पक्षीवास / भाग 15 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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प्रारंभ से ही पता नहीं क्यों मन कह रहा था कि आज का दिन ठीक से नहीं कटेगा। वास्तव में, सुबह-सुबह उसकी नींद टूट गयी, एक बिलाव के रोने की आवाज से। ऐसे लग रहा था जैसे कि एक नवजात शिशु रो रहा हो।

उस तरफ से झूमरी जोर से गाली दे रही थी, “हरामजादा, तुझे और कहीं जगह नहीं मिली, सवेरे-सवेरे मेरा कपाल फोड़ने के लिये यहाँ आकर म्याऊं-म्याऊं करने लगा?” कुछ समय तक छत के उपर म्याऊं-म्याऊं करने के बाद वह बिलाव चला गया। और परबा को नींद नहीं आई। लेकिन इतने अंधेरे में उठकर वह क्या करेगी? नींद नहीं आने से भी खटिया में इधर-उधर करवटें बदल रही थी। इसी समय, उनके दरवाजे पर किसी के खटखटाने की आवाज सुनाई दी।

इतना सवेरे-सवेरे कौन ग्राहक आ पहुंचा है? ये मतवाल और गंजेडी लोग सोने-बैठने भी नहीं देंगे? झूमरी गाली देते देते, कुछ देर बाद सोकर खर्राटा मारना शुरु कर दी। परबा को डर लग रहा था फिर भी उसने धीरे-धीरे दरवाजा खोल दिया।

“तू?” आश्चर्य चकित होकर पूछने लगी।

‘इतने अंधेरे में? क्या हो गया?”

“चल, अंदर चल।” बोलते-बोलते वह अंदर जाने के लिए रास्ता छोड़ दी थी, “क्या हो गया जो इतने अंधेरे में तू यहाँ आगयी? कोई कुछ बोल दिया क्या? मेरी बहिन!”

कुंद थर्रा रही थी। उसकी हृदय की धड़कने बढ़ गयी थी। वह हाँफने लगी थी। परबा घडे में से एक गिलास पानी लाकर पकड़ा दी थी, कुंद को।

“ले, पी, पहले पी ले।”

मना करते करते पूरे गिलास का पानी, सवेरे-सवेरे पी गयी थी कुंद। बस्ती के नीचे की तरफ से ऊपर की तरफ, कितना दूर था जो? इतने में ही पसीने से पूरी तरह तरबतर हो गयी थी।

परबा उसको पुचकार रही थी। पता नहीं, क्या ऐसी विपदा आ गयी उस पर? वह बिलाव भी तो सवेरे-सवेरे शिशु की भांति रो रहा था।

कुछ समय चुपचाप बैठने के बात कुंद बोली थी “दीदी, तुम्हारा भाई आया था मेरे पास। रात भर वह मेरी खोली में था। अभी-अभी चला गया। जैसे ही वह चला गया, मैं भागते हुये तुम्हारे पास आ गयी।”

अभी थर्राने की बारी जैसे परबा की थी। खूब जोर-जोर से कांपने लगा था उसका शरीर। “क्या बोल रही हो, कुंद तुम? सच बोल रही हो।”

“तुमको मैं झूठ बोलूंगी? क्या तुम मुझ पर विश्वास नहीं करती हो?”

“नहीं, नहीं, बहिन विश्वास क्यों नहीं करुंगी? मैं तो अपने कानों पर भी विश्वास नहीं कर पा रही हूँ। सच्ची में, मेरा भाई, मेरा वकील भाई, ना?”

“और कौन होगा? वकील ही तो था।”

“तुमने मेरे बारे में उसको कुछ बताया क्या?”

“नहीं, नहीं। आंख छूकर बोल रही हूँ मैने कुछ भी नहीं बताया। तुमने तो पहले से मना कर दिया था। फिर कैसे बताती?”

“फिर... किसलिये यहां आया था मेरा भाई? उसको खबर कैसी मिली? बिना शादी किये तुम उसके साथ सो भी गयी रात भर?”

कुंद घबरा गयी। इतने सारे प्रश्न एक साथ पूछ रही थी परबा, उसको। रात भर वे दोनों सोये नहीं थे। इस बात पर क्या परबा विश्वास करेगी? इधर-उधर की कितनी सारी बातों में ही बीत गयी थी पूरी रात। पठान लड़के के साथ परबा की भागने की कोशिश वाली बात भी हुयी थी। रोते बिलखते रात बिता दी थी दोनों ने। कोई क्यों विश्वास करेगा?

कुंद बोली थी “तू, दीदी, ऐसा क्यों बोल रही है? मैं तुम्हारे भाई के साथ क्या धंधा करुंगी?”

“धंधा नहीं, बहिन, तुम मेरी भाभी हो या नहीं, बताओ? हम लोगों की क्या शादी और क्या विदाई? हम तो हर रात एक नया पति बनाते हैं। हमारा क्या घर-संसार? तुम रह क्यों गयी? नहीं, भाग जाती मेरे भाई के साथ।”

“भाग गयी होती, लेकिन तुम्हारा भाई बोला कि कुछ दिन और रुक जा, इसके बाद मैं तुम्हें ले जाऊंगा। एक बडा काम बाकी है, उसको पहले खत्म कर लेने दो। उसके बाद मैं तुम्हें यहाँ से उठाकर ले जाऊँगा। तुम मेरे साथ-साथ रहकर बंदूक चलाना सीखोगी।”

“क्यों? तुमको लेकर क्या वह घर-संसार बसाना नहीं चाहता है?” तुम क्यों बंदूक उठाओगी? अंतरा सतनामी का नाम डुबायोगी क्या? तुम हमारी जाति-बिरादरी की हो या नहीं? तुम मेरे भाई के साथ घर करोगी। मेरे बाप, मेरी माँ को दो वक्त का खाना परोसोगी। सही में, आखिरी समय में दोनों को थोडा-बहुत सुख मिलना चाहिये।”

“मैं और कैसे गांव जाऊंगी? क्या कहूंगी सबको? कहाँ थी इतने दिन तक? तू ही बता, शरम से मैं मर नहीं जाऊंगी?”

“क्या और करेंगे, बहिन? तू बता तो, मेरा भाई कैसे तुम्हारा पता पा गया? किसने खबर दी उसको? जिसने भी खबर दी, उसको तो मेरे बारे में भी पता होगा?”

“कहाँ से खबर पाया? मुझे नहीं बताया। लेकिन इतना कहा था “मैं रामचन्द्र हूँ, तेरा यहाँ से उद्धार करुंगा। लेकिन छुपते-छुपाते हुये नहीं, रावण को मारने के बाद ही।”

परबा को डर लगने लगा था। उसके भाई को जिसने कुंद की खबर दी, उसने परबा के बारे में नहीं बताया होगा? यह बात अलग थी कि, परबा अपनी खोली में से बहुत ही कम बाहर निकलती थी। हफ्ता भर के लिए दाल-चावल खरीदकर अपने पास रख लेती थी। एक दिन का खाना दो दिन चलाती थी।

झूमरी का अलग चूल्हा होने के बाद से परबा का खाना-पीना, पकाने का और कोई झमेला नहीं रहता था। एक हरी मिर्च, एक छोटा-सा प्याज मिल जानेसे भात के साथ खा लेती थी। गांव में रहते समय, कहां कभी ठाट-बाट के साथ पेट भर खाना खाती थी, जो यहां खायेगी? लेकिन गांव में रहते समय आँखों में थे भरपूर सुनहरे सपने। यहाँ आकर उसको अपना जीवन बहुत ही लंबा लगता है, बहुत ही लंबा। शादी की बात तो वह पूरी तरह से भूल चुकी थी। केवल पेट के लिये जुगाड करना ही उसके लिये सब कुछ था। उसके लिये भी उसे हाथ पैर नहीं हिलाना पड़ता था। उम्र ढल जाने के बाद क्या होगा, पता नहीं? सोचने से अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगता था।

कुंद को उसका भाई छुड़वाने आया था। सुनकर ईष्र्या के बदले बहुत ही खुश हुई थी परबा। जैसे भी हो, लड़की का जीवन सुधर जायेगा। आज नहीं तो कल, दोनों अपना घर-संसार बसायेंगे, खायेंगे, पीयेंगे, रहेंगे।

परबा बोली थी “कुंद, तुम मेरे भाई से शादी रचाओगी? जो भी कमाओगी, उसमें से कुछ मेरे माँ-बाप के लिये खर्च करोगी।”

“हाँ, दीदी, हाँ। तू क्या सोच रही है मैं उनको दुःखी करुँगी?”

“कुंद, सुन। तुम किसी को भी नहीं बताओगी कि मैं यहाँ रहती हूँ। मेरी तो किस्मत फूटी है। यहाँ से चले जाने से भी कौन मुझसे शादी करेगा? बेकार में माँ-बाप के गले में बंधी रहूँगी। तुम्हारे घर-संसार में व्यर्थ का बोझ क्यों बनूँगी? तू मेरी कसम खा, कि किसी को भी कुछ नहीं बताओगी।” परबा कुंद के हाथ को लेकर अपने सिर पर रख दी।

बोली “तू जा मेरी बहिन, तू ठीक से रह।”

परबा चुपचाप बैठी रही। कुंद के जाने के बाद, परबा का मन खिन्न हो गया था। पहले जैसा झूमरी के साथ मेलमिलाप नहीं हो पाता था। लगभग दो महीने हो गये थे एक दूसरे के साथ बात-चीत किये हुये। अपने-अपने ग्राहक, अपने-अपने सुख-दुख को अपने साथ लेकर अपनी-अपनी कमाई कर रहे थे। यहाँ तक कि, कोई किसी के चूल्हे में से थोड़ी सी आग भी नहीं माँगते थे।

झूमरी को बड़ा अहंकार था अपने रंग-रूप को लेकर। इस शहर में उसके दीवाने बहुत थे, फिर भी वह कभी परबा को घृणा की दृष्टि से नहीं देखती थी। परबा को याद आ गयी थी उस दिन की वह घटना। पता नहीं कहीं से झूमरी का एक ग्राहक आने वाला था। झूमरी बोली थी “परबा, तुम कुछ देर के लिये कुन्द के घर नहीं चली जाती।”

“क्या हो गया? मैं तो तुम्हारे धंधे में कोई बाधा नहीं पहुंचाती हूँ, बाहर बैठी रहती हूँ।”

“तुम बुरा मत मानना,परबा, तुमको घर के बाहर बैठे देख लेने से ग्राहक मेरी कीमत कम कर देते हैं।”

परबा के गाल पर जैसे कि किसी ने जोर से तमाचा मार दिया हो। इतने दिनों से झूमरी के मन में मेरे प्रति इतनी हीन भावना भरी हुई थी। छिः छिः। आज तक परबा उसको अपनी सगी दीदी मानती थी। इतने दिनों तक, इतना प्यार से फिर उसे अपने पास गोदी में बैठा कर क्यों रखी हुयी थी झूमरी? ओह, दया। दया से? अभी इसका धंधा ठीक-ठाक चलने लगा, तो दया शब्द जैसे गायब हो गया हो?

परबा ने रोते हुये कुंद के सामने ये सब बातें बताई। कुंद बोली “तुम बेकार में रो रही हो। तुम्हारा जब भी मन हो, यहाँ चले आना। देखना एक दिन झूमरी को उसका घमंड निगल जायेगा।”

उसी दिन से परबा और झूमरी के बीच बातों-बातों में अनबन होती रहती थी। परबा का खाना-पीना, परबा का दरी-बिछौना से लेकर उसका हँसना-रोना जैसे कि सब खराब, जान बुझकर ताना मारती थी झूमरी। आखिरी में एक दिन परदा हटाकर बीच में दीवार खींच ली दोनों ने। दीवार बनाने वाले मिस्त्री को झूमरी बोल रही थी- और कुछ दिन बाद वह यह घर छोड़ देगी। उस तरफ की नेपाली बस्ती में पक्का घर किराये पर ले लेगी।

उस बस्ती में तरह-तरह के घर हैं। नेपाली और बंगालियों के लिये अलग खोली। उनके शरीर के रंग साफ, भरे-भरे गाल। अच्छा-खासा दो पैसा कमा लेते हैं। उनके ग्राहक पचीस-पचास वाले नहीं। उनमें से कुछ तो गाड़ी में बैठकर साहिब लोगों के घर बुलाने पर जाते हैं। उनकी खोली में फ्रिज, टी.वी, स्टील की अलमारी आदि होते हैं। एक तरफ रहते थे कुछ हिंदी भाषी। वह लोग भी परबा जैसों से अच्छा रहते थे। यद्यपि नेपालियों की तरह, पहनने ओढ़ने के ताम-झाम वाले कपड़े उनके पास नहीं थे।

परबा जैसी लड़कियाँ दिन का चूल्हा जलाने के लिये धंधा करती थी, पचीस या पचास रुपये में। परबा की अवस्था तो बहुत ही खराब। जो भी आता है, कहता है “साली, ऐसे लाश की तरह क्यों पड़ी रहती है? साला , सब पैसा बेकार हो गया!”

कुंद तो भाई के साथ चली जायेगी, खूब अकेली हो जायेगी परबा। अपनी होकर, अपनी बिरादरी से कुंद ही तो थी एकमात्र जो भले-बुरे समय में काम आती थी और जिसे परबा अपनी कह सकती थी। लेकिन कुंद को चले जाना चाहिये। इस नरक में रहकर क्यों व्यर्थ में दुःख पायेगी?

कुंद के घर से आने के बाद, अपना काम निपटाकर एक कटोरी पखाल खाकर परबा निकल गयी थी बाजार की तरफ। न झूमरी, न कुंद, कोई नहीं था उसके साथ में। प्लास्टिक डिब्बों के अंदर खूब सुंदर दिख रहा था वह चांदी का फूल। इसको वह कुंद के लिये खरीदेगी, अपनी भाभी के लिये। शादी के समय बालों में सजायेगी इस फूल को।

बाजार से लौटकर, परबा सीधी कुंद के घर गयी थी। थोड़ा सा पखाल खाकर, कुंद उस समय लेटी हुई थी। परबा बोली “देखो, देखो, मैं तुम्हारे लिये एक चीज लायी हूँ। देखो तो कैसा लग रहा है? तुम्हारी शादी में तो मैं नहीं आ पाऊँगी। इसलिये अभी से दे रही हूँ।” कहते हुए प्लास्टिक डिब्बा को परबा ने कुंद को थमा दिया।

शरम के मारे कुंद का चेहरा लाल पड़ गया था। जैसे कि ससुराल से कोई आकर शादी की बात पक्की कर रहा हो। बोली “अभी रुको न, तुम्हारे भाई को तो पहले आने दो। तुम अभी से इसे क्यों दे रही हो?”

दोनों ने लाल चाय पी। सुख-दुख की बातें की, चार बजे तक। परबा बोली “मैं जा रही हूँ। हमारी तरफ पानी केवल दस मिनट के लिये ही आता है। जल्दी जाकर मुझे पानी भरना होगा।”

कुंद के घर से आकर परबा लाईन में लग गयी। खाना बनाने के लिये और पीने के लिये पानी लाकर घर में रखी। पानी रखने के बाद, बिछौना सजा दी थी। कंघी की, मुंह पर साबुन लगाकर रगड़-रगड़ कर साफ की। कपडे बदल कर ब्लाउज के साथ मिलती-जुलती एक अच्छी साड़ी पहन ली। चेहरे पर पाउडर,आंखों में काजल लगायी थी। एक सुन्दर सी बिन्दी लगा दी, अपने दोनों भौंवों के बीच में।

उसको लग रहा था, ये सब नहीं लगाने से शायद उसका चेहरा ज्यादा सुंदर दिखता। लेकिन ये सब तो लगाना ही होगा। अभी परबा बैठी रहेगी घर के बाहर। वह खुद एक बाजार है, इंतजार करेगी अपने ग्राहकों का।

दुर्भाग्य से उस दिन कोई नहीं आया, परबा के घर। परबा इधर-उधर ताकने लगी। गली के आखिरी छोर पर आकर खडी हो गयी। कोई कुली, मजदूर भी उसके भाग्य में नहीं था. सवेरे-सवेरे आज बिलाव रो रहा था, इसलिये शायद दिन ऐसे ही खाली-खाली कट जायेगा, सोचकर वापिस आ गयी थी परबा। इस बीच तीन-तीन ग्राहकों को निपटा चुकी थी झूमरी। अच्छा खासा पैसा कमा ली थी शायद, इसलिये अपना चूल्हा जलाकर मछली भून रही थी। भूनी हुई मछली की बास से परबा के पेट में सोयी हुई भूख जाग उठी थी।

उस समय नौ बज रहा होगा। ठंड का महीना था, इसलिये रातें लंबी लग रही थी। झूमरी शायद पखाल और भूनी हुई मछली खाकर सोने जा रही थी, इसलिये उसकी तरफ से कोई आवाज नहीं आ रही थी। परबा कपड़े बदल कर पखाल खाने जा रही थी, ठीक उसी समय काला होकर एक लंबा सा आदमी, उसके छोटे से दरवाजे से झाँक कर पूछने लगा “क्या तुम अकेली हो?”

“हाँ,” परबा का मन खुश हो गया था।

कुंद के लिये पूरे एक सौ दस रुपये का चांदी का फूल खरीदने के बाद, उसके पास कुछ भी पैसा बचा नहीं था। यह आदमी, जो भी चालीस-पचास रुपया देगा, उसमें उसका दो दिन का खर्च निकल जायेगा। परबा ने पखाल से भरी कटोरी को ढककर एक कोने में रख दिया।

बोली “रुक, एक अच्छी साड़ी पहन लेती हूँ।”

“तुम्हारी साड़ी किसको देखनी है? मैं तो इसको भी अभी खोल दूंगा।” अश्लील हँसी हंसते हुये उस आदमी ने कहा।

परबा के वजन से दो-ढाई गुणा ज्यादा वजन वाला वह आदमी, अपने भारी-भरकम शरीर को लेकर हँसते हुये आकर बैठ गया था खटिया के उपर।

खटिया में से केंच की एक आवाज निकली। खटिया टरटराने लगा था। उस आदमी की आँखे खून जैसी लाल, होठ के ऊपर छोटा सा सफेद-कुष्ठ जैसा दाग एवं नाक पकौडी की भाँति चौड़ी थी। परबा खुद इतनी सुंदर नहीं थी। परबा ग्राहकों के भेष की तरफ भी ध्यान नहीं देती थी। फिर भी पता नहीं क्यों, यह आदमी उसको अच्छा नही लग रहा था?

उस आदमी को इस बस्ती में पहली बार देखा था परबा ने। पता नहीं, इस शहर का है भी या नहीं। किसी की खोली में जाते हुये उसको परबा ने पहले कभी नहीं देखा था। उस आदमी ने पूछा “तुम्हारा नाम झूमरी?”

परबा तो पहले गूँगी-सी हो गयी। उसके बाद बोली “वह उस तरफ रहती है।”

“फिर तुम कौन हो?”

परबा ने कोई उतर नहीं दिया

“हां, हां। तुम झूमरी हो या मूतरी हो, मेरा उससे क्या लेना-देना?”

आ, आ, बोलकर परबा को खींच लिया था उस आदमी ने। अचानक बाज की तरह झपट कर परबा के उपर चढ़ गया। बीस रुपये का एक नोट हिलाते हुये बोला।

“ये तुम्हारे गाल के लिये हैं।” कहते-कहते झट से काट दिया, परबा के गाल को।

“ऊइई माँ” झनझनाकर परबा चिल्ला उठी।

“दर्द हुआ?” बड़े प्यार से उस आदमी ने पूछा।

बीस का नोट परबा के हाथ में ठुँसकर बोला “अब कान की बारी। अच्छा बता तो, तुम्हारे शरीर के सभी अंगों का नाम?”

परबा चुप थी।

“तुम्हारे सभी अंगों के लिये अलग-अलग पैसा दूँगा, समझी।”

उस आदमी ने फिर एक बीस का नोट निकाला।

“ले,ये तुम्हारे कान के लिये।” बोलते-बोलते कान की बाली को चबाकर पकड लिया था। ऐसा लग रहा था जैसे कि परबा की जान ही चली जायेगी। उस आदमी को धकेलकर वह भाग भी नहीं पा रही थी। दर्द से वह तड़प रही थी। यह आदमी है या कोई राक्षस? आदमी के वेश में कोई राक्षस नहीं आ गया तो। नहीं तो,आधी रात में क्यों आता?

“अभी नाक की बारी।”

“छोड़, मुझे जाने दे।”

“ऊहुँ, तुझको मेरा प्यार अच्छा नहीं लग रहा है?” फिर बीस का नोट निकाला उस आदमी ने।

जोर-जोर से रोने लगी परबा। उस तरफ से एक लाठी लेकर दौड़ी आयी थी झूमरी।

“कौन? कौन है ये हरामजादा! साला, आ जा, आज हो जाये एक-एक हाथ। देखते है या तो तू रहेगा, या फिर मैं। साला मतवाल, गंजेडी कहीं का, निकल भाग यहां से। क्या सोचकर रखा है रे? होटल में नहीं चला गया, एक प्लेट खसी मांस खाने के लिये। यहां क्यों आ मर रहा था? साले राक्षस, कच्चा मांस खाने आया था?”

हड़बड़ाकर, आधी नंगी अवस्था में वह आदमी उठ गया। झूमरी का रणचंडी रूप देखकर डर गया। कमीज को हाथ में लेकर बाहर जाते-जाते बोला

“ये साली कौन है, बे?”

“तेरी माँ” बोलकर झूमरी ने खूब जोर से लाठी मारी उसकी पीठ पर।

वह आदमी, एक आवारा कुत्ते की भाँति काँ-काँ कर अंधेरे में गायब हो गया।

परबा कृतज्ञता की दृष्टि से देखने लगी झूमरी को। लेकिन झूमरी लाठी फेंककर चली गई अपनी खोली के अंदर।

खटिया में सोकर काफी देर तक बक-बक करने लगी। छिः! छिः!, रुपया कमाने के लिये किसी को भी बुला लोगे? लगता है जरा भी बुद्धि भगवान ने नहीं दी।

झूमरी के जितनी गाली देने से भी परबा को कुछ खराब नहीं लग रहा था, वरन् उसको लग रहा था कि वह अभी भी अकेली नहीं है। कुंद चले जान से भी झूमरी तो है।