि मजार में रहने वाला जाति का कंबोह न हो। कंबोह मर्द और गजल के शायर से पर्दा जुरूरी है चाहे वो मुर्दा ही क्यों न हो। 'मैं इनकी रग-रग पहचानता हूं।' उनके दुश्मनों का कहना है कि किबला खुद भी जवानी में शायर और ननिहाल की ओर से कंबोह थे। अक्सर कहते कि कंबोह के मरने पर तो जश्न मनाना चाहिए।

कटखने बिलाव के गले में घंटी

आहिस्ता-आहिस्ता बीबी को सब्र आ गया। एक बेटी थी। किबला को वह अत्यंत प्रिय होती गई। इस हद तक सब्र आ गया कि अक्सर कहते, 'खुदा बड़ा दयावान है। उसने बड़ी मेहरबानी की जो बेटा न दिया। अगर मुझ पर पड़ता तो सारी उम्र परेशान होता और अगर न पड़ता तो मैं नालायक को निकाल बाहर करता।'

सयानी बेटी कितनी भी चहेती हो, मां-बाप की छाती पर पहाड़ होती है। लड़की, रिश्तों के इश्तेहार के अनुसार देखने में ठीकठाक, सुशील, हंसमुख, घरेलू काम काज में माहिर, लेकिन किसका बुरा वक्त आया था कि किबला की बेटी के लिए रिश्ता भेजे। हमें नमरूद की आग में निर्भय होकर कूदने से कहीं जियादा खतरनाक काम नमरूद की वंशावली में कूद पड़ना लगता है। जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, किबला हमारे मित्र बिशारत के फूफा, चचा और अल्लाह जाने! क्या-क्या लगते थे। दुकान और मकान दोनों-प्रकार से पड़ोसी भी थे। बिशारत के पिता भी रिश्ते के पक्ष में थे, लेकिन संदेशा भेजने से साफ इन्कार कर दिया कि बहू के बिना फिर भी गुजारा हो सकता है लेकिन नाक और टांग के बिना तो व्यक्तित्व अधूरा-सा लगेगा। बिशारत ने रेल की पटरी से खुद को बंधवा कर बड़ी लाइन के इंजन से आत्महत्या करने की धमकी दी। रस्सियों से बंधवाने की शर्त खुद इसलिए लगा दी कि कहीं ठीक समय पर डर कर भाग न जायें लेकिन उनके पिता ने साफ कह दिया कि उस कटखने बिलाव के गले में तुम्हीं घंटी बांधो।

किबला मुंहफट, बदतमीज मशहूर ही नहीं थे, थे भी। वो दिल से, बल्कि बेदिली से भी, किसी की इज्जत नहीं करते थे। दूसरे को जलील करने का कोई-न-कोई कारण जुरूर निकाल लेते। मिसाल के तौर पर अगर किसी की उम्र उनसे एक महीना भी कम हो तो उसे लौंडा कहते और अगर एक साल जियादा तो बुढ़ऊ।

ज्वालामुखी पहाड़ में छलांग

बिशारत ने इन दिनों बी.ए. का इम्तिहान दिया था और पास होने की संभावना फिप्टी-फिप्टी थी। फिप्टी-फिप्टी इतने गर्व और विश्वास से कहते थे जैसे अपनी कांटा-तौल की हुई आधी-नालायकी से इम्तिहान लेने वाले को कड़ी परीक्षा में डाल दिया है। फुर्सत-ही-फुर्सत थी। कैरम और कोट पीस खेलते। आत्माओं को बुलाते और उनसे ऐसे प्रश्न करते कि जिंदों को शर्म आती। कभी दिन-भर बैठे नजीर अकबराबादी के कविता संग्रह में बिंदुओं वाले ब्लैंक भरते रहते जो मुंशी नवल किशोर प्रेस ने सभ्यता की मांग और भारतीय कानून की वज्ह से खाली छोड़ दिये थे। बातचीत में हर वाक्य के बाद शेर का ठेका लगाते। कहानी लिखने का अभ्यास भी जारी था।

आखिरकार एक सुहानी सुब्ह बिशारत ने खुद अपने हाथ एक पर्चा लिखा और रजिस्ट्री से भिजवा दिया। हालांकि जिसे भेजा उसके मकान की दीवार उनके मकान की दीवार से मिली हुई थी। संदेशा 23 पृष्ठों और लगभग पचास शेरों पर आधारित था। इनमें से आधे शेर उनके अपने और आधे अंदलीब शादानी के थे, जिनसे किबला के भाइयों जैसे संबंध थे। उस जमाने में संदेशे केसर से लिखे जाते थे। लेकिन इस संदेश के लिए तो केसर का एक खेत भी अपर्याप्त होता। इसलिए सिर्फ सम्मानसूचक संबोधन केसर से और बाकी बातें लाल-सियाही से जैड के मोटे निब से लिखीं। जिन हिस्सों पर खास-तौर से ध्यान दिलाना था, उन्हें नीली सियाही से बारीक अक्षरों में लिखा। बात हालांकि धृष्टतापूर्ण थी, लेकिन भाव फिर भी ताबेदारी का और अंदाज बेहद चापलूसी का था। किबला के अच्छे स्वभाव, हंसमुखपन, मुहब्बत की जी खोल कर प्रशंसा की, जिसकी परछाईं तक किबला के चरित्र में न थी। साथ-साथ दुश्मनों की नाम ले-ले कर डट कर बुराई की। उनकी संख्या इतनी थी कि 23 पृष्ठों की मिट्टी के पियाले में रखकर खरल करना उन्हीं का काम था। बिशारत ने जी कड़ा करके ये तो लिख दिया कि मैं शादी करना चाहता हूं, लेकिन ये कहने की हिम्मत न पड़ी कि किससे। बात बिखरी-बिखरी सही लेकिन किबला अपनी अच्छी आदतों और दुश्मनों की हरमजदगियों के बयान से बहुत खुश हुए। इससे पहले किसी ने उनको खूबसूरत और सजीला भी नहीं कहा था। दो बार पढ़कर अपने मुंशी को पकड़ा दिया कि तुम्हीं पढ़कर बताओ कि साहबजादे किससे शादी करना चाहते हैं, अच्छाइयां तो मेरी बयान की हैं। ग्लेशियर था कि पिघला जा रहा था। मुस्कुराते हुए मुंशी जी से बोले, किसी-किसी बेउस्ताद शायर के शेर में कभी-कभी अलिफ गिरता है। इसके शेरों में तो अलिफ से लेकर ये तक सारे अक्षर एक-दूसरे पर गिर पड़ रहे हैं, जैसे ईदगाह में नमाजी एक-दूसरे की कमर पर सिजदा कर रहे हों।

बिशारत के साहस की कहानी जिसने सुनी, हैरान रह गया। खयाल था कि ज्वालामुखी फट पड़ेगा। किबला तरस खाकर सारे खानदान को कत्ल नहीं करेंगे तो कम से कम हरेक की टांगें जुरूर तोड़ देंगे, लेकिन यह सब कुछ नहीं हुआ। किबला ने बिशारत को अपनी गुलामी में लेना स्वीकार कर लिया।

रावण क्यों मारा गया

किबला की दुकानदारी और उनकी लायी हुई परेशानियों का कोई एक उदाहरण हो तो बतायें। कोई ग्राहक जरा-सा भी उनकी किसी बात या भाव पर शक करे तो फिर उसकी इज्जत ही नहीं, हाथ-पैर की भी खैर नहीं। एक बार जल्दी में थे। लकड़ी की कीमत छूटते ही दस रुपये बता दी। देहाती ग्राहक ने पौने दस रुपये लगाये और ये गाली देते हुए मारने को दौड़े कि जट गंवार की इतनी हिम्मत कैसे हुई। दुकान में एक टूटी हुई चारपाई पड़ी रहती थी जिसके बानों को चुरा-चुरा कर आरा खींचने वाले मजदूर चिलम में भरकर सुल्फे के दम लगाते थे। किबला जब बाकायदा सशस्त्र हो कर हमला करना चाहते तो इस चारपाई का सेरुवा यानी सिरहाने की पट्टी निकालकर अपने दुश्मन (ग्राहक) पर झपटते। अक्सर सेरुवे को पुचकारते हुए कहते, 'अजीब सख्तजान है, आज तक इसमें फ्रैक्चर नहीं हुआ। लठ रखना बुजदिलों और गंवारों का काम है और लाठी चलाना कसाई, कुजड़ों, गुंडों और पुलिस का।' प्रयोग में लाने के बाद सेरुवे की फर्स्ट एड करके यानी अंगोछे से अच्छी तरह झाड़-पोंछ कर वापस झिलंगे में लगा देते। इस तरीके में खास बात शायद यह थी कि चारपाई तक जाने और सेरुवा निकालने के बीच अगर गुस्से को ठंडा होना है तो हो जाये, और जिस पर गुस्सा किया जा रहा है वो अपनी टांगों का प्रयोग करने में कंजूसी से काम न ले। (एक पुरानी चीनी कहावत है कि लड़ाई के जो तीन सौ सतरह पैंतरे ज्ञानियों ने गिनवाये हैं, उनमें जो पैंतरा सबसे उपयोगी बताया गया है वो यह है कि भाग लो) इसकी पुष्टि हिंदू देवमाला से भी होती है। रावण के दस सर और बीस हाथ थे, फिर भी मारा गया। इसकी वज्ह हमारी समझ में तो यही आती है - भागने के लिए टांगें सिर्फ दो थीं। हमला करने से पहले किबला कुछ देर खौंखियाते ताकि विरोधी अपनी जान बचाना चाहता है तो बचा ले। बताते थे, आज तक ऐसा नहीं हुआ कि किसी की ठुकाई करने से पहले मैंने उसे गाली देकर खबरदार न किया हो।

हूं तो सजा का पात्र , पर इल्जाम गलत है

किबला का आतंक सबके दिलों पर बैठा था, बस दायीं तरफ वाला दुकानदार बचा हुआ था। वो कन्नौज का रहने वाला, अत्यधिक दंभी, हथछुट, दुर्व्यवहारी और बुरी जबान का आदमी था। उम्र में किबला से बीस साल कम होगा। यानी जवान और धृष्ट। कुछ साल पहले तक अखाड़े में बाकायदा जोर करता था। पहलवान सेठ कहलाता था। एक दिन ऐसा हुआ कि एक ग्राहक किबला की सीमा में 3/4 प्रवेश कर चुका था कि पहलवान सेठ उसे पकड़ कर घसीटता हुआ अपनी दुकान में ले गया और किबला 'महाराज! महाराज!' पुकारते ही रह गये। कुछ देर बाद वो उसकी दुकान में घुस कर ग्राहक को छुड़ाकर लाने की कोशिश कर रहे थे कि पहलवान सेठ ने उनको वो गाली दी जो वो खुद सबको दिया करते थे।

फिर क्या था। किबला ने अपने खास शस्त्र-भंडार से यानी चारपाई से पट्टी निकाली और नंगे-पैर दौड़ते हुए उसकी दुकान में दुबारा घुसे। ग्राहक ने बीच-बचाव कराने का प्रयास किया और पहली झपट में अपना दांत तुड़वाकर बीच-बचाव की कारवाई से रिटायर हो गया। बुरी जबान वाला पहलवान सेठ दुकान छोड़ कर बगटुट भागा। किबला उसके पीछे सरपट। थोड़ी दूर जा कर उसका पांव रेल की पटरी में उलझा और वो मुंह के बल गिरा। किबला ने जा लिया। पूरी ताकत से ऐसा वार किया कि पट्टी के दो टुकड़े हो गये। मालूम नहीं इससे चोट आई या रेल की पटरी पर गिरने से, वो देर तक बेहोश पड़ा रहा। उसके गिर्द खून की तलैया-सी बन गई।

पहलवान सेठ की टांग के मल्टीपल फ्रैक्चर में गैंग्रीन हो गया और टांग काट दी गई। फौजदारी का मुकदमा बन गया। उसने पुलिस को खूब पैसा खिलाया और पुलिस ने पुरानी दुश्मनी के आधार पर किबला का, कत्ल की कोशिश के इल्जाम में, चालान पेश कर दिया। लंबी चौड़ी चार्ज शीट सुनकर, किबला कहने लगे कि टांग का नहीं कानून का मल्टीपल फ्रैक्चर हुआ है। पुलिस गिरफ्तार करके ले जाने लगी तो बीबी ने पूछा, 'अब क्या होयेगा?' कंधे उचकाते हुए बोले 'देखेंगे।' अदालत में बीच-बचाव करने वाले ग्राहक का दांत और कत्ल का हथियार यानी चारपाई की खून पिलाई हुई पट्टी Exhibits के तौर पर पेश किये गये। मुकद्दमा सेशन के सुपुर्द हो गया। किबला कुछ अर्से रिमांड पर न्यायिक हिरासत में रहे थे। अब जेल में बाकायदा खूनियों, डाकुओं, जेबकतरों और आदी-मुजरिमों के साथ रहना पड़ा। तीन-चार मुचैटों के बाद वो भी किबला को अपना चचा कहने और मानने लगे।

उनकी ओर से यानी बचाव-पक्ष के वकील की हैसियत से कानपुर के एक योग्य बैरिस्टर मुस्तफा रजा किजिलबाश ने पैरवी की, मगर वकील और मुवक्किल की किसी एक बात पर भी सहमति न हो सकी। किबला को जिद थी कि मैं हलफ उठा कर यह बयान दूंगा कि शिकायत करने वाले ने अपनी वल्दियत गलत लिखवायी है, इसकी सूरत अपने बाप से नहीं, बाप के एक बदचलन दोस्त से मिलती है।

वकील साहब इस बात पर जोर देना चाहते थे कि चोट रेल की पटरी पर गिरने से आई है, मुल्जिम के मारने से नहीं, उधर किबला अदालत में फिल्मी बैरिस्टरों की तरह टहल-टहल कर कटहरे को झंझोड़-झंझोड़ कर ये एलान करना चाहते थे कि मैं सिपाही का बच्चा हूं। दुकानदारी मेरे लिए कभी मान-सम्मान पाने का जरिया नहीं रही, बल्कि काफी समय से आमदनी का जरिया भी नहीं रही। टांग पर वार करना हमारी सिपाहियाना शान और मर्दानगी की तौहीन है। मैं तो दरअस्ल इसका सर टुकड़े-टुकड़े करना चाहता था। इसलिए अगर मुझे सजा देना ही जुरूरी है तो टांग तोड़ने की नहीं, गलत निशाने की दीजिए। 'सजा का पात्र हूं, मगर इल्जाम गलत है।'