गुनाहों का देवता / खंड 2 / पृष्ठ 1 / धर्मवीर भारती

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“अबकी जाड़े में तुम्हारा ब्याह होगा तो आखिर हम लोग नयी-नयी चीज का इन्तजाम करें न। अब डॉक्टर हुए, अब डॉक्टरनी आएँगी!” सुधा बोली।

खैर, बहुत मनाने-बहलाने-फुसलाने पर सुधा मिठाई मँगवाने को राजी हुई। जब नौकर मिठाई लेने चला गया तो चन्दर ने चारों ओर देखकर पूछा, “कहाँ गयी बिनती? उसे भी बुलाओ कि अकेले-अकेले खा लोगी!”

“वह पढ़ रही है मास्टर साहब से!”

“क्यों? इम्तहान तो खत्म हो गया, अब क्या पढ़ रही है?” चन्दर ने पूछा।

“विदुषी का दूसरा खण्ड तो दे रही है न सितम्बर में!” सुधा बोली।

“अच्छा, बुलाओ बिसरिया को भी!” चन्दर बोला।

“अच्छा, मिठाई आने दो।” सुधा ने कहा और फाइल की ओर देखकर कहा, “मुझे इस कम्बख्त पर बहुत गुस्सा आ रहा है।”

“क्यों?”

“इसकी वजह से तुम डेढ़ महीने सीधे से बोले तक नहीं। इम्तहान वाले दिन सुबह-सुबह तुम्हें हाथ जोडऩे आयी तो तुमने सिर पर हाथ भी नहीं रखा!” सुधा ने शिकायत के स्वर में कहा।

“तो अब आशीर्वाद दे दें। अब तो खत्म हुई थीसिस। अब जितना चाहो बात कर लो। थीसिस न लिखते तो फिर तुम्हारे चन्दर को उपाधि कहाँ से मिलती?” चन्दर ने दुलार से कहा।

“तो फिर कन्वोकेशन पर तुम्हारी गाउन हम पहनकर फोटो खिंचाएँगे!” सुधा मचलकर बोली। इतने में नौकर मिठाई ले आया। “जाओ, बिनतीजी को बुला लाओ।” चन्दर ने कहा।

बिनती आयी।

“तुम पढ़ चुकी!” चन्दर ने पूछा।

“अभी नहीं।” बिनती बोली।

“अच्छा, अब आज पढ़ाई बन्द करो, उन्हें भी बुला लाओ। मिठाई खाई जाए।” चन्दर ने कहा।

“अच्छा!” कहकर बिनती जो मुड़ी तो सुधा बोली, “अरे लालचिन! ये तो पूछ ले कि मिठाई काहे की है?”

“मुझे मालूम है!” बिनती मुसकराती हुई बोली, “उनके यहाँ आज गये होंगे, पम्मी के यहाँ फिर आज कुछ उस दिन जैसी बात हुई होगी।”

सुधा हँस पड़ी। चन्दर झेंप गया। बिनती चली गयी बिसरिया को बुलाने।

“अब तो ये तुमसे बोलने लगी!” सुधा ने कहा।

“हाँ, यह है बड़ी सुशील लड़की और बहुत शान्त। हमें बहुत अच्छी लगती है। बोलना तो जैसे आता ही नहीं इसे।”

“हाँ, लेकिन अब खूब सीख रही है। इसकी गुरु मिली है गेसू। हमसे भी ज्यादा गेसू से पटने लगी है इसकी। दोनों ब्याह करने जा रही हैं और दोनों उसी की बातें करती हैं जब मिलती हैं तब।” सुधा बोली।

“और कविता भी करती है यह, तुम एक बार कह रही थीं?” चन्दर ने पूछा।

“नहीं जी, असल में एक बड़ी सुन्दर-सी नोट-बुक थी, उसमें यह जाने क्या लिखती थी? हमें नहीं दिखाती थी। बाद में हमने देखा कि एक डायरी है। उसमें धोबी का हिसाब लिखती थी।”

“तो कविता नहीं लिखतीं! ताज्जुब है, वरना सोलह बरस के बाद प्रेम करके कविता करना तो लड़कियों का फैशन हो गया है, उतना ही व्यापक जितना उलटा पल्ला ओढ़ना।” चन्दर बोला।

“चला तुम्हारा नारी-पुराण!” सुधा बिगड़ी।

मिठाई खाने वाले आये। आगे-आगे बिनती, पीछे-पीछे बिसरिया। अभिवादन के बाद बिसरिया बैठ गया। “कहो बिसरिया, तुम्हारी शिष्या कैसी है?”

“बस अद्वितीय।” कवि बिसरिया ने सिर हिलाकर कहा। सुधा मुसकरा दी, चन्दर की ओर देखकर।

“और ये सुधा कैसी थी?”

“बस अद्वितीय।” बिसरिया ने उसी तरह कहा।

“दोनों अद्वितीय हैं? साथ ही!” चन्दर ने पूछा।

सुधा और बिनती दोनों हँस दीं। बिसरिया नहीं समझ पाया कि उसने कौन-सी हँसने की बात की थी और जब नहीं समझ पाया तो पहले सिर खुजलाने लगा फिर खुद भी हँस पड़ा। उसकी हँसी पर तीनों और हँस पड़े।

“चन्दर, मास्टर साहब भी खूब हैं। एक दिन बिनती को महादेवी की वह कविता पढ़ा रहे थे, 'विरह का जलजात जीवन,' तो पढ़ते-पढ़ते बड़ी गहरी साँस भरने लगे।”

चन्दर और बिनती दोनों हँस पड़े। बिसरिया पहले तो खुद हँसा फिर बोला, “हाँ भाई, क्या करें, कपूर! तुम तो जानते ही हो, मैं बहुत भावुक हूँ। मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। एक बार तो ऐसा हुआ कि पर्चे में एक करुण रस का गीत आ गया अर्थ लिखने को। मैं उसे पढ़ते ही इतना व्यथित हो गया कि उठकर टहलने लगा। प्रोफेसर समझे मैं दूसरे लड़के की कॉपी देखने उठा हूँ, तो उन्होंने निकाल दिया। मुझे निकाले जाने का अफसोस नहीं हुआ लेकिन कविता पढक़र मुझे बहुत रुलाई आयी।”

सुधा हँसी तो चन्दर ने आँख के इशारे से मना किया और गम्भीरता से बोला, “हाँ भाई बिसरिया, सो तो सही है ही। तुम इतने भावुक न हो तो इतना अच्छा कैसे लिख सकते हो? तो तुमने पर्चा छोड़ दिया?”

“हाँ, मैं पर्चे वगैरह की क्या परवाह करता हूँ? मेरे लिए इन सभी वस्तुओं का कुछ भी अर्थ नहीं। मैं भावना की उपासना करता हूँ। उस समय परीक्षा देने की भावना से ज्यादा सबल उस कविता की करुण भावना थी। और इस तरह मैं कितनी बार फेल हो चुका हूँ। मेरे साथ वह पढ़ता था न हरिहर टंडन, वह अब बस्ती कॉलेज का प्रिन्सिपल है। एक मेरा सहपाठी था, वह रेडियो का प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव है...”

“और एक तुम्हारा सहपाठी तो हमने सुना कि असेम्बली का स्पीकर भी है!” चन्दर बात काटकर बोला। सुधा फिर हँस पड़ी। बिनती भी हँस पड़ी।

खैर मिठाई का भोग प्रारम्भ हुआ। बिसरिया कुछ तकल्लुफ कर रहा था तो बिनती बोली, “खाइए, मिठाई तो विरह-रोग और भावुकता में बहुत स्वास्थ्यप्रद होती है!”

“अच्छा, अब तो बिनती का कंठ फूट निकला! अपने गुरुजी को बना रही है।” चन्दर बोला।

बिसरिया थोड़ी देर बाद चला गया। “अब मुझे एक पार्टी में जाना है।” उसने कहा। जब आखिर में एक रसगुल्ला बच रहा तो बिनती हाथ में लेकर बोली, “कौन लेगा?” आज पता नहीं क्यों बिनती बहुत खुश थी और बहुत बोल रही थी।

चन्दर बोला, “हमें दो!”

सुधा बोली, “हमें!”

बिनती ने एक बार चन्दर की ओर देखा, एक बार सुधा की ओर। चन्दर बोला, “देखें बिनती हमारी है या सुधा की है।”

बिनती ने झट रसगुल्ला सुधा के मुख में रख दिया और सुधा के सिर पर सिर रखकर बोली-

“हम अपनी दीदी के हैं!” सुधा ने आधा रसगुल्ला बिनती को दे दिया तो बिनती चन्दर को दिखलाकर खाते हुए सुधा से बोली, “दीदी, ये हमें बहुत बनाते हैं, अब हम भी तुम्हारी तरह बोलेंगे तो इनका दिमाग ठीक हो जाएगा।”

“हम-तुम दोनों मिलके इनका दिमाग ठीक करेंगे?” सुधा ने प्यार से बिनती को थपथपाते हुए कहा, “अब हम तश्तरियाँ धोकर रख दें।” और तश्तरियाँ उठाकर चल दी।

“पानी नहीं दोगी?” चन्दर बोला।

बिनती पानी ले आयी और बोली, “हम तो आपका इतना काम करते हैं और आप जब देखो तब हमें बनाते रहते हैं। आपको क्या आनन्द आता है हमें बनाने में?”

चन्दर ने पल-भर बिनती की ओर देखा और बोला, “असल में बनने के बाद जब तुम झेंप जाती हो तो...हाँ ऐसे ही।”

बिनती ने फिर झेंपकर मुँह छिपा लिया और लाज से सकुचाकर इन्द्रवधू बन गयी। बिनती देखने-सुनने में बड़ी अच्छी थी। उसकी गठन तो सुधा की तरह नहीं थी लेकिन उसके चेहरे पर एक फिरोजी आभा थी जिसमें गुलाल के डोरे थे। आँखें उसकी बड़ी-बड़ी और पलकों में इस तरह डोलती थीं जैसे किसी सुकुमार सीपी में कोई बहुत बड़ा मोती डोले। झेंपती थी तो मुँह पर साँझ मुसकरा उठती थी और गालों में फूलों के कटोरों जैसे दो छोटे-छोटे गड्ढो। और बिनती के अंग-अंग में एक रूप की लहर थी जो नागिन की तरह लहराती थी और उसकी आदत थी कि बात करते समय अपनी गरदन जरा टेढ़ी कर लेती थी और अँगुलियों से अपने आँचल का छोर उमेठने लगती थी।

इस वक्त चन्दर की बात पर झेंप गयी और उसी तरह आँचल के छोर को उमेठती हुई, मुसकान छिपाकर उसने ऐसी निगाह से चन्दर की ओर देखा जिसमें थोड़ी लाज, थोड़ा गुस्सा, थोड़ी प्रसन्नता और थोड़ी शरारत थी।

चन्दर एकदम बोला उठा, “अरे सुधा, सुधा, जरा बिनती की आँख देखो इस वक्त!”

“आयी अभी।” बगल के कमरे में तश्तरी रखते हुए सुधा बोली।

“बड़े खराब हैं आप?” बिनती बोली।

“हाँ, बनाओगी न आज से हमें? हमारा दिमाग ठीक करोगी न? बहुत बोल रही थी, अब बताओ!”

“बताएँ क्या? अभी तक हम बोलते नहीं थे तभी न?”

“अब अपनी ससुराल में बोलना टुइयाँ ऐसी! वहीं तुम्हारे बोल पर रीझेंगे लोग।” चन्दर ने फिर छेड़ा।

“छिह, राम-राम! ये सब मजाक हमसे मत किया कीजिए। दीदी से क्यों नहीं कहते जिनकी अभी शादी होने जा रही है।”

“अभी उनकी कहाँ, अभी तो तय भी नहीं हुई।”

“तय ही समझिए, फोटो इनकी उन लोगों ने पसन्द कर ली। अच्छा एक बात कहें, मानिएगा!” बिनती बड़े आग्रह और दीनता के स्वर में बोली।

“क्या?” चन्दर ने आश्चर्य से पूछा। बिनती आज सहसा कितना बोलने लगी है। बिनती बोली, नीचे जमीन की ओर देखती हुई-”आप हमसे ब्याह के बारे में मजाक न किया कीजिए, हमें अच्छा नहीं लगता।”

“ओहो, ब्याह अच्छा लगता है लेकिन उसके बारे में मजाक नहीं। गुड़ खाया गुलगुले से परहेज!”

“हाँ, यही तो बात है।” बिनती सहसा गम्भीर हो गयी-”आप समझते होंगे कि मैं ब्याह के लिए उत्सुक हूँ, दीदी भी समझती हैं; लेकिन मेरा ही दिल जानता है कि ब्याह की बात सुनकर मुझे कैसा लगने लगता है। लेकिन फिर भी मैंने ब्याह करने से इनकार नहीं किया। खुद दौड़-दौडक़र उस दिन दुबेजी की सेवा में लगी रही, इसलिए कि आप देख चुके हैं कि माँ का व्यवहार मुझसे कैसा है? आप यहाँ इस परिवार को देखकर समझ नहीं सकते कि मैं वहाँ कैसे रहती हूँ, कैसे माँजी की बातें बर्दाश्त करती हूँ, वह नरक है मेरे लिए, माँ की गोद नरक है और मैं किसी तरह निकल भागना चाहती हूँ। कुछ चैन तो मिलेगा!” बिनती की आँखों में आँसू आ गये और सिसकती हुई बोली, “लेकिन आप या दीदी जब यह कहते हैं, तो मुझे लगता है कि मैं कितनी नीच हूँ, कितनी पतित हूँ कि खुद अपने ब्याह के लिए व्याकुल हूँ, लेकिन आप न कहा करें तो अच्छा है!” बिनती को आँसुओं का तार बँध गया था।

सुधा बगल के कमरे से सब कुछ सुन रही थी। आयी और चन्दर से बोली, “बहुत बुरी बात है, चन्दर! बिनती, क्यों रो रही हो, रानी? बुआ का स्वभाव ही ऐसा है, उससे हमेशा अपना दिल दुखाने से क्या लाभ?” और पास जाकर उसको छाती से लगाकर सुधा बोली, “मेरी राजदुलारी! अब रोना मत, ऐं! अच्छा, हम लोग कभी मजाक नहीं करेंगे! बस अब चुप हो जाओ, रानी बिटिया की तरह जाओ मुँह धो आओ।”

बिनती चली गयी। चन्दर लज्जित-सा बैठा था।

“लो, अब तुम्हें भी रुलाई आ रही है क्या?” सुधा ने बहुत दुलार से कहा, “तुम उससे ससुराल का मजाक मत किया करो। वह बहुत दु:खी है और बहुत कदर करती है तुम्हारी। और किसी की मजाक की बात और है। हम या तुम कहते हैं तो उसे लग जाता है।”

“अच्छा, वो कह रही थी, तुम्हारी फोटो उन लोगों ने पसन्द कर ली है”-चन्दर ने बात बदलने के खयाल से कहा।

“और क्या, कोई हमारी शक्ल तुम्हारी तरह है कि लोग नापसन्द कर दें।” सुधा अकड़कर बोली।

“नहीं, सच-सच बताओ?” चन्दर ने पूछा।

“अरे जी,” लापरवाही से मुँह बिचकाकर सुधा बोली, “उनके पसन्द करने से क्या होता है? मैं ब्याह-उआह नहीं करूँगी। तुम इस फेर में न रहना कि हमें निकाल दोगे यहाँ से।”

इतने में बिनती आ गयी। वह भी उदास थी। सुधा उठी और बिनती को पकड़ लायी और ढकेलकर चन्दर के बगल में बिठा दिया।

“लो, चन्दर! अब इसे दुलार कर लो तो अभी गुरगुराने लगे। बिल्ली कहीं की!” सुधा ने उसे हल्की-सी चपत मारकर कहा। बिनती का मुँह अपनी हथेलियों में लेकर अपने मुँह के पास लाकर आँखों में आँख डालकर कहा, “पगली कहीं की, आँसू का खजाना लुटाती फिरती है।”

“चन्दर!” डॉ. शुक्ला ने पुकारा और चन्दर उठकर चला गया।

सुधा पर इन दिनों घूमना सवार था। सुबह हुई कि चप्पल पहनी और गायब। गेसू, कामिनी, प्रभा, लीला शायद ही कोई लड़की बची होगी जिसके यहाँ जाकर सुधा ऊधम न मचा आती हो, और चार सुख-दु:ख की बातें न कर आती हो। बिनती को घूमना कम पसन्द था, हाँ जब कभी सुधा गेसू के यहाँ जाती थी तो बिनती जरूर जाती थी, उसे सुधा की सभी मित्रों में गेसू सबसे ज्यादा पसन्द थी। डॉक्टर शुक्ला के ब्यूरो में छुट्टी हो चुकी थी पर वे सुधा का ब्याह तय करने की कोशिश कर रहे थे। इसलिए वह बाहर भी नहीं गये थे। चन्दर डेढ़ महीने तक लगातार मेहनत करने के बाद पढ़ाई-लिखाई की ओर से आराम कर रहा था और उसने निश्चित कर लिया था कि अब बरसात के पहले वह किताब छुएगा नहीं। बड़े आराम के दिन कटते थे उसके। सुबह उठकर साइकिल पर गंगा नहाने जाता था और वहाँ अक्सर ठाकुर साहब से भी मुलाकात हो जाती थी। डॉक्टर शुक्ला ने भी कई दफे इरादा किया कि वे गंगाजी चला करें लेकिन एक तो उनसे दिन में काम नहीं होता था, शाम को वे घूमते और सुबह उठकर किताब लिखते थे।

एक दिन सुबह लिख रहे थे कि चन्दर आया और उनके पैर छूकर बोला, “प्रान्तीय सरकार का वह पुरस्कार कल शाम को आ गया!”

“कौन-सा?”

“वह जो उत्तर प्रान्त में माता और शिशुओं की मृत्यु-संख्या पर मैंने निबन्ध लिखा था, उसी पर।”

“तो क्या पदक आ गया?” डॉक्टर शुक्ला ने कहा।

“जी,” अपनी जेब में से एक मखमली डिब्बा निकालकर चन्दर ने दिया। पदक बहुत सुन्दर था। जगमगाता हुआ स्वर्णपदक जिसमें प्रान्तीय राजमुद्रा अंकित थी।

“ईश्वर तुम्हें बहुत यशस्वी करे जीवन में।” डॉक्टर शुक्ला ने पदक उसकी कमीज में अपने हाथों से लगा दिया, “जाओ, अन्दर सुधा को दिखा आओ।”

चन्दर जाने लगा तो डॉक्टर साहब ने बुलाया, “अच्छा, अब सुधा की शादी का इन्तजाम करना है। हमसे तो कुछ होने से रहा, तुम्हीं को सब करना होगा। और सुनो, जेठ दशहरा को लड़के का भाई और माँ देखने आ रही हैं। और बहन भी आएँगी गाँव से।”

“अच्छा?” चन्दर बैठ गया कुर्सी पर और बोला, “कहाँ है लड़का? क्या करता है?”

“लड़का शाहजहाँपुर में है। घर के जमींदार हैं ये लोग। लड़का एम. ए. है। और अच्छे विचारों का है। उसने लिखा है कि सिर्फ दस आदमी बारात में आएँगे, एक दिन रुकेंगे। संस्कार के बाद चले जाएँगे। सिवा लड़की के गहने-कपड़े और लड़के के गहने-कपड़ों के और कुछ भी नहीं स्वीकार करेंगे।”

“अच्छा, ब्राह्मणों में तो ऐसा कुल नहीं मिलेगा।”

“तभी तो! सुधा की किस्मत है, वरना तुम बिनती के ससुर को तो देख ही चुके हो। अच्छा जाओ, सुधा से मिल आओ।”

वह सुधा के कमरे में आ गया। सुधा थी ही नहीं। वह आँगन में आया। देखा महराजिन खाना बना रही है और बिनती बरामदे में बुरादे की अँगीठी पर पकोड़ियाँ बना रही है।

“आइए,” बिनती बोली, “दीदी तो गयी हैं गेसू को बुलाने। आज गेसू की दावत है।...पीढ़े पर बैठिएगा, लीजिए।” एक पीढ़ा चन्दर की ओर बिनती ने खिसका दिया। चन्दर बैठ गया। बिनती ने उसके हाथ में मखमली डिब्बा देखा तो पूछा, “यह क्या लाये? कुछ दीदी के लिए है क्या? यह तो अँगूठी मालूम पड़ती है।”

“अँगूठी, वह क्या दाल में मिला के खाएगी! जंगली कहीं की! उसे क्या तमीज है अँगूठी पहनने की!”

“हमारी दीदी के लिए ऐसी बात की तो अच्छा नहीं होगा, हाँ!” उसे बिनती ने उसी तरह गरदन टेढ़ी कर आँखें डुलाते हुए धमकाया-”उन्हें नहीं अँगूठी पहननी आएगी तो क्या आपको आएगी? अब ब्याह में सोलहों सिंगार करेंगी! अच्छा, दीदी कैसी लगेंगी घूँघट काढ़ के? अभी तक तो सिर खोले चकई की तरह घूमती-फिरती हैं।”

“तुमने तो डाल ली आदत, ससुराल में रहने की!” चन्दर ने बिनती से कहा।

“अरे हमारा क्या!” एक गहरी साँस लेते हुए बिनती ने कहा, “हम तो उसी के लिए बने थे। लेकिन सुधा दीदी को ब्याह-शादी में न फँसना पड़ता तो अच्छा था। दीदी इन सबके लिए नहीं बनी थीं। आप मामाजी से कहते क्यों नहीं?”

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुपचाप बैठा हुआ सोचता रहा। बिनती भी कड़ाही में से पकौड़ियाँ निकाल-निकालकर थाली में रखने लगी। थोड़ी देर बाद जब वह घी में पकौड़ियाँ डाल चुकी तब भी वह वैसे ही गुमसुम बैठा सोच रहा था।

“क्या सोच रहे हैं आप? नहीं बताइएगा। फिर अभी हम दीदी से कह देंगे कि बैठ-बैठे सोच रहे थे।” बिनती बोली।

“क्या तुम्हारी दीदी का डर पड़ा है?” चन्दर ने कहा।

“अपने दिल से पूछिए। हमसे नहीं बन सकते आप!” बिनती ने मुसकराकर कहा और उसके गालों में फूलों के कटोरे खिल गये-”अच्छा, इस डिब्बे में क्या है, कुछ प्राइवेट!”

“नहीं जी, प्राइवेट क्या होगा, और वह भी तुमसे? सोने का मेडल है। मिला है मुझे एक लेख पर।” और चन्दर ने डिब्बा खोलकर दिखला दिया।

“आहा! ये तो बहुत अच्छा है। हमें दे दीजिए।” बिनती बोली।

“क्या करेगी तू?” चन्दर ने हँसकर पूछा।

“अपने आनेवाले जीजाजी के लिए कान के बुन्दे बनवा लेंगे।” बिनती बोली, “अरे हाँ, आपको एक चीज दिखाएँगे।”

“क्या?”

“यह नहीं बताते। देखिएगा तो उछल पडि़एगा।”

“तो दिखाओ न!”

“अभी तो दीदी आ रही होंगी। दीदी के सामने नहीं दिखाएँगे।”

“सुधा से छिपाकर हम कुछ नहीं कर सकते, यह तुम जानती हो।” चन्दर बोला।

“छिपाने की बात थोड़े ही है। देखकर तब उन्हें बता दीजिएगा। वैसे वह खुद ही सुधा दीदी से क्या छिपाते हैं? लो, सुधा दीदी तो आ गयीं...”

चन्दर ने पीछे मुडक़र देखा। सुधा के हाथ में एक लम्बा-सा सरकंडा था और उसे झंडे की तरह फहराती हुई चली आ रही थी। चन्दर हँस पड़ा।

“खिल गये दीदी को देखते ही!” बिनती बोली और एक गरम पकौड़ी चन्दर के ऊपर फेंक दी।

“अरे, बड़ी शैतान हो गयी हो तुम इधर! पाजी कहीं की!” चन्दर बोला।

सुधा चप्पल उतारकर अन्दर आयी। झूमती-इठलाती हुई चली आ रही थी।

“कहो, सेठ स्वार्थीमल!” उसने चन्दर को देखते ही कहा, “सुबह हुई और पकौड़ी की महक लग गयी तुम्हें!” पीढ़ा खींचकर उसके बगल में बैठ गयी और सरकंडा चन्दर के हाथ पर रखते हुए बोली, “लो, यह गन्ना। घर में बो देना। और गँडेरी खाना! अच्छा!” और हाथ बढ़ाकर वह डिबिया उठा ली और बोली, “इसमें क्या है? खोलें या न खोलें?”

“अच्छा, खत तक तो हमारे बिना पूछे खोल लेती हो। इसे पूछ के खोलोगी!”

“अरे हमने सोचा शायद इस डिबिया में पम्मी का दिल बन्द हो। तुम्हारी मित्र है, शायद स्मृति-चिह्नï में वही दे दिया हो।” और सुधा ने डिबिया खोली तो उछल पड़ी, “यह तो उसी निबन्ध पर मिला है जिसका चार्ट तुम बनाये थे!”

“हाँ!”

“तब तो ये हमारा है।” डिबिया अपने वक्ष में छिपाकर सुधा बोली।

“तुम्हारा तो है ही। मैं अपना कब कहता हूँ?” चन्दर ने कहा।

“लगाकर देखें!” और उठकर सुधा चल दी।

“बिनती, दो पकौड़ी तो दो।” और दो पकौड़ियाँ लेकर खाते हुए चन्दर सुधा के कमरे में गया। देखा, सुधा शीशे के सामने खड़ी है और मेडल अपनी साड़ी में लगा रही है। वह चुपचाप खड़ा होकर देखने लगा। सुधा ने मेडल लगाया और क्षण-भर तनकर देखती रही फिर उसे एक हाथ से वक्ष पर चिपका लिया और मुँह झुकाकर उसे चूम लिया।

“बस, कर दिया न गन्दा उसे!” चन्दर मौका नहीं चूका।

और सुधा तो जैसे पानी-पानी। गालों से लाज की रतनारी लपटें फूटीं और एड़ी तक धधक उठीं। फौरन शीशे के पास से हट गयी और बिगड़कर बोली, “चोर कहीं के! क्या देख रहे थे?”

बिनती इतने में तश्तरी में पकौड़ी रखकर ले आयी। सुधा ने झट से मेडल उतार दिया और बोली, “लो, रखो सहेजकर।”

“क्यों, पहने रहो न!”

“ना बाबा, परायी चीज, अभी खो जाये तो डाँड़ भरना पड़े।” और मेडल चन्दर की गोद में रख दिया।

बिनती ने धीमे से कहा, “या मुरली मुरलीधर की अधरा न धरी अधरा न धरौंगी।”

चन्दर और सुधा दोनों झेंप गये। “लो, गेसू आ गयी।”

सुधा की जान में जान आ गयी। चन्दर ने बिनती का कान पकडक़र कहा, “बहुत उलटा-सीधा बोलने लगी है!”

बिनती ने कान छुड़ाते हुए कहा, “कोई झूठ थोड़े ही कहती हूँ!”

चन्दर चुपचाप सुधा के कमरे में पकौडिय़ाँ खाता रहा। बगल के कमरे में सुधा, गेसू, फूल और हसरत बैठे बातें करते रहे। बिनती उन लोगों को नाश्ता देती रही। उस कमरे में नाश्ता पहुँचाकर बिनती एक गिलास में पानी लेकर चन्दर के पास आयी और पानी रखकर बोली, “अभी हलुआ ला रही हूँ, जाना मत!” और पल-भर में तश्तरी में हलुआ रखकर ले आयी।

“अब मैं चल रहा हूँ!” चन्दर ने कहा।

“बैठो, अभी हम एक चीज दिखाएँगे। जरा गेसू से बात कर आएँ।” बिनती बड़े भोले स्वर में बोली, “आइए, हसरत मियाँ।” और पल-भर में नन्हें-मुन्ने-से छह वर्ष के हसरत मियाँ तनजेब का कुरता और चूड़ीदार पायजामे पर पीले रेशम की जाकेट पहने कमरे में खरगोश की तरह उछल आये।

“आदाबर्ज।” बड़े तमीज से उन्होंने चन्दर को सलाम किया।

चन्दर ने उसे गोद में उठाकर पास बिठा दिया। “लो, हलुआ खाओ, हसरत!”

हसरत ने सिर हिला दिया और बोला, “गेसू ने कहा था, जाकर चन्दर भाई से हमारा आदाब कहना और कुछ खाना मत! हम खाएँगे नहीं।”

चन्दर बोला, “हमारा भी नमस्ते कह दो उनसे जाकर।”

हसरत उठ खड़ा हुआ-”हम कह आएँ।” फिर मुडक़र बोला, “आप तब तक हलुआ खत्म कर देंगे?”

चन्दर हँस पड़ा, “नहीं, हम तुम्हारा इन्तजार करेंगे, जाओ।”

हसरत सिर हिलाता हुआ चला गया।

इतने में सुधा आयी और बोली, “गेसू की गजल सुनो यहाँ बैठकर। आवाज आ रही है न! फूल भी आयी है इसलिए गेसू तुम्हारे सामने नहीं आएगी वरना फूल अम्मीजान से शिकायत कर देगी। लेकिन वह तुमसे मिलने को बहुत इच्छुक है, अच्छा यहीं से सुनना बैठे-बैठे...”

सुधा चली गयी। गेसू ने गाना शुरू किया बहुत महीन, पतली लेकिन बेहद मीठी आवाज में जिसमें कसक और नशा दोनों घुले-मिले थे। चन्दर एक तकिया टेककर बैठ गया और उनींदा-सा सुनने लगा। गजल खत्म होते ही सुधा भागकर आयी-”कहो, सुन लिया न!” और उसके पीछे-पीछे आया हसरत और सुधा के पैरों में लिपटकर बोला, “सुधा, हम हलुआ नहीं खाएँगे!”

सुधा हँस पड़ी, “पागल कहीं का। ले खा।” और उसके मुँह में हलुआ ठूँस दिया। हसरत को गोद में लेकर वह चन्दर के पास बैठ गयी और गेसू के बारे में बताने लगी, “गेसू गर्मियाँ बिताने नैनीताल जा रही है। वहीं अख्तर की अम्मी भी आएँगी और मँगनी की रस्म वहीं पूरी करेंगी। अब वह पढ़ेगी नहीं। जुलाई तक उसका निकाह हो जाएगा। कल रात की गाड़ी से जा रहे हैं ये लोग। वगैरह-वगैरह।”

बिनती बैठी-बैठी गेसू और फूल से बातें करती रही। थोड़ी देर बाद सुधा उठकर चली गयी। तुम जाना मत, आज खाना यहीं खाना, मैं बिनती को तुम्हारे पास भेज रही हूँ, उससे बातें करते रहना।”

थोड़ी देर बाद बिनती आयी। उसके हाथ में कुछ था जिसे वह अपने आँचल से छिपाये हुई थी। आयी और बोली, “अब दीदी नहीं हैं, जल्दी से देख लीजिए।”

“क्या है?” चन्दर ने ताज्जुब से पूछा।

“जीजाजी की फोटो।” बिनती ने मुसकराकर कहा और एक छोटी-सी बहुत कलात्मक फोटो चन्दर के हाथ में रख दी।

“अरे यह तो मिश्र है। कॉमरेड कैलाश मिश्र।” और चन्दर के दिमाग में बरेली की बातें, लाठी चार्ज...सभी कुछ घूम गया। चन्दर के मन में इस वक्त जाने कैसा-सा लग रहा था। कभी बड़ा अचरज होता, कभी एक सन्तोष होता कि चलो सुधा के भाग्य की रेखा उसे अच्छी जगह ले गयी, फिर कभी सोचता कि मिश्र इतना विचित्र स्वभाव का है, सुधा की उससे निभेगी या नहीं? फिर सोचता, नहीं सुधा भाग्यवान है। इतना अच्छा लड़का मिलना मुश्किल था।

“आप इन्हें जानते हैं?” बिनती ने पूछा।

“हाँ, सुधा भी उन्हें नाम से जानती है शक्ल से नहीं। लेकिन अच्छा लड़का है, बहुत अच्छा लड़का।” चन्दर ने एक गहरी साँस लेकर कहा और फिर चुप हो गया। बिनती बोली, “क्या सोच रहे हैं आप?”

“कुछ नहीं।” पलकों में आये हुए आँसू रोककर और होठों पर मुसकान लाने की कोशिश करते हुए बोला, “मैं सोच रहा हूँ, आज कितना सन्तोष है मुझे, कितनी खुशी है मुझे, कि सुधा एक ऐसे घर जा रही है जो इतना अच्छा है, ऐसे लड़के के साथ जा रही है जो इतना ऊँचा”...कहते-कहते चन्दर की आँखें भर आयीं।

बिनती चन्दर के पास खड़ी होकर बोली, “छिह, चन्दर बाबू! आपकी आँखों में आँसू! यह तो अच्छा नहीं लगता। जितनी पवित्रता और ऊँचाई से आपने सुधा के साथ निबाह किया है, यह तो शायद देवता भी नहीं कर पाते और दीदी ने आपको जैसा निश्छल प्यार दिया है उसको पाकर तो आदमी स्वर्ग से भी ऊँचा उठ जाता है, फौलाद से भी ज्यादा ताकतवर हो जाता है, फिर आज इतने शुभ अवसर पर आप में कमजोरी कहाँ से? हमें तो बड़ी शरम लग रही है। आज तक दीदी तो दूर, हम तक को आप पर गर्व था। अच्छा, मैं फोटो रख तो आऊँ वरना दीदी आ जाएँगी!” बिनती ने फोटो ली और चली गयी।

बिनती जब लौटी तो चन्दर स्वस्थ था। बिनती की ओर क्षण भर चन्दर ने देखा और कहा, “मैं इसलिए नहीं रोया था बिनती, मुझे यह लगा कि यहाँ कैसा लगेगा। खैर जाने दो।”

“एक दिन तो ऐसा होता ही है न, सहना पड़ेगा!” बिनती बोली।

“हाँ, सो तो है; अच्छा बिनती, सुधा ने यह फोटो देखी है?” चन्दर ने पूछा।

“अभी नहीं, असल में मामाजी ने मुझसे कहा था कि यह फोटो दिखा दे सुधा को; लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। मैंने उनसे कह दिया कि चन्दर आएँगे तो दिखा देंगे। आप जब ठीक समझें तो दिखा दें। जेठ दशहरा अगले ही मंगल को है।” बिनती ने कहा।

“अच्छा।” एक गहरी साँस लेकर चन्दर बोला।

बिनती थोड़ी देर तक चन्दर की ओर एकटक देखती रही। चन्दर ने उसकी निगाह चुरा ली और बोला, “क्या देख रही हो, बिनती?”

“देख रही हूँ कि आपकी पलकें झपकती हैं या नहीं?” बिनती बहुत गम्भीरता से बोली।

“क्यों?”

“इसलिए कि मैंने सुना था, देवताओं की पलकें कभी नहीं गिरतीं।”

चन्दर एक फीकी हँसी हँसकर रह गया।

“नहीं, आप मजाक न समझें। मैंने अपनी जिंदगी में जितने लोग देखे, उनमें आप-जैसा कोई भी नहीं मिला। कितने ऊँचे हैं आप, कितना विशाल हृदय है आपका! दीदी कितनी भाग्यशाली हैं।”

चन्दर ने कुछ जवाब नहीं दिया। “जाओ, फोटो ले आओ।” उसने कहा, “आज ही दिखा दूँ। जाओ, खाना भी ले आओ। अब घर जाकर क्या करना है।”

पापा को खाना खिलाने के बाद चन्दर और सुधा खाने बैठे। महराजिन चली गयी थी। इसलिए बिनती सेंक-सेंककर रोटी दे रही थी। सुधा एक रेशमी सनिया पहने चौके के अन्दर खा रही थी। और चन्दर चौके के बाहर। सुबह के कच्चे खाने में डॉक्टर शुक्ला बहुत छूत-छात का विचार रखते थे।

“देखो, आज बिनती ने रोटी बनायी है तो कितनी मीठी लग रही है, एक तुम बनाती हो कि मालूम ही नहीं पड़ता रोटी है कि सोख्ता!” चन्दर ने सुधा को चिढ़ाते हुए कहा।

सुधा ने हँसकर कहा, “हमें बिनती से लड़ाने की कोशिश कर रहे हो! बिनती की हमसे जिंदगी-भर लड़ाई नहीं हो सकती!”

“अरे हम सब समझते हैं इनकी बात!” बिनती ने रोटी पटकते हुए कहा और जब सुधा सिर झुकाकर खाने लगी तो बिनती ने आँख के इशारे से पूछा, “कब दिखाओगे?”

चन्दर ने सिर हिलाया और फिर सुधा से बोला, “तुम उन्हें चिट्ठी लिखोगी?”

“किन्हें?”

“कैलाश मिश्रा को, वही बरेली वाले? उन्होंने हमें खत लिखा था उसमें तुम्हें प्रणाम लिखा था।” चन्दर बोला।

“नहीं, खत-वत नहीं लिखते। उन्हें एक दफे बुलाओ तो यहाँ।”

“हाँ, बुलाएँगे अब महीने-दो महीने बाद, तब तुमसे खूब परिचय करा देंगे और तुम्हें उसकी पार्टी में भी भरती करा देंगे।” चन्दर ने कहा।

“क्या? हम मजाक नहीं करते? हम सचमुच समाजवादी दल में शामिल होंगे।” सुधा बोली, “अब हम सोचते हैं कुछ काम करना चाहिए, बहुत खेल-कूद लिये, बचपन निभा लिया।”

“उन्होंने अपना चित्र भेजा है। देखोगी?” चन्दर ने जेब में हाथ डालते हुए पूछा।

“कहाँ?” सुधा ने बहुत उत्सुकता से पूछा, “निकालो देखें।”

“पहले बताओ, हमें क्या इनाम दोगी? बहुत मुश्किल से भेजा उन्होंने चित्र!” चन्दर ने कहा।

“इनाम देंगे इन्हें!” सुधा बोली और झट से झपटकर चित्र छीन लिया।

“अरे, छू लिया चौके में से?” बिनती ने दबी जबान से कहा।

सुधा ने थाली छोड़ दी। अब छू गयी थी वह; अब खा नहीं सकती थी।

“अच्छी फोटो देखी दीदी। सामने की थाली छूट गयी!” बिनती ने कहा।