देस बिराना / अध्याय 1 / भाग 1 / सूरज प्रकाश

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24 सितम्बर, 1992। कैलेंडर एक बार फिर वही महीना और वही तारीख दर्शा रहा है। सितम्बर और 24 तारीख। हर साल यही होता है। यह तारीख मुझे चिढ़ाने, परेशान करने और वो सब याद दिलाने के लिए मेरे सामने पड़ जाती है जिसे मैं बिलकुल भी याद नहीं करना चाहता।

आज पूरे चौदह बरस हो जायेंगे मुझे घर छोड़े हुए या यूं कहूं कि इस बात को आज चौदह साल हो जायेंगे जब मुझे घर से निकाल दिया गया था। निकाला ही तो गया था। मैं कहां छोड़ना चाहता था घर। छूट गया था मुझसे घर। मेरे न चाहने के बावजूद। अगर दारजी आधे- अधूरे कपड़ों में मुझे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल कर पीछे से दरवाजा बंद न कर देते तो मैं अपनी मर्जी से घर थोड़े ही छोड़ता। अगर दारजी चाहते तो गुस्सा ठंडा होने पर कान पकड़ कर मुझे घर वापिस भी तो ले जा सकते थे। मुझे तो घर से कोई नाराज़गी नहीं थी। आखिर गोलू और बिल्लू सारा समय मेरे आस-पास ही तो मंडराते रहे थे।24 सितम्बर, 1992। कैलेंडर एक बार फिर वही महीना और वही तारीख दर्शा रहा है। सितम्बर और 24 तारीख। हर साल यही होता है। यह तारीख मुझे चिढ़ाने, परेशान करने और वो सब याद दिलाने के लिए मेरे सामने पड़ जाती है जिसे मैं बिलकुल भी याद नहीं करना चाहता।

घर से नाराज़गी तो मेरी आज भी नहीं है। आज भी घर, मेरा प्यारा घर, मेरे बचपन का घर मेरी रगों में बहता है। आज भी मेरी सांस-सांस में उसी घर की खुशबू रची बसी रहती है। रोज़ रात को सपनों में आता है मेरा घर और मुझे रुला जाता है। कोई भी तो दिन ऐसा नहीं होता जब मैं घर को लेकर अपनी गीली आंखें न पोंछता होऊं। बेशक इन चौदह बरसों में कभी घर नहीं जा पाया लेकिन कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने खुद को घर से दूर पाया हो। घर मेरे आसपास हमेशा बना रहा है। अपने पूरेपन के साथ मेरे भीतर सितार के तारों की तरह बजता रहा है।

कैसा होगा अब वह घर !! जो कभी मेरा था। शायद अभी भी हो। जैसे मैं घर वापिस जाने के लिए हमेशा छटपटाता रहा लेकिन कभी जा नहीं पाया, हो सकता है घर भी मुझे बार-बार वापिस बुलाने के लिए इशारे करता रहा हो। मेरी राह देखता रहा हो और फिर निराश हो कर उसने मेरे लौटने की उम्मीदें ही छोड़ दी हों।

मेरा घर. हमारा घर .. हम सब का घर... जहां बेबे थी, गोलू था, बिल्लू था, एक छोटी-सी बहन थी - गुड्डी और थे दारजी...। कैसी होगी बेबे .. .. पहले से चौदह साल और बूढ़ी.. ..। और दारजी.. .. ..। शायद अब भी अपने ठीये पर बैठे-बैठे अपने औजार गोलू और बिल्लू पर फेंक कर मार रहे हों और सबको अपनी धारदार गालियों से छलनी कर रहे हों..। गुड्डी कैसी होगी.. जब घर छूटा था तो वो पांच बरस की रही होगी। अब तो उसे एमए वगैरह में होना चाहिये। दारजी का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं उसे इतना पढ़ने भी दिया होगा या नहीं। दारजी ने पता नहीं कि गोलू और बिल्लू को भी नहीं पढ़ने दिया होगा या नहीं या अपने साथ ही अपने ठीये पर बिठा दिया होगा..। रब्ब करे घर में सब राजी खुशी हों..।

एक बार घर जा कर देखना चाहिये.. कैसे होंगे सब.. क्या मुझे स्वीकार कर लेंगे!! दारजी का तो पता नहीं लेकिन बेबे तो अब भी मुझे याद कर लेती होगी। जब दारजी ने मुझे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर धकेल दिया था तो बेबे कितना-कितना रोती थी। बार-बार दारजी के आगे हाथ जोड़ती थी कि मेरे दीपू को जितना मार-पीट लो, कम से कम घर से तो मत निकालो।

बेशक वो मार, वो टीस और वो घर से निकाले जाने की पीड़ा अब भी तकलीफ दे रही है, आज के दिन कुछ ज्यादा ही, फिर भी सोचता हूं कि एक बार तो घर हो ही आना चाहिये। देखा जायेगा, दारजी जो भी कहेंगे। यही होगा ना, एक बार फिर घर से निकाल देंगे। यही सही। वैसे भी घर मेरे हिस्से में कहां लिखा है..। बेघर से फिर बेघर ही तो हो जाऊंगा। कुछ भी तो नहीं बिगड़ेगा मेरा।

तय कर लेता हूं, एक बार घर हो ही आना चाहिये। वे भी तो देखें, जिस दीपू को उन्होंने मार-पीट कर आधे-अधूरे कपड़ों में नंगे पैर और नंगे सिर घर से निकाल दिया था, आज कहां से कहां पहुंच गया है। अब न उसके सिर में दर्द होता है और न ही रोज़ाना सुबह उसे बात बिना बात पर दारजी की मार खानी पड़ती है।

पास बुक देखता हूं। काफी रुपये हैं। बैंक जा कर तीस हजार रुपये निकाल लेता हूं। पांच-सात हज़ार पास में नकद हैं। काफी होंगे।

सबके लिए ढेर सारी शॉपिंग करता हूं। बैग में ये सारी चीजें लेकर मैं घर की तरफ चल दिया हूं। हँसी आती है। मेरा घर.... घर... जो कभी मेरा नहीं रहा.. सिर्फ घर के अहसास के सहारे मैंने ये चौदह बरस काट दिये हैं। घर... जो हमेशा मेरी आँखों के आगे झिलमिलाता रहा लेकिन कभी भी मुकम्मल तौर पर मेरे सामने नहीं आया।

याद करने की कोशिश करता हूं। इस बीच कितने घरों में रहा, हॉस्टलों में भी रहा, अकेले कमरा लेकर भी रहता रहा लेकिन कहीं भी अपने घर का अहसास नहीं मिला। हमेशा लगता रहा, यहां से लौट कर जाना है। घर लौटना है। घर तो वही होता है न, जहां लौट कर जाया जा सके। जहां जा कर मुसाफ़िरी खत्म होती हो। पता नहीं मेरी मुसाफिरी कब खत्म होगी। बंबई से देहरादून की सत्रह सौ किलोमीटर की यह दूरी पार करने में मुझे चौदह बरस लग गये हैं, पता नहीं इस बार भी घर मिल पाता है या नहीं।

देहरादून बस अड्डे पर उतरा हूं। यहां से मच्छी बाजार एक - डेढ़ किलोमीटर पड़ता है।

तय करता हूं, पैदल ही घर जाऊं..। हमेशा की तरह गांधी स्कूल का चक्कर लगाते हुए। सारे बाज़ार को और स्कूल को बदले हुए रूप में देखने का मौका भी मिलेगा। सब्जी मंडी से होते हुए भी घर जाया जा सकता है, रास्ता छोटा भी पड़ेगा लेकिन बचपन में हम मंडी में आवारा घूमते सांडों की वजह से यहां से जाना टालते थे। आज भी टाल जाता हूं।

गांधी स्कूल के आस पास का नक्शा भी पूरी तरह बदला हुआ है। गांधी रोड पर ये हमारी प्रिय जगह खुशीराम लाइब्रेरी, जहां हम राजा भैया, चंदा मामा और पराग वगैरह पढ़ने आते थे और इन पत्रिकाओं के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करते रहते थे। पढ़ने का संस्कार हमें इसी लाइब्रेरी ने दिया था।

आगे हिमालय आर्मस की दुकान अपनी जगह पर है लेकिन उसके ठीक सामने दूसरी मंज़िल पर हमारी पांचवीं कक्षा का कमरा पूरी तरह उजाड़ नज़र आ रहा है। पूरे स्कूल में सिर्फ यही कमरा सड़क से नज़र आता था। इस कमरे में पूरा एक साल गुज़ारा है मैंने। मेरी सीट एकदम खिड़की के पास थी और मैं सारा समय नीचे बाज़ार की तरफ ही देखता रहता था। हमारी इस कक्षा पर ही नहीं बल्कि पूरे स्कूल पर ही पुरानेपन की एक गाढ़ी-सी परत जमी हुई है। पता नहीं भीतर क्या हाल होगा। गेट हमेशा की तरह बंद है। स्कूल के बाहर की किताबों की सारी दुकानें या तो बुरी तरह उदास नज़र आ रही हैं, या फिर उनकी जगह कुछ और ही बिकता नज़र आ रहा है।

स्कूल के आगे से गुज़रते हुए बचपन के सारे किस्से याद आते हैं।

पूरे बाज़ार में सभी दुकानों का नकशा बदला हुआ है। एक वक्त था जब मैं यहां से अपने घर तक आँखें बंद करके भी जाता तो बता सकता था, बाज़ार में दोनों तरफ किस-किस चीज़ की दुकानें हैं और उन पर कौन-कौन बैठा करते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता। एक भी परिचित चेहरा नजर नहीं आ रहा है। आये भी कैसे। सभी तो मेरी तरह उम्र के चौदह पड़ाव आगे निकल चुके हैं। अगर मैं बदला हूं तो और लोग भी तो बदले ही होंगे। वे भी मुझे कहां पहचान पा रहे होंगे। ये नयी सब्जी मंडी.. किशन चाचा की दुकान.. उस पर पुराना सा ताला लटक रहा है। ये मिशन स्कूल..। सारी दुकानें परिचित लेकिन लोग बदले हुए। सिंधी स्वीट शाप के तीन हिस्से हो चुके हैं। तीनों ही हिस्सों में अनजाने चेहरे गल्ले पर बैठे हैं।

अपनी गली में घुसते ही मेरे दिल की धड़कन तेज हो गयी है। पता नहीं इन चौदह बरसों में क्या कुछ बदल चुका होगा इस ढहते घर में .. या मकान में ...। पता नहीं सबसे पहले किससे सामना हो....गली के कोने में सतनाम चाचे की परचून की दुकान हुआ करती थी। वहां अब कोई जवान लड़का वीडियो गेम्स की दुकान सजाये बैठा है। पता नहीं कौन रहा होगा। तब पांच छः साल का रहा होगा। इन्दर के दरवाजे से कोई जवान-सी औरत निकल कर अर्जन पंसारी की दुकान की तरफ जा रही है। अर्जन चाचा खुद बैठा है। वैसा ही लग रहा है जैसे छोड़ कर गया था।

उसने मेरी तरफ देखा है लेकिन पहचान नहीं पाया है। ठीक ही हुआ। बाद में आ कर मिल लूंगा। मेरी इच्छा है कि सबसे पहले बेबे ही मुझे देखे, पहचाने।

अपनी गली में आ पहुंचा हूं। पहला घर मंगाराम चाचे का है। मेरे खास दोस्त नंदू का। घर बिलकुल बदला हुआ है और दरवाजे पर किसी मेहरचंद की पुरानी सी नेम प्लेट लगी हुई है। इसका मतलब नंदू वगैरह यहां से जा चुके है। मंगाराम चाचा की तो कोतवाली के पास नहरवाली गली के सिरे पर छोले भटूरे की छोटी-सी दुकान हुआ करती थी। उसके सामने वाला घर गामे का है। हमारी गली का पहलवान और हमारी सारी नयी शरारतों का अगुआ। उससे अगला घर प्रवेश और बंसी का। हमारी गली का हीरो - प्रवेश। उससे कभी नजदीकी दोस्ती नहीं बन पायी थी। उनका घर-बार तो वैसा ही लग रहा है। प्रवेश के घर के सामने खुशी भाई साहब का घर। वे हम सब बच्चों के आदर्श थे। अपनी मेहनत के बलबूते ही पूरी पढ़ाई की थी। सारे बच्चे दौड़- दौड़ कर उनके काम करते थे। सबसे रोमांचकारी काम होता था, सबकी नज़रों से बचा कर उनके लिए सिगरेट लाना। सिख होने के कारण मुझे इस काम से छूट मिली हुई थी।

अगला घर बोनी और बौबी का है। उनके पापा सरदार राजा सिंह अंकल। हमारे पूरे मौहल्ले में सिर्फ़ वहीं अंकल थे। बाकी सब चाचा थे। पूरी गली में स्कूटर भी सिर्फ उन्हीं के पास था।

ये सामने ही है मेरा घर......। मेरा छूटा हुआ घर .. ..। हमारा घर.. भाई हरनाम सिहां का शहतूतों वाला घर....। गुस्से में कुछ भी कर बैठने वाला सरदार हरनामा .... तरखाण .... हमारे घर का शहतूत...का पेड़..... हमारे घर.. .. हरनामे के घर की पहचान ...। तीन गली पहले से यह पहचान शुरू हो जाती.. ..। हरनामा तरखाण के घर जाना है? सीधे चले जाओ .. आगे एक शहतूत.. का पेड़ आयेगा। वही घर है तरखाण का ....। 14 मच्छी बाज़ार, देहरादून। घर को मोह से, आसक्ति से देखता हूं। घर के बाहर वाली दीवार जैसे अपनी उम्र पूरी कर चुकी है और लगता है, बस, आज कल में ही विदा हो जाने वाली है। टीन के पतरे वाला दरवाजा वैसे ही है। बेबे तब भी दारजी से कहा करती थी - तरखाण के घर टीन के पतरे के दरवाजे शोभा नहीं देते। कभी अपने घर के लिए भी कुछ बना दिया करो।

मै हौले से सांकल बजाता हूं। सांकल की आवाज थोड़ी देर तक खाली आंगन में गूंज कर मेरे पास वापिस लौट आयी है। दोबारा सांकल बजाता हूं। मेरी धड़कन बहुत तेज हो चली है। पता नहीं कौन दरवाजा खोले.... ।

- कोण है.. । ये बेबे की ही आवाज हो सकती है। पहले की तुलना में ज्यादा करुणामयी और लम्बी तान सी लेते हुए....

- मैं केया कोण है इस वेल्ले....। मेरे बोल नहीं फूटते। क्या बोलूं और कैसे बोलूं। बेबे दरवाजे के पास आ गयी है। झिर्री में से उसका बेहद कमज़ोर हो गया चेहरा नज़र आता है। आंखों पर चश्मा भी है। दरवाजा खुलता है। बेबे मेरे सामने है। एकदम कमज़ोर काया। मुझे चुंधियाती आंखों से देखती है। मेरे बैग की तरफ देखती है। असमंजस में पूछती हैं - त्वानु कोण चाइदा ऐ बाऊजी.. ..?

मैं एकदम बुक्का फाड़ कर रोते हुए उसके कदमों में ढह गया हूं, - बेबे.. बेबे.. मैंनू माफ कर दे मेरिये बेबे.... मैं मैं .. ।

मेरा नाम सुनने से पहले ही वह दो कदम पीछे हट गयी है.. हक्की-बक्की सी मेरी तरफ देख रही है। मैं उसके पैरें में गिरा लहक - लहक कर हिचकियां भरते हुए रो रहा हूं - मैं तेरा बावरा पुत्तर दीपू .. ..दीपू । मेरे आंसू ज़ार ज़ार बह रहे हैं। चौदह बरसों से मेरी पलकों पर अटकेध आंसुओं ने आज बाहर का रास्ता देख लिया है। बेबे घुटनों के बल बैठ गयी है.. अभी भी अविश्वास से मेरी तरफ देख रही है..। अचानक उसकी आंखों में पहचान उभरी है और उसके गले से ज़ोर की चीख निकली है, - ओये.. मेरे पागल पुत्तरा. तूं अपणी अन्नी मां नूं छड्ड के कित्त्थे चला गया सैं.. हाय हो मेरेया रब्बा। तैनूं असी उडीक उडीक के अपणियां अक्खां रत्तियां कर लइयां। मेरेया सोणेया पुत्तरां। रब्ब तैनूं मेरी वी उम्मर दे देवे। तूं जरा वी रैम नीं कित्ता अपणी बुड्डी मां ते के ओ जींदी है के मर गयी ए...।

वह आंसुओं से भरे मेरे चेहरे को अपने दोनों कमज़ोर हाथों में भरे मुझे स्नेह से चूम रही है। मेरे बालों में हाथ फेर रही है और मेरी बलायें ले रही है। उसका गला रुंध गया है। अभी हम मां-बेटे का मिलन चल ही रहा है कि मौहल्ले की दो-तीन औरतें बेबे का रोना - धोना सुन कर खुले दरवाजे में आ जुटी हैं। हमें इस हालत में देख कर वे सकपका गयी हैं।

बेबे से पूछ रही है - की होया भैंजी .. सब खैर तां है नां....!!

- तूं खैर पुछ रई हैं विमलिये ..अज तां रब्ब साडे उत्ते किन्ना मेहरबान हो गया नीं। वेखो वे भलिये लोको, मेरा दीपू किन्ने चिर बाद अज घर मुड़ के आया ए। मेरा पुत्त इस घरों रेंदा कलप्दा गया सी ते अज किन्ने चिर बाद वल्ल के आया ए। हाय कोई छेत्ती जाके ते इदे दारजी नूं ते खबर कर देवो। ओ कोई जल्दी जा के खण्ड दी डब्बी लै आवे। मैं सारेयां दा मूं मिट्ठा करा देवां। ... आजा वे मेरे पुत्त मैं तेरी नजर उतार दवां .। पता नीं किस भैड़े दी नज्जर लग गई सी।

हम दोनों का रो-रो कर बुरा हाल है। मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं फूट रहा है। इतने बरसों के बाद मां के आंचल में जी भर के रोने को जी चाह रहा है। मैं रोये जा रहा हूं और मोहल्ले की सारी औरतें मुंह में दुपट्टे दबाये हैरानी से मां बेटे का यह अद्भुत मिलन देख रही हैं। किसी ने मेरी तरफ पानी का गिलास बढ़ा दिया है। मैंने हिचकियों के बीच पानी खत्म किया है।

खबर पूरे मोहल्ले में बिजली की तेजी से फैल गयी है। वरांडे में पचासों लोग जमा हो गये हैं। बेबे ने मेरे लिए चारपाई बिछा दी है और मेरे पास बैठ गयी है। एक के बाद एक सवाल पूछ रही है। अचानक ही घर में व्यस्तता बढ़ गयी है। सब के सब मेरे खाने पीने के इंतजाम में जुट गये हैं। कभी कोई चाय थमा जाता है तो कोई मेरे हाथ में गुड़ का या मिठाई का टुकड़ा धर जाता है। मेरे आसपास अच्छी खासी भीड़ जुट आयी है और मेरी तरफ अजीब - सी निगाहों से देख रही है। कुछेक बुजुर्ग भी आ गये हैं। बेबे मुझे उनके बारे में बता रही है। मैं किसी - किसी को ही पहचान पा रहा हूं। किसी का चेहरा पहचाना हुआ लग रहा है तो किसी का नाम याद - सा आ रहा है।

मोहल्ले भर के चाचा, ताए, मामे, मामियां वरांडे में आ जुटे हैं और मुझसे तरह -तरह के सवाल पूछ रहे हैं। मुझे सूझ नहीं रहा कि किस बात का क्या जवाब दिया जाये। मैं बार-बार किसी न किसी बुजुर्ग के पैरों में मत्था टेक रहा हूं। सब के सब मुझे अधबीच में ही गले से लगा लेते हैं। मुझे नहीं मालूम था मैं अभी भी अपने घर परिवार के लिए इतने मायने रखता हूं।

तभी बेबे मुझे उबारती है - वे भले लोको, मेरा पुत्त किन्ना लम्बा सफर कर के आया ए। उन्नू थोड़ी चिर अराम करन देओ। सारियां गल्लां हुणी ता ना पुच्छो !! वेखो तां विचारे दा किन्ना जेयां मूं निकल आया ए..।

बेबे ने किसी तरह सबको विदा कर दिया है लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं। कोई ना कोई कुण्डी खड़का ही देता है और मेरे आगे कुछ न कुछ खाने की चीज रख देता है। हर कोई मुझे अपने गले से लगाना चाहता है, अपने हाथों से कुछ न कुछ खिलाना ही चाहता है। फिर ऊपर से उनके सवालों की बरसात। मेरे लिए अड़ोस-पड़ोस की चाचियां ताइयां दसियों कप चाय दे गयी है और मैंने कुछ घूंट चाय पी भी है फिर भी बेबे ने मेरे लिए अलग से गरम -गरम चाय बनायी है। मलाई डाल के। बेबे को याद रहा, मुझे मलाई वाली चाय अच्छी लगती थी। बचपन में हम तीनों भाइयों में चाय में मलाई डलवाने के लिए होड़ लगती थी। दूध में इतनी मलाई उतरती नहीं थी कि दोनों टाइम तीनों की चाय में डाली जा सकेध। बेबे चाय में मलाई के लिए हमारी बारी बांधती थी।

बेबे पूछ रही है, मैं कहां से आ रहा हूं और क्या करता हूं। बहुत अजीब-सा लग रहा है ये सब बताना लेकिन मैं जानता हूं कि जब तक यहां रहूंगा, मुझे बार बार इन्हीं सवालों से जूझना होगा। बेबे को थोड़ा-बहुत बताता हूं कि इस बीच क्या क्या घटा। मैंने अपनी बात पूरी नहीं की है कि बेबे खुद बताने लगी है - गोलू तां बारवीं करके ते पक्की नौकरी दी तलाश कर रेया ए। कदी कदी छोटी मोटी नौकरी मिल वी जांदी ए ओनूं। अज कल चकराता रोड ते इक रेडिमेड कपड़ेयां दी हट्टी ते बैंदा ए ते पन्दरा सोलां सौ रपइये लै आंदा ए। अते बिल्लू ने तां दसवीं वीं पूरी नीं कित्ती। कैंदा सी - मेरे तें नीं होंदी ए किताबी पढ़ाई.. अजकल इस सपेर पार्ट दी दुकान ते बैंदा ऐ। उन्नू वी हजार बारा सौं रपइये मिल जांदे हन। तेरे दारजी वी ढिल्ले रैंदे ने। बेशक तैंनू गुस्से विच मार पिट के ते घरों कड दित्ता सी पर तैनूं मैं की दस्सां, बाद विच बोत रोंदे सी। कैंदे सी...। अचानक बेबे चुप हो गयी है। उसे सूझा नहीं कि आगे क्या कहे। उसने मेरी तरफ देखा है और बात बदल दी है। मैं समझ गया हूं कि वह दारजी की तरफदारी करना चाह रही थी लेकिन मेरे आगे उससे झूठ नहीं बोला गया। लेकिन मैं जानबूझ कर भी चुप रहता हूं। बेबे आगे बता रही है - तैंनू असीं किन्ना ढूंढेया, तेरे पिच्छे कित्थे कित्थे नीं गये, पर तूं तां इन्नी जई गल ते साडे कोल नराज हो के कदी मुढ़ के वी नीं आया कि तेरी बुड्डी मां जींदी ए की मर गई ए। मैं तां रब्ब दे अग्गे अठ अठ हंजू रोंदी सी कि इक वारी मैंनू मेरे पुत्त नाल मिला दे। मैं बेबे की बात ध्यान से सुन रहा हूं। अचानक पूछ बैठता हूं - सच दसीं बेबे, दारजी वाकई मेरे वास्ते रोये सी? वेख झूठ ना बोलीं। तैनूं मेरी सौं।

बेबे अचानक घिर गयी है। मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखती है। उसकी कातर निगाहें देख कर मुझे पछतावा होने लगता है - ये मैं क्या पूछ बैठा !! अभी तो आये मुझे घंटा भर भी नहीं हुआ, लेकिन बेबे ने मुझे उबार लिया है और दारजी का सच बिना लाग लपेट के बयान कर दिया है। यह सच उस सच से बिलकुल अलग है जो अभी अभी बेबे बयान कर रही थी। शायद वह इतने अरसे बाद आये अपने बेटे के सामने कोई भी झूठ नहीं बोलना चाहती। वैसे भी वह झूठ नहीं बोलती कभी। शायद इसीलिए उससे ये झूठ भी नहीं बोला गया है या यूं कहूं कि सच छुपाया नहीं गया है।

बेबे अभी दारजी के बारे में बता ही रही है कि मैंने बात बदल दी है और गुड्डी के बारे में पूछने लगता हूं। वह खुश हो कर बताती है - गुड्डी दा बीए दा पैला साल है। विच्चों बिमार पै गई सी। विचारी दा इक साल मारेया गया। कैंदी ए - मैं सारियां दी कसर कल्ले ई पूरी करां गी। बड़ी सोणी ते स्याणी हो गई ए तेरी भैण। पूरा घर कल्ले संभाल लैंदी ए। पैले तां तैनूं बोत पुछदी सी..फेर होली होली भुल गयी..। बस कालेजों आंदी ही होवेगी।

मुझे तसल्ली होती है कि चलो कोई तो पढ़ लिख गया। खासकर गुड्डी को दारजी पढ़ा रहे हैं, यही बहुत बड़ी बात है। अभी हम गुड्डी की बात कर ही रहे हैं कि ज़ोर से दरवाजा खुलने की आवाज आती है। मैं मुड़ कर देखता हूं। सफेद सलवार कमीज में एक लड़की दरवाजे में खड़ी है। सांस फूली हुई। हाथ में ढेर सारी किताबें और आंखों में बेइन्तहां हैरानी। वह आंखें बड़ी बड़ी करके मेरी तरफ देख रही है। मैं उसे देखते ही उठ खड़ा होता हूं - गुड्डी ..! मैं ज़ोर से कहता हूं और अपनी बाहें फ ठला देता हूं।

वह लपक कर मेरी बाहों में आ गयी है। उसकी सांस धौंकनी की तरह तेज चल रही है। बहुत जोर से रोने लगी है वह। बड़ी मुश्किल से रोते रोते - वीर.. . जी.... वीर जी.. ..! ही कह पा रही है। मैं उसके कंधे थपथपा कर चुप कराता हूं। मेरे लिए खुद की रुलाई रोक पाना मुश्किल हो रहा है। बेबे भी रोने लगी है।

बड़ी मुश्किल से हम तीनों अपनी रुलाई पर काबू पाते हैं। तभी अचानक गुड्डी भाग कर रसोई में चली गयी है। बाहर आते समय उसके हाथ में थाली है। थाली में मैली, चावल और टीके का सामान है। वह मेरे माथे पर टीका लगाती है और मेरी बांह पर मौली बांधती है। उसकी स्नेह भावना मुझे भीतर तक भिगो गयी है। बेबे मुग्ध भाव से ये सब देखे जा रही है। गुड्डी जो भी कहती जा रही है, मैं वैसे ही करता जा रहा हूं। जब उसने अपने सभी अरमान पूरे कर लिये हैं तो उसने झुक कर पूरे आदर के साथ मेरे पैर छूए हैं।

मैं उसके सिर पर चपत लगा कर आशीषें देता हूं और भीतर से बैग लाने के लिए कहता हूं। वह भारी बैग उठा कर लाती है। उसके लिए लाये सामान से उसकी झोली भर देता हूं। वह हैरानी से सारा सामान देखती रह जाती है - ये सब आप मेरे लिए लाये हैं।

- तुझे विश्वास नहीं है?

- विश्वास तो है लेकिन इतना खरचा करने की क्या जरूरत थी? उसने वाकॅमैन के ईयर फोन तुरंत ही कानों से लगा लिये हैं।