ज्ञान और व्यवहार के स्तर पर कंगाल: सामजिक विघटन के कुपात्र / संतलाल करुण

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सीता-परित्याग की घटना बड़ी विवादित है। विद्वानों का एक दूसरा वर्ग रामकथा में इसे प्रक्षिप्त मानता है। इस विवाद पर एक बहस-प्रधान भूमिका के साथ प्रसिद्ध कवि एवं एकांकीकार डॉ रामकुमार वर्मा का लघुकायी महाकाव्य “उत्तरायण ” देखा जा सकता है। वैसे सीता-निर्वासन को प्रक्षिप्त मान लेने से भी समस्या का समाधान नहीं हो जाता। राम-कथा में ऐसे अनेक प्रसंग और काव्योक्तियाँ हैं, जिन पर आधुनिक दृष्टि प्रश्नचिह्न खड़ा करती रही है। पर हम यह क्यों नहीं मान लेते कि आर्ष कवि वाल्मीकि या भक्त कवि तुलसी के युग दूसरे युग थे। उदाहरण के लिए शूद्रों और नारियों की बात को ही ले लें — पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में जब “रामचरितमानस” की रचना हुई होगी, तब इन दोनों की स्थिति कैसी रही होगी। कथित निम्न जातियों के लोग आज पढ़-लिख कर ऊँचे-ऊँचे पदों पर कार्य कर रहें हैं और यही हाल नारियों का भी है। किन्तु तब जब इन्हें हेय समझा जाता था, ये अज्ञान, अशौच, अभद्रता आदि के शिकार रहे ही होंगे। आखिर शिक्षा ही तो पशु तुल्य मनुष्य को मनुष्येतर बनाती रही है। नारियाँ जो आज मासिक के दिनों में “केयरफ्री”-जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल करती हैं, तब की सुविधाएँ उन्हें दैनिक रूप से उतना सुयोग्य नहीं बनाती होंगी। कथित निम्न जातियों के लोग भी अशिक्षा, रोग, मलिनता, भूख, गरीबी आदि से ग्रस्त रहते होंगे। ऐसे में यह क्यों नहीं सोचा जाता कि तुलसी और उनके जैसे सुचेताओं की विरोधी उक्तियों से ऐसे वर्गों की तंद्रा कुछ इस प्रकार भंग हुई कि आधुनिक युग में अब वे तेजी से उन्नति के मार्ग पर बढ़ रहें हैं। ऐसी व्यंग्योक्तियों ने सचेतक के रूप में भी बड़ा काम किया है।

हाँ, शिक्षित, सुसभ्य, संस्कारवान, सुयोग्य होने के उपरान्त यदि आज सिर्फ नीचा दिखाने के लिए “ढोल गँवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।”, “पूजिअ विप्र सकल गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।।”- जैसी उक्तियों का कोई कंठहार के रूप में बार-बार इस्तेमाल करता है, तो सर्वथा अनुचित है। जातीय दंभ या पुरुष-अहंकार में जैसा कि छिछली मनासिसता के लोग प्राय: ऐसी काव्योक्तियों का गलत प्रयोग करते हुए मनोविकार प्रकट करतें हैं, तो निश्चित ही उन्हें सामजिक विघटन का कुपात्र समझना चाहिए। ऐसे लोग गंभीर ज्ञान रखते नहीं, बस इधर-उधर से सुनकर, थोड़ा-बहुत जोड़-जाड़कर गाहे-बेगाहे दुर्भावना, जातीय विद्वेष, नारी-निंदा का वही रटंत दुहराते रहते हैं। आज की दुनिया में उन्हें ज्ञान और व्यवहार के स्तर पर कंगाल तथा दया का पात्र समझकर दरकिनार किया जाना चाहिए।