खोया पानी / भाग 7 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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ब्लैक होल आफ धीरजगंज

बिशारत इंटरव्यू के अंदर दाखिल हुए तो कुछ नजर न आया। इसलिए कि केवल एक गोल मोखे के अतिरिक्त, रौशनी आने के लिए कोई खिड़की या रौशनदान नहीं था। फिर धीरे-धीरे इसी अंधेरे में हर चीज की आउटलाइन उभरती, उजलती चली गयी। यहां तक कि दीवारों पर पीली मिट्टी और गोबर की ताजा लिपाई में मजबूती और पकड़ के लिए जो कड़बी की छीलन और भुस के तिनके डाले गये थे, उनका कुदरती वार्निश अंधेरे में चमकने लगा। दायीं तरफ कम-अंधेरे कोने में दो बटन चमकते नजर आये। वो चलकर उनकी तरफ बढ़े तो उन्हें डर महसूस हुआ। ये उस बिल्ली की आंखें थीं जो किसी अनदेखे चूहे की तलाश में थी।

बायीं तरफ एक चार फुट ऊंची मकाननुमा खाट पड़ी थी जिसके पाये शायद साबुत पेड़ के तने से बनाये गये थे। बिसौले से जल उतारने का कष्ट भी नहीं किया गया था। उस पर सलेक्शन कमेटी के तीन मैंबर टांगें लटकाये बैठे थे। उसके पास ही एक और मैंबर बिना पीठ के मूढ़े पर बैठे थे। दरवाजे की तरफ पीठ किये मौलवी मुजफ्फर एक टेकीदार मूढ़े पर विराजमान थे। एक बिना हत्थे वाली लोहे की कुर्सी पर एक बहुत हंसमुख व्यक्ति उल्टा बैठा था यानी उसकी पीठ से अपना सीना मिलाये और किनारे पर अपनी ठोढ़ी रखे। उसका रंग इतना सांवला था कि अंधेरे में सिर्फ दांत नजर आ रहे थे। यह तहसीलदार था जो इस कमेटी का चेयरमैन था। एक मैंबर ने अपनी तुर्की टोपी खाट के पाये को पहना रखी थी। कुछ देर बाद जब बिल्ली उसके फुंदने से तमाचे मार-मार कर खेलने लगी तो उसने पाये से उतार कर सर पर रख ली। सबके हाथों में खजूर के पंखे थे। मौली मज्जन पंखे की डंडी गर्दन के रास्ते शेरवानी में उतार कर बार-बार अपनी पीठ खुजाने के बाद डंडी की नोक को सूंघते थे। तहसीलदार के हाथ में जो पंखा था, उसके किनारे पर लाल गोटा और बीच में गुर्दे की शक्ल का छेद था जो उस काल में सब स्टूलों में होता था। इसका उपयोग एक अरसे तक हमारी समझ में न आया। कई लोग गर्मियों में इस पर सुराही या घड़ा रख देते थे ताकि सूराख से पानी रिसता रहे और पैंदे को ठंडी हवा लगती रहे। बिशारत अंत तक ये फैसला न कर सके कि वो खुद नर्वस हैं या स्टूल लड़खड़ा रहा है।

तहसीलदार पेड़े की लस्सी पी रहा था और बाकी मैंबर हुक्का। सबने जूते उतार रखे थे। बिशारत को ये पता होता तो निःसंदेह साफ मोजे पहन कर आते। मूढ़े पर बैठा हुआ मैंबर अपने बायें पैर को दायें घुटने पर रखे, हाथ की उंगलियों से पांव की उंगलियों के साथ पंजा लड़ा रहा था। एक उधड़ी हुई कलई का पीकदान घूम रहा था। हवा में हुक्के, पान के बनारसी तंबाकू, कोरी ठिलिया, कोने में पड़े हुए खरबूजे के छिलकों, खस के इत्र और गोबर की लिपाई की ताजा गंध बसी हुई थी और उन पर हावी भबका था जिसके बारे में विश्वास से नहीं कहा जा सकता था कि यह देसी जूतों की बू है जो पैरों से आ रही है या पैरों की सड़ांध है जो जूतों से आ रही है।

जिस मोखे की चर्चा पहले की जा चुकी है उसके बारे में यह फैसला करना कठिन था कि वो रौशनी के लिए बनाया गया है या अंदर के अंधेरे को कंट्रास्ट से और अधिक अंधेरा दिखाने के लिए रखा गया है। अंदर के धुएं को बाहर फेंकने के लिए है या बाहर की धूल को अंदर का रास्ता दिखाने के इरादे से बनाया गया। बाहर के दृश्य देखने के लिए झरोखा है या बाहर वालों को अंदर की ताक-झांक के लिए झांकी उपलब्ध करायी गयी है। रौशनदान, हवादान, दर्शनी-झरोखा, धुएं की चिमनी, पोर्ट होल... बिशारत के कथनानुसार यह एशिया का सर्वाधिक बहुउद्देशीय छेद था जो बेहद ओवरवर्क्ड था और चकराया हुआ था। इसलिए इनमें से कोई भी काम ठीक से नहीं कर पा रहा था। इस समय इसमें हर पांच मिनट बाद एक नया चेहरा फिट हो जाता था। हो यह रहा था कि बाहर दीवार तले एक लड़का घोड़ा बनता और दूसरा उस पर खड़ा हो कर उस वक्त तक तमाशा देखता रहता जब तक घोड़े के पैर न लड़खड़ाने लगते और वो कमर को कमानी की तरह लचका-लचका कर यह मांग न करने लगता कि यार! उतर, मुझे भी तो देखने दे।

यदा-कदा यह मोखा ऑक्सीजन और गालियों की निकासी के रास्ते के रूप में भी इस्तेमाल होता था। इस संक्षिप्त विवरण का विस्तार यह है कि मौली मज्जन दमे के मरीज थे। जब खांसी का दौरा पड़ता और ऐसा लगता कि शायद दूसरा सांस नहीं आयेगा तो वो दौड़ कर मोखे में अपना मुंह फिट कर देते थे और जब सांस का पूरक रेचक ठीक हो जाता तो सस्वर अल्हम्दुलिल्लाह कह कर लौंडों को सड़ी-सड़ी गालियां देते। थोड़ी देर बाद धूप का कोण बदला तो सूरज का एक चकाचौंध लपका कमरे का अंधेरा चीरता चला गया। इसमें धुएं के बल खाते मरगोलों और धूलकणों का नाच देखने लायक था। बायीं दीवार पर दीनियात (धार्मिक विषय) के जत्रों के बनाये हुए इस्तंजे (पेशाब के बाद कतरों को सुखाने के लिए मुसलमान मिट्टी के ढेले इस्तेमाल करते हैं, उन्हें इस्तंजा कहा जाता है) के निहायत सुडौल ढेले करीने से तले ऊपर सजे थे जिन पर अगर मक्खियां बैठी होतीं तो बिल्कुल बदायूं के पेड़े मालूम होते।

दायीं दीवार पर जार्ज-पांचवें की फोटो पर गेंदे का सूखा खड़ंक हार लटक रहा था। उसके नीचे मुस्तफा पाशा का फोटो और मौलाना मुहम्मद अली जौहर की तस्वीर जिसमें वो चोगा पहने और समूरी टोपी पर चांद-तारा लगाये खड़े हैं। इन दोनों के बीच मौलवी मज्जन का बड़ा-सा फोटो और उसके नीचे फ्रेम किया हुआ मान-पत्र जो अध्यापकों और चपरासियों ने उनकी सेवा में हैजे से ठीक होने की खुशी में लंबी उम्र की प्रार्थना के साथ अर्पित किया था। उनकी तन्ख्वाह पांच महीने से रुकी हुई थी।

ये बात तो रह ही गयी। जब बिशारत इंटरव्यू के लिए उठ कर जाने लगे तो कुत्ता भी साथ लग गया। उन्होंने रोका मगर वो न माना। चपरासी ने कहा, 'आप इस पलीद को अंदर नहीं ले जा सकते।' बिशारत ने जवाब दिया, 'यह मेरा कुत्ता नहीं है'। चपरासी बोला, 'तो आप इसे दो घंटे से बांहों में लिए क्यों बैठे थे?' उसने एक ढेला उठा कर मारना चाहा तो कुत्ते ने झट पिंडली पकड़ ली। चपरासी चीखने लगा। बिशारत के मना करने पर उसने फौरन पिंडली छोड़ दी। शुक्रिया अदा करने के बजाय चपरासी कहने लगा, 'और आप इस पर भी कहते हैं कि कुत्ता मेरा नहीं है।' जब वो अंदर दाखिल हुआ तो कुत्ता भी उनके साथ घुस गया। रोकना तो बड़ी बात, चपरासी में इतना हौसला भी नहीं रहा कि टोक भी सके। उसके अंदर घुसते ही भूचाल आ गया। कमेटी के मेंबरों ने चीख-चीख कर छप्पर सर पर उठा लिया। लेकिन जब वो उनसे भी जियादा जोर से भौंका तो सब सहम कर अपनी-अपनी पिंडलियां गोद में ले कर बैठ गये। बिशारत ने कहा कि अगर आप हजरात बिल्कुल शांत और स्थिर हो जायें तो यह भी चुप हो जायेगा। इस पर एक साहब बोले आप इंटरव्यू में अपना कुत्ता लेकर क्यों आये हैं? बिशारत ने कसम खा कर कुत्ते से अपनी असंबद्धता प्रकट कि तो वही साहब बोले 'अगर आपका दावा है कि यह कुत्ता आपका नहीं है तो आप इसकी बुरी आदतों से इतने परिचित कैसे हैं?

बिशारत इंटरव्यू के लिए अपनी जगह बैठ गये तो कुत्ता उनके पैरों से लग कर बैठ गया। उनका जी चाहा कि वो यूं ही बैठा रहे। अब वो नर्वस महसूस नहीं कर रहे थे, इंटरव्यू के दौरान दो बार मौलवी मज्जन ने बिशारत की किसी बात पर बड़ी तुच्छता से जोरदार कहकहा लगाया तो कुत्ता उनसे भी जियादा जोर से भौंकने लगा और वो सहम कर कहकहा बीच में ही स्विच ऑफ करके चुपके बैठ गये। बिशारत को कुत्ते पर बेतहाशा प्यार आया।


कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या ?

इंटरव्यू से पहले तहसीलदार ने गला साफ करके सबको खामोश किया तो ऐसा सन्नाटा छाया कि दीवार पर लटके हुए क्लाक की टिक-टिक और मौलवी मुजफ्फर के हांफने की आवाज साफ सुनायी देने लगी। फिर इंटरव्यू शुरू हुआ और सवालों की बौजर। इतने में क्लाक ने ग्यारह बजाये तो सब दोबारा खामोश हो गये। धीरजगंज में कुछ अर्से रहने के बाद बिशारत को मालूम हुआ कि देहात की तहजीब के मुताबिक जब क्लाक कुछ बजाता है तो सब खामोश और बाअदब हो कर सुनते और गिनते हैं कि गलत तो नहीं बजा रहा।

इंटरव्यू दोबारा शुरू हुआ तो जिस शख्स को चपरासी समझे थे, वो खाट की अदवायन पर आ कर बैठ गया। वो धार्मिक विषयों का मास्टर निकला जो उन दिनों उर्दू टीचर की जिम्मेदारी भी निभा रहा था। इंटरव्यू में सबसे जियादा धर-पटक उसी ने की। मौलवी मुजफ्फर और एक मैंबर ने भी, जो मुंसिफी अदालत से रिटायर्ड पेशकार थे, ऐंडे-बेंडे सवाल किये। तहसीलदार ने अलबत्ता छिपे-तौर पर मदद और तरफदारी की और सिफारिश की लाज रखी। चंद सवालात नक्ल किये जा रहे हैं। जिससे सवाल करने और जवाब देने वाले दोनों की योग्यता का अंदाजा हो जायेगा।

मौलवी मुजफ्फर : ('कुल्लियाते-मखमूर' पर चुमकारने के अंदाज से हाथ फेरते हुए) शेर कहने के फायदे बयान कीजिये।

बिशारत : (चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन जैसे आउट आफ कोर्स सवाल पूछ लिया हो) शायरी... मेरा मतलब है, शेर... यानी उसका मकसद... बात दरअस्ल ये है कि... शौकिया...।

मौलवी मुजफ्फर : अच्छा खालिके बारी का कोई शेर सुनाइए।

बिशारत : खालिक-बारी सर्जनहार, वाहिद एक बिदा करतार।

पेशकार : आपके बाप, दादा और नाना किस विभाग में नौकर थे?

बिशारत : उन्होंने नौकरी नहीं की।

पेशकार : फिर आप कैसे नौकरी कर सकेंगे। चार पीढ़ियां एक के बाद एक अपना पित्ता मारें तो कहीं जा कर नौकरी की काबिलियत पैदा होती है।

बिशारत : (सीधेपन से) मेरा पित्ता आप्रेशन के जरिये निकाला जा चुका है।

धार्मिक शिक्षक : आप्रेशन का निशान दिखाइए।

तहसीलदार : आपने कभी बेंत का इस्तेमाल किया है?

बिशारत : जी नहीं।

तहसीलदार : कभी आप पर बेंत का इस्तेमाल हुआ है?

बिशारत : अक्सर।

तहसीलदार : तब आप डिसीप्लिन कायम कर सकेंगे।

पेशकार : अच्छा यह बताइए दुनिया गोल क्यों बनायी गयी है?

बिशारत : (पेशकार को ऐेसे देखते हैं जैसे चारों खाने चित्त होने पर पहलवान अपने प्रतिद्वंद्वी को देखता हैं...)

तहसीलदार : पेशकार साहब! इन्होंने उर्दू टीचर की दरख्वास्त दी है, भूगोल वालों के इंटरव्यू परसों होंगे।

धार्मिक शिक्षक : ब्लैक-बोर्ड पर अपनी राइटिंग का नमूना लिख कर दिखाइए।

पेशकार : दाढ़ी पर आपको क्या ऐतराज है?

बिशारत : कुछ नहीं।

पेशकार : फिर रखते क्यों नहीं?

धार्मिक शिक्षक : आपको चचा से जियादा मुहब्बत है या मामू से?

बिशारत : कभी गौर नहीं किया।

धार्मिक शिक्षक : अब कर लीजिए।

बिशारत : मेरे कोई चचा नहीं हैं।

धार्मिक शिक्षक : आपको नमाज आती है? अपने पिता के जनाजे की नमाज पढ़ कर दिखाइए।

बिशारत : वो जिंदा हैं।

धार्मिक शिक्षक : लाहौल विला कुव्वत, मैंने तो अंदाजा लगाया। तो फिर अपने दादा की पढ़ कर दिखाइए। या आप अभी उनकी कृपा से भी वंचित नहीं हुए हैं।

बिशारत : (भरी आवाज में) उनका इंतकाल हो गया है।

मौलवी मुजफ्फर : मुसद्दस हाली का कोई बंद सुनाइए।

बिशारत : मुसद्दस का तो कोई बंद इस वक्त याद नहीं आ रहा। हाली की ही मुनाजाते-बेवा के कुछ शेर पेश करता हूं।

तहसीलदार : अच्छा, अब अपना कोई पसंदीदा शेर सुनाइए जिसका विषय बेवा न हो।

बिशारत :

तोड़ डाले जोड़ सारे बांध कर बंदे-कफन

गोर की बगली से चित है पहलवां, कुछ भी नहीं

तहसीलदार : किसका शेर है?

बिशारत : जबान का शेर है।

तहसीलदार : ऐ सुब्हानल्ला! कुर्बान जाइए, कैसी-कैसी लफ्जी रिआयतें और कयामत के तलामजे बांधे हैं। तोड़ की टक्कर पे जोड़। एक तरफ बांधना दूसरी तरफ बंद। वाह! वाह! इसके बाद बगली कब्र और बगली दांव की तरफ खूबसूरत इशारा, फिर बगली दांव से पहलवान का चित होना। आखिर में चित पहलवान और चित मुर्दा और कुछ भी नहीं, कह के दुनिया की नश्वरता को तीन शब्दों में भुगता दिया। ढेर सारे अलंकारों को एक शेर में बंद कर देना चमत्कार नहीं तो और क्या है। ऐसा ठुका हुआ, इतना पुख्ता और इतना खराब शेर कोई उस्ताद ही कह सकता है।

मौलवी मुजफ्फर : आप सादगी पसंद करते हैं या दिखावा।

बिशारत : सादगी।

मौलवी मुजफ्फर : शादीशुदा हैं या छड़े दम।

बिशारत : जी, गैर शादीशुदा।

मौलवी मुजफ्फर : फिर आप इतनी सारी तन्ख्वाह का क्या करेंगे? यतीमखाने को कितना मासिक चंदा देंगे?

तहसीलदार : आपने शायरी कब शुरू की? अपना पहला शेर सुनाइए।

बिशारत :

है इंतजारे-दीद में लाशा उछल रहा

हालांकि कू-ए-यार अभी कितनी दूर है

तहसीलदार : वाह वा! 'हालांकि' का जवाब नहीं वल्लाह ऊसर जमीन में 'लाशा' ने जान डाल दी और 'इतनी दूर' में कुछ न कह कर कितना कुछ कह दिया।

बिशारत : आदाब बजा लाता हूं।

तहसीलदार : छोटी बहर में क्या कयामत का शेर निकाला है। शेर में शब्दों की मितव्ययिता के अलावा विचार की भी कृपणता पाई जाती है।

बिशारत : आदाब।

तहसीलदार : (कुत्ता भौंकने लगता है) मुआफ कीजिए, मैं आपके कुत्ते के भौंकने में खलल डाल रहा हूं। यह बताइये कि जिंदगी में आपकी क्या Ambition है?

बिशारत : यह नौकरी मिल जाये।

तहसीलदार : तो समझिये मिल गयी। कल सुब्ह अपना सामान बर्तन-भांडे ले आइएगा। साढ़े ग्यारह बजे मुझे आपकी Joining Report मिल जानी चाहिए। तन्ख्वाह आपकी चालीस रुपये माहवार होगी।

मौलवी मुजफ्फर चीखते और पैर पटकते रह गये कि सुनिये तो। ग्रेड पच्चीस रुपये का है, तहसीलदार ने उन्हें झिड़क कर खामोश कर दिया और फाइल पर अंग्रेजी में यह नोट लिखा कि इस उम्मीदवार में वो तमाम अच्छे गुण पाये जाते हैं जो किसी भी लायक और Ambitious नौजवान को एक कामयाब पटवारी या क्लास का टीचर बना सकते हैं, बशर्ते कि मुनासिब निगरानी और रहनुमाई मिले। मैं अपनी सारी व्यस्तताओं के बावजूद इसे अपना कुछ वक्त और ध्यान देने के लिए तैय्यार हूं। शुरू में मैंने इसे 100 में से 80 नंबर दिये थे मगर बाद में पांच नंबर सुलेख के बढ़ाये लेकिन पांच नंबर शायरी के काटने पड़े।


विशेष मूली और अच्छा - सा नाम

बिशारत ने दोपहर का खाना यतीमखाने के बजाय मौलवी बादल (इबादुल्ला) के यहां खाया जो इसी स्कूल में फारसी पढ़ाते थे। मक्खन में चुपड़ी हुई गरम रोटी के साथ आलू का भुरता और लहसुन की चटनी मजा दे गयी। मौलवी बादल ने अपनी आत्मीयता और सहयोग का यकीन दिलाते हुए कहा कि बरखुरदार! मैं तुम्हें खोंते रफू करना, आटा गूंधना और हर तरह का सालन पकाना सिखा दूंगा। खुदा की कसम! बीबी की जुरूरत ही महसूस न होगी। लगे हाथ उन्होंने मूली की भुजिया बनाने की जो तरकीब बतायी वो खासी पेचीदा और खतरनाक थी। इसलिए कि इसकी शुरुआत मूली के खेत में पौ फटने से पहले जाने से होती थी। उन्होंने हिदायत की कि देहात की तहजीब के खिलाफ लहलहाते खेत में तड़के मुंह उठाये न घुस जाओ, बल्कि मेंड़ पर पहले इस तरह खांसो-खंखारो जिस तरह बेकिवाड़ या टाट के परदे वाले पाखाने में दाखिल होने से पहले खंखारते हैं। इसके बाद यह हिदायत की कि टखने से एक बालिश्त ऊंचा लहंगा और हंसली से दो बालिश्त नीची चोली पहनने वाली खेत की मालकिन धापां से ताजा गदरायी हुई मूली की जगह और उसे तोड़ने की इजाजत कैसे ली जाये कि नजर देखने वाली पर न पड़े। यह भी इरशाद फरमाया कि चमगादड़ सब्जियां वायु खोलने वाली होती हैं। इससे उनका तात्पर्य उन पौधों से था जो अपने पैर आसमान की तरफ किये रहते हैं। जैसे गाजर, गोभी, शलगम। फिर उन्होंने पत्ते देख कर यह पहचानना बताया कि कौन-सी मूली तीखी फुफ्फुस निकलेगी और कौन-सी जड़ेली और मछेली। ऐसी तेजाबी कि खाने वाला खाते वक्त मुंह पीटता फिरे और खाने के बाद पेट पीटता फिरे और कोई ऐसी सुडौल चिकनी और मीठी कि बेतहाशा जी करे कि काश गज भर की होती। उन्होंने यह भी बताया कि कभी गलती से तेजाबी मूली उखाड़ लो तो फेंको मत। इसका अर्क निकाल कर ऊंट की खाल की कुप्पी में भर लो। चालीस दिन बाद जहां दाद या एक्जिमा हो वहां फुरैरी से लगाओ। अल्लाह ने चाहा तो खाल ऐसी आयेगी जैसी नवजात बच्चे की। कुछ अर्से बाद जैसे ही बिशारत ने अपने मामू की एक्जिमा की फुन्सियों पर इस अर्क की फुरेरी लगाई, तो बुजु्र्गवार बिल्कुल नवजात बच्चे की तरह चीखें मारने लगे।

बिशारत इंटरव्यू से फारिग हो कर प्रसन्नचित निकले तो कुत्ता उनके साथ नत्थी था। उन्होंने हलवाई से तीन पूरियां और रबड़ी खरीद कर उसे खिलाई। वो उनके साथ लगा-लगा मौलवी बादल के यहां गया। इंटरव्यू में आज जो चमत्कार उनके साथ हुआ उसे उन्होंने उसी के दम-कदम का जहूरा समझा। कानपुर वापस जाने के लिए वो बस में सवार होने आये तो वो उनसे पहले छलांग लगा कर बस में घुस गया, जिससे मुसाफिरों में पहले खलबली, फिर भगदड़ मच गयी। क्लीनर उसे इंजन स्टार्ट करने वाले हैंडिल से मारने दौड़ा तो उन्होंने लपक कर उसकी कलाई मरोड़ी। कुत्ता लारी की छत पर खड़ा उनके साथ कानपुर आया। ऐसे वफादार कुत्ते को कुत्ता कहते उन्हें शर्म आने लगी। उन्होंने उसी वक्त उसका नाम बदल कर लार्ड डलहौजी रखा, जो उस जनरल का नाम था जिससे मुकाबला करते हुए टीपू की मृत्यु हुई थी। कानपुर पहुंचकर उन्होंने पहली बार उस पर हाथ फेरा। उन्हें अंदाजा नहीं था कि कुत्ते का जिस्म इतना गर्म होता है। उस पर जगह-जगह लड़कों के पत्थरों से पड़े हुए जख्मों के निशान थे। उन्होंने उसके लिए एक खूबसूरत कालर और जंजीर खरीदी।


हुजूर फैज गंजूर तहसीलदार साहब

दूसरे दिन बिशारत अपनी सारी दुनिया टीन के ट्रंक में समेट कर धीरजगंज आ गये। ट्रंक पर उन्होंने एक पेंटर को चार आने दे कर अपना नाम, डिग्री, तख्ल्लुस सफेदे से पेंट करवा लिए। जो बड़ी कठिनाई से दो लाइनों में (बक्से की) समा पाये। यह ट्रंक उनकी पैदाइश से पहले का था, मगर उसमें चार लीवर वाला नया पीतली ताला डाल कर लाये थे। इसमें कपड़े इतने कम थे कि रास्ते भर, अंदर रखा हुआ मुरादाबादी लोटा ढोलक बजाता आया। इसके शोर मचाने की एक वज्ह यह भी हो सकती है कि उनके खजाने में यह ताजा कलई किया हुआ लोटा ही सबसे कीमती चीज था। अभी उन्होंने मुंह भी नहीं धोया था कि तहसीलदार का चपरासी एक लट्ठ और यह पैगाम ले कर आ धमका कि तहसीलदार साहब बहादुर ने याद फर्माया है। उन्होंने पूछा, 'अभी!' बोला 'और क्या! फौरन से पेश्तर! बिलमवाजा, असालतन' चपरासी के मुंह से यह मुंशियाना जबान सुन कर उन्हें हैरत हुई और खुशी भी, जो उस वक्त खत्म हुई जब उसने यह पैगाम लाने का इनाम, दोपहर का खाना और सफरखर्च इसी जबान में तलब किया। कहने लगा तहसील में यही दस्तूर है। बंदा तो चाकर है। जब तक वो इन इच्छाओं पर गौर करें, वो लट्ठ की चांदी की शाम को मुंह की भाप और अंगोछे से रगड़-रगड़ कर चमकाता रहा।

झुलसती, झुलसाती दोपहर में बिशारत डेढ़-दो मील पैदल चलकर हांपते-कांपते तहसीलदार के यहां पहुंचे तो वो दोपहर की नींद ले रहा था। एक-डेढ़ घंटे इंतजार के बाद वो अंदर बुलाये गये तो खस की टट्टी की महकती ठंडक जिस्म में उतरती चली गयी। लू से झुलसती हुई आंखों में एक दम ठंडी-ठंडी रौशनी-सी आ गयी। ऊपर छत से लटका हुआ झालरदार पंखा हाथी के कान की तरह हिल रहा था। फर्श पर बिछी चांदनी की उजली ठंडक उनकी जलती हुई हथेली को बहुत अच्छी लगी। जब इसकी तपिश से चांदनी गर्म हो जाती तो वो हथेली खिसका कर दूसरी जगह रख देते। तहसीलदार बड़े तपाक और प्यार से पेश आया। बर्फ में लगे हुए तरबूज की एक फांक और छिले हुए सिंघाड़े पेश करते हुए बोला, 'तो अब अपने कुछ शेर सुनाइए जो बेतुके न हों, छोटी बहर में न हों, वज्न और तहजीब से गिरे हुए न हों।' बिशारत शेर सुना कर दाद पा चुके तो उसने अपनी एक ताजा नज्म सुनायी।

वो अपनी रान खुजाये चला जा रहा था। टांगों पर मढ़े हुए चूड़ीदार पाजामे में न जाने कैसे एक भुनगा घुस गया था और वो ऊपर ही ऊपर चुटकी से मसलने की बार-बार कोशिश कर रहा था। कुछ देर बाद एक सुंदर कमसिन नौकरानी नाजो ताजा तोड़े हुए फालसों का शर्बत लाई। तहसीलदार कनखियों से बराबर बिशारत को देखता रहा कि नाजो को देख रहे हैं या नहीं। मोटी मलमल के सफेद कुरते में कयामत ढा रही थी। वो गिलास देने के लिए झुकी तो उसके बदन से जवान पसीने की महक आई और उनका हाथ उसके चांदी के बटनों के घुंघरुओं को छू गया। उसका आड़ा पाजामा रानों पर से कसा हुआ था और पैबंद के टांके दो-एक जगह इतने बिकसे हुए थे कि नीचे चमेली बदन खिलखिला रहा था। शरबत पी चुके तो तहसीलदार कहने लगा कि आज तो खैर आप थके हुए होंगे, कल से मेरे बच्चों को उर्दू पढ़ाने आइए। जरा खिलंदड़े हैं। तीसरे ने तो अभी कायदा शुरू ही किया है। बिशारत ने अनाकानी की तो एकाएक उसके तेवर बदल गये। लहजा कड़ा और कड़वा होने लगा। कहने लगा, जैसा कि आपको बखूबी मालूम था, है और हो जायेगा, आपकी अस्ल तन्ख्वाह पच्चीस रुपये ही है। मैंने जो स्वयं पंद्रह रुपये बढ़ाकर चालीस कर दिये तो दरअस्ल पांच रुपये फी बच्चा ट्यूशन थी, वरना मेरा दिमाग थोड़े ही खराब हुआ था कि कालेज के निकले हुए नये बछड़े को मुसलमानों की गाढ़ी कमाई के चंदे से पंद्रह रुपये की नज्र पेश करता। आखिर को ट्रस्टी की कुछ जिम्मेदारी होती है। आपको मालूम होना चाहिए कि खुद स्कूल के हैडमास्टर की तन्ख्वाह चालीस रुपये है और वो तो बी.ए., बी.टी. (अलीगढ़) सैकिंड डिवीजन है। अमरोहे का है मगर निहायत शरीफ सय्यद है। अलावा, आप की तरह 'सर मुंडवा के इश्किया शेर नहीं कहता।'

अंतिम सात शब्दों में उसने उनके व्यक्तित्व का खुलासा निकाल कर रख दिया और वो ढह गये। उन्होंने बड़ी विनम्रता से गिड़गिड़ा कर पूछा, 'क्या कोई Alternative बंदोबस्त नहीं हो सकता।' तहसीलदार चिढ़ावनी हंसी हंसा। कहने लगा, 'जुरूर हो सकता है। वो ऑल्टरनेटिव बंदोबस्त ये है कि आपकी तन्ख्वाह वही पच्चीस रुपये रहे और आप इसी में मेरे बच्चों को भी पढ़ायेंगे। आया खयाले-शरीफ में? बर्खुरदार, अभी आपने दुनिया नहीं देखी। मैं आपके हाथ में दो कबूतर देता हूं, आप यह तक तो बता नहीं सकते कि इनमें मादा कौन सी है?

उनके जी में तो बहुत आया कि पलट कर जवाब दें कि कोलंबस साहब, अगर इसी डिस्कवरी का नाम दुनिया देखना है, तो यह काम कबूतर कहीं बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं। इतने में तहसीलदार दो-तीन बार जोर-जोर से खांसा तो थोड़ी दूर एक कोने में दुबका धूल में अटा कानूनगो लपक कर बिशारत के पास आया और उनकी ठुड्डी में हाथ देते हुए कहने लगा, आप सरकार के सामने कैसी बचकानी बातें कर रहे हैं। यह इज्जत किसे नसीब होती है। सरकार झूठों भी इशारा कर दें तो लखनऊ यूनिवर्सिटी के सारे प्रोफेसर हाथ बांधे सर के बल चल कर आयें। सरकार को तीन बार डिप्टी कलेक्टरी ऑफर हो चुकी है मगर सरकार ने हर बार हिकारत से ठोकर मार दी कि मैं स्वार्थी हो जाऊं और डिप्टी कलेक्टर बन कर चला जाऊं तो तहसील धीरजगंज का स्टाफ और प्रजा कहेगी कि सरकार हमें बीच मंझधार में किस पर छोड़े जाते हो।

बिशारत स्तब्ध रह गये, मर्द ऐसे मौकों पर खून कर देते हैं और नामर्द खुदकुशी कर लेते हैं। उन्होंने यह सब कुछ नहीं किया, नौकरी की जो कत्ल और खुदकुशी दोनों से कहीं जियादा मुश्किल है।


यह रुत्ब-ए-बुलंद मिला जिसको मिल गया

तहसीलदार ने जनाने से अपने बेटों को बुलाया और उनसे कहा - चचाजान को आदाब करो। यह कल से तुम्हें पढ़ाने आयेंगे। बड़े और छोटे ने आदाब किया। मंझले ने दायें हाथ से ओक बनाया और झुक-झुक कर दो बार आदाब करने के बाद तीसरी बार झुका तो साथ ही मुंह भी चिढ़ाया।

अब तहसीलदार का मूड बदल चुका था। लड़के लाइन बना कर वापस चले गये तो वो बिशारत से कहने लगा 'परसों ज्योग्राफी की टीचर की जगह के लिए इंटरव्यू है। मैं आपको सैलेक्शन कमेटी का मेंबर बना रहा हूं। धार्मिक विषयों का टीचर इस लायक नहीं कि कमेटी का मेंबर रहे। मौली मज्जन को खबर कर दी जायेगी।' यह सुनते ही बिशारत को गुदगुदियां होने लगीं। उस वक्त कोई उन्हें वायसराय बना देता तब भी इतनी खुशी न होती। अब वो भी इंटरव्यू में अच्छे-अच्छों को खूब रगेदेंगे और पूछेंगे कि मियां तुम डिग्रियां बगल में दबाये अफलातून बने फिरते हो, जरा यह तो बताओ कि दुनिया गोल क्यों बनायी गयी है? बड़ा मजा आयेगा। यह इज्जत किसे नसीब होती है कि अकारण जलील होने के फौरन बाद दूसरों को अकारण जलील करके हिसाब बराबर कर दे। उनके घायल स्वाभिमान के सारे घाव पल भर में भर गये।

मारे खुशी के वो यह भी स्पष्ट करना भूल गये कि बंदा हर इंटरव्यू के बाद न आवाज लगायेगा, न घंटा बजायेगा। चलने लगे तो तहसीलदार ने मटमैले कानूनगो को आंखों से कुछ इशारा किया और उसने पंद्रह सेर गेहूं और एक हांडी गन्ने के रस की साथ कर दी। उसे यह भी हिदायत दी कि कल मास्टर साहब के घर जवासे की एक गाड़ी डलवा देना और बेगार में किसी पन्नीगर को भेज देना कि हाथों-हाथ टट्टी बना दे। उस जमाने में जो लोग खस की क्षमता नहीं रखते थे वो जवासे के कांटों की टट्टी पर सब्र करते थे और जो इस काबिल भी नहीं होते थे, वो खस की पंखिया पर कोरी ठिलिया का पानी छिड़क लेते। उसे झलते-झलते जब नींद का झोंका आता तो 'खसखाना-ओ-बर्फाब की ख्वाबनाक खुन्कियों' में उतरते चले जाते।