जब हो विधवा पेंशन, तो काहे का टेंशन / सुरेश कुमार मिश्रा

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पोता अपनी दादी के पास बैठकर कहता है–'दादी! कल ऑनलाइन क्लास में मुझे भाषण देना है। विषय है-' भारत की महान महिलाएँ'।' अरे वाह! मेरा पोता भाषण देगा। यह तो बहुत अच्छी बात है। छुटपन में तुतलाने वाला मेरा पोता देखो तो कितना बड़ा हो गया। भगवान करे तुझे किसी की नज़र न लगे। तू तो... 'दादी की बात बीच में ही काटते हुए पोता बोला–सुनो तो... वरना मैं भाषण भूल जाऊँगा। अब आप बीच में मुझे टोकिए मत। भाषण इस तरह है-हमारे देश में कोई ज़हर पीकर मीरा बन जाती है, तो कोई पत्थर बनकर अहिल्या। कोई अग्निपरीक्षा देकर पंचकन्या सीता, तो कोई हँसते-हँसते चिता पर लेटकर सती...'

दादी पोते की बातें सुन अपनी ही धुन में खो गई। उसे दो दिन बाद गाँव जो जाना है! हर महीने की चौबीस-पच्चीस तारीख के एक-दिन आगे पीछे वह अपने गाँव लौट आती है। खासकर इन तारीखों में गाँव जाने का एक गूढ़ रहस्य है। गाँव के लोग यह न समझे कि कहीं वह मर गई है। नहीं तो पेंशन आना बंद हो जाएगा। या फिर किसी चुगलखोर ने कहीं किसी अधिकारी से शिकायत कर दी तो पेंशन रुक जाएगा। फिर पेंशन पाने के लिए ऑफिस के कितने चक्कर लगाने पड़ते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। हर महीने की एक तारीख से तीन तारीख के भीतर पेंशन मिल जाता है। पेंशन मिलते ही अपने इकलौते बेटे के संग शहर आ जाती है।

जब तक दादी का पति ज़िंदा थो तो उसे किसी बात की कमी नहीं थी। बेटे-बहू का व्यवहार रूखा होने के कारण पति ने पहले ही उन्हें घर से अलग कर दिया था। वे दादी का पूरा ख़्याल रखते थे। दुर्भाग्यवश पति चल बसा। दादी पर तो मानो बिजली टूट पड़ी। उसके पास बेटे और बहू के पास रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। बहू और सास में छत्तीस का आंकड़ा था। छोटी-छोटी बातों पर बहू पहाड़ सिर पर उठा लेती थी। तिल का पहाड़ बना देती थी। सास चाहकर भी बेटे से बहू की शिकायत नहीं कर पाती थी। उसे लगता बेटा थका-हारा घर लौटकर आए तो उसे क्यों परेशान करूँ। सास घर का सारा काम करती थी। लेकिन बहू कभी पोते को हाथ लगाने नहीं देती थी। कहती–'दादी ठीक से नहीं नहाती है। उनके पास से बास आती है। उनसे दूर ही रहा करो।'

दादी की पीड़ा शब्दों में बयान कर पाना कठिन है। वह तो पेंशन है जो किसी मरने वाले के लिए वेंटिलेटर का काम कर रहा है। वरना आज के ज़माने में कोई कितना भी सगा-सम्बंधी क्यों न हो, कौन रखता है भाई? आदमी का बूढ़ा होना, ऊपर से विधवा होना और पेंशन न मिलना आज के समय का सबसे बड़ा अभिशाप है। जब अपने ही घर में खाने-पीने, उठने-बैठने, सुनने-बोलने, देखने-करने पर पाबंदी हो तो जीवन जीते जी नरक बन जाता है। कहने को तो घर में सभी लोग होते हैं, लेकिन कोई पास आकर बतियाता नहीं है। ऐसी अवस्था में जो सबसे बड़ी बीमारी पैदा होती है वह कैंसर, टी.बी., निमोनिया से भी घातक होती है। वह बीमारी है-अकेलापन! जी हाँ अकेलापन! यूँ तो किसी से दो पल बैठकर हँसना-बोलना दिल को अच्छा लगता है, उबाऊ व नीरसता दूर ही करता है, परंतु जब किसी कारणवश अनायास ही सामने वाले से मनमुटाव हो जाता है तो सिवाय तनाव-परेशानी के कुछ भी हासिल नहीं होता, बेवजह मन को दुःख-तकलीफ ही पहुँचती है। यही हुआ दादी के साथ। वह हर दिन हर पल इन्हीं खयालों में डूबी रहती।

पोते को लगा दादी उसका भाषण नहीं सुन रही है। उसने ज़ोर से कहा-लगता है आपने मेरा भाषण नहीं सुना। अबकी बार इधर-उधर मत खो जाना। लो फिर से सुनाता हूँ-हमारे देश में कोई ज़हर पीकर मीरा बन जाती है, तो कोई पत्थर बनकर अहिल्या। कोई अग्निपरीक्षा देकर पंचकन्या सीता, तो कोई हँसते-हँसते चिता पर लेटकर सती...'।