गुनाहों का देवता / खंड 3 / पृष्ठ 5 / धर्मवीर भारती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चन्दर खाना खाकर लॉन में बैठ गया, वहीं उसने अपनी चारपाई डलवा ली। सुधा के बिस्तर छत पर लगे थे। उसके पास महराजिन सोनेवाली थीं। सुधा एक तश्तरी में तरबूज काटकर ले आयी और कुर्सी डालकर चन्दर भी चारपाई के पास बैठ गया। चन्दर तरबूज खाता रहा...थोड़ी देर बाद सुधा बोली-

“चन्दर, बिनती के बारे में तुम्हारी क्या राय है?”

“राय? राय क्या होती? बहुत अच्छी लड़की है! तुमसे तो अच्छी ही है!” चन्दर ने छेड़ा।

“अरे, मुझसे अच्छी तो दुनिया है, लेकिन एक बात पूछें? बहुत गम्भीर बात है!”

“क्या?”

“तुम बिनती से ब्याह कर लो।”

“बिनती से? कुछ दिमाग तो नहीं खराब हो गया है?”

“नहीं! इस बारे में पहले-पहले 'ये' बोले कि चन्दर से बिनती का ब्याह क्यों नहीं करती, तो मैंने चुपचाप पापा से पूछा। पापा बिल्कुल राजी हैं, लेकिन बोले मुझसे कि तुम्हीं कहो चन्दर से। कर लो; चन्दर! बुआजी अब दखल नहीं देंगी।”

चन्दर हँस पड़ा, “अच्छी खुराफातें तुम्हारे दिमाग में उठती हैं! याद है, एक बार और तुमने ब्याह करने के लिए कहा था?”

सुधा के मुँह से एक हल्का नि:श्वास निकल पड़ा-”हाँ, याद है! खैर, तब की बात दूसरी थी, अब तो तुम्हें कर लेना चाहिए।”

“नहीं सुधा, शादी तो मुझे नहीं ही करनी है। तुम कह क्यों रही हो? तुम मेरे-बिनती के सम्बन्धों को कुछ गलत तो नहीं समझ रही हो?”

“नहीं जी, लेकिन यह जानती हूँ कि बिनती तुम पर अन्धश्रद्धा रखती है। उससे अच्छी लड़की तुम्हें मिलेगी नहीं। कम-से-कम जिंदगी तुम्हारी व्यवस्थित हो जाएगी।”

चन्दर हँसा, “मेरी जिंदगी शादी से नहीं, प्यार से सुधरेगी, सुधा! कोई ऐसी लड़की ढूँढ़ दो जो तुम्हारी जैसी हो और प्यार करे तो मैं समझूँ भी कि तुमने कुछ किया मेरे लिए। शादी-वादी बेकार है और कोई बात करनी है या नहीं?”

“नहीं चन्दर, शादी तो तुम्हें करनी ही होगी। अब मैं ऐसे तुम्हें नहीं रहने दूँगी। बिनती से न करो तो दूसरी लड़की ढूँढूँगी। लेकिन शादी करनी होगी और मेरी पसन्द से करनी होगी।”

चन्दर एक उपेक्षा की हँसी हँसकर रह गया।

सुधा उठ खड़ी हुई।

“क्यों, चल दीं?”

“हाँ, अब नींद आ रही होगी तुम्हें, सोओ।”

चन्दर ने रोका नहीं। उसने सोचा था, सुधा बैठेगी। जाने कितनी बातें करेंगे! वह सुधा से उसका सब हाल पूछेगा, लेकिन सुधा तो जाने कैसी तटस्थ, निरपेक्ष और अपने में सीमित-सी हो गयी है कि कुछ समझ में नहीं आता। उसने चन्दर से सबकुछ जान लिया लेकिन चन्दर के सामने उसने अपने मन को कहीं जाहिर ही नहीं होने दिया, सुधा उसके पास होकर भी जाने कितनी दूर थी! सरोवर में डूबकर पंछी प्यासा था।

करीब घंटा-भर बाद सुधा दूध का गिलास लेकर आयी। चन्दर को नींद आ गयी थी। वह चन्दर के सिरहाने बैठ गयी-”चन्दर, सो गये क्या?”

“क्यों?” चन्दर घबराकर उठ बैठा।

“लो, दूध पी लो।” सुधा बोली।

“दूध हम नहीं पिएँगे।”

“पी लो, देखो बर्फ और शरबत मिला दिया है, पीकर तो देखो!”

“नहीं, हम नहीं पिएँगे। अब जाओ, हमें नींद लग रही है।” चन्दर गुस्सा था।

“पी लो मेरे राजदुलारे, चमक रहे हैं चाँद-सितारे...” सुधा ने लोरी गाते हुए चन्दर को अपनी गोद में खींचकर बच्चों की तरह गिलास चन्दर के मुँह से लगा दिया। चन्दर ने चुपचाप दूध पी लिया। सुधा ने गिलास नीचे रखकर कहा, “वाह, ऐसे तो मैं नीलू को दूध पिलाती हूँ।”

“नीलू कौन?”

“अरे मेरा भतीजा! शंकर बाबू का लड़का।”

“अच्छा!”

“चन्दर, तुमने पंखा तो छत पर लगा दिया है। तुम कैसे सोओगे?”

“मुझे नींद आ जाएगी।”

चन्दर फिर लेट गया। सुधा उठी नहीं। वह दूसरी पाटी से हाथ टेककर चन्दर के वक्ष के आर-पार फूलों के धनुष-सी झुककर बैठ गयी। एकादशी का स्निग्ध पवित्र चन्द्रमा आसमान की नीली लहरों पर अधखिले बेल के फूल की तरह काँप रहा था। दूध में नहाये हुए झोंके चाँदनी से आँख-मिचौली खेल रहे थे। चन्दर आँखें बन्द किये पड़ा था और उसकी पलकों पर, उसके माथे पर, उसके होठों पर चाँदी की पाँखुरियाँ बरस रही थीं। सुधा ने चन्दर का कॉलर ठीक किया और बड़े ही मधुर स्वर में पूछा, “चन्दर, नींद आ रही है?”

“नहीं, नींद उचट गयी!” चन्दर ने आँख खोलकर देखा। एकादशी का पवित्र चन्द्रमा आकाश में था और पूजा से अभिषिक्त एकादशी की उदास चाँदनी उसके वक्ष पर झुकी बैठी थी। उसे लगा जैसे पवित्रता और अमृत का चम्पई बादल उसके प्राणों में लिपट गया है।

उसने करवट बदलकर कहा, “सुधा, जिंदगी का एक पहलू खत्म हुआ। दर्द की एक मंजिल खत्म हो गयी। थकान भी दूर हो गयी, लेकिन अब आगे का रास्ता समझ में नहीं आता। क्या करूँ?”

“करना बहुत है, चन्दर! अपने अन्दर की बुराई से लड़ लिये, अब बाहर की बुराई से लड़ो। मेरा तो सपना था चन्दर कि तुम बहुत बड़े आदमी बनोगे। अपने बारे में तो जो कुछ सोचा था वह सब नसीब ने तोड़ दिया। अब तुम्हीं को देखकर कुछ सन्तोष मिलता है। तुम जितने ऊँचे बनोगे, उतना ही चैन मिलेगा। वर्ना मैं तो नरक में भुन रही हूँ।”

“सुधा, तुम्हारी इसी बात से मेरी सारी हिम्मत, सारा बल टूट जाता है। अगर तुम अपने परिवार में सुखी होती तो मेरा भी साहस बँधा रहता। तुम्हारा यह हाल, तुम्हारा यह स्वास्थ्य, यह असमय वैराग्य और पूजा, यह घुटन देखकर लगता है क्या करूँ? किसके लिए करूँ?”

“मैं भी क्या करूँ, चन्दर! मैं यह जानती हूँ कि अब ये भी मेरा बहुत खयाल रखते हैं, लेकिन इस बात पर मुझे और भी दुख होता है। मैं इन्हें सन्तुलित नहीं कर पाती और उनकी खुलकर उपेक्षा भी नहीं कर पाती। यह अजब-सा नरक है मेरा जीवन भी, लेकिन यह जरूर है चन्दर कि तुम्हें ऊँचा देखकर मैं यह नरक भी भोग ले जाऊँगी। तुम दिल मत छोटा करो। एक ही जिंदगी की तो बात है, उसके बाद...”

“लेकिन मैं तो पुनर्जन्म में विश्वास ही नहीं करता।”

“तब तो और भी अच्छा है, इसी जन्म में जो सुख दे सकते हो, दे लो। जितना ऊँचे उठ सकते हो, उठ लो।”

“तुम जो रास्ता बताओ वह मैं अपनाने के लिए तैयार हूँ। मैं सोचता हूँ, अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठूँ...लेकिन मेरे साथ एक शर्त है। तुम्हारा प्यार मेरे साथ रहे!”

“तो वह अलग कब रहा, चन्दर! तुम्हीं ने जब चाहा मुँह फेर लिया। लेकिन अब नहीं। काश कि तुम एक क्षण का भी अनुभव कर पाते कि तुमसे दूर वहाँ, वासना के कीचड़ में फँसी हुई मैं कितनी व्याकुल, कितनी व्यथित हूँ तो तुम ऐसा कभी न करते! मेरे जीवन में जो कुछ अपूर्णता रह गयी है चन्दर, उसकी पूर्णता, उसकी सिद्धि तुम्हीं हो। तुम्हें मेरे जन्म-जन्मान्तर की शान्ति की सौगन्ध है, तुम अब इस तरह न करना! बस ब्याह कर लो और दृढ़ता से ऊँचाई की ओर चलो।”

“ब्याह के अलावा तुम्हारी सब बातें स्वीकार हैं। लेकिन फिर भी तुम अपना प्यार वापस नहीं लोगी कभी?”

“कभी नहीं।”

“और हम कभी नाराज भी हो जाएँ तो बुरा नहीं मानोगी?”

“नहीं!”

“और हम कभी फिसलें तो तुम तटस्थ होकर नहीं बैठोगी बल्कि बिना डरे हुए मुझे खींच लाओगी उस दलदल से?”

“यह कठिन है चन्दर, आखिर मेरे भी बन्धन हैं। लेकिन खैर...अच्छा यह बताओ, तुम दिल्ली कब आओगे?”

“अब दिल्ली तो दशहरे में आऊँगा। गर्मियों में यहीं रहूँगा।...लेकिन हो सका तो लौटने के बाद शाहजहाँपुर आऊँगा।”

सुधा चुपचाप बैठी रही। चन्दर भी चुपचाप लेटा रहा। थोड़ी देर बाद चन्दर ने सुधा की हथेली अपने हाथों पर रख ली और आँखें बन्द कर लीं। जब वह सो गया तो सुधा ने धीरे-से हाथ उठाया, खड़ी हो गयी। थोड़ी देर अपलक उसे देखती रही और धीरे-धीरे चली आयी।

दूसरे दिन सुबह सुधा ने आकर चन्दर को जगाया। चन्दर उठ बैठा तो सुधा बोली-”जल्दी से नहा लो, आज तुम्हारे साथ पूजा करेंगे!”

चन्दर उठ बैठा। नहा-धोकर आया तो सुधा ने चौकी के सामने दो आसन बिछा रखे थे। चौकी पर धूप सुलग रही थी और फूल गमक रहे थे। ढेर-के-ढेर बेलें और अगस्त के फूल। चन्दर को बिठाकर सुधा बैठी। उसने फिर वही वेश धारण कर लिया था। रेशम की धोती और रेशम का एक अन्तर्वासक, गीले बाल पीठ पर लहरा रहे थे।

“लेकिन मैं बैठा-बैठा क्या करूँगा?” उसने पूछा।

सुधा कुछ नहीं बोली। चुपचाप अपना काम करती गयी। थोड़ी देर बाद उसने भागवत खोली और बड़े मधुर स्वरों में गोपिका-गीत पढ़ती रही। चन्दर संस्कृत नहीं समझता था, पूजा में विश्वास नहीं करता था, लेकिन वह क्षण जाने कैसा लग रहा था! चन्दर की साँस में धूप की पावन सौरभ के डोरे गुँथ गये थे। उसके घुटनों पर रह-रहकर सद्य:स्नाता सुधा के भीगे केशों से गीले मोती चू पड़ते थे। कृशकाय, उदास और पवित्र सुधा के पूजा के प्रसाद जैसे मधुर स्वर में श्रीमद्भागवत के श्लोक उसकी आत्मा को अमृत से धो रहे थे। लगता था, जैसे इस पूजा की श्रद्धान्वित बेला में उसके जीवन-भर की भूलें, कमजोरियाँ, गुनाह सभी धुलता जा रहा था।...जब सुधा ने भागवत बन्द करके रख दिया तो पता नहीं क्यों चन्दर ने प्रणाम कर लिया-भागवत को या भागवत की पुजारिन को, यह नहीं मालूम।

थोड़ी देर बाद सुधा ने पूजा की थाली उठायी और उसने चन्दर के माथे पर रोली लगा दी।

“अरे मैं!”

“हाँ तुम! और कौन...मेरे तो दूसरा न कोई!” सुधा बोली और ढेर-के-ढेर फूल चन्दर के चरणों पर चढ़ाकर, झुककर चन्दर के चरणों को प्रणाम कर लिया। चन्दर ने घबराकर पाँव खींच लिए, “मैं इस योग्य नहीं हूँ, सुधा! क्यों लज्जित कर रही हो?”

सुधा कुछ नहीं बोली...अपने आँचल से एक छलकता हुआ आँसू पोंछकर नाश्ता लाने चली गयी।

जब वह यूनिवर्सिटी से लौटा तो देखा, सुधा मशीन रखे कुछ सिल रही है। चन्दर ने कपड़े बदलकर पूछा, “कहो, क्या सिल रही हो?”

“रूमाल और बनियाइन! कैसे काम चलता था तुम्हारा? न सन्दूक में एक भी रूमाल है, न एक भी बनियाइन। लापरवाही की भी हद है। तभी कहती हूँ ब्याह कर लो!”

“हाँ, किसी दर्जी की लड़की से ब्याह करवा दो!” चन्दर खाट पर बैठ गया और सुधा मशीन पर बैठी-बैठी सिलती रही। थोड़ी देर बाद सहसा उसने मशीन रोक दी और एकदम से घबरा कर उठी।

“क्या हुआ, सुधा...”

“बहुत दर्द हो रहा है....” वह उठी और खाट पर बेहोश-सी पड़ रही। चन्दर दौडक़र पंखा उठा लाया। और झलने लगा। “डॉक्टर बुला लाऊँ?”

“नहीं, अभी ठीक हो जाऊँगी। उबकाई आ रही है!” सुधा उठी।

“जाओ मत, मैं पीकदान उठा लाता हूँ।” चन्दर ने पीकदान उठाकर रख दिया और सुधा की पीठ सहलाने लगा। फिर सुधा हाँफती-सी लेट गयी। चन्दर दौड़कर इलायची और पानी ले आया। सुधा ने इलायची खायी और फिर पड़ रही। उसके माथे पर पसीना झलक आया।

“अब कैसी तबीयत है, सुधा?”

“बहुत दर्द है अंग-अंग में...मशीन चलाना नुकसान कर गया।” सुधा ने बहुत क्षीण स्वरों में कहा।

“जाऊँ किसी डॉक्टर को बुला लाऊँ?”

“बेकार है, चन्दर! मैं तो लखनऊ में दिखा आयी। इस रोग का क्या इलाज है। यह तो जिंदगी-भर का अभिशाप है!”

“क्या बीमारी बतायी तुम्हें?”

“कुछ नहीं।”

“बताओ न?”

“क्या बताऊँ, चन्दर!” सुधा ने बड़ी कातर निगाहों से चन्दर की ओर देखा और फूट-फूटकर रो पड़ी। बुरी तरह सिसकने लगी। सुधा चुपचाप पड़ी कराहती रही। चन्दर ने अटैची में से दवा निकालकर दी। कॉलेज नहीं गया। दो घंटे बाद सुधा कुछ ठीक हुई। उसने एक गहरी साँस ली और तकिये के सहारे उठकर बैठ गयी। चन्दर ने और कई तकिये पीछे रख दिये। दो ही घंटे में सुधा का चहेरा पीला पड़ा गया। चन्दर चुपचाप उदास बैठा रहा।

उस दिन सुधा ने खाना नहीं खाया। सिर्फ फल लिये। दोपहर को दो बजे भयंकर लू में कैलाश वापस आया और आते ही चन्दर से पूछा, “सुधा की तबीयत तो ठीक रही?” यह जानकर कि सुबह खराब हो गयी थी, वह कपड़े उतारने के पहले सुधा के कमरे में गया और अपने हाथ से दवा देकर फिर कपड़े बदलकर सुधा के कमरे में जाकर सो गया। बहुत थका मालूम पड़ता था।

चन्दर आकर अपने कमरे में कॉपियाँ जाँचता रहा। शाम को कामिनी, प्रभा तथा कई लड़कियाँ, जिन्हें गेसू ने खबर दे दी थी, आयीं और सुधा और कैलाश को घेरे रहीं। चन्दर उनकी खातिर-तवज्जो में लगा रहा। रात को कैलाश ने उसे अपनी छत पर बुला लिया और चन्दर के भविष्य के कार्यक्रम के बारे में बात करता रहा। जब कैलाश को नींद आने लगी, तब वह उठकर लॉन पर लौट आया और लेट गया।

बहुत देर तक उसे नींद नहीं आयी। वह सुधा की तकलीफों के बारे में सोचता रहा। उधर सुधा बहुत देर तक करवटें बदलती रही। यह दो दिन सपनों की तरह बीत गये और कल वह फिर चली जाएगी चन्दर से दूर, न जाने कब तक के लिए!

सुबह से ही सुधा जैसे बुझ गयी थी। कल तक जो उसमें उल्लास वापस आ गया था, वह जैसे कैलाश की छाँह ने ही ग्रस लिया था। चन्दर के कॉलेज का आखिरी दिन था। चन्दर कैलाश को ले गया और अपने मित्रों से, प्रोफेसरों से उसका परिचय करा लाया। एक प्रोफेसर, जिनकी आदत थी कि वे कांग्रेस सरकार से सम्बन्धित हर व्यक्ति को दावत जरूर देते थे, उन्होंने कैलाश को भी दावत दी क्योंकि वह सांस्कृतिक मिशन में जा रहा था।

वापस जाने के लिए रात की गाड़ी तय रही। हफ्ते-भर बाद ही कैलाश को जाना था अत: वह ज्यादा नहीं रुक सकता था। दोपहर का खाना दोनों ने साथ खाया। सुधा महराजिन का लिहाज करती थी, अत: वह कैलाश के साथ खाने नहीं बैठी। निश्चय हुआ कि अभी से सामान बाँध लिया जाए ताकि पार्टी के बाद सीधे स्टेशन जा सकें।

जब सुधा ने चन्दर के लाये हुए कपड़े कैलाश को दिखाये तो उसे बड़ा ताज्जुब हुआ। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा, कपड़े रख लिये और चन्दर से जाकर बोला, “अब जब तुमने लेने-देने का व्यवहार ही निभाया है तो यह बता दो, तुम बड़े हो या छोटे?”

“क्यों?” चन्दर ने पूछा।

“इसलिए कि बड़े हो तो पैर छूकर जाऊँ, और छोटे हो तो रुपया देकर जाऊँ!” कैलाश बोला। चन्दर हँस पड़ा।

घर में दोपहर से ही उदासी छा गयी। न चन्दर दोपहर को सोया, न कैलाश और न सुधा। शाम की पार्टी में सब लोग गये। वहाँ से लौटकर आये तो सुधा को लगा कि उसका मन अभी डूब जाएगा। उसे शादी में भी जाना इतना नहीं अखरा था जितना आज अखर रहा था। मोटर पर सामान रखा जा रहा था तो वह खम्भे से टिककर खड़ी रो रही थी। महराजिन एक टोकरी में खाने का सामान बाँध रही थी।

कैलाश ने देखा तो बोला, “रो क्यों रही हो? छोड़ जाएँ तुम्हें यहीं? चन्दर से सँभलेगा!” सुधा ने आँसू पोंछकर आँखों से डाँटा-”महराजिन सुन रही हैं कि नहीं।” मोटर तक पहुँचते-पहुँचते सुधा फूट-फूटकर रो पड़ी और महराजिन उसे गले से लगाकर आँसू पोंछने लगीं। फिर बोलीं, “रोवौ न बिटिया! अब छोटे बाबू का बियाह कर देव तो दुई-तीन महीना आयके रह जाव। तोहार सास छोडि़हैं कि नैं?”

सुधा ने कुछ जवाब नहीं दिया और पाँच रुपये का नोट महराजिन के हाथ में थमाकर आ बैठी।

ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गयी थी। सेकेंड क्लास में चन्दर ने इन लोगों का बिस्तर लगवा दिया। सीट रिजर्व करवा दी। गाड़ी छूटने में अभी घंटा-भर देर थी। सुधा की आँखों में विचित्र-सा भाव था। कल तक की दृढ़ता, तेज, उल्लास बुझ गया था और अजब-सी कातरता आ गयी थी। वह चुप बैठी थी। चन्दर से जब नहीं देखा गया तो वह उठकर प्लेटफार्म पर टहलने लगा। कैलाश भी उतर गया। दोनों बातें करने लगे। सहसा कैलाश ने चन्दर के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “हाँ यार, एक बात बहुत जरूरी थी।”

“क्या?”

“इन्होंने तुमसे बिनती के बारे में कुछ कहा?”

“कहा था!”

“तो क्या सोचा तुमने?”

“मैं शादी-वादी नहीं करूँगा।”

“यह सब आदर्शवाद मुझे अच्छा नहीं लगा, और फिर उससे शादी करके सच पूछो तो बहुत बड़ी बात करोगे तुम! उस घटना के बाद अब ब्राह्मïणों में तो वर उसे मिलने से रहा। और ये कह रही थीं कि वह तुम्हें मानती भी बहुत है।”

“हाँ, लेकिन इसके मतलब यह नहीं कि मैं शादी कर लूँ। मुझे बहुत कुछ करना है।”

“अरे जाओ यार, तुम सिवा बातों के कुछ नहीं कर सकते।”

“हो सकता है।” चन्दर ने बात टाल दी। वह शादी तो नहीं ही करेगा।

थोड़ी देर बाद चन्दर ने पूछा, “इन्हें दिल्ली कब भेजोगे?”

“अभी तो जिस दिन मैं जाऊँगा, उस दिन ये दिल्ली मेरे साथ जाएँगी, लेकिन दूसरे दिन शाहजहाँपुर लौट जाएँगी।”

“क्यों?”

“अभी माँ बहुत बिगड़ी हुई हैं। वह इन्हें आने थोड़े ही देती थीं। वह तो लखनऊ के बहाने मैं इन्हें ले आया। तुम शंकर भइया से कभी जिक्र मत करना-अब दिल्ली तो इसलिए चली जाएँ कि मैं दो-तीन महीने बाद लौटूँगा...फिर शायद सितम्बर, अक्टूबर में ये तीन-चार महीने के लिए दिल्ली जाएँगी। यू नो शी इज कैरीइङ्!”

“हाँ, अच्छा!”

“हाँ, यही तो बात है, पहला मौका है।”

दोनों लौटकर कम्पार्टमेंट में बैठ गये।

सुधा बोली, “तो सितम्बर में आओगे न, चन्दर?”

“हाँ-हाँ!”

“जरूर से? फिर वक्त कोई बहाना न बना देगा।”

“जरूर आऊँगा!”

कैलाश उतरकर कुछ लेने गया तो सुधा ने अपनी आँखों से आँसू पोंछकर झुककर चन्दर के पाँव छू लिये और रोकर बोली, “चन्दर, अब बहुत टूट चुकी हूँ...अब हाथ न खींच लेना...” उसका गला रुँध गया।

चन्दर ने सुधा के हाथों को अपने हाथ में ले लिया और कुछ भी नहीं बोला। सुधा थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली-

“चन्दर, चुप क्यों हो? अब तो नफरत नहीं करोगे? मैं बहुत अभागी हूँ, देवता! तुमने क्या बनाया था और अब क्या हो गयी!...देखो, अब चिठ्ठी लिखते रहना। नहीं तो सहारा टूट जाता है...” और फिर वह रो पड़ी।

कैलाश कुछ किताबें और पत्रिकाएँ खरीदकर वापस आ गया। दोनों बैठकर बातें करते रहे। यह निश्चय हुआ कि जब कैलाश लौटेगा तो बजाय बम्बई से सीधे दिल्ली जाने के, वह प्रयाग से होता हुआ जाएगा।

गाड़ी चली तो चन्दर ने कैलाश को बहुत प्यार से गले लगा लिया। जब तक गाड़ी प्लेटफॉर्म के अन्दर रही, सुधा सिर निकाले झाँकती रही। प्लेटफार्म के बाहर भी पीली चाँदनी में सुधा का फहराता हुआ आँचल दिखता रहा। धीरे-धीरे वह एक सफेद बिन्दु बनकर अदृश्य हो गया। गाड़ी एक विशाल अजगर की तरह चाँदनी में रेंगती चली जा रही थी।

जब मन में प्यार जाग जाता है तो प्यार की किरन बादलों में छिप जाती है। अजब थी चन्दर की किस्मत! इस बार तो, सुधा गयी थी तो उसके तन-मन को एक गुलाबी नशे में सराबोर कर गयी थी। चन्दर उदास नहीं था। वह बेहद खुश था। खूब घूमता था और गरमी के बावजूद खूब काम करता था। अपने पुराने नोट्स निकाल लिये थे और एक नयी किताब की रूपरेखा सोच रहा था। उसे लगता था कि उसका पौरुष, उसकी शक्ति, उसका ओज, उसकी दृढ़ता, सभी कुछ लौट आया है। उसे हरदम लगता कि गुलाबी पाँखुरियों की एक छाया उसकी आत्मा को चूमती रहती है। वह जब कभी लेटता तो उसेलगता कि सुधा फूलों के धनुष की तरह उसके पलँग के आर-पार पाटी पर हाथ टेके बैठी है। उसे लगता-कमरे में अब भी धूप की सौरभ लहरा रही है और हवाओं में सुधा के मधुर कंठ के श्लोक गूँज रहे हैं।

दो ही दिन में चन्दर को लग रहा था कि उसकी जिंदगी में जहाँ जो कुछ टूट-फूट गया है, वह सब सँभल रहा है। वह सब अभाव धीरे-धीरे भर रहा है। उसके मन का पूजा-गृह खँडहर हो चुका था, सहसा उस पर जैसे किसी ने आँसू छिड़ककर जीवन के वरदान से अभिषिक्त कर दिया था। पत्थर के बीच दबकर पिसे हुए पूजा-गीत फिर से सस्वर हो उठे थे। मुरझाये हुए पूजा-फूलों की पाँखुरियों में फिर रस छलक आया था और रंग चमक उठे थे। धीरे-धीरे मन्दिर का कँगूरा फिर सितारों से समझौता करने की तैयारी करने लगा था। चन्दर की नसों में वेद-मन्त्रों की पवित्रता और ब्रज की वंशी की मधुराई पलकों में पलकें डालकर नाच उठी थी। सारा काम जैसे वह किसी अदृश्य आत्मा की आत्मा की आज्ञा से करता था। वह आत्मा सिवा सुधा के और भला किसकी थी! वह सुधामय हो रहा था। उसके कदम-कदम में, बात-बात में, साँस-साँस में सुधा का प्यार फिर से लौट आया था।

तीसरे दिन बिनती का एक पत्र आया। बिनती ने उसे दिल्ली बुलाया था और मामाजी (डॉक्टर शुक्ला) भी चाहते थे कि चन्दर कुछ दिन के लिए दिल्ली चला आये तो अच्छा है। चन्दर के लिए कुछ कोशिश भी कर रहे थे। उसने लिख दिया कि वह मई के अन्त में या जून के प्रारम्भ में आएगा। और बिनती को बहुत, बहुत-सा स्नेह। उसने सुधा के आने की बात नहीं लिखी क्योंकि कैलाश ने मना कर दिया था।

सुबह चन्दर गंगा नहाता, नयी पुस्तकें पढ़ता, अपने नोट्स दोहराता। दोपहर को सोता और रेडियो बजाता, शाम को घूमता और सिनेमा देखता, सोते वक्त कविताएँ पढ़ता और सुधा के प्यार के बादलों में मुँह छिपाकर सो जाता। जिस दिन कैलाश जाने वाला था, उसी दिन उसका एक पत्र आया कि वह और सुधा दिल्ली आ गये हैं। शंकर भइया और नीलू उसे पहुँचाने बम्बई जाएँगे। चन्दर सुधा के इलाहाबाद जाने का जिक्र किसी को भी न लिखे। यह उसके और चन्दर के बीच की बात थी। खत के नीचे सुधा की कुछ लाइनें थीं।

“चन्दर,

राम-राम। तुमने मुझे जो साड़ी दी थी वह क्या अपनी भावी श्रीमती के नाप की थी? वह मेरे घुटनों तक आती है। बूढ़ी होकर घिस जाऊँगी तो उसे पहना करूँगी-अच्छा स्नेह। और जो तुमसे कह आयी हूँ उन बातों का ध्यान रहेगा न? मेरी तन्दुरुस्ती ठीक है। इधर मैंने गाँधीजी की आत्मकथा पढ़नी शुरू की है।

तुम्हारी-सुधा।

“...और हाँ, लालाजी! मिठाई खिलाओ, दिल्ली में बहुत खबर है कि शरणार्थी विभाग में प्रयाग के एक प्रोफेसर आने वाले हैं!”

कैलाश तो अब बम्बई चल दिया होगा। बम्बई के पते से उसने बधाई का एक तार भेज दिया और सुधा को एयर मेल से उसने एक खत भेजा जिसमें उसने बहुत-सी मिठाइयों का चित्र बना दिया था।

लेकिन वह पसोपेश में पड़ गया। दिल्ली जाए या न जाए। वह अपने अन्तर्मन से सरकारी नौकरी का विरोधी था। उसे तत्कालीन भारतीय सरकार और ब्रिटिश सरकार में ज्यादा अन्तर नहीं लगता था। फिर हर दृष्टिकोण से वह समाजवादियों के अधिक समीप था। और अब वह सुधा से वायदा कर चुका था कि वह काम करेगा। ऊँचा बनेगा। प्रसिद्ध होगा, लेकिन पद स्वीकार कर ऊँचा बनना उसके चरित्र के विरुद्ध था। किन्तु डॉक्टर शुक्ला कोशिश कर कर रहे थे। चन्दर केन्द्रीय सरकार के किसी ऊँचे पद पर आए, यह उनका सपना था। चन्दर को कॉलेज की स्वच्छन्द और ढीली नौकरी पसन्द थी। अन्त में उसने यह सोचा कि पहले नौकरी स्वीकार कर लेगा। बाद में फिर कॉलेज चला आएगा-एक दिन रात को जब वह बिजली बुझाकर, किताब बन्द कर सीने पर रखकर सितारों को देख रहा था और सोच रहा था कि अब सुधा दिल्ली लौट गयी होगी, अगर दिल्ली रह गया तो बँगले में किसे टिकाया जाएगा...इतने में किसी व्यक्ति ने फाटक खोलकर बँगले में प्रवेश किया। उसे ताज्जुब हुआ कि इतनी रात को कौन आ सकता है, और वह भी साइकिल लेकर! उसने बिजली जला दी। तार वाला था।

साइकिल खड़ी कर, तार वाला लॉन पर चला गया और तार दे दिया। दस्तखत करके उसने लिफाफा फाड़ा। तार डॉक्टर साहब का था। लिखा था कि “अगली ट्रेन से फौरन चले आओ। स्टेशन पर सरकारी कार होगी सलेटी रंग की।” उसके मन ने फौरन कहा, चन्दर, हो गये तुम केन्द्र में!

उसकी आँखों से नींद गायब हो गयी। वह उठा, अगली ट्रेन सुबह तीन बजे जाती थी। ग्यारह बजे थे। अभी चार घंटे थे। उसने एक अटैची में कुछ अच्छे-से-अच्छे सूट रखे, किताबें रखीं, और माली को सहेजकर चल दिया। मोटर को स्टेशन से वापस लाने की दिक्कत होती, ड्राइवर अब था नहीं, अत: नौकर को अटैची देकर पैदल चल दिया। राह में सिनेमा से लौटता हुआ रिक्शा मिल गया।

चन्दर ने सेकेंड क्लास का टिकट लिया और ठाठ से चला। कानपुर में उसने सादी चाय पी और इटावा में रेस्तराँ-बार में जाकर खाना खाया। उसके बगल में मारवाड़ी दम्पति बैठे थे जो सेकेंड क्लास का किराया खर्च करके प्रायश्चितस्वरूप एक आने की पकौड़ी और दो आने की दालमोठ से उदर-पूर्ति कर रहे थे। हाथरस स्टेशन पर एक मजेदार घटना घटी। हाथरस में छोटी और बड़ी लाइनें क्रॉस करती हैं। छोटी लाइन ऊपर पुल पर खड़ी होती है। स्टेशन के पास जब ट्रेन धीमी हुई तो सेठजी सो रहे थे। सेठानी ने बाहर झाँककर देखा और निस्संकोच उनके पृथुल उदर पर कर-प्रहार करके कहा, “हो! देखो रेलगाड़ी के सिर पर रेलगाड़ी!” सेठ एकदम चौंककर जागे और उछलकर बोले, “बाप रे बाप! उलट गयी रेलगाड़ी। जल्दी सामान उतार। लुट गये राम! ये तो जंगल है। कहते थे जेवर न ले चल।”

चन्दर खिलखिलाकर हँस पड़ा। सेठजी ने परिस्थिति समझी और चुपचाप बैठ गये। चन्दर करवट बदलकर फिर पढ़ने लगा।

इतने में ऊपर की गाड़ी से उतर कर कोई औरत हाथ में एक गठरी लिये आयी और अन्दर ज्यों ही घुसी कि मारवाड़ी बोला, “बुड्ढी, यह सेकेंड क्लास है।”

“होई! सेकेण्ड-थर्ड तो सब गोविन्द की माया है, बच्चा!”

चन्दर का मुँह दूसरी ओर था, लेकिन उसने सोचा गोविन्दजी की माया का वर्णन और विश्लेषण करते हुए रेल के डब्बों के वर्गीकरण को भी मायाजाल बताना शायद भागवतकार की दिव्यदृष्टि से सम्भव होगा। लेकिन यह भी मारवाड़ी कोई सुधा तो था नहीं कि वैष्णव साहित्य और गोविन्दजी की माया का भक्त होता। जब उसने कहा-गार्ड साहब को बुलाऊँ? तो बुढ़िया गरज उठी-”बस-बस, चल हुआँ से, गार्ड का तोर दमाद लगत है जौन बुलाइहै। मोटका कद्दू!”