टॉम काका की कुटिया - 29 / हैरियट वीचर स्टो / हनुमान प्रसाद पोद्दार

Gadya Kosh से
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इस संसार में सच्‍चा वीर कौन है? जिसने अपनी दृढ़ भुजाओं के प्रताप से अनेक राजाओं का गर्व चूर किया है, सहस्रों नर-नारियों पर आधिपत्‍य जमाया है, क्‍या वह सच्‍चा वीर है? जिसके बल से निर्बल सदा थरथराते, काँपते रहते हैं, जिसकी निर्दयता को स्‍मरणकर रोमांच हो आता है, क्‍या वह सच्‍चा वीर है? नहीं, कभी नहीं! वीर वह है, जो मौत से जरा भी नहीं डरता, सदा सुख-शांति से मरने को तैयार रहता है। वीर वह है, जो संसार की भलाई के निमित्त, जन-साधारण के हितार्थ, अपने जीवन का बलिदान करने में जरा भी संकोच नहीं करता। सच्‍चा वीर तो वही है, जो कभी किसी को सताता नहीं, और जगत में प्रेम का प्रवाह बहाकर मनुष्‍यों के अदम्‍य हृदयों को अपने वश में कर सकता है।

इस छोटी नन्‍हीं बालिका को देखिए। यह अपने रोग की यंत्रणा से अत्‍यंत पीड़ित है, पर इसे अपना दु:ख नहीं है। दूसरों का दु:ख देखकर आँसू बहा रही है; दूसरों के दु:ख के ध्‍यान में अपनी पीड़ा भूल गई है। क्‍या इसके जीवन में सच्‍ची वीरता के लक्षण नहीं दिखाई देते?

तीसरे पहर का समय है। इवा अपनी चारपाई पर पड़ी हुई है। सामने उसकी छोटी बाइबिल रखी है। उसे कभी खोलती है, कभी बंद करती है, कभी थोड़ी देर तक पढ़ती है। इसी समय एकाएक उसे बरामदे से अपनी माता की कर्कश आवाज सुनाई देती है:

"क्‍यों री लड़की, यहाँ खड़ी क्‍या उत्‍पात मचा रही है? बता, तूने फूल क्‍यों तोड़े?" इसी के बाद इवा को एक जोर के तमाचे की आवाज सुनाई दी। फिर उसने टप्‍सी को बोलते हुए सुना - "मेम साहब, ये सब मिस इवा के लिए..."

बीच में ही उसे रोकती हुई वह बोली - "मिस इवा का नाम लेकर कैसा बहाना बनाती है! तू समझती है, वह तेरे फूल चाहती है। तू किसी काम की नहीं है, हब्शिन भाग, यहाँ से!"

शक्ति के न रहने पर भी क्षण भर में इवा अपनी खाट से उठकर बरामदे में आ पहुँची। बोली - "आह, माँ, उसे मत भगाओ! मुझे फूल बड़े अच्‍छे लगते हैं। ये सब मुझे दे दो। मैं फूल चाहती हूँ।"

मेरी ने कहा - "क्‍यों इवा, तेरा कमरा तो इस समय फूलों से भरा पड़ा है?"

"मुझे और भी चाहिए। टप्‍सी, वे सब फूल यहाँ ले आ।"

टप्‍सी अब तक हाथ से सिर पकड़े खड़ी थी। इवा की बात सुनकर उसने धीरे-धीरे जाकर बड़े संकोच से फूल इवा के हाथ में दिए। उसके चेहरे पर अब पहले का-सा निस्‍संकोच, बेलाग और बेपरवाही का भाव दिखाई नहीं देता था।

इवा ने उन फूलों को देखकर कहा - "बड़ा सुंदर गुलदस्‍ता बनाया है।"

वास्‍तव में टप्‍सी ने बड़े जतन से भाँति-भाँति के फूल और पत्तियाँ चुनकर वह गुलदस्‍ता बनाया था। इवा की बात सुनकर उसका मुख प्रफुल्लित हो उठा।

इवा ने कहा - "टप्‍सी, तू बड़ी अच्‍छी तरह से फूल सजाती है। मेरा एक खाली फूलदान पड़ा है। मैं चाहती हूँ कि तू इसके लिए फूलों का एक गुलदस्‍ता रोज बना दिया करे।"

मेरी ने तुनककर कहा - "बड़ी अनोखी बात है! वह क्‍या गुलदस्‍ता बनाएगी?"

इवा बोली - "माँ, तुम्‍हारा इसमें क्‍या बिगड़ता है? जैसा टप्‍सी का जी चाहेगा, बना लेगी। तुम उसे रोको मत।"

टप्‍सी सिर झुकाकर खड़ी रही। फिर जब वह जाने लगी तो इवा ने देखा, उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं।

इवा ने अपनी माँ से कहा - "माँ, बेचारी टप्‍सी मेरे लिए कुछ करना चाहती है।"

"करना-धरना क्‍या चाहती है, वह खाली उत्‍पात करना चाहती है। वह जानती है कि फूल तोड़ने की मनाही है, इसी से वह तोड़ती है। पर तुम्‍हें यदि उसका फूल तोड़ना अच्‍छा लगता है, तो ठीक है।"

"माँ, मेरी समझ में टप्‍सी में पहले से अब बहुत फर्क है, वह सुधरने की बड़ी कोशिश कर रही है।"

मेरी ने उदासीनता से हँसकर कहा - "अभी उसे सुधरने में बहुत देर लगेगी। कोशिश करने से यदि सुधारा जा सकता है तो अभी उसे बहुत दिनों तक सिर खपाना पड़ेगा।"

इवा बोली - "माँ, तुम जानती हो कि हर एक चीज हमेशा उसके खिलाफ रही है।"

"नहीं, यहाँ आने के बाद तो उसके लिए सब-कुछ अनुकूल है। उसे कितना समझाया गया, कितने सदुपदेश दिए गए। आदमी किसी के लिए जहाँ तक कर सकता है, किया गया, फिर भी वह जैसी थी वैसी ही है, और वैसी ही रहेगी; तुम उसे सुधार नहीं सकती हो।"

इवा बोली - "माँ, हम लोग बड़े स्‍नेह और यत्‍न से पलते हैं। हमारे माता-पिता, भाई-बंधु हम सबको प्‍यार करते हैं, इसी से हमें भले बनने का मौका रहता है; पर उस बेचारी को बचपन से ही कोई प्‍यार करनेवाला नहीं था। फिर वह कैसे सुधरती?"

मेरी ने जम्हाई लेते हुए कहा - "यही होगा। जाने दो। देखो, आज कैसी गर्मी है?"

इवा ने कहा - "माँ, क्‍या तुम्‍हें विश्‍वास नहीं होता कि टप्‍सी भी कभी भली बनकर स्‍वर्गीय प्रकृति प्राप्‍त कर सकती है?"

मेरी हँसकर बोली - "स्‍वर्गीय प्रकृति! तुम्‍हारे सिवा और कोई इस बात पर विश्‍वास नहीं कर सकता।"

"पर माँ, क्‍या ईश्‍वर ने उसे नहीं रचा है? हम लोगों की भाँति टप्‍सी भी क्‍या ईश्‍वर की संतान नहीं है?"

"हाँ, यह हो सकता है। मैं मानती हूँ कि ईश्‍वर ने प्रत्‍येक व्‍यक्ति को बनाया है। अच्‍छा, मेरी सूँघनेवाली शीशी कहाँ है?"

माँ के मुँह से ऐसी बात सुनकर इवा ने अर्ध-स्‍फुट स्‍वर से कहा - "ओफ, कैसे दु:ख की बात है!"

मेरी ने सुन लिया। बोली - "दु:ख की क्‍या बात है?"

"माँ, ये हब्‍शी भी अच्‍छी शिक्षा मिलने से, प्‍यार का व्‍यवहार पाने से स्‍वर्गीय प्रकृति प्राप्‍त कर सकते हैं। पर ये लोग बाल-बच्‍चों सहित नरक की ओर जा रहे हैं। नित्‍य इनका पतन हो रहा है। कोई इनकी सहायता करनेवाला नहीं है।"

"हम लोग इनकी सहायता नहीं कर सकते। इनकी चिंता करके मरना बेकार है। मैं नहीं जानती कि इनके प्रति हमारा क्‍या कर्तव्‍य है? हमें अपने सुख-वैभव के लिए ईश्‍वर का कृतज्ञ होना चाहिए। नाहक औरों की चिंता करना व्‍यर्थ है।"

इवा ने बड़े दु:खी स्‍वर में कहा - "मैं तो अपने सुख से संतुष्‍ट नहीं रह सकती। मुझे इन दीन-दुखियों की दशा देखकर बड़ी पीड़ा होती है।"

मेरी व्‍यंग्‍य से बोली - "तुम्‍हारी यह बड़ी अनोखी पीड़ा है। मेरा विश्‍वास है कि अपने धर्म के अनुसार यही ठीक है कि हम अपने सुख के लिए ईश्‍वर का उपकार मानें।"

जान पड़ता है, मेरी ने ऐंग्‍लो-इंडियन संहिता से क्रिश्चियन धर्म की शिक्षा पाई थी, इसी से उसने बाइबिल की दस आज्ञाओं (टेन कमांडमेंट्स) पर एकदम हरताल फेर दी थी।

इवा ने अपनी माता से कहा - "माँ, मैं अपने सिर के कुछ बाल कटवाना चाहती हूँ।"

मेरी ने पूछा "क्‍यों?"

"मैं अपने प्रेमियों को इनमें से कुछ बाल अपने हाथ से दे जाना चाहती हूँ। क्‍या तुम बुआ को बुलाकर मेरे बाल नहीं कटवा दोगी?"

मेरी ने दूसरे कमरे से मिस अफिलिया को पुकारकर बुलाया।

अफिलिया के आने पर इवा ने अपने घुँघराले बालों को हाथ में लेकर उन्‍हें हिलाते हुए कहा - "बुआ, आओ, भेड़ को मूंड़ दो।"

सेंटक्‍लेयर उसी समय इवा के निमित्त कुछ फल लिए हुए कमरे में आया और बोला - "यह क्‍या हो रहा है?"

इवा ने कहा - "बाबा, मैं बुआ से अपने सिर के बाल कटवा रही हूँ - बहुत बढ़ गए हैं। इससे मेरे सिर में गर्मी बढ़ जाती है। इसके अतिरिक्‍त मैं कुछ बाल बाँट भी जाना चाहती हूँ।"

मिस अफिलिया अपनी कैंची लेकर आई।

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "देखना जीजी, बड़ी होशियारी से बाल काटना, बालों की शोभा मत बिगाड़ देना। नीचे-नीचे के जो दिखाई नहीं पड़ते हैं, सो काट दो। इवा के घुँघराले बालों पर मुझे अभिमान है।"

इवा ने उदासी से कहा - "यह क्‍यों?"

सेंटक्‍लेयर बोला - "हाँ, तुम्‍हारे बाल उस समय सुंदर रहने चाहिए, जब मैं तुम्‍हें अपने साथ लेकर तुम्‍हारे चाचा के खेत पर हेनरिक को देखने चलूँगा।"

इवा ने कहा - "वहाँ मैं कभी नहीं जाऊँगी। बाबा, मैं उससे अच्छे देश को जा रही हूँ। तुम मेरी बात का विश्‍वास करो। बाबा, तुम क्‍या देखते नहीं हो कि मैं दिन-प्रति-दिन थकती जा रही हूँ।"

सेंटक्‍लेयर ने दु:ख-भरे स्‍वर में कहा - "इवा, मुझे दबाकर ऐसी भयंकर बात पर क्‍यों विश्‍वास दिलाना चाहती हो?"

इवा बोली - "केवल इसलिए कि यह बात सत्‍य है, बाबा! यदि तुम इस पर विश्‍वास कर लोगे, तो शायद इसके संबंध में मेरी तरह ही अनुभव करोगे।"

सेंटक्‍लेयर चुप होकर व्‍यथित-हृदय से कटे हुए सुंदर बालों की ओर देखने लगा। बालों का एक-एक गुच्‍छा उठाकर इवा भी उत्‍सुकता से देख रही थी और उन्‍हें अँगुलियों के चारों ओर लपेट रही थी। बीच-बीच में शंकित होकर पिता के मुख की ओर भी देख लेती थी।

मेरी ने कहा - "मुझे जिसका खटका था, अंत में वही हुआ। जिस सोच में दिन-‍दिन मेरा शरीर गिरता जाता है, मेरी उम्र कम होती जाती है, वही हुआ। मेरे दु:ख-दर्द का कोई साथी नहीं है। सेंटक्‍लेयर, बहुत जल्‍दी तुम देखोगे कि मैं ठीक कहती थी।"

सेंटक्‍लेयर ने बड़े तीखे और रूखेपन से कहा - "निस्‍संदेह तुम्‍हें शांति मिलेगी।"

मेरी रूमाल से आँखें ढककर लेट गई।

इवा की नीली चमकीली आँखें एक बार पिता पर और फिर माता पर पड़ने लगीं। यह दृष्टि शांत दृष्टि थी। जीवनमुक्‍त आत्‍मा की गूढ़दर्शी दृष्टि थी। आज उसे अपने पिता और माता की प्रकृति का पूर्ण अनुभव हुआ। उसने हाथ के इशारे से पिता को अपने पास बुलाया। वह आकर उसके पास बैठ गया।

इवा ने कहा - "बाबा, मेरी शक्ति दिन-पर-दिन कम होती जा रही है, और मैं जानती हूँ कि मुझे शीघ्र ही इस संसार को छोड़ना पड़ेगा। कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्‍हें मैं तुमसे कहना चाहती हूँ और कुछ काम ऐसे हैं, जिन्‍हें करना मेरा कर्तव्‍य है। उन्‍हें करने के लिए भी मैं तुमसे प्रार्थना करनेवाली हूँ। तुम इस बात से ऐसे नाराज हो कि मुझे एक शब्‍द भी मुँह से नहीं निकालने देते। पर मेरे जी को ये बातें बहुत खलती हैं। मैं कहे बिना नहीं रह सकती। तुम अब प्रसन्‍नता से मुझे कहने की आज्ञा दो।"

सेंटक्‍लेयर ने एक हाथ से अपनी आँखें पोंछते हुए और दूसरे से इवा का हाथ पकड़ते हुए कहा - "मेरी प्‍यारी बच्‍ची, जो कहना हो, कहो।"

इवा बोली - "अच्‍छा बाबा, यदि तुम मेरी बात मानते हो, तो मैं अपने सब नौकरों को अपने पास इकट्ठा देखना चाहती हूँ। मुझे उनसे कुछ बातें कहनी हैं।"

सेंटक्‍लेयर ने बड़ी सहिष्‍णुता से कहा - "अच्‍छा।"

मिस अफिलिया ने सब दास-दासियों को बुला भेजा। थोड़ी देर में सारे दास-दासी उस कमरे में आकर इकट्ठे हो गए।

इवा तकिए के सहारे लेटी हुई थी। उसके खुले बाल मुँह के चारों ओर बिखरे हुए थे। दोनों आँखों में कुछ ललाई आ जाने से दुर्बल शरीर और भी पीला दिखाई दे रहा था। नेत्रों से मानो आत्‍मा की उज्‍ज्‍वल ज्‍योति निकल रही थी। बालिका एकाग्रता से प्रत्‍येक दास-दासी का मुख देख रही थी।

दास-दासियों का जी सहसा उमड़ पड़ा। वह ममतापूर्ण कांतिमय मुख, पास पड़े कतरे हुए लंबे बाल, सेंटक्‍लेयर का शोक-संतप्‍त मुख, मेरी की आह- ये सब बातें उनके कोमल हृदय में घुस गईं। वे सब घोर विषाद से ठंडी साँस लेने लगे। थोड़ी देर के लिए वहाँ शमशान जैसा सन्‍नाटा छा गया।

इवा ने अपना सिर उठाया और घुमाकर बड़े आग्रह से एक नजर सब पर डाली। सबके मुँह पर उदासीनता और भय की रेखाएँ थी। दासियाँ कपड़ों से मुँह ढाँक-ढाँककर सिसकने लगीं।

इवा ने कहा - "मेरे प्‍यारे भाइयो, मैं तुम्‍हें प्‍यार करती हूँ, इसी लिए मैंने तुम सबको यहाँ बुलवाया है। तुम सबको मैं हृदय से चाहती हूँ। आज मुझे तुम लोगों से कुछ बातें कहनी हैं... मैं चाहती हूँ कि तुम लोग सदा उन्‍हें याद रखो, क्‍योंकि मैं तुम्‍हें छोड़ रही हूँ। अब मैं बहुत ही थोड़े दिनों की मेहमान हूँ।"

इतना कहने के बाद सेवकों-सेविकाओं के सुबकने और सर्द आहें भरने से वह कमरा इस तरह भर गया कि उस बालिका की कमजोर आवाज सुनने की संभावना न रही। वह कुछ देर चुप रही, फिर ऐसे स्थिर कंठ से बोली कि वे सब शांत-मौन हो गए। वह कहने लगी:

"यदि तुम लोगों का मुझपर हार्दिक प्रेम है तो तुम्‍हें मेरे बोलने में विघ्‍न नहीं डालना चाहिए। मेरी बातें ध्‍यान से सुनो। मैं तुमसे तुम्‍हारी आत्‍माओं के संबंध में कुछ कहना चाहती हूँ। मुझे दु:ख है कि तुममें से बहुतेरे बड़े लापरवाह हैं। तुम लोग केवल इस जगत् की बातें सोचते रहते हो। मैं चाहती हूँ कि तुम लोग इस बात को भी ध्‍यान में रखो कि इस जगत् के अलावा एक और सुंदर जगत् है, जहाँ ईसा रहते हैं। मैं वहाँ जाती हूँ, तुम्‍हें भी वहाँ जाने का अधिकार है। पर यदि तुम वहाँ जाना चाहते हो तो तुम्‍हें अपना आज के जैसा व्‍यर्थ निरुद्देश्‍य और आदर्शहीन जीवन नहीं बिताना चाहिए। तुम्‍हें अपने जीवन में अब कुछ सुधार करना चाहिए। तुम्‍हें याद रखना चाहिए कि तुममें से प्रत्‍येक व्‍यक्ति दिव्‍य जीवन का सुख प्राप्‍त कर सकता है। तुम भले बनने की कोशिश करोगे तो ईश्‍वर तुम्‍हारी सहायता करेंगे। ईश्‍वर सदा भले कामों का सहायक होता है। तुम्‍हें ईश्‍वर की प्रार्थना करनी चाहिए और तुम्‍हें पढ़ना चाहिए।"

इतना कहने के बाद बालिका कुछ देर को रुकी। वह उन्‍हें करुण दृष्टि से देखती रही। फिर दु:खित हृदय से बोली - "हाय प्‍यारे भाइयों, कितने दु:ख की बात है कि तुम पढ़ना नहीं जानते! और इससे तुम्‍हें कितना दु:ख है!"

उसका गला भर आया, उसने तकिए में मुँह छिपा लिया और सिसकने लगी। जिन्‍हें सुनाकर इवा ये बातें कह रही थी, वे उसे चारों ओर से घेरे खड़े थे। उसको बिलखते देखकर वे सब-के-सब भी रो पड़े।

उन लोगों को इस प्रकार रोते देख इवा ने अपने को सँभाला और अपना अश्रुपूर्ण मुख उठाकर उज्‍ज्‍वल, मृदुल मुस्‍कान से बोली - "कोई चिंता नहीं... मैंने सदा तुम लोगों के लिए दयालु प्रभु से प्रार्थना की है, और मैं जानती हूँ कि तुम्‍हारे पढ़ना न जानने पर भी तुम्‍हारा सुधार करने में ईश्‍वर तुम लोगों की सहायता करेंगे। तुम उस ईश्‍वर से सहायता माँगो, और अपने सुधार की चेष्‍ट करो! तुमसे जब भी बन सके, धर्म-पुस्‍तक पढ़ो। मुझे आशा है कि मैं तुम सबों को स्‍वर्ग में देखूँगी।"

इवा की बात समाप्‍त होने पर टॉम, मामी और कुछ पुराने सेवकों ने धीरे-धीरे कहा - "परम पिता की इच्‍छा पूर्ण हो!"

इनमें जो बहुत छोटी उम्र के और चिंताहीन थे, उनका हृदय भी इस समय दु:ख से भर गया। वे घुटनों में सिर रखकर सिसकने लगे।

इवा ने कहा - "मैं जानती हूँ, तुम सब मुझे प्‍यार करते हो।"

इसके बाद उन सभी के लिए उसने अपनी शुभकामना भेंट की।

इवा बोली - "हाँ, मैं जानती हूँ, खूब जानती हूँ, कि तुम सब मुझे प्‍यार करते हो। तुममें से एक भी ऐसा नहीं, जिसने मुझे अपना हार्दिक स्‍नेह न दिया हो। मैं चाहती हूँ कि तुम्‍हें कोई ऐसी चीज दे जाऊँ कि उसे जब तुम देखो, तभी मुझे याद करो। मैं तुम सबको अपने बालों की एक-एक लट देती हूँ। और जब तुम इसे देखो, तो सोचना कि मैं तुम लोगों से प्‍यार करती थी, मैं स्‍वर्ग में चली गई हूँ और मैं चाहती हूँ कि तुम सब को वहाँ देखूँ।"

रोते और सिसकते हुए सब सेवक-सेविकाओं ने उस नन्‍हीं बालिका के कोमल हाथों से उसके निर्मल प्‍यार की वह यादगार बड़ी श्रद्धा के साथ अपने हाथों में सँभाल ली। उस हृदय-द्रावक दृश्‍य को कैसे बताया जाए! कोई रोता हुआ जमीन पर औंधे मुँह पड़ा था, कोई मन-ही-मन दयालु ईश्‍वर से बालिका के मंगल की प्रार्थना कर रहा था, और कोई उसके कपड़ों का सिरा चूम रहा था। जिसके मन में जैसे आता था, बालिका के लिए अपना शोक और प्रेम दिखलाता था।

जब वे सब लोग प्‍यार की भेंट-स्‍वरूप बालों की लटें पा चुके, तब मिस अफिलिया ने यह समझकर कि भीड़ रहने से रोगी को बेचैनी होगी, उन सबको संकेत से बाहर जाने को कहा। सब चले गए। केवल टॉम और मामी दो रह गए।

इवा ने कहा - "टॉम काका, यह एक सुंदर गुच्‍छा मैंने तुम्‍हारे लिए रख छोड़ा है। यह सोचकर बड़ा ही हर्ष होता है कि मैं तुम्‍हें स्‍वर्ग में देखूँगी। मुझे इसका पूर्ण विश्‍वास है।" फिर स्‍नेह के साथ अपनी बूढ़ी धाय मामी से लिपटकर वह बोली - "मामी, तुम बड़ी सीधी और दयालु हो। मैं तुम्‍हें बहुत प्‍यार करती हूँ। मैं जानती हूँ कि तुम भी स्‍वर्ग में पहुँचोगी।"

मामी ने जोर से रोते हुए कहा - "मेरी प्‍यारी बच्‍ची, तेरे बिना मैं कैसे जीऊँगी? तुझे छाती से लगाकर मैं अपनी संतान का दु:ख भूले हुए थी।"

मिस अफिलिया ने मामी और टॉम को धीरे-धीरे वहाँ से बाहर कर दिया। सोचा कि सब चले गए; पर जैसे ही वह घूमी, उसने देखा कि टप्‍सी वहाँ खड़ी थी। मिस अफिलिया ने एकाएक कहा - "तू किधर से आ टपकी?"

टप्‍सी ने आँखों से आँसू पोंछते हुए कहा - "मैं यहाँ ही तो थी। मिस इवा, मैं सदा से बुरी लड़की हूँ; पर क्‍या आप मुझे भी अपने बालों की एक लट नहीं देंगी?"

इवा बोली - "हाँ, टप्‍सी, तुझे जरूर दूँगी। यह ले, तू जब-जब भी इन बालों को देखना, तब-तब अपने मन में यही सोचना कि मैं भी तुझे बहुत चाहती थी और मेरी इच्‍छा थी कि तू भली लड़की बन जाए।"

टप्‍सी ने रुद्ध कंठ से कहा - "मिस इवा, मैं भली बनने की बराबर कोशिश कर रही हूँ। पर भला बनना बड़ा कठिन काम है। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं इसमें किसकी मदद लूँ।"

इवा ने कहा - "इसे ईश्‍वर जानते हैं, टप्‍सी, वे तुझे प्‍यार करते हैं, वे ही तेरी सहायता करेंगे।"

टप्‍सी रोते-रोते चुपचाप वहाँ से चली गई! बालों के गुच्‍छे को उसने अपनी छाती में आदर से छिपा लिया।

सबके चले जाने पर मिस अफिलिया ने किवाड़ बंद कर लिए। जब ये सारी बातें हो रही थीं, तब मिस अफिलिया की आँखों से भी लगातार आँसुओं की धारा बह रही थी, पर वह बुद्धिमानी रमणी अपने शोक को रोककर रोगी को आराम पहुँचाने की चिंता कर रही थी और चारों ओर से इस शोक-प्रदर्शन से कहीं रोगी का कष्‍ट बढ़ न जाए, इस डर से वह स्‍वयं चुप बैठी थी।

सेंटक्‍लेयर भी एक हाथ से आँखें ढाँपे चुपचाप लड़की के पास बैठा था। सबके चले जाने पर भी वह उसी तरह बैठा रहा।

इवा के पिता के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा - "बाबा!"

सेंटक्‍लेयर सहसा चौंक उठा। उसका सारा शरीर रोमांचित हो गया, लेकिन वह कुछ बोला नहीं।

इवा ने फिर पुकारा - "बाबा!"

सेंटक्‍लेयर ने तीव्र यंत्रणा से छटपटाते हुए कहा - "अब नहीं सहा जाता - विधाता मुझपर बड़ा निर्दयी है।..."

मिस अफिलिया ने कहा - "वह ईश्‍वर की चीज है - उसकी इच्‍छा है कि इसका जो चाहे, करे।"

"शायद ऐसा ही हो, लेकिन इससे कष्‍ट सहना कुछ सहज तो नहीं होता।" बड़े सूखे और भारी स्‍वर से सेंटक्‍लेयर ने यह बात कहकर मुँह फेर लिया। उसकी आँखों से आँसू भरे हुए थे। इवा ने उठकर पिता की गोद में अपना सिर रखते हुए कहा - "बाबा, तुम्‍हारी बातें सुनकर मेरा हृदय फटा जाता है। तुम इतना दु:ख मत करो।" और वह फफक उठी।

इवा को रोते देखकर पिता को बड़ा भय हुआ। उसकी चिंता-धारा दूसरी ही ओर बह चली।

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "मेरी बेटी इवा, अब शांत हो जा। मुझे भ्रांति हो गई थी, मैंने अन्‍याय किया है। तुम जो सोचने या करने को कहोगी, मैं वहीं सोचूँगा और वही करूँगा। तुम मेरे लिए दु:ख मत करो। मैं ईश्‍वर को आत्म-समर्पण करूँगा। ईश्‍वर को दोष देकर मैंने बड़ा अन्‍याय किया है। अब फिर ऐसी बात मुँह से नहीं निकालूँगा।"

इवा बहुत थकी-सी होकर अपने पिता की गोद में पड़ी रही और वह उसे प्‍यारे-प्‍यारे शब्‍दों से सांत्‍वना देने लगा।

मेरी वहाँ से उठकर अपने सोने के कमरे में चली गई। वहाँ उसे बार-बार मूर्च्‍छा आने लगी।

इवा के पिता ने विषाद से मुस्‍कराकर कहा - "इवा बेटी, मुझे तो तुमने अपने बालों की एक भी लट नहीं दी।"

इवा ने हँसकर कहा - "बाबा, तुम्‍हारे तो सभी हैं। तुम्‍हारे और माँ के ही हैं। हाँ, बुआ जितनी लटें चाहें, उन्‍हें तुम दे देना। मैंने तो बस अपने दास-दासियों को अपने हाथ से दिए हैं, क्‍योंकि बाबा, तुम जानते हो, मेरे चले जाने के बाद उन्‍हें शायद कोई न देता... और मुझे आशा है कि इन बालों को देखकर वे मेरी याद जरूर करेंगे।..."

"बाबा, तुम क्रिश्चियन हो या नहीं?" इवा ने कुछ संदेह से पूछा।

सेंटक्‍लेयर ने जवाब दिया - "तुम ऐसा क्‍यों पूछती हो?"

इवा ने कहा - "तुम ऐसे भलेमानस होकर भी क्रिश्चियन नहीं हो, इस पर मुझे आश्‍चर्य है।"

सेंटक्‍लेयर ने पूछा - "क्रिश्चियन के क्‍या गुण होते हैं, इवा?"

इवा बोली - "जो क्राइस्‍ट को सब चीजों से अधिक प्‍यार करे।"

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "क्‍या तुम ऐसा करती हो, बेटी?"

इवा बोली "नि:संदेह!"

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "तुमने तो कभी उसे देखा भी नहीं...।"

इवा ने उत्तर दिया - "नहीं, देखने से क्‍या बनता-बिगड़ता है! मेरा उस पर विश्‍वास है, और कुछ दिनों में मैं उसे देख लूँगी।"

यह कहते-कहते इवा का मुख एक दिव्‍य आनंद से खिल उठा। सेंटक्‍लेयर ने फिर कुछ नहीं कहा। यह भाव उसने पहले अपनी माता में देखा था, पर स्‍वयं उसके हृदय में कोई ऐसा भाव नहीं था।

इसके बाद इवा का रोग दिन-दिन बढ़ता ही गया। अब उसके जीने की कोई आशा न रही।

मिस अफिलिया दिन-रात सिरहाने बैठी उसकी सेवा-शुश्रूषा करती थी। इस विपत्ति के समय उसकी असाधारण धीरता, बुद्धिमत्ता और शुश्रूषा में तत्‍परता को देखकर कोई भी उसे मन-ही-मन सराहे बिना नहीं रह सकता था।

टॉम अधिकतर इवा के कमरे में रहता था। वह कभी इवा को गोद में उठाकर बरामदे में टहलाता, कभी सवेरे की साफ ताजा हवा में घुमाने के लिए उसे बाग में ले जाता और कभी किसी पेड़ की छाया में बैठकर पहले की तरह इवा को उत्तम भक्ति के भजन सुनाता।

इवा का पिता भी प्राय: उसे गोद में लेकर घुमाता था, पर उसका शरीर विशेष सबल न होने के कारण वह जल्‍दी थक जाता था। तब इवा कहती - "बाबा मुझे टॉम की गोद में दे दो। वह मुझे गोद में लेना चाहता है, मेरे लिए कुछ भी करने में वह बड़ा प्रसन्‍न होता है।"

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "बेटी ऐसा ही मैं भी अनुभव करता हूँ।"

इवा की सेवा करने की इच्‍छा केवल टॉम ही को नहीं रहती थी, बल्कि घर के सभी सेवक उसके लिए हृदय से कुछ करना चाहते थे और उन बेचारों से जो-कुछ हो सकता था, करते भी थे।

इवा की सेवा करने के लिए मामी बहुत छटपटाती थी, पर उसे कोई अवसर ही नहीं मिलता था, क्‍योंकि दिन-रात मेरी उसे अपनी ही टहल-चाकरी से फुर्सत नहीं होने देती थी। मेरी कहती कि कन्‍या की पीड़ा के कारण उसका मन बड़ा बेचैन हो गया है। उसकी यंत्रणा के मारे कोई चैन नहीं लेने पाता था। रात को भी मामी को कम-से-कम बीस बार जगाकर तंग करती थी - कभी पैर दबवाती, कभी सिर पर पानी डलवाती; कभी रूमाल ढुढ़वाती। कभी कहती - जा, देखकर आ, इवा के कमरे में कैसा शोर हो रहा है। कभी कहती - रोशनी आ रही है, परदा डाल दे। कभी कहती - अँधेरा है, परदा उठा दे! वह दिन में भी मामी को, इवा के कमरे के अलावा इधर-उधर चारों ओर दौड़ाती ही रहती थी। इससे मामी कभी-कभी छिपकर पल भर के लिए इवा को देख आती थी।

एक दिन मेरी ने कहा - "इस समय अपने शरीर के विषय में विशेष सावधान रहना मैं अपना कर्तव्‍य समझती हूँ। एक तो यों ही कमजोर हूँ, उस पर इवा की सेवा-शुश्रूषा ओर भार-सँभालने का सारा बोझ मुझपर है।"

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "अच्‍छा, क्‍या सचमुच ऐसा है? मैं तो समझता था कि बहन ने तुम्‍हें इससे छुट्टी दे रखी है।"

मेरी बोली - "ठीक है, तुम मर्द हो, अत: मर्दों की-सी बातें करते हो। तुम्‍हें पता ही नहीं कि संतान की पीड़ा माता के मन पर कैसा असर डालती है। भला ऐसी दशा में माँ का मन कैसे बेफिक्र हो सकता है? हाय, मेरे मन की दशा कोई नहीं समझता। सेंटक्‍लेयर, मैं तुम्‍हारी तरह बेपरवाह बनकर नहीं रह सकती।"

सेंटक्‍लेयर को मेरी की बात पर हँसी आ गई। इस दु:ख के अवसर पर भी हँसी आने से सेंटक्‍लेयर को निर्दयी न समझा जाए। ऐसी उज्‍ज्‍वल शक्ति की लहरों में उसकी आत्‍मा की परलोक-यात्रा आरंभ हुई थी। ऐसी शीतल-मंद-सुगंध वायु के झोंके खाती हुई वह जीवन की क्षुद्र नौका स्‍वर्ग की ओर जा रही थी कि इस बात का ध्‍यान तक न आता था कि यह सब उसकी मौत के समान है। बालिका को कोई विशेष शारीरिक यंत्रणा न थी। अदृष्‍ट रीति से शनै:-शनै: उसकी निर्बलता बढ़ती जाती थी। शांति और पवित्रता की एक मधुर लहर बालिका के चारों ओर उछालें ले रही थी। उसके मुख की वह सात्त्विक ज्‍योति, हृदय की वह गंभीर स्‍नेह-राशि, आत्‍मा का वह जीवित विश्‍वास और प्राणों की वह स्थिर प्रफुल्‍लता देखकर किसी के भी हृदय में एक अद्भुत और नवीन शांति का विकास हो सकता था। यह शांति ईश्‍वर -निर्भरता के भाव से उत्‍पन्‍न शांति न थी, तो क्‍या आशा थी? असंभव! यह भूत-भविष्‍य से सर्वथा निराली, वर्तमान की एक शांतिमय अवस्‍था थी, यह शांति सेंटक्‍लेयर के मन को ऐसी सांत्‍वना देती कि अब उसे भयावह भविष्‍य को सोचने की इच्‍छा ही न होती।

अपनी आसन्‍न मृत्‍यु के संबंध में इवा के हृदय में जो पूर्वाभास था, उसे उसके विश्‍वासी परिचारक टॉम के सिवा और कोई न जानता था। पिता का हृदय दुखने के डर से इवा उससे अपनी दशा छिपाती ही थी, पर टॉम से वह अपनी कोई बात कहने में संकोच नहीं करती थी। मृत्‍यु के कुछ ही पूर्व जब शरीर से आत्‍मा का बंधन ढीला पड़ने लगता है तब हृदय को आप-ही-आप मौत के पैरों की आहट मिल जाती है। इवा ने जब यह जान लिया कि मृत्‍यु बहुत निकट आ गई है तब उसने टॉम को यह बात बताई। उसी दिन से टॉम ने अपनी कोठरी में सोना छोड़ दिया। अब वह इवा के कमरे से लगे बरामदे में लेटा रहता था, जिससे कोई जरूरी काम हो तो वह तुरंत वहाँ पहुँच सके।

मिस अफिलिया ने एक दिन उससे कहा - "टॉम, तुम कुत्ते की तरह इधर-उधर क्‍यों पड़े रहते हो? मैं तो समझती थी कि तुम सभ्‍य आदमी की भाँति अपनी कोठरी में सोते होगे।"

टॉम बोला - "हाँ, मैं हमेशा अपने कमरे में ही सोया करता हूँ, पर अब..."

अफिलिया ने कहा - "अब क्‍या?"

टॉम ने उत्तर दिया - "जी, जरा धीरे बोलिए, कहीं सेंटक्‍लेयर साहब न सुन लें। आप जानती हैं कि दुलहे की खबर रखने के लिए किसी को जागना चाहिए।"

अफिलिया ने कहा - "तुम्‍हारे कहने का क्‍या मतलब है?"

टॉम बोला - "आप जानती हैं, बाइबिल में लिखा है, आधी रात के समय वहाँ बड़ा शोर-गुल हुआ - देखो, दुलहा आ पहुँचा। मिस फीली, मैं हर रात को उसी की बाट देखा करता हूँ। मैं यहाँ से हटकर नहीं सो सकता।"

अफिलिया ने कहा - "क्‍यों टॉम काका, तुम ऐसा क्‍यों सोचते हो?"

टॉम ने जवाब दिया - "मिस इवा मुझसे बहुत-सी बातें कहती हैं। आत्‍मा के पास परमात्‍मा अपना दूत भेजते हैं। मिस फीली, यह पवित्र बालिका जब स्वर्ग में जाने लगेगी तब स्‍वर्ग के द्वार खुल जाएँगे, हम सब लोग स्‍वर्ग की उज्‍ज्‍वल प्रभा का दर्शन पाकर कृतार्थ होंगे। मैं उस समय उसके पास ही रहना चाहता हूँ।"

अफिलिया बोली - "टॉम काका, क्‍या मिस इवा ने तुमसे कहा है कि और दिनों के बजाय आज उसे अधिक तकलीफ है?"

टॉम ने कहा - "नहीं, पर आज सवेरे उन्‍होंने मुझसे यह कहा कि मैं परलोक के बहुत पास पहुँच गई हूँ, देवदूत उन्‍हें संदेशा सुना गए हैं।"

रात के कोई दस बजे होंगे। उस समय मिस अफिलिया और टॉम के बीच ये बातें हुईं। मिस अफिलिया बाहर का दरवाजा बंद करने आई थी।

मिस अफिलिया घबरानेवाली स्‍त्री न थी। सहज में उनका मन अधीर होनेवाला न था। पर टॉम की गंभीर विश्‍वासपूर्ण बात सुनकर वह बड़ी घबराई। और दिनों के बजाय उस दिन शाम से ही इवा अधिक प्रसन्‍न और स्‍वस्‍थ दीख पड़ती थी। वह बिछौने पर बैठी सोच रही थी कि अपने गहने किसे देगी तथा अपनी पसंद की और-और चीजें किसे देगी। उस दिन बहुत दिनों के बाद इवा के शरीर में थोड़ी-सी फुर्ती दीख रही थी।

उस दिन शाम को कमरे में आने पर सेंटक्‍लेयर ने उसे और दिनों से स्‍वस्‍थ और सबल देखकर कहा - "इवा, आज बहुत अच्‍छी जान पड़ती है। बीमारी के बाद ऐसी प्रसन्न वह किसी दिन नहीं दिखाई दी थी।"

फिर रात को सोने के लिए जाते समय सेंटक्‍लेयर ने मिस अफिलिया से कहा - "बहन, ईश्‍वर की कृपा से आज इवा और दिनों से काफी अच्‍छी जान पड़ती है। आशा है, जल्‍दी ही ठीक हो जाएगी।" इतना कहकर सेंटक्‍लेयर अपने कमरे में जाकर बेफिक्री की नींद सो गया।

आधी रात हुई। सब सो रहे थे, पर अफिलिया की आँखों में नींद का नाम न था। वह बड़ी एकाग्रता से इवा के मुँह को निहार रही थी। पल-पल बदलते मुख के भाव देख रही थी। एकाएक इवा के चेहरे का भाव ऐसा बदला, मानो उसे लेने को स्‍वर्ग-दूत आ पहुँचे हों। यह अवस्‍था देखते ही मिस अफिलिया तत्‍काल दरवाजा खोलकर बाहर आई। टॉम बाहर बैठा था। रात को उसने पल भर के लिए भी आँखें बंद नहीं की थीं। अफिलिया ने उसे देखते ही कहा - "टॉम, जल्‍दी से डाक्‍टर को लाओ।"

टॉम उधर डाक्‍टर के यहाँ गया, इधर मिस अफिलिया ने आकर सेंटक्‍लेयर के दरवाजे की कुंडी हिलाई।

उसने कहा - "भैया, जल्‍दी बाहर आओ।"

इन शब्‍दों के कान में पड़ते ही सेंटक्‍लेयर को अपना दिल बैठता-सा मालूम हुआ। उसने समझ लिया कि सर्वनाश की घड़ी आ पहुँची। वह झटपट इवान्‍जेलिन के कमरे में पहुँचा। वहाँ जाकर देखा तो इवान्‍जेलिन के मुँह पर दु:ख की कोई रेखा नहीं थी। सदा का-सा एकाग्र तथा मधुर भाव बालिका के मुख पर विराज रहा था। तब क्‍यों ऐसा लगा कि आज इवा की घड़ियाँ पूरी हो गई हैं? उसके शरीर में एकदम सुस्‍ती दौड़ गई थी, हाथ-पैर बर्फ के जैसे ठंडे हो गए थे। बस मुख-कमल, आध्‍यात्मिक ज्‍योति के कारण, ज्‍यों-का-त्‍यों खिला हुआ था, तनिक भी नहीं मुरझाया था।

टॉम जल्‍दी ही डाक्‍टर को लेकर पहुँच गया। डाक्‍टर ने मिस अफिलिया से पूछा - "यह हालत कब से है?"

अफिलिया ने जवाब दिया - "आधी रात के बाद से।"

सारे घर में शोर मच गया। सब लोग जाग उठे। बरामदे में भीड़ लग गई। घर में दौड़-धूप की आवाजें सुनाई देने लगीं, परंतु सेंटक्‍लेयर ने किसी से न कुछ कहा, न सुना। वह चुपचाप एकटक निद्रित बालिका के मुँह की ओर ही ताकता रहा।

थोड़ी देर के बाद आप-ही-आप बोला - "बेटी एक बार जाग पड़ती... मैं एक बार और इस मुख की मधुर वाणी सुन लेता..."

यह कहकर उसने इवा के कान के पास मुँह ले जाकर कहा - "बेटी इवा!"

ये शब्‍द सुनकर उन दोनों सुधावर्षी सुदीर्घ नेत्रों का पर्दा हट गया। उसने सिर उठाकर बोलने की चेष्‍टा की, पर शरीर बेदम था।

सेंटक्‍लेयर ने कहा - "इवा, तू मुझे पहचानती है?"

बालिका ने अस्‍फुट स्‍वर में कहा - "बाबा।"

बड़े कष्‍ट से उसने अपनी छोटी-छोटी भुजाएँ उठाकर पिता के गले में डाल दीं। देखते-ही-देखते वे दोनों कोमल हाथ लटक गए। पल भर के लिए उसके चेहरे का भाव बदला। बस, यह अंतिम घड़ी थी। आत्‍मा देह को छोड़कर जाने की तैयारी में थी।... इवा के मुख-कमल पर पल भर के लिए यंत्रणा के चिह्न देखकर सेंटक्‍लेयर का धीरज जाता रहा। उसे कष्‍ट से साँस लेते देखकर बोल उठा - "अरे टॉम, यह सब सहा नहीं जाता... मेरे प्राण इवा का कोई भी दु:ख नहीं सह सकते!... मेरी जान गई... तुम प्रार्थना करो, जिससे यह घड़ी टल जाए।"

टॉम की आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। अपने मालिक की यह दयनीय दशा देखकर वह आकाश की ओर मुँह करके परमेश्‍वर से प्रार्थना करने लगा। विश्‍वास और भक्ति में भी कैसी अद्भुत शक्ति होती है! टॉम की प्रार्थना सुनी गई, पल भर में इवा की वह यंत्रणा दूर हो गई। टॉम बोल उठा - "धन्‍य भगवन्! धन्‍य पिता! सारी यंत्रणाओं के अंत का समय आ गया है!"

बालिका के वे दोनों सुदीर्घ नेत्र स्‍वर्ग की ओर देख रहे थे, मानो वह विशाल और स्थिर दृष्टि से पुकारकर कह रही थी - "संसार के सारे दु:ख दूर हो गए।"

सेंटक्‍लेयर ने धीरे से कहा - "इवा!"

किंतु उसने नहीं सुना।

फिर उसके पिता ने कहा - "बेटी, तुम क्‍या देख रही हो?"

वह मुख कमल मधुर हास्‍य से जैसे खिल उठा। बालिका ने अस्‍फुट स्‍वर से कहा - "अहा, प्रेम-आनंद-शांति!" और उसके बाद देह जीवन-शून्‍य हो गई। आत्‍मा ने मृत्‍यु को पार करके अमरत्‍व प्राप्‍त कर लिया। निर्मल-प्रकृति देव-बाला ने पाप और अत्‍याचारपूर्ण संसार से कूचकर भगवान की गोद में सहारा ले लिया।