खोया पानी / भाग 4 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंतिम समय और जूं का ब्लड टेस्ट

अदालत में फौजदारी मुकदमा चल रहा था। अनुमान यही था कि सजा हो जायेगी, खासी लंबी होगी। घर में हर पेशी के दिन रोना-पीटना मचता। दोस्त-रिश्तेदार अपनी जगह हैरान-परेशान कि जरा-सी बात पर यह नौबत आ गई। पुलिस उन्हें हथकड़ी पहनाये सारे शहर का चक्कर दिला कर अदालत में पेश करती और पहलवान से इस सेवा का मेहनताना वुसूल करती। भोली-भाली बीबी को विश्वास नहीं आता था। एक-एक से पूछतीं, 'भैया! क्या सचमुच की हथकड़ी पहनायी थी?' अदालत के अंदर और बाहर किबला के तमाम दुश्मनों यानी सारे शहर की भीड़ होती। सारे खानदान की नाक कट गई मगर किबला ने कभी मुंह पर तौलिया और हथकड़ी पर रूमाल नहीं डाला। गश्त के दौरान मूंछों पर ताव देते तो हथकड़ी झन-झन, झन-झन करती। रमजान का महीना आया तो किसी ने सलाह दी कि नमाज रोजा शुरू कर दीजिये। अपने कान ही पूर के मौलाना हसरत मोहानी तो रोजे में चक्की भी पीसते थे। किबला ने बड़ी हिकारत से जवाब दिया, 'लाहौल विला कुव्वत! मैं शायर थोड़े ही हूं। यह नाम होगा कि दुनिया के दुख न सह सका।'

बीबी ने कई बार पुछवाया, 'अब क्या होयेगा?' हर बार एक ही जवाब मिला, 'देख लेंगे।' क्रोधावस्था में जो बात मुंह से निकल जाये या जो काम हो जाये, उस पर उन्हें कभी लज्जित होते नहीं देखा। कहते थे कि आदमी के अस्ल चरित्र की झलक तो क्रोध के कौंदे में ही दिखाई देती है। इसलिए अपनी किसी करतूत यानी अस्ल चरित्र पर लज्जित या परेशान होने को मर्दों की शान के विरुद्ध समझते थे।

एक दिन उनका भतीजा शाम को जेल में खाना और जुएं मारने की दवा दे गया, दवा के विज्ञापन में लिखा था कि इसके मलने से जुऐं अंधी हो जाती हैं, फिर उन्हें आसानी से पकड़ कर मारा जा सकता है। जूं और लीख मारने की तरकीब भी लिखी थी, यानी जूं को बायें हाथ के अंगूठे पर रखो और दायें अंगूठे के नाखून से चट से कुचल दो। अगर जूं के पेट से काला या गहरा लाल खून निकले तो तुरंत हमारी दवा 'अक्सीरे-जालीनूस' (खून साफ करने वाली) पी कर अपना खून साफ कीजिए। पर्चे में यह निर्देश भी था कि दवा का कोर्स उस समय तक जारी रखिए जब तक कि जूं के पेट से साफ-सुर्ख खून न निकलने लगे। किबला ने जंगले के उस तरफ से इशारे से भतीजे को कहा कि अपना कान मेरे मुंह के पास लाओ। फिर उससे कहा कि बरखुरदार! जिंदगी का भरोसा नहीं, दुनिया इस जेल-समेत नश्वर है। गौर से सुनो, यह मेरा आदेश भी है और वसीयत भी। लोहे की अलमारी में दो हजार रुपये आड़े वक्त के लिए रद्दी अखबारों के नीचे छुपा आया था। रुपया निकाल कर अल्लन (शहर का नामी गुंडा) को दे देना। अपनी चची को मेरी ओर से तसल्ली देना। अल्लन को मेरी दुआ कहना और कहना कि छओं को ऐसी ठुकाई करे कि घर वाले सूरत न पहचान सकें। यह कहकर अखबार का एक मसला हुआ पुर्जा भतीजे को थमा दिया, जिसके किनारे पर उन छह गवाहों के नाम लिखे थे, जिन को पिटवाने की योजना उन्होंने जेल में उस समय बनायी थी जब ऐसी ही हरकत पर उन्हें आजकल में सजा होने वाली थी।

एक बार इतवार को उनका भतीजा जेल में मिलने आया और उनसे कहा कि जेलर तक आसानी से सिफारिश पहुंचायी जा सकती है। अगर आपका जी किसी खास खाने जैसे जर्दा या दही बड़े, शौक की मसनवी (एक पुराने शायर का महाकाव्य), सिगरेट या महोबे के पान को चाहे तो चोरी छुपे हफ्ते में कम-से-कम एक बार आसानी से पहुंचाया जा सकता है। चची ने याद करके कहने को कहा है। ईद करीब आ रही है, रो-रो कर उन्होंने आंखें सुजा ली हैं। किबला ने जेल के खद्दर के नेकर पर दौड़ता हुआ खटमल पकड़ते हुए कहा, मुझे किसी चीज की कोई जुरूरत नहीं। अगली बार आओ तो सिराज फोटोग्राफर से हवेली का फोटो खिंचवा के ले आना। कई महीने हो गये देखे हुए। जिधर तुम्हारी चची के कमरे की चिक है उस ओर से खींचे तो अच्छी आयेगी।

संतरी ने जमीन पर जोर से बूट की थाप लगाते और थ्री-नाट-थ्री की राइफल का कुंदा बजाते हुए डपट कर कहा कि मुलाकात का समय समाप्त हो चुका। ईद का खयाल करके भतीजे की आंखें डबडबा आईं और उसने नजरें नीची कर लीं। उसके होंठ कांप रहे थे। किबला ने उसका कान पकड़ा और खींच कर अपने मुंह तक लाने के बाद कहा, हां! हो सके तो जल्दी से एक तेज चाकू, कम से कम छह इंच के फल वाला, डबल रोटी या ईद की सिवैंयों में छुपा कर भिजवा दो। दूसरे, बंबई में Pentangular शुरू होने वाला है। किसी तरकीब से मुझे रोजाना स्कोर मालूम हो जाये तो वल्लाह! हर रोज ईद का दिन हो, हर रात शबे-बरात। खास तौर से वजीर अली का स्कोर दिन के दिन मालूम हो जाये तो क्या कहना। सजा हो गई, डेढ़ साल कैदे-बामुशक्कत (सश्रम करावास) फैसला सुना, सर उठा कर ऊपर देखा। मानो आसमान से पूछ रहे हों, 'तू देख रहा है! यह क्या हो रहा है?' How's that? पुलिस ने हथकड़ी डाली। किबला ने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। जेल जाते समय बीबी को कहला भेजा कि आज मेरे पुरखों की आत्मा कितनी प्रसन्न होगी, कितनी भाग्यशाली हो तुम कि तुम्हारा दूल्हा (जी हां! यही शब्द इस्तेमाल किया था) एक हरामजादे की ठुकाई करके मर्दों का जेवर पहने जेल जा रहा है। लकड़ी की टांग लगवा कर घर नहीं आ रहा। दो रकअत (नमाज में खड़े होने, झुकने और माथा टेकने को एक रकअत कहते हैं) नमाज शुकराने (धन्यवाद निवेदन) की पढ़ना। भतीजे को निर्देश दिया कि हवेली की मरम्मत कराते रहना, अपनी चची का खयाल रखना। उनसे कहना, ये दिन भी गुजर जायेंगे, दिल भारी न करें और जुमे को कासनी दुपट्टा ओढ़ना न छोड़ें।

बीबी ने पुछवाया, 'अब क्या होयेगा?'

जवाब मिला, 'देखा जायेगा।'

टार्जन की वापसी

दो साल तक दुकान में ताला पड़ा रहा। लोगों का विचार था कि जेल से छूटने के बाद छुपते-छुपाते कहीं और चले जायेंगे। किबला जेल से छूटे, जरा जो बदले हों। उनकी रीढ़ की हड्डी में जोड़ नहीं थे। जापानी भाषा में कहावत है कि बंदर पेड़ से जमीन पर गिर पड़े, फिर भी बंदर ही रहता है, सो वह भी टार्जन की तरह Auuuuuu चिंघाड़ते जेल से निकले। सीधे अपने खानदानी कब्रिस्तान गये। पिता की कब्र की पायंती की मिट्टी सर पर डाली। फातिहा (दुआ) पढ़ी और कुछ सोच कर मुस्कुरा दिये। दूसरे दिन दुकान खोली, केबिन के बाहर एक बल्ली गाड़ कर उस पर एक लकड़ी की टांग बढ़ई से बनवा कर लटका दी। सुब्ह शाम उसको रस्सी से खींच कर इस तरह चढ़ाते और उतारते थे, जिस तरह उस जमाने में छावनियों में यूनियन जैक चढ़ाया उतारा जाता था। जिन्होंने दो साल से पैसा दबा रखा था उन्हें धमकी-भरे खत लिखे और अपने हस्ताक्षर के बाद ब्रेकेट में सजायाफ्ता (सजा पाया हुआ) लिखा। जेल जाने से पहले पत्रों में खुद को बड़े गर्व से 'नंगे-असलाफ' (पूर्वजों के अपमान का कारण) लिखा करते थे। किसी की मजाल न थी कि इससे असहमत हो। असहमत होना तो दूर की बात है, मारे डर के सहमत भी नहीं हो सकता था। अब अपने नाम के साथ 'सजा-याफ्ता' इस प्रकार लिखने लगे जैसे लोग डिग्रियां या सम्मानसूचक शब्द लिखते हैं। कानून और जेल की झिझक निकल चुकी थी।

किबला जैसे गये थे, वैसे ही जेल काट कर वापस आ गये। तनतने और आवाज के कड़ाके में जरा अंतर न आया। इस बीच अगर जमाना बदल गया तो उसमें उनका कोई दोष न था। उनका कहा हुआ विश्वसनीय तो पहले ही था अब अंतिम सत्य भी हो गया। काले मखमल की रामपुरी टोपी और अधिक तिरछी हो गई, यानी इतनी झुका कर टेढ़ी ओढ़ने लगे कि दायीं आंख ठीक से नहीं खोल सकते थे। बीबी कभी घबरा के कहतीं, 'अब क्या होयेगा?' तो वह 'देखते हैं' की जगह 'देख लेंगे' और 'देखती जाओ' कहने लगे। रिहाई के दिन नजदीक आये तो दाढ़ी के बाल भी गुच्छेदार मूंछों में मिला लिए। जो अब इतनी घनी हो गई थीं कि एक हाथ से पकड़ कर उन्हें उठाते, तब कहीं दूसरे हाथ से मुंह में खाने का कौर रख पाते थे। जेल उनका कुछ बिगाड़ न सकी। कहते थे यहीं तीसरी बैरक में एक मुंशी फाजिल (B.A.) पास जालिया है, फसाहत खान। गबन और धोखाधड़ी में तीन साल की काट रहा है, बामुशक्कत। पहले 'शोला' अब 'हजीं' उपनाम रखा है। चक्की पीसते समय अपनी ही ताजा गजल गाता रहता है। मोटा पीसता है और पिटता है। अब यह कोई शायरी तो है नहीं, तिस पर खुद को गालिब से कम नहीं समझता। हालांकि एक जैसी बात सिर्फ इतनी है कि दोनों ने जेल की हवा खाई।

खुद को रुहेला बताता है। होगा, लगता नहीं। कैदियों से भी मुंह छुपाये फिरता है। अपने बेटे से कह रखा है कि मेरे बारे में कोई पूछे तो कह देना कि अब्बा कुछ दिनों के लिए बाहर गये हैं। जेल को कभी जेल नहीं कहता, जिंदां कहता है। (जेल के लिए फारसी शब्द) अरे साहब! गनीमत है कि जेलर को अजीजे-मिस्र (मिस्र का बादशाह) नहीं कहता। उसे तो चक्की को आसिया (चक्की के लिए अरबी शब्द) कहने में भी हिचक न होती मगर मैं जानूं पाट की अरबी मालूम नहीं। अरे साहब! मैं यहां किसी की जेब काट के थोड़े ही आया हूं। शेर को पिंजरे में कैद कर दो तब भी शेर ही रहता है। गीदड़ को कछार में आजाद छोड़ दो, और जियादा गीदड़ हो जायेगा। अब हम ऐसे भी गये-गुजरे नहीं कि जेल का घुटन्ना (घुटनों तक की निकर) पहनते ही स्वभाव बदल जाये। बल्कि हमें तो किबला की बातों से ऐसा लगता था कि फटा हुआ कपड़ा पहनने और जेल जाने को सुन्नते-यूसुफ़ी समझते हैं। उनके स्वभाव में जो टेढ़ थी वह कुछ और बढ़ गयीं। कव्वे पर कितनी तकलीफें गुजर जायें, कितना ही बूढ़ा हो जाये, उसके पर काले ही रहते हैं। खुरे, खुर्रे, खुरदरे, खरे या खोटे, वह जैसे कुछ भी थे, उनका बाहर और अंतर्मन एक था।

तन उजरा मन गादला , बगुला जैसा भेक

ऐसे से कागा भले , बाहर भीतर एक

कहते थे खुदा का करम है मैं मुनाफिक (पाखंडी) नहीं। मैंने गुनाह को हमेशा गुनाह समझकर किया।

दुकान दो साल से बंद पड़ी थी। छूट कर घर आये तो बीबी ने पूछा :

'अब क्या होयेगा?'

'बीबी, जरा तुम देखती जाओ'।

माशूक के होंठ

अबके दुकान चली और ऐसी चली कि औरों ही को नहीं स्वयं उन्हें भी आश्चर्य हुआ। दुकान के बाहर उसी शिकार की जगह यानी केबिन में उसी ठस्से से गावतकिये की टेक लगा कर बैठते, मगर आसन पसर गया था। पैरों की दिशा अब फर्श के मुकाबले आसमान की ओर अधिक हो गई थी। जेल में रहने से पहले किबला ग्राहक को हाथ से निवेदन करने वाले इशारे से बुलाते थे अब सिर्फ तर्जनी के हल्के से इशारे से तलब करने लगे। उंगली को इस तरह हिलाते जैसे डावांडोल पतंग को ठुमकी देकर उसकी दिशा दुरुस्त कर रहे हों। हुक्का पीते कम गुड़गुड़ाते जियादा थे। बदबूदार धुएं का छल्ला इस तरह छोड़ते कि ग्राहक की नाक में नथ की तरह लटक जाता। अक्सर कहते 'वाजिद अली शाह, जाने-आलम पिया ने, जो खूबसूरत नाम रखने में अपना जोड़ न रखते थे, हुक्के का कैसा प्यारा नाम रखा था... लबे-माशूक (माशूक के होंठ), जो व्यक्ति कभी हुक्के के पास से भी गुजरा है वो अच्छी तरह समझ सकता है कि जाने-आलम पिया का पाला कैसे होंठों से पड़ा होगा। चुनांचे अपदस्थ होने के बाद वो सिर्फ हुक्का अपने साथ मटियाबुर्ज ले गये। परीखाने के सारे माशूक लखनऊ में ही छोड़ दिये, चूंकि माशूक को नली पकड़ के गुड़गुड़ाया नहीं जा सकता।

बल्ली पे लटका दूंगा

कुछ दिन बाद उनका लंगड़ा दुश्मन यानी पहलवान सेठ दुकान बढ़ा कर कहीं और चला गया। किबला बात बेबात हरेक को धमकी देने लगे कि साले को बल्ली पे लटका दूंगा। आतंक का यह हाल कि इशारा तो बहुत बाद की बात है, किबला जिस ग्राहक की तरफ निगाह उठा कर भी देख लें, उसे कोई दूसरा नहीं बुलाता था। अगर वह खुद से दूसरी दुकान में चला भी जाये तो दुकानदार उसे लकड़ी नहीं दिखाता था। एक बार ऐसा भी हुआ कि सड़क पर यूं ही कोई राहगीर मुंह उठाये जा रहा था कि किबला ने उसे उंगली से अंदर आने का इशारा किया। जिस दुकान के सामने से वह गुजर रहा था, उसका मालिक और मुनीम उसे घसीटते हुए किबला की दुकान में अंदर धकेल गये। उसने रुआंसा हो कर कहा कि मैं तो मूलगंज पतंगों के पेच देखने जा रहा था।

वो इंतजार था जिसका, ये पेड़ वो तो नहीं

फिर यकायक उनका कारोबार ठप हो गया। वो कट्टर मुस्लिम लीगी थे। इसका असर उनके बिजनेस पर पड़ा। फिर पाकिस्तान बन गया। उन्होंने अपने नारे को हकीकत बनते देखा और दोनों की पूरी कीमत अदा की। ग्राहकों ने आंखें फेर लीं, दोस्त, रिश्तेदार जिनसे वो तमाम उम्र लड़ते झगड़ते और नफरत करते रहे, एक-एक करके पाकिस्तान चले गये, तो एक झटके के साथ यह खुला कि वो इन नफरतों के बगैर जिंदा नहीं रह सकते, और जब इकलौती बेटी और दामाद भी अपनी दुकान बेच के कराची सिधारे तो उन्होंने भी अपने तंबू की रस्सियां काट डालीं। दुकान औने-पौने एक दलाल के हाथ बेची। लोगों का कहना था कि 'बेनामी' सौदा है। दलाल की आड़ में दुकान दरअस्ल उसी लंगड़े पहलवान सेठ ने खरीद कर उनकी नाक काटी है। हल्का सा शक तो किबला को भी हुआ था मगर

'अपनी बला से, बूम ( उल्लू ) बसे या हुमा* रहे'

(वह चिड़िया जो किसी के सर पर साया कर दे , वह राजा हो जाता है )

वाली स्थिति थी। एक ही झटके में पीढ़ियों के रिश्ते नाते टूट गये और किबला ने पुरखों की जन्मभूमि छोड़ कर सपनों की जमीन की राह ली।

सारी उम्र शीशमहल में अपने मोरपंखी अभिमान का नाच देखते-देखते किबला कराची आये तो न सिर्फ जमीन अजनबी लगी, बल्कि अपने पैरों पर नजर पड़ी तो वो भी किसी और के लगे। खोलने को तो मार्किट में हरचंद राय रोड पर लश्तम पश्तम दुकान खोल ली, मगर बात नहीं बनी। गुजराती में कहावत है कि पुराने मटके पर नया मुंह नहीं चढ़ाया जा सकता। आने को तो वह एक नई हरी-भरी जमीन में आ गये, मगर उनकी बूढ़ी आंखें पिलखन को ढूंढ़ती रहीं। पिलखन तो दूर उन्हें कराची में नीम तक नजर न आया। लोग जिसे नीम बताते थे, वह दरअस्ल बकाइन थी, जिसकी निंबोली को लखनऊ में हकीम साहब पेचिश और बवासीर के नुस्खों में लिखा करते थे।

कहां कानपुर के देहाती ग्राहक, कहां कराची के नखरीले सागौन खरीदने वाले। वास्तव में उन्हें जिस बात से सबसे जियादा तकलीफ हुई वो ये कि यहां अपने आस-पास, यानी अपने दुखों की छांव में एक व्यक्ति भी ऐसा नजर नहीं आया जिसे वो अकारण और निर्भय होकर गाली दे सकें। एक दिन कहने लगे 'यहां तो बढ़ई आरी का काम जबान से लेता है। चार-पांच दिन हुए, एक बुरी जबान वाला, धृष्ट बढ़ई आया। इकबाल मसीह नाम था। मैंने कहा अबे परे हट कर खड़ा हो। कहने लगा ईसा मसीह भी तो तुरखान थे। मैंने कहा, क्या कुफ्र बकता है? अभी बल्ली पे लटका दूंगा। कहने लगा, ओह लोक वी ऐही, कहंदे सां! (वो लोग भी ईसा से यही कहते थे!)

मीर तक़ी मीर कराची में

पहली नजर में उन्होंने कराची को और कराची ने उनको रद्द कर दिया। उठते बैठते कराची में कीड़े डालते। शिकायत का अंदाज कुछ ऐसा होता था। हजरत! यह मच्छर हैं या मगरमच्छ? कराची का मच्छर डीडीटी से भी नहीं मरता, सिर्फ कव्वालों की तालियों से मरता है या गलती से किसी शायर को काट ले तो बावला होकर बेऔलाद मरता है। नमरूद (वह व्यक्ति जिसने पैगंबर इब्राहीम को जलाने की कोशिश की थी) की मौत नाक में मच्छर घुसने से हुई थी। कराची के मच्छरों की वंशावली कई नमरूदों से होती हुई उसी मच्छर की वंशावली से जा मिलती है और जरा जबान तो देखिए। मैंने पहली बार एक साहब को पट्टे वाला पुकारते सुना तो मैं समझा अपने कुत्ते को बुला रहे हैं। मालूम हुआ कि यहां चपरासी को पट्टे वाला कहते हैं। हर समय कुछ न कुछ फड्डा और लफड़ा होता रहता है, टोको तो कहते हैं उर्दू में इस स्थिति के लिए कोई शब्द नहीं है। भाई मेरे! उर्दू में यह स्थिति भी तो नहीं है। बंबई वाले शब्द और स्थितियां दोनों अपने साथ लाये हैं। मीर तकी मीर ऊंट गाड़ी में मुंह बांधे बैठे रहे, अपने हमसफर से इसलिए बात न की कि 'जबाने-गैर से अपनी जबां बिगड़ती है।' मीर साहब कराची में होते तो बखुदा मुंह पर सारी उम्र ढाटा बांधे फिरते। यहां तक कि डाकुओं का-सा भेस बनाये फिरने पर किसी डकैती में धर लिए जाते। अमां! टोंक वालों को अमरुद को सफरी (पित्त बनाने वाला) कहते तो हमने भी सुना था। यहां अमरूद को जाम कहते हैं और उस पर नमक-मिर्च की जगह साहब लगा दें तो अभिप्राय नवाब साहब लासबेला होते हैं। अपनी तरफ विक्टोरिया का मतलब मल्का टूरिया होता था। यहां किसी तरकीब से दस-बारह जने एक घोड़े पर सवारी गांठ लें तो उसे विक्टोरिया कहते हैं। मैं दो दिन लाहौर रुका था। वहां देखा कि जिस बाजार में कोयलों से मुंह काला किया जाता है वह हीरा मंडी कहलाती है। अब यहां नया फैशन चल पड़ा है। गाने वालों को गुलूकार और लिखने वाले को कलमकार कहने लगे हैं। मियां! हमारे समय में तो सिर्फ नेककार (अच्छे लोग) और बदकार (बुरे लोग) हुआ करते थे। कलम और गले से ये काम नहीं लिया जाता था। मैंने लालू खेत, बिहार-कालोनी, चाकीवाड़ा और गोलीमार का चप्पा-चप्पा देखा है। चौदह-पंद्रह लाख आदमी जुरूर रहते होंगे, लेकिन कहीं किताब और इत्र की दुकान न देखी। कागज तक के फूल नजर न आये। कानपुर में हम जैसे शरीफों के घराने में कहीं न कहीं मोतिया की बेल जुरूर चढ़ी होती थी। जनाब! यहां मोतिया सिर्फ आंखों में उतरता है। हद हो गई, कराची में लखपति, करोड़पति सेठ लकड़ी इस तरह नपवाता है जैसे किमख्वाब का टुकड़ा खरीद रहा हो। लकड़ी दिन में दो फुट बिकती है और बुरादा खरीदने वाले पचास! मैंने बरसों उपलों पर पकाया हुआ खाना भी खाया है लेकिन बुरादे की अंगीठी पर जो खाना पकेगा वो सिर्फ नर्क में जाने वाले मुर्दों के चालीसवें के लिए मुनासिब है।

भर पाये ऐसे बिजनेस से! माना कि रुपया बहुत कुछ होता है, मगर सभी कुछ तो नहीं। पैसे को जुरूरत पूरी करने वाला कहा गया है। बिल्कुल ठीक। मगर जब ये खुद सबसे बड़ी आवश्यकता बन जाये तो वो सिर्फ मौत से दूर होगी। मैंने तो जिदंगी में ऐसी कानी-खुतरी लकड़ी नहीं बेची। बढ़ई का ये साहस कि जती पे चढ़ के कमीशन मांगे। न दो तो माल को सड़े अंडे की तरह कयामत तक सेते रहो। हाय! न हुआ कानपुर। बिसौले से साले की नाक उतार कर हथेली पर रख देता कि जा! अपनी जुरवा (पत्नी) को महर में दे देना। वल्लाह! यहां का तो बाबा आदम ही निराला है। सुनता हूं, यहां के रेड लाइट एरिया नैपियर रोड और जापानी रोड पर तवायफें अपने-अपने दर्शनी झरोखों में लाल बत्तियां जलते ही कंटीली छातियों के पैड लगा कर बैठ जाती हैं। फिल्मों में भी इसी का प्रदर्शन होता है। यह तो वही बात हुई कि ओछे के घर तीतर, बाहर बांधूं कि भीतर। इस्लामी गणतंत्र की सरकार-बेसरोकार कुछ नहीं कहती, लेकिन किसी तवायफ को शादी ब्याह में मुजरे के लिए बुलाना हो तो पहले इसकी सूचना थाने को देनी पड़ती है। रंडी को परमिट राशनकार्ड पे मिलते हमने यहीं देखा। ऐश का सामान मांगने के वक्त न मिला तो किस काम का। दर्शनी मंडियों में दर्शनी हुंडियों का क्या काम।

मिर्जा अब्दुल बेग इस स्थिति की कुछ और ही व्याख्या करते हैं। कहते हैं कि तवायफ को थाने से N.O.C. इसलिए लेना पड़ता है कि पुलिस पूरी तरह इत्मीनान कर ले कि वो अपने धंधे पर ही जा रही है। धार्मिक प्रवचन सुनने या राजनीति में हिस्सा लेने नहीं जा रही।

एक दिन किबला कहने लगे, 'अभी कुछ दिन हुए कराची की एक नामी-गिरामी तवायफ का गाना सुनने का मौका मिला। अमां! उसका उच्चारण तो चाल-चलन से भी जियादा खराब निकला। हाय! एक जमाना था कि शरीफ लोग अपने बच्चों को शालीनता सीखने के लिए चौक की तवायफों के कोठों पर भेजते थे।' इस बारे में भी मिर्जा कहते हैं कि तवायफों के कोठों पर तो इसलिए भेजते थे कि बुजुर्गों के साथ रहने और घर के माहौल से बचे रहें।

दौड़ता हुआ पेड़

कराची शहर उन्हें किसी तरह और किसी तरफ से अच्छा नहीं लगा। झुंझला कर बार-बार कहते, 'अमां! यह शहर है या जहन्नुम?' मिर्जा किसी ज्ञानी के शब्दों में तब्दीली करके कहते हैं, 'किबला इस दुनिया से कूच करने के बाद अगर खुदा करे, वहीं पहुंच गये जिससे कराची की मिसाल दिया करते हैं तो चारों तरफ नजर दौड़ाने के बाद यह कहेंगे कि हमने तो सोचा था कराची छोटा-सा जहन्नुम है। जहन्नुम तो बड़ा-सा कराची निकला।'

एक बार उनके एक करीबी दोस्त ने उनसे कहा कि तुम्हें समाज में खराबियां ही खराबियां नजर आती हैं तो बैठे-बैठे इन पर कुढ़ने की जगह सुधार की सोचो। बोले, 'सुनो! मैंने एक जमाने में पी.डब्ल्यू.डी. के काम भी किये हैं, मगर नर्क की एयर-कंडीशनिंग का ठेका नहीं ले सकता।'

बात सिर्फ इतनी थी कि अपनी छाप, तिलक और छब छिनवाने से पहले वो जिस आईने में खुद को देख-देख कर सारी उम्र इतराया किये, उसमें जब नई दुनिया और नये वतन को देखा तो वह जमाने की गर्दिशों से Distorting Mirror बन चुका था, जिसमें हर शक्ल अपना ही मुंह चिढ़ाती नजर आती थी। उनके कारोबारी हालात तेजी से बिगड़ रहे थे। बिजनेस, न होने के बराबर था। उनकी दुकान पर एक तख्ती लटके देख कर हमें दुःख हुआ।