नारीत्व की देह-यात्रा: साहित्य के दर्पण में / भाग 2 / प्रतिभा सक्सेना
स्त्रियों के लिये भी जो आदर्श प्रतिपादित किये गये, वे भी उनुचित नहीं कहे जा सकते। क्योंकि वह अगर पति की ओट छोड़ दे तो समाज में उसे संरक्षण देने कोई आगे नहीं आयेगा। सब उसका भक्षण करने पर तुल जायेंगे, उसका जीवन नरक बना देंगे।
कृष्ण-काव्य में जीवन के उल्लासपूर्ण, आनन्दमय रूप का चित्रण है। नारी-पुरुष दोनों समान रूप से उसके भागीदार हैं। स्त्री के लिये वर्जनायें नहीं है वह कुण्ठाहीन जीवन जीती है। जितना भी सामाजिक जीवन चित्रित है उसमें बराबर का हिस्सा लेती है। बाल-लीला के अंतर्गत मातृ-हृदय के भावों का जितनी सहज और मार्मिक अभिव्यक्ति कृष्ण-काव्य में मिलती है उतनी और कहीं नहीं। माँ का हृदय अपनी संतान के विरह में कितना व्याकुल है इसका निरूपण यशोदा के वात्सल्य-विरह में है। तत्कालीन जीवन की जड़ता को भंग कर कृष्ण-काव्य ने उसकी उद्देश्यहीनता को दूर किया तथा उसे सौन्दर्य और आनन्द से अनुप्राणित किया। इस काव्य में मनोवैज्ञानिक आधार पर सहज प्रवृत्ति के रूप में मानव चरित्र को ऊँचा उठाने का प्रयत्न है। उसकी सबसे प्रमुख दुर्बलता का धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण से दमन के स्थान पर उन्नयन का प्रयास है। यहाँ नर-नारी में कोई भेद नहीं बल्कि भक्ति के क्षेत्र में गोपी-भाव को महत्व मिला है। कृष्ण-काव्य के पात्र प्रतीक रूप हैं। गोपियों के प्रेम-भाव की अनन्यता और संपूर्णता प्रमाणित करने के लिये सूरसागर में 'खंडिता प्रकरण 'लिखा था। जिसमें कृष्ण के दक्षिण नायक रूप का सूक्ष्म, आध्यात्मिक और व्यंजनापूर्ण चित्रण है।
उन्होंने गोपियों और राधा के प्रेम विकास की अत्यंत सूक्ष्म और स्वाभाविक स्थितियों का अंकन किया था। बाद में रीतिकाल के कवियों ने उन्हीं से प्रेरणा लेकर 'नायक-नायिका भेद'नाम से काव्यशास्त्रीय विवेचन को अपना विषय बना लिया और उनकी विलास -वृत्ति ने काम-भावना के क्षेत्र में नारी की स्थितियों और प्रतिक्रियाओं के विवेचन में अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दी।
रीतिकाल को आ। विश्वनाथ प्रसाद ने हिन्दी-काव्य का यौवन काल कहा है, जब सत्यं और शिवं की उपेक्षा कर वासनामय सुन्दरम् उभर कर आया। हिन्दी साहित्य के प्रत्येक युग में परस्पर विपरीत दो धाराएँ निरंतर गतिशील रही हैं - राग की और वैराग्य की। रीतिकाल में भी घोर शृांगारिक रचनाओं के साथ नीति तथा वैराग्य-परक काव्य रचा गया। इस काल में काव्य का सृजन सामन्ती वातावरण में हुआ।
शृांगारिक काव्य रचना आश्रयदाताओं की विलास वृत्ति के अनुरूप थी। इसयुग के काव्य को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
1. संस्कृत के काव्य-शास्त्र के आधार पर हिन्दी में लक्षण-ग्रंथों के प्रणेता, रीतिबद्ध कवि, जिनमें केशव, चिन्तामणि, मतिराम, देव, भूषण, कुलपति मिश्र आदि आते हैं।
2. जिन कवियों ने रीति परंपरा को आत्मसात् कर स्वतंत्र तथा मौलिक एवं अर्थ-गत भंगिमाओं से युक्त कविता रची, वे रीति-सिद्ध कवि कहलाये।
3. और जिन कवियों ने आचार्य कवियों की पंक्ति में न सम्मिलित हो कर अंतर्मन के सहज-सरल संवेदनों को मुक्त वाणी दी वे रीतिमुक्त कवि कहलाये।
रीति-काव्य अलंकार, गुण ध्वनि, नायिका-भेद आदि की काव्यशास्त्रीय प्रणालियों के आधार पर रचा गया -इनके लक्षणों के साथ उदाहरण रूप में या स्वतंत्र रूप से, इनका आधार लेकर।
रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों ने 'नायिका-भेद' को बड़े विस्तार के साथ अपने काव्य-विषय के रूप में लिया और स्त्रियों की कोटियाँ निर्धारित कर उनका बड़ा विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन किया।
नायक-नायिका भेद का प्रारंभ नाट्य-शास्त्र के ग्रंथों में हो गया था, लेकिन रीति-काल के कवियों ने यह विषय शृंगार के आलंबन के रूप में ही लिया। शृंगार का स्थाई भाव रति स्त्री-पुरुष के संबंध में ही व्यक्त होता है। इस युग के कवियों ने यौवन और आकर्षणयुक्त स्त्री-पुरुष के प्रेम को ही अभिव्यक्ति दी। इन संबंधों में सामान्य रूप से सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखा गया है। केशव ने अपनी रसिक-प्रिया में इस प्रकार की स्त्रियों की सूची दी है जिनके साथ रति-संबंध स्थापित नहीं किया जाना चाहिये (शेष सब के साथ?)। रति-भावना को स्त्री-पुरुष दोनों में समान रूप से स्वीकार किया गया है। वर्णनों में काफ़ी-कुछ वात्स्यायन के काम-सूत्र का आधार लिया गया है। शारीरिक-संरचना और स्वभाव के आधार पर चार प्रकार निर्धारित किये हैं-पद्मिनी, चित्रिणी शंखिनी और हस्तिनी। स्त्री के नायिका होने का आधार पुरुष के साथ उसका प्रेम-संबंध ही रह गया। यहाँ नायिका की परिस्थिति और व्यवहार पर आधारित भेदोपभेदों की लंबी शृंखला है।
नायिका के सौन्दर्य और मानसिक स्थिति के चित्रण में कवियों ने सूक्ष्म निरीक्षण और कल्पना- शक्ति का परिचय दिया।
इस काल के कवियों ने नारी जीवन के व्यपक रूप को न लेकर केवल यौवन और उसमें भी शृंगार-वृत्ति तक सीमित रहे।
मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा।, स्वकीया, परकीया, सामान्या, और उनके तमाम भेदों उपभेदों द्वारा नारी की मानसिकता का उद्घाटन कर स्त्री-संबंधी अपनी बढ़ी-चढ़ी, जानकारी का परिचय दिया पर और विषयों में ये कवि अपेक्षाकृत कोरे ही प्रतीत होते हैं। पुरुष के अनेक स्त्रियों के साथ संबंधों को ले कर हृदय की वेदना क्लेश, आवेग, उद्वेग और लोक-लज्जा के वर्णन में ये परम प्रवीण हैं।
विभिन्न ऋतुओं में नारी-विरह का वर्णन कर यह भी स्पष्ट कर दिया कि पुरुष के लिये नारियों की कमी नहीं लेकिन स्त्री की नियति एक के साथ बँध कर रहना और पीड़ा झेलना है। पुरुषों का वर्णन पत्नी के साथ उनके संबंधों को ले कर है -अनुकूल, दक्षिण, शठ और धृष्ट। केवल रसलीन ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने काम-संबंधों में रत नारी के संबंधों का वर्णन किया है। स्त्री के इन संबंधों में पति, उपपतिऔर वैशिक तीन भेद हैं। पति की भूमिकायें तो सभी कवियों में वर्णित हैं यहाँ उपपति के भेद देखिए- गूढ़, मूढ़, आरूढ़। और वैशिक (अनेक वेश्याओं का उपभोग करनेवाला) के अनुरक्त और मत्त - दो भेद।
लेकिन ये भेद समाज में नारी की स्थिति पर प्रकाश नहीं डालते। इनसे यही स्पष्ट होता है कि नारी पुरुष के भोग के लिये है और जब तक यौवन, रूप और पुरुष को आकर्षित करने की क्षमता है, तभी तक उसका महत्व है। इसके बावजूद यदि पति दूसरी पत्नी ले आया तो पति और उसके साथ ही जीवन के सारे सुखों से वंचित हो जाना है। -नहुँ मुँह दिखरावनी, दुलहिनि करि अनुराग, सासु सदन, मन ललन हू सौतनि दियो सुहाग।
नई बहू चार दिन ये सारे सुख भोग लेगी फिर दूसरी के आते ही उसे यह सब सौंप देना होगा।
रीतिकालीन नारी भी परपुरुष को आकर्षित कर रस लेने में पीछे नहीं रही है। 'त्रिवली-नाभि' दिखाने का कौशल उसने सीख लिया है और पुरुषों द्वारा की गई छेड़-छाड़ से वह खिन्न नहीं होती, सखी से कहती है- 'लरिका लेबे के मिसनि, लंगर मो ढिग आय,
गयो अचानक आँगुरी छाती छैल छुआय। '
उस समय विषय-सुख इतना प्रधान हो गया था
कि उसके सामने जीवन की सात्विकता का कोई महत्व नहीं रह गया था। लेकिन कभी-कभी सौंदर्य-वर्णन मे पवित्रता भी छलक जाती थी -
'लसत स्वेत सारी ढक्यो तरल तर्यौना कान
पर्यो मनो सुरसरि सलिल रवि प्रतिबिंब विहान '।
लेकिन ये सीमायें थीं परिवार के दायरे में रहनेवाली महिलाओं की। स्ववश अर्थात् सामान्या, दरबार की नर्तकियाँ, गणिकाएँ आदि कहीं अच्छी स्थिति में थीं। पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर काम करनेवाली स्त्रियाँ जैसे रँगरेज़िनें, मनिहारिनें आदि भी सहज जीवन जीती थीं।
रीति-मुक्त कवियों ने जिस विषम प्रेम की पीड़ा कवित्तों में व्यक्त की वह विरह पीड़ा एक पक्षीय है। जिन नारियों के प्रति यह प्रेम व्यक्त हुआ है वे विवाहिताएँ नहीं है, निर्बंध हैं। प्रेम का प्रतिदान देना या न देना उनका अधिकार है। इन नारियों का अपना व्यक्तित्व है, अपनी रुचि है और वहाँ पुरुष उनके प्रेम का आकांक्षी है। तथा विरह की स्थिति पलट गई है। वह प्रेमी के हिस्से में आया है। महाकवि केशव राजदरबार की कलावंत नारी प्रवीण राय को उमा, रमा, सरस्वती की समता में रखने में संकोच नहीं करते। एक नर्तकी ने उस महापंडित से अपनी सुरुचि, सौन्दर्य और वैदुष्य का लोहा मनवा लिया। घनानंद की प्रेमिका सुजान का पल्ला भी भारी रहा शेख और आलम भी इसी समय की कवयित्रियाँ हैं। परिवार की सीमा में रहनेवाली महिलाओं की स्थिति में और गिरावट आई। अभी तक पुत्र माँ के नाम से भी जाना जाता था और वधू मात़कुल की संज्ञाओं से संबोधित होती थी। लेकिन अब स्त्रियों का अपना परिचय कुछ नहीं रहा
फलाने की माँ या अमुक की दुलहिन या जेठी/छोटी बहू रह गईं। बूढ़े को ब्याही गई युवती की कुण्ठा, नपुंसक पति की पत्नी, और अरहर तथा ऊख के खेत में पर-पुरुषों के साथ रस-रंग मनानेवाली स्त्रियों के चित्र भी इस साहित्य में बड़े सहज रूप से अंकित किये गये हैं।
नीति और वैराग्य की धारा के अंतर्गत रहीम, गिरधर कविराय, वृन्द-कवि, हेमराज, आदि का काव्य है। जिन्होंने नारी-निन्दा में अपना पर्याप्त समय व्यय किया है। रहीम ने सर्प, घोड़ा, नारी, , नृपति और नीच लोगों से सावधान रहने को कहा क्योंकि इन्हे पलटते देर नहीं लगती। कवियों ने छिनाल स्त्रियों के लक्षणों का भी बड़े विस्तार से वर्णन किया लगता है इनका भी उन्हें व्यापक अनुभव रहा होगा। भिन्न जातियों की स्त्रियों की विशेषताओं को अनुभव करने का अवकाश भी कवियों के पास खूब था। नारी के नख-शिख वर्णन में तो कवियों को कमाल हासिल है, पर किसी की दृष्टि नारी मन की ओर नहीं गई।
यौवनागम से पूर्व बालिकाओं के शरीर में होनेवाले सूक्ष्म परिवर्तनों भी इनकी कुत्सित दृष्टियाँ पड़ीं और उन स्थितियों के चित्रण में कवियों ने सूक्ष्म निरीक्षण और कल्पना शक्ति का पूरा परिचय दिया।
यह कामुकतापूर्ण वर्णन कवियों की विकृत भावनाओं का परिचायक है।
इनके सद्य-स्नाता वर्णनों को देख कर लगता है कि स्नान के समय भी स्त्री की प्राइवेसी को बरकरार नहीं रहने देना चाहते। लगातार ताक-झाँक कर श्लील-अश्लील वर्ण करते हैं।
जब तक सामर्थ्य बरकरार रहती थी, इन लोगों को नारी देह के सिवा कुछ नहीं दिखाई देता था, रति-सुख के आगे उन्हें मुक्ति भी निस्सार लगती थी, बाद में वह उसे ही ग्राहिणी घोषित करने लगते थे। दोष नारी का या मदान्ध पुरुष, का जो नशा उतरते ही स्त्री के लिये लानत-मलामत और गाली-गलौज शुरू कर भगवान को मनाने लगता था।
अंग्रेज़ों के भारत-आगमन के पश्चात् राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तनों के कारण स्थितियाँ बदलने लगीं। ज्ञान-विज्ञान के नये क्षितिज खुले, प्रिन्टिंग-प्रेस की स्थापना और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के साथ गद्य-लेखन समय की आवश्यकता बन गया। उन्नीसवीं शती से ही नव-जागरण की लहरियाँ उठने लगीं थीं। सांस्कृतिक पुनर्जागरण, पश्चिम से नये विचारों का उन्मुक्त प्रवाह और अंग्रेज़ी शिक्षा के परिणाम स्वरूप नारी के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगे।
भारतेन्दु युग में इस परिवर्तन की स्पष्ट पदचाप सुनाई पड़ने लगी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 'काव्येर उपेक्षिता' शीर्षक निबंध लिखा था, उसी से प्रेरित हो कर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1908 में 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता 'निबंध प्रकाशित किया। और हिन्दी साहित्य में उपेक्षिता नारियोँ को विषय बना कर काव्य-सृजन का क्रम चल निकला। मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया, विधृता आदि को काव्य की नायिका के रूप में प्रतिष्ठित किया। नारी के प्रतिकवियों की संवेदना जागी और उसकी मनोभावनाओं को अभिव्यक्ति देने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी लेखनी ने उन्हें पुरुषों से अधिक गौरव दिया। इन के व्यक्तित्व पति की छाया बने दबे-ढके न हो कर प्रखर और प्रभावशाली थे। कहीं-कहीं तो नायक उनके समकक्ष होने में असमर्थ रह गया है। यह नारी संत कवियों की नारी नहीं न राम-काव्य के समान पुरुष की छाया बनी रही। उचित-अनुचित का विश्लेषण कर पाने में समर्थ है। उसे शिकायत भी है कि अपने सद्कार्यों में उसे सहयोगिनी नहीं बनाया और सारे उत्तरदायित्व ढोने के लिये उसे छोड़कर स्वयं साफ़ बच कर निकल गये, इससे वह क्षुब्ध है।
द्विवेदी युग की सुधारवादी विचारधारा का प्रभाव साहित्य पर व्यापक रूप से पड़ा।
स्त्री और परुष को बराबरी का दर्जा मिला दोनों को एकव्रती और निष्ठावान होने का संदेश दिया-'यदि सीता ने एक राम को ही वर माना,
यदि मैने निज वधू उर्मिला को ही जाना। '
गृहस्थ जीवन में रस की धार दोनों के सम-स्तर पर मिलन से ही संभव है।
नारी जीवन को अनेक भूमिकाओं में प्रस्तुत किया गया। द्विवेदी जी के अनुसार वह अर्धांगिनी, सहधर्मिणी और पुरुष-जीवन की पूरक है। घर में वह कुल-वधू है जो आवश्यकता पड़ने पर उर्मिला और कैकेयी की भाँति रणचण्डी भी बन जाती है।
प्रेम, त्याग और सेवा के क्षेत्र में वह अतुलनीय है।
नारी के गौरव का विशद आख्यान गुप्त जी ने इन चरित्रों के माध्यम से गाया है।
उसकी करुण दशा पर उनकी करुणा खूब रोई है।
पुरुष की दुर्बलता पर उन्होंने कहा -
'अबला के भय से भाग गये, वे उससे भी निर्बल निकले,
नारी निकले तो असती है, नर यती कहा कर चल निकले। '
विष्णुप्रिया की पंक्तियाँ गौतम बुद्ध पर सही बैठती हैं, और समाज के दोहरे मानदंडों की ओर भी इंगित करती हैं -
'नर-कृत शास्त्रों के सब बंधन हैं नारी को ले कर, अपने लिये सभी सुविधाएं पहले ही कर बैठे नर। '
एक के लिये सब सुख-ऐश्वर्य और दूसरी की आवश्यकता है-
'दो-दो कौर अन्न पा लेंगी और धोतियाँ चार,
नारी तेरा मूल्य यही तो रखता है संसार। '
उसकी निरीह अवस्था का मार्मिक चित्रण गुप्त जी के काव्य में हुआ है।
हरिऔध जी ने भी उर्मिला के चित्रण में मौलिकता का परिचय दिया।
उसके रूप में प्रबुद्ध और तर्कशील नारी का रूप सामने आता है।
बालकृष्ण शर्मा नवीन की उर्मिला की पीड़ा फूट निकलती है जब लक्ष्मण वन जाने की अनुमति माँगने आते हैं-
'चौदह बरस? नहीं प्रिय चाहो यदि चौदह युग लौं जाओ,
खूब करो उद्धार विश्व का, ज्ञान-रश्मियाँ फैलाओ। '
नारी के प्रति सम्मान, उसके व्यक्तित्व को स्वीकृति, प्रतिष्ठा और प्रखरता का समावेश बीसवीं सदी की माँग थी।
वह उग्रता से बोल उठती है -
' यह अँधेर प्रचण्ड मौर्ख्य का, यह निष्ठुर आदेश प्रभो,
तुम भी धर्म-धर्म कहते हो इसके हे प्राणेश प्रभो,
आग लगे इस धर्म-क्रान्ति में जो बुद्धि विनाश करे है कैसा यह धर्म कि जो जनगण के हृदय निराश करे।
उसके व्यक्तित्व में आवेग और उद्वेग की ही प्रधानता नहीं है उसके पीछे उसका गूढ़ चिन्तन है।
पहले वह विद्रोह के लिये लक्ष्मण को प्रेरित करती है' महानाश का मंत्र फूँक दो, मेरे विकट क्रान्तिकारी, भस्म करो ये गलित रूढ़ियाँ मेरे निकट भ्रान्तिहारी। '
नवीन ने विद्रोह की चिंगारी उसके व्यक्तित्व में समाहित की है लेकिन अंत में वह परिवार के कल्याण के लिये लक्ष्मण का मार्ग प्रशस्त करती है। -
'मानवता की पादपीठ पर तुमको न्यौछावर करके, रो लेगी उर्मिला तुम्हारी चुपके-चुपके जी भर के। '
वह न उपेक्षिता है न दयनीय, वह पुरुष की चिर-प्रेरणा है।
कृष्णायन में द्वारका प्रसाद मिश्र ने भी द्रौपदी का तेजस्वी व्यक्तित्व सामने रखा है
उसका कथन है -
जब लगि दुःशासन जियत, जियत अधम कुरु राज,
तब लगि वसुधा पृष्ठ मँह शान्ति-अहिंसा नायँ। '
छायावादी काव्य की नारी-सृष्टि स्थूल न रह कर वायवी हो गई है, लेकिन इन कवियों ने नारी जीवन की सुन्दरतम कल्पनाओं और मधुरतम भावनाओं का आलंबन बनाया है। प्रसाद के हृदय में नारी के प्रति अपार सहानुभूति, सात्विक प्रेम और सम्मान है। उनकी नारी सृष्टि विविधतापूर्ण और सुविचारित है। उन्होंने अनेक विधाओं पर कुशलता से लेखनी चलाई लेकिन उनका स्वच्छन्दतावादी कवि का रूप, सभी पर अपनी छाप छोड़ गया।
उनकी कहानियों नाटकों, उपन्यासों और काव्य-रचनाओं में नारी के विविध रूप साकार हुए हैं लेकिन उनपर उनकी छायावादी जीवन-दृष्टि का प्रभाव है।
कुछ अविस्मरणीय नारी पात्रों की सृष्टि का श्रेय उन्हें जाता है। उनकी इस विविधता को दो रूपों मे देखा जा सकता है
1. भावनामयी, स्नेह-ममतायुक्त समर्पणमयी नारी। और
2. बुद्धि-प्रधान तर्कमयी विचारशीला नारी। कामायनी की श्रद्धा और इड़ा इन रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
इन दोनो के समन्वय से ही जीवन को पूर्णता की उपलब्धि होती है।
विश्व के कल्याण का श्रेय भी उन्होंने नारी को दिया है-- 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' कह कर प्रसाद ने उसे श्रद्धा अर्पित की है।
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पंत की काव्य-यात्रा के विभिन्न चरणों में उनकी नारी भावना का रूप भी विकसित होता गया है।
प्रारंभ में सरल बालिका के रूप में देखा। फिर देवि, माँ, सहचरि, प्राण के रूप में पहचान कर अपार स्नेह अर्पित किया। आगे चल कर उन्होंने उसे मानव होने की प्रतिष्ठा दी और अनावश्यक लज्जा त्याग पुरुष की सहयोगिनी के रूप में देखना चाहा है।
इस प्रसंग में दिनकर की उर्वशी को भूला नहीं जा सकता जिसमें उन्होंने कुछ नये मान स्थापित किये हैं।
उर्वशी में नारी की प्रेम-प्रवणता की पराकाष्ठा का चित्रण है जहाँ प्रकृति ने उसे चिति और शिवा बना कर परम सत्ता के रूप तक ऊँचा उठाया है।
पुरूरवा वीर योद्धा और प्रगाढ़ प्रेमी है। दोनो के प्रेम का ताप उभय-
पक्षों में सम है। उन्होंने नर-नारी के प्रेम का उन्नयन किया है -
'रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है, '
पुरूरवा का कथन है 'उर्वशी के रक्त के कण में समा कर प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ। '
उन्होंने नारी को नरक की ओर ले जानेवाली नहीं कहा बल्कि उसके प्रेम को उन्नयनकारी बताया।
'पहले प्रेम स्पर्श होता है, तदनंतर चिंतन भी
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी। '
तन के अतिक्रमण से द्युतिमान मनोमय जीवन की झलक मिलती है। और उर्वशी पुरूरवा के लिये विराट् छवि की कोर बन जाती है।
'यह अति क्रान्ति वियोग नहीं, आलिंगन नर-नारी का,
देह धर्म से परे अंतरात्मा तक उठ जाता है। '
उठने का परिणाम है -
वहाँ जहाँ कैलाश प्रान्त में शिव प्रत्येक पुरुष है,
और शक्तिशालिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी। '
कामायनी के कैलाशधाम में भी मनु और श्रद्धा की यही स्थिति थी।
नारी से भागनेवाले पुरुष के लिये उनकी चेतावनी है -
'मूढ़ मनुज, तू नहीं जानता तू स्वयं ही प्रकृति है,
फिर अपने से आप भाग कर कहाँ त्राण पायेगा!'
अप्रयास अनुभवन प्रकृति का सहज रीति जीवन की,
क्योंकि पुरुष औ' प्रकृति एक है कोई भेद नहीं है। '
उर्वशी की स्वीकारोक्ति है -
'नारी का इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है। '
दिनकर ने वैराग्य और प्रव्रज्या को पलायन माना है। लेकिन औशीनरी जैसी निष्ठामयी नारी को कवि ने कामाध्यात्म का विषय नहीं बनाया, शायद इसलिये कि वह समर्पिता बन कर रह गई। पति की उद्दाम कामना की सहभागिनी नहीं बन सकी।
पंत का लोकायतन 'कामायनी'से आगे की बात ले कर चला है
कवि-मानस में उतर कर उमा उसे अमृत घट सौंपती है। --
तुम्हें सौंपती लो यह कनक अमृतघट
नर-नारी के रस मंगल से पूरित
पुरुष-प्रकृति की शुभ्र कीर्ति का पावन,
सावधान बन जाय न विष जन भू हित। '
संतों ने इसी को विष बना दिया था क्योंकि उनके लिये स्त्री-पुरुष का प्रेम सिर्फ़ वासना रूप था। इसलिये उन्नयन के स्थान पर प्रतिक्षण पतन और क्षय का कारक था।
अब गद्य की ओर चलें। नव-जागरण की लहर के परिणाम स्वरूप समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगा था। भारतेन्दु युग से ही लेखकों ने सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार करने के साथ नारीगत समस्याओं को भी उठाया। निबंधों, नाटकों, कहानियोंऔर उपन्यासों में विधवा-विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यवृत्ति नारी-स्वतंत्रता और शिक्षा के विषय उठाये जाने लगे। इन प्रयासों का प्रारंभ भारतेन्दु- मंडल के लेखकों द्वारा हुआ, नाट्य-साहित्य ने आगा हश्र वाले दौर से निकल कर एक नये दौर में प्रवेश किया। प्रसाद के नाटक प्राचीन इतिहास की पृष्ठभूमि पर रचे गये।