गुनाहों का देवता / खंड 1 / पृष्ठ 5 / धर्मवीर भारती

Gadya Kosh से
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“चलो बिटिया रानी, तई खाय लेव, फिर भीतर लेटो। अबहिन लेटे का बखत नहीं आवा!” सहसा महराजिन ने आकर सुधा की स्वप्न-शृंखला तोड़ते हुए कहा।

“अब हम नहीं खाएँगे, भूख नहीं।” सुधा ने अपने सुनहले सपनों में ही डूबी हुई बेहोश आवाज में जवाब दिया।

“खाय लेव बिटिया, खाय-पियै छोड़ै से कसस काम चली, आव उठौ!” महराजिन ने बड़े दुलार से कहा। सुधा पीछा छूटने की कोई आशा न देखकर उठ गयी और चल दी खाने। कौर उठाते ही उसकी आँख में आँसू छलक आये, लेकिन अपने को रोक लिया उसने। दूसरों के सामने अपने को बहुत शान्त रखना आता था। उसे। दो कौर खाने के बाद वह महराजिन से बोली, “आज कोई चिठ्ठी तो नहीं आयी?”

“नहीं बिटिया, आज तो दिन भर घरै में रह्यो!” महराजिन ने पराठे उलटते हुए जवाब दिया-”काहे बिटिया, बाबूजी कुछौ नाही लिखिन तो छोटे बाबू तो लिख देते।”

“अरे महराजिन, यही तो हमारी जान का रोना है। हम चाहे रो-रोकर मर जाएँ मगर न पापा को खयाल, न पापा के शिष्य को। और चन्दर तो ऐसे खराब हैं कि हम क्या करें। ऐसे स्वार्थी हैं, अपने मतलब के कि बस! सुबह-शाम आएँ और हम या पापा न मिलें तो आफत ढा देंगे-बहुत घूमने लगी हो तुम, बहुत बाहर कदम निकल गया है तुम्हारा-और सच पूछो तो चन्दर की वजह से हमने सब जगह आना-जाना बन्द कर दिया और खुद हैं कि आज लखनऊ, कल कलकत्ता और एक चिठ्ठी भेजने तक का वक्त नहीं मिलता! अभी हम ऐसा करते तो हमारी जान नोच खाते! और पापा को देखो, उनके दुलारे उनके साथ हैं तो बस और किसी की फिक्र ही नहीं। अब तुम महराजिन, चन्दर को तो कभी कुछ चाय-वाय बना के मत देना।”

“काहे बिटिया, काहे कोसत हो। कैसा चाँद-से तो हैं छोटे बाबू, और कैसा हँस के बातें करत हैं। माई का जाने कैसे हियाव पड़ा कि उन्हें अलग कै दिहिस। बेचारा होटल में जाने कैसे रोटी खात होई। उन्हें हिंयई बुलाय लेव तो अपने हाथ की खिलाय के दुई महीना माँ मोटा कै देईं। हमें तोसे ज्यादा उसकी ममता लगत है।”

“बीबीजी, बाहर एक मेम पूछत हैं-हिंया कोनो डाकदर रहत हैं? हम कहा, नाहीं, हिंया तो बाबूजी रहत हैं तो कहत हैं, नहीं यही मकान आय।” मालिन ने सहसा आकर बहुत स्वतंत्र स्वरों में कहा।

“बैठाओ उन्हें, हम आते हैं।” सुधा ने कहा और जल्दी-जल्दी खाना शुरू किया और जल्दी-जल्दी खत्म कर दिया।

बाहर जाकर उसने देखा तो नीलकाँटे के झाड़ से टिकी हुई एक बाइसिकिल रखी थी और एक ईसाई लड़की लॉन पर टहल रही है। होगी करीब चौबीस-पच्चीस बरस की, लेकिन बहुत अच्छी लग रही थी।

“कहिए, आप किसे पूछ रही हैं?” सुधा ने अँग्रेजी में पूछा।

“मैं डॉक्टर शुक्ला से मिलने आयी हूँ।” उसने शुद्ध हिन्दुस्तानी में कहा।

“वे तो बाहर गये हैं और कब आएँगे, कुछ पता नहीं। कोई खास काम है आपको?” सुधा ने पूछा।

“नहीं, यूँ ही मिलने आ गयी। आप उनकी लड़की हैं?” उसने साइकिल उठाते हुए कहा।

“जी हाँ, लेकिन अपना नाम तो बताती जाइए।”

“मेरा नाम कोई महत्वपूर्ण नहीं। मैं उनसे मिल लूँगी। और हाँ, आप उसे जानती हैं, मिस्टर कपूर को?”

“आहा! आप पम्मी हैं, मिस डिक्रूज!” सुधा को एकदम खयाल आ गया-”आइए, आइए; हम आपको ऐसे नहीं जाने देंगे। चलिए, बैठिए।” सुधा ने बड़ी बेतकल्लुफी से उसकी साइकिल पकड़ ली।

“अच्छा-अच्छा, चलो!” कहकर पम्मी जाकर ड्राइंग रूम में बैठ गयी।

“मिस्टर कपूर रहते कहाँ हैं?” पम्मी ने बैठने से पहले पूछा।

“रहते तो वे चौक में हैं, लेकिन आजकल तो वे भी पापा के साथ बाहर गये हैं। वे तो आपकी एक दिन बहुत तारीफ कर रहे थे, बहुत तारीफ। इतनी तारीफ किसी लड़की की करते तो हमने सुना नहीं।”

“सचमुच!” पम्मी का चेहरा लाल हो गया। “वह बहुत अच्छे हैं, बहुत अच्छे हैं!”

थोड़ी देर पम्मी चुप रही, फिर बोली-”क्या बताया था उन्होंने हमारे बारे में?”

“ओह तमाम! एक दिन शाम को तो हम लोग आप ही के बारे में बातें करते रहे। आपके भाई के बारे में बताते रहे। फिर आपके काम के बारे में बताया कि आप कितना तेज टाइप करती हैं, फिर आपकी रुचियों के बारे में बताया कि आपको साहित्य से बहुत शौक नहीं है और आप शादी से बेहद नफरत करती हैं और आप ज्यादा मिलती-जुलती नहीं, बाहर आती-जाती नहीं और मिस डिक्रूज...”

“न, आप पम्मी कहिए मुझे?”

“हाँ, तो मिस पम्मी, शायद इसीलिए आप उसे इतनी अच्छी लगीं कि आप कहीं आती-जाती नहीं, वह लड़कियों का आना-जाना और आजादी बहुत नापसन्द करता है।” सुधा बोली।

“नहीं, वह ठीक सोचता है।” पम्मी बोली-”मैं शादी और तलाक के बाद इसी नतीजे पर पहुँची हूँ कि चौदह बरस से चौंतीस बरस तक लड़कियों को बहुत शासन में रखना चाहिए।” पम्मी ने गम्भीरता से कहा।

एक ईसाई मेम के मुँह से यह बात सुनकर सुधा दंग रह गयी।

“क्यों?” उसने पूछा।

“इसलिए कि इस उम्र में लड़कियाँ बहुत नादान होती हैं और जो कोई भी चार मीठी बातें करता है, तो लड़कियाँ समझती हैं कि इससे ज्यादा प्यार उन्हें कोई नहीं करता। और इस उम्र में जो कोई भी ऐरा-गैरा उनके संसर्ग में आ जाता है, उसे वे प्यार का देवता समझने लगती हैं और नतीजा यह होता है कि वे ऐसे जाल में फँस जाती हैं कि जिंदगी भर उससे छुटकारा नहीं मिलता। मेरा तो यह विचार है कि या तो लड़कियाँ चौंतीस बरस के बाद शादियाँ करें जब वे अच्छा-बुरा समझने के लायक हो जाएँ, नहीं तो मुझे तो हिन्दुओं का कायदा सबसे ज्यादा पसन्द आता है कि चौदह वर्ष के पहले ही लड़की की शादी कर दी जाए और उसके बाद उसका संसर्ग उसी आदमी से रहे जिससे उसे जिंदगी भर निबाह करना है और अपने विकास-क्रम से दोनों ही एक-दूसरे को समझते चलें। लेकिन यह तो सबसे भद्दा तरीका है कि चौदह और चौंतीस बरस के बीच में लड़की की शादी हो, या उसे आजादी दी जाए। मैंने तो स्वयं अपने ऊपर बन्धन बाँध लिये थे।....तुम्हारी तो शादी अभी नहीं हुई?”

“नहीं।”

“बहुत ठीक, तुम चौंतीस बरस के पहले शादी मत करना, अच्छा हाँ, और क्या बताया चन्दर ने मेरे बारे में?”

“और तो कुछ खास नहीं; हाँ, यह कह रहा था, आपको चाय और सिगरेट बहुत अच्छी लगती है। ओहो, देखिए मैं भूल ही गयी, लीजिए सिगरेट मँगवाती हूँ।” और सुधा ने घंटी बजायी।

“रहने दीजिए, मैं सिगरेट छोड़ रही हूँ।”

“क्यों?”

“इसलिए कि कपूर को अच्छा नहीं लगता और अब वह मेरा दोस्त बन गया है, और दोस्ती में एक-दूसरे से निबाह ही करना पड़ता है। उसने आपसे यह नहीं बताया कि मैंने उसे दोस्त मान लिया है?” पम्मी ने पूछा।

“जी हाँ, बताया था, अच्छा तो चाय लीजिए!”

“हाँ-हाँ, चाय मँगवा लीजिए। आपका कपूर से क्या सम्बन्ध है?” पम्मी ने पूछा।

“कुछ नहीं। मुझसे भला क्या सम्बन्ध होगा उनका, जब देखिए तब बिगड़ते रहते हैं मुझ पर; और बाहर गये हैं और आज तक कोई खत नहीं भेजा। ये कहीं सम्बन्ध हैं?”

“नहीं, मेरा मतलब आप उनसे घनिष्ठ हैं!”

“हाँ, कभी वह छिपाते तो नहीं मुझसे कुछ! क्यों?”

“तब तो ठीक है, सच्चे दिल के आदमी मालूम पड़ते हैं। आप तो यह बता सकती हैं कि उन्हें क्या-क्या चीजें पसन्द हैं?”

“हाँ...उन्हें कविता पसन्द है। बस कविता के बारे में बात न कीजिए, कविता सुना दीजिए उन्हें या कविता की किताब दे दीजिए उन्हें और उनको सुबह घूमना पसन्द है। रात को गंगाजी की सैर करना पसन्द है। सिनेमा तो बेहद पसन्द है। और, और क्या, चाय की पत्ती का हलुआ पसन्द है।”

“यह क्या होता है?”

“मेरा मतलब बिना दूध की चाय उन्हें पसन्द है।”

“अच्छा, अच्छा। देखिए आप सोचेंगी कि मैं इस तरह से मि. कपूर के बारे में पूछ रही हूँ जैसे मैं कोई जासूस होऊँ, लेकिन असल बात मैं आपको बता दूँ। मैं पिछले दो-तीन साल से अकेली रहती रही। किसी से भी नहीं मिलती-जुलती थी। उस दिन मिस्टर कपूर गये तो पता नहीं क्यों मुझ पर प्रभाव पड़ा। उनको देखकर ऐसा लगा कि यह आदमी है जिसमें दिल की सच्चाई है, जो आदमियों में बिल्कुल नहीं होती। तभी मैंने सोचा, इनसे दोस्ती कर लूँ। लेकिन चूँकि एक बार दोस्ती करके विवाह, और विवाह के बाद अलगाव, मैं भोग चुकी हूँ इसलिए इनके बारे में पूरी जाँच-पड़ताल कर लेना चाहती हूँ। लेकिन दोस्त तो अब बना ही चुकी हूँ।” चाय आ गयी थी और पम्मी ने सुधा के प्याले में चाय ढाली।

“न, मैं तो अभी खाना खा चुकी हूँ।” सुधा बोली।

“पम्मी ने दो-तीन चुस्कियों के बाद कहा-”आपके बारे में चन्दर ने मुझसे कहा था।”

“कहा होगा!” सुधा मुँह बिगाडक़र बोली-”मेरी बुराई कर रहे होंगे और क्या?”

पम्मी चाय के प्याले से उठते हुए धुएँ को देखती हुई अपने ही खयाल में डूबी थी। थोड़ी देर बाद बोली, “मेरा अनुमान गलत नहीं होता। मैंने कपूर को देखते ही समझ लिया था कि यही मेरे लिए उपयुक्त मित्र हैं। मैंने कविता पढऩी बहुत दिनों से छोड़ दी लेकिन किसी कवयित्री ने, शायद मिसेज ब्राउनिंग ने कहीं लिखा था, कि वह मेरी जिंदगी में रोशनी बनकर आया, उसे देखते ही मैं समझ गयी कि यह वह आदमी है जिसके हाथ में मेरे दिल के सभी राज सुरक्षित रहेंगे। वह खेल नहीं करेगा, और प्यार भी नहीं करेगा। जिंदगी में आकर भी जिंदगी से दूर और सपनों में बँधकर भी सपनों से अलग...यह बात कपूर पर बहुत लागू होती है। माफ करना मिस सुधा, मैं आपसे इसलिए कह रही हूँ कि आप इनकी घनिष्ठ हैं और आप उन्हें बतला देंगी कि मेरा क्या खयाल है उनके बारे में। अच्छा, अब मैं चलूँगी।”

“बैठिए न!” सुधा बोली।

“नहीं, मेरा भाई अकेला खाने के लिए इन्तजार कर रहा होगा।” उठते हुए पम्मी ने कहा।

“आप बहुत अच्छी हैं। इस वक्त आप आयीं तो मैं थोड़ी-सी चिन्ता भूल गयी वरना मैं तीन दिन से उदास थी। बैठिए, कुछ और चन्दर के बारे में बताइए न!”

“अब नहीं। वह अपने ढंग का अकेला आदमी है, यह मैं कह सकती हूँ...ओह तुम्हारी आँखें बड़ी सुन्दर हैं। देखूँ।” और छोटे बच्चे की तरह उसके मुँह को हथेलियों से ऊपर उठाकर पम्मी ने कहा, “बहुत सुन्दर आँखें हैं। माफ करना, मैं कपूर से भी इतनी ही बेतकल्लुफ हूँ!”

सुधा झेंप गयी। उसने आँखें नीची कर लीं।

पम्मी ने अपनी साइकिल उठाते हुए कहा-”कपूर के साथ आप आइएगा। और आपने कहा था कपूर को कविता पसन्द है।”

“जी हाँ, गुडनाइट।”

जब पम्मी बँगले पर पहुँची तो उसकी साइकिल के कैरियर में अँगरेजी कविता के पाँच-छह ग्रन्थ बँधे थे।

आठ बज चुके थे। सुधा जाकर अपने बिस्तरे पर लेटकर पढऩे लगी। अँगरेजी कविता पढ़ रही थी। अँगरेजी लड़कियाँ कितनी आजाद और स्वच्छन्द होती होंगी! जब पम्मी, जो ईसाई है, इतनी आजाद है, उसने सोचा और पम्मी कितनी अच्छी है उसकी बेतकल्लुफी में भोलापन तो नहीं है, पर सरलता बेहद है। बड़ा साफ दिल है, कुछ छिपाना नहीं जानती। और सुधा से सिर्फ पाँच-छह साल बड़ी है, लेकिन सुधा उसके सामने बच्ची लगती है। कितना जानती है पम्मी और कितनी अच्छी समझ है उसकी। और चन्दर की तारीफ करते नहीं थकती। चन्दर के लिए उसने सिगरेट छोड़ दी। चन्दर उसका दोस्त है, इतनी पढ़ी-लिखी लड़की के लिए रोशनी का देवदूत है। सचमुच चन्दर पर सुधा को गर्व है। और उसी चन्दर से वह लड़-झगड़ लेती है, इतनी मान-मनुहार कर लेती है और चन्दर सब बर्दाश्त कर लेता है वरना चन्दर के इतने बड़े-बड़े दोस्त हैं और चन्दर की इतनी इज्जत है। अगर चन्दर चाहे तो सुधा की रत्ती भर परवाह न करे लेकिन चन्दर सुधा की भली-बुरी बात बर्दाश्त कर लेता है। और वह कितना परेशान करती रहती है चन्दर को।

कभी अगर सचमुच चन्दर बहुत नाराज हो गया और सचमुच हमेशा के लिए बोलना छोड़ दे तब क्या होगा? या चन्दर यहाँ से कहीं चला जाए तब क्या होगा? खैर, चन्दर जाएगा तो नहीं इलाहाबाद छोडक़र, लेकिन अगर वह खुद कहीं चली गयी तब क्या होगा? वह कहाँ जाएगी! अरे पापा को मनाना तो बायें हाथ का खेल है, और ऐसा प्यार वह करेगी नहीं कि शादी करनी पड़े।

लेकिन यह सब तो ठीक है। पर चन्दर ने चिठ्ठी क्यों नहीं भेजी? क्या नाराज होकर गया है? जाते वक्त सुधा ने परेशान तो बहुत किया था। होलडॉल की पेटी का बक्सुआ खोल दिया था और उठाते ही चन्दर के हाथ से सब कपड़े बिखर गये। चन्दर कुछ बोला नहीं लेकिन जाते समय उसने सुधा को डाँटा भी नहीं और न यही समझाया कि घर का खयाल रखना, अकेले घूमना मत, महराजिन से लड़ना मत, पढ़ती रहना। इससे सुधा समझ तो गयी थी कि वह नाराज है, लेकिन कुछ कहा नहीं।

लेकिन चन्दर को खत तो भेजना चाहिए था। चाहे गुस्से का ही खत क्यों न होता? बिना खत के मन उसका कितना घबरा रहा है। और क्या चन्दर को मालूम नहीं होगा। यह कैसे हो सकता है? जब इतनी दूर बैठे हुए सुधा को मालूम हो गया कि चन्दर नाखुश है तो क्या चन्दर को नहीं मालूम होगा कि सुधा का मन उदास हो गया है। जरूर मालूम होगा। सोचते-सोचते उसे जाने कब नींद आ गयी और नींद में उसे पापा या चन्दर की चिठ्ठी मिली या नहीं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन इतना जरूर है कि जैसे यह सारी सृष्टि एक बिन्दु से बनी और एक बिन्दु में समा गयी, उसी तरह सुधा की यह भादों की घटाओं जैसी फैली हुई बेचैनी और गीली उदासी एक चन्दर के ध्यान से उठी और उसी में समा गयी।

दूसरे दिन सुबह सुधा आँगन में बैठी हुई आलू छील रही थी और चन्दर का इन्तजार कर रही थी। उसी दिन रात को पापा आ गये थे और दूसरे दिन सुबह बुआजी और बिनती।

“सुधी!” किसी ने इतने प्यार से पुकारा कि हवाओं में रस भर गया।

“अच्छा! आ गये चन्दर!” सुधा आलू छोडक़र उठ बैठी, “क्या लाये हमारे लिए लखनऊ से?”

“बहुत कुछ, सुधा!”

“के है सुधा!” सहसा कमरे में से कोई बोला।

“चन्दर हैं।” सुधा ने कहा, “चन्दर, बुआ आ गयीं।” और कमरे से बुआजी बाहर आयीं।

“प्रणाम, बुआजी!” चन्दर बोला और पैर छूने के लिए झुका।

“हाँ, हाँ, हाँ!” बुआजी तीन कदम पीछे हट गयीं। “देखत्यों नैं हम पूजा की धोती पहने हैं। ई के है, सुधा!”

सुधा ने बुआ की बात का कुछ जवाब नहीं दिया-”चन्दर, चलो अपने कमरे में; यहाँ बुआ पूजा करेंगी।”

चन्दर अलग हटा। बुआ ने हाथ के पंचपात्र से वहाँ पानी छिडक़ा और जमीन फूँकने लगीं। “सुधा, बिनती को भेज देव।” बुआजी ने धूपदानी में महराजिन से कोयला लेते हुए कहा।

सुधा अपने कमरे में पहुँचकर चन्दर को खाट पर बिठाकर नीचे बैठ गयी।

“अरे, ऊपर बैठो।”

“नहीं, हम यहीं ठीक हैं।” कहकर वह बैठ गयी और चन्दर की पैंट पर पेन्सिल से लकीरें खींचने लगीं।

“अरे यह क्या कर रही हो?” चन्दर ने पैर उठाते हुए कहा।

“तो तुमने इतने दिन क्यों लगाये?” सुधा ने दूसरे पाँयचे पर पेन्सिल लगाते हुए कहा।

“अरे, बड़ी आफत में फँस गये थे, सुधा। लखनऊ से हम लोग गये बरेली। वहाँ एक उत्सव में हम लोग भी गये और एक मिनिस्टर भी पहुँचे। कुछ सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, और मजदूरों ने विरोध प्रदर्शन किया। फिर तो पुलिसवालों और मजदूरों में जमकर लड़ाई हुई। वह तो कहो एक बेचारा सोशलिस्ट लड़का था कैलाश मिश्रा, उसने हम लोगों की जान बचायी, वरना पापा और हम, दोनों ही अस्पताल में होते...”

“अच्छा! पापा ने हमें कुछ बताया नहीं!” सुधा घबराकर बोली और बड़ी देर तक बरेली, उपद्रव और कैलाश मिश्रा की बात करती रही।

“अरे ये बाहर गा कौन रहा है?” चन्दर ने सहसा पूछा।

बाहर कोई गाता हुआ आ रहा था, “आँचल में क्यों बाँध लिया मुझ परदेशी का प्यार....आँचल में क्यों...” और चन्दर को देखते ही उस लड़की ने चौंककर कहा, “अरे?” क्षण-भर स्तब्ध, और फिर शरम से लाल होकर भागी बाहर।

“अरे, भागती क्यों है? यही तो हैं चन्दर।” सुधा ने कहा।

लड़की बाहर रुक गयी और गरदन हिलाकर इशारे से कहा, “मैं नहीं आऊँगी। मुझे शरम लगती है।”

“अरे चली आ, देखो हम अभी पकड़ लाते हैं, बड़ी झक्की है यह।” कहकर सुधा उठी, वह फिर भागी। सुधा पीछे-पीछे भागी। थोड़ी देर बाद सुधा अन्दर आयी तो सुधा के हाथ में उस लड़की की चोटी और वह बेचारी बुरी तरह अस्त-व्यस्त थी। दाँत से अपने आँचल का छोर दबाये हुए थी बाल की तीन-चार लटें मुँह पर झुक रही थीं और लाज के मारे सिमटी जा रही थी और आँखें थीं कि मुस्काये या रोये, यह तय ही नहीं कर पायी थीं।

“देखो...चन्दर...देखो।” सुधा हाँफ रही थी-”यही है बिनती मोटकी कहीं की, इतनी मोटी है कि दम निकल गया हमारा।” सुधा बुरी तरह हाँफ रही थी।

चन्दर ने देखा-बेचारी की बुरी हालत थी। मोटी तो बहुत नहीं थी पर हाँ, गाँव की तन्दुरुस्ती थी, लाल चेहरा, जिसे शरम ने तो दूना बना दिया था। एक हाथ से अपनी चोटी पकड़े थी, दूसरे से अपने कपड़े ठीक कर रही थी और दाँत से आँचल पकड़े।

“छोड़ दो उसे, यह क्या है सुधा! बड़ी जंगली हो तुम।” चन्दर ने डाँटकर कहा।

“जंगली मैं हूँ या यह?” चोटी छोड़कर सुधा बोली-”यह देखो, दाँत काट लिया है इसने।” सचमुच सुधा के कन्धे पर दाँत के निशान बने हुए थे।

चन्दर इस सम्भावना पर बेतहाशा हँसने लगा कि इतनी बड़ी लड़की दाँत काट सकती है-”क्यों जी, इतनी बड़ी हो गयी और दाँत काटती हो?” उसकी हँसी रुक नहीं रही थी। “सचमुच यह तो बड़े मजे की लड़की है। बिनती है इसका नाम? क्यों रे, महुआ बीनती थी क्या वहाँ, जो बुआजी ने बिनती नाम रखा है?”

वह पल्ला ठीक से ओढ़ चुकी थी। बोली, “नमस्ते।”

चन्दर और सुधा दोनों हँस पड़े। “अब इतनी देर बाद याद आयी।” चन्दर और भी हँसने लगा।

“बिनती! ए बिनती!” बुआ की आवाज आयी। बिनती ने सुधा की ओर देखा और चली गयी।

“और कहो सुधी,” चन्दर बोला-”क्या हाल-चाल रहा यहाँ?”

“फिर भी एक चिठ्ठी भी तो नहीं लिखी तुमने।” सुधा बड़ी शिकायत के स्वर में बोली, “हमें रोज रुलाई आती थी। और तुम्हारी वो आयी थी।”

“हमारी वो?” चन्दर ने चौंककर पूछा।

“अरे हाँ, तुम्हारी पम्मी रानी।”

“अच्छा वो आयी थीं। क्या बात हुई?”

“कुछ नहीं; तुम्हारी तसवीर देख-देखकर रो रही थीं।” सुधा ने उँगलियाँ नचाते हुए कहा।

“मेरी तसवीर देखकर! अच्छा, और थी कहाँ मेरी तसवीर?”

“अब तुम तो बहस करने लगे, हम कोई वकील हैं! तुम कोई नयी बात बताओ।” सुधा बोली।

“हम तो तुम्हें बहुत-बहुत बात बताएँगे। पूरी कहानी है।”

इतने में बिनती आयी। उसके हाथ में एक तश्तरी थी और एक गिलास। तश्तरी में कुछ मिठाई थी, और गिलास में शरबत। उसने लाकर तश्तरी चन्दर के सामने रख दी।

“ना भई, हम नहीं खाएँगे।” चन्दर ने इनकार किया।

बिनती ने सुधा की ओर देखा।

“खा लो। लगे नखरा करने। लखनऊ से आ रहे हैं न, तकल्लुफ न करें तो मालूम कैसे हो?” सुधा ने मुँह चिढ़ाते हुए कहा। चन्दर मुसकराकर खाने लगा।

“दीदी के कहने पर खाने लगे आप!” बिनती ने अपने हाथ की अँगूठी की ओर देखते हुए कहा।

चन्दर हँस दिया, कुछ बोला नहीं। बिनती चली गयी।

“बड़ी अच्छी लड़की मालूम पड़ती है यह।” चन्दर बोला।

“बहुत प्यारी है। और पढऩे में हमारी तरह नहीं है, बहुत तेज है।”

“अच्छा! तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?”

“मास्टर साहब बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। और चन्दर, अब हम खूब बात करते हैं उनसे दुनिया-भर की और वे बस हमेशा सिर नीचे किये रहते हैं। एक दिन पढ़ते वक्त हम गरी पास में रखकर खाते गये, उन्हें मालूम ही नहीं हुआ। उनसे एक दिन कविता सुनवा दो।” सुधा बोली।

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया और डॉ. साहब के कमरे में जाकर किताबें उलटने लगा।

इतने में बुआजी का तेज स्वर आया-”हमैं मालूम होता कि ई मुँह-झौंसी हमके ऐसी नाच नचइहै तौ हम पैदा होतै गला घोंट देइत। हरे राम! अक्काश सिर पर उठाये है। कै घंटे से नरियात-नरियात गटई फट गयी। ई बोलतै नाहीं जैसे साँप सूँघ गवा होय।”

प्रोफेसर शुक्ला के घर में वह नया सांस्कृतिक तत्व था। कितनी शालीनता और शिष्टता से वह रहते थे। कभी इस तरह की भाषा भी उनके घर में सुनने को मिलेगी, इसकी चन्दर को जरा भी उम्मीद न थी। चन्दर चौंककर उधर देखने लगा। डॉ. शुक्ला समझ गये। कुछ लज्जित-से और मुसकराकर ग्लानि छिपाते हुए-से बोले, “मेरी विधवा बहन है, कल गाँव से आयी है लड़की को पहुँचाने।”

उसके बाद कुछ पटकने का स्वर आया, शायद किसी बरतन के। इतने में सुधा आयी, गुस्से से लाल-”सुना पापा तुमने, बुआ बिनती को मार डालेंगी।”

“क्या हुआ आखिर?” डॉ. शुक्ला ने पूछा।

“कुछ नहीं, बिनती ने पूजा का पंचपात्र उठाकर ठाकुरजी के सिंहासन के पीछे रख दिया था। उन्हें दिखाई नहीं पड़ा, तो गुस्सा बिनती पर उतार रही हैं।”

इतने में फिर उनकी आवाज आयी-”पैदा करते बखत बहुत अच्छा लाग रहा, पालत बखत टें बोल गये। मर गये रह्यो तो आपन सन्तानौ अपने साथ लै जात्यौ। हमारे मूड़ पर ई हत्या काहे डाल गयौ। ऐसी कुलच्छनी है कि पैदा होतेहिन बाप को खाय गयी।”

“सुना पापा तुमने?”

“चलो हम चलते हैं।” डॉ. शुक्ला ने कहा। सुधा वहीं रह गयी। चन्दर से बोली, “ऐसा बुरा स्वभाव है बुआ का कि बस। बिनती ऐसी है कि इतना बर्दाश्त कर लेती है।”

बुआ ने ठाकुरजी का सिंहासन साफ करते हुए कहा, “रोवत काहे हो, कौन तुम्हारे माई-बाप को गरियावा है कि ई अँसुआ ढरकाय रही हो। ई सब चोचला अपने ओ को दिखाओ जायके। दुई महीना और हैं-अबहिन से उधियानी न जाओ।”

अब अभद्रता सीमा पार कर चुकी थी।

“बिनती, चलो कमरे के अन्दर, हटो सामने से।” डॉ. शुक्ला ने डाँटकर कहा, “अब ये चरखा बन्द होगा या नहीं। कुछ शरम-हया है या नहीं तुममें?”

बिनती सिसकते हुए अन्दर गयी। स्टडी रूम में देखा कि चन्दर है तो उलटे पाँव लौट आयी सुधा के कमरे में और फूट-फूटकर रोने लगी।

डॉ. शुक्ला लौट आये-”अब हम ये सब करें कि अपना काम करें! अच्छा कल से घर में महाभारत मचा रखा है। कब जाएँगी ये, सुधा?”

“कल जाएँगी। पापा अब बिनती को कभी मत भेजना इनके पास।” सुधा ने गुस्सा-भरे स्वर में कहा।

“अच्छा-जाओ, हमारा खाना परसो। चन्दर, तुम अपना काम यहाँ करो। यहाँ शोर ज्यादा हो तो तुम लाइब्रेरी में चले जाना। आज भर की तकलीफ है।”

चन्दर ने अपनी कुछ किताबें उठायीं और उसने चला जाना ही ठीक समझा। सुधा खाना परोसने चली गयी। बिनती रो-रोकर और तकिये पर सिर पटककर अपनी कुंठा और दु:ख उतार रही थी। बुआ घंटी बजा रही थीं, दबी जबान जाने क्या बकती जा रही थीं, यह घंटी के भक्ति-भावना-भरे मधुर स्वर में सुनायी नहीं देता था।

लेकिन बुआजी दूसरे दिन गयीं नहीं। जब तीन-चार दिन बाद चन्दर गया तो देखा बाहर के सेहन में डॉ. शुक्ला बैठे हुए हैं और दरवाजा पकडक़र बुआजी खड़ी बातें कर रही हैं। लेकिन इस वक्त बुआजी काफी गम्भीर थीं और किसी विषय पर मन्त्रणा कर रही थीं। चन्दर के पास पहुँचने पर फौरन वे चुप हो गयीं और चन्दर की ओर सशंकित नेत्रों से देखने लगीं। डॉ. शुक्ला बोले, “आओ चन्दर, बैठो।” चन्दर बगल की कुर्सी खींचकर बैठ गया तो डॉ. साहब बुआजी से बोले, “हाँ, हाँ, बात करो, अरे ये तो घर के आदमी हैं। इनके बारे में सुधा ने नहीं बताया तुम्हें? ये चन्दर हैं हमारे शिष्य, बहुत अच्छा लड़का है।”

“अच्छा, अच्छा, भइया बइठो, तू तो एक दिन अउर आये रह्यो, बी. ए. में पढ़त हौ सुधा के संगे।”

“नहीं बुआजी, मैं रिसर्च कर रहा हूँ।”

“वाह, बहुत खुशी भई तोको देख के-हाँ तो सुकुल!” वे अपने भाई से बोलीं, “फिर यही ठीक होई। बिनती का बियाह टाल देव और अगर ई लड़का ठीक हुई जाय तो सुधा का बियाह अषाढ़-भर में निपटाय देव। अब अच्छा नाहीं लागत। ठूँठ ऐसी बिटिया, सूनी माँग लिये छररावा करत है एहर-ओहर!” बुआ बोलीं।

“हाँ, ये तो ठीक है।” डॉ. शुक्ला बोले, “मैं खुद सुधा का ब्याह अब टालना नहीं चाहता। बी.ए. तक की शिक्षा काफी है वरना फिर हमारी जाति में तो लड़के नहीं मिलते। लेकिन ये जो लड़कातुम बता रही हो तो घर वाले कुछ एतराज तो नहीं करेंगे! और फिर, लड़का तो हमें अच्छा लगा लेकिन घरवाले पता नहीं कैसे हों?”

“अरे तो घरवालन से का करै का है तोको। लड़कातो अलग है, अपने-आप पढ़ रहा है और लड़की अलग रहिए, न सास का डर, न ननद की धौंस। हम पत्री मँगवाये देइत ही, मिलवाय लेव।”

डॉ. शुक्ला ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

“तो फिर बिनती के बारे में का कहत हौ? अगहन तक टाल दिया जाय न?” बुआजी ने पूछा।

“हाँ हाँ,” डॉ. शुक्ला ने विचार में डूबे हुए कहा।

“तो फिर तुम ही इन जूतापिटऊ, बड़नक्कू से कह दियौ; आय के कल से हमरी छाती पर मूँग दलत हैं।” बुआजी ने चन्दर की ओर किसी को निर्देशित करते हुए कहा और चली गयीं।

चन्दर चुपचाप बैठा था। जाने क्या सोच रहा था। शायद कुछ भी नहीं सोच रहा था! मगर फिर भी अपनी विचार-शून्यता में ही खोया हुआ-सा था। जब डॉ. शुक्ला उसकी ओर मुड़े और कहा, “चन्दर!” तो वह एकदम से चौंक गया और जाने किस दुनिया से लौट आया। डॉ. साहब ने कहा, “अरे! तुम्हारी तबीयत खराब है क्या?”

“नहीं तो।” एक फीकी हँसी हँसकर चन्दर ने कहा।

“तो मेहनत बहुत कर रहे होगे। कितने अध्याय लिखे अपनी थीसिस के? अब मार्च खत्म हो रहा है और पूरा अप्रैल तुम्हें थीसिस टाइप कराने में लगेगा और मई में हर हालत में जमा हो जानी चाहिए।”

“जी, हाँ।” बड़े थके स्वर में चन्दर ने कहा, “दस अध्याय हो ही गये हैं। तीन अध्याय और होने हैं और अनुक्रमणिका बनानी है। अप्रैल के पहले सप्ताह तक खत्म हो ही जायेगा। अब सिवा थीसिस के और करना ही क्या है?” एक बहुत गहरी साँस लेते हुए चन्दर ने कहा और माथा थामकर बैठ गया।

“कुछ तबीयत ठीक नहीं है तुम्हारी। चाय बनवा लो! लेकिन सुधा तो है नहीं, न महराजिन है।” डॉक्टर साहब बोले।

अरे सुधा, सुधा के नाम पर चन्दर चौंक गया। हाँ, अभी वह सुधा के ही बारे में सोच रहा था, जब बुआजी बात कर रही थीं। क्या सोच रहा था। देखो...उसने याद करने की कोशिश की पर कुछ याद ही नहीं आ रहा था, पता नहीं क्या सोच रहा था। पता नहीं था...कुछ सुधा के ब्याह की बात हो रही थी शायद। क्या बात हो रही थी...?

“कहाँ गयी है सुधा?” चन्दर ने पूछा।

“आज शायद साबिर साहब के यहाँ गयी है। उनकी लड़की उनके साथ पढ़ती है न, वहीं गयी है बिनती के साथ।”

“अब इम्तहान को कितने दिन रह गये हैं, अभी घूमना बन्द नहीं हुआ उनका?”

“नहीं, दिन-भर पढ़ने के बाद उठी थी, उसके भी सिर में दर्द था, चली गयी। घूम-फिर लेने दो बेचारी को, अब तो जा ही रही है।” डॉ. शुक्ला बोले, एक हँसी के साथ जिसमें आँसू छलके पड़ते थे।

“कहाँ तय हो रही है सुधा की शादी?”

“बरेली में। अब उसकी बुआ ने बताया है। जन्मपत्री दी है मिलवा लो, फिर तुम जरा सब बातें देख लेना। तुम तो थीसिस में व्यस्त रहोगे; मैं जाकर लड़का देख आऊँगा। फिर मई के बाद जुलाई तक सुधा का ब्याह कर देंगे। तुम्हें डॉक्टरेट मिल जाए और यूनिवर्सिटी में जगह मिल जाए। बस हम तो लड़का-लड़की दोनों से फारिग।” डॉ. शुक्ला बहुत अजब-से स्वरों में बोले।

चन्दर चुप रहा।

“बिनती को देखा तुमने?” थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने पूछा।

“हाँ, वही न जिनको डाँट रही थीं ये उस दिन?”

“हाँ, वही। उसके ससुर आये हुए हैं; उनसे कहना है कि अब शादी अगहन-पूस के लिए टाल दें। पहले सुधा की हो जाए, वह बड़ी है और हम चाहते हैं कि बिनती को तब तक विदुषी का दूसरा खंड भी दिला दें। आओ, उनसे बात कर लें अभी।” डॉ. शुक्ला उठे। चन्दर भी उठा।

और उसने अन्दर जाकर बिनती के ससुर के दिव्य दर्शन प्राप्त किये। वे एक पलँग पर बैठे थे, लेकिन वह अभागा पलँग उनके उदर के ही लिए नाकाफी था। वे चित पड़े थे और साँस लेते थे तो पुराणों की उस कथा का प्रदर्शन हो जाता था कि धीरे-धीरे पृथ्वी का गोला वाराह के मुँह पर कैसे ऊपर उठा होगा। सिर पर छोटे-छोटे बाल और कमर में एक अँगोछे के अलावा सारा शरीर दिगम्बर। सुबह शायद गंगा नहाकर आये थे क्योंकि पेट तक में चन्दन, रोली लगी हुई थी।

डॉ. शुक्ला जाकर बगल में कुर्सी पर बैठ गये; “कहिए दुबेजी, कुछ जलपान किया आपने?”

पलँग चरमराया। उस विशाल मांस-पिंड में एक भूडोल आया और दुबेजी जलपान की याद करके गद्गद होकर हँसने लगे। एक थलथलाहट हुई और कमरे की दीवारें गिरते-गिरते बचीं। दुबेजी ने उठकर बैठने की कोशिश की लेकिन असफल होकर लेटे-ही-लेटे कहा, “हो-हो! सब आपकी कृपा है। खूब छकके मिष्टान्न पाया। अब जरा सरबत-उरबत कुछ मिलै तो जो कुछ पेट में जलन है, सो शान्त होय!” उन्होंने पेट पर अपना हाथ फेरते हुए कहा।

“अच्छा, अरे भाई जरा शरबत बना देना।” डॉ. शुक्ला ने दरवाजे की ओट में खड़ी हुई बुआजी से कहा। बुआजी की आवाज सुनाई पड़ी, “बाप रे! ई ढाई मन की लहास कम-से-कम मसक-भर के शरबत तो उलीचै लैईंहैं।” चन्दर को हँसी आ गयी, डॉ. शुक्ला मुसकराने लगे लेकिन दुबेजी के दिव्य मुखमंडल पर कहीं क्षोभ या उल्लास की रेखा तक न आयी। चन्दर मन-ही-मन सोचने लगा, प्राचीन काल के ब्रह्मानन्द सिद्ध महात्मा ऐसे ही होते होंगे।

बुआ एक गिलास में शरबत ले आयीं। दुबेजी काँख-काँखकर उठे और एक साँस में शरबत गले से नीचे उतारकर, गिलास नीचे रख दिया।

“दुबेजी, एक प्रार्थना है आपसे!” डॉ. शुक्ला ने हाथ जोडक़र बड़े विनीत स्वर में कहा।

“नहीं! नहीं!” बात काटकर दुबेजी बोले, “बस अब हम कुछ न खावैं। आप बहुत सत्कार किये। हम एही से छक गये। आपको देखके तो हमें बड़ी प्रसन्नता भई। आप सचमुच दिव्य पुरुष हौ! और फिर आप तो लड़की के मामा हो, और बियाह-शादी में जो है सो मामा का पक्ष देखा जाता है। ई तो भगवान् ऐसा जोड़ मिलाइन हैं कि वरपक्ष अउर कन्यापक्ष दुइन के मामा बड़े ज्ञानी हैं। आप हैं तौन कालिज में पुरफेसर और ओहर हमार सार-लड़काकेर मामा जौन हैं तौन डाकघर में मुंशी हैं, आपकी किरपा से।” दुबेजी ने गर्व से कहा। चन्दर मुसकराने लगा।

“अरे सो तो आपकी नम्रता है लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि गरमियों में अगर ब्याह न रखकर जाड़े में रखा जाए तो ज्यादा अच्छा होगा। तब तक आपके सत्कार की हम कुछ तैयारी भी कर लेंगे।” डॉ. शुक्ला बोले।

दुबेजी इसके लिए तैयार नहीं थे। वे बड़े अचरज में भरकर उनकी ओर देखने लगे। लेकिन बहुत कहने-सुनने के बाद अन्त में वे इस शर्त पर राजी हुए कि अगहन तक हर तीज-त्यौहार पर लड़के के लिए कुरता-धोती का कपड़ा और ग्यारह-बारह रुपये नजराना जाएगा और अगहन में अगर ब्याह हो रहा है तो सास-ननद और जिठानी के लिए गरम साड़ी जाएगी और जब-जब दुबेजी गंगा नहाने प्रयागराज आएँगे तो उनका रोचना एक थाल, कपड़े और एक स्वर्णमण्डित जौ से होगा। जब डॉ. शुक्ला ने यह स्वीकार कर लिया तो दुबेजी ने उठकर अपना झालम-झोला कुरता गले में अटकाया और अपनी गठरी हाथ में उठाकर बोले-

“अच्छा तो अब आज्ञा देव, हम चली अब, और ई रुपिया लड़की को दै दियो, अब बात पक्की है।” और अपनी टेंट से उन्होंने एक मुड़ा-मुड़ाया तेल लगा हुआ पाँच रुपये का नोट निकाला और डॉ. साहब को दे दिया।

“चन्दर एक ताँगा कर दो, दुबेजी को। अच्छा, आओ हम भी चलें।”

जब ये लोग लौटे तो बुआजी एक थैली से कुछ धर-निकाल रही थीं। डॉ. शुक्ला ने नोट बुआजी को देते हुए कहा, “लो, ये दे गये तुम्हारे समधी जी, लड़की को।”

पाँच का नोट देखा तो बुआजी सुलग उठीं-”न गहना न गुरिया, बियाह पक्का कर गये ई कागज के टुकड़े से। अपना-आप तो सोना और रुपिया और कपड़ा सब लीलै को तैयार और देत के दाँई पेट पिराता है जूता-पिटऊ का। अरे राम चाही तो जमदूत ई लहास की बोटी-बोटी करके रामजी के कुत्तन को खिलइहैं।”

चन्दर हँसी के मारे पागल हो गया।

बुआजी ने थैली का मुँह बाँधा और बोलीं, “अबहिन तक बिनती का पता नै, और ऊ तुरकन-मलेच्छन के हियाँ कुछ खा-पी लिहिस तो फिर हमरे हियाँ गुजारा नाहि ना ओका। बड़ी आजाद हुई गयी है सुधा की सह पाय के। आवै देव, आज हम भद्रा उतारित ही।”

डॉ. शुक्ला अपने कमरे में चले गये। चन्दर को प्यास लगी थी। उसने बुआजी से एक गिलास पानी माँगा। बुआ ने एक गिलास में पानी दिया और बोलीं, “बैठ के पियो बेटा; बैठ के। कुछ खाय का देई?”

“नहीं, बुआजी!” बुआ बैठकर हँसिया से कटहल छीलने लगीं और चन्दर पानी पीता हुआ सोचने लगा, बुआजी सभी से इतनी मीठी बात करती हैं तो आखिर बिनती से ही इतनी कटु क्यों हैं?

इतने में अन्दर चप्पलों की आहट सुनाई पड़ी। चन्दर ने देखा, सुधा और बिनती आ गयी थीं। सुधा अपनी चप्पल उतारकर अपने कमरे में चली गयी और बिनती आँगन में आयी। बुआजी के पास आकर बोली, “लाओ, हम तरकारी काट दें।”

“चल हट ओहर। पहिले नहाव जाय के। कुछ खाय तो नै रहयो। एत्ती देर कहाँ घूमति रहयो ? हम खूब अच्छी तरह जानित ही तूँ हमार नाक कटाइन के रहबो। पतुरियन के ढँग सीखे हैं!”

बिनती चुप। एक तीखी वेदना का भाव उसके मुँह पर आया। उसने आँखें झुका लीं। रोयी नहीं और चुपचाप सिर झुकाये हुए सुधा के कमरे में चली गयी।

चन्दर क्षण-भर खड़ा रहा। फिर सुधा के पास गया। सुधा के कमरे में अकेले बिनती खाट पर पड़ी थी-औंधे मुँह, तकिया में मुँह छिपाये। चन्दर को जाने कैसा लगा। उसके मन में बेहद तरस आ रहा था इस बेचारी लड़की के लिए, जिसके पिता हैं ही नहीं और जिसे प्रताडऩा के सिवा कुछ नहीं मिला। चन्दर को बहुत ही ममता लग रही थी इस अभागिनी के लिए। वह सोचने लगा, कितना अन्तर है दोनों बहनों में। एक बचपन से ही कितने असीम दुलार, वैभव और स्नेह में पली है और दूसरी प्रताड़ना और कितने अपमान में पली और वह भी अपनी ही सगी माँ से जो दुनिया भर के प्रति स्नेहमयी है, अपनी लड़की को छोडक़र।

वह कुर्सी पर बैठकर चुपचाप यही सोचने लगा-अब आगे भी इस बेचारी को क्या सुख मिलेगा। ससुराल कैसी है, यह तो ससुर को देखकर ही मालूम देता है।

इतने में सुधा कपड़े बदलकर हाथ में किताब लिये, उसे पढ़ती हुई, उसी में डूबी हुई आयी और खाट पर बैठ गयी। “अरे! बिनती! कैसे पड़ी हो? अच्छा तुम हो चन्दर! बिनती! उठो!” उसने बिनती की पीठ पर हाथ रखकर कहा।