चंद्रकांता संतति / खंड 1 / भाग 2 / बयान 15

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आधी रात से ज्यादे जा चुकी है। गयाजी में हर मुहल्ले के चौकीदार ‘जागते रहियो, होशियार रहियो’ कह-कहकर इधर से उधर घूम रहे हैं।

रात अंधेरी है, चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ है। यहां का मुख्य स्थान विष्णु-पादुका है, उसके चारों तरफ की आबादी बहुत घनी है मगर इस समय हम गुंजान आबादी में न जाकर उस मुख्तसर आबादी की तरफ चलते हैं जो शहर के उत्तर में रामशिला पहाड़ी के नीचे आबाद है और जहां के कुल मकान कच्चे और खपड़े की छावनी के हैं। इसी आबादी में से दो आदमी स्याह कम्बल ओढ़े बाहर निकले और फलगू नदी की तरफ रवाना हुए।

रामशिला पहाड़ी से पूरब फलगू नदी के बीचोंबीच में एक बड़ा भयानक ऊंचा टीला है। उस टीले पर किसी महात्मा की समाधि है और उसी जगह पत्थर की मजबूत बनी हुई कुटी में एक साधु भी रहते हैं। उस समाधि और कुटी के चारों तरफ बेर, मकोइचे, घो इत्यादि जंगली पेड़ों से बड़ा ही गुंजान हो रहा है और वहां जमीन पर पड़ी हुई हड्डियों की यह कैफियत है कि बिना उन पर पैर रखे कोई आदमी समाधि या उस कुटी तक जा ही नहीं सकता। छोटी-बड़ी, साबुत और टूटी सैकड़ों तरह की खोपड़ियां इधर से उधर लुढ़क रही हैं। न मालूम कब और क्योंकर इतनी हड्डियां चारों तरफ जमा हो गईं। इस आबादी से निकले हुए दोनों आदमी इसी टीले की तरफ जा रहे हैं।

कोई साधारण आदमी ऐसी अंधेरी रात में उस टीले की तरफ जाने का साहस कभी नहीं कर सकता, मगर ये दोनों बिना किसी तरह की रोशनी साथ लिए अंधेरे में ही हड्डियों पर पैर रखते और कंटीली झाड़ियों में घुसते चले जा रहे हैं। आखिर ये दोनों कुटी के पास जा पहुंचे और दरवाजे पर खड़े होकर एक ने ताली बजाई।

भीतर से - कौन है?

एक : किवाड़ खोलो।

भीतर से - क्यों किवाड़ खोलें?

एक - काम है।

भीतर से - तुम लोग हमें व्यर्थ तंग करते हो।

साधु ने उठकर किवाड़ खोला और वे दोनों अंदर जाकर एक तरफ बैठ गये। भीतर धूनी के जलने से कुटी अच्छी तरह गर्म हो रही थी इसलिए उन दोनों ने कंबल उतारकर रख दिया। अब मालूम हुआ कि ये दोनों औरतें हैं और साथ ही इसके यह भी देखने में आया कि एक औरत की दाहिनी कलाई कटी है जिस पर वह कपड़ा लपेटे हुए है। एक औरत तो चुपचाप बैठी रही मगर बाबाजी से वह दूसरी औरत जिसकी कलाई कटी हुई थी यों बातचीत करने लगी -

औरत - कहिये आपने कुछ सोचा?

बाबाजी - जो काम मेरे किए हो ही नहीं सकता उसके लिए मैं क्या सोचूं।

औरत - बेशक आपके किए वह काम हो सकता है, क्योंकि वह आपको गुरु के समान मानती है।

साधु - गुरु के समान मानती है तो क्या मेरे कहने से वह अपनी जान दे देगी तुम लोग भी क्या अंधेर करती हो!

औरत - इसमें जान देने की क्या जरूरत है!

साधु - तो तुम क्या चाहती हो?

औरत - बस इतना ही कि वह उस मकान को छोड़ दे।

साधु - उस बेचारी ने किसी को दुख तो दिया नहीं, फिर उसके पीछे क्यों पड़ी हो

औरत - क्या उसने मुझे और मेरे आदमियों को धोखा नहीं दिया?

साधु - तुम अपना राज्य दूसरे को देकर आप भाग गईं अब तो वही मालिक है, इसलिए वे लोग उसी के नौकर गिने जायेंगे।

औरत - मैं अपना राज्य फिर अपने कब्जे में किया चाहती हूं।

साधु - जो तुमसे हो सके करो पर मैं किसी तरह की मदद नहीं दे सकता। तुम लड़कपन से मुझे जानती हो, तुम्हारे पिता तुमको गोद में लेकर यहां आया करते थे, कभी मैं किसी के भले-बुरे का साथी नहीं हुआ।

औरत - जो हो मगर आपको वह काम करना ही पड़ेगा जो मैं कहती हूं और याद रखिये कि अगर आप इनकार करेंगे तो इसका नतीजा अच्छा न होगा, मैं साधु और महात्मा समझकर छोड़ न दूंगी।

साधु - (कुछ देर सोचने के बाद) अच्छा आज भर तुम मुझे और मोहलत दो, कल इसी समय यहां आना।

औरत - खैर एक दिन और सही।

ये दोनों औरतें वहां से उठकर रवाना हुईं। न मालूम कब से एक आदमी कुटी के पीछे छिपा हुआ था जो इस समय नजर बचाकर उन दोनों के पीछे-पीछे तब तक चलता ही गया जब तक वे दोनों आबादी में पहुंचकर अपने मकान के अंदर न घुस गईं। जब उन दोनों औरतों ने मकान के अंदर जाकर दरवाजा बंद कर लिया जो खुला छोड़ गई थीं, तब वह आदमी वहां से लौटा और फिर उसी कुटी में पहुंचा जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। कुटी का दरवाजा खुला हुआ था और साधु बेचारे उसी तरह बैठे कुछ सोच रहे थे। वह आदमी कुटी के अंदर बेधड़क चला गया और दंडवत करके एक किनारे बैठ गया।

साधु - कहिए देवीसिंहजी, आप आ गए?

देवी - (हाथ जोड़कर) जी महाराज, मैं तभी से यहां हूं जब वे दोनों यहां आई भी न थीं, अब उन दोनों को उनके घर पहुंचाकर लौटा आ रहा हूं।

साधु - हां!

देवी - जी हां, आपने बड़ी कृपा की जो उसका हाल मुझे बता दिया, कई दिनों से हम हैरान हो रहे थे। क्या कहूं आपकी आज्ञा न हुई, नहीं तो मैं इसी जगह से उन दोनों को अपने कब्जे में कर लेता।

साधु - नहीं भैया, ऐसा करने से यह हमारे गुरु की कुटिया बदनाम होती, अब तुमने उसका घर देख ही लिया है सब काम बना लोगे। वीरेंद्रसिंह बड़े प्रतापी और धर्मात्मा राजा हैं, ऐसे को कभी कोई सता नहीं सकता। देखा, इस दुष्टा माधवी ने अपने चाल-चलन को कैसा खराब किया और प्रजा को कितना दुख दिया, आखिर उसी की सजा भोग रही है! अच्छा अब ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें। वीरेंद्रसिंह से मेरा आशीर्वाद कहना। अहा, कैसा भक्त धर्मात्मा और नीति पर चलने वाला राजा है!

देवी - अच्छा तो मुझे आज्ञा है न!

साधु - हां जाओ, मगर देखो मैं तुम्हें पहले भी कह चुका हूं और अब भी कहता हूं कि माधवी को जान से मत मारना और बेचारी कामिनी पर दया करना। मैं उसे अपनी पुत्री ही मानता हूं। वीरेंद्रसिंह से कह देना कि वे कामिनी को अपनी लड़की समझें और आनंदसिंह के साथ उसका संबंध करने में कुछ सोच-विचार न करें, क्या हुआ अगर उसका बाप आपके सामने खड़ा होने लायक नहीं है।

देवी - (हाथ जोड़कर) बहुत अच्छा कह दूंगा, राजा वीरेंद्रसिंह कदापि आपकी आज्ञा न टालेंगे मगर फिर एक दफे मैं आपकी सेवा में आऊंगा।

साधु - नहीं अब मुझसे मुलाकात न होगी, मैं आज ही इस कुटी को छोड़ दूंगा। हां, ईश्वर चाहेगा तो मैं एक दिन स्वयं तुम लोगों से मिलूंगा ।

देवी - जैसी आज्ञा।

साधु - हां, बस अब जाओ, यहां मत अटको।

पाठक सोचते होंगे कि देवीसिंह तो वीरेंद्रसिंह के साथ चुनार चले गये थे, यहां कैसे आ पहुंचे! मगर नहीं, लोगों के जानने में वीरेंद्रसिंह, देवीसिंह को अपने साथ ले गये थे परंतु वास्तव में ऐसा न था। राजा वीरेंद्रसिंह की गुप्त नीति साधारण नहीं।