नारीत्व की देह-यात्रा: साहित्य के दर्पण में / भाग 3 / प्रतिभा सक्सेना

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समसामयिक नाटककारों में लक्ष्मीनारायण मिश्र का नाम है। जिन्होंने यथार्थवादी नाटकों की नींव डाली। उनमें बुद्धिवाद का स्वर प्रधान रहा।

फ़्रायडवादी दृष्टिकोण के अनुरूप उन्होंने यौन प्रवृत्तियों और कामवासना को अधिक महत्व दिया इसलिये उनके नारी-पात्र सहज और संतुलित नहीं है।

प्रसाद-युग के नाटकों में -स्वच्छंदतावादी नाट्य-शैली का सन्निवेश है जिसमें व्यक्तिनिष्ठता और आत्मानुभूति का आग्रह है। वस्तु -चित्रण में अतिरंजित कल्पना, भावुकता और अतीत के प्रति मोह दृष्टिगत होता है। प्रसाद की दृष्टि में रोमानियत के साथ सामाजिक जागरूकता का भी समावेश हुआ है।

नारी के संबंध में उनका दृष्टिकोण आदर्शवादी रोमांटिक मूल्यों से प्रेरित है। पर उसके अस्तित्व के संबंध में उनका विचार यथार्थवादी चेतना से पूर्ण है।

उनके लगभग सभी नाटकों मे स्त्री की स्थिति को उजागर किया गया है, राजनीति का प्रतिशोध नारी का सम्मान नष्ट कर लिया जाता है। पुरुषों द्वारा नारी की प्रतारणा की उन्होंने भर्त्स्ना की है वर्धन-वंश की बालिका को कान्यकुब्ज का सिंहासन दिला कर उन्होंने नारी का महत्व प्रतिपादित किया।


गृहस्थ जीवन के सौन्दर्य और उसकी सुखमयता का चित्रण उन्होंने किया है और पारिवारिक संबंधों का मनोरम अंकन कर उसके प्रति आस्था व्यक्त की है। उनकी नारियों की प्रेम-भावना में रोमांटिक भावुकता और कल्पना का पूरा पुट मिलता है।

ध्रुवस्वामिनी में उन्होंने नपुंसक पति की पत्नी को पुनर्विवाह का अधिकार दिलाया है और नारी को व्यक्ति होने का पूरा मान दिया।

प्रसाद के नारी पात्रों में जहाँ एक ओर स्वच्छंदतावाद की विशेषताओं, भावुकता, कल्पना, आदर्श और रहस्योन्मुखता का पुट है वहीं विजया और श्यामा जैसी स्त्रियों में वासना और स्वार्थ भी है। राष्ट्र-प्रेम की भावना से उनके नारी-पात्र रिक्त नहीं हैं जैसे देवसेना मल्लिका सरमा मधूलिका जयमाला आदि। । सेठ गोविन्ददास के नाटक 'हर्ष ' में विधवा स्त्री की स्थिति अभिव्यक्त हुई है। राज्यश्री कहती है, 'मैं विधवा! विधवा को समाज में किसी मंगल कार्य में भाग लेने का अधिकार नहीं। '

उदयशंकर भट्ट ने 'विद्रोहिणी अंबा' नाटक में भीष्म द्वारा हरी गई काशिराज की तीनों कन्याओं और सत्यवती द्वारा समानाधिकार प्राप्त करने की आवाज़ उठाई। अंबा को कथनों में स्त्री-पुरुष संबंधों की विषमताओं को उजागर करने का प्रयास है। संपत्ति समझ कर मनचाहे ढंग से भोगे जाने के विरुद्ध विद्रोह की आवाज़ उठाती हुई वह कहती है, 'पुरुष समाज की इतनी धृष्टता ! स्त्रियों के सौन्दर्य की काई पर फिसलनेवाली पुरुषजाति ने आज से नहीं सदा से स्त्रियों का अपमान किया है। '

अंबिका का प्रश्न है, 'असमर्थ रोगी पुरुष के विवाह के लिये एक नहीं तीन-तीन कन्याओं को हर लाना स्त्रीत्व, समाज और मनुष्यता की हत्या नहीं तो और क्या? '

बाद के नाटकों में यथार्थवादी दृष्टि पनपी है फ़्रायड की विचारधारा का प्रभाव नर-नारी के संबंधों और मूल्यों का कारण बना। नई शिक्षा और पाश्चात्य विचारों के प्रभाव के कारण प्राचीन रूढ़ियों से मुक्ति पाने की छटपटाहट के साथ व्यक्ति-स्वातंत्र्य की चेतना जाग्रत हुई। नारी में स्वावलंबन का उत्साह जागा वह पुरुष की दासता से मुक्ति का कामना करने लगी।

उपेन्द्रनाथ अश्क के नाटक 'क़ैद' में अनचाहे पति के साथ दाम्पत्य-जीवन बिताती हुई पत्नी के मन में घुटन और पति तथा गृहस्थी के प्रति अरुचि व्यक्त हुई है। लक्ष्मी नारायण मिश्र रचित 'सन्यासी' नाटक में किरणमयी पति से कहती है, 'तुम इधर-उधर मिस मेमों से मिला करते हो मुझे भी अपने मित्रों से मिलने दो। हमारा नाता विश्वास के बल पर जितना टिक सकता है उतना संदेह और ईर्ष्या से नहीं। '

मिश्र जी ने अपने नाटकों में प्रतिपादित किया कि प्रेम आत्मा का धर्म है और भोग शरीर का, इसलिये प्रेम अनेक के साथ भी हो सकता है। अपने नाटकों में स्वच्छंद प्रेम को चित्रित करते हुए भी उन्होंने भारतीय आदर्शवादी दृष्टिकोण प्रतिष्ठित किया। नारी द्वारा सामाजिक मान्यताओं को ठुकराने का औचित्य भी उन्होंने सिद्ध किया।

सेठ गोविन्द दास की 'त्याग का ग्रहण' की नायिका विमला, फ़र्स्ट क्लास एम। ए। है। वह विवाह को पुरुष की प्रभुता और स्त्री की गुलामी कहती है। विवाह न करने की इच्छा द्वारा वह अपना विद्रोह व्यक्त करती है। लेकिन उसमें बौद्धिक जागरूकता और तर्क-संगत निजी दृष्टिकोण का अभाव है। अंत में वह गाँधीवादी विचारधारा से प्रेरित 'धर्मध्वज से विवाह कर लेती है। बिना विवाह किये 'नीतिराज' की पत्नी के रूप में रह कर वह गर्भवती हो जाती है फिर भी स्वच्छंद प्रेम की पुष्टि करती हुई वह अपनी संतान के परित्याग के लिये प्रस्तुत है। लेकिन अंत में वह विवाह का पारंपरिक मूल्य स्वीकार करती है।

वह युग नारी-जागरण का था लेकिन वह व्यवहार के बदले विचारों में ही अधिक प्रगतिशील और क्रान्तिकारिणी रही।

स्वातंत्र्योत्तर काल में जन-चेतना नये संदर्भों में विकसित हुई। आधुनिक चिन्तन ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य का नारा दिया जो स्त्री-पुरुष दोनों में समान रूप से व्यक्त हुआ। डॉ। धर्मवीर भारती के 'अंधायुग' में व्यक्तिवादी चेतना के अंतर्गत अस्तित्व-बोध के प्रश्न को सशक्त शैली में उभारा गया है।

'प्रजा ही रहने दो' में भी गिरिराज किशोर के नारी पात्रों - गान्धारी, कुन्ती, और द्रौपदी राज पुरुषों के आपसी बैर और स्वार्थी मनोवृत्ति के कारण विषम स्थितियाँ झेलते-झेलते इतनी कटु हो उठती हैं कि उनकी स्नेहशीलता, कोमलता और सहजता खो गई है।

'आषाढ का एक दिन' में भी कर्तव्यकी कठोर स्वीकृति है। 'लहरों के राजहंस' गर्विता और अहमन्या नारी सुन्दरी की तुलना में उसका पति नन्द व्यक्तित्वहीन हो गया है अतः वह संशय और द्वंद्व से ग्रस्त रहता है। मोहन राकेश के ही 'आधे-अधूरे' में सावित्री का व्यक्तित्व प्रखर है, उसका पति महेन्द्र नाथ लिजलिजा, व्यक्तित्व हीन, आधा-अधूरा रह गया है। सावित्री का व्यक्तित्व 'विमेन लिब' के मूल्य से प्रेरित है। वह पुरुष की सहयात्री हो सकती है लेकिन समर्पिता हो कर उसकी अतियों का भार ढोने वाली नहीं।

मन्नू भंडारी ने भी 'बिना दीवारों का घर ' में नारी-पुरुष के अहं का द्वंद्व उभारा है।

मध्ययुगीन साहित्य में पुरुष होने के दंभ में नारी का जो नारकीय सीमा तक उपयोग देखने को मिला था वह आगे बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भी चला आया

'आधागाँव' उपन्यास में प्रेम के साथ नैतिकता का ढोंग जोड़ कर काम पिपासा की पूर्ति हेतु चमारिन को प्रेमिका से पत्नी बना लिया जाता है फिर भी वह चमारिन ही रह जाती है।, उसका छुआ हुआ खाने से परहेज किया जाता है।

कमाऊ स्त्री के साथ कुछ नई समस्यायें उत्पन्न हुईं। अब तक बेटी की कमाई खाना पाप समझा जाता था, और अब उसके बल पर परिवार का स्तर सुधारा जाता है। माता-पिता को अपनी औऱ शेष भाई-बहिनों के भविष्य की चिन्ता है और कमाऊ बेटी के ऊपर सब की जिम्मेदारी डाल कर उसे जीवन के सभी सुखों से वंचित कर दिया जाता है। । '। पचपन खंभे लाल दीवारें' में इस स्थिति का मार्मिक चित्रण है नायिका की नियति एकाकी जीवन जीना और आदर्शों का बोझ लादे त्याग करते चले जाना है। उसके सुख-दुख के प्रति परिवार संवेदनाहीन हो चुका है।

व्यक्तिवादी उपन्यासों में फ़्रायड, मार्क्स और डार्विन के सिद्धातों ने व्यक्ति चेतना को जिस रूप में उद्घाटित किया उससे समाज के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण को प्रोत्साहन मिला

आधुनिक उपन्यासों में नारी से संबद्ध यह दृष्टिकोण अनेक बिन्दुओं का आधार लेकर उभरा है। एक ओर तो वह स्वयं को परंपरा से टूटा हुआ अनुभव करती है दूसरी और सही संदर्भों में आधुनिकता से जुड़ नहीं पा रही है। और कुंठित-सी अपने दायरे में छटपटा रही है।

वह दोहरी ज़िन्दगी जीती है

निर्मल वर्मा की 'लाल टीन की छत' के नारी पात्र भीतर के रीतेपन से ग्रस्त हैं। अपनी सार्थकता की तलाश और व्यर्थता का बोध आधुनिक नारी में गहराता जा रहा है। युगबोध के अंतर्गत नारी का स्वच्छंद आचरण अनेक उपन्यासों में व्यक्त हुआ है।

श्रीलाल शुक्ल के 'सीमाएं टूटती हैं' की चांद, भगवती चरण वर्मा की रेखा पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर चलनेवाली नारियाँ हैं। शारीरिक पवित्रता की सीमा भी विस्तार पा रही है। कहीं-कहीं आधुनिक के नाम पर उन्मुक्त आचरण विकृति की सीमा तक पहुँच जाता है और अपनी स्वच्छंदता में वह पुरुष के हाथों का खिलौना बन जाती है। वर्तमान जीवन के संत्रास और एकाकीपन के बावजूद भी नारी अपनी वैयक्तिकता की रक्षा करती है और स्वयं के प्रति ईमानदार तथा परिवेश के प्रति सजग दिखाई देती है।

'आपका बंटी' में आज के विवाहित जीवन की असलियत उभऱ कर आई है। स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ते खोखले संबंध की तलाक में परिणति, नारी जीवन को नया अर्थ देने का अवसर और पुरुष से सामाजिक मुक्ति, लेकिन भावी पीढ़ी के हिस्से में रुग्णता और कुंठा ही आती है।

'एक इंच मुस्कान' की अमला के चरित्र से स्पष्ट होता है कि पति द्वारा परित्यक्ता हो कर नारी सबकी दया, सहानुभूति और उपेक्षा की पात्र बन जाती है। । उसका कहना है, 'पति के अतिरिक्त भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो नारी जीवन को पूर्ण बना सकता है। । मैं विवाह नहीं करना चाहती उस ऊँचाई को पाना चाहती हूँ जहाँ जाकर यह सब निरर्थक लगने लगे, ' पति, और परिवार ही नारी का सबसे सशक्त बंधन होता है। जब वही टूट गया तो अमला अपने को क्यों बँधने दे। लेकिन इसके साथ ही उसे अपने जीवन की निरर्थकता का बोध भी होता है।

'सूरजमुखी अँधेरे के' में बालिका रत्ती के चरित्र द्वारा नारी की मानसिक सत्ता की खोज की गई है, जो अब तक उपेक्षित रही थी।

राम कुमार भ्रमर के उपन्यास 'कच्ची-पक्की दीवारें' की आभा देवी का चरित्र एक और उदाहरण है

दो पत्नियों के हंता और अपने से बीस वर्ष बड़े ऐय्याश आदमी से ब्याही जाकर वह अपने जीने का ढंग तलाश लेती हैं। हम-उम्र देवर से उनका संबंध होता है, शराब से भी उसे परहेज़ नहीं

पर उसी देवर द्वारा उसके शरीर के सौदे की बात से गहरा आघात पा कर वह विकृतियों की शिकार हो जाती हैं।

उदयशंकर भट्ट के उपन्यास 'सागर और लहरें 'बारसोवा के मछुओँ के जीवन पर आधारित है जहाँ समाज मातृसत्तात्मक है। घर की मालकिन वंशी पूर्णाधिकार युक्त है, वह पति को भी इच्छानुसार नचाती है। उसकी पुत्री रत्ना का व्यक्तित्व इन्हीं प्रभावों में विकसा है लेकिन वह आवारा माणिक के प्रति आकृष्ट होती है। रत्ना जानती है कि अपनी पहली पत्नी दुर्गा पर उसने अत्याचार किये थे और बाद में उसके अस्वस्थ होने पर खाना-पीना तक छोड़ दिया था। फिर भी उससे विवाह कर लेती है। उसके अत्याचारी स्वभाव से परेशान हो कर वह लौट आती है। माँ उसे बहुत समझाती है कि माणिक को छोड़ दे लेकिन माणिक के अनुनय-विनय से द्रवित हो कर वह उसके साख भाग जाती है। यह जानते हुये भी कि वह सुधरेगा नहीं, वह उसका मोह छोड़ नहीं पाती।

रामेश्वर शुक्ल ने मनोवेगों द्वारा व्यक्तित्व का विकास किया है। उनके'चढ़ती धूप' और उल्का में मंजु का व्यक्तित्व विलक्षण है। दोनों उपन्यासों की नायिकाओं के व्यक्तित्व-विकास की विशेषता है कि उनमें अपार आत्म-शक्ति है जो चंद्र और मोहन की प्रेरणा से विकसित होती है। उल्का में मंजु का तेजस्वी रूप अपने चरम पर पहुँच जाता है जब वह कहती है 'फिर आज मेरे जीवन-धारण का एक उद्देश्य है, मुझे अपनी संतान को पालना है, उसे दुनिया से संघर्ष करना सिखाना है। जन्म से वह सामाजिक कलंक के आवरण से ढँकी-ढँकी आई, लेकिन में जानती हूँ कि वह क्या है, कैसी है, कहाँ से आई है। '

वह सामाजिक रूढ़ियों से संघर्ष करती है, अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की घोषणा करती है, फिर भी वह बहुत स्वाभाविक लगती है। क्योंकि अपनी संस्कृति की परंपरागत मर्यादा नहीं तोड़ती

ईश्वर से अगणित विडंबनाएं पा कर भी उस पर विश्वास करती है

उसी प्रकार यज्ञदत्त के 'मधु' की नायिका मधु का व्यक्तित्व भी राजन की प्रेरणा से विकसित होता है। और आगे चल कर वह राजन से भी अधिक दृढ़ता और आत्मशक्ति प्रदर्शित करती है।

हिन्दी के व्यक्तिवादी उपन्यासों में पात्रों के सर्वांगीण विकास का परिचय न हो कर किसी मनोवृत्ति का ही सूक्ष्म अध्ययन मिलता है। इन उपन्यासकारों(जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय आदि) ने सेक्स की कुंठा को ही प्रमुख रूप से लिया है। अन्य मनोवृत्तियों की ओर ध्यान नहीं दिया। जैनेन्द्र की 'सुनीता' में सुनीता उसकी परिवर्तित होनेवाली मनोवृत्तियों से संघर्ष करती हुई उसके अनुकूल रहती है। और अपनी आत्म-शक्ति से उसे नियंत्रित करती है

सुखदा कान्त के प्रेम में मुग्ध रहने पर भी जीवन में अभाव अनुभव करती है। पर उसका व्यक्तित्व घर की दीवारों से बाहर आने की महत्वाकांक्षा और परिवार के प्रति स्वाभाविक आकर्षण दोनों के द्वंद्व से विकसित होता है। वह राजीव सेसहायता लेने को हेय समझ कर अपने भरोसे चली आती है। अज्ञेय के उन्यास 'नदी के द्वीप' की रेखा उसकी सबसे अधिक सबल पात्र है अपने विवाहित जीवन से कुछ न पानेवाली रेखा के भुवन के प्रति आकर्षण में अज्ञेय ने जिस प्रेम का अंकन किया वह अनुपम है। बाह्य सामाजिकता छोड़, अज्ञेय रेखा के मनोजगत में प्रविष्ट होते हैं और अनादि वासना के उत्कट रूप की ओर संकेत करते हैं। तब लगने लगता है कि यथार्थ, व्यक्ति के बाहर नहीं अन्दर है। एक दिन के दैहिक प्रेम की अनुभूति उसे तृप्त कर देती है और उसका निराश जीवन सार्थक हो उठता है। इसके लिये वह भुवन की चिर-ऋणी है। उसे मुक्त करने के लिये वह भ्रूण हत्या तक करती है। जब वह कहती है, 'आई एम फ़ुलफ़िल्ड' तो उसके निराश जीवन में उस अनुभूति का महत्व ज्ञात होता है।

वासना जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ है जिसकी तृप्ति भोग की मात्रा पर अवलंबित न होकर मन की विशेष दशा पर अवलंबित होती है।

डॉ। देवराज के 'पथ की खोज' की नायिका रेखा से भिन्न है। चन्द्रनाथ साधना के प्रति आकृष्ट हो कर भी आगे नहीं बढ़ पाता। साधना उसकी वासना का उन्नयन करती है। स्वयं अपनी कामना को भी नियंत्रित कर कहती है, 'मुझे तुम्हें भैया कहना ही अच्छा लगता है। ' आँचलिक उपन्यासों में प्रमुख नाम फणीश्वर नाथ 'रेणु' का है। मिथिला के आंचलिक जीवन का बहुत जीवन्त चित्रण उन्होंने किया है। ग्राम्य नारियों की विभिन्न भूमिकाएँ उन्होंने प्रत्यक्ष की हैं,

कमली, दुलारी, फुलिया, लालपान की बोग़म कहानी में चंपिया और उसकी माँ, टीसनवाली बहू, व्यंग्य करती महिलाएँ मिथिला के लोक-जीवन के बीच बड़ी स्वाभाविकता से उभारी गई हैं ग्रामीण लोग जिस प्रकार देखते हैं बिलकुल उन्हीं की दृष्टि से उन्होंने उन्हें अंकित किया है। जैसे 'फुलिया पुरैनिया टीशन से आई है एकदमै बदल गई है फुलिया। साड़ी पहनने का ढंग, बोलने बतियाने का ढंग, सब कुछ बदल गया है -

'तहसीलदार साहब की बेटी कमली अँगिया के नीचे जैसी छोटी चोली पहनती है वैसी वह भी पहनती है। '

उस जीवन की सहजता के अनुरूप ही उनके पात्र सहज रूप से हँसते हैं, दुखी होने पर चिल्ला-चिल्ला कर रोते हैं, लड़ते-झगड़ते और फिर मिलकर बैठते हैं। कहीं कोई कुंठा नहीं है।

प्रेमचन्द के उपन्यासों पर पहले ही विचार कर लेना चाहिये था। उनका आगमन गांधी जी के राजनीति में प्रवेश के साथ हुआ था और उन्होंने ही हिन्दी कथा-साहित्य को जन-सामान्य के जीवन से और विशेष कर ग्रामीण जीवन से जोड़ा। उनके गोदान को ग्राम्य-जीवन का महाकाव्य कहा जाता है। प्रेमचन्द ने आरंभ से ही रूढ़ियों का विरोध किया और नारी-जीवन की विभिन्न समस्याओं को प्रस्तुत करते हुए उनके समाधान का प्रयास किया। अपने पहले उपन्यास 'प्रेमा' में उन्होंने विधवा-विवाह का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। 'सेवा-सदन' में वे अभिशप्त नारी के अभिभावक बनकर सामने आए

'सुमन' के चरित्र द्वारा उन्होंने समाज के खोखलेपन को खोल कर रख दिया। जब तक सुमन सतीश की है, उसके हिस्से में अपमान और यंत्रणाएँ ही आती हैं। दहेज के राक्षस ने उसे अयोग्य पति को सौंपे जाने को विवश किया, उसके परित्याग के बाद समाज का तिरस्कार सहते-सहते लाचार हो कर उसने वेश्या-वृत्ति अपनाई रूप-जीवा बनने के बाद उसके लिए आदर और मान के द्वार खुले, उसका अर्थाभाव भी दूर हो गया। 'निर्मला' में बेमेल विवाह और नारी की विवशता की कहानी है।

'गोदान' में उन्होंने शहरों की पढ़ी-लिखी पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त मालती और उसकी बहिन बुद्धिजीवी संपादक की पत्नी गोविन्दी, तथा मज़दूरी करनेवाली महिलाओं के अतिरिक्त ग्रामीण नारी के सभी वर्गों को प्रस्तुत किया है। 'मालती बाहर से तितली है और भीतर से मधुमक्खी'-परिवार के भऱण-पोषण का दायित्व उस पर है, जिसे वह निभा रही है। पुरुषों के साथ मुक्त हो कर हँसती-बोलती है लेकिन उसके स्वभाव में एक शालीनता है।

पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से उसे स्वयं को पुरुषों के समकक्ष रखना आता है।

स्वाभाविक दुर्बलताएँ भी उसमें हैं लेकिन बाद में उसका चरित्र बहुत ऊँचा उठ जाता है।

प्रेमचन्द ने स्त्री को पुरुष से श्रेष्ठ माना है। ग्रामीण चरित्रों में धनियाँ, झुनियाँ, सोना, रूपा नोहरी। सिलिया आदि में भी व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा हुई है। उनके नारी चरित्र पुरुष चरित्रों की अपेक्षा अधिक सतर्क, प्रखर और व्यक्तित्व-संपन्न हैं। ये नारियाँ पुरुषों की चरित्रगत कमियों की पूर्णता के रूप में आई हैं, जहाँ पुरुष पात्र निराश और असफल हैं, वहाँ लगातार जूझती हुई ये परिणाम को अपने अनुकूल बनाने को सतत चेष्टारत रही हैं।

गोदान में उन्होंने भारतीय समाज का संपूर्ण वातावरण उपस्थित कर दिया है। 'ग़बन' को छोड़ कर अन्य सभी उपन्यासों में उन्होंने अन्य समस्याओं के साथ स्त्री के दाम्पत्य-वैषम्य का चित्रण किया है। अनुचित और अनमेल विवाह का परिणाम दिखाया है कई निर्दोष व्यक्तियों को भयंकर मानसिक पीड़ा और परिवार का सर्वनाश। प्रेमचन्द की नारी में भारतीय नारी का स्वाभाविक संयम है। वे स्त्री की दयनीय दशा से व्यथित थे और उन्हीं पहलुओं को उन्होंने उपन्यास में स्थान दिया जिनमें सुधार की आवश्यकता थी।

प्रेमचन्द के काल में और उनके पश्चात् नारी -जीवन की विषमताओं को लेकर जो उपन्यास लिखे गये वे दो प्रकार के हैं - 1। आलोचनात्मक यथार्थवादी। 2। नग्नतावादी।

आलोचनात्मक यथार्थवादी उपन्यासकारों में भगवती प्रसाद वाजपेयी के 'अनाथपत्नी' 'त्यागमयी', 'पतिता की साधना', वृन्दावन लाल वर्मा के 'लगन', 'कुण्डलीचक्र', प्रसाद के 'कंकाल', और 'तितली', विश्वंभर नाथ कौशिक का 'माँ', 'भिखारिणी' उषा देवी के 'पथचारी', 'पिया', निराला के 'अप्सरा', 'अलका' आदि। इनका विषय पुरुष की अक्षम्य उच्छृंखलता और नारी की भयंकर पराधीनता एवं विवशता है। ये उपन्यास स्त्री को वंचित करनेवाली रूढ़ियों को उखाड़ फेंकने की आवाज़ उठाते हैं। वृन्दावन लाल वर्मा के 'कुण्डली चक्र' में दो प्रकार के नारी चरित्र हैं एक विवश हो कर मनचाहे पुरुष से विवाह नहीं कर पाती, दूसरी अपनी बुद्धि और धैर्य से काम लेकर अपना प्राप्य पा लेती है। यह वास्तव में स्त्री पर मनमानी की कहानी है। ललित सेन के शब्द लेखक का संदेश-वहन करते हैं, 'तुम्हीं यदि कुछ रौद्र प्रकृति की होतीं तो आज यह नौबत क्यों आती।? तुम लोगों की आदर्श-प्रियता ने ही बहुत से पुरुषों को नरक का कीड़ा बना रखा है। '

नग्नतावादी उपन्यासों में उग्र, । आचार्य चतुर सेन शास्त्री, ऋषभ चरण जैन, मन्मथनाथ गुप्त आदि के नाम आते हैं।

इनका मुख्य विषय व्यभिचार है। मन्मथनाथ गुप्त ने स्पष्ट किया है कि समाज में जब स्त्री का पाप खुल जाता है तभी वह पाप है। चतुरसेन ने बाल्यकाल से ही विधवा होकर समस्त सुखों से वंचित रहनेवाली युवतियों में नैसर्गिक वासना का जाग्रत होना दिखाया है और फिर उसे कैसी-कैसी ठोकरें खानी पड़ती हैं और जीवन नर्क हो जाता है। इन उपन्यासों में स्त्री स्वयं अपनी दुर्बलता या वासना की शिकार हो कर पतन की ओर जाती है।

उपरोक्त विश्लेषण के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिस सामन्ती-प्रेम का वर्णन करते हुये साहित्य थकता नहीं, वह बे-लगाम वासना की कहानी है। उस समाज मे व्यभिचार बुरी तरह फैला था। अवसर पाते ही स्त्रियाँ भी स्वेच्छाचार पर उतर आती थीं

इसके अतिरिक्त वह कुछ और करने को स्वतंत्र नहीं थीं। निलकुल उसी तरह जैसे अवनति काल में रोमन स्त्रियाँ केवल व्यभिचार में ही स्वतंत्रता का अवसर पाती थीं। इसलिये यह अनुमान लगा लिया गया कि उसकी स्वाधीनता का अर्थ नकारात्मक है।

स्त्री-पुरुष में सहज स्वाभाविक-दो व्यक्तियों का समान संबंध दुर्लभ था। वह पुरुष की मित्र और साथी बन कर जीवन में साझेदारी नहीं पा सकी, वश-वर्तिनी की भूमिका में ही रखा गया।

समर्पण और सद्गुणों के कारण पूजित हो कर भी व्यक्तित्व की गरिमा नहीं प्राप्त कर सकी, मानवी-जगत से अलगाव की स्थिति में रही। उसका व्यक्तित्व हमेशा मांसल समझा गया।

पुरुष जब नारी को पूर्णतः अधिकृत कर लेता है तो वह वस्तुतः एक वस्तु में परिणत हो जाती है, फिर वह चाहता है उसका आदिम जादुई आकर्षण भी बना रहे। पर दासी और सहधर्मिणी एक साथ कैसे हुआ जा सकता है। वह निरंतर परजीवी और पराश्रिता रही, सहयात्री होने का अवसर उसे नहीं दिया गया।

सोरेन कीर्केगार्द के अनुसार नारी के माध्यम से ही जीवन में आदर्श का प्रवेश होता है, वह पुरुष को आदर्श का सृजनकर्ता तभी बना सकती है जब उसके संबंध पुरुष के साथ नकारात्मक हों और तभी पुरुष असीमित बनता है। सकारात्मक संबंध उसे सीमित कर देता है। पुरुष नारी से कई भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ एक साथ चाहता है, सेविका और प्रेमिका। समाज में पुरुष का यौन सांसारिक माना गया और स्त्री के यौन पर धार्मिकता का ठप्पा लगा रहा।

समाज के हित के लिये स्त्री का सदा दमन किया गया। यदि वह पुरुष को हर प्रकार का सुख-संतोष देती है (वह चाहे जैसा भी हो)पूर्ण समर्पित हो कर अपना अस्तित्व मिटा देती है तो वह देवी है, उसका अपना व्यक्तित्व होते ही वह डायन हो जाती है। श्रम करनेवाली मधुमक्खी, और बच्चों के पालनेवाली मुर्गी के स्थान पर उसे मकड़ी और नागिन ही कहा जाता रहा। ये सारे विशेषण संत-काव्य ने नीति-काव्यों में स्थापित कर नारी के साथ जोड़ दिये थे।

काम-संबंध पुरुष की इच्छा से स्थापित किये और तोहमत स्त्री पर लगाई जाती रही कि वह नरक में घसीटती है, चाहे उसके पीछे स्त्री को जीवन भर नरक भोगना पड़े।

स्त्री से सबसे अधिक विद्वेष रखने वाला पुरोहित-वर्ग रहा जो शारीरिक संबंध को पाप समझता था और विवाह को सांसारिकता में फँसाने का माध्यम। स्वाभाविक जीवन को स्वीकृति देना उसे हीनता का द्योतक लगता था। साहित्य में यदि देखा जाय तो कवियों की प्रेरणा अधिकतर नारी ही रही और काव्य की विषय वस्तु भी। पुरुष अपनी शक्ति को तभी सार्थक मानता है जब स्त्री उसे अपना सौभाग्य मान कर स्वीकार करे।

दलित वर्ग की सदा यह स्थिति होती है कि वह अपनी वास्तविकता सावधानी से छिपाता है, उसे अपना कृत्रिम रूप सामने रखना होता है। स्त्री भी मुक्त मन से अपनी बात कहने में सदा असमर्थ रही, उसे वही बोलना पड़ता था जो उसे सिखाया जाता रहा कि क्या बोलना चाहिये। विवाह और मातृत्व ही उसकी संपूर्ण नियति बनी रही। साहित्य में भी सदा यही देखने में आता है कि एक बुद्धिमान और दबंग लड़की की तुलना में खूबसूरत और बेवकूफ़ ही पुरुष को जीत पाती है और जीवन में आसानी से सब-कुछ पा लेती है।

स्त्री के जीवन का अर्थ सदा नैतिक मान्यताओं का पोषण और कामनात्मक जीवन का दमन रहा। इसलिये उसका अपना व्यक्तित्व नहीं बन सका।

नारी को देखने का प्रत्येक कलाकार का अपना दृष्टिकोण तो होता ही है पर उस पर युग का प्रभाव भी पड़ता है। आज नारी के प्रति जो दृष्टिकोण बदला है उसके पीठे वर्तमान काल की बदली हुई परिस्थितियों का हाथ है, कुछ पिछले युगों के प्रयास भी रहे हैं। यदि समर्थ स्त्रियाँ इतिहास में बिरली हैं तो उसका कारण उनका स्त्री होना नहीं, बल्कि सामाजिक स्थितियाँ हैं। सार्वजनिक हित के लिये सदा स्त्री का दमन किया गया। आज के साहित्य में भी दोनों की भूमिकाओं में पर्याप्त भिन्नता है। दोनो अपनी-अपनी दुनिया में जीते हैं, एक दूसरे से अनजाने, परस्पर पर दोषारोपण करते हुये।

स्त्री को गृहस्थी की माँगे ले कर सांसारिकता में जीना है। उसका का अपना क्षेत्र सीमित रहते हुए भी परिवार में निजत्व का विस्तार कर अपना सुख-दुख सबसे जोड़ लेती है। और पुरुष अपेक्षाकृत अपने में सीमित, बस यही है एक अंतराल की शुरुआत। क्योंकि पुरुष अपने को समर्थ और संपूर्ण समझता है, स्त्री उसकी सामयिक आवश्यकता। आवेग का ज्वार उतरते ही जब सांसारिक जीवन के कटु यथार्थ सामने आने लगते हैं तो उसे लगता है वह फँस गया, उसका अहं उसे चेताता है। वह बाह्य-जीवन के अनेक पक्षों और उसकी विविधता में जीना चाहता है। पारस्परिकता उसे मान्य नहीं। अपने से पृथक् समझने के कारण स्त्री उसकी समझ से बाहर है, वह उसे अबूझ और रहस्यमय कह कर निश्चिन्त हो जाता है। अपने अहं की तुष्टि के लिये वह स्त्री को हीन समझना उसके लिये बहुत आसान है, भले ही वह उसकी अपनी हीनता का नारी पर आरोपण हो। । स्त्री भी पुरुषों की दुनिया से अलग-थलग। समान स्तर पर सहयोग के अभाव में वह अपने को निरंतर वंचित -प्रवंचित अनुभव करती है।

समान मानवीय स्तर पर नारी और पुरुष दोनों के स्थापित होने की कल्पना जब तक यथार्थ में परिणत नहीं होती तब तक ये विसंगतियाँ बनी रहेंगी। कभी कोई एक रूप लेंगी, कभी कोई दूसरा, लेकिन प्रकृति के सहज विकास और पूर्णतर होने की प्रक्रिया से दोनों वंचित रह जायेंगे। तब असन्तोष और कुण्ठायें ही मुखऱ होंगी, चाहे जीवन हो चाहे साहित्य।