दौड़ / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
(दौड़ / जयश्री राय से पुनर्निर्देशित)
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आई को पुकारते हुये रघु जानता था, वह कहाँ मिलेगी- हमेशा की तरह पूरब वाले खेत की आल पर! समझा कर हार गया कि अब वह अपना खेत नहीं रहा मगर वह सुने तब ना! उस ज़मीन के हथेली भर टुकडे में उसकी ज़िंदगी के पच्चीस साल दफ्न हैँ- आषाढ के अनवरत झडते दिन, शीत की कनकनाती रातेँ, ग्रीष्म की सीझी हुईँ सुबह-शाम... यही गढ़ी है वह, उसकी आत्मा- जन्म भर के लिये! अब कहीँ जायेगी भी तो कहाँ! बाबा कहते थे, माटी का मोह अपने शरीर के मोह से ज़्यादा प्रचंड होता है बेटा। देह छूट जाये मगर किसान की जमीन नहीं! बाबा की बात तब समझ में नहीं आई थी...

आई के कंधे पकड कर वह हिलाता है तो आई जागती है जैसे। झेंपती हुई-सी उठ खडी होती है- देख ना रघु! कनाल के पार वाले नीलम के नीचे कितनी कैरिया गिरी हैं! कोई उठानेवाला नही!

गिरने दो, हमें क्या! जिनकी ज़मीन-बाडी है, वह सम्हाले... बडी भूख लगी है, तू घर चल।"रघु आई को खींचते हुये चल पडता है। सांझ की आखिरी रोशनी कनाल पर चमक रही है। हवा में तिर-तिर कांपता पानी स्याह लाल है। पश्चिम की ओर, जहाँ क्षितिज स्लेटी हो गया है, उडते हुये पंछी छोटे-छोटे बिंदुओँ की तरह दिख रहे थे। शिवाजी राव, राघोवा चव्हाण और महादेव गवंडी के खेत पार कर वे राष्ट्रीय राजमार्ग पर चढ आये थे। यहाँ से सडक दूर तक दिखती है, अंत में आकाश में समाती हुई-सी. सडक की दूसरी तरफ उनका गांव था। सत्तर-अस्सी लोगोँ का छोटा-सा गांव- नांदीपुरा! इस समय सुलगते हुये चूल्होँ के धुयेँ से लगभग अदृश्य। सामने राजमार्ग के आखिरी छोर से दौड कर आते हुये वाहनोँ की अनगिनत रोशनी के धब्बे चमक कर तेज़ी से फैलते हुये आंखेँ चौंधिया रहे थे। जब सामने से कोई वाहन गुज़रता, एक तेज़ सनसनाहट के साथ दोनोँ के कपडे अस्त-व्यस्त हो जाते। किसी तरह माथे का पल्लू सम्हाले अपने बेटे का हाथ पकड कर सडक पार करते हुये आई ने जाने कैसी आवाज़ में कहा था- खेती के मौसम में ऐसे हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहा जाता रघुआ! बचपन की आदत है... उनके बाकी के शब्द बगल से गुजरती किसी ट्रक के शोर में खो गये थे।"जिस जमीन में हाड़ गलाये, प्राण रोपे..." आई फिर शुरु होने लगी थी मगर रघु ने सुन कर भी नहीं सुना था। अब वह इन सब बातोँ से आगे निकल जाना चाहता था। क्या रखा है इनमें? कुछ भी तो नहीं! गुज़ार लिये साल-महीने, ज़िंदगी का एक बहुत बडा हिस्सा। सब फिजूल गया। कभी कुछ लौट कर नहीं आयेगा...

गांव की कच्ची सडक धूल से अंटी पडी है। मवेशी अब भी घर लौटते हुये सोसियाते हुये आसपास से गुज़र रहे हैँ। हवा में ताज़े गोबर और सूखी कूटी की गन्ध है। दूर तुकाराम के कुयेँ के पास दो बैल दोपहर से लड़ रहे हैँ। अब भी एक-दूसरे से सिंग भिड़ाये खड़े हैँ। उन्हेँ अलग करने की कोशिश करके गांव वाले हार गये। "पूरी दुनिया का यही हाल है... जिसे देखो बस लड़े जा रहे हैँ..." आई धीरे-धीरे बड़बड़ाती है। उनकी आवाज़ में खंडहर गूँजता है। जाने उनके भीतर का भराव कहाँ गया! बाबा के बाद इस तरह खोखली हो गई... जाने वाला कभी अकेला कहाँ जाता है!

घर लौट कर आई ने हाथ-पैर धो कर तुलसी चौरे पर दीया जलाया था। तुलसी के सामने झुकी आई का दीये की लौ में चमकता सूना माथा रघु को दहशत से भर देता है। वह उसकी ओर देखने से बचता है। बचपन से जिस माथे पर हमेशा सिक्के भर का टीका देखा है, मांग भर सिंदूर देखा है, वहाँ बंजर खेत-सी वीरानी... अब आई आई नहीं लगती, कोई और लगती है! चूना, रंग झडा हुआ कोई भुतैला घर! जाने सारा लावण्य कहाँ निचुड़ गया!

मंदा और भाग्या आंगन के एक कोने में चटाई बिछा कर लालटेन की रोशनी में पढ रही थीं। नीलांगी गाय के लिये नाद में पानी भर रही थी। बगल की झोंपड़ी में विनायक धोंड एकतारा बजा कर संत ज्ञानेश्वर के भजन गा रहा था। हर रोज़ दिन भर खेत में काम करने के बाद रात को वह इसी तरह अपने आंगन में बैठ कर भजन गाता था। रघु महसूस करता है, उसकी आवाज़ में कितना सुकून और यकीन है! जाने वह यह सुकून अपने भीतर कहाँ से लाता है! उसे भी इस यकीन की बहुत ज़रुरत है। कई बार उसके भजन सुनते हुये रघु को नींद आ जाती थी।

आई ने गरम पानी में नाशनी गूंथ कर बड़ी परात जैसे तवे पर भाखरी बनायी थी। लहसन, नारियल की सूखी चटनी और प्याज के साथ भाखरी खाते हुये रघु चुप रहा था। आई भी। आज कल वह बात करते हुये कतराता है, आई समझती है। मगर वह क्या करे! इतना सारा कुछ इकट्ठा हो गया है भीतर- राख से भरे हुये चूल्हे की तरह! कुंद हो कर रह गई है। सांस नहीं ली जाती। ये निरंतर कहना खुद को हल्का करना है। वह खुद भी कहाँ समझती है! सबकी तरह उसे भी लगता है, वह सठिया रही है। गरीबी में रोग का प्रकोप उम्र गिन कर नहीं आता।

उसे जो उम्मीदेँ हैँ अपने इकलौते बेटे से ही है। बेटियाँ समझदार हैँ मगर अभी छोटी हैं। बड़ी बेटी नीलांगी तेरह बरस की है, दूसरी मंदा नौ और छोटी वाली छ्ह बरस की। नीलांगी पांचवी तक पढ़ कर घर में उसका हाथ बंटाती है और मंदा, भाग्या सरकारी बालबाड़ी में जाती है। बालबाड़ी की बहन जी कहती हैं बेटी को पढ़ाओ, तो पढ़ा रही है। ना पढ़े तो करे भी क्या! तीन साल हो गये पाँव के नीचे जमीन नहीं रही। होती तो ये छोटे-छोटे हाथ भी कुछ काम आ जाते। बेकार बैठने से अच्छा है पट्टी पर खल्ली घीसे। दिमाग में दो शब्द के साथ पेट में अन्न के दो दाने भी पड़े। वहाँ दोपहर का खाना मिलता है! सड़ा-गला खा कर महीने-दो महीने में बच्चे कई बार बीमार पड़ते हैँ, फिर भी, यह बहुत बड़ा आसरा है...

आई रघु से एक और भाखरी के लिये पूछती है मगर वह मना कर देता है। हमेशा की तरह कहता है कि दोस्त के घर से शीरा खा कर आया है। आई जानती है, रघु झूठ बोल रहा है। उसके लिये आखिरी बची हुई भाखरी के वह दो टुकडे नहीं करना चाहता... बचपन में रघु के कई बार झूठ बोलने पर उसने उसे पीटा था, आज बस छिप कर अपने आँसू पोंछती है- कितना समझदार हो गया है वह! भीगी आंखोँ से वह अपने बेटे को एक साथ दो गिलास पानी पीते हुये देखती है। मंदा अपनी भाखरी से एक टुकड़ा कल सुबह के लिये बचा कर रखती है। शाला जाते हुये कुट्टी चाय के साथ खायेगी। भाग्या अपनी पूरी भाखरी खा जाती है। आधी भाखरी पर वह पूरी रात गुज़ार नहीं पाती।

रात की हवा भी अब गर्म होने लगी है। पलास के फूलोँ से जंगल सुलग उठा है। घाटियोँ से उतर कर पानी पीने के लिये मोर छोटे बांध तक आने लगे हैँ। सुबह-शाम उनके केंका से वन-प्रांतर गूंज रहा है। कल खेत की मेड़ पर दो साही अपने कांटे तान कर घूमते फिर रहे थे। ढेला मारा तो झम्मक-झम्मक भागे। आज कल हाईवे पर कछुआ और खरगोश भी सड़क पार करते हुये मारे जा रहे हैं। मंदा, भाग्या बेली या चमेली के गजरे ले कर अक्सर वहाँ बेचने के लिये खड़ी रहती हैँ। उस दिन एक घायल गिलहरी उठा लाई थीँ घर में

रघु ने अपनी चटाई आंगन में सहजन के पेड के नीचे लगा लिया था। तीनोँ बहने और आई रसोई के बरामदे में एक साथ सोई थी। रसोई की दीवार पर कतार से सूखते कंडे काले टीके-से चमक रहे थे। गर्मी में कोई समस्या नहीं मगर बारिश में बहुत तकलीफ होती है। छत हर जगह से रिसती है, आंगन, गली कीचड़ से भर जाता है। सामने वाली सदर दरवाज़े की दीवार अगली बारिश झेल नहीं पायेगी। रघु सोचता है और सोचता है। उसके पास किसी बात का हल नहीं। बस ज़रुरतोँ का पुलिंदा है और सर दर्द है। आई उससे कभी कुछ कहती नहीं मगर जाने किन नज़रोँ से देखती है। उसे वे आंखेँ सहती नहीं। कहीँ से बहुत छोटा कर देती हैँ। वह उनसे दूर रहने की कोशिश करता है। सारा-सारा दिन घर से बाहर रहता है, इधर-उधर बेमकसद फिरता है, मगर वे आंखेँ उसके पीछे लगी रहती हैँ।

कभी-कभी उसे चिढ होती है। क्योँ आई उससे इतनी उम्मीद करती है? किस काबिल है वह! उन्नीस साल उमर है उसकी। बी. ए. प्रथम वर्ष में पढ़ता है। बाबा की आक्समिक मौत ने उसे रातोँ रात बदल दिया है। दुनिया के साथ-साथ आई भी उसकी ओर देखने लगी है। उसकी कातर आंखेँ, दयनीय हाव-भाव... बाबा के बाद वह अपना सारा आत्मविश्वास खो चुकी है। काश कि वह समझ पाती, उसका बेटा अब भी इतना बड़ा नहीं हुआ है कि इस दुनिया का सामना कर सके. उसे भी डर लगता है, अब भी संकट में उसे आई की ज़रुरत महसूस होती है... सोचते हुये रघु चुपचाप रोता रहा था। आज कल वह अक्सर रोता है। खास कर रातोँ को। रोने के लिये उसे रात होने का इंतज़ार करना पड़ता है। दिन को वह औरोँ को चुप कराता है। वह घर का अकेला मर्द है। उसे रोना शोभा नहीं देता। कर्ज के बोझ से घबरा कर बाबा ने इस तरह से आत्महत्या कर उसे और पूरे परिवार को किस मुसीबत में डाल दिया!

दो साल पहले आया सूखा उनकी ज़मीन ही नहीं, ज़िंदगी को भी हमेशा के लिये बंजर कर गया था। बाबा ने सूरजमुखी की खेती के लिये बैंक से कर्ज़ लिया था। पूरे परिवार ने मिला कर खूब मेहनत की थी। उस साल अच्छी बारिश होने की बात थी। खेत तैयार करके सब आसमान की तरफ देखते रहे थे मगर अचानक जाने क्या हुआ था- जब फूल के पौधोँ को सबसे ज़्यादा पानी की ज़रुरत थी, सारे बादल आसमान से गायब हो गये थे। सुनहरे फूलोँ से लदने वाली डालियाँ धीरे-धीरे सूख कर काली हो गई थीं, झड़ कर विदर्भ की काली मिट्टी में मिल गई थीँ... उन दिनों बाबा सुबह से शाम तक क्षितिज की ओर टकटकी लगाये खेत की मेड़ पर बैठे रहते थे। बड़ी मुश्किल से उन्हेँ रात गिरते-गिरते घर लाया जाता था। कभी-कभी बीच रात को उठ कर आंगन में निकल कर आसमान की ओर देखने लगते थे या कान पर हाथ रख कर पूछने लगते- सुना क्या रघु की आई, बादल गरज रहे हैँ... आज पानी बरसेगा...

ज़मीन फट कर टुकड़े-टुकड़े हो गई, औँधे पड़े चूल्हे की तरह से आकाश से गर्म राख झड़ता रहा, हरियाली सूख कर पेड़ों के कंकाल निकल आये। बाबा ने अब रात दिन बड़बड़ना शुरु कर दिया- अब क्या होगा रघु की आई? हम तो बर्बाद हो जायेंगे... आई बिना कुछ बोले अपने खाँसते हुये पति की पीठ सहलाती रहती। रघु सर झुकाये दालान के एक कोने में बैठा रहता। तीनोँ बहने एक-दूसरे से लगी दूसरे कोने में। बीच में पकती भूख, शंका, विवशता... उन दिनों रात-दिन खूब लम्बे हो गये थे।

जिस दिन बैंक से ज़मीन, घर जब्त कर लिये जाने का नोटिस आया, बाबा रघु से नोटिस पढ़वा कर देर तक बिना कुछ बोले बैठे रहे थे। उस रात बाबा जाने कब घर से निकल कर खेत पर चले गये थे। सुबह उनकी लाश खेत के बीचो-बीच पडी मिली थी- ज़हर से नीली! उन्होँने खेत में इस्तेमाल की जाने वाली पेस्टीसाइट खा ली थी शायद। उस दिन खूब पानी बरसा था। अचानक काले-काले बादलोँ से आकाश भर गया था और तेज़ हवा और गरज के साथ झमाझम पानी बरसा था। जब तक पुलिस पंचनामा करके ना ले गई थी, उस दिन काली मिट्टी के कीचड़ से लिथड़ी बाबा की लाश शाम तक खेत में पड़ी रही थी। उस समय भी उनकी आंखेँ आकाश को ही तक रही थीं...

आई चाहती थी, आकाश को नोंच कर उतार ले, बादलोँ के टुकड़े-टुकड़े कर डाले, मगर कुछ नहीं कर पाई थी। अपनी छाती मसलती बैठी रह गई थी। रो भी नहीं पाई थी। उसकी आँख के आंसू भी सूख गये थे। आज भी कभी-कभी कहती है- मेरा तेरे बाबा के लिये रोना रह गया है रघुआ! ऊपर जाऊंगी तो वह पूछेंगे, रघु की आई! तेरे पास भी मेरे लिये दो बूँद पानी नहीं था!

बाबा के मरने के बाद दो दिन खूब हो-हल्ला हुआ था। स्थानीय टी वी चैनल वाले, अखबार वाले आये थे। आई और पूरे परिवार को आंगन में बाबा के फोटो के साथ बैठा कर तस्वीर खींची थी। आई के रोने पर टी वी के एक संवाददाता ने अपने कैमरा मैन को एक विशिष्ट एंगल से आई की तस्वीर लेने के लिये कहा था। स्थानीय विधायक और नेता, विपक्ष भी आये थे। चारोँ तरफ से सहानुभूति, दया, करुणा की बारिश-सी होने लगी थी। थोड़े समय के लिये तो रघु को यह सब अच्छा लगने लगा था। लगा था वे अचानक विशिष्ट हो गये हैं। इंटरव्यु आदि देने के चक्कर में बाबा के लिये शोक मनाना भी भूल गया था। अब वह साफ-धुले कपड़े में मीडिया वालोँ के लिये तैयार रहता। बाबा की एक तस्वीर को अच्छे फ्रेम में बंधवा लिया था। कुछ दिन गांव में उत्सव का-सा माहौल हो गया था। अखबार-टीवी वाले आते, उनकी बडी-बडी गाड़ियाँ, कैमरे, फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलते पत्रकार, महिला पत्रकारोँ की काजल लिसरी आँखेँ, फेडेड जींस, खादी की कुर्ती...एक बार उसके कपडे, बने हुये बाल देख कर एक पत्रकार ने इंटरव्यु से पहले कहा था- नहीं! यह नहीं चलेगा! अपना हुलिया बिगाडो, अपने बाबा के कपड़े पहनो... यु डोंट रीप्रेजेंट द पोवर्टी स्ट्रिकेन फेस आफ रूरल इंडिया... वह सकपका गया था। इतने सारे लोग, लाईट के सामने वह इतना 'इमोशन' कहाँ से लाता जिसके लिये टीवी एंकर बार-बार चिल्ला रही थी! आज जब कोई भीड़ नहीं, कैमरा नहीं, वह अकेला रह गया है अपने दुख के साथ, खूब रोना आता है। दुख को उसका अँधेरा कोना चाहिये, मरघट का एकांत चाहिये... अब ये सब कुछ है और उसका दुख भी है।

उसका पढाई में मन नहीं लगता मगर पढ़ता है। अब जो ज़मीन नहीं, पढाई का ही आसरा है। रोज पांच किलोमीटर साइकिल चला कर कालेज जाता-आता है, मोटी किताबोँ में सर खपाता है। मास्टरजी ठीक ही कहते थे, अगर कुछ बेहतर ना कर सको तो खाली पास क्लास में बी. ए., एम. ए. करके कोई फायदा नहीं। ये थर्ड क्लास की डिग्रियां तुम्हारे गले का ढोल बन जायेंगी। इसलिये वह मन लगा कर पढ़ता है। उसे अपने ही भविष्य के बारे में नहीं, अपने पूरे परिवार के बारे में सोचना है- आई, तीनोँ बहने... कितनी जल्दी बड़ी हो रही हैँ! नीलांगी की तो शादी की उम्र भी हो चली... अगले तीन महीने में 14 की हो जायेगी! आई हर दूसरे दिन उसे याद दिलाती है। वह सुना कर आतंकित होता रहता है। जिस घर की हर कोठरी सूनी हो और रसोई के डिब्बे-बर्तन खाली, वहाँ शादी-उत्सव के प्रसंग भी शोक की बातेँ लगते हैँ।

बाबा के बाद उसके जीवन की छोटी-छोटी खुशियाँ एक-एक कर चली गयी हैं। बैशाख का मेला, गणेश चतुर्थी... उनके रहते कुछ था ना था, निश्चिंतता थी! तब खुला आकाश भी छत लगता था। अब तो छत भी आश्रय नहीं देती... नहर में नहाने में, मछली पकड़ने में, खेत में बिना बैट-बॉल के क्रिकेट खेलने में... उन दिनों लगता था, हर चाहे को पाया जा सकता है। उर्मि को भी! उर्मि भोंसले! - गांव के सरपंच की एकलौती बेटी. पूनम के चाँद-सी गोरी, सुंदर! दोस्त मज़ाक करते थे- सरपंच की बेटी, ऊपर से जात की मराठा! और तू... मगर वह उनकी बातोँ से निराश नहीं होता- आजकल जात-पात कोई मायने नहीं रखता। फिर उर्मि ने मुझे खुद कहा था, वह इन बातोँ में यकीन नहीं करती।

दोनोँ गांव के दूसरे बच्चोँ के साथ सालोँ एक साथ स्कूल जाते रहे थे। उन धूल भरी पगडंडियोँ की बहुत सारी खूबसूरत यादेँ इकट्ठी हैँ उसके पास- बाँध के पानी से खेलना, ईमली-कैरी तोडना, खेतोँ से भुट्टे चुराना... उन दिनों वह कई बार चोरी-चोरी उर्मि को निहारता था। उर्मि जानती थी मगर अनजान बनी रहती थी। एक दिन उसने किसी बात पर उर्मि से कहा था- मैँ छोटी जात का हूँ, तू जानती है ना? जवाब में उर्मि ने आँखोँ में आँसू भरकर कहा था- मुझे इससे कोई मतलब नहीं! मेरे लिये तू सिर्फ रघु है... उर्मि की उसी बात की पूंजी लिये वह आज भी बैठा है। जाने उसने उसमें कैसा आश्वासन महसूस किया था...

अब रघु के बहुत सारे दोस्त नहीं। दो-चार ही रह गये हैँ। बबलू उनमँ से एक है। कभी-कभी वह उसके घर चला जाता है। उसकी माली हालत ठीक है। बाप सरकारी नौकरी करता है। एक दिन उसके मामा ने रघु से कहा था वह महाराष्ट्र पुलिस में हवलदार पद के लिये आवेदन पत्र दे दे। वैकेंसी निकली है। वे खुद पुलिस में थे। बबलू ने उसे नेट पर महाराष्ट्र पुलिस में नौकरी का विज्ञापन दिखाया था- नागपुर, चन्द्रपुर, पुने में हज़ार पद, धुले में एक सौ बीस, अमरावती, जालना - सब मिला कर छह हज़ार वैकेंसियां! पच्चीस मई तक आवेदन देना था। उम्र सीमा अट्ठारह से पच्चीस वर्ष तक थी। रघु अभी उन्नीस का ही था। मामाजी ने कहा था रघु को बड़े आराम से नौकरी मिल सकती है। फिर ओ बी-सी होने का भी उसे फायदा मिलेगा। आन लाईन आवेदन पत्र उपलब्ध था। बबलू ने पच्चीस रुपये महाराष्ट्र ई सेवा सेंटर या शायद इन्टरनेट बैंकिंग के ज़रिये चुका कर उससे आवेदन पत्र भरवाया था। आवेदन पत्र जमा करके ही रघु को लगा था जैसे उसे नौकरी मिल गई है। उस दिन वह उड़ते हुये अपने घर पहुंचा था। आई से दुनिया जहान की बातें की थी और सारी रात दालान पर लेट कर ढेर सारे सपने देखे थे। सपनों को उम्मीदों के पंख लगते ही वह सातों आसमान छू आये थे। नौकरी लगते ही वह बहन की शादी कर पायेगा, घर की मरम्मत और आई का ईलाज भी। हवलदार बनने पर उसे रोबीला दिखना चाहिये। आज ही से वह अपनी मूंछे बढ़ानी शुरु कर देगा। हवलदार... हवलदार साहब! सोचते हुये उसके मन में अजीब-सी गुदगुदी होती है। कभी अपनी वर्दी में वह उर्मि से मिलने जायेगा। सोचते हुये वह कल्पना करने की कोशिश करता है कि उसे वर्दी में देख कर उर्मि के चेहरे पर कैसे भाव आयेंगे। एकदम सकते में आ जायेगी वह तो! उस रात नींद में भी वह मुस्कराता रहा था।

कुछ ही दिनों में उसके आवेदन पत्र स्वीकृत होने की सूचना आई थी। साथ ही उसे एक क्रमांक संख्या भेजा गया था। पुलिस विभाग लिखित परीक्षा और इंटरव्यु के दिन की घोषणा प्रमुख समाचार पत्रों में जल्द ही करने वाला था। वह रोज़ बबलू के मामा के पास जा कर इस नौकरी के बाबद पूछताछ कर आता था। उन्होंने बताया था लिखित परीक्षा राज्य के विभिन्न सेंटरों मंर ली जायेगी। ७५ अंक के पेपर होंगे। पहला रीज़निंग और लॉजिक, दूसरा सामान्य विज्ञान तथा करेंट अफेयर्स, तीसरा इतिहास, भूगोल, संस्कृति और कला। ओ बी-सी उम्मीदवारों के लिये परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये ४० प्रतिशत अंक प्राप्त करना पर्याप्त था।

यह थोड़े-से दिन उससे काटे नहीं कट रहे थे। मामाजी ने कहा था, शारीरिक परीक्षायें बहुत कठिन होती हैं। उसे व्यायाम बगैरह करना चाहिये। पौष्टिक आहार लेना चाहिये। सुन कर आई ने घर की अकेली बकरी का सारा दूध उसे पिलाना शुरु कर दिया था। साथ में नाशनी का दूध भी। अब वह सुबह उठते ही मैदानों में दौड़ लगाता। मामाजी ने ही बताया था, पांच किलोमीटर की दौड़ लगानी है वहां। सूरज के गर्म होते-होते वह घर लौट आता और नाशनी की रोटी, मूंगफली की चटनी या लहसून की चटनी के साथ एक गिलास बकरी का गर्म दूध पी जाता। सारा दिन किताबों में भी डूबा रहता। जाने इंटरव्यु में क्या-क्या पूछते हैं। तैयारी पूरी होनी चाहिये। उसका सामान्य ज्ञान बहुत कमज़ोर है। उन्नीस साल तक तो इस इलाके के ५-६ किलोमीटर की परिधि में ही चक्कर लगाता रहा है। इसके बाहर की दुनिया उसके लिये किस्से-कहानियां जैसी ही है! फ़िल्मों और टी वी में दिखायी जाने वाली ज़िन्दगियां जाने किस ग्रह-नक्षत्र की होती हैं...

वह हर समय या तो आने वाले अच्छे दिनों के दिवा स्वप्न में डूबा रहता या किताबों में सर डाले बैठा रहता। आई के बहुत बोलने पर किसी तरह उठ कर नहा-खा लेता। जब लिखित परीक्ष की तिथि की घोषणा हुई, वह अपने पास के सेंटर में जा कर परीक्षा दे आया था। मामाजी भी उसके साथ गये थे। उसके सारे पेपर बहुत अच्छे गये थे और उसे पूरा विश्वास था कि वह अच्छे अंकों से पास होगा। इसके बाद के दिन बहुत बेचैनी में कटे थे। उसे इंटरव्यु के लिये बुलावे का इंतज़ार था जो आखिर एक दिन आ ही गया। १५ दिन बाद इंटरव्यु और शारीरिक परीक्षण के लिये उसे मुम्बई जाना था। कॉल लेटर ले कर वह यूं नाचता फिरा था जैसे उसे नौकरी ही मिल गई हो। जाने कितनी बार पढ़ा था उसे! आई तो चिट्ठी आने की खुशी में मुहल्ले वालों को गुड़ बांट आई थी। रात को चिट्ठी सरहाने ले कर सोते हुये वह फिर सपने देखता रहा था। उम्मीद में जीना निराशा में जीने से भी ज़्यादा कठिन होता है।

मगर दूसरे दिन मामाजी से खर्चे की बात सुन कर उसका हौसला पस्त होने लगा था। मुम्बई आना-जाना, वहाँ दो-चार दिन रुकना, खाना-पीना, बस, रिक्शे का भाड़ा... कम से कम हज़ार रुपये की ज़रुरत! सुन कर आई का भी चेहरा उतर गया था। सारी रात बिस्तर पर पड़ी-पड़ी इतने पैसों की जुगाड़ कैसे की जाय, यही सोचती रही थी। अब घर में बेचने लायक कुछ भी नहीं था एक नथ के सिवा। यह उसके सुहाग की आखिरी निशानी थी। शादी में उसकी सास ने पहनाई थी उसे- लाल पत्थर और सफ़ेद मोतियों वाली, ठोड़ी तक झूलती हुई. बड़ी बेटी की शादी के लिये सहेज रखी थी इसे। अब इस अकेले बचे गहने का मोह क्या करना! बेटे को नौकरी लगी तो इससे भी बड़ी नथ अपनी बहन को बनवा कर देगा। वैसे भी रघु की नौकरी की बात चलते ही उसने गांव के पाटिल से पांच हज़ार रुपये उधार ले कर बड़ी बेटी की सगाई कर दी थी। एक बार रघु की नौकरी लग जाय, फिर इन बातों के बारे में सोचने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी।

सुबह उठ कर वह नथ और बकरी बेच आई थी। दो दिन बाद तो रघु मुम्बई चला जायेगा। फिर बकरी के दूध की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। आगे दूसरी बकरी आ ही जायेगी। आई ने रघु के हाथ में हज़ार रुपये रखे तो वह चुप रह गया। कहता भी क्या। ये पैसे काफी नहीं थे मगर आई ने बहुत मुश्किल से ये पैसे जुटाये थे वह जानता था। बुरे समय का फायदा लोग भी उठाने से बाज नहीं आते। आज के ज़माने में सोने की नथ की कीमत बस इतनी!

रघु के साथ मामाजी भी मुम्बई आने के लिये तैयार थे पर ऐन चलते वक्त बीमार पड़ गये। मजबूरन रघु को अकेले ही जाना पड़ा। इससे पहले वह कभी मुम्बई नहीं गया था। दूसरे बहुत सारे गांव वालों की तरह उसके लिये भी मुम्बई सीमेंट-कंक्रीट का एक जंगल था जिसमें जा कर अक्सर लोग खो जाते हैं। आई ने रोटी चटनी का डब्बा थमाते हुये उसका हौसला बढ़ाया था। साई बाबा का लॉकेट गले में डाल कर बताया था जब भी कोई परेशानी आये बाबा का स्मरण करे। उसे बस स्टैंड तक छोड़ने उसकी तीनों बहने आई थी। बस चलने लगी तो छोटी ने शरमाते हुये कहा- दादा एताना मुम्बई सुन मला साठी नील रंगा चा रीबन आना। जवाब में जाने क्यों रघु की आंखें भर आई थीं। थोड़े-से सामान के साथ कितनों के सपने गठरी बांध कर वह अपने साथ मुम्बई ले जा रहा है! गणपति बाप्पा! तुम्हीं लाज रखना। उसने हाथ हिलाते हुये मन ही मन प्रार्थना की थी।

रात भर की यात्रा में वह एक पल भी सो नहीं पाया था। एक तो आने वाले कल की उत्तेजना, ऊपर से एस टी बस का सफर और घाट का उबड़-खाबड़ रास्ता! गहरी घाटियों में भरे स्याह सन्नाटों और झिंगुरों की तेज़ आवाज़ को सुनते हुये वह अपनी सोच में डूबा चुपचाप बैठा रहा था। देर रात बस हाईवे के किसी होटल पर रुकी तो उसने चाय के साथ आई की दी हुई रोटी-चटनी खाई. अच्छा हुआ आई ने घर से खाना बांध दिया था। यहाँ सब कुछ कितना महंगा है! रुपये सोच-समझ कर खर्चना है उसे। शहर में तीन-चार दिन निकालना आसान नहीं होगा।

दूसरे दिन सुबह-सुबह बस मुम्बई पहुंची थी। नवी मुम्बई पुलिस ने उम्मीदवारों के लिये कालाम्बोली पुलिस ट्रैनिंग सेंटर में शारीरिक परीक्षण की व्यवस्था की थी और दौड़ इनखारघर में। मामाजी ने कहा था कालाम्बोली पुलिस ट्रैनिंग सेंटर बस अड्डे से कुछ ही दूरी पर पड़ता है मगर रिक्शा वाले ने जाने कहां-कहां घुमा कर सौ रुपये ऐंठ लिये। बस लेने की हिम्मत वह कर नहीं पाया था। पहला दिन है। देर से पहुंचना नहीं चाहता था। मगर सौ रुपये का एक झटके में निकल जाना उसे बुरी तरह चुभ रहा था। उसने तय किया था, आगे से वह कभी रिक्शा नहीं लेगा।

मुख्यालय में उम्मीदवारों की भीड़ देख कर उसका दिल बैठ गया था। देवा! इतने लोग! चीटियों की कतार-सी लम्बी लाईन थी। मुख्यालय के गेट से बाहर तक। हज़ारों लोग होंगे! बुझे मन से वह भी कतार में लग गया था। सुबह के सात बजे थे मगर अभी से दिन गरम होने लगा था। हवा एकदम बंद। ऊमस भी बहुत। लाईन में खड़े-खड़े वह सबकी बातें सुन रहा था। सब हाथों में फाईल लिये एक-दूसरे से पूछ्ताछ कर रहे थे। कतार घोंघे की चाल से आगे सरक रही थी। एक कदम बढ़ती फिर जैसे सदियों के लिये ठहर जाती। मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह सबकी बातें सुनाई पड़ रही थीं। देखते ही देखते दो घंटे गुज़र गये थे और वे अब तक मुख्यालय के गेट तक भी नहीं पहुंच पाये थे। आसमान का रंग एकदम फीका लग रहा था। धूप सफ़ेद आग़ की नदी बनी हुई थी। खाल पर फफोले से पड़ने लगे थे। रघु को तेज़ प्यास लग रही थी। जीभ तालू से चिपक गयी थी। मुंह में जैसे गोंद भरा हो! एक पैर से शरीर का बोझ दूसरे पैर में डालता हुआ वह बेचैन हो रहा था। सर से पसीना बहते हुये आंखों में उतर रहा था। सिंथेटिक शर्ट भीग कर पीठ से चिपक गई थी।

सब आपस में परीक्षा के तरीके की बात कर रहे थे। पहले काग़ज़ों को देखते हैं, जांच करते हैं, क़द, वजन और छाती की चौड़ाई नापते हैं। क़द कम से कम १६५ सेंटी मीटर और छाती की चौड़ाई ७९ सेंटी मीटर होनी चाहिये। इन बातों के लिये रघु परेशान नहीं था। वह एक लम्बा-चौड़ा और स्वस्थ युवक था। पिछले एक महीने से रोज़ दौड़ने की प्रैक्टिस कर रहा है।

तनख्वाह ५२००-२०२०० सुन कर उसके भीतर पहले दिन से कुछ अजीब-आ घटा था। इतने रुपये उसने एक साथ कभी अपने आज तक के जीवन में नहीं देखे थे। इतने रुपये से तो वह अपनी सारी जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभा लेगा। उसने धीरे से साई बाबा का लॉकेट निकाल कर सबकी नज़र बचा कर चूमा था- सब ठीक से निबटा देना बाबा! कितने युवक हैं यहां! पूरे महाराष्ट्र और जाने कहां-कहां से- बुलढाना, गोन्डिया, सांगली, सतारा, औरंगाबाद, लातूर, नांदेड़, अकोला, नागपुर... सबकी आंखों में सपने, ढेर सारी उम्मीदें! ६ हज़ार पदों के लिये ४० हज़ार आवेदन पत्र... सब प्रार्थना में हैं। गणपति बाप्पा किसकी सुनेंगे, किसकी नहीं! वह और मन लगा कर प्रार्थना करता है। इसमें भी एक रेस है। जो अपनी प्रार्थना जितनी जल्दी भगवान तक पहुंचा सके. रघु को यहाँ हर कोई अपना प्रतिद्वंद्वी प्रतीत होता है। सबके प्रति वह एक अस्पष्ट-सी ईर्ष्या अनुभव कर रहा है। इनमें से ना जाने वह कौन है जो उससे उसकी नौकरी झपट कर ले जायेगा...

पानी पीने के लिये वह कतार से बाहर निकल कर कहीं जा नहीं सकता। इससे उसकी जगह छिन जायेगी। मगर उसकी बेचैनी बढती जा रही है। प्यास से जैसे गला अंदर से चिपक गया है। जीभ सूज कर मोटी हो गई है। पानी का बंदोबस्त तो होना चाहिए कहीं। उसके आगे खड़े युवक ने कहा था शायद अंदर हो। अंदर पहुंचने में भी अभी घंटा भर तो लग ही जायेगा। बहुत देर से कतार एक ही जगह थम गई है। शायद अंदर लंच ब्रेक हुआ होगा। रघु पस्त हो कर ज़मीन पर बैठ जाता है। लोगों की बातें उसे मक्खियों की भिनभिनाहट की तरह सुनाई पड़ रही है। माथे से बहते पसीने से आंखों में जलन है। हर तरफ धूप में लाल-पीले सितारे-से तैर रहे हैं। कुछ लोगों ने तौलिये से अपना माथा, चेहरा ढंक रखा है। रघु के पास कुछ नहीं। जेब टटोल कर वह एक छोटा रुमाल निकालता है। नीलांगी ने दिया था। लाल धागों से 'माय स्वीट ब्रदर' लिख कर। उससे अपना चेहरा ढांपते हुये रघु की आंखें और जल उठती हैं। जीवन में पहली बार इस तरह घर से बाहर निकला था। जी चाहा था, अभी उठ कर घर चला जाय। यहाँ से कितनी दूर है उसका घर! बीच में कई घंटों का सफर और कितने सारे पहाड़, नदियां... अपने बैग से निकाल कर वह एक सूखी रोटी खाता है। नारियल की चटनी खट्टी हो गई है। अपने आगे वाले लड़के को जगह रखने के लिये बोल कर वह गली के मोड़ पर लगे सरकारी नल से पानी पीता है। दोपहर की धूप में पानी उबल गया है। पी कर जैसे और प्यास बढ़ जाती है। फिर भी वह कोशिश करके और थोड़ा पानी पीता है। पेशाब करने के लिये किसी एकांत जगह की तलाश में उसे दूर तक चलना पड़ता है। लौट कर देखता है उसकी जगह छिन गई है। उसके आगे कम से कम दस लोग खड़े हो गये हैं। दस लोग यानी एक और घंटे का इंतज़ार।

उसकी बारी आते-आते शाम हो गई थी। अधिकारियों ने उसके कागज़ों की जांच-पड़ताल की थी, उसका कद नापा गया था। छाती की चौड़ाई और वजन भी देखा गया था। जाने कितनी देर तक यह सब चला था। उसे बताया गया था, दूसरे दिन सुबह ६ बजे से पी. ई. टी. यानी फिज़ीकल एफिसियंसी टेस्ट लिया जायेगा।

शाम घिरते-घिरते मुख्यालय के अहाते से भीड़ छंट गई थी। कुछ और उम्मीदवारों के साथ वह बातें करते हुये खड़ा रह गया था। रात कहाँ बितायी जाये इसकी समस्या थी। अधिकतर उम्मीदवार गरीब परिवारों से थे। किसी तरह इंटरव्यु के लिये मुम्बई तक आये थे। किसी होटल में रहना उनके लिये संभव नहीं था। सबने मिल कर तय किया था मुख्यालय के सामने की सड़क के फुटपाथ पर सोयेंगे। वह जगह निहायत गंदी थी। चारों तरफ खुले हुये नाले और भरी हुई कचरा पेटियां। आवारा कुत्ते और बैल भी घूम रहे थे। एक ठेले से दो बड़ा-पाव खा कर और नल से पानी पी कर वह एक संकरी-सी पट्टी पर चादर बिछा कर लेट गया था। बहुत थकान हो रही थी। कल भी पूरी रात सो नहीं पाया था। लम्बी यात्रा, सारे दिन की दौड़-धूप और तेज़ गर्मी... रघु को लग रहा था किसी ने उसे अंदर तक निचोड़ लिया है। वह सोना चाहता था मगर किसी भी तरह सो नहीं पा रहा था। बहुत ऊमस हो रही थी। ज़मीन से जैसे भाप उठ रहा था। खुली नालियों से तेज़ बदबू के भभाके. मच्छड़ भी फनल की शक्ल में भिनभिनाते हुये सर के ऊपर गोल-गोल उड रहे थे।

आसपास कुछ लोग बैठ कर सिगरेट पी रहे थे। एक शराबी इधर-उधर घूम-घूम कर जाने किसे गालियां देता फिर रहा था। सोने की कोशिश करता हुआ रघु आकाश को तक रहा था। धुआं-धुआं, टिमटिमाते सितारों से भरा हुआ! उसके गांव का आसमान कितना खुला हुआ होता है। सर्दियों में कांच की तरह। सितारे भी खूब उजले। यहाँ कितनी धूल है! नथुनों में काली मिट्टी-सी भर गई है। गला भी जैसे बैठ रहा है। बार-बार खंखार कर साफ करना पड़ता है। करवट बदलते हुये उसे घर की याद आती है। एक छोटी-सी झोंपड़ी, मिट्टी गोबर से लीपा आंगन। बारिश में जुगनू और सड़ती हुई कूटी की गंध से भरी हुई. इतनी दूर से सोचते हुये सब सपने की तरह मोहमयी लग रहा है। जितनी दूर घर से जाओ घर उतनी क़रीब आता जाता है। तीन दिन बाद वह घर लौटेगा, आई के पास... सांसों में पकती भाखरी की सोंधी गंध लिये सुबह होने से थोड़ी देर पहले रघु को नींद आ गई थी।

दूसरे दिन कचरा गाड़ियों की घरघराहट और सफाई कर्मचारियों के बोलने की आवाज़ से रघु की नींद टूटी थी। हरी साड़ी पहनी महिला सफाई कर्मचारी उसके आसपास झांड़ू लगा रही थीं। हर तरफ धूल का बवंडर उड़ रहा था। आवारा कुत्ते और गाय कूड़े की ढेर पर मुंह मारते फिर रहे थे। एक अधमरी-सी गाय प्लास्टिक की थैली समेत सड़ी सब्जियां चबाते हुये उसे निर्लिप्त भाव से घूर रही थी। ६ बजे शारीरिक परीक्षण के लिये ट्रैनिंग सेंटर पहुंचना था। साथ के लड़के उठ कर जाने कब के जा चुके थे। रघु अगली गली के मोड़ पर लगे म्यूनिस्पैलिटी के नल से मुंह धो कर सुलभ शौचालय हो आया था। ठेले पर चाय और एक बड़ा-पाव खा कर वह लगभग दौड़ते हुये मुख्यालय के गेट पर पहुंचा था। गेट पर उम्मीदवारों की लम्बी कतार तब तक लग चुकी थी। वह भी जा कर खड़ा हो गया था। आज गर्मी कल से भी बहुत ज़्यादा थी। इतनी सुबह भी लग रहा था ज़मीन से गर्म भाप उठ रहा है। कपड़े पसीने से भीग उठे थे। कतार में खड़े-खड़े रघु ने साई बाबा का लॉकेट निकाल कर माथे से लगाया था और गणपति बप्पा का स्मरण किया था- आज सारी परीक्षायें अच्छे से निबट जाये देवा! कल शाम एस टी डी बुथ से उसने गांव के पाटिल के घर आई के लिये संदेश छोड़ा था कि वह कुशल है और आज उसका शारीरिक परीक्षण होने वाला है। आई ज़रुर गांव के रामदास मंदिर में जा कर उसके नाम से पूजा चढ़ायेगी। सोच कर वह कहीं से आश्वस्त हुआ था। आई की प्रार्थनाओं पर उसे भरोसा है।

शारीरिक परिक्षण में ५ किलोमीटर की दौड़, शॉट पुट तथा हाई जम्प सम्मिलित था। रघु को विश्वास है वह यह परीक्षायें आसानी से पास कर जायेगा। धैर्य से वह अपनी बारी का इंतज़ार करता है। कतार आधे घंटे से टस से मस नहीं हो रही है। जाने कहाँ जा कर अटक गई है। इधर माथे पर सूरज का गोला तमतमाते हुये चढ़ आया है। धूप का रंग एकदम सफ़ेद है। तरल आग़ की तरह चारों तरफ झड़ रही है। हवा धुआं रही है धीरे-धीरे...

बीतते समय के साथ पंक्ति में खड़े युवकों में बेचैनी बढ़ रही है। सब रह-रह कर अपनी जगह में कसमसा रहे हैं, शरीर का बोझ एक पैर से दूसरे पैर पर डाल रहे हैं। हर दूसरे मिनट कोई अपनी घड़ी में समय देख रहा है या किसी से समय पूछ रहा है। घड़ी की सुई भी जैसे अटक गयी है। समय आगे ही नहीं बढ़ रहा। कितनी देर... ओह! रघु अपने छोटे-से रुमाल से चेहरा पोंछता है। पसीना बह कर आंखों में जलन पैदा कर रही है। साथ ही पीठ भी जल रही है। शायद घमौड़ियां निकल आई है। पूरा माहौल जैसे दम साधे पड़ा है। कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिल रहा। इतने उम्मीदवार... सबकी परीक्षा, कितना समय लगेगा? सुबह ६ ३० से लाईन लगी है। अब तो एक बजने को आये! धूप का रंग अब पीला पड़ रहा है। कभी-कभार चलती हवा लपटों की तरह लग रही है। सूखे पत्ते गर्म हवा के लट्टू में गोल-गोल घूमते हुये उड़ रहे हैं।

रघु को महसूस हो रहा है वह भीतर तक सूख गया है। एक धीमी आंच में उपले की तरह उसका शरीर तप रहा है। उसे पानी चाहिये... रह-रह कर पूरी देह में एक ऐंठ-सी पैदा हो रही है। जीभ तालू से जा चिपकी है। जैसे काठ की हो। आंखों के आगे लाल, नीली आकृतियां नाच रही हैं। वह इधर-उधर नज़रें दौड़ाता है। आज भी कहीं पानी का बंदोबस्त नहीं दिख रहा। जल्दबाजी में वह भी पानी साथ लाना भूल गया। आगे की पंक्ति में एक उम्मीदवार के हाथ में पानी का बोतल है। वह उसे खोल कर गटागट पी रहा है... रघु उसे चुपचाप देखता है। चिल्ला कर कहना चाहता है, उसे भी पानी चाहिए मगर कह नहीं पाता। तभी सामने सड़क से एक पानी का टैंकर गुज़रता है, पानी छलकाते हुये! कितना पानी बह रहा है... रास्ते पर पानी की एक लम्बी लकीर बन गई है। एक कौआ चोंच उठा-उठा कर पानी पी रहा है। दो कुत्ते एक गड्ढे में जमा गंदला पानी चाट रहे हैं। रघु अपनी पलकें झपकाता है। दूर दोपहर का क्षितिज एक पनीली दीवार की तरह तिर-तिर कर रहा है... पीछे अभी-अभी एक युवक त्योरा कर गिरा है। वह चौथा है। उससे पहले तीन और युवक अब तक गिर चुके हैं। जून की धूप सूखी आग़ की तरह सबके भीतर से ऊर्जा निचोड़ रही है।

अंदर पहुंच कर भी जाने कितनी देर इंतज़ार करना पड़ा। तपती ज़मीन पर बाड़े में ढूंसे भेड़-बकरियों की तरह उन्हें घंटे भर बैठाया गया। तरह-तरह की औपचारिकतायें पूरी की गई. सबके बनियान में उनके नम्बर चिपकाये गये। ब्लड प्रेशर और हृदय गति जांची गई. वहाँ डॉक्टर, नर्स और अन्य चिकित्सा कर्मचारी मौजूद थे। एम्बुलेंस भी। उन्हें बताया गया था कि पेट टेस्ट वे अपनी जिम्मेदारी पर दें। हर बात पर वे एक साथ सर हिलाते रहे थे।

जब ५ किलोमीटर की दौड़ में कई अन्य युवकों के साथ रघु की बारी आई, दोपहर का सूरज ठीक सर के ऊपर था, दहकती भट्टी की तरह। ट्रैक पर खड़ा रघु ने साई बाबा को याद करने की कोशिश की थी मगर जाने क्यों सब कुछ अंदर गडमड होता जा रहा था। वह ठीक से सोच नहीं पा रहा। आंखों के आगे लाल, पीली आकृतियां निरंतर नाच रही हैं। लोगों की आवाज़ें दूर से आती हुई लग रही हैं। जैसे मक्खियां भिनभिना रही हों। वह अपना सर झटकता है, भींच-भींच कर आंखें खोलता है मगर उन नाचती आकृतियों से छुटकारा नहीं मिलता। थोड़ी देर पहले उन्हें केले और ग्लूकोज़ दिया गया था। उससे कुछ बेहतर महसूस हुआ था मगर उसके बाद देर तक फिर तेज़ धूप में खड़ा रहना पड़ गया था।

आखिरकार जब दौड़ शुरु हुई थी, रघु तीर की तरह सबसे आगे निकल गया था। उसकी आंखों के सामने उसके गांव का हरा मैदान पसरा था। उसे यह दौड़ किसी भी तरह नियत समय में पूरी करनी थी। उसे यह नौकरी हर हाल में चाहिये। कई परीक्षायें उसने पास कर ली थी। शेष बची भी करनी थी। करनी ही थी! वह बेतहासा दौड़ रहा था। दहकता सूरज, सुलगती हवा और धूल के काले बवंडर के बीच। उसके साथ जाने और भी कौन-कौन दौड़ रहे थे- कीट नाशक ज़हर से काले पड़े बाबा, झुर्रियों की गठरी बनी आई, तीनों बहने... ह्रर तरफ शोर है। सब एक साथ चिल्ला रहे हैं, उससे बोल रहे हैं- बाबा, आई, नीलांगी, मंदा, छुटकी- अपनी ज़मीन वापस लानी है बेटा... अपनी ज़मीन में किसान की जान होती है... मैं वहीं दबा पड़ा हूँ... मुझे मुक्ति चाहिये... वह बाबा के हाथों से अपनी बांह छुड़ाता है- बाबा! दौड़ने दो... सब आगे निकल रहे हैं! कहते ना कहते आई उसके आगे आ जाती है। वह गिरते-गिरते बचता है। आई को बस हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाना आता है- अगले अगहन तक नीलू की शादी करनी है, उधार के रुपये पर सूद चढ़ रहा है... रघुआ... दादा मला नील रंगाचे रीबन... रघु सब के हाथ झटक कर और तेज़ी से भागता है। उसे अब कुछ नहीं दिख रहा। बस आंखों के आगे नाचता एक मटमैला बवंडर और कानों में गूजती सीटियां।

रघु के पीछे दौड़ते बाबा, आई, नीलांगी, मंदा, छुटकी को पता नहीं, रघु के भीतर अब एक बूंद पानी नहीं बचा है। दोपहर के सुलगते हुये तंदूर की सूखी आग़ ने उसके भीतर की सारी नमी निचोड़ ली है। वह जली लकड़ी की तरह चटक रहा है। उसकी जीभ, गला, सीने में दरारें पड़ रही हैं। अकाल की बंजर ज़मीन की तरह उसका कलेजा फट रहा है। उसके खून में अब ऑक्सीजन नहीं, बस कार्बन डाईऑक्साइड भरा हुआ है। पेशियां, रग-रेशे नीला पड़ने लगे हैं। चेहरा राख हो रहा है... तीसरे किलोमीटर पर वह मुंह खोल कर मछली की तरह सांस लेने के लिये तड़फड़ाता है। उसके पैर अब महसूस नहीं होते। पूरी देह एक काले शून्य में तब्दील हो गई है। मगर वह हौसलों के पांव दौड़ता रहता है। उसे यह नौकरी चाहिये। उर्मि ने कहा था, वह उसका इंतज़ार करेगी। वह उसे हवलदार की वर्दी में देखना चाहती है। वह उर्मि की यह इच्छा ज़रुर पूरी करेगा। रघु को परवाह नहीं कि।उसकी धमनियों में नमक, पानी का संतुलन बिगड़ गया है। १० / १५ के खतरनाक अनुपात पर पहुंच गया है। रक्त चाप नीचे, और नीचे उतर रहा है... अब उन्हें नापा नहीं जा सकता!

रघु ने जाने चौथा किलोमीटर कब पूरा कर लिया है और कोई चिल्ला कर कह रहा है पांचवा किलोमीटर पूरा होने ही वाला है। वह उलटती हुई पुतलियों से देखता है, सूरज पिघल कर पूरे आकाश में फैल गया है। पारे के चमकते सैलाब की तरह। अब आकाश कहीं नहीं है! कान में तेज़ सनसनाहट... पसलियों से टकराता दिल! वह अपनी बची-खुची आखिरी ताकत समेटता है। अब आँखों के सामने बाबा की काली लाश सुर्ख हो रही है, आई की सैंकड़ों झुर्रियां झिलमिला रही हैं, नीलांगी की नाक की नथ में हज़ारों सितारें हैं... सब ताली बजा रहे हैं। कोई लगातार चिल्ला रहा है 'रघु-रघु... तू करु शकणार, तुला होणार...' 'होय, मी करणार, मी करु सकतो...' रघु बुदबुदाता है। उसकी चमड़ी विवर्ण पड़ गई है, इतनी गर्मी में भी ठंडी और ढीली। सीने में धड़कता हुआ दिल अब पसलियां तोड़ कर निकल आना चाहता है, सामने क्षितिज पर पानी ही पानी है, ऊंची, मटमैली लहरें आकाश को छू रही है। ठंडा पानी! मीठा पानी! आह! पानी दुनिया की सबसे सुंदर चीज़ है, अमृत है! वह सारा पानी पी जायेगा- नदी, झील, समंदर... सब! अब रघु उड़ रहा है, उसने पानी तक पहुंचने के लिये अपनी जान लगा दी है! अब उसके आसपास कोई नहीं- बाबा, आई, बहने... उर्मि भी नहीं! पूरी दुनिया पिघल कर पानी बन गई है। आकाश में काले, घने बादल घिर आये हैं। इस बार पानी बरसेगा... खूब पानी बरसेगा...

अचानक दोपहर का दहकता सूरज एक भयंकर विस्फोट के साथ टूट कर रघु के ऊपर आ गिरा था। इसके साथ ही रघु के भीतर आखिरी हद तक तनी जीवन की मसृन रेखा बिजली की तरह औचक चमक कर एकदम से तड़की थी।

रघु ने पांच किलो मीटर की दौड़ पूरी कर ली थी। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ कोई ज़ोर से सीटी बजा रहा था। चारों तरफ अफरा-तफरी थी। लोग रघु को घेर कर उस पर झुके हुये थे मगर रघु इन बातों से बेखबर सबके बीच गर्म बालू पर निश्चल पड़ा था। उसकी आंखें फटी हुई थी, होंठों पर दरारें थीं और मुंह खुला हुआ था। डॉक्टर ने उसकी नब्ज टटोल कर निर्लिप्त भाव से कहा था- ही इज़ डेड! पानी की कमी की वजह से हाईपोवोलेमिक शॉक या हाईपोटेनशन, हाईपोक्शिया- हिट स्ट्रोक! सायरन बजाती हुई एम्बुलेंस रघु की लाश अस्पताल ले जाने के लिये आ खड़ी हुई थी। आसपास इकट्ठी भीड़ तितर-बितर हो गई थी।

ऊपर आकाश में इसी बीच जाने कब एक टुकड़ा बादल के पीछे सूरज छिप गया था और तेज़ हवायें चलने लगी थीं। मुम्बई से बहुत दूर नांदीपुरा गांव में रघु की आई अपने छिन गये खेत की मेड़ पर बैठी बदलाये आकाश की तरफ देखती हुई बुदबुदा रही थी- इस साल बारिश ज़रुर बहुत अच्छी होगी रघु के बाबा... इस बात से बेखबर कि रोती हुई छुटकी उसे ढूंढ़ती हुयी इसी ओर भागी आ रही थी- पाटिल के घर मुम्बई से फोन आया था- रघु...