गाँव में पेच्या के कुछ दिन / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा
नाई ओसिप ने अपने सामने कुर्सी पर बैठे शख़्स के सीने पर मैली-सी चादर ठीक से फैलाकर, उसके किनारे को अपनी उँगलियों से उसके कॉलर में फँसाया और रूखे स्वर में ज़ोर से कहा — ओय लड़के, पानी ला !
अपनी हज़ामत बनवाने के लिए कुर्सी पर बैठे साहब अपने चेहरे को आईने में बड़े ग़ौर से देख रहे थे। उन्हें अचानक अपने चेहरे पर एक पका हुआ मुहाँसा दिखा, जिससे उन्हें थोड़ी खीज हुई। तभी उन्हें एक पतला और छोटा-सा हाथ आईने के सामने बने डेस्क पर कुछ रखता हुआ दिखाई दिया। उसने गरम पानी से भरा हुआ टिन का एक गिलास वहाँ रख दिया था। उन्होंने अपनी नज़रे उठाईं तो उन्हें सामने लगे आईने में नाई का अजीब-सा अक्स दिखाई दिया। नाई तीखी नज़रों से उस बच्चे को घूर रहा था और नाराज़गी से कुछ बड़बड़ा रहा था। वह नाई यानी ओसिप ही उस कटिंग-सैलून का मालिक था।
जब उसकी दुकान पर आए ग्राहकों की हज़ामत प्रकोपि या मिख़अईल जैसे उसके नौसिखिया कर्मचारी बनाया करते थे, तो वे भी उस बच्चे पर अपनी झुँझलाहट उतारते थे और बच्चे को धमकाते हुए कहते थे — रुक बदमाश ! अभी बताता हूँ तुझे !
इस तरह की झिड़की का मतलब होता था कि उस लड़के ने पानी देने में बहुत देर लगा दी है और उसे अब इसकी सज़ा मिलेगी।
नाई अपने उलटे हाथ के अँगूठे और तर्जनी से उन साहब के गाल को पहले उस्तरा फेरने लायक बना रहा था और फिर दूसरे हाथ से उस्तरा चला रहा था। उसका उस्तरा कुछ भौंथरा था और हज़ामत बनवा रहे साहब की दाढ़ी के बाल मोटे और सख़्त थे, इसलिए उनके गाल पर उस्तरा फेरते समय कच-कच की आवाज़ आ रही थी। साहब का सर हलका-सा एक तरफ़ को झुका हुआ था और उनकी नज़र नाई के हाथों पर थी। साहब झिड़की खाने वाले लड़के के बारे में सोच रहे थे और मन ही मन कह रहे थे — ठीक ही तो है, इन लड़कों के साथ ऐसा ही सलूक होना चाहिए।
नाई की दुकान बेहद गन्दी थी। वहाँ मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और सस्ते टेलकम पाउडर की गंध बसी हुई थी। लेकिन पूरी बस्ती में हज़ामत की यही दुकान सबसे सस्ती थी, इसलिए बस्ती में रहने वाले दिहाड़ी मज़दूर, दरबान-चौकीदार और नौकर-चाकर वगैरह वहाँ आया करते थे। कभी-कभी छोटे ओहदों पर काम करने वाले सरकारी कर्मचारी भी वहाँ दिख जाते थे। वहाँ तरह-तरह के लोगों का आना-जाना लगा रहता था। कुछ तो शक़्ल से ही अजीब लगते थे, क्योंकि उनके गाल इतने लाल होते थे कि जैसे उनपर लाली पोत दी गई हो। उनकी नज़र भी अलग-सी होती थी। उनके भोंडे चेहरों पर नज़र आने वाली उनकी छिद्दी और लाल आँखें देखकर ही यह संदेह होने लगता था कि जैसे वे गुण्डे और अपराधी हों। उस कटिंग सैलून से थोड़ी दूरी पर ही लाल-बत्ती वाला इलाका फैला हुआ था, जिसकी वजह से शहर के शरीफ़ माने जाने वाले लोग उस जगह से बचकर निकलते थे।
सैलून के उस सबसे नन्हे कर्मचारी का नाम था — पेत्च्या। या फिर हमारी हिन्दी में उच्चारण की सुविधा के लिए हम कह सकते हैं — पेच्या। वह अभी पूरे दस साल का भी नहीं हुआ था। दुकान के बाक़ी सभी कर्मचारी उसपर रौब जमाते और छोटी-छोटी बातों पर और कभी-कभी तो बिनबात ही उसे डाँटते-फटकारते। पेच्या की ही तरह वहाँ एक और लड़का काम करता था, जिसका नाम था — निकोला। वह पेच्या से पूरे तीन साल बड़ा था और जल्दी ही बाल काटने की ट्रेनिंग लेना शुरू करने वाला था। वैसे उसे ग्राहकों पर हाथ जमाने के मौक़े मिलने लगे थे। होता यह था कि जब मालिक की ग़ैरहाज़िरी में कोई बहुत ही सीधा-सादा ग्राहक आता और नाइयों का काम करने का मन नहीं होता, तो वे उस ग्राहक को निकोला के आगे बैठा दिया करते थे। निकोला छोटे क़द का था, इसलिए जब बाल काटने के लिए उसे बीच-बीच में अपनी एड़ियाँ उठा-उठाकर पंजों के बल खड़ा होना पड़ता तो वे उसका मज़ाक भी उड़ाते थे। कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि ग्राहक के बाल बिगड़ जाने पर वह नाराज़ होकर निकोला पर चिल्लाने लगता था। जब कभी ऐसा होता तो दूसरे नाई उस भोले-भाले ग्राहक को दिलासा देने के लिए निकोला पर ग़ुस्सा होने लगते और उसे डाँटने का दिखावा किया करते थे।
परन्तु निकोला ख़ूब अच्छी तरह से यह जानता था कि यह सब दिखावा है, इसलिए वह भी उनके साथ ऐसे पेश आता, जैसे उसकी उम्र तेरह नहीं तीस साल की है। इस छोटी सी उम्र में ही वह सिगरेट पीया करता था। वह अपने दाँत भींचकर थूक की ऐसी पिचकारी मारता कि लोग घिनघिनाते हुए उसे गालियाँ देने लगते। बदले में वह भी गन्दी-गन्दी गालियाँ बकता। पेच्या से तो वह यह भी कहा करता था कि वह भी कभी-कभी शराब भी पी लेता है। लेकिन, शराब वाली बात शायद वह, बस, शेखी बघारने के लिए ही कहता था। निकोला कभी-कभी उम्र में ख़ुद से बड़े लोगों के साथ चकलों पर भी घूम आया करता था। जब वहाँ से वह बेहद ख़ुश और हँसता-झूमता हुआ वापस आता तो मालिक उसके दोनों गालों पर ऐसे थप्पड़ जड़ता मानो उसे थपथपा रहा हो।
दूसरी तरफ़ पेच्या का न तो सिगरेट और शराब से ही कोई वास्ता था और न ही वह गालियाँ देता था, हालाँकि कई गन्दे लफ़्ज़ उसे भी मालूम थे। वह निकोला जैसी हरकतें तो कभी नहीं करता था, पर कभी-कभार उसके मन में निकोला के लिए थोड़ी जलन ज़रूर पैदा हो जाती थी।
कभी-कभी दुकान में मुर्दाघर जैसी शांति होती थी। जब उसका मालिक पूरी रात मौज़मस्ती करने के बाद दिन में दुकान के एक कोने में पड़ा रात की नींद पूरी कर रहा होता और दूसरा नाई अख़बार के ‘चोरी और डकैती’ वाले पन्ने पर अपने जान-पहचान के लोगों के नाम ढूँढ़ रहा होता, तब पेच्या और निकोला बड़े प्यार से आपस में बतियाया करते थे। जब भी वे दोनों अकेले होते, तब पेच्या के साथ निकोला का रवैया पूरी तरह से बदल जाया करता था। वह बहुत उदार और दयालु हो जाता और बड़े प्यार से पेच्या को बालों की कटिंग की बारीकियों के बारे में समझाता। वह उसे बताता कि माँग वाले और बिना माँग वाले बाल कैसे काटे जाते हैं।
सैलून की खिड़की पर एक लड़की की मोम की एक आवक्ष-मूर्ति रखी हुई थी, जिसके गाल गुलाबी, पलकें लम्बी-लम्बी और काँच की आँखें आश्चर्य से खुली हुई थीं। ख़ाली समय मिलने पर वे दोनों बच्चे कभी-कभी उस खिड़की पर मूर्ति के पास बैठकर उस सड़क पर आते-जाते लोगों को देखा करते थे, जिसके दोनों तरफ़ छायादार पेड़ लगे हुए थे।
उस रास्ते पर सुबह से ही लोगों की हलचल शुरू हो जाती थी। गर्मियों में पेड़ धूल-मिट्टी से लिथड़कर सलेटी हो जाते थे और तेज़ धूप में पसीजने-से लगते थे। उनकी छाया से राहगीरों को ज़रा भी ठण्डक नहीं मिलती थी। पेड़ों के नीचे बनी बैंचों पर चिथड़े पहने ग़रीब और असहाय लोग बैठे रहते थे। ये बैंचें ही जैसे उनका घर था। अपनी और आसपास की ज़िन्दगी से उदासीन वे लोग बड़े बेचैन और थके हुए लगते थे। उनके चेहरों से साफ़ ज़ाहिर होता था कि आसपास की दुनिया से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। उनके सिर कन्धों पर लटके हुए दिखाई देते थे, जैसे वे उनींदे से हों। लेकिन सरकार की तरफ़ से किसी को भी उन बैंचों पर लेटने या सोने की इज़ाज़त नहीं थी। नीली वर्दी वाला एक सिपाही वहाँ सारा दिन तैनात रहता था और ज्यों ही किसी को झपकी लेते देखता तो अपनी लाठी से उसे कोंचने लगता था। बीच-बीच में किसी-किसी बैंच पर साफ़-सुथरे कपड़े पहने हुए लोग भी दिखाई देते थे। औरतें मर्दों के मुक़ाबले ज़्यादा बनी-ठनी दिखाई देतीं। उनके कपड़े भी नए ज़माने के फ़ैशन के होते। उनकी शक़्लें एक जैसी लगतीं। अगर कोई उन्हें ग़ौर से नहीं देखे तो ऐसा लगता कि जैसे वे सब एक ही उम्र की हों। हालाँकि उनकी उम्र में बड़ा फर्क होता था। कोई बूढ़ी होती तो कोई अधेड़, कोई भरी-पूरी युवती होती तो कोई जवानी में क़दम रख रही किशोरी।
लेकिन इस सबके बावजूद वे औरतें ग़रीब थीं और मध्य वर्ग की दिखावे की संस्कृति-सभ्यता से परे थीं। वे खरखराई आवाज़ में ज़ोर-ज़ोर से बातें करतीं और एक दूसरे को नीचा दिखाने में भी कोई कसर उठा न रखती थीं। मर्दों से उनके रिश्ते कुछ ख़ास ही होते और वे उन्हें ऐसे गले लगाती जैसे वे ही उनके सब कुछ हों। वे लोग वहीं बैठकर खाते-पीते और शराब के नशे में धुत्त हो जाते। कभी-कभी उनके बीच झगड़ा हो जाता तो कोई मर्द किसी औरत की पिटाई कर डालता। मर्द के हाथों मार खाती हुई नशे में डूबी औरत नीचे गिरती, फिर किसी तरह कोशिश करके खड़ी हो जाती और फिर - फिर गिरती। लेकिन उसे बचाने वाला वहाँ कोई न होता। आसपास के लोग इस तमाशे को देखकर ख़ुश दिखाई देते। वे लोग झगड़ रहे आदमी और औरत के चारों तरफ़ जमा होकर उनकी तू-तू मैं-मैं और गाली-गलौज का मज़ा लेते हुए ख़ूब हँसते - खिलखिलाते, पर जैसे ही वहाँ तैनात पुलिसवाला उनके क़रीब आने लगता, तब वहाँ से नौ दो ग्यारह हो जाते। सिर्फ़ पिटने वाली औरत ही वहाँ पड़ी रह जाती। वह सुबक-सुबककर ज़ोर-ज़ोर से रोती और ग़ुस्से में चीखती-चिल्लाती। धीरे-धीरे उसका रुदन बड़बड़ाहट और फुसफुसाहट में बदल जाता। उसके बिखरे हुए बाल मिट्टी में घिसटते रहते और ज़मीन पर पड़ा उसका गन्दा, अधनंगा और पीला बदन बहुत दयनीय लगता। थोड़ी देर में पुलिस आती और उसे ताँगे के पायदान पर लादकर वहाँ से ले जाती। चलते हुए ताँगे में उसका सिर ऐसे लटका होता जैसे उसकी जान ही निकल गई हो।
2
निकोला उस मोहल्ले के कई लोगों को नाम से जानता था। उनके बारे में वह पेच्या को हँस-हँसकर गन्दी-गन्दी कहानियाँ सुनाया करता। उसे इसमें बहुत मज़ा आता था। पेच्या उससे ये क़िस्से सुनकर हैरान रह जाता और सोचता — यह निकोला कितना अक़्लमन्द और बेख़ौफ़ है। बड़ा होकर मैं भी ऐसा ही बनूँगा। परन्तु अभी तो पेच्या उस दुकान से छुटकारा पाकर कहीं दूसरी जगह जाना चाहता था… सच में, बड़ी तमन्ना थी उसकी कहीं और जाने की।
इस कटिंग सैलून में तो पेच्या का बचपन बरबाद हो रहा था। उसका हर नया दिन बीते कल के जैसा ही होता। पूरे बारह महीने उसे दुकान में टँगे दो आईने ही दिखते, जिनमें से एक में तरेड़ पड़ी हुई थी और दूसरा इतना ख़राब हो गया था कि उसमें शक़्ल आड़ी-तिरछी दिखाई देती। सैलून की दीवार पर एक बड़ा-सा पोस्टर लगा हुआ था, जिसमें एक समुद्र दिखाई दे रहा था और उसके किनारे दो अधनंगी लड़कियाँ बैठी हुई थीं। पोस्टर काफ़ी पुराना था और उसपर जगह-जगह दाग लगे हुए थे। लड़कियों के गोरे बदन पर लगातार मक्खियाँ बैठी रहती थीं। इसलिए अधनंगी होने के बावजूद उन्हें देखकर उबकाई आती थी। मसक्वा (मॉस्को) में आमतौर पर सर्दियों के दिन बहुत छोटे होते हैं। कई-कई दिन तक बादल छाए रहते हैं। दुकान में छाए अँधेरे को कम करने के लिए वहाँ एक लालटेन जलती रहती थी और मिट्टी के तेल की बू माहौल में बसी रहती थी। जिस जगह पर लालटेन रखी जाती थी, उसके चारों ओर धुएँ से दीवारें काली हो चुकी थीं। कभी-कभी दीवार पर से कालिख की परत फ़र्श पर झरती थी। रोज़ाना सुबह से शाम तक पेच्या के कानों में, बस, यही आवाज़ गूँजती रहती थी — ओय लडके… पानी ला …।
जिस नाई के पास पेच्या काम करता था, वहाँ उसे कोई छुट्टी नहीं दी जाती थी। हालाँकि इतवार को छुट्टी का दिन होता था और उस इलाके की सभी छोटी-बड़ी दुकानें बन्द रहा करती थीं। पर हज़ामत की यह दुकान हमेशा खुली रहती और उसकी लालटेन की फीकी रौशनी देखकर यह पता लगता कि दुकान बन्द नहीं है। वहाँ से गुज़रने वाले लोगों को दुकान के दरवाज़े के किनारे पड़ी पेच्या की छोटी-सी मूरत दिखाई पड़ती। बच्चा या तो उनींदा-सा सोच में डूबा होता या गहरी नींद में होता।
पेच्या को जब भी समय मिलता, वह ऊँघने लगता। भाग-भागकर वह इतना थक जाता था कि हमेशा मुरझाया-सा दिखता, उसे हमेशा नींद आती रहती थी। उनींदेपन में उसे हर समय यही सुनाई देता — ओय लड़के, पानी ला। यह ऐसी हक़ीक़त थी कि वह सोते-सोते भी गिलास में पानी ढालने लगता था।
पेच्या का हाल बेहाल था। उसकी आँखों के नीचे काले गड्ढे दिखाई देने लगे और चेहरे पर झाइयाँ उभर आई थीं। उससे इतना ज़्यादा काम लिया जाता था कि उसे न तो नहाने-धोने का समय मिलता और न ही भरपेट खाने का। अपनी पुरानी चिथड़ा कमीज़ में वह बहुत गन्दा-सा दिखता। अपने बचपन में ही वह जैसे बूढ़ा लगने लगा था। दुकान में आने वाले ग्राहक भी अब नन्हे पेच्या को उपेक्षा से देखने लगे थे।
बेचारा पेच्या ! वह बुरी तरह से थक चुका था। अब वह वहाँ से भाग जाना चाहता था। लेकिन वह जाए तो जाए कहाँ? उसकी सिर्फ़ एक माँ ही थी, जो मसक्वा ज़िले के एक गाँव में एक रईस की कोठी में बावर्चिन का काम करती थी और वहीं रहती थी। वह कभी-कभी अपने बेटे से मिलने नाई की दुकान पर आती थी। पेच्या उससे कभी कोई शिकायत नहीं करता था। माँ खाने की जो भी चीज़ उसके लिए लाती, वह धीरे-धीरे बेमन से खा लिया करता। वह अपनी माँ से हर बार, बस, एक ही गुज़ारिश करता। वह कहता — माँ ! मुझे यहाँ से ले चलो। वह उससे यह भी नहीं पूछता था कि अगली बार वह कब आएगी। और माँ के वापस जाने के बाद पेच्या यह भी भूल जाता कि उसने माँ से क्या कहा था।
पेच्या लम्बे समय तक उस दुकान में काम करता रहा और उस जगह को छोड़कर कहीं और जाने के लिए तड़पता रहा। उधर उसकी माँ भी अपने बच्चे का यह हाल देखकर ख़ुद बेहाल रहती थी। फिर एक दिन एक चमत्कार हुआ। अचानक दोपहर के खाने के समय उसकी माँ दुकान में आई। उसने सैलून के मालिक से बात की और उससे कहा कि वह पेच्या को अपने साथ ले जाना चाहती है। अब पेच्या कुछ दिन उसके साथ ही रहेगा।
बच्चे को पहले तो अपनी माँ की बात समझ में ही नहीं आई, लेकिन जब समझ में आई तो उसका चेहरा खिल उठा और वह हँसने लगा, जिससे उसके चेहरे पर पड़ी झाइयाँ दिखाई देने लगीं। पेच्या उसी पल उस जगह से छुटकारा पाने के लिए माँ का हाथ पकड़कर खींचने लगा और उसे दरवाज़े की तरफ़ धकेलने लगा।
मासूम पेच्या अपनी माँ के मालिक की हवेली के बारे में कुछ नहीं जानता था, परन्तु उसे इसका अन्दाज़ हो गया था कि यही वह जगह है, जहाँ वह कब से जाना चाहता था। उसे दुकान छोड़कर भागने की इतनी जल्दी थी कि वह बदमाश निकोला से विदाई लेने का इन्तज़ार तक नहीं करना चाहता था। उधर निकोला अपने दोनों हाथ जेब में डाले खड़ा था और कंजी आँखों से पेच्या की माँ नद्येझदा की तरफ़ ऐसे देख रहा था मानो वह उसके साथ कोई बदतमीज़ी करना चाहता है। पर कोई ऐसा करिश्मा हुआ कि अगले ही पल उसकी आँखों से गहरी वेदना छलकने लगी। निकोला की माँ नहीं थी। पेच्या को माँ के साथ जाता देखकर उसकी आँखें भर आईं और वह मन ही मन सोचने लगा — काश ! मेरी भी कोई माँ होती, भले ही वह नद्येझदा की तरह मोटी होती!
माँ पेच्या को लेकर रेलवे-स्टेशन पहुँची। यह पेच्या के लिए एक नई दुनिया थी। रेलगाड़ियों के आने-जाने की गड़गड़ाहट और इंजनों की सीटियाँ पेच्या को कभी नाई की दुकान के मालिक की भारी और ग़ुस्साई आवाज़ की तो कभी उसकी बीमार बीवी की तीखी और पतली आवाज़ की याद दिला रही थीं। स्टेशन की भीड़भाड़ देखकर पेच्या अचरज में आ गया था। उसकी माँ ने उसे बताया कि वे लोग भी ऐसी ही एक रेलगाड़ी में बैठकर गाँव जाएँगे। उनकी गाड़ी रवाना होने में अभी पूरा आधा घंटा बचा था। उधर पेच्या से और इंतज़ार नहीं हो रहा था। वह रेलगाड़ी में बैठने के लिए अधीर हो रहा था। आखिर राम-राम करके आधा घंटा पूरा हुआ और तभी उनके प्लेटफार्म पर धड़धड़ाती हुई एक रेल आकर रुकी। पेच्या अपनी माँ के साथ रेल में बैठ गया और गाड़ी चल पड़ी। गाड़ी के चलते ही पेच्या खिड़की से गर्दन निकालकर बाहर की ओर देखने लगा। बाहर के दृश्य इतने लुभावने थे कि उसका मुँड़ा हुआ सिर इधर-उधर घूम रहा था।
पेच्या मसक्वा में ही पैदा हुआ था। वह जीवन में पहली बार शहर से बाहर के खुले-खुले मैदान, खेत और जंगल देख रहा था। उसके लिए सब कुछ नया-नया और कुतूहल भरा था। उन्हें देखकर वह बहुत उत्सुक हो उठा था। उसे पहली बार यह अनुभव हुआ था कि हम बहुत दूर तक देख सकते हैं और बहुत दूर-दूर लगे हुए पेड़ एकदम छोटे दिखने लगते हैं। उसकी नई दुनिया का आकाश बहुत बड़ा और एकदम साफ़ था, मानो वह उसे खुली छत पर खड़ा होकर देख रहा हो। पेच्या ने पहले तो आसमान को अपनी खिड़की से निहारा फिर सिर माँ की तरफ़ घुमाकर दूसरी तरफ़ वाली खिड़की से बाहर देखा। यह कौतुक देखकर वह हैरत में पड़ गया कि दूसरी तरफ़ वाला आकाश ज़्यादा नीला है और उसमें बादलों की नन्ही-नन्ही सफ़ेद परियाँ तैर रही हैं। उसकी आँखों में कुतूहल था। वह कभी अपनी खिड़की से बाहर देखता तो कभी दौड़कर दूसरी तरफ़ जाता और वहाँ खिड़की से बाहर देखने लगता। इधर-उधर भागते होते हुए पेच्या आसपास बैठे मुसाफ़िरों के घुटनों और कन्धों को भी छू रहा था। पर इससे किसी को कोई परेशानी नहीं हो रही थी। सभी उसकी तरफ़ प्यार से देखकर मुस्कुरा रहे थे और उसकी हरकतों का मज़ा ले रहे थे। पेच्या के सामने वाली सीट पर बैठे एक साहब अख़बार पढ़ रहे थे। शायद वे थके हुए थे, इसलिए बार-बार जम्हाइयाँ ले रहे थे। उन्हें पेच्या का बार-बार एक खिड़की से दूसरी खिड़की की ओर भागना पसन्द नहीं आया। उन्होंने थोड़ी नाराज़गी जताते हुए पेच्या पर दो-तीन बार तिरछी नज़र डाली। पेच्या की माँ ने उनकी नाराज़गी भॉंप ली और उनसे माफ़ी माँगते हुए कहा — यह पहली बार रेलगाड़ी में बैठा है, इसलिए इतनी उछल-कूद कर रहा है।
उन साहब ने एक छोटी सी ‘ऊँ…हूँ…’ कहकर अपना सर फिर अख़बार में गड़ा लिया।
पेच्या की माँ का उन महाशय को यह बताने का बहुत दिल कर रहा था कि उसका बेटा तीन साल से एक नाई की दुकान पर रहकर काम सीख रहा है। और उसके मालिक ने यह वायदा किया है कि वह उसे काम सिखाकर पैरों पर खड़ा कर देगा। यदि ऐसा हो जाएगा तो बहुत अच्छा होगा क्योंकि वह अकेले ही उसे पाल रही है। हारी-बीमारी या बुढ़ापे में पेच्या के अलावा उसका और कोई दूसरा सहारा नहीं है…। पर पेच्या की माँ को वे भाईसाहब थोड़े अजीब-से लगे, इसलिए उसने कुछ नहीं कहा और मन मसोसकर रह गई।
अब रेललाइन के दाहिनी ओर एक उबड़-खाबड़-सा मैदान दिखाई देने लगा था। पूरा मैदान कीचड़ और काई से भरा हुआ था। काई की वजह से उसका रंग गहरा हरा नज़र आ रहा था। उस मैदान के किनारे-किनारे धूसर रंग के छोटे-छोटे घरोंदे से खड़े थे, जो दूर से एकदम खिलौनों की तरह लग रहे थे। मैदान के उस पार एक हरी पहाड़ी दिखाई दे रही थी और पहाड़ी की तलहटी में एक नदी झलक रही थी। नदी के किनारे सफ़ेद रंग का एक छोटा-सा गिरजाघर भी चमक रहा था। तभी रेल नदी के ऊपर बने पुल पर पहुँच गई और गड़गड़ाहट की आवाज़ आने लगी। पेच्या ने नीचे झाँककर देखा। नीचे शांत और समतल नदी दिखाई दे रही थी। नीचे नदी देखकर पेच्या को ऐसा लगा मानो उनकी रेल हवा में उड़ रही हो। पेच्या चौंककर खिड़की से पीछे हट गया, मगर अगले ही पल वह वापस खिड़की पर आ गया। वह नहीं चाहता था कि बाहर का एक भी दृश्य उसकी नज़र से छूट जाए। वह बेहद ख़ुश दिखाई दे रहा था और अभी तक बीते पिछले कुछ घंटों में ही उसका रूप-रंग पूरी तरह से बदल गया था। उसकी उदासी, उसकी ऊब और उसके चेहरे की थकान न जाने कहाँ चली गई थीं। उसके चेहरे पर ख़ुशी छाई हुई थी और उसकी बालसुलभ जिज्ञासा भी लौट आई थी।
3
पेच्या अपनी माँ के साथ गाँव में बनी उस हवेली में पहुँचा, जहाँ माँ काम करती थी। माँ इस हवेली में बावर्चिन थी और उसे वहाँ रहने के लिए एक कोठरी मिली हुई थी। पेच्या को वहीं रहना था। उसके लिए हवेली का माहौल एकदम नया था। उसने गाँव का जीवन पहले कभी नहीं देखा था, इसलिए वह पहले थोड़ा सहम सा गया। आमतौर पर ऐसा होता है कि लोग गाँव से शहर में रहने के लिए आते हैं और शहर की भीड़भाड़ में ख़ुद को अकेला महसूस करते हैं। लेकिन पेच्या मसक्वा में पला-बढ़ा था। मसक्वा की रंगीनियों और शोर-शराबे के बाद वह अपनी ज़िंदगी में पहली बार गाँव पहुँचकर ख़ुद को कमज़ोर और असहाय महसूस कर रहा था। यहाँ की प्रकृति जीवंत थी और वह मनुष्य के साथ सीधा संवाद करती थी। पेच्या गाँव के चारों ओर फैले जंगल से, जंगल के अँधेरे से और हवा में झूमते पेड़ों से डर रहा था। दूसरी तरफ़ गाँव के हरे-भरे मैदानों में खिले रंग-बिरंगे फूलों और खेतों में खड़ी हरी-भरी फसल को देखकर वह गुनगुनाने लगा था। जबकि इससे पहले उसकी माँ ने उसे कभी गीत गाते हुए नहीं सुना था। गाँव के प्राकृतिक दृश्यों का उसपर सकारात्मक प्रभाव पड़ा था और वह इन दृश्यों को वैसे ही दुलारना चाहता था जैसे किसी नन्हे बच्चे को देखकर हमारा मन उसे चूमने को हो आता है। उसे लगता था कि गहरा नीला आसमान उसकी माँ की तरह ही हँस रहा है और उसे अपने पास बुला रहा है। वह घर से बाहर निकल आया और हवेली के पास बने मैदान में घूमने लगा।
घूमते-घूमते थककर वह घास पर लेट गया। घास इतनी ज़्यादा ऊँची थी कि पेच्या उसमें छिप-सा गया था और उसमें से उसकी छोटी-सी नाक झलक रही थी। शुरू में वह देर तक घर के बाहर नहीं रह पाता था। बाहर खेलते-खेलते बीच-बीच में वह कई बार अपनी माँ के पास आता था। माँ का चेहरा अपने दोनों हाथों में भरकर वह उसे बार -बार चूमता था और उससे चिपककर प्यार से थोड़ा इठलाता था।
जब उस कोठी में रहने वाले लोगों में से कोई उसे अपने पास बुलाकर उससे पूछता कि यहाँ कैसा लग रहा है? तो वह शर्माते हुए कहता — बहुत अच्छा लग रहा है। उसके बाद वह फिर से खेतों में चला जाता मानो उसे फसलों से कुछ पूछताछ करनी है। पहले दो दिन में पेच्या गाँव के जीवन का आदी हो गया। गाँव के पेड़ों से और वहाँ के कीड़े-मकोड़ों और जानवरों से उसकी गहरी दोस्ती हो गई।
पेच्या गाँव में क़ुदरत के जिस रूप से पहले दो दिन डरता रहा था, मीत्च्या (मीच्याा) नाम के एक छात्र ने उसका वह डर दूर करने में उसकी मदद की थी। मीच्या गाँव के पुराने हिस्से में रहता था और दसवीं कक्षा में पढ़ता था। उन दिनों वह बाहर धूप में ख़ूब खेलता था, इसलिए उसका गोरा रंग ताम्बई-सा हो गया था। उसके सिर के बाल बहुत छोटे कटे हुए थे। सिर पर ये बाल सीधे खड़े हुए से लगते थे। लगातार धूप में रहने से उसके बालों का रंग भी बदल गया था। पेच्या ने जब उसे पहली बार देखा, तब वह तालाब में मछली पकड़ रहा था। मीच्या एकदम सहज भाव से पेच्या से मिला और उसी समय दोनों की दोस्ती हो गई। मीच्या ने मछली पकड़ने वाली बंसी थोड़ी देर के लिए पेच्या के हाथ में थमा दी और ख़ुद तालाब में तैरता हुआ दूर निकल गया। पेच्या जहाँ खड़ा था, वह जगह ज़्यादा गहरी नहीं थी, फिर भी पेच्या पानी में घुसने से बहुत डर रहा था। पर जब एक बार वह पानी में घुसा तो फिर वहाँ से बाहर निकलना ही नहीं चाहता था। उसे तैरना नहीं आता था, लेकिन वह तैरने की एक्टिंग-सी करने लगा था। वह पानी में डुबकी लगाकर अपना सिर पानी से बाहर निकालकर नाक-भौंह उठाता और हथेलियों से पानी पर छप-छप करता। उस समय वह ऐसा लग रहा था जैसे कोई कुत्ते का पिल्ला पहली बार पानी में उतरा हो। जब वह तालाब से बाहर निकला तो देर तक तालाब में रहने की वजह से उसके दाँत किटकिटा रहे थे और बदन सर्दी से नीला पड़ गया था।
इसके बाद वे दोनों मीच्या के कहने पर वहाँ बने एक पुराने महल के खंडहर देखने गए। दोनों महल की छत पर चढ़ गए, जिसमें कई जगह पर छेद हो गए थे और दरारें पड़ी हुई थीं। कहीं-कहीं तो उन दरारों में घास-फूस और झाड़ियाँ उग आई थीं। वहाँ खंडहरों में ऊपर-नीचे भागने और कूदने-फाँदने में उन्हें बहुत मज़ा आ रहा था। चारों तरफ़ टूटी हुई ईंटों और पत्थरों के ढेर पड़े हुए थे और उनके बीच कहीं-कहीं झड़बेरियाँ और भोजवृक्ष उगे हुए थे। चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ था और ऐसा लग रहा था मानो अभी किसी कोने से कोई कूदकर आ जाएगा या फिर महल की चारदीवारी में बने बड़े-बड़े छेदों से दुश्मन के डरावने थोबड़े दिखाई देने लगेंगे। चारदीवारी में ये छेद उन तोपों के लिए बने हुए थे, जो शत्रु सेना से महल की सुरक्षा करती थी।
धीरे-धीरे पेच्या को गाँव और गाँव की उस कोठी की आदत हो गई। उसे वहाँ एकदम घर जैसा लगने लगा। वह पूरी तरह से यह भूल गया था कि इस दुनिया में कोई नाई की दुकान और उस दुकान का कोई कर्कश आवाज़ वाला अक्खड़ मालिक भी है।
पेच्या की माँ भी बहुत खुश थी। जब से पेच्या उसके पास रहने के लिए आया था उसके मन की बेचैनी और चिंता ख़तम हो गई थी। अपने लाल को निहारते हुए वह मंद-मंद मुस्कुराती थी और मन ही मन सोचती थी —ज़रा देखो तो इसे ! कितना मोटा हो गया है ! यह तो पूरा सेठ लगने लगा है ! जबकि पेच्या की माँ भी ख़ुद काफ़ी मोटी थी। दिन रात रसोई की गरमी में काम करते-करते उसका गोरा रंग भी ताम्बई-सा हो गया था और वह और ज़्यादा ख़ूबसूरत लगने लगी थी। पेच्या की माँ को लगता था कि उसने अपने बेटे को ठूँस-ठूँसकर खिलाकर उसे मोटा कर दिया है।
लेकिन पेच्या बहुत कम खाता था। ऐसी बात नहीं थी कि उसका खाने का दिल नहीं करता था, लेकिन वह खाने में ज़्यादा वक़्त नहीं गँवाना चाहता था। वह इतनी जल्दी में रहता था कि यदि खाना चबाने की ज़रूरत नहीं होती तो वह उसे ऐसे ही निगल जाता। पेच्या और उसकी माँ दोनों एकसाथ बैठकर खाते थे। उसकी माँ की आदत थी कि वह धीरे -धीरे खाना खाती थी और खाते समय गोश्त की हड्डियों को चूस-चूसकर अच्छी तरह से साफ़ कर देती थी। बीच-बीच में वह रुमाल से अपना मुँह भी पोंछती रहती थी, इसलिए पेच्या को अपना खाना जल्दी ख़तम कर लेने के बाद भी माँ का इंतज़ार करना पड़ता था। पेच्या गाँव में रहते हुए बहुत व्यस्त हो गया था। दिन में पाँच बार तो वह तैरने के लिए ही जाता था। अब वह मछली पकड़ने के लिए बंसी बनाना भी सीख गया था। वह सख़्त लकड़ी से बढ़िया बंसी तैयार करने लगा था। उसे मछली का चारा भी ढूँढ़ना पड़ता था। काँटे में लगाने के लिए मिट्टी खोदकर केंचुए ढूँढ़ने में ही काफ़ी वक़्त बर्बाद हो जाता था। शग़ल तो शग़ल होता है। शग़ल के लिए वक़्त तो निकालना ही पड़ता है।
गाँव में पेच्या को नंगे पैर घूमने-फिरने की आदत पड़ गई थी। मोटे तलवे वाले जूतों से नंगे पैर रहने में उसे हज़ार गुना ज़्यादा मज़ा आता था। हालाँकि छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर उसके तलुओं में गड़ते थे, लेकिन हरी घास पर चलने से ठंडक भी मिलती थी। अब उसने अपनी वह स्कूल वाली पुरानी हलकी-सी जैकेट पहनना छोड़ दिया था, जिसे वह नाई की दुकान में हमेशा पहने रहता था। जैकेट के बिना वह ज़्यादा स्मार्ट और कम उम्र दिखाई देता था। हालाँकि गाँव में भी कभी-कभार शाम को तब वह जैकेट पहन लिया करता था, जब वह साहब लोगों को बोटिंग करते देखने के लिए तालाब पर जाया करता था। साहब लोग अपने परिवारों के साथ सज-धजकर, मस्ती के मूड़ में हँसी-मज़ाक करते हुए छोटे-छोटे हिलोरे खाती नावों में जाकर बैठ जाया करते थे। जब उनकी नाव पानी की चिकनी सतह को चीरती हुई आगे बढ़ती थी, तब उनके बीच से सरसराती हुई हवा ऐसे आगे निकल जाती थी मानो वह नावों से होड़ ले रही हो।
जिन साहब के घर में पेच्या की माँ काम कर रही थी, हफ़्ते के आखिर में जब वे मसक्वा से लौटकर आए तो पेच्या की माँ के नाम आया एक ख़त भी लेकर आए। वह चिट्ठी सुनकर पेच्या की माँ रोने लगी और रोते-रोते ही उसने रसोई के कपड़े से अपना चेहरा पोंछ लिया। कपड़े में लगी कालिख से उसका पूरा चेहरा काला हो गया। उस ख़त में लिखी बातों से यह अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं था कि उसमें उसके बेटे पेच्या की बात की गई है।
4
जब साहब गाँव लौटकर आए, उस समय पेच्या घर के पिछवाड़े मीच्या का सिखाया हुआ स्टापू नाम का एक खेल अकेला खेल रहा था। वह गाल फुलाकर ज़मीन पर बने खानों में एक पाँव पर कूदता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसे गाल फुलाने वाला नुस्ख़ा भी मीच्या ने ही सिखाया था। वह कहता था कि गाल फुलाकर कूदने से एक खाने से दूसरे में जाना आसान होता है।
पेच्या एक असली खिलाड़ी की तरह इस खेल में माहिर होना चाहता था। इसलिए वह पूरे तन-मन से खेलने में डूबा हुआ था।
तभी साहब ने पिछवाड़े में आकर पेच्या के कंधे पर हाथ रखा और उससे कहा — मियाँ ! अब तो तुम्हें जाना ही होगा।
यह सुनकर पेच्या शरमाते हुए मंद-मंद मुस्काया और चुपचाप खेलता रहा।
साहब ने मन ही मन सोचा — अरे ! बड़ा अजीब लड़का है।
लेकिन फिर अगले ही पल फिर से अपनी बात दोहराई — भई, अब तो तुम्हें जाना ही होगा।
पेच्या यह सुनने के बाद भी हँस रहा था। इतने में उसकी माँ ने आकर कहा — हाँ, मेरे प्यारे बेटे, हमें जाना पड़ेगा !
बच्चे ने हैरानी से पूछा — कहाँ?
शहर के बारे में वह बिलकुल भूल चुका था और दूसरी जगह, जहाँ वह हमेशा जाना चाहता था, वहाँ पर तो वह था ही।
माँ ने कहा — बेटा, काम पर वापस लौटने का समय आ गया है।
पेच्या को अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा था, हालाँकि बात एकदम साफ़ थी। उसका गला सूख गया और जीभ तालू से चिपक गई। बड़ी मुश्किल से उसके मुँह से निकला — और मैं कल मछली कैसे पकडूँगा? ये देखो, ये रही मेरी मछली पकड़ने वाली बंसी …।
माँ बोली — क्या करें, बेटा ! तुम्हारे मालिक का ख़त आया है। वहाँ प्रकोपि बीमार हो गया है। उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। अब वहाँ काम करने के लिए कोई नहीं बचा। अरे बेटा, रोओ नहीं। तुम्हारे मालिक बहुत नेक इनसान हैं। वे तुम्हें कुछ दिनों बाद फिर से मेरे पास आकर रहने की इज़ाज़त दे देंगे।
पेच्या अब न तो रो रहा था और न ही वह उदास था। लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा था कि आख़िर उसे लौटना क्यों है ! उसके दिमाग़ में, बस, दो ही बातें बारम्बार आ रही थीं। एक तो उसे अपनी मछली पकड़ने वाली बंसी का ध्यान आ रहा था और दूसरा - कटिंग सैलून का भूत। थोड़ी देर इसी कशमकश में रहने के बाद पेच्या की गुत्थी सुलझ गई। अब मछली पकड़ने वाली उसकी वह बंसी और कटिंग सैलून दोनों डरावने भूतों में बदल गए थे। पेच्या ने हक़ीक़त से समझौता नहीं किया। एक आम बच्चे की तरह वह रोया भी नहीं। वह, बस, ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। उसकी चीख़-चिल्लाहट और दहाड़-चिंघाड़ सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग हक्के-बक्के रह गए। यदि उस समय पेच्या भी ख़ुद को देखता और अपनी हरकतों के बारे में सोचता तो वह ख़ुद हैरान रह जाता।
थोड़ी देर बाद पेच्या शांत हो गया। उसे चुप हुआ देखकर साहब ने अपनी बीवी से कहा — देखा, मैंने कहा था न कि बच्चे दुख बड़ी जल्दी भूल जाते हैं। उनकी बीवी उस समय क्लब में जाने के लिए तैयार हो रही थी। वह आईने के सामने खड़ी अपने जूड़े में ग़ुलाब का सफ़ेद फूल लगा रही थी। उसने अपने पति से कहा— बेचारे इस लड़के के लिए मुझे बेहद अफ़सोस हो रहा है। पति ने कहा — हाँ, इनके हालात अच्छे नहीं हैं। लेकिन ऐसे भी लोग हैं, जो इनसे भी बदतर हालात में रहते हैं। क्या तुम तैयार हो? तो चलें फिर?
वे दोनो तैयार होकर क्लब चले गए, जहाँ रईसों के मनोरंजन के लिए अक्सर पार्टियाँ हुआ करती थीं। उस शाम भी वहाँ एक नाच पार्टी थी। उनके वहाँ पहुँचने से पहले ही क्लब का बैंड बजना शुरू हो गया था।
अगले दिन सुबह सात बजे की रेल से पेच्या और उसकी माँ मसक्वा के लिए रवाना हो गए। पेच्या रेल की खिड़की से वैसे ही सटा हुआ था और उसकी आँखों के सामने से फिर से हरे-भरे खेत गुज़र रहे थे, लेकिन इस बार ये खेत ओस से ढके हुए थे और विपरीत दिशा में भाग रहे थे। वही पुरानी जैकेट उसके पतले-से बदन से चिपकी हुई थी, कॉलर पर लगे बकरम की नोक कॉलर से बाहर निकली हुई थी। इस बार पेच्या न तो बार-बार सिर इधर-उधर घुमा रहा था और न ही उछल-कूद कर रहा था। वह घुटनों पर हाथ धरे चुपचाप बैठा था। उसकी आँखें उनींदी और उदासीन थीं। उसकी नाक के नीचे और आँखों के चारों तरफ़ काले गड्ढे फिर से उभर आए थे।
मसक्वा पास आ गया था। स्टेशन की इमारत दूर से झलकने लगी थी। रेलगाड़ी आख़िर प्लेटफार्म पर पहुँच गई। हड़बड़ी करते हुए अन्य सभी मुसाफ़िरों के साथ-साथ पेच्या और उसकी माँ भी प्लेटफार्म पर उतरे। धीरे-धीरे वे दोनों स्टेशन से बाहर निकल आए। नाई की दुकान पर पहुँचकर पेच्या ने माँ से कहा — माँ, तुम मेरी मछली पकड़ने वाली बंसी संभालकर रखना। उसे कहीं छुपा देना ताकि वह खो न जाए।
माँ ने कहा — हाँ बेटा, तू चिन्ता मत कर। मैं उसे संभालकर रखूँगी। और अगली बार जब तू गाँव आएगा तो उसी से मछली पकड़ना।
उस गंदे और उमस भरे कटिंग सैलून में फिर से वही पुरानी आवाज़ सुनाई देने लगी —ओय लडके, पानी दे। और कुर्सी पर बैठे हज़ामत बनवा रहे या बाल कटवा रहे आदमी को एक छोटा हाथ आगे बढ़कर पानी रखता हुआ दिखाई देने लगा। कभी-कभी फ़ुसफ़ुसाहट भरी यह धमकी भी सुनाई देती - ठहर, अभी तुझे बताता हूँ। इसका मतलब था कि उनींदे बच्चे से पानी गिर गया है या फिर मालिक का फ़रमान पूरा करने में उससे कोई ग़लती हो गई है।
रात में जहाँ पेच्या और निकोला साथ-साथ सोया करते थे, उनके बात करने की आवाज़ें फिर से सुनाई देने लगीं। मंद आवाज़ में पेच्या उसे गाँव के बारे में, गाँव की कोठी के बारे में, तालाब के बारे में और महल के खंडहरों के बारे में बता रहा था, जो निकोला ने पेच्या से ज़्यादा अनुभवी होने के बावजूद न कभी देखा था और जिसके बारे में न कभी सुना था। गाँव की कहानी सुनाते-सुनाते पेच्या जब साँस लेने के लिए रुका, तो वहाँ थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया और उस ख़ामोशी में उन दोनों बच्चों के तेज़-तेज़ साँस लेने के आवाज़ सुनाई दे रही थी। निकोला ने चुप्पी तोड़ी। उसने कठोर और नफ़रत भरी आवाज़ में कहा — अरे, ये शैतान लोग हैं, अच्छे नहीं हैं।
पेच्या ने अचरज से ने पूछा — शैतान ! शैतान कौन है?
निकोला बोला — हाँ… वे सभी शैतान हैं। बहुत बुरे लोग हैं।
एक और बच्चा बड़े शहर का शिकार बन गया था।
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’पेतका ना दाचे’ (Леонид Андреев — Петка на даче)
