चंद्रकांता संतति / खंड 1 / भाग 2 / बयान 2

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किशोरी खुशी-खुशी रथ पर सवार हुई और रथ तेजी से जाने लगा। वह कमला भी उसके साथ थी, इंद्रजीतसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कहकर उसका दिल बहलाती जाती थी। किशोरी भी बड़े प्रेम से उन बातों को सुनने में लीन हो रही थी। कभी सोचती कि जब इंद्रजीतसिंह के सामने जाऊंगी तो किस तरह खड़ी होऊंगी, क्या कहूंगी अगर वे पूछ बैठेंगे कि तुम्हें किसने बुलाया तो क्या जवाब दूंगी? नहीं-नहीं, वे ऐसा कभी न पूछेंगे क्योंकि मुझ पर प्रेम रखते हैं। मगर उनके घर की औरतें मुझे देखकर अपने दिल में क्या कहेंगी। वे जरूर समझेंगी कि किशोरी बड़ी बेहया औरत है। इसे अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा का कुछ भी ध्यान नहीं है। हाय, उस समय तो मेरी बड़ी ही दुर्गति होगी, जिंदगी जंजाल हो जायगी, किसी को मुंह न दिखा सकूंगी!

ऐसी ही बातों को सोचती, कभी खुशी होती कभी इस तरह बेसमझे-बूझे चल पड़ने पर अफसोस करती थी। कृष्ण पक्ष की सप्तमी थी, अंधेरे ही में रथ के बैल बराबर दौड़े जा रहे थे। चारों तरफ से घेरकर चलने वाले सवारों के घोड़ों की टापों की बढ़ती हुई आवाज दूर-दूर तक फेल रही थी। किशोरी ने पूछा, “क्या कमला, क्या लौंडियां भी घोड़ों ही पर सवार होकर साथ-साथ चल रही हैं’ जिसके जवाब में कमला सिर्फ “जी हां,” कहकर चुप हो रही।

अब रास्ता खराब और पथरीला आने लगा, पहियों के नीचे पत्थर के छोटे-छोटे ढोकों के पड़ने से रथ उछलने लगा, जिसकी धमक से किशोरी के नाजुक बदन में दर्द पैदा हुआ।

किशोरी - ओफओह, अब तो बड़ी तकलीफ होने लगी।

कमला - थोड़ी दूर तक रास्ता खराब है, आगे हम अच्छी सड़क पर जा पहुंचेंगे।

किशोरी - मालूम होता है हम लोग सीधी और साफ सड़क छोड़ किसी दूसरी ही तरफ से जा रहे हैं।

कमला - जी नहीं।

किशोरी - नहीं क्या जरूर ऐसा ही है।

कमला - अगर ऐसा भी हो तो क्या बुरा हुआ हम लोगों की खोज में जो निकलें वे पा तो न सकेंगे।

किशोरी - (कुछ सोचकर) खैर जो किया अच्छा किया, मगर रथ का पर्दा तो उठा जरा हवा लगे और इधर-उधर की कैफियत देखने में आवे, रात का तो समय है।

लाचार होकर कमला ने रथ का पर्दा उठा दिया और किशोरी ताज्जुब भरी निगाहों से दोनों तरफ देखने लगी।

अब तक तो रात अंधेरी थी, मगर अब विधाता ने किशोरी को यह बताने के लिए कि देख तू किस बला में फंसी हुई है, तेरे रथ को चारों तरफ से घेरकर चलने वाले सवार कौन हैं, तू किस राह से जा रही है, यह पहाड़ी जंगल कैसा भयानक है-आसमान पर माहताबी जलाई। चंद्रमा निकल आया और धीरे-धीरे ऊंचा होने लगा जिसकी रोशनी में किशोरी ने कुल सामान देख लिए और एकदम चौंक उठी। चारों तरफ की भयानक पहाड़ी और जंगल ने उसका कलेजा दहला दिया। उसने उन सवारों की तरफ अच्छी तरह देखा जो रथ घेरे हुए साथ-साथ जा रहे थे। वह बखूबी समझ गई कि इन सवारों में, जैसा कि कहा गया था, कोई भी औरत नहीं सब मर्द हैं। उसे निश्चय हो गया कि वह आफत में फंस गई है और घबराहट में नीचे लिखे कई शब्द उसकी जुबान से निकल पड़े -

“चुनार तो पूरब है, मैं दक्खिन तरफ क्यों जा रही हूं इन सवारों में तो एक भी लौंडी नजर नहीं आती। बेशक मुझे धोखा दिया गया। मैं निश्चय कह सकती हूं कि मेरी प्यारी कमला कोई दूसरी ही है, अफसोस!”

रथ में बैठी हुई कमला किशोरी के मुंह से इन बातों को सुनकर होशियार हो गयी और झट रथ से नीचे कूद पड़ी, साथ ही रथवान ने भी बैलों को रोका और सवारों ने बहुत पास आकर रथ को घेर लिया।

कमला ने चिल्लाकर कुछ कहा जिसे किशोरी बिल्कुल न समझ सकी, हां एक सवार घोड़े से नीचे उतर पड़ा और कमला उसी घोड़े पर सवार हो तेजी के साथ पीछे की तरफ लौट गई।

अब किशोरी को अपने धोखा खाने और आफत में फंस जाने का पूरा विश्वास हो गया और वह एकदम चिल्लाकर बेहोश हो गई।