जीवन -व्यथा को बाँचते मंजूषा मन के हाइकु और ताँका / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाइकु-काव्य विश्वकोश (विश्वभर में प्रथम) लेखक, सम्पादक विद्यावाचस्पति डॉ भगवतशरण अग्रवाल ने कहा है-'सृष्टि के रचयिता की श्रेष्ठतम, महानतम साथ ही जटिलतम कृति मनुष्य है। मनुष्य के कोमलतम, मधुरतम, प्राणवान स्वप्नि क्षणों की अभिव्यक्ति कला है। कला की सफल, सशक्त, जीवनोन्मुखी, दीर्घकालीन प्रभावशाली, मूर्त्त अभिव्यक्ति साहित्य है। साहित्य में निहित सत्यं, शिवं, सुन्दरं की संगीतात्मक अभिव्यक्ति कविता है और कविता के सार्थक सार तत्त्व का सफलतम सांकेतिक रेखांकन हाइकु है।' (पृष्ठ-112, हाइकु भारती अंक12) इससे आगे जब विषय की बात आती है तो डॉ अग्रवाल (पृष्ठ-109) पर बाशो के कथन की पुष्टि ही करते हैं-'जीवन और जगत् के सभी विषयों पर हाइकु लिखे जा सकते हैं।' मेरा भी मत यही है कि हाइकु जब काव्य-विधा है, तो उसका काव्य होना ही अन्तिम लक्ष्य है। हाइकु में वर्णों की सीमा होती है, अत: बिना उस सीमा का अतिक्रमण किए, नपी–तुली भाषा में चित्रण होना चाहिए. जब काव्य का आधार पूरी सृष्टि बन सकती है, तब हाइकु में क्यों नहीं। कविता का अपना देशकाल होता है। वह उससे अलग कैसे हो सकती है। जगत् का सुख-दु: ख हर्ष-उल्लास, आँसू-मुस्कान सभी हाइकु की सीमा में आते हैं। जीवन की व्याकुलता, विवशता, जय-पराजय, भोर-चाँदनी, पर्वत-घाटी सभी तो हाइकु में आ सकते हैं।

मंजूषा मन के हाइकु-ताँका संग्रह की पाण्डुलिपि 'मैं सागर–सी' को अवलोकन करने का सुयोग मिला। अधिकतम हाइकु ऐसे हैं, जो मंजूषा 'मन' के हृदय से नि: सृत सहज अभिव्यक्ति हैं। उनके सामने पूरा संसार है, पूरा अपने मन का आकाश है, जो बहुत व्यापक है। उनके शब्द अचानक मुखर हो उठते हैं-

• यह जीवन / किस तरह बाँचूँ? / कोरा काग़ज़!

• कोरी किस्मत / मिटी है लिखावट / न बाँच सकूँ।

इस काग़ज़ पर कुछ लिखा ही नहीं गया। क़िस्मत ही कोरी हो, तो क्या पढ़ा जाए! इस कागज़ पर तो कुछ लिखा गया होता, तभी तो बाँचा जाता। जीवन की, आपाधापी, स्वार्थपरता हमारी संवेदनाओं को अंकुरित होने से पहले ही कुचल देती है। सब कुछ पाने की होड़ में मानवीयता को ही भूल जाते हैं। अपनापन कहीं बीहड़ में खो जाता है, प्रेम का स्रोत किसी मरुस्थल में जाकर विलीन हो जाता है, अन्धड़ के कारण राहें गुम हो जाती हैं, सपनों के सारे महल अधूरे ही रह जाते हैं या भूमिसात् हो जाते हैं। ऐसे सपनों की गठरी को फेंक देना ही बेहतर समझा-

• व्यस्त जीवन / कुछ समय तो दे / मन की कहूँ।

• आया तूफान / डह गए महल / रोया ये मन।

• रेगिस्तान में / मन राह ढूँढता / जाए किधर।

• भरे अँजुरी / स्वप्न अपूर्ण सब / ताकूँ आकाश।

• फेंक आए हैं / सपनों की गठरी / बोझ बड़ा था।

मंजूषा जी के हाइकु में मन को भिगो देने वाली करुणा है, जो जीवन के गीत अनलिखे थे, वे लिखे भी गए, तो सिर्फ़ आँसुओं की स्याही से। यह स्याही भी ऐसी है कि न सूखती है, न कम पड़ती है। आँसू जब थमे ही नहीं, तो क्या बाँचें और कैसे बाँचे! यादों की पूरी पुस्तक है, जो न किसी को दिखाई जा सकती है, न पढ़वाई जा सकती है। उसको छुपाना पड़ रहा है, क्योंकि दु: ख बाँटनेवाला कोई नहीं है।

• आँसू से लिखे / सुनते तो आकर / ये गीत मेरे।

• जीवन गाथा / लिखी आँसू की स्याही / न बाँची जाए.

• जीवन वृत्त / स्मृति पुस्तक लिख / छुपाए फिरूँ।

व्यथा से आहत व्यक्ति सपनो में कुछ देर को राहता पा लेता है। वही सपने पहाड़ के तले दब जाएँ, तो साकार कैसे हो सकते हैं? कागज़ की नाव से कभी समन्दर पार नहीं किए जाते। फूल नहीं मिले, तो न सही; काँटों के साथ ही निर्वाह कर लिया है। उसे जीवन में अब कुछ नहीं चाहिए. आँसू पोंछने को रूमाल नहीं, दो प्यार–भरे बोल चाहिए. कवयित्री ने इन हाइकु में मनोव्यथा को गहनता से उकेर दिया है-

• पहाड़-तले / दबे रहे सपने / उग न पाए.

• कागज़–नाव / उतरी समन्दर / डूबी पल में।

• फूलों की चाह / किया है हमने / काँटों निबाह।

• रुमाल नहीं / दो मीठे बोल चाहें / भीगी पलकें।

• जी भर रोए / दर्द गले लगाए / चैन से सोए.

जब मनमीत न मिले तो सारी सीमाएँ संकुचित हो जाती हैं, वह घर की चारदीवारी हो या पिंजरा। परिन्दे का जीवन उसी में घिरकर रह जाता है। कारण, समय इतना क्रूर होता है कि वह जीवन की कलाई मरोड़कर सारी शक्ति छीन लेता है-

• मेरी सीमाएँ / चारदीवारी तक / खत्म हो जाएँ।

• मन परिंदा / पिंजरे भीतर भी / रह ले ज़िंदा।

• मरोड़ गया / ज़िन्दगी की कलाई / लाज न आई.

जीवन में एक मधुर-सी लालसा बनी रह जाती है। आँगन-तरुवर के प्रतीक के माध्यम से एक चाह चित्रित की गई है। इसे प्रकृति के रूप में भी अर्थ दिया जा सकता है। प्रदूषण का प्रभाव धरती की पुकार के रूप में अभिव्यक्त ही नहीं होता, बल्कि चिन्तातुर भी करता है। यही नहीं, सीमेण्ट की दुनिया रचने में माटी ही खो गई; यानी हम अपनी जड़ों से ही दूर हो गए.

• आतीं चिड़िया / आँगन तरुवर / होता जो एक।

प्रदूषण की मार से धरती की आर्त्त वाणी चेता रही है–

• ज़मीं पुकारे- / दम घुटता मेरा / साँझ सकारे।

• रच बैठे हैं / सीमेंट की दुनिया / माटी खो गई.

कथ्य की गम्भीरता के साथ 'मन' जी ने शिल्प में खुशियों के लिए रेज़गारी जैसे नए उपमान को भी सँजोया है।

रेज़गारी सी- / छोटी-छोटी खुशियाँ / मुट्ठी भर लीं।

कहीं गहरा व्यंग्य भी है, तो कहीं भूखे की कारुणिक दशा हृदय को द्रवित कर देती है। अकुलाए उदार का लाक्षणिक प्रयोग कवयित्री की भाषिक क्षमता को प्रमाणित करती है-

• हे विषधर! / अब डसना छोड़ो / इंसान डसे।

• फिरे गलियों / अकुलाए उदर / हाथ कटोरा।

प्यार का माधुर्य जीवान में बहुत दुर्लभ है, फिर भी एक दिन तो अच्छा आएगा ही, इसकी आशा तो रहती ही है; जब वह प्रेम मिल जाता है, तो हर्षित होना स्वाभाविक है; कभी हवा का झोंका किसी के आने का भ्रम पैदा करने के लिए दस्तक देकर चला जाता है। सबका सार यह मन ही है, जिसकी साँकल खुले तो सुख के पल आ जाएँ। झील में खिले चाँद–सा निर्मल प्यार मिल जाए-

• यादें महकीं / संग लाई बयार / गंध तुम्हारी।

• पाकर प्रेम / हरषाई फिरूँ ज्यों / हरसिंगार।

• मन साँकल / खोलो तुम आकर / सुख के पल।

• दस्तक यह / देती हवा शायद / आया न कोई.

इस हाइकु में प्रेम के अमूर्त्त रूप को मूर्त्त कर दिया है-

• झील में चाँद / ज्यों लगे बड़ा प्यारा / प्रेम तुम्हारा।

मंजूषा 'मन' के हाइकु अतृप्त प्रेम की व्यथा, जीवन के संघर्षों का दर्पण है। अच्छे हाइकु की एक शृंखला है, किसका उल्लेख करूँ, किसे छोड़ूँ? भूमिका की सीमा जो है।

कुछ ताँका की रचना भी की है। जीवन की चाह का सपना है, कहीं अपने निर्मल प्रेम को समझ न पाने की पीड़ा है-

आँखों को मेरी / एक तो स्वप्न दे दो / पूरा जीवन / जीलूँ इस चाह में / सच हो ये सपना।

कानों में मिश्री / घोलते तेरे बोल / मन के भाव / टटोलते नयन / पर न पढ़ा प्रेम।

जैसे प्रिय खो गया, उसी तरह प्रेम की पाती भी खो गई-

प्रेम की पाती / सौंपी थी हवाओं को / पहुँची नहीं / गुम हुई राहों में / जैसे तुम खोए हो।

आशा की तनिक–सी झलक पल भर को दिखाई देती है, जो न जाने कब दु: ख की बदरिया बन जाती है। कुल मिलाकर यह संग्रह आँसू–भरी चिट्ठी है, जो सहृदय पाठक को द्रवित किए बिना नहीं रहती।

3 अक्तुबर-2016