पक्षीवास / भाग 14 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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किसके आगे शिकायत करती, चैती? इमानुअल साहब के आंख भींचने के बाद, मैम साहिब आस्ट्रेलिया में जाकर रहने लगी थी। अभी इगनेस साहिब के दायित्व में था सब कुछ। एक अच्छा इंसान, लेकिन चैती के साथ उसका कोई परिचय नहीं था, इसलिये इगनेस साहिब को मिलने के लिये चैती साहस नहीं जुटा पाती थी। हाँस्टल का कार्य-भार सभालने वाली सिस्टर स्नेहलता से बोली थी “दीदी, आप इगनेस साहिब से पूछकर मेरे सन्यासी की कोई खोज-खबर नहीं ले लेती? सन्यासी के आते ही हम यहाँ से गांव चले जाते। गांव में रहते, जो भाग्य में होता, देखा जाता।”

तीन महीने के लिये जापान गया हुआ था सन्यासी। उस समय चैती को चार महीने का गर्भ था। सन्यासी ने समझाया था, देख सिर्फ तीन महीनों की ही तो बात है, देखते ही देखते, समय पार हो जायेगा। मैं जा रहा हूँ, ढ़ेर सारे रुपये कमाकर लाऊँगा। अपना एक घर बनायेंगे, उसमें तुम्हारे माँ-बाप, मेरे माँ-बाप सभी साथ में रहेंगे। बड़े-बड़े शहर, बड़ी-बड़ी जगहों में कोई भी जाति-पाति को नहीं मानता। वहाँ खूब आराम से रहेंगे।

चैती जानती थी केवल उसका मन रखने के लिये सन्यासी, ये सब बातें करता था। वह, न ही कभी पैसों के पीछे भागता था, और न ही किसी संसार के पीछे। मिशन को छोड़कर वह किसी दूसरी जगह रह भी पायेगा, ऐसा नहीं लग रहा था चैती को। मिशन जीवन के साथ उसने अपने आपको ऐसे ढाल दिया था कि उससे निकलकर बाहर एक अलग घर-परिवार बनाने की बात केवल एक झूठ के अलावा कुछ भी नहीं थी।

पहले-पहले तो चिट्ठी-पत्र भेजता था, मिशन आँफिस में फोन भी करता था। उसकी आवाज उसके बोल सुनने से चैती के मन को शांति मिलती थी। रोज दीवार के ऊपर लकीरें खींचकर रखती थी, सन्यासी के लौटने के दिनों का हिसाब। सन्यासी फोन पर समझाता था उसको “तुम पर दो-दो बड़ी जिम्मेदारियां सौंप कर आया हूँ चैती, मेरे लौटने तक सारी जिम्मेदारियाँ ठीक तरीके से निभाओगी।”

चैती बोलती थी “तुम चले आओ और खुद संभालो अपने घर की बगिया एवं अपने बच्चे को।”

“बच्चा तो तुम्हारे पेट के अंदर है, कैसे मैं संभालुंगा उसको? उसका ध्यान कैसे रखा जाता है, तुम जानती हो चैती, तुम अच्छे से खाओगी, तभी हमारा बच्चा स्वस्थ रहेगा।”

“मैं कुछ भी नहीं जानती। तुम लौटकर जल्दी घर आओ, तो” चैती जिद्द करने लगती।

“यह कैसे संभव होगा? देख नहीं रही हो काम और तीन महीने के लिये बढ़ गया है। ऐसे बुला देने से क्या मैं आ पाऊँगा?”

तीन महीने के लिये गया था सन्यासी। तीन महीना और बढ गया। चैती सोच रही थी बच्चा पैदा होते समय सन्यासी यहाँ पहुंच पायेगा या नहीं। सन्यासी को गये हुए तीन महीने गुजर कर चौथा महीना भी लग गया था, बच्चा पेट में आठ महीने का हो गया था। फिर भी सन्यासी नहीं लौटा। कुछ दिन पहले सन्यासी ने सिस्टर स्नेहलता को फोन करके कह दिया था इसलिये सिस्टर ने चैती को मिशन अस्पताल में दिखाकर दवाई व्यवस्था करवा दी थी। डाक्टरानी बोली थी “बच्चा ठीक है, लेकिन खाना-पीना ठीक से करना होगा।”

कैसे अच्छा खा पायेगी चैती? सन्यासी के जाने के बाद उसके खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं था। मन होने से खा लेती, नहीं तो भूखी सो जाती। सवेरे-सवेरे अपने बचे हुये काम निपटाकर, वह पहले चली जाती थी मिशन के बगीचे की तरफ। वहाँ माली के साथ मिलकर एकाध घंटा काम करती थी। कभी गोबर डालती थी, कभी पौधों की जड़ों को कुरेदती थी। बूढ़ा माली उसको ऐसा करने से मना करता था। “तुम घर चली जाओ, ऐसी हालत में तुम्हारा झुक-झुककर काम करना ठीक नहीं है। मास्टर बाबू भी तो आपके साथ में नहीं हैं।” चैती बोलती थी “जानते हो, वे मुझे कहकर गये थे कि बगीचा और बच्चे का पूरा-पूरा ध्यान रखना।”

बूढ़ा हँसता है, बड़े ही अच्छे इँसान है मास्टर बाबू! इसलिये अपने बच्चे की बात भूलकर पेड़-पौधों के बारे में सोच रहे हैं।

“नहीं नहीं, काका, वे तो पेड़-पौधों और बच्चे, दोनों की बात कहकर गये हैं। फोन में सिस्टर से भी कहा था, इसलिये तो सिस्टर मुझे डाक्टर के पास भी ले गयी थी।”

“बेटी,एक बात कहूंगा, मास्टर बाबू तो पास में नहीं है। अपनी माँ या सासू माँ को क्यों नहीं बुला लाती? अगर मुझे कहते, तो आपको अपने गांव में छोड़कर आ जाता।”

गांव की बात, सास-ससुर की बात आ जाने से, चैती को चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगता था। वह माली को बता भी नहीं पा रही थी, कि सन्यासी के अलावा उसका इस दुनिया में और कोई नहीं है। उसको अब, न ही उसके माँ-बाप, अथवा सास-ससुर, अपनाने के लिये आगे आयेंगे, ऎसी आस चैती की नहीं थी।

चैती मिशन में सिर्फ माली के साथ ही जान-पहचान बढ़ा पायी थी। इसलिये वह अपने मन की बात उसे बोल देती थी। मगर उसे अपने अतीत के बारे में बताने में संकोच लग रहा था।

उसको बहुत डर लग रहा था। वह अपने पेट के अंदर बच्चे के हिलने-डुलने का अनुभव करने लगी थी। वह समझ पा रही थी कि उसका बच्चा कुछ ही दिन बाद बाहर का उजाला, हवा-पानी छूने के लिये, अब तैयार था। वह डर जाती थी कि बच्चे को अगर पैदा करते ही वह मर गयी, तो उस बच्चे का क्या होगा?

सन्यासी की चुप्पी इस समय सबसे ज्यादा उसको खाये जा रही थी। तीन महीने का कहकर छः महीने रहने की योजना बना दी थी उसने। उसके दिमाग में क्या थोडी सी अक्ल भी नहीं है? उसे इस बात का भी ध्यान नहीं है कि उसका बच्चा चैती के पेट में पल रहा है। क्या उसे मालूम नहीं है कि इमानुअल साहिब और मैरिना मैम साहिब अब मिशन में नहीं है?

क्षण भर के लिये उसके मन में संदेह पैदा हुआ कि कहीं वह वहां की सुंदर-सुंदर लड़कियों के चक्कर में तो नहीं पड़ गया। उन सुंदरियों के साथ खडे होकर कितने फोटो खींचवाये होंगे सन्यासी ने! कितना गोरा चिट्ठा शरीर, काले भरे भरे बाल, गुलाबी होंठ, पतली-पतली आँखे होंगी उन सुंदरियों की! फिर उसके मन से संदेह की भावना चली गयी थी। नहीं, उसका सन्यासी ऐसा नहीं है। उसने चैती को बांसुरी बजाकर वश में कर लिया था, तो वह सबको बांसुरी बजाकर वश में कर लेगा? उस पागल ने अपने काम में व्यस्त रहकर भूला दिया होगा अपने घर-बार को।

मन को हजार बार समझाने से भी उसे रोना आ जाता था और बड़ा ही असहाय महसूस कर रही थी वह। अपने छोटे से क्वार्टर में अकेली बैठकर बहुत देर तक रोती रहती थी चैती। गांव के जंगल, पहाड़, झरना, नाला रह-रहकर उसे याद आ जाते थे। पेट में बच्चा है, इसलिये आस-पडोस वाले सब्जी,खीर, पीठा दे जाते थे और एकाध घंटा उसे आश्वासन दे जाते थे कि चिंता मत करो, हम लोग हैं ना, जरुरत पड़ने से सिर्फ आवाज दे देना, हम लोग चले आयेंगे।” फिर कभी-कभी कहते थे कि गांव से किसी रिश्तेदार को बुला क्यों नहीं लेती?

गाँव का नाम सुनते ही चैती का मन बहुत उदास हो जाता था। गाँव में उसकी दादी, माँ-बाप, भाई-बहिन, फूफा-फूफी, चाचा-चाची, अड़ोस-पडोस सब कोई थे। मगर ईसावेला सतनामी के लिये तो केवल क्रिस्टोफर सतनामी ही है। जो अभी परदेश में है। भूल गया है उसको। इड़ीताल से नाराज हो गयी थी चैती।

भोपाल शहर बड़ा ही अपरिचित लग रहा था। वह शहर मानो जंगल से भी भयंकर हो। उसको सन्यासी पर बार-बार गुस्सा आ रहा था। उसको अकेले लड़ने के लिये छोडकर कैसे चला गया वह?

बंद कमरे में वह अपने आप से बात करते-करते छटपटा जाती थी। मिशन में उनकी जाति का कोई नहीं थी। सब कोई पढ़े-लिखे थे तथा उन लोगों के साथ उठने-बैठने में संकोच हो रहा था चैती को। चैती उन लोगों से मिल-जुल नहीं पाती थी। सन्यासी के जाने के बाद यह एक नई समस्या खडी हो गई थी। छुपकर गांव चले जाने का मन हो रहा था उसका। अपनी बेटी को फिर एक बार अपना नहीं लेंगे वे लोग? बेटी की यह हालत देखकर माँ-बाप का जीवन पसीज नहीं जायेगा? मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती थी, भाईयों के बारे में सोचकर। शायद उसे मार-काट कर फेंक देंगे।

उस दिन मिशन के बगीचे में माली को देखकर चैती ने कहा था “काका, बड़ा ही डर लग रहा है। मन भारी भारी हो रहा है। मास्टर बाबू, ठीक है? क्यों कोई फोन नहीं आ रहा है, कुछ खबर भी नहीं है।”

यही बात तो उस दिन सिस्टर भी बोल रही थी। मैने उसको तुम्हारे बारे में बताया था। सिस्टर को भी कुछ पता नहीं है इस बारे में। मास्टर बाबू का फोन आजकल नहीं आ रहा है। आँफिस में सभी लोग यही बात कर रहे थे कि मास्टर बाबू की चिट्ठी क्यों नहीं आ रही है? उनको तो तीन महीने में वापस आ जाना था। तुम चिंता मत करो, वह शायद लौटने वाले होंगे, इसलिये शायद खत नहीं लिख रहे होंगे।”

जब वे दोनो बातचीत कर रहे थे तभी इग्नेस साहब बगीचे के अंतिम छोर पर स्थित ‘मदर मैरी’ के सामने कुछ प्रार्थना कर रहे थे। माली कह रहा था “अभी इग्नेस साहिब इसी रास्ते से होकर लौटेंगे, तब तुम अपने दुःख की बात उनके सामने रखना। उनको पूछना कि तुम्हारा पति, मिशन स्कूल का मास्टर, चार महीने पहले जापान देश को गया था, वापस क्यों नही लौटा? उसकी कोई खोज-खबर क्यों नहीं हुई?”

इगनेस साहब एक अच्छा आदमी है, मगर इमानुअल साहब के जैसा नहीं है। बगीचे में आकर कौनसे पेड़ को कैसे संभालना है, समझाते थे। कभी-कभी तो वह खुद भी बगीचे में काम करने लगते थे। इग्नेस साहिब मदर मैरी के सामने प्रार्थना करके लौट गये थे उसी रास्ते से। मगर चैती कुछ भी बोल नहीं पायी। माली ने कहा “बेटी, ऐसे तुम्हारे हतोत्साहित होने से कैसे चलेगा? मुझे ही कुछ करना पड़ेगा। देखता हूँ क्या कर पाता हूँ?”

कितनी ही बार चैती ने सिस्टर स्नेहलता से कहा था, “दीदी, मैरीना मैम साहब के साथ थोड़ी बात करवा देती।”

सिस्टर कहती थी “मेरे पास उनका नया फोन नंबर नहीं है। ऐसा सुनी हूँ कि वह अभी आस्ट्रेलिया में नहीं है।”

जैसे किसी चक्रव्यूह में फंस गयी हो चैती और निकलने के लिये उसमें से कोई रास्ता नहीं हो। अपनी तकदीर को कोसती थी वह।

मगर उसके भाग्य में क्या लिखा है, कौन जानता है? धीरे-धीरे सब कोई सन्यासी को भूल जायेंगे। उसके बाद? अभी मिशन अस्पताल जाने से डाक्टर व सिस्टर अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं। कोई हँसकर भी नहीं पूछता है कि तुम्हारी तबीयत कैसी है? मास्टर बाबू कैसे हैं? मगर कुछ दिन पहले तो पूछते थे।

एक दिन वह माली के साथ मिशन अफिस में गयी थी, सन्यासी की खोज-खबर लेने के लिये। उल्टा आँफिस के लोग उससे पूछने लगे “तीन महीने के लिये सतनामी बाबू गये थे। क्यों नहीं लौटे अब तक? आपको कुछ बताये है क्या? उनका कुछ अता-पता है? कभी फोन आया था क्या? हमको बिना बताये, अपना ‘एक्सटेंशन’ करा लेने से समस्या खडी हो सकती है।” ऐसे कितने सारे आरोप सुनकर आयी थी वह।

माली ने उसका पक्ष लेते हुये कहा था “मास्टर बाबू को मिशन वालों ने बाहर भेजा है। उनके हित-अहित के बारे में सोचना तो मिशन का ही काम है। मास्टर बाबू को कुछ भी होने से मिशन का ही तो उत्तर दायित्व है।” पहले सभी लोग चुप हो गये माली की बात सुनकर। अंत में बड़े बाबू ने अपने चश्मा को नाक के उपर खिसका कर कहा “तुम चुप रहो, पुरंदर। तुझे क्या समस्या है? तुम अपना काम देखो। सभी बातों में अपना सिर खपाने के लिये कौन कह रहा है?”

माली बड़े बाबू की बात सुनकर चुप हो गया। बडे-बाबू कह रहे थे “मिशन ने उनको नहीं भेजा है। सिर्फ उनकी छुट्टी मंजूर की थी। मैरीना मेम साहब ने भेजा था उनको। जाओ, उनसे बात करो।”

रुंआसी हो गयी थी चैती। कहने लगी “मैरीना मैमसाहब से थोड़ी मेरी बात नहीं करवा देते?”

“उनका नंबर हमारे पास नहीं है। वह तो बेल्जियम में अपने भतीजे के साथ रहती है।”

चारों तरफ केवल अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दे रहा था। उसे लग रहा था मानो वह अनाथ हो गयी हो।

दादाजी की बहुत याद आने लगी। दादाजी, आप अपनी पोती को भूल गये? क्यों मुझे इड़ीताल सिखाया था? जिसकी वजह से मेरा सन्यासी खो गया है।

“हे, कौन हो तुम मेरे पेट में? अगर तू पेट में नहीं रहता, तो मैं मरने के लिये गाँव चली जाती।”

माली को बहुत दया आ गयी। बोला

“चलो, मंत्री के पास जायेंगे और इस बारे में गुहार लगायेंगे।”

“किस मंत्री के पास?”

“तुम्हारा आदिवासी हरिजन मंत्री है न कोई, तुम्हारा बिरादरी वाला”

“मैं नहीं जाऊँगी। क्यों जाऊँगी? इसी मिशन में वह पढ़ा था। मिशन तो मानो उसका घर हो। यहीं पर उसने शादी भी की। अपने घर के बच्चे को कैसे भूल जाते है, ये लोग?”

अंत में एक दिन चैती इगनेस साहिब को मिलने गयी। पहले जैसा डर अब नहीं था, मन में। जिसका घर-परिवार बिखर गया हो, आखिरकार वह क्या करेगी?

“साहिब, मेरे पति को कितने समुंदर पार भेजे हो? वह अभी तक लौटकर नहीं आया। उसका कुछ भी अता-पता नहीं। मैं अब क्या करूँगी?”

पहले इगनेस साहब चुप हो गये, जैसे क्या जवाब देंगे? समझ नहीं पा रहे थे। बाद में बोले “हाँ, मेरे कान में यह बात पड़ी थी। हम उसकी छानबीन कर रहे हैं। जैसे ही कुछ खबर मिलेगी, बतादूँगा। बाकी प्रभु यीशु की मर्जी।”

“ऐसे मत कहिये, मेरा सन्यासी और क्या नहीं आयेगा?”

“नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है। हम लोग कोशिश कर रहे हैं। शायद विसा में कुछ गड़बड़ी हुई होगी। तुम अभी जाओ, कुछ होने से आपको खबर करेंगे।”

“कहाँ चला गया, कहाँ गुम हो गया, मेरा सन्यासी?” बोलते-बोलते ही रो पड़ी थी चैती, “मेरा कोई नहीं है उसको छोडकर? मैं कहाँ जाऊँगी?”

“धीरज रखो, ऐसे करने से चलेगा क्या? वी डान्ट नो वेदर ही इज अलाइव आँर .... ” अंग्रेजी में बोलते-बोलते इगनेस साहब चुप हो गये। अच्छा हुआ हिन्दी में नहीं बोले थे, अगर बोलते तो चैती की क्या हालत होती?

यद्यपि अंग्रेजी उसको समझ में नहीं आती थी, परन्तु उसने अंदाज कर लिया था कि जो हो रहा है, वह अच्छा नहीं हो रहा है। उस दिन चैती बहुत बीमार हो गयी। शाम को प्रसव-पीड़ा शुरु हो गयी थी। शरीर के सब तार टूट से गये थे, जैसे कि शरीर के अंदर आंधी-तूफान चल रहा हो। पास-पडोस की सहायता से उसे मिशन अस्पताल में भर्ती कराया गया। अधमरी अवस्था में लेटे हुये वह सुन रही थी - बांसुरी के सुर। जैसे कि वह उदंती के उस पार भाग कर चले जाना चाहती हो। कोई बोला आपको बेटा हुआ है? उदंती में अभी पानी भर गया है। पत्थर भी नहीं दिख रहे थे। कूँदते-फाँदते उस पार जाने के लिये चाहते हुये भी वह और नहीं जा पायेगी। फिर भी बांसुरी के स्वर पत्थरों को चीरते हुये, नदी को पार करते हुये, सुनाई पड़ रहे थे। पानी कम होने से सन्यासी जरुर आयेगा।