टॉम काका की कुटिया - 7 / हैरियट वीचर स्टो / हनुमान प्रसाद पोद्दार

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श्रीमती शेल्‍वी के अनुरोध पर हेली भोजन के लिए ठहर गया। पर इधर इलाइजा तेजी से कदम बढ़ाती चली जा रही थी। उसकी उस समय की दुर्दशा सोचकर पत्‍थर का दिल भी पिघल जाएगा। इस संसार में इलाइजा का कोई नहीं है। उसका पति घोर अत्‍याचार से तंग आकर भागने की फिक्र कर रहा है, पर भाग न पाया तो आत्‍महत्‍या कर लेगा। अब इस जन्‍म में इलाइजा को पति के दर्शन की आशा नहीं है। यह संसार इलाइजा के लिए अपार समुद्र है। उसे मालूम नहीं कि सांसारिक घटना-स्रोत उसे किधर बहा ले जाएगा। इस संसार-समुद्र में उसके लिए कोई अवलंब, कोई ठिकाना नहीं है। वह लड़के को गोद में लेकर विशाल संसार-सागर में कूद पड़ी है। पर सब प्रकार से आश्रयहीन होते हुए भी उसके जीवन का एक लक्ष्‍य है। कोई ठिकाना न रहने पर भी यदि मनुष्‍य के जीवन का कोई लक्ष्‍य रहे, तो उस तक पहुँचने के उद्योग में वह किसी कष्‍ट को कष्‍ट नहीं समझता, किसी यंत्रणा को यंत्रणा नहीं मानता। पर जिसके जीवन का कोई लक्ष्‍य या कोई उद्देश्‍य ही नहीं है, ऐसा मनुष्‍य संसार में पग-पग पर कष्‍टों का अनुभव करता है, सब प्रकार के भोग उसके लिए दुर्भोग हो जाते हैं।

दास-व्‍यवसायी के हाथ से संतान की रक्षा करना ही इलाइजा के जीवन का एकमात्र लक्ष्‍य है। जीवन के इस उद्देश्‍य की सिद्धि के लिए उसे कोई भी कष्‍ट, कष्‍ट नहीं लगता, किसी भी दु:ख की उसे परवा नहीं। दुबली-पतली इलाइजा छह बरस के बालक को गोद में लिए बेतहाशा चली जा रही है। बालक पैदल चलने में समर्थ था; पर उसके छिन जाने के भय की भावना उसके मन में ऐसी जम गई थी कि एक बार भी बालक को गोद से नीचे नहीं उतारी। कुछ दूर चलती और फिर पीछे घूम कर देखती जाती कि कहीं कोई आता तो नहीं है। पेड़ के पत्ते के गिरने की आहट सुनते ही चौंक पड़ती और पीछे मुड़ कर देखती हुई - "ईश्‍वर, रक्षा करो, ईश्‍वर, रक्षा करो!" कहकर चिल्‍ला उठती। बालक ने एक बार आँखें खोली, पर इलाइजा ने उससे कहा - "चुप रह, नहीं तो पकड़ा जाएगा।" बालक तत्‍काल उसके गले से चिपटकर निद्रित-सा हो गया। स्‍नेह की भी कैसी विचित्र शक्ति है। बालक के अंग-स्‍पर्श से इलाइजा के शरीर में नया बल आ गया। मानसिक अवस्‍था मनुष्‍य को कितना बलवान बना सकती है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। जो लोग यह कहते हैं कि शारीरिक बल के बिना कोई काम नहीं हो सकता, वे भूल करते हैं। मानसिक शक्ति निर्बल को भी सबल बना देती है। शरीर पर मन का अपूर्व प्रभाव और प्रभुत्‍व होता है। मानसिक बल कभी-कभी रक्‍त, मांस और नसों को इस्‍पात की भाँति दृढ़ और मजबूत बना देता है। वीर-शिरोमणि नेपोलियन का अपूर्व वीरत्‍व इसी मानसिक बल का फल था। मानसिक बल के बिना शरीर अनायास अवसन्‍न हो जाता है। मानसिक बल सदैव शरीर में बिजली का-सा काम करता है और शरीर में तेज बनाए रखता है। जो मानसिक बल से हीन है, वही वास्‍तव में निर्बल है।

इलाइजा शरीर से अवश्‍य दुर्बल थी, पर उसमें मानसिक बल की कमी न थी। वह बालक को गोद में लिए हुए तेज चाल से कोई दस-बारह कोस चली गई। क्षण भर भी कहीं ठहरकर उसने दम न लिया। लक्ष्‍य-साधन की प्रबल इच्‍छा ने ही इस अबला के हृदय को सबल बना दिया था। उसके आंतरिक उत्‍साह ने ही उसके शरीर में यह अलौकिक पराक्रम भर दिया था। इस तरह चलते-चलते रात बीत चली। सड़क पर चारों ओर घोड़ा-गाडियाँ दौड़ने लगीं। इलाइजा ने यह सोचकर कि अब लड़के को गोद में लिए रहने से उस पर लोग घर छोड़कर भागी हुई होने का संदेह करने लगेंगे, लड़के को गोद से उतार दिया और अपने कपड़े दुरुस्‍त कर लिए। बालक उसके पीछे-पीछे चलने लगा। कुछ दूर पर एक बाग था, वहीं जाकर वह अपने साथ लाई हुई खाने-पीने की चीजें बालक को खिलाने लगी। पर स्‍वयं कुछ न खाया। बालक देख रहा था उसकी माता ने कुछ नहीं खाया।

बालक ने स्वयं अपने हाथों से माता के मुँह में खाने की कुछ चीजें डाल दीं, पर इलाइजा से खाया नहीं गया। दु:ख, भय और त्रास से उसका कंठ सूख गया था। बालक ने खाने को कहा तो वह बोली - "बेटा, जब तक तुझे किसी सुरक्षित स्‍थान पर लेकर नहीं पहुँचती हूँ तब तक मैं कुछ खा-पी नहीं सकूँगी।" बालक के खा लेने पर इलाइजा फिर ओहियो नदी की ओर चल पड़ी। वह सोच रही थी, ओहियो नदी पार करते ही उसकी सारी आशंकाएँ दूर हो जाएँगी। धीरे-धीरे और भी दो-तीन स्‍थानों को लाँघकर वह एक बिल्‍कुल अनजान जगह में जा पहुँची। यहाँ किसी के संदेह करने की अधिक संभावना न रही। इलाइजा अफ्रीकी दास-दासियों की भाँति काली न थी। वह अंग्रेज पिता के वीर्य से पैदा हुई थी। देखने में वह कोई अंग्रेज कुलवधू-सी जान पड़ती थी। इस अनजान स्‍थान में इलाइजा की विपत्ति की आशंका ने ही तो उसके शरीर को ताकत दे रखी थी। आशंका घटने पर उसका शरीर भी क्रमश: शिथिल पड़ने लगा। धीरे-धीरे भूख-प्‍यास और थकावट ने उसे मजबूर कर दिया। यहाँ किसी के पहचानने का खटका नहीं है, यह सोचकर उसने निकट की एक दुकान में जाकर कुछ खाने की चीजें लीं और बालक के साथ खा-पीकर फिर चलने लगी। सूर्यास्‍त से कुछ पहले वह ओहियो नदी-तट के एक गाँव में जा पहुँची। तट पर जाकर चाह-भरी आँखों से वह बार-बार ओहियो नदी के दूसरी पार की ओर देखने लगी। अब उसे केवल नदी पार करने की फिक्र थी। बरफ गल गई थी। नाव बिना नदी पार होना असंभव था। किनारे के पास थोड़ी ही दूर पर एक सराय दिखाई दिया। वहाँ एक बुढ़िया बैठी-बैठी कुछ काँटे-चम्‍मच साफ कर रही थी। इलाइजा ने बुढ़िया से पूछा कि पार जाने के लिए नाव मिलेगी या नहीं? बुढ़िया बोली - "नाव मिलने की कोई संभावना नहीं है।" इससे इलाइजा निराश हो गई। वृद्ध ने उसकी यह दशा देखकर पूछा - "क्‍या उस पार के किसी गाँव में तुम्‍हारा कोई कुटुंबी बीमार है?" इलाइजा ने कहा - "कल मुझे खबर मिली कि मेरे एक बच्‍चे की हालत बहुत खराब है, इसी से मैं घबराई हुई जा रही हूँ। अगर आज नदी पार न कर सकी तो उसे देख पाऊँगी, इसमें संदेह है।"

बुढ़िया ने उसकी यह कातरोक्ति सुनकर एक पुरुष को बुलाया और कहा - "सालोमन भैया, जरा देखना तो, नदी पार करने के लिए कोई नाव है क्‍या?"

सालोमन ने कहा कि आज पार होने की आशा नहीं है। कल कोई नाव मिल सकती है। इसके बाद इलाइजा, बुढ़िया के कहने पर रात वहीं बिताने को राजी को गई। उसी सराय की एक कोठरी में जाकर उसने बालक को एक तरफ सुला दिया और स्‍वयं उसकी बगल में बैठकर सोचने लगी।

उधर शेल्‍वी साहब के घर भोजन करने के लिए गुलामों का व्‍यापारी हेली फँस गया। शेल्‍वी साहब की मेम ने क्‍लोई को बहुत शीघ्र भोजन बनाकर लाने की आज्ञा दी। पर आज अजीब हालत है। क्‍लोई से झटपट भोजन तैयार ही नहीं हो पा रहा है। कभी चूल्‍हे की आग बुझ जाती है तो कभी बनती हुई चीज ही बिगड़ जाती है और वह फिर दोबारा बनानी पड़ती है। इस तरह बड़ी गड़बड़ होने लगी। उधर शेल्‍वी साहब भोजन की शीघ्र तैयारी के लिए आदमी-पर-आदमी भेज रहे हैं। एक दास आकर बोला कि देर होते देखकर हेली साहब बहुत घबरा रहे हैं। क्‍लोई झुँझलाकर बोली - "घबरा रहे हैं तो मेरी बला से, भाड़-चूल्‍हे में जाएँ, हम क्‍या करें!"

वहाँ जैक नाम का एक दास बैठा था। वह बोला - "भाड़-चूल्‍हे में ही क्‍यों, वह यम के यहाँ जाने को छटपटा रहा है। उसे अभी नरक की हवा खानी पड़ेगी।" क्‍लोई ने फिर कहा - "उस शैतान के लिए नरक ही ठीक है। वह सैकड़ों गरीबों के गले पर छुरी फेरता है। वह राक्षस बच्‍चे को जबरदस्‍ती माँ की गोद से छीन लेता है। स्‍त्री को स्‍वामीहीन और शिशु को पितृहीन करता है। क्‍या ईश्‍वर अंधा है? उस पापी को अवश्‍य नरक की भयंकर आग में तड़पना पड़ेगा।"

जैक बोला - "चाची, तू बहुत ठीक कहती है। नालायक की लाश को गीदड़ों और कुत्तों से नुचते देखकर मैं बड़ा खुश होऊँगा।"

इसी बीच टॉम वहाँ आ पहुँचा। उसके हृदय में अलौकिक धर्म की धारा बहती थी। क्‍लोई से टॉम कहने लगा - "हमारी किस्‍मत में जो लिखा था सो हुआ। इसके लिए किसी दूसरे आदमी को कोसना और उसके विरुद्ध दिल में बुरा भाव पोसना अच्‍छा नहीं।"

टॉम ने अपनी स्‍त्री से बातचीत शुरू की ही थी कि एक नौकर उसको शेल्‍वी साहब के पास बुलाने पहुँचा। शेल्‍वी ने हेली की ओर संकेत करके कहा - "टॉम, मैंने इनके हाथ तुम्‍हें बेचा है। यह अभी किसी काम से जा रहे हैं। आज तुम्‍हें नहीं ले जा सकेंगे। दो-चार दिन बाद आकर ले जाएँगे। जब ये लेने आएँ तो तुरंत इनके साथ चले जाना। नहीं गए तो अपनी लिखा-पढ़ी के अनुसार इनको मुझे एक हजार हरजाना देना पड़ेगा। देखो, इस बात में गलती मत करना।"

टॉम बोला - "आपकी आज्ञा सिर-माथे है। मैं छोटी उम्र में आपके यहाँ आया था। जिस समय आप एक साल के थे, उसी समय आपकी माता आपको मुझे सौंपकर बोली, टॉम, यही भविष्‍य में तुम्‍हारा मालिक होगा। इसे जतन से पालना। उस समय से आपको गोदी में खिलाया, आपको पाला-पोसा और आपका सारा काम किया। पर कहिए, आज तक क्‍या कभी किसी काम में मैंने आपको धोखा दिया है?"

टॉम की यह बात सुनकर शेल्‍वी का सिर झुक गया। उनकी आँखों में पानी भर आया। कहने लगे - "टॉम, तुमने हमेशा बड़ी सच्‍चाई से मेरा काम किया है, पर कर्ज में फँस जाने के कारण लाचारी में मुझे तुमको बेचना पड़ा है।"

शेल्‍वी साहब की मेम ने कहा - "टॉम, तुम घबराना मत, मैं रुपया इकट्ठा करके फिर तुम्‍हें जरूर इनसे खरीद लूँगी।"

साथ ही मेम ने हेली से कहा - "टॉम को आप जिसके भी हाथ बेचें, कृपया उसका नाम-पता हमें अवश्‍य लिख भेजिएगा।"

हेली ने कहा - "मैं तो दस रुपयों के फायदे के लालच में यह काम करता हूँ। शायद कुछ दिनों बाद फिर आप ही के हाथ बेच दूँ।"

शेल्‍वी साहब की मेम हेली-सरीखे नर-पिशाच से बात करने में बड़ी नफरत करती थी। फिर भी आज वह बहुत-से विषयों पर उससे बातें करने लगी। इस बातचीत का उद्देश्‍य था कि किसी तरह समय बीत जाए।

दोपहर के जब दो बज गए, तब साम और आंडी घोड़े लेकर दरवाजे पर आ गए। शेल्‍वी साहब और उनकी मेम से बिदा माँगकर हेली इलाइजा को पकड़ने चला। घोड़े पर चढ़ते समय उसने साम से पूछा - "क्‍या तुम्‍हारे मालिक के यहाँ शिकारी कुत्ते हैं?" साम खूब जानता था कि उनके यहाँ एक भी शिकारी कुत्ता नहीं है, लेकिन फिर भी समय गुजारने के लिए वह दुष्‍टता से बोला - "हाँ, हमारे यहाँ बहुत कुत्ते हैं। आप ठहरिए, मैं अभी लाता हूँ।" और फिर कई पालतू कुत्ते लाकर उसके सामने पेश कर दिए। उन्‍हें देखकर हेली बहुत कुढ़ा और बोला - "अरे गधे, ये कुत्ते हम नहीं चाहते। भागे हुए दासों को पकड़ने के लिए शिकारी कुत्ते हुआ करते हैं। तू बहुत बदमाश है। चलो, तुम्हें कुत्ते लाने की जरूरत नहीं है।" थोड़ी दूर जाकर हेली ने कहा - "ओहियो नदी की ओर चलो।"

साम ने बड़ी गंभीरता से मुँह बनाकर कहा - "जनाब, नदी को दो रास्‍ते गए हैं, एक तो अच्छा-खासा नया रास्‍ता है, दूसरा खराब हो गया है। इससे अब उधर होकर बहुत लोगों का आना-जाना नहीं है। बताइए आप किस रास्‍ते से चलना चाहते हैं?"

साम की दो रास्‍तों की बात सुनकर आंडी की हँसी न रुकी। वह खिलखिलाकर हँस पड़ा। पर साम फिर बड़ी गंभीर सूरत बनाकर आंडी को डाँटकर कहने लगा - "आंडी, तू बड़ा बेवकूफ है। तू वक्‍त-बेवक्‍त कुछ भी नहीं देखता। यह भी क्‍या हँसने का वक्‍त है? जिसमें हेली साहब का काम हो जाए, वही देखना चाहिए।" वह फिर हेली से कहने लगा - "जनाब, मालूम होता है कि इलाइजा खराब रास्‍ते ही गई है, क्‍योंकि उधर बहुत लोगों का आना-जाना नहीं है। लेकिन हम लोगों को उस रास्‍ते से जाने में सुभीता न होगा। वह रास्‍ता जगह-जगह से कट गया है। इससे चलिए, हम लोग इस नए रास्‍ते से ही चलें। अच्‍छे रास्‍ते से ही जाने में ठीक रहेगा।"

साम की ये बातें सुनकर हेली सोचने लगा कि इलाइजा निर्जन रास्‍ते से ही भागी होगी, पर यह लड़का बड़ा धूर्त है। पहले भूल से उस रास्‍ते का नाम ले गया, अब बहकाकर मुझे दूसरे रास्‍ते से ले जाना चाहता है, इससे पुराने से ही जाना ठीक होगा। सचमुच इस संसार में वहमी आदमी एकाएक झूठ-सच का निर्णय नहीं कर सकते। हेली ने बीहड़ रास्‍ते से ही जाना ठानकर साथियों को उसी ओर चलने की आज्ञा दी।

साम ने बहुत मना किया - "साहब, इस रास्‍ते से मत चलिए। जरूर कहीं-न-कहीं भटक जाएँगे। रास्‍ता साफ नहीं है। जगह-जगह कट गया है।"

साम की इन बातों से हेली का संदेह और बढ़ गया। वह साम को डपटकर कहने लगा - "हम तेरी बात नहीं सुनना चाहते। इसी रास्‍ते चलना होगा।"

असल में वह सुनसान रास्‍ता बहुत दिन से बंद हो गया था। साम यह बात खूब जानता था। उसकी चालाकी न समझकर हेली ने उसी रास्‍ते से जाने का तय किया, यह देख वह मन-ही-मन खुश होकर हँसने लगा। थोड़ी दूर चला और फिर बोला - "अजी साहब, यह रास्‍ता बड़ा खराब है। इससे चलना दुश्‍वार मालूम होता है।" उसकी बातों से हेली को बहुत ही क्रोध आ गया और वह कहने लगा - "तू चुप रह! तेरे कहने से हम रास्‍ता नहीं छोड़ेंगे।" इस पर साम चुप रह गया और अत्‍यंत नम्रता दिखाकर बोला - "तो जिधर से आपकी इच्‍छा हो, चलिए।"

इस तरह चलते-चलते साम और आंडी बीच-बीच में झूठ-मूठ चिल्‍लाने लगते - "वह रही इलाइजा!... देखो-देखो, कपड़ा दीख पड़ता है!... वह इलाइजा दीख पड़ती है।" इनकी चिल्‍लाहट से घोड़ा बार-बार चौंकता था, और बेकार देर होती थी। अंत में करीब एक घंटे के बाद वे एक लंबे-चौड़े मैदान में पहुँचे। आगे बढ़ने का रास्‍ता न था, जो था वह वहीं खत्‍म हो गया था। तब साम ने हेली से कहा - "देख लीजिए साहब, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि यह रास्‍ता बंद हो गया है। पर आपने मेरी बात सुनी नहीं। अपने यहाँ के रास्‍तों का हाल हम लोगों को अच्‍छी तरह मालूम है। आप दूसरी जगह के आदमी ठहरे आपको इन बातों का क्‍या पता?" हेली क्रोधित होकर कहने लगा - "तू बड़ा बदमाश है। तूने यह सब जान-बूझकर किया है।"

साम ने इस प्रकार डाँट खाकर धीरे-धीरे कहा - "साहब, मैंने तो आपसे पहले ही इस रास्‍ते से चलने को मना कर दिया था, पर आप नहीं माने तो मैं क्‍या करूँ? इसमें मेरा क्‍या कसूर है?"

अब हेली क्‍या कहे! असल में साम ने दो बार खुल्‍लमखुल्ल इस रास्‍ते से जाने को मना किया था। अब वे घोड़ों को घुमाकर अच्‍छे रास्‍ते की ओर वेग से बढ़े। शाम भी न हो पाई थी कि वे उसी सराय के सामने, जिसमें इलाइजा ठहरी थी, आ पहुँचे। इलाइजा को यहाँ पहुँचे एक ही घंटा हुआ था। अपने बच्‍चे को सुलाकर वह खिड़की में खड़ी होकर नदी की ओर देख रही थी। इसी समय साम की निगाह उस पर जा पड़ी। हेली और आंडी साम के पीछे थे। उन्‍हें इलाइजा नहीं दिखाई दी। साम ने बदमाशी से हवा में अपनी टोपी फेंक दी और जोरों से चिल्‍लाने लगा - "मेरी टोपी हवा में उड़ गई... अरे, मेरी टोपी उड़ गई!" यह चिल्‍लाना इलाइजा को सुनाई पड़ा। उसने उधर आँखें घुमाते ही साम और हेली को देख लिया। फिर क्‍या था! सोते बालक को गोद में लेकर उछलती हुई पीछे का दरवाजा खोलकर भागी। हेली ने उसे देख लिया। वह तत्‍काल घोड़े से उतरकर बाघ की तरह उसके पीछे लपका। उधर इलाइजा के उस थके हुए शरीर में अकस्‍मात् मानो हजारों हाथियों का बल आ गया। वह बिजली की भाँति तड़पकर निकट की ओहियो नदी में कूद पड़ी। जल पर उस समय बर्फ तैर रही थी। बर्फ पर कूदते ही वह हिम-खंडों के साथ बहने लगी। उसके बोझ से बर्फ का टुकड़ा ज्यों ही डूबने को होता कि वह कूदकर दूसरे टुकड़े पर जा पहुँचती। इस तरह एक खंड से दूसरे पर कूदती हुई आगे बढ़ने लगी। उसके जूते टुकड़े-टुकड़े हो गए। बर्फ की रगड़ से छिलकर उसके दोनों पैरों से खून बहने लगा। पर बालक को उसने ऐसी दृढ़ता से पकड़ रखा था कि एक बार भी वह गोद से छूटने न पाया।

थोड़ी ही देर में इलाइजा नदी को पार करके दूसरे किनारे पर पहुँच गई। वहाँ उसे एक आदमी किनारे पर खड़ा दिखाई दिया। उसने इलाइजा को हाथ पकड़कर किनारे पर चढ़ा लिया और पूछा - "तुम कौन हो? तुम तो बड़ी बहादुर जान पड़ती हो।" इलाइजा ने आवाज से उसे पहचान लिया। वह शेल्‍वी साहब के घर के पास ही कहीं खेती करता था। अत: इलाइजा ने उसका नाम लेकर कहा - "सिम, मुझे बचाओ, मुझे बचाओ! मुझे बताओ कि मैं कहाँ छिपकर रह सकती हूँ। मेरे इस बच्चे को मालिक ने बेच दिया है। खरीदार इसे पकड़ने आया है। सिम, तुम भी बाल-बच्‍चोंवाले हो।"

सिम ने कहा - "मुझसे जहाँ तक बनेगा, मैं तुम्‍हारा उपकार करूँगा। तुम्‍हें कोई खटका नहीं। निश्चिंत हो जाओ। तुम पास के ही इस गाँव में चली जाओ। सामने वह जो सफेद घर दिखाई दे रहा है, वहाँ जाने से तुम्‍हें शरण मिलेगी।"

इस पर इलाइजा सिम को आशीर्वाद देती हुई बच्‍चे को छाती से लगाकर उसी घर की ओर चली गई।

इलाइजा के चले जाने पर सिम सोचने लगा - "इसे मैंने पकड़ा नहीं, उल्‍टा भागने का रास्‍ता बता दिया। इससे कहीं शेल्‍वी साहब मुझपर नाराज न हो जाएँ। बला से, हो जाएँगे तो क्‍या है! इस आफत की मारी स्‍त्री पर क्‍या कोई सख्‍ती कर सकता है!"

सिम अपढ़ और गँवार है। उस पर बनावटी धर्म की छाया नहीं पड़ी है। उसके हृदय में ऐसे भाव का आना असंभव नहीं है। पर यदि कहीं वह पढ़ा-लिखा शहरी होता तो प्रचलित कानून के गौरव की रक्षा के लिए जरूर इलाइजा को पकड़कर पुलिस के हवाले कर देता।

हम लोग अब सिम और इलाइजा से विदा होकर पाठकों को हेली की खबर सुनाना चाहते हैं। इलाइजा को जल्‍दी-जल्‍दी बर्फ पर जाते देखकर हेली भैचक्‍का-सा रह गया। साम तथा आंडी से बोला - "अरे, उसके सिर पर भूत सवार है। देखो, ठीक बिल्‍ली की तरह कूदती जा रही है!"

हेली की बात सुनकर दोनों हँस पड़े। इस पर हेली दोनों को कोड़ा लगाने के लिए उतारू हो गया। वे जरा हटकर बोले - "साहब, हमारा काम हो गया, अब हम जाते हैं। घोड़ा लेकर अधिक दूर जाने से मेम साहब नाराज होंगी। यहाँ और ठहरने की जरूरत नहीं दीख पड़ती।" इतना कहकर दोनों हँसते हुए वहाँ से चल दिए।