पोट्टम, हरे पत्ते और दिल्ली की उमस भरी वह शाम / उमा शंकर चौधरी

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रेलगाड़ी की आवाज़ के साथ अपनी कोई भी आवाज़ मिलायी जाय, रेलगाड़ी की आवाज़ अपने आप को उसके रंग में रंग देती है। रेलगाड़ी पर रेलगाड़ी की आवाज़ आपका सबसे बड़ा विश्वसनीय साथी होता है। लेकिन सच यह भी है कि रेलगाड़ी की उसी आवाज़ में बड़ी-बड़ी चीखें दब जाती हैं।

उसका नाम जी. बी. एन. पोट्टम था। लेकिन मैं यहाँ इस कहानी में उसका नाम सिर्फ़ पोट्टम ही इस्तेमाल करूंगा। पोट्टम की उम्र लगभग पैंतीस-छत्तीस के करीब थी और जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि उसका रंग काला था। पतला-छरहरा काला दक्षिण भारतीय। वैसे दक्षिण के किसी भी प्रांत के आदमी को बस हम दक्षिण भारतीय ही समझ लेते हैं लेकिन मैं यहाँ यह बता दे रहा हूँ कि वह केरल का था। केरल के किसी छोटे से गाँव का। एरणाकुलम से लगभग बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर धुर गाँव में नारियल के पेड़ों की छांव में उसका एक चमकीला-सा घर था। एकदम खूब चटक। पोट्टम के माता-पिता दोनों उसी घर में रहते थे। घर में बहुत शांति रहती थी क्योंकि पोट्टम की बहन की शादी हो चुकी थी और वह अपने ससुराल में सुख से जीवन बिता रही थी। एरणाकुलम जिला के उस छोटे से गाँव में पोटट्म का घर चाहे जितना भी चटक और चमकीला हो लेकिन उस घर की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी।

पोट्टम के पिता कि केले के चिप्स की एक छोटी-सी दुकान थी और वे अपनी दुकान में अपने कारीगर से बहुत परेशान रहा करते थे। पोट्टम के पिता चाहते थे कि उनके व्यवसाय में वृद्धि हो लेकिन कारीगर अक्सर उनको धोखा देते थे। ऐसा नहीं है कि पोट्टम के पिता को चिप्स खुद तलना नहीं आता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उन्हें आग की धाह से तकलीफ शुरू हो गई थी। आग के सामने बैठने के साथ ही उनकी देह पर तुरंत प्रतिक्रिया शुरू हो जाती। पूरे शरीर पर तुरंत लाल चकत्ते उभर आते और सांसें एकदम फूलने लगती थी। वह कई बार इस हालत में बेहोश होकर कड़ाही पर गिरते-गिरते बच चुके थे। वे अगर बेहोश होकर कड़ाही में गिर जाते तो उनके परिवार को कौन देखता पोट्टम के पिता कि चिंता के केन्द्र में यह था। पोट्टम का बहुत पैसा कमाना इसलिए बहुत ज़रूरी था। यही कारण है कि वे अपनी दुकान में चिप्स की और सारी तैयारियाँ तो कर लेते थे लेकिन वे आग के सामने नहीं ंजा पाते थे।

एक समय था जब पोट्टम के पिता स्वस्थ थे और उन्हें आग का सामना करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी तब उनकी दुकान खूब चलती थी और यही वह समय था जब उन्होंने अपने लिए नारियल के पेड़ों की छांव में घर बनवा लिया था। एक चमकीला घर। घर छोटा ही था लेकिन विभिन्न चटक रंगों के साथ। चूंकि पोट्टम के पिता ने जीवन भर इस केले के चिप्स का व्यवसाय किया था इसलिए उन्हें और कोई हुनर आता नहीं था। परन्तु अब वे कारीगरों के हाथों मजबूर हो गए थे। कारीगर या तो प्रायः आते नहीं थे या फिर वे उल-जुलूल पैसे मांगते थे। जो उनकी हैसियत में नहीं था।

वैसे भी केले के चिप्स को वहाँ भी 'अंकल चिप्स' और 'बिन्गो' ने बहुत नुकसान पहुँचाया था और उसके बाज़ार में पहले की अपेक्षा काफी कमी आयी थी।

लेकिन यह कहानी दिल्ली की है। पोट्टम को दिल्ली आये हुए लगभग दस वर्ष हो चुके थे और अब वह यहीं बस जाना चाहता था। लेकिन यह कहानी कोई पोट्टम के दस वर्ष या उसकी पूरी ज़िन्दगी की कहानी नहीं है बल्कि एक दिन की कहानी है। उस एक दिन की जिसने उसकी ज़िन्दगी को बदल दिया था।

वे घटनाएँ जिन्होंने पोट्टम के जीवन में उस दिन को ला खड़ा किया था।

पोट्टम का जीवन केरल के उसी छोटे से गाँव में गुजरा था और वहीं एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में उसकी पढ़ाई हुई थी। वह बचपन से ही एक शर्मीला लड़का था और उसे प्रकृति से बहुत प्रेम था। उसके माता-पिता इतने काले नहीं थे जितना वह काला था। उसका जब जन्म हुआ था तभी सबको यह मालूम चल चुका था कि वह अपने माता-पिता से ज़्यादा काला है। उसका अपने माता-पिता से अंतर बस इतना था कि अगर कमरे में वह अपने माता-पिता के साथ बैठा होता और बिजली गुल हो जाती और कमरे में घुप्प अँधेरा हो जाता तब यह अंतर साफ समझ में आ जाता था। पोट्टम के माता-पिता कि शक्ल उस अंधेरे में हल्की-सी दिखती थी लेकिन पोट्टम उस अंधेरे में बिल्कुल ही खो जाता था। पोट्टम का रंग अंधेरे में बिल्कुल घुल जाता था। उसका रंग बिल्कुल अंधेरे के रंग का ही था। अगर कभी अँधेरा अपने अंधेरेपन से और ज़्यादा काला हो जाता तब शायद पोट्टम उस अंधेरे में थोड़ा-बहुत दिख जाता। लेकिन चूंकि उसका जन्म केरल में हुआ था इसलिए उसके काला होने के कारण उसे वहाँ कोई शर्मिन्दगी नहीं उठानी पड़ती थी।

पोट्टम का स्कूल उसके अपने घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर था और वह अपने स्कूल पैदल ही जाता था। स्कूल के उसके रास्ते में गजब की हरियाली थी और उसका स्कूल भी प्रकृति के बीच ही बसा हुआ था। वह अपने स्कूल के लिए समय से कुछ देर पहले निकलता था। यानी जितना वक्त उसे पैदल स्कूल पहुँच जाने में लगता था उससे कुछ देर पहले। अपने स्कूल पहुँच जाने में लगने वाले समय से वक्त चुरा कर वह उस प्रकृति में विचरण करता था। उसे रास्ते में आम, कटहल, केले के अतिरिक्त अलग-अलग तरह के पेड़ मिलते थे। सुबह-सुबह उन पेड़ों पर और वहाँ फैली घासों पर ओस की बूंदें हुआ करती थीं। पोट्टम उन ओस की बूंदों को अपनी मुट्ठी में बंद कर अपने स्कूलबैग में कैद कर लेता था। अपने स्कूल के लिए जिस रास्ते से वह गुजरता था उसकी सड़कें चैड़ी थीं और सुबह-सुबह वहाँ बिल्कुल भी भीड़-भाड़ नहीं होेती थी। कभी-कभार ही वहाँ से मोटर साइकिल और बस गुजरा करते थे। वह सुबह एकदम शांत उस प्रकृति में चिड़ियों की ध्वनि को सुना करता था। उसी रास्ते में कटहल के एक पेड़ पर रोज एक चिड़िया उसका इंतजार किया करती थी। उसका रंग मटमैला था और उसके चोंच नुकीली। वह रोज ठीक समय पर उस चिड़िया के सामने खड़ा हो जाता था और चिड़िया उसको स्कूल ड्रेस में देखकर खुश हो जाती थी।

पोट्टम अपनी मलयाली भाषा में चिड़िया से बात करता था। वह उससे अपने दुख-सुख साझा किया करता था, अपने दोस्तों की कहानियाँ बताया करता था और वह चिड़िया मलयाली में नहीं अपनी चिड़ियों वाली भाषा में चीं-चीं किया करती थी। आम के मौसम में चिड़िया आम के पेड़ पर बैठती थी और पके हुए आम को पोट्टम के लिए गिरा देती थी और पोट्टम उस आम को वहीं सड़क किनारे खा लेता था।

पोट्टम का स्कूल काफी पुराना बना हुआ था और उसके बनने में लकड़ी का काफी इस्तेमाल हुआ था। वह खपरैल का मकान था और उसके चारों तरफ काफी घने पेड़ थे। वहाँ काजू के काफी पेड़ थे और पोट्टम अक्सर उनमें से काजू तोड़ लिया करता था। कच्चे काजू को छिलने से उसके हाथ में दूध लग जाता था और उसके हाथ की चमड़ी उखड़ने लगती थी लेकिन वह हार नहीं मानता था। पोट्टम को कच्चे काजू बहुत पसंद थे।

स्कूल के साथ ही बहुत बड़ा एक सीढ़ीनुमा खेत था जिसमें अनानास की फसल थी। पोट्टम अपने स्कूल के बाद प्रायः उन अनानासों के बीच फंसी तितलियों को निकाला करता था। तितलियाँ अनानास के पत्तों की कसावट में उलझी होती थीं और पोट्टम उन तितलियों के पंख को हल्के से पकड़ कर उन्हें आजाद कर देता था। तितलियाँ फुर्र से उड़ जाती थीं।

प्रकृति के कारण ही पोट्टम ने हमेशा उस स्कूल का चुनाव किया था जिसका रास्ता पेड़-पौधों से भरा हुआ था। वह दूर के स्कूल में जाने के लिए तैयार था लेकिन पेड़-पौधों के बिना नहीं। अपनी पूरी पढ़ाई के दौरान पोट्टम जिस भी स्कूल में रहा उसके माता-पिता को वहाँ से कभी कोई शिकायत नहीं मिली। वह काफी मिलनसार था और अपने दोस्तों के साथ एकदम घुल-मिल जाता था। वह अपनी कक्षा में लगभग हमेशा ही अव्वल आता था।

पोट्टम के पिता से उसके बचपन के बारे में पूछा जाता तो अपनी मलयाली भाषा में वे कहते-'उसका बचपन तो खरगोश का बचपन था।' ऐसा कहकर वे घर से बाहर निकल आते और उरहुल के फूल की पंखुरियों को सहलाने लगते। इस उरहुल के फूल को पोट्टम ने खुद अपने ही हाथों से लगाया था तो ऐसा करते हुए यह पता नहीं चल पाता था कि उसके पिता अपने पुत्र को याद करने के लिए ऐसा कर रहे हैं या फिर खरगोश की कोमलता को महसूस करने के लिए।

पोट्टम के पिता याद करके बतलाते "कभी उसका किसी बच्चे से लड़ाई नहीं होती थी इसलिए क्लास टीचर हमेशा उसे क्लास का मोनिटर बनाकर रखते थे।" वह बच्चों के झगड़ों को भी टीचर तक जाने की नौबत नहीं आने देता था। वह उनके बीच एक समझौते की स्थिति लाने की कोशिश करता। मोनिटर रहते अपनी विभिन्न कक्षाओं में पोट्टम ने कई कहानियों का मंचन करवाया और उसमें उसने खुद भी भूमिका निभाई। बाद की कक्षाओं में एम. टी. वासुदेव नायर और टी. पदृमनाभन उसके प्रिय लेखक हो गये थे।

हाँ यह ज़रूर था कि वह बहुत बचपन से ही बहुत महत्त्वाकांक्षी था। उसकी ख्वाहिशें बहुत बड़ी-बड़ी थीं। वह अक्सर छत पर सोता था और उन तारों को देखा करता था जो केरल या फिर उसके गाँव के ऊपर दिख रहे होते थे।

जब पोट्टम दस या ग्यारह वर्ष का रहा होगा तभी से ही उसे लम्बी-चमचमाती कारों का बहुत शौक था। वह विभिन्न अखबारों, विभिन्न पत्रिकाओं से कारों के फोटोग्राफ्स काटकर रखा करता था। उसके पास मैरून रंग की एक फाइल थी जिसमें उसने कारों के अनगिनत फोटो रख रखे थे। फाइलों में रखी कारें चुपचाप पड़ी हुई रहती थीं। वे कहीं जातीं नहीं थीं और न ही वे हाॅर्न ही बजाती थीं। जबकि सचमुच में पोट्टम यह चाहता था कि उनमें से ही एक कार उस फाइल से बाहर निकल आये। वह उन कारों में से किसी एक में बैठकर एक लम्बी सैर कर लेना चाहता था अपनी चिड़ियों और अपनी तितलियों के संग।

अपने कमरे की खिड़की से पोट्टम आसमान को निहारा करता था। आसमान की दूरी उसे बहुत पसंद थी। उसने उस आसमान में अपने स्कूल के रास्ते के कई पौधों को उगा लिया था। रोज शाम को पोट्टम उन पौधों में पानी दिया करता था। लेकिन उसकी बहन सुनैना बहुत शैतान थी। उसके बाल बहुत घुंघराले थे और वह गोरी तो नहीं लेकिन सुन्दर थी। हाँ वह उसके लगाये उन पौधों को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया करती थी। सुनैना अपने भाई को देखती थी आसमान की ओर निहारते हुए और वह समझ जाती थी कि अभी वह बागीचे के पौधांे की देखभाल कर रहा है और फिर अपनी बदमाशी में वह औचक उन पौधों को तहस-नहस कर दिया करती थी। दोनों भाई-बहन में खूब झगड़ा होता था। भाई इस बात के लिए बहुत नाराज होता था कि उसने उसके बगीचे को बर्बाद क्यों किया। वह अक्सर कहता कि अब वहाँ बसने वाली वहाँ की तितलियाँ कहाँ जायेंगी।

"तितली तो इस तितली को देखते ही फुर्र हो गयी।" सुनैना ऐसा कहकर अपने भाई को चिढ़ाती थी।

"लेकिन जब बहन की पिटाई होने लगती तो वह खुद रोने लगता था।" ऐसा प्रमुख प्रत्यक्षदर्शी उसके पिता कहते हैं और ऐसा कहते हुए उसके पिता कि आंखों में बेटे के लिए अतिरिक्त किस्म का प्यार झलकने लगता था।

सुनैना बहुत बदमाश थी और अक्सर पिता उसे कुर्सी या टेबुल से बाँध दिया करते थे। पिता सजा के तौर पर कहते "उसे कम से कम यूं ही दो घंटे छोड़ दो।" लेकिन पोट्टम अपनी बहन को बंधे हुए दस मिनट भी नहीं छोड़ता था। बहन के लिए वह अपने पिता से माफी मांगता था और फिर बहन को आजाद करवा लेता था।

चूंकि पोट्टम के पिता कि माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी इसलिए उसने पूरी पढ़ाई अपने गाँव और एरणाकुलम तक में ही पूरी कर ली।

दिल्ली में पोट्टम


आज से लगभग दस वर्ष पहले पोट्टम जब दिल्ली आया, तब तक दिल्ली काफी बदल चुकी थी। दिल्ली में फ्लाई ओवर्स का जाल-सा बिछा दिया गया था और ऐसा लगने लगा था जैसे दिल्ली को आसमान में ही टांग दिया जाना है। दिल्ली के सिनेमाघरों के मालिक तब अमीरों की पंक्ति में पीछे होने लगे थे और नए उद्योगपतियों की एक नई कतार सामने आ गई थी। नए-नए मल्टीप्लैक्स खुलने लगे थे और तब सिनेमा घर के भीतर की जमीन मखमली कालीन से ढ़क दी गई थीं।

जब पोट्टम अपने घर से दिल्ली के लिए चला था तब उसकी माँ बहुत रोई थी लेकिन उसकी बहन उससे भी ज्यादा। बहन रोई थी और बहन के आंसू का स्वाद बहुत खारा था। लेकिन अपने से दूर जा रहे पोट्टम को बहन सुनैना ने अपनी ओर से एक उपहार दिया था। उस उपहार के बंद पैकेट में उसने अपने भाई के उन सारे पौधों को समेट कर दे दिया था जिसे कभी उसने उसके आसमान वाले बगीचे से तोड़ दिया करती थी।

"तुमको हमेशा ऐसा लगता था कि मैं तुम्हारे बगीचे से पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दिया करती थी लेकिन ऐसा नहीं है। मैंने उन्हें हमेशा संभाल कर रखा था।" ऐसा उसने अपने भाई को अपने आंसू के साथ बतलाया था। उसके आंसू का स्वाद खारा था और अपने भाई से बात करते हुए उसे ऐसा और ज़्यादा महसूस हो रहा था।

"मैंने इसे सिर्फ़ बचाया ही नहीं था बल्कि इसकी देखभाल भी की थी। देखो इसके पत्ते कितने हरे हैं।" ऐसा उसने उस पैकेट के भीतर बंद पौधों को दिखाते हुए भाई को बतलाया था और सचमुच उन पौधों के पत्ते बहुत ही हरे और मुलायम थे।

पोट्टम को अपने बर्बाद हुए पौधों को वापस पाकर काफी खुशी मिली थी। उसने सोचा दिल्ली में वे इन पौधों के सहारे अपना जीवन बसर करेगा। उसने सोचा वह इन पौधों को बढ़ा कर और बड़ा बगीचा बना लेगा।

लेकिन पोटट्म को दिल्ली आते ही लग गया कि उसके लिए अपनी बहन के इस अमूल्य उपहार को बचाना आसान नहीं है। वह अपने इन पौधों को कहाँ संभाल कर रखे उसे इसकी चिंता सताने लगी। उसने अपने टिकने की भले ही व्यवस्था कर ली हो लेकिन इस छोटी-सी कोठरी में कहाँ रहेगा उसका बागीचा। उसने अपने कमरे की बाल्कनी से देखा-दूर-दूर तक छोटे-छोटे घर। छोटी-छोटी गाड़ियाँ। ढेर सारे लोग और लोगों की तेज चलती सांसें। पोट्टम ने दिल्ली आकर महसूस किया कि आदमी की सांसों की भी अपनी कोई आवाज होती है।

इसमंे हैरानी वाली कोई बात नहीं है कि पोट्टम अपने इन्हीं पौधों की चिंता में एक दिन राजघाट बापू की समाधि पर पहुँचा और फिर अपने इन पौधों को वहीं उस हरियाली के बीच छोड़ आया। आज भी राजघाट और शांति वन के बीच की हरियाली में कई पौधे वे हैं जिसे पोट्टम की बहन ने पोट्टम को दिये थे।

जब पोट्टम ने आज से लगभग दस वर्ष पहले दिल्ली मंे प्रवेश किया तब उसके हाथ में कम्प्यूटर की एक ठीक-ठाक डिग्री थी और मन में ढ़ेर सारे अरमान। अभी वह पच्चीस-छब्बीस साल का युवा था और उसकी ख्वाहिशें आसमान छूने को मचल रही थी। किन्तु उसके अरमान दिल्ली में पूरे होते यह इतना आसान नहीं था। वह अपनी डिग्रियों और अपने अरमानों के साथ दिल्ली की सड़कों पर भटकता रहा। दिल्ली की चैहद्दी उसके लिए दिनो-दिन बढ़ती रही। वह पचास पैसे गिलास पानी पीकर बस की तरफ लपकता था और पूरी तरह ठूंसी हुई बस उसको उसके ढेर सारे अरमानों के साथ लेकर अनजान दिशा में चल देती थीं।

पोट्टम जब दिन भर थक हार कर अपने कमरे पर वापस आता तो तंग गलियों के सहारे एक दड़बेनुमा कमरे में प्रवेश कर जाता। उस दड़बे में बिजली के सहारे रोशनी थी और वह अपनी घुटती सांसों की तार को वहाँ किसी तरह टूटने से बचाने की कोशिश करता था। वह अपने कमरे से निकलता और गमले में लगे पौधों को देखकर उदास होता कि किस तरह इन पौधों को कैद कर दिया गया है।

वह दिन भर दिल्ली की सड़कों पर भटकते हुए अपने साथ एक बैग रखता था और उस बैग में कुछ पत्ते। वह अक्सर बड़े पेड़ों को देखकर कुछ पत्तों को तोड़ लिया करता था और उसे अपने बैग में बहुत ही करीने से रख लेता था। वह दिल्ली की बसों से जब लगभग कुचला हुआ बाहर निकलता और जब उसकी सांसों की तार टूटने को होती तब वह अपने बैग में पड़े हुए उन पत्तों को देख लेता और उसे एक राहत मिल जाती थी।

"तुमने अपनी किताब में ज़रूर पढ़ा होगा, कुछ कीड़े ऐसे होते हैं जिनका जीवन इन पत्तों के सहारे है। यह हरियाली, ये पत्ते न रहे तो वे मर जायेंगे। मैं भी उन्हीं कीड़ों में से एक हूँ।" पोट्टम अपनी बहन को ऐसा अक्सर अपने खत में लिखा करता था।

जब पोट्टम हारने लगा तब उसने छोटी-छोटी नौकरियों से अपना जीवन यापन करने की सोच लिया। उसने दो हजार रूपये से अपनी नौकरी की शुरुआत की। उसने ढ़ेर सारी नौकरियों को बदला और ढ़ेर सारी नौकरियों ने उसके भीतर ऊब पैदा कर दी। आखिर वह यह करने के लिए तो अपने गाँव से इतनी दूर नहीं आया था। लेकिन यह सब उसकी मजबूरी थी। अंततः उसको थोड़ी-सी राहत तब मिली जब उसने दिल्ली आने के दो-तीन वर्ष बाद एक शेयर ट्रेडिंग कम्पनी को ज्वाइन कर लिया। उसके जीवन में थोड़ी स्थिरता आ गई। वह कम्पयूटर के सामने बैठकर शेयर के ऊपर और नीचे जाती तरंगों को पकड़ने की कोशिश करने लगा। कम्प्यूटर की स्क्रीन पर लाल और हरा दो रंग ऐसे टिमटिमाने लगे कि वह अपने आॅफिस से निकलता तो बहुत देर तक उसे यह दुनिया इन्हीं दो रंगों में बंटी हुई दिखती।

पोट्टम ने जब अपने जीवन में थोड़ी-बहुत स्थिरता पाई तब उसकी उम्र अट्ठाइस-उन्नतीस वर्ष हो गई थी। इसलिए उसके पिता ने उसकी शादी करने की सोची। जिस लड़की से पोट्टम की शादी हुई उसका नाम था राजलक्ष्मी कुट्टी। राजलक्ष्मी के बाल बहुत लम्बे थे। शादी के पहले राजलक्ष्मी उन बालों में गजरा लगाया करती थी। लेकिन दिल्ली में राजलक्ष्मी गजरों के लिए तरस गई थी। बहुत कम ही मौके ऐसे थे जब उसे यहाँ गजरा मिल पाता था। हाँ इतना ज़रूर था कि उसे गजरा जहाँ भी मिलता था वह उसे तुरंत खरीद कर अपने बालों में सजा लेती थी। राजलक्ष्मी को अपने बालों में गजरा लगाने का इतना अभ्यास था कि अगर उसके पास उस वक्त शीशा नहीं होता था तब भी वह अपने बालों में सही जगह पर गजरा लगा लेती थी।

राजलक्ष्मी को केरलाई साड़ियाँ बहुत पसंद थी लेकिन वह दिल्ली आकर सलवार सूट पहनने लगी थी। हाँ यह ज़रूर था कि वह बहुत सारी आदतों को यहाँ आकर भी छोड़ नहीं पायी थी। जैसे दिल्ली में रहकर भी वह टिकुली या बिन्दी नहीं लगाकर घिसा हुआ चन्दन लगाती थी। राजलक्ष्मी की हिन्दी बहुत कमजोर थी जबकि पोट्टम अब दिल्ली में रहते-रहते बहुत अच्छी हिन्दी बोलने लगा था। वे आपस में घर में मलयालम में बात करते थे और बाहर वालों से हिन्दी में। (लेकिन मैं यहाँ उनकी आपस की बातों को भी हिन्दी में लिखूंगा क्योंकि मुझे मलियालम नहीं आती।) अपने आस-पड़ोस से राजलक्ष्मी कम ही बात कर पाती थी लेकिन वह हिन्दी धीरे-धीरे सीख रही थी।

पोट्टम की आर्थिक स्थिति जो थोड़ी-बहुत स्थिर हुई थी पत्नी राजलक्ष्मी के आने से उसमें एक बार फिर से थोड़ी अस्थिरता आ गई थी। उनके खर्च बढ़ गए थे और आमदनी का जरिया बिल्कुल स्थिर था। शुरुआत में जब तक कि राजलक्ष्मी स्थिति को समझ नहीं पाई थी तब तक उसने खर्चे पर कोई पाबंदी नहीं लगाई थी लेकिन ज्योंही वह थोड़ी पुरानी हुई उसने अपने पति की सीमित आमदनी को समझ लिया और अपने हाथ को रोक लिया।

यूं तो राजलक्ष्मी बचपन से इडली और अप्पम बहुत पसंद करती रही थी लेकिन दिल्ली आकर उसकी पसंद मंे गोलगप्पे का स्थान बहुत ऊपर हो गया था। उसके घर में अक्सर चावल के साथ रसम बनता। लेकिन वह हर रविवार को पोट्टम के साथ गोलगप्पे खाने ज़रूर जाती थी। राजलक्ष्मी एक गोलगप्पे को एक बार में मुंह में रखने का प्रयास करती थी परन्तु वह हार जाती थी। उसके इस प्रयास में गोलगप्पा फूट जाता था और उसकी आंखों से आंसू निकल आते थे। पोट्टम को राजलक्ष्मी की आंखों से निकले आंसू बिल्कुल पसंद नहीं थे। वह हमेशा चाहता था कि राजलक्ष्मी को कभी कोई कष्ट न हो। या फिर कम से कम उसको आर्थिक तंगी के कारण अपनी इच्छाओं को दबाना न पड़े। परन्तु पोट्टम की माली हालत इसकी छूट नहीं देती थी।

राजलक्ष्मी धार्मिक प्रवृति की थी और वह अपने घर में खूब पूजा पाठ किया करती थी। वह अपने पति के छुट्टी के दिन हमेशा यह कोशिश करती थी कि वह आर के पुरम में स्थित अयप्पन मंदिर जाये। पोट्टम उन दिनों पुष्प विहार के एक कमरे में रहता था और वहाँ से बस के द्वारा अपनी पत्नी के साथ आर के पुरम जाने में उसे बहुत तकलीफ होती थी। उसे अपने संघर्ष के दिन याद आते थे और यह भी कि वह कैसे बस से कुचला हुआ बाहर निकलता था। राजलक्ष्मी उस बस में भी सवार होकर मंदिर जाने को तैयार हो जाती थी। लेकिन पोट्टम अपनी पत्नी को आॅटो रिक्शा में मंदिर ले जाना चाहता था। आॅटो रिक्शा में बैठे पोट्टम की निगाह तब तेज चल रहे मीटर पर होती थी। राजलक्ष्मी तब चाहती थी कि उस आॅटो में तेज चल रहे हवा के झोकों में पोट्टम उसे अपनी बांहों में भर ले। लेकिन पोट्टम का मन तब बहुत विचलित रहता था।

साथ रहते-रहते राजलक्ष्मी ने पोट्टम के बारे में यह जान लिया था कि उसे प्रकृति से कितना प्यार है और यह भी कि कैसे वह इस बड़े महानगर में अपने को आज तक एडजस्ट नहीं कर पाया है। उसने अक्सर देखा था कि बहुत भीड़-भाड़ वाली जगह में पोट्टम कैसे बहुत घुटन महसूस करने लगता था।

राजलक्ष्मी ने सबसे पहले रहने के लिए एक ऐसे कमरे का चुनाव किया जहाँ से थोड़ा-सा आसमान दिख सके। उस छोटी-सी बाल्कनी में कुछ गमले रखे गए थे। उन गमलों में कुछ ऐसी लताओं को लगाया गया था जिनमें हरियाली की गुंजाइश ज़्यादा हो सके। राजलक्ष्मी अक्सर कोशिश करती कि वह अपने पति के साथ पार्क में कुछ वक्त बिताये। पोट्टम उस पार्क में बैठकर काफी सुकून महसूस करता था। वह दूर आसमान में उड़ने वाले चिड़ियों के झुंड को देखकर काफी खुश होता था। लेकिन पार्क में बैठने का मौका दोनों को बहुत कम ही मिल पाता था क्योंकि पोट्टम रात को देर से घर पहुँचता था और इतना थका हुआ होता था कि उसे कहीं जाने का मन नहीं करता था।

पोट्टम इस महानगर में अपने जीवन से चाहे जितना दुखी हो चुका हो लेकिन उसे अपनी पत्नी राजलक्ष्मी से बहुत प्यार था। उसकी अपनी पूरी दिनचर्या में पत्नी की बहुत बड़ी भूमिका थी। वह सुबह उठता और अपनी पत्नी की मुस्कुराहट से अपने दिन की शुरुआत करता था। राजलक्ष्मी पहले जगती थी और पोट्टम उसके बालों के छींटे से। राजलक्ष्मी सुबह जग कर स्नान करती थी और पूजा-पाठ कर पोट्टम के आॅफिस जाने की तैयारी में लग जाती थी। राजलक्ष्मी अपने ललाट पर घिसे हुए चन्दन का टीका लगाती थी। पोट्टम उसके बालों और उसके टीके से निकलने वाली खुशबू को महसूस करता था और अपनी आंखें खोल देता था।

"तुम्हारी इस भीनी-भीनी खुशबू को अगर मैं पूरे दिन संजो कर अपने पास रख पाता तो कितना अच्छा होता। लेकिन यह जीवन...यह कोलाहल...यह भीड़-भाड़।" ऐसा पोट्टम अपनी पत्नी की कान में धीरे से फुसफुसाता था और राजलक्ष्मी मदहोश हो जाती थी।

"यह खुशबू भी तुम्हारी है, यह तन, यह मन, पूरी की पूरी मैं तुम्हारी हूँ।" ऐसा कहते हुए राजलक्ष्मी अपनी आंखों को मूंद लेती थी और फिर पोट्टम उसकी बंद दोनों पलकों को धीरे से चूम लेता था।

फिर पोट्टम तैयार होता और नाश्ते की थाली राजलक्ष्मी उसके सामने रख देती थी। यह रोज की आदत जैसे थी कि राजलक्ष्मी इतनी सुबह-सुबह नाश्ते के लिए तैयार नहीं होती और पोट्टम उसके बगैर नाश्ता करने के लिए तैयार नहीं होता और हारकर राजलक्ष्मी को अपने पति की बात माननी होती थी। राजलक्ष्मी चिड़ियों की तरह चुग-चुग कर बहुत थोड़ा खाती थी और इस बात के लिए पोट्टम नाराज होता था।

"तुम मेरी गाँव वाली चिड़िया हो। तुम पेड़ पर क्यों नहीं बैठ जाती हो।" पोट्टम राजलक्ष्मी को कहता और राजलक्ष्मी सचमुच की चिड़िया बनकर पेड़ की डाली पर फुदकने लगती थी।

अपने घर से निकलते वक्त एक बार फिर से पोट्टम अपनी पत्नी में बसने वाली भीनी खुशबू को अपने नथुनों में भर लेता था और फिर राजलक्ष्मी दिन भर उसी पेड़ पर बैठ, जिस पर पोट्टम उसे बैठने के लिए कह जाता था, उसका इंतजार करती रहती थी। लेकिन शाम को जब पोट्टम वापस आता तब इतना थक चुका होता था कि वह भूल जाता था कि उसने सुबह राजलक्ष्मी को पेड़ की डाल पर फुदकने के लिए कह दिया था। वह उसे उतारना भूल जाता था और राजलक्ष्मी घंटों इस इंतजार में उस पेड़ पर गुमसुम बैठी रहती कि अभी वह उसे उस डाल पर से उतारकर अपनी गोद में भर लेगा। जब घंटों बाद पोट्टम राजलक्ष्मी को उस डाल से उतारता तब राजलक्ष्मी कहती "तुम बहुत ही निष्ठुर हो।"

राजलक्ष्मी पढ़ी-लिखी थी लेकिन उसके पास ऐसी कोई डिग्री नहीं थी कि वह दिल्ली में नौकरी कर सकती। लेकिन राजलक्ष्मी एक समझदार पत्नी थी। उसे यह बहुत बेहतर मालूम था कि आखिर उसे अपने परिवार को कैसेे समझदारी से चलाना है। राजलक्ष्मी अपने घर की माली हालत को जान गई थी इसलिए वह यह चाहती थी कि इसी बीच से कोई ठोस निदान निकले।

वास्तव में पोट्टम अपने काम को लेकर काफी होशियार था। उसकी डिग्री भले ही बहुत बड़ी नहीं हो लेकिन उसने अपने अनुभव से बहुत कुछ सीख लिया था। उसमें सीखने की बहुत ललक थी और वह हर नई चीज के पीछे दौड़ता था उसे हमेशा लगता था कि आदमी अगर नई चीजांे को सीखेगा नहीं तो वह बीमार पड़ जायेगा। चूंकि अपनी कम्पनी में उसकी पूछ भी ठीक-ठाक हो गई थी इसलिए उस पर जिम्मेदारियाँ भी ज़्यादा दे दी गई थी। लेकिन वेतन की रफ्तार बहुत धीमी थी। वह अभी जिस शेयर ट्रेडिंग की कम्पनी में काम करता था उसमें उसको तीन वर्ष के करीब होने को आये थे लेकिन उसका वेतन अभी लगभग तेरह-चैदह हजार ही था। इतने पैसे में अब उसे अपना घर चलाने में दिक्कत होती थी। परन्तु पोट्टम एक तरह से बुझ-सा गया था। उसे ऐसा लगने लगा था कि शायद उसकी काबिलियत ही इतनी है इसलिए उसकी कद्र बाज़ार में नहीं है। उसने इस महानगर में लगभग हार-सी मान ली थी। हाँ अब उसका जीवन और उसका परिवार कैसे चलेगा यह एक पेचीदा सवाल ज़रूर उसके लिए बन गया था।

इन सारी पेचीदगियों को राजलक्ष्मी ने धीरे-धीरे साथ रहते-रहते समझ लिया था। वह जानती थी कि पोट्टम में ना ही काबिलियत की कमी है और न ही ईमानदारी और मेहनत की। उसने यह भी समझ लिया था कि इस महानगर की ज़िन्दगी में पोट्टम ने हार-सी मान ली है। राजलक्ष्मी उसकी नौकरी या फिर उसके कैरियर की तकनीक को पूरी तरह समझ तो नहीं पायी थी लेकिन वह इतना जानती थी कि अगर वह पोट्टम के पीछे एक प्रेरणा बन कर खड़ी हो तो पोट्टम अपने जीवन को संवार सकता है।

"यह भीड़ घबराकर पीछे हट जाने के लिए नहीं है। इस भीड़ को एन्ज्वाय करना सीखो। इस भीड़ का भी एक अपना खास मजा है। अगर भीड़ न हो तो आगे निकल जाने का अहसास का क्या होगा? तुम इस भीड़ को पीछे धकेल सकते हो मेरे प्रिये।" राजलक्ष्मी इस बात को कई तरह से और बार-बार पोट्टम को समझाने की कोशिश करने लगी।

"तुम ऐसा क्यों समझते हो कि यह महानगर सिर्फ़ तुम्हारे लिए बुरा है। यहाँ परेशान हर आदमी है। परेशानी और बेचैनी इस महानगर की विशेषताओं में है। इसलिए इसी बीच से रास्ता निकालना होगा।" पोट्टम के हारे हुए जवाब पर राजलक्ष्मी उसके अंदर जोश भरने की कोशिश करती थी।

राजलक्ष्मी के प्रयास और जिद के आगे झुककर आखि़रकार पोट्टम ने कुछ नए कोर्स ज्वाइन किए, कम्प्यूटर की कुछ नई भाषाएँ सीखीं और अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा किया।

इस बीच हुआ यूं कि महीनों तक पोट्टम की छुट्टियाँ मारी गईं। उसकी ज़िन्दगी एक मशीन भर बन कर रह गई। अपने आॅफिस के कठिन शेड्यूल से समय निकाल कर उसने तरह-तरह की पढ़ाइयाँ की। उसका सुबह शाम तो गये ही बल्कि उसकी वे सारी छुट्टियाँ भी चली गईं जिनको मन के भीतर रखकर पोट्टम रोमांचित हुआ करता था। पोट्टम ने शादी के बाद उन छुट्टियों को अपनी उंगली पर गिन कर रखता था कि कम से कम इस दिन उसे अपनी पत्नी को पेड़ की डाल पर बैठाकर नहीं छोड़ना पड़ेगा। लेकिन अब हालत यह होने लगी थी कि पोट्टम को अपनी पत्नी के साथ छुट्टी मनाने का समय तो दूर उसे अपनी पत्नी से कुछ देर बैठकर बात करने का भी वक्त मिलना मुश्किल हो गया।

पोट्टम को सिर्फ़ अपनी ही नहीं अपनी पत्नी की भी चिंता रहती थी कि वह दिन भर कितना बोर होती होगी। वह अपनी पत्नी को प्यार करता था और उसके दुख को अंदर तक महसूस करता था। लेकिन राजलक्ष्मी इन सब स्थितियों को स्वीकार करने के लिए सहर्ष तैयार थी। उसे ऐसा लगता था कि बस कुछ ही दिनों की बात है और फिर सब ठीक हो जायेगा।

"बस कुछ दिनों की बात है फिर तुम्हारे पास एक अच्छी नौकरी होगी। हम अपनी छुट्टियों को अपने अनुसार मोड़ देंगे। फिर तुम होगे, मैं हूंगी और मेरी भीनी खुशबू।" राजलक्ष्मी ऐसा कहती तो पोट्टम को विश्वास नहीं होता।

"फिर हम एक थोड़ा बड़ा घर लेेंगे कम से कम जिसमें तुम्हारी फुदकने वाली यह चिड़िया कैद नहीं होगी। मैं फुदकूंगी और तुम मुझे दाने खिलाना।" ऐसा कहते हुए उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कराहट आ जाती थी।

धीरे-धीरे पोट्टम को भी ऐसा विश्वास-सा होने लगा था कि कुछ दिनों में सब ठीक होने वाला है। इस बीच अपने जीवन की सारी योजनाओं को उसने उस वक्त के लिए टाल दिया था। उसने सोचा कि अपने परिवार को वह तभी विस्तार देगा जब उसके पास एक अच्छी-सी नौकरी होगी। ताकि इस महानगर में वह या उसकी पत्नी जिस कष्ट को झेल रहे हंै कम से कम उनका बच्चा उसको नहीं झेले।

लेकिन यह सब कुछ इतना आसान नहीं था। वक्त गुजरता रहा और उनकी अपेक्षाओं को पंख लगते रहे। लगभग डेढ़ वर्ष में पोट्टम ने अपनी सारी नई योग्यताओं के साथ अपने को बाज़ार के योग्य बनाया। उसने सोचा बस अब सब ठीक हो जायेगा। परन्तु वास्तव में अब ज़्यादा बड़ी चुनौती उसके सामने थी। इस डेढ़ वर्ष के समय में पोट्टम को याद नहीं कि उसने अपने लिए या अपनी राजलक्ष्मी के लिए एक भी दिन निकाला हो। एक तरह से देखा जाए तो राजलक्ष्मी का त्याग ज़्यादा बड़ा था। उसने अपनी ओर से मंदिर जाना, पार्क जाना, गोलगप्पे खाना सब पर पाबंदी-सी लगा दी थी। उन पर एक सनक, एक जोश-सा सवार था।

पोट्टम ने इस डेढ़ वर्ष को तो आने वाले अच्छे दिन के इंतजार में बिता दिया लेकिन आगे के डेढ़ वर्ष उनके लिए ज़्यादा कठिन हो गये। वह अपनी नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी की तलाश नहीं कर सकता था और उसे अपनी इस नौकरी से इतनी फुर्सत नहीं मिल पाती थी कि वह दूसरी नौकरी की तलाश में निकल सके। उसके पास छुट्टी की भयानक किल्लत थी।

अपने इस डेढ़ वर्ष के इस कठिन कारावास से बाहर निकल कर जब एक दिन पोट्टम ने अपनी शक्ल को आइने में देखा तो उसे लगा उसका चेहरा एकदम काला-सा पड़ गया है। उसकी आंखों के नीचे काले घेरे से अे गये थे। उसने अपनी पत्नी की ओर देखा, उसे अजीब तरह की अजनबीयत महसूस हुई। उसे विश्वास ही नहीं हुआ उसने पिछले डेढ़ वर्ष मंे उसकी ओर देखा भी था। पत्नी का चेहरा एकदम मलिन हो चुका था। उसमें एक ठंडापन आ चुका था। वह आइने के सामने से हटकर राजलक्ष्मी के पास आया और उसके चेहरे को एकदम से झकझोर दिया। उसको लगा कि शायद उसके चेहरे पर आ गई सारी जकड़नें ऐसा करने से खत्म हो जायेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। राजलक्ष्मी बस जस का तस खड़ी रही।

अपने आप को तैयार करने और नौकरी के लिए अपने को बाहर निकालने के बीच में पोट्टम एक बार केरल, अपने घर घूम आना चाहता था। उसने अपने गाँव में देखा अब कोई चिड़िया वहाँ उसका इंतजार नहीं कर रही थी। वह लगभग दस दिन अपने गाँव में रहा। उसे बहुत सकून मिला और उसने इस बीच नई-नई चिड़ियाओं से दोस्ती कर ली थी। वहंा अनानास के कसे हुए पत्तों में अभी भी वैसी ही तितलियाँ फंस जाया करती थीं और ऐसे ही सुनसान राहों पर हवा के चलने की आवाज आती थी। उसके माता-पिता और बुजुर्ग हो गए थे। पिता का रोग और बढ़ गया था। अब अक्सर माँ को भी पिता के साथ दुकान पर ही रहना पड़ता था। अगर कभी पिता बीमार पड़ जाते तो उनकी सेवा के लिए माँ की सख्त ज़रूरत थी। पोट्टम की माँ बहुत चिंतित रहती थी। लेकिन बेटे के दिल्ली से यहाँ आने पर वह काफी खुश हुई थी। उसे लगा बेटे ने उन्हंे अभी तक भुलाया नहीं है। वास्तव में वह ऐसा सोचती थी कि बेटे की कमाई अच्छी हो जायेगी तो वे दोनों पति पत्नी दिल्ली ही चले जायेंगे।

"बेटा तुम्हारा बच्चा हो तो उसे दादा-दादी की कमी महसूस नहीं होने देना। बच्चा बुजुर्गों के हाथ रहे तो उसे अच्छे संस्कार मिलते हंै।" पोट्टम की माँ ने टटोलने की कोशिश कीं।

"नहीं नहीं बार-बार इतनी दूर आना हमारा कहाँ संभव है।"

"नहीं बेटा तुमको कहाँ फुर्सत है। नौकरी तो देखनी ही पड़ती है। लेकिन तुम्हारे पिता अब खाली ही होने वाले हैं। अब लोगोें के मुंह में भी चटकारा लग गया है अब केला का चिप्स-उप्स कौन खाता है।"

पोट्टम को लगा जैसे उसके ऊपर कोई मन भर का बोझ रख दिया हो। उसे अपना छोटा घर याद आया और उस छोटे घर की छोटी बाल्कनी।

लेकिन इसे उसकी माँ की इच्छा कहिए या फिर उसकी चिड़िया जैसी पत्नी का प्यार केरल से लौटने के डेढ़ वर्ष के उपरान्त पोट्टम ने आखिर सफलता हासिल कर ली।

किन्तु बीच के ये डेढ़ वर्ष कैसे कटे इसे सिर्फ़ पोट्टम और राजलक्ष्मी ही जान पायी थी। पोट्टम ने इस बीच असफलताओं का सैलाब देखा था। अपने जीवन से समय चुरा कर वह नौकरी ढ़ूंढता था और उसे असफलता हाथ लगती थी। ऐसा नहीं है कि उसने जिस नौकरी को आखिर में पाकर संतुष्टि पायी थी वही उसकी नौकरी ढ़ूंढने की पहली नौकरी थी। वास्तव में अंतिम दिनों में तो उसने कई नौकरियाँ छोड़ दी थी। किसी में दस दिन तो किसी में पांच दिन। कोई-कोई नौकरी तो ऐसी भी रही कि पोट्टम ने एक दिन भी वहाँ अपने को आरामदेह नहीं पाया। नौकरियों को छोड़ने के कारण हालत यह हो गयी कि उसका वेतन न ही यहाँ से मिला और न ही दूसरी जगह से।

इस डेढ़ वर्ष के कठिन दिनों में पोट्टम एकदम चिड़चिड़ा हो गया था। असफलताओं के इस सैलाब में उसके मन में कई बार यह अंदेशा रहा कि क्या वह अपनी गुजरती जा रही उम्र में कभी बच्चा पैदा नहीं कर पायेगा। अच्छी नौकरी, बच्चे की अच्छी परवरिश की खोज में कहीं दिन ऐसा न आ जाए कि वह हार जाए। पिता कि तबीयत की उसे बहुत चिंता रहती थी। उसे हर दिन ऐसा लगता था कि पिता बस किसी भी दिन चिप्स के उसी चूल्हे पर गिर जायेंगे। उनका पूरा शरीर जल जायेगा और मैं उनकी अन्त्येष्टि तक में नहीं पहुँच पाऊंगा।

वह रात में सोतेे से डर जाता था। ऐसा लगता था जैसे एक घनघोर जंगल में वह है और ढेर सारी पक्षियों से वह वहाँ खेल रहा है। सारे पक्षी उसे पहचान रहे हैं। वह यहाँ वहाँ दौड़ता है और पक्षियाँ अपनी आवाज में उसका साथ देती हैं। लेकिन अचानक अँधेरा घिरने लगता है और फिर घुप्प अंधेरा। उसे उस जंगल से निकलने का रास्ता मालूम नहीं है। वह दौड़ता है, भागता है और जोर-जोर से चिल्लाता है। लेकिन दूर-दूर तक कहीं कुछ नहीं है। वह बिल्कुल सीध में दौड़ता चला जा रहा है और अचानक सामने एक खाई आ जाती है और वह उसी में गिर जाता है।

वह डर कर उठता और देखता कि उसकी पत्नी पहले से ही आंखंे खोले बैठी है। फिर वह चुपके से सो जाता।

पोट्टम ने अंत में जिस नौकरी से थोड़ी संतुष्टि पा ली थी उसमें उसका वेतन अचानक पैंतीस हजार हो गया था। यह तेरह-चैदह हजार से अचानक पैंतीस हजार की छलांग पोट्टम के लिए एक बड़ी छलांग थी।

"मैं न कहती थी कि तुम बड़े काबिल हो। देखो सब ठीक हो गया न।" ऐसा राजलक्ष्मी ने सुखद खबर के तुरंत बाद कहा।

"तुम्हारी आंखें बहुत गहरी हैं। मैं उनमें एक दिन डूब जाउंगा।" पोट्टम ने शरारत की थी।

पोट्टम ने अपनी इस नौकरी के तुरंत बाद अपने जीवन के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए। उसने तुलनात्मक रूप से एक बड़ा घर लिया। अपने माता-पिता को साथ रखने का निर्णय लिया और साथ ही अपने परिवार को बड़ा करने का निर्णय लिया।

पैंतीस हजार के वेतन में भी पोट्टम को दिल्ली में कोई हवेली तो नहीं मिल सकती थी लेकिन हाँ दो कमरे का बनिस्पत बड़ा घर उसे ज़रूर मिल गया। उस बड़े घर में पोट्टम ने एक लम्बी सांस ली थी और उसको अपने नए स्टाइल से सजाया था। उसने उस घर में ढ़ेर सारे पेड़ लगाये थे। कहीं आम, कहीं कटहल, कहीं बरगद। एक तरह से समझा जाए कि एक पूरा बागीचा। जिसके लिए वह इस महानगर में वह सब दिन तरसता रहा था। अपने उस बागीचे में राजघाट, शांति वन से उन पेड़ों को भी लाने का भी प्रयास किया था जिसे उसने कभी अपने ही हाथों वहाँ छोड़ आया था। लेकिन वहाँ की सुरक्षा इतनी कड़ी थी कि वह ऐसा कर नहीं पाया था। हाँ उसकी दिली इच्छा ऐसा करने की बहुत थी। उसके उस बागीचे में ढ़ेर सारी चिड़िया आती थीं। लेकिन अब पोट्टम उस चिड़िया के सामने स्कूल ड्रेस में नहीं जाता था।

पोट्टम के पास कभी-कभी ही समय मिल पाता था इन चिड़ियों से मिलने का। कई-कई दिनों तक चिड़िया पेड़ पर बैठी एक टक उसका इंतजार करती रहती थी। पोट्टम उन पेड़ों को पानी भी नहीं दे पाता था। राजलक्ष्मी उन पेड़ांे को पार करके इस घर में यहाँ वहाँ घूमा करती थी।

पोट्टम ने अपने माता-पिता को दुकान का शटर बन्द कर देने के लिए कह दिया था। उसकी माँ बहुत खुश थी। पिता कि बहुत इच्छा नहीं थी। लेकिन वे मजबूर थे। परन्तु उसके पिता ने अपने हद तक इसे टाल दिया था। हाँ कुछ समय में अवश्य उन्हें भी पोट्टम और पोट्टम की माँ की जिद के आगे झुकना पड़ा था। आखिर उन्होंने अपनी दुकान को बन्द करने की प्रकिया शुरू कर दी थी।

पोट्टम इस बीच काफी खुश था वह पिता बनने की प्रकिया में आ चुका था।

पोट्टम के जीवन के ये वे दिन थे जब वह बहुत खुश था। उसको लग रहा था कि अब बस सब ठीक होने ही वाला है। वह व्यस्त अब भी रहता था परन्तु अभी की व्यस्तता में उसे एक संतुष्टि थी। उसके पास अपनी पत्नी के लिए जितना ही वक्त था लेकिन अपनी पत्नी के साथ को वह बहुत ही सुखद अहसास के साथ जीता था।

परन्तु पोट्टम की खुशी बहुत दिनों तक बरकरार नहीं रह पायी। पोट्टम अभी कुछ पैसे बचा पाता, उसकी पत्नी अपनी थोड़ी ठीक हैसियत में अपने बच्चे को धरती पर जन्म दे पाती कि पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था में एक जबरदस्त गिरावट आ गई। एक ऐसी आर्थिक मंदी कि धरती पर पैसा दिखना ही बंद हो गया। पोट्टम ने मंदी, छटनी, अर्थव्यवस्था जैसे शब्द को अचानक से कई बार प्रयोग होते देखा। शुरुआत के कुछ दिनों तक तो यह भ्रम बना रहा कि यह कुछ दिनों की बात है और भारत पर इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है। लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा। शुरुआत इस बात से हुई कि मंदी के कारण कुछ महीनों तक किसी भी कर्मचारी के वेतन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी। पोट्टम इससे बिल्कुल भी दुखी नहीं था उसने सोचा अभी तो इतनी बड़ी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन मामला बहुत उलझ गया।

उस दिन अजीब हो गया जब उसकी कम्पनी में बगैर किसी शोर शराबे के अचानक ही एक बड़ी-सी लिस्ट उन लोगांे की टांग दी गई जिन्हें कल से काम पर नहीं आना था। आॅफिस में चारांे तरफ एक अफरा तफरी मच गई। किसी को लिफ्ट में आॅफिस आते वक्त तो किसी को टाॅयलेट से निकलते वक्त तो किसी को पत्नीे द्वारा दिये गए लंच के जायके के साथ रेजिगनेशन लेटर पकड़ा दिया गया।

यूं तो पोट्टम अभी बिल्कुल नया था इसलिए उसको वहाँ से हटाने में कोई खास दिमाग भी नहीं लगाना पड़ता परन्तु चूंकि अपने काम में वह काफी होशियार था और उसने अपने इमिडियेट बाॅस का बहुत-सा काम खुद ही संभाल लिया था इसलिए उसके बाॅस ने उसके नाम को उस लिस्ट में जाने से रोक लिया था और उसे अपने चैम्बर में बुलवा लिया था।

बाॅस की चैम्बर की तरफ बढ़ते हुए पोट्टम के पैर कांप रहे थे। पोट्टम ने पत्नी के पेट में बच्चे की हरकत को उस समय बहुत करीब से महसूस किया।

बाॅस का चेहरा बहुत बड़ा था और उसकी मूंछे थीं। वह हर वक्त हंसी के मूड में ंरहता था। उसकी आवाज ऊंची थी और अक्सर बोलने के बाद वह हंसने लगता था। पोट्टम ने सोचा आज उसकी हंसी गायब हो गयी होगी और वह बहुत गंभीर होगा। लेकिन पोट्टम एकदम ग़लत था। उस पर मंदी और छंटनी का कोई असर नहीं था। उसकी हंसी अभी भी वैसी ही बरकरार थी।

"सी मि। पोट्टम यू हैव ओनली टू आॅप्शन्स इदर लीव द जाॅब आॅर एक्सैप्ट व्हाट एवर इज आॅफर्रड।" उसके बड़े चेहरे पर एक हंसी तारी थी। उसने अपने मूविंग चेयर को फिर थोड़ा पीछे किया और उस पर झूल-सा गया। अब सामने की कुर्सी पर बैठे मि। पोट्टम उससे काफी दूर हो गए थे।

"नहीं तो हम तो तुमको रजिगनेशन लेटर उस वक्त थमा ही देेंगे जिस वक्त तुम सू-सू कर रहे होगे।" थोड़ी ही देर में उसने ऐसा कहा और फिर ऐसा कहकर वह जोर से हंसने लगा। ' हो-हो हो हो...

पोट्टम का बाॅस हंस रहा था और पोट्टम की हंसी गायब थी।

वह बाहर का माहौल जानता था इसलिए चुपचाप उसने दूसरे विकल्प को स्वीकार कर लिया और इस तरह उसका वेतन एक बार फिर उसी जम्प के साथ सत्तरह हजार पर आकर रुक गया। पोट्टम बहुत दुखी था। जबकि उसके बहुत से साथी उसकी किस्मत से रश्क कर रहे थे। कम से कम उसकी नौकरी बच तो गयी थी।

पोट्टम की सलाह पर उसके पिता ने अपनी दुकान का शटर गिरा दिया था। दुकान किराये पर थी और उसी दुकान में पोट्टम के पिता पिछले बीस-बाइस वर्ष से थे। उन्होंने अपनी दुकान का बोर्ड भी उतार लिया था। दुकान का मकानमालिक खुश ही था क्योंकि उसे नए किरायेदार से ज़्यादा कि उम्मीद थी और उम्मीद सही भी थी। उसमें दस दिन केे भीतर ही ज़्यादा किराये पर पेस्ट्री और केक की दुकान खुल गई। उस दुकान में नारियल की बहुत ही वाहियात किस्म की पेस्ट्री मिलती थी।

पोट्टम के माता-पिता अभी अपने घर का सारा सामान और अपना जीवन सहेज ही रहे थे कि अचानक उन्हें अपने बेटे की बुरी खबर सुनने को मिली। वे अपनी दुकान बन्द कर चुके थे और उनके पास उसके अलावा आय का और कोई विकल्प नहीं था। उनके पास बैठकर जार-जार आंसूू बहाने के अलावे उपाय ही क्या था?

वेतन कम होने के साथ-साथ पोट्टम पर कई दुखों ने एक साथ हमला कर दिया। उसके माता-पिता केरल के अपने उस छोटे से गाँव में बगैर किसी आय के साधन के अटके रह गए, पोट्टम को कुछ ही दिनों में अपना पूरा बागीचा उखाड़ कर एक बार फिर से एक छोटी-सी कोठरी में आ जाना पड़ा। पोट्टम की पत्नी बच्चे को जन्म देने के करीब बढ़ रही थी और पोट्टम को पैसे की भारी किल्लत हो गई थी। लेकिन पोट्टम के लिए सबसे अधिक मुश्किल इस बात की हो गई कि उसके जीवन के सुख-चैन को इस महामंदी ने बिल्कुल ही चैपट कर दिया।

वास्तव में पोट्टम की नौकरी की रक्षा करके सिर्फ़ उसके वेतन को कम ही नहीं किया गया था बल्कि उसके काम को दुगुना-तिगुना भी कर दिया गया था। ऐसा तो था नहीं कि मंदी के कारण आॅफिस में कामों की कमी हो गई थी। काम उतने ही थे और कर्मचारियों की संख्या लगभग आधी कर दी गई थी। उस आॅफिस में बचे हुए जितने भी कर्मचारी थे उनके कामों को दुगुना-तिगुना कर दिया गया था और काम का बोझ देते वक्त किसी से भी न ही यह पूछा गया था कि इन कामों की समझ आपको है भी या नहीं या फिर यह कि आपको इस काम को करने में कोई आपत्ति तो नहीं है।

निजी नौकरियों का यह वह समय था जब नौकरी पर बचे हुए कर्मचारियों को अगर उसका बाॅस अपने घर में पोछा लगाने के लिए भी कहता तो वह अपने आप को सौभाग्यशाली ही समझता। नौकरी बची रहे इसके लिए तब कोई भी किसी स्तर पर जाकर समझौता करने को तैयार था।

पोट्टम की पत्नी धीरे-धीरे नवें महीने की ओर बढ़ रही थी और हालत यह थी कि पोट्टम दो-दो तीन-तीन रात घर लौट तक नहीं पाता था। उसके सोने रहने की व्यवस्था आॅफिस में की जाती थी और उससे चाय और काॅफी की चुस्की के साथ काम लिया जाता था। उसकी नींद पूरी नहीं हो पा रही थी और जब वह अपने घर की ओर के लिए चलता था तब उसे रास्ता और यह शहर घूमता हुआ-सा महसूस होता था। राजलक्ष्मी अकेले अपने गर्भ के समय को काट रही थी। पोट्टम की हालत यह कर दी गई थी कि उसे अपने आॅफिस के अलावा कुछ समझ में नहीं आ पा रहा था। वह इस दुनिया से पूरी तरह कट चुका था। उसका दिमाग एकदम सुन्न-सा हो गया था। उसे बस अपने आॅफिस के अलावा कुछ दिख ही नहीं पाता था।

अब हरियाली, कोमल पत्तों और चिड़ियों के बीच रहने की बात तो छोड़ दिया जाए पोट्टम को इस मंदी के बाद हरियाली का दर्शन करना नसीब तक नहीं हो पाया। वह यहाँ की भीड़-भाड़, चिल्ल पों और आॅफिस से त्रस्त हो चुका था। लेकिन तब पोट्टम के पास और कोई विकल्प नहीं था।

परन्तु पोट्टम की दूसरी बड़ी समस्या यह थी कि उसको आॅफिस में अपने कामों के अलावा उसका काम भी सौंप दिया गया था जिसकी डयूटी दिल्ली के बाहर के ब्रांचों को देखने जाना था। चूंकि दिल्ली से बाहर विभिन्न ब्रांचों पर जाने वाले कर्मचारी की छुट्टी कर दी गयी थी इसलिए यह स्वाभाविक था कि उसके हिस्से का काम विभिन्न बचे हुए कर्मचारियों के बीच बांट दिया जाए। हालत यह हो गई कि पोट्टम को महीने में कम से कम दो-तीन बार और कम से कम दो-दो तीन-तीन दिन दिल्ली से उसे बाहर रहना पड़ता था। उसके पास नौकरी के इस घोर संकट वाले समय में कोई और विकल्प नहीं था। या फिर अब उसकी यह स्थिति रह नहीं गई थी कि वह नौकरी बदलने के बारे में सोच भी सके।

उसकी पत्नी गर्भवती थी और उसे बाहर जाना पड़ता था इसलिए वह डरा रहता था। उसके माता-पिता के आय के स्रोत बन्द हो गए थे। इसलिए उसे अपने वेतन में से कुछ रुपये अपने पिता को भेजने पड़ते थे। उसके अपने एक कमरे के मकान में जगह की किल्ल्त थी और आर्थिक रूप से भी अब उसकी इतनी हैसियत नहीं रह गई थी कि वह अपने माता-पिता को अपने पास रख पाता लेकिन उसकी मजबूरी इतनी बड़ी थी कि उसे अपने माता-पिता को अपने पास दिल्ली बुलवाना पड़ गया। पिता बाहर के छोटे से ओसारे में सोते थे। पिता कि तबीयत कभी खराब होती थी तो पोट्टम की माँ उनकी सेवा करती थी। राजलक्ष्मी को अब चलने-फिरने में काफी तकलीफ होने लगी थी इसलिए वह प्रायः आराम करती थी और पति का इंतजार करती रहती थी। पोट्टम जब आता था तब उसका मन मचलने लगता था। पोट्टम अपनी पत्नी को देखता और मन में रोने लगता था। उसे लगता था कि वह अपनी पत्नी के प्रति कोई जिम्मेदारी निभा नहीं पा रहा है। वह सोचता था कि अगर राजलक्ष्मी को कभी कोई ऐसी ज़रूरत पड़ जाए जो वह सिर्फ़ उससे ही कह सकती है तब वह किसी को कुछ कह भी नहीं सकती है।

वैसे राजलक्ष्मी के साथ रहने के लिए माता-पिता थे लेकिन पोट्टम को यह चिंता रहती थी कि अगर कभी तुरंत हाॅस्पीटल भागने की ज़रूरत आ पड़े तो उसके पिता से यह संभव नहीं हो पायेगा। एक तो पिता बीमार रहते थे और दूसरे यह कि उन्हें हिन्दी बोलनी नहीं आती थी और तीसरे यह कि उन्हें दिल्ली का कुछ अता-पता नहीं था।

राजलक्ष्मी ने महसूस किया था कि इस बीच पोट्टम काफी चिड़चिड़ा हो गया था। वह अपने घर में जितनी देर होता था एकदम गुमसुम होता था। उसकी आंखें कहीं एक जगह टिकी होती थीं। जो पोट्टम कभी पत्नी के साथ नाश्ता नहीं करने पर घंटों इंतजार करता था या फिर अपना नाश्ता छोड़ देता था वही पोट्टम सिर्फ़ इस बात से नाराज होता था कि उसके नाश्ते के साथ पानी का ग्लास उसी वक्त क्यों नहीं रखा गया। राजलक्ष्मी बूझती थी यह समय भारी है इसलिए वह कुछ कहती नहीं थी। कभी ज़्यादा हो गया और उसने समझाने के मूड से पोट्टम को पूछ लिया "तुम्हें क्या हो गया है। क्यूं इतने नाराज रहने लगे हो? सब ठीक हो जायेगा।"

तब पोट्टम एकदम से फट पड़ा था। "मैं शैतान हो गया हूँ।"

अपने पिछले बनिस्पत थोड़े बड़े मकान से राजलक्ष्मी ने कुछ गमले को साथ उठा लिया था। वह जानती थी कि उस नये छोटे कमरे में गमले की जगह नहीं है लकिन वह अपने पति की मजबूरी जानती थी। किन्तु राजलक्ष्मी का गर्भवती होना और पोट्टम के इस कदर व्यस्त होने ने उन गमलों और उन फूलों को लगभग मुरझा-सा दिया था। उन गमलों के पौधों की पत्तियाँ झर कर उसी गमले में गिर रही थीं और पोट्टम को देखने तक की फूर्सत नहीं थी। अगर कभी उसकी नजर उस तरफ चली भी जाती थी तब उस पर उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती थी।

फिर वह दिन जिसके कारण यह कहानी बन पायी

यह वह दिन था जो सामान्य होते हुए भी पोट्टम के लिए पूरी तरह सामान्य नहीं था। यह दिल्ली का एक उमस भरा दिन था और पोट्टम उस दिन बहुत परेशान था।

राजलक्ष्मी के गर्भ के वे अंतिम दिन थे। बस एक-दो-तीन दिन या फिर ज़्यादा से ज़्यादा एक सप्ताह। पोट्टम ने अपनी पूरी कोशिश की थी कि कम से कम उसे एक सप्ताह की छुट्टी मिल जाए। लेकिन ऐसा सुनकर उसके उस चैड़े मुंह वाले बाॅस ने हंसते हुए कहा था "सोच लो अभी भी तीसरा आॅप्शन हमने अपनी ओर से खत्म नहीं किया है।" और फिर साथ में यह कि "अरे कौन-सा बच्चा तुमको पैदा करना है। तुम रुपया पैदा करो मि0 पोट्टम बच्चा तो बीबी किसी न किसी तरह पैदा कर ही देगी।" पोट्टम दबे पांव वापस आ गया था।

उस दिन वह दो रात अपने आॅफिस में रुकने के बाद अगले दिन रात के दस बजे के करीब घर लौटा था एकदम थका मांदा। उसने सोचा घर में रात भर आराम हो जायेगा। लेकिन रात पिता कि तबीयत खराब रही और उसे पूरी रात जगना पड़ा। पिता पूरी रात सीने के दर्द से कराहते रहे और पोट्टम उनके सीने को दबाता रहा। खैर जैसे तैसे रात कटी पिता को जब नींद आई तब उन्हें काफी आराम मिला। सुबह नौ बजे तक पोट्टम को आॅफिस पहुँच जाना था। पोट्टम ने पूरी रात पलक झपकाई तक नहीं थी। सुबह जब पिता को नींद आई तब पोट्टम ने सोचा अगर अब एक-दो घंटे के लिए सो लिया तब उठना मुश्किल हो जायेगा और उसका नौ बजे आॅफिस पहुँचा ज़रूरी था।

पूरा दिन वह आॅफिस में अपनी नींद से भरी हुई आंखों के साथ बड़े चेहरे वाले बाॅस की हंसी सुनता रहा था। दुखद यह था कि उसे आज फिर आॅफिस के काम से दिल्ली से बाहर जाना था। उसे शाम में आॅफिस से जल्दी निकल कर घर भागकर शाम की ट्रेन पकड़नी थी। थोड़ी राहत इस बात की थी कि उसे आॅफिस की तरफ से टैक्सी दी गई थी। आॅफिस से घर और घर से रेलवे स्टेशन जाने के लिए। उसने सोचा था कि वह अपना काम थोड़ा जल्दी खत्म कर घर पर कम से कम एक घंटा रुककर फिर वह स्टेशन के लिए निकलेगा। लेकिन ऐसा संभव कहाँ हो पाया।

गर्मी बहुत तेज थी। मौसम में उमस थी। वह जब टैक्सी में आकर बैठा तब टैक्सी एकदम तप रही थी।

"एसी नहीं है क्या?" पोट्टम ने टैक्सी वाले को झिड़कने के स्टाइल से पूछा। उसकी पूरी बुशर्ट पसीने से भीग चुकी थी।

"है क्यों नहीं साहब, लेकिन मुझे तो विदाउट एसी बुक किया गया है। आप कहें तो चला देता हूँ। बस उसका पांच रुपये प्रति किलोमीटर बढ़ जायेगा।" ड्राइवर ने कहा तो पोट्टम चुप हो गया।

पोट्टम ने दोनों तरफ की खिड़की खोल दी और ड्राइवर को तुरंत चल देने को कहा।

गाड़ी साढ़े सात बजे शाम की थी और वह आॅफिस से चार बजे के करीब निकला था। उसे अभी घर जाना था और घर के बाद स्टेशन।

टैक्सी के चलने के बाद पोट्टम को थोड़ी राहत मिली। पसीने से लथपथ पोट्टम को ठंडी हवा ने बहुत सुकून दिया। कम से कम दस रेडलाइट को पार करने के बाद अब टैक्सी अच्छी रफ्तार में आती कि वहाँ रास्ता डाइवर्ट किया हुआ था। सामने सफेद कपड़े में खड़े तीन ट्रैफिक पुलिस अपने हाथों के इशारे से रास्ता को डाइवर्ट कर रहे थे। सामने महंगाई के विरोध में एक जबरदस्त रैली थी। जिसमें लोग पेट्रोल की कीमतों से लेकर आटा, चावल, दाल और नमक, तेल, पानी तक की कीमतों में कमी की मांग किसी अदृश्य सरकार से कर रहे थे।

च्ूंकि रास्ता डाइवर्ट हो गया था इसलिए उस बदले हुए रास्ते पर दोहरा दबाव बन गया था। पोट्टम की टैक्सी लगभग रेंग रही थी। टैक्सी की रफ्तार कम होते ही पोट्टम के शरीर से पसीने की धार चलने लगती थी। पोट्टम का मन बार-बार कर रहा था कि वह उस टैक्सी वाले को एसी आॅन करने के लिए कह दे। लेकिन फिर वह अपने आप को रोक लेता था। मोबाइल पर एसएमएस आ रहे थे। वहाँ घर खरीदने के कई आकर्षक आॅफर थे। कुछ खास सुविधाओं के साथ कई ऋण भी वहाँ उपलब्ध थे। लेकिन पोट्टम को न ही घर खरीदना था और न ऋण ही लेना था।

पोट्टम जब अपने कमरे पर पहुँचा तब तक अपने हिसाब से वह काफी लेट हो चुका था। वहाँ बिजली नहीं थी। ओसारे पर पिता हाथ से पंखा झल रहे थे। माँ वहीं नीचे जमीन पर बैठी थी। पत्नी अंदर कमरे में लेटी थी और उसके चेहरे से पसीना चू रहा था। उसने कमरे में प्रवेश करते ही इधर-उधर नजर घुमाकर देखा, कमरे में कोई हरियाली नहीं थी। बगैर बिजली के छत से लटका हुआ पंखा बिल्कुल खामोश था।

कमरे पर पहुँचते ही राजलक्ष्मी ने बतलाया कि वह थोड़ा अस्वस्थ महसूस कर रही है और साथ में यह भी कि रसोई गैस खत्म हो गया है। रात का खाना कैसे बनेगा यह संकट है। पोट्टम के पास गैस का सिर्फ़ एक ही सिलेण्डर था। उसके लाख चाहने के बाद भी दूसरा सिलेण्डर उसे मिल नहीं पाया था। लेकिन गैस एजंेसी वाले ने उस पर इतना तरस खा लिया थी कि उसके कहने पर वह उसे उसी दिन गैस पहुँचवा देता था। एजेंसी बस इसके लिए उससे डेढ़ रुपये फालतू लेती थी। लेकिन शर्त यह थी कि वह इस तरह की बुकिंग फोन पर नहीं करता था। इसके लिए उसे वहंा पर्सनली जाना पड़ता था। पोट्टम ने सोचा स्टेशन तक पहुँचने में लगभग पंद्रह मिनट और ज़्यादा समय लगने वाला है।

अपना बैग लेकर जब पोट्टम चलने लगा तब राजलक्ष्मी हल्का दर्द महसूस कर रही थी। वह दर्द को छुपाने की कोशिश कर रही थी लेकिन पोट्टम उसे महसूस कर पा रहा था। पोट्टम ने एक टैक्सी वाले का नंबर अपनी पत्नी को पकड़ाया।

"मैं बस परसों रात तक आ जाउंगा। सब ठीक रहेगा। ईश्वर हमारे साथ हैं।" ऐसा आश्वासन देते हुए पोट्टम खुद भी बहुत आश्वस्त नहीं था।

अपना बैग जब उसने टैक्सी में रखा तब ड्राइवर ने कहा "सर क्या हमलोग वाकई गाड़ी पकड़ पायेंगे।"

यह सुनकर पोट्टम के शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी। उसने ड्राइवर को कहा वह थोड़ा दूसरे रास्ते से ले ताकि वह गैस एजेंसी में अपनी गुजारिश छोड़ता हुआ चले। ड्राइवर ने हल्का आश्चर्य जताया। लेकिन पोट्टम मजबूर था।

यह दिल्ली शहर का वह शाम का समय था जब सारे आॅफिस के कर्मचारी छुट्टी पाने के बाद अचानक घर की ओर भागते हैं। सड़क पर गाड़ियों का काफिला था। सड़क पर बस उतनी ही जगह थी जितना उस गाड़ी का आकार था। एक गाड़ी सामने से हटती थी तब दूसरी गाड़ी उसी जगह पर अपना स्थान ग्रहण करती थी। चारो तरफ अफरा तफरी मची हुई थी। सब तरफ बस शोर ही शोर।

एक रेड लाइट के बाद दूसरी रेड लाइट और दूसरी के बाद तीसरी। पोट्टम की निगाह बस अपनी घड़ी पर टिकी थी। जिसको देखकर उसे कभी लगता था कि वह स्टेशन पहुँच जायेगा और कभी लगता कि संभव नहीं है।

रेड लाइट पर गाड़ी रुकती तो उसके शरीर से पसीने की धार चलने लगती थी। उसने रेड लाइट पर बच्चों को अपनी टोपी में रस्सी बाँधकर उसे घुमाते देखा। उसकी कलाबाजियाँ देखी और इस गाड़ी उस गाड़ी से पैसे मांगते। बच्चे उसके पास आए और उसके सामने हाथ फैला दिये। उस बच्चे का मुंह गंदा था और उसके नाक से गंदगी बाहर आ रही थी। उसे देखकर पोट्टम को अचानक लगा उबकाई आ जायेगी। उसने बहुत जोर से उस बच्चे को डांट दिया। बच्चा डर कर भाग गया।

उसे आगे के लगभग सभी रेड लाइट पर इस तरह पैसे मांगने वाले मिलते रहे। कहीं औरत कपड़े के सहारे तीन महीने-चार महीने के बच्चे को लटका रखा था तो कहीं अपाहिज ने अपने घाव को दिखाने के लिए खुला छोड़ दिया था। कहीं पट्टियों से खून बह रहा था तो कहीं घावों से मवाद। पोट्टम को लगा जैसे वह किसी सरकारी अस्पताल से गुजर रहा है या फिर झोपड़पट्टी की तंग गलियों से। उसने सोचा ये सब आज ही क्यों दिख रहे हैं। वह वाकई आज बहुत दुखी था।

गाड़ी चलती तो उसे झपकी आने लगती। उसकी आंखें नींद से भारी हो रही थीं। किसी रेड लाइट पर गाड़ी रुकी तो तालियों की आवाज से उसकी नींद खुल गई। सामने कुछ हिजड़े थे। उनमेे से एक ने अंदर हाथ बढ़ा कर उसके गाल को छू लिया। पोट्टम ने डर कर अपनी जेब से दस का नोट बढ़ा दिया। पोट्टम ने सोचा इस दस रुपये में कम से कम दो किलोमीटर तक टैक्सी में एसी चल सकता था। फिर उसने अपने डर को कायम रखने के लिए अपनी सीट की दोनों ओर के शीशे को ऊपर चढ़ा लिया। शीशे कुछ देर तक बन्द रहे। अचानक उसे लगा उस गाड़ी में इतनी घुटन बढ़ गई है कि उसकी सांस रुक जायेगी। उसके कान के पीछे से पसीने की बूंदें चुने लगीं। उसने घबराकर शीशे को नीचे कर दिया। तभी मोबाइल की घंटी बज गई। उसकी हिम्मत मोबाइल उठाने की नहीं हो रही थी। लेकिन उसके पास आजकल आशंकाओं का अम्बार था इसलिए उसने मोबाइल उठा लिया। मोबाइल पर एक अजनबी नंबर तैर रहा था। उधर से इंश्योरेंस कम्पनी वाला एक बेहतरीन आॅफर के साथ था। पोट्टम ने कुछ कहा नहीं। उसने फोने काट दिया उसकी इच्छा हुई वह मोबाइल को बन्द कर दे। लेकिन वह डरा हुआ था।

शीशा नीचे करने से भी उसके मन के भीतर की घुटन कुछ कम नहीं हुई। उसने अपने आप को सीट पर पीछे फेंक-सा दिया लेकिन कोई फायदा नहीं। उसने अपनी आंखें बन्द की। लेकिन कोई फायदा नहीं। तबतक में एक और रेडलाइट। उसके मन में आया वह टैक्सी को छोड़, अपने सामान को छोड़, अचानक इस व्यस्ततम सड़क पर दौड़ना शुरू कर दे। टैक्सी चली तो सही लेकिन उसकी बेचैनी कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसके हाथ-पांव में कोई ताकत नहीं मिल पा रही थी। अपने शीशे से ड्राइवर ने पोट्टम को देखा। "क्या हुआ साहब क्या तबीयत खराब हो गयी।"

पोट्टम ने बस इतना कहा 'किसी पेड़ के पास रोको'।

"गाड़ी छूट जायेगी साहब।"

"रोको।" वह और कुछ बोल नहीं पाया।

कुछ ही दूर चलकर सड़क किनारे पेड़ मिल गए। टैक्सी रुकते ही पोट्टम पेड़ के नीेचे दौड़ा। जहाँ तक उसका हाथ जा सकता था उसने वहाँ से पेड़ के कुछ पत्ते तोड़ लिये। पत्तों को उसने कुछ देर तक सूंघा। उसको अपने चेहरे से लगाया। पत्ते पर अपनी नाक लगाग रखकर दो-चार लम्बी सांसें लीं और फिर ड्राइवर को कहा "अब चलो।" ड्राइवर हतप्रभ था लेकिन चुप था।

जब पोट्टम भागते-दौड़ते स्टेशन पहुँचा तब गाड़ी प्लेटफाॅर्म से सरक रही थी। उसने दौड़ते हुए जो डब्बा सामने था अपना सामान फेंकता हुआ उसमें चढ़ लिया और फिर तमाम भीड-भाड़ को चीरता हुआ चार डिब्बे को पार कर एसी-3 के अपने डिब्बे में पहुँचा।

उसकी सीट डिब्बे के एक तरफ से पहली और दूसरी तरफ से आखिरी थी। यानी सीट के साथ लगा हुआ दरवाजा था। उन सीटों पर गिनती से कुछ ज़्यादा लोग बैठे हुए थे। उनमें से कुछ लोगों के पास रिजरवेशन नहीं था और जो टीटीई को पैसा देकर सफ़र करने वाले थे। उसके उस कूपे में कुछ बच्चे थे जो बहुत बदमाश थे। उसकी सीट के नीचे जगह खाली नहीं थी वहाँ पहले से ही सामान ठूंसा पड़ा था। उसने बहुत मशक्कत करने के बाद थोड़ी-सी जगह बनाई थी। उसके बैग का हैंडल बाहर की ओर था जिससे आते-जाते हुए लोगों को दिक्कत हो रही थी। हर आदमी उससे कह रहा था कि "पता नहीं बैग ऐसे किसने रख दिया है।"

पोट्टम ने उनमें से अतिरिक्त लोगों के बारे में जानना चाहा कि क्या उन सबकी सीट यहीं है। तब उनमें से ही एक ने कहा "हां"

और फिर यह भी कहा कि "लेकिन यह गाड़ी तमिलनाडू तो जाती नहीं है।" और फिर सबने एक साथ हंस दिया था।

पोट्टम चुपचाप बैठ गया था। सामने जो लड़का बैठा था जिसने तमिलनाडू जाने वाली बात कही थी वह अपने मोबाइल के साथ खेल रहा था। दरवाजे बार-बार खुल रहे थे। लोग बार-बार बाहर आ-जा रहे थे। दरवाजा चूं की आवाज के साथ खुलता था। दरवाजे में जो पीछे स्प्रिंग लगा होता है जिसके कारण दरवाजा धीरे से बगैर आवाज के बन्द होता है वह खराब था। इसलिए दरवाजा चूं की आवाज के साथ खुलता था और फटाक की आवाज के साथ बहुत तेजी से बन्द हो जाता था। दरवाजों के चूं की आवाज की साथ खुलते ही पोट्टम समझ जाता था कि वह अब बहुत तेजी से फटाक की आवाज के साथ बन्द भी होगा। लेकिन वह कुछ कर नहीं सकता था। उसका ध्यान उधर लगा रह रहा था। अब चूं हुआ तो अब यह तेज आवाज के साथ बन्द होगा। उसने अखबार को मोड़-माड़कर सोचा दरवाजे में लगा दिया जाय ताकि किसी तरह इस आवाज को रोका जा सके। वह पंद्रह मिनट लगा रहा लेकिन संभव नहीं हो पाया।

एसी डिब्बे में गाड़ी के चलने की आवाज बहुत धीमी थी लेकिन अपनी कल्पनाओं का मिश्रण कर उस आवाज में पोट्टम अपने दिमाग में चलने वाली आवाज को मिलाकर अपने अकेलेपन को दूर करने की कोशिश कर रहा था। लेकिन पोट्टम के दिमाग में इस वक्त इतनी तरह की उलझनें थीं कि वह किसी एक आवाज, एक सोच से ट्रेन की आवाज को मिलाकर एक धुन नहीं निकाल पा रहा था। उसके कूपे में दो बच्चे थे, जिनमे से एक की उम्र लगभग आठ-नौ की होगी और दूसरे की तीन-चार साल। दोनों भाई नहीं थे। उनमें से एक बच्चा बार-बार अपने पिता से लाइट का स्विच आॅफ-आॅन करने के लिए जिद कर रहा था। एक बच्चे ने अखबार से हवाई जहाज बना लिया था और उसे उड़ा रहा था। हवाई जहाज बार-बार पोट्टम के चेहरे से टकरा जा रहा था। दोनों बच्चों में दोस्ती हो गयी थी और दोनों बहुत शोर मचा रहे थे।

पोट्टम ने बस घंटे भर बाद ही ट्रेन का खाना मंगवाया। खाना बहुत खराब था। दाल में पानी बहुत ज़्यादा था। रोटी ठंडी थी। पनीर की सब्जी बेस्वाद थी। उसे बहुत जोरों की भूख लग गई थी उसने किसी तरह उस खराब खाने को निगला। उसे बहुत तेज नींद आ रही थी। उसने सोचा एक बार पत्नी का हाल समाचार पूछ लिया जाए।

फोन उसकी माँ ने उठाया। उसने कहा कि दर्द बढ़ गया है और रात में ही कहीं हाॅस्पीटल भागना न पड़ जाए। इससे आगे बात नहीं हो पायी थी। गाड़ी अपनी रफ्तार में थी। फोन का कनैक्शन लग नहीं रहा था। पोट्टम बहुत देर तक फेान लगाता रहा था लेकिन वह सफल नहीं हो पा रहा था।

वह अपने बिस्तर पर गिर पड़ा। वह थोड़ी देर सो जाना चाहता था। उसके सर में बहुत तेज दर्द था। यह दरवाजे के बार-बार बन्द होने की आवाज उसे सोने नहीं दे रहा था। जब रात के करीब ग्यारह बज गए तब दरवाजे की खुलने और बन्द होने की आवृति थोड़ी कमी आयी थी।

पोट्टम को थोड़ी राहत हुई। उसने सोचा अब थोड़ी देर सो लिया जाए। लेकिन अभी वह सोने की तैयारी में ही था कि सामने बैठा वह लड़का जिसने कहा था कि यह गाड़ी तमिलनाडू नहीं जाती है ने अपने मोबाइल पर गाना बजा दिया था। नीचे के बर्थ पर वे दो लड़के थे। एक बैठा हुआ था और दूसरा लेटा हुआ। दोनों लड़के एक साथ नहीं थे। दोनों एक-दूसरे से अपरिचित थे। जो लड़का बैठा हुआ था उसके पास बर्थ नहीं था। लेटा हुआ लड़का कमजोर था इसलिए उसने मजबूरी में अपने पैर को समेट कर उसे बैठने की जगह दे दी थी। यह मोबाइल वाला लड़का अपनी गर्दन झुका कर बैठा हुआ था। मोबाइल उसके हाथ में था और उसमें जोर-जोर से गाने बज रहे थे। मोबाइल पर एक गाना खत्म होने के बाद दूसरा गाना अपने आप ही बज जाता था।

पोट्टम ने थोड़ी देर तक इंतजार किया। वह उस लड़के से मुंह लगाना नहीं चाहता था। लेकिन उसे लगा अब अगर थोड़ी देर और इंतजार किया गया तो उसकी नसें तड़क जायेंगीं। उसे उस लड़के पर इतना गुस्सा आ रहा था कि उसकी इच्छा हो रही थी कि वह उस लड़के से मोबाइल छीन कर उसे बाहर फेंक दे। लेकिन उसने अपने सारे गुस्से को जज्ब करके उससे अनुरोध किया कि रात गहरी हो गयी है और उसके सर में बहुत तेज दर्द है। अगर वह अपना यह संगीत प्रेम बन्द कर दे तो वह सो पाये। लेकिन उस लड़के पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा। उस लड़के ने पोट्टम के अनुरोध का कोई जवाब तक नहीं दिया। पोट्टम ने दस मिनट के बाद उस लड़के की ओर अनुरोध भाव से दुबारा देखा। लेकिन लड़के ने अपनी नजर दूसरी ओर घुमा दी।

पोट्टम का सर दर्द बहुत बढ़ गया था। उसके पूरे शरीर में बहुत बेचैनी हो गयी थी। अचानक इस बचैनी से उसकी रीढ़ की हड्डी में एक दर्द नीचे से उठा और वह गर्दन तक आ गया। वह चिल्ला नहीं सकता है लेकिन उसकी बेचैनी अपनी सारी सीमाओं को लांघ गयी थी।

पोट्टम अपनी सीट पर उठ कर बैठकर गया और उसने आखिरी बार उस लड़के को मोबाइल को बन्द करने के लिए कहा। उस लड़के ने कहा कुछ नहीं बस अपनी उंगली को मुंह पर ले जाकर उसे शांत रहने को कहा और फिर हाथ से ही उसे सो जाने का इशारा किया। उस लड़के के साथ जो दूसरा लड़का था वह अब भी सोया हुआ था। पूरे कूपे में लगभग सन्नाटा पसरा हुआ था। जिनको उस मोबाइल के कारण नींद नहीं आ रही थी वे भी चुप थे।

पोट्टम को राजलक्ष्मी की चिंता हो रही थी इसलिए उसका दिमाग संतुलित नहीं हो पा रहा था। उसने दो-तीन अंगड़ाईयाँ लीं, दो-तीन बार करवट बदलीं लेकिन बेचैनी बरकरार थी। पोट्टम को बार-बार लग रहा था कि अब अगर वह सो नहीं पाया तो वह पागल हो जायेगा। उसने अपने हाथ से अपने बाल को लगभग खींचते हुए पीछे किया। सर को थोड़ा-बहुत दबाया परन्तु कोई फर्क नहीं। वह उठ बैठा।

पोट्टम एक मिनट को चुप रहा और फिर उसने उस मोबाइल वाले लड़के के काॅलर को पकड लिया और लगभग घसीटते हुए बाहर वाले दरवाजे तक ले आया और फिर उसने उस मुख्य दरवाजे से उसे ट्रेन से बाहर फेंक दिया। एसी-3 के उस डिब्बे में एसी के उस दरवाजे के बाद वाला मुख्य दरवाजा खुला हुआ था।

पोट्टम ने इसे पहले ही क्षण महसूस किया कि एसी की ठंडी हवा कि तुलना में उस बाहरी दरवाजे से आने वाली ताजी ठंडी हवा के झोके में काफी फर्क था।

यह इतनी जल्दबाजी में हुआ कि कूपे में सोये हुए किसी भी यात्री को कुछ भनक तक भी नहीं लग पायी। या तो सब नींद में थे। या फिर सबकी बर्थ के आगे पर्दे खिंचे हुए थे।

हाँ किसी ने सुना हो या ना सुना हो परन्तु पोट्टम ने उस लड़के को बाहर फेंकते हुए दरवाजे पर एक तरह से चिल्लाते हुए कहा था 'मैं क्या करूं, कहाँ जाउं। मैं और आवाज नहीं सुन सकता। नहीं सुन सकता।'

लड़के को जब पोट्टम ने घसीटा था तब उसने अपने मोबाइल को कसकर जकड़ रखा था। इसलिए उसके साथ ही मोबाइल भी उस डिब्बे से बाहर हो गया था। ट्रेन की उस तेज आवाज में कोई भी आवाज बहुत जोर की नहीं उठ पायी थी। न ही कोई चीख, न ही गिरने की कोई धम्म-सी आवाज और न ही मोबाइल में बजते हुए गाने की आवाज।

पोट्टम उसी बाहर वाले खुले हुए दरवाजे को पकड़ कर थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा। गाड़ी की चाल उस वक्त बहुत तेज थी। दरवाजे से बाहर दूर-दूर तक अँधेरा पसरा हुआ था। कहीं कुछ दिख नहीं रहा था। कभी कहीं दूर एकाध डिबरी जैसी रोशनी दिख जाती थी। गाड़ी के द्वारा हवा को चीरकर चलने की आवाज एक तरह की ही आ रही थी। बस कभी जब कोई खंभा गाड़ी के समीप आ जाता था तब आवाज थोड़ी बदल जाती थी। गाड़ी सुंइ की आवाज के साथ उस खंभे को पार कर लेती थी।

पोट्टम अपने दोनों हाथों से दरवाजे के दोनों ओर लगे हैंडल को कसकर पकड़े हुए था। उसे ठंडी हवा ने बहुत राहत दी थी। उस घुप्प अंधेरे में उसे दूर खेतों की हरियाली दिख तो नहीं रही थी परन्तु वहाँ से गुजरने वाली हवा में उस हरियाली की खुशबू थी। पोट्टम हरियाली की उस खुशबू को महसूस कर रहा था और मदहोश-सा हो रहा था। हरियाली की वह खुशबू उसके नथुने में भर रही थी। उसका सारा तनाव दूर हो गया था। उसे वहीं नींद का झोंका-सा लगा। वह अपने दोनों हाथों से हैंडल को पकड़े हुए था।

वह नींद की उसी मदहोशी में अपने बर्थ तक पहुँचा और अपने बिस्तर पर गिर गया। उसे दो सैकेण्ड भी नहीं लगा होगा, वह गहरी नींद में था। उसके चेहरे पर अजीब-सी संतुष्टि थी। ऐसा लग रहा था जैसे बहुत दिनों बाद आज वह इतनी गहरी नींद में सो पाया है।

बाहर घुप्प अँधेरा था और ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार में थी। उस घुप्प अंधेरे में भीतर सन्नाटा पसरा था इसलिए ट्रेन की अपनी आवाज से कोई कोरस नहीं बन पा रहा था।