फ़कीरों में नव्वाब, गिरहकट, अघोरी साधक : भुवनेश्वर / भारत यायावर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पिछले दिनों मई, 1937 में प्रकाशित और बाबुराव विष्णु पराड़कर के द्वारा संपादित ‘हंस’ का ‘प्रेमचन्द-स्मृति-अंक’ पढ़ रहा था. इसमें प्रेमचन्द पर अनेक संस्मरण हैं, किन्तु जैनेन्द्र कुमार का संस्मरण सबसे लम्बा और दिलचस्प है- ‘प्रेमचन्द : मैंने क्या जाना और पाया’. इस संस्मरण में एक जगह जैनेन्द्र ने लिखा है : ‘‘प्रेमचन्द जी ने एक बड़ी दिलचस्प आपबीती सुनाई. एक निरंकुश युवक ने किस प्रकार उन्हें ठगा और किस सहज भाव से वह उसकी ठगाई में आते रहे, इसका वृतान्त बहुत ही मनोहर है. पहले-पहल तो मुझे सुनकर अचरज हुआ कि मानव प्रकृति के भेदों को इतनी सूक्ष्मता से जानने और दिखाने वाला व्यक्ति ऐसा अजब धोखा कैसे खा गया. लेकिन मैंने देखा कि जो उनके भीतर कोमल है, वही कमजोर है. उसे छूकर आसानी से उन्हें ऐंठा जा सकता है. उनकी उसी रग को पकड़कर उस चालाक युवक ने प्रेमचन्द जी को ऐसा मूँड़ा कि कहने की बात नहीं. सीधे-सादे रहने वाले प्रेमचन्द जी के पैसे के बल पर ऐन उन्हीं की आँखों के नीचे उस जवान ने ऐसे-ऐसे ऐश किये कि प्रेमचन्द आँख खुलने पर स्वयं विश्वास न कर सकते थे. प्रेमचन्द जी से उसने अपना विवाह तक करवाया, बहू के लिए जेवर बनवाये, और प्रेमचन्द जी सीधे तौर पर सबकुछ करते गये. कहते थे- भई जैनेन्द्र, सर्राफ को अभी पैसे देने बाकी हैं. उसने जो सोने की चूड़ियाँ बहू के लिए दिलाई थीं, उनका पता तो मेरी धर्मपत्नी को भी नहीं है. अब पता देकर अपनी शामत ही बुलाना है. पर देखो न जैनेन्द्र, यह सब फरेब था. वह लड़का ठग निकला. अब ऊपर ही ऊपर जो दो-एक कहानियों के रुपये पाता हूँ उससे सर्राफ का देना चुकता करता जाता हूँ. उस चतुर युवक ने प्रेमचन्द जी की मनुष्यता को ऐसे झाँसे में पकड़ा और उसे ऐसा निचोड़ा कि और कोई होता तो उसका हृदय हमेशा के लिए हीन और कठिन और छूछा पड़ गया होगा. पर प्रेमचन्द का हृदय इस धोखे के बाद भी मानो और धोखा खाने की क्षमता रखता था. उस हृदय में मानवता के लिए सहज विश्वास की इतनी अधिक मात्रा थी.’’

जैनेन्द्र के प्रेमचन्द पर लिखे गए संस्मरण के इस अंश पर आकर ठिठक गया और कई दिनों तक सोचता रहा कि वह ठग युवक कौन हो सकता है, जिसको प्रेमचन्द ने अपने हृदय में स्थान दिया और उसके लिए इतना अधिक खर्च किया. इतनी आत्मीयता उनकी किस युवक से थी? वह कौन था? ठग, धोखेबाज, नौटंकीबाज- किन्तु इतना प्यारा और प्रतिभाशाली- कौन था वह युवक?

कई दिनों तक यह प्रश्न अन्दर उठता रहा और बेचैन रहा. फिर अचानक एक नाम याद आया- भुवनेश्वर प्रसाद! कोई दूसरा नाम दिमाग में नहीं आया, क्यों?

इसका कारण है। प्रेमचन्द नए प्रतिभाशाली रचनाकारों की हर तरह से मदद करते थे और उनकी रचनात्मकता को प्रोत्साहित करते थे। उस दौर के अनेक युवा लेखक ‘हंस’ और ‘जागरण’ में पहली बार प्रकाशित हुए। प्रेमचन्द का अन्तरंग संस्मरण लिखते हुए शिवपूजन सहाय ने उनके उदार और तरल व्यक्तित्व का जो रेखाचित्र खींचा है, उसके कुछ वाक्यों के परायण से ही यह बात उजागर हो उठती है : ‘‘किसी के अपराध पर भी वे क्रोध करने के बदले हंसते ही थे। बहुत दिनों तक उनके सम्पर्क का सौभाग्य रहा, अनेक प्रसंगों पर उनकी उदारता और सहृदयता देखने के सुयोग मिले, पर कभी उन्हें क्रोध करते देखा ही नहीं। साधारण बोलचाल में भी वे सूक्तियाँ कह जाते थे। एक दफ़ा कहा था — ‘गुस्सा पी जाने पर आबे-हयात (अमृत) बन जाता है।’’

ऐसे थे प्रेमचन्द ! यहाँ तो ऐसे लेखकों की भरमार है जो एक भी अप्रीतिकर लगने वाली बात पर बातचीत बन्द कर देते हैं या गुस्से में आग-बबूला होकर खड्गहस्त हो जाते हैं।

अपने अराजक व्यक्तित्व के कारण भुवनेश्वर को उनके समकालीन लेखकों ने बहिष्कार कर दिया था, पर कुछ सदाशयी लेखक थे, जिनका स्नेह उनको मिला था। ऐसे लेखकों में प्रेमचन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने भुवनेश्वर को सबसे पहले ‘हंस’ में स्थान दिया और उनकी पुस्तक की छपने के साथ ही लम्बी समीक्षा लिखी, जिसके बल पर भुवनेश्वर साहित्य में अपनी रचनाशीलता को लगातार जारी रख सके।

भुवनेश्वर का पहला एकांकी ‘श्यामा : एक वैवाहिक विडम्बना’ ‘हंस’ के दिसम्बर, 1933 में प्रेमचन्द ने प्रकाशित किया। मार्च, 1934 ई. के ‘हंस’ में उनका दूसरा एकांकी ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ और इसी वर्ष उनका ‘शैतान’ नामक एकांकी। इन तीनों एकांकियों के प्रेमचन्द द्वारा (‘हंस’ में) प्रकाशित होते ही भुवनेश्वर को साहित्य जगत में मान्यता मिल गई। उन्होंने तीन अन्य ‘प्रतिभा का विवाह’, ‘रोमांस-रोमांच’ एवं ‘लाटरी’ नामक एकांकियों को मिलाकर अपना ‘कारवाँ’ नामक एकांकी-संग्रह 1935 ई. में प्रकाशित किया। इसकी भूमिका उन्होंने प्रयाग-प्रवास में 30 मार्च, 1935 ई० को लिखी और पुस्तक अप्रैल महीने में छपी, तो उन्होंने काशी जाकर उसे प्रेमचन्द को दिया। प्रेमचन्द ने उसकी लम्बी समीक्षा लिखी जो मई, 1935 ई. के ‘हंस’ में प्रकाशित हुई। भुवनेश्वर ने ‘कारवाँ’ की भूमिका और ‘उपसंहार’ बिल्कुल नए अंदाज में लिखी है, जिसमें उनकी अद्भुत मान्यताएँ सूक्तियों के रूप में उजागर हुई हैं। नमूने के तौर पर उसकी भूमिका से कुछ सूक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ :

1. ‘आत्मज्ञान’ मानव-जीवन की सबसे बड़ी समस्या है और यह तभी संभव है जब वह संसार से ऊपर उठ जाय, क्योंकि मानव-जीवन के चारों ओर सभी वस्तुएँ एक समस्या हैं और सीमाएँ. आदिम मनुष्य ने जब एक शब्द गढ़ा, उसने सोचा, मैंने एक समस्या हल कर दी, पर वास्तव में उसने एक समस्या का सृजन किया।

2. नाटककार का पूर्व विकास तब होता है, जब वह स्वयं अपने असत्य पर विश्वास करने लगता है।

3. विचार-स्वातंन्त्र्य का अर्थ है विचारों का अभाव, जो वर्तमान युग में कोई ट्रेजडी नहीं है।

4. प्रायः समस्त नाटककार जो पेटीकोट की शरण लेते हैं, दो पुरुषों को एक स्त्री के लिए आमने-सामने खड़ा कर संघर्ष उत्पन्न करते हैं। मैंने भी यही किया है, केवल बुलडॉग कुत्ते के मुख से हड्डी निकाल कर अलग फेंक दी है।

5. जिस भाँति जीवन असार और निष्फल है, उसी प्रकार कला भी। जीवन एक लजीली मुसकान है, कला एक शुष्क और कठोर हास्य।

कला अपनी चरम सीमा पर पहुँचकर अश्लील हो जाती है. कला में अश्लीलता के अर्थ हैं नग्न पवित्रता.

‘कारवाँ’ की भूमिका ‘प्रवेश’ शीर्षक से लिखी गयी है, अंत में ‘पुनश्च’ लिखकर भुवनेश्वर ने लिखा- ‘‘मैं अपनी इस प्रथम छपी हुई कृति के साथ अमर कथाकार श्री प्रेमचन्द का नाम जोड़कर अपने-आपको उनका आभारी बनाता हूँ.’’

भुवनेश्वर की ‘कारवाँ’ उनकी रचनाशीलता के प्रारम्भिक चरण में ही प्रकाशित उनका इकलौता एकांकी-संग्रह है. उनकी कोई दूसरी पुस्तक उनके जीवन-काल में क्या, उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं छपी, जबकि उन्होंने लगातार एकांकी, कहानी, कविता, लेख आदि लिखे, जो पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे रह गये. उनकी साहित्यिक दुनिया में चर्चा होती रही, नए एकांकी के प्रारम्भकर्ता के रूप में हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका स्थान भी निश्चित हो गया, अनेक एकांकी-संकलनों में उनके एकांकी संकलित हुए, विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पाठ्य-पुस्तकों में उनके कई एकांकी पढ़ाए जाते हैं. तात्पर्य यह कि अपनी अपूर्व रचनाशीलता के बलबूते भुवनेश्वर आज भी जीवंत हैं और अपनी ओर सतत ध्यान खींचते हैं.

भुवनेश्वर का जन्म 1910 ई. में शाहजहाँपुर में हुआ था. वहीं से उन्होंने पढ़ाई की थी. विद्यार्थी जीवन में उन्होंने अंग्रेजी भाषा में दक्षता प्राप्त कर ली थी और उर्दू-हिन्दी में लिखने का अभ्यास किया था. जॉर्ज बर्नाड शॉ के नाटक उनके घोंटे हुए थे. उन्होंने अपने एकांकी ‘शैतान’ के एक दृश्य में शॉ की छाया को स्वीकार भी किया है. कुछ समय तक वे फ्रायड और डी.एच. लारेन्स से भी प्रभावित रहे. इनके अलावा उनपर सबसे अधिक प्रभाव आस्कर वाइल्ड का था. 1933 में वे शाहजहाँपुर से इलाहाबाद आये और उनकी घनिष्ठ मित्रता उर्दू के प्रसिद्ध नवयुवक लेखक और बैरिस्टर सज्जाद जहीर से हुई. नवम्बर, 1932 ई. में सज्जाद जहीर ने उर्दू में ‘अंगारे’ नामक एक संयुक्त संकलन निकाला था, जिसमें उनके अलावा रशीदजहाँ, अहमद अली और महमूद जफर की चार कहानियाँ एवं एक एकांकी संकलित किया गया था. ‘अंगारे’ की कहानियों ने मुसलिम समाज की जड़ता, अंधविश्वास, सड़न और बदबू को उद्घाटित करते हुए उर्दू साहित्य में एक नई कलादृष्टि को जन्म दिया और यही संकलन उर्दू के तरक्की पसंद लेखकों की प्रेरणा का प्रस्थान-बिन्दु माना जाता है. इस संकलन पर बेहद वाद-विवाद हुए और संयुक्त प्रांत की सरकार ने मार्च, 1933 ई. में उसपर प्रतिबन्ध लगा दिया. उस समय सज्जाद जहीर इलाहाबाद के 38 कैनिंग रोड पर रहते थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रघुपति सहाय फिराक और अहमद अली प्रायः उनके घर बैठकी करते. भुवनेश्वर भी इसमें शामिल होते. इलाहाबाद में ही उनके दो मित्र और बने- शिवदान सिंह चौहान एवं शमशेर बहादुर सिंह. ये दोनों तब एम.ए. में पढ़ते थे. 12 फरवरी, 1936 ई. को इलाहाबाद के ‘हिन्दुस्तानी एकेडेमी’ में भाग लेने प्रेमचन्द आये थे और 14 फरवरी को सज्जाद जहीर के घर पर एक बैठक हुई जिसमें प्रगतिशील लेखक संघ स्थापित करने का निर्णय लिया गया. यह ‘अंगारे’ के लेखकों की मूल संकल्पना थी, जिसके प्रेरक प्रेमचन्द थे. एक-डेढ़ महीने में ही इलाहाबाद में हिन्दी-उर्दू लेखकों का यह सक्रिय मंच बन गया और देखते ही देखते कई शहरों में इसकी शाखाएँ खुल गईं. 10 अप्रैल को लखनऊ में इसका भव्य समारोह हुआ. भुवनेश्वर युवा लेखक के रूप में इसमें शामिल थे. उस समय भुवनेश्वर से जो भी मिला, वह उनकी प्रतिभा से कुछ प्रभावित और ज्यादा आतंकित हुआ. प्रगतिशील लेखक संघ के समारोह के बाद महीनों तक वे लखनऊ में रहे. रामविलास शर्मा से उनकी दोस्ती इलाहाबाद में हो चुकी थी. तब रामविलास जी रिसर्च कर रहे थे और अकेले रहते थे. भुवनेश्वर प्रसाद उनसे मिलने जाया करते.

रामविलास शर्मा से भुवनेश्वर की तीखी बहसें होतीं. अपने निरंकुश स्वभाव के बावजूद भुवनेश्वर में कुछ बातें ऐसी थीं कि रामविलासजी के मन में उनके प्रति सहृदयता थी. उस समय यानी 1936 ई. के दिनों की याद करते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है : ‘‘प्रेमचन्द, फिराक और सज्जाद जहीर के इर्द-गिर्द चक्कर काटने वालों में एक नौजवान लेखक थे भुवनेश्वर. कद में वह प्रेमचन्द से भी छोटे थे. अंग्रेजी और उर्दू अच्छी जानते थे, अपनी ‘विट’ से यूनिवर्सिटी के छात्रों और प्राध्यापकों को प्रभावित करने में वह अद्वितीय थे. उन्होंने कुछ दिन तक लोगों पर यह रोब गालिब किया था कि वह आई.सी.एस. परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके हैं, पर साहित्य-सेवा के लिए नौकरी नहीं की. दोस्तों से किताबें माँगकर ले जाते, किसी सेकेंड हैंड किताबों की दूकान में या कबाड़ी के यहाँ बेच आते. जान-पहचान वालों से अठन्नी, चवन्नी, रुपया जो मिल जाय, माँगने में उन्हें शर्म न थी. उन्हें कुछ अश्लील लोकगीत याद थे, फुर्सत में कभी-कभी मेरे कमरे में चटाई पर लेटे हुए पैरों में घुँघरू बांधकर ताल देते हुए ये गीत मुझे और नरोत्तम नागर को सुनाते थे. मैं उनसे कहता- ‘‘तुम न्यूरौटिक हो, प्रोग्रेसिव राइटर से तुम्हारा क्या सम्बन्ध?’’ भुवनेश्वर जवाब देते- ‘‘ए प्रोग्रेसिव इज ए न्यूरौटिक शौट थ्रू विद होप.’’

ऐसा था भुवनेश्वर का व्यक्तित्व! अनैतिकता का उन्होंने अपना ऐसा चरित्र बनाया था कि लोग उसे पचा नहीं पाते थे. वे बदनाम बनकर जीना चाहते थे. ठग, धोखेबाज, नशेबाज भुवनेश्वर ने सबसे पूज्य स्थान प्रेमचन्द को दिया था, पर उनसे भी छल करना उन्होंने अपना कर्तव्य समझा. अंग्रेजी साहित्य में जो स्थान आस्कर वाइल्ड का है, वे वही स्थान हिन्दी साहित्य में अपना बनाना चाहते थे. अपनी अद्वितीय साहित्यिक प्रतिभा के सहारे उन्होंने प्रेमचन्द जैसे मानव-आत्मा के शिल्पी कथाकार को अपना मुरीद बना लिया था, जिन्होंने ‘कारवाँ’ की समीक्षा के प्रारम्भ में लिखा था- ‘‘कारवाँ’ हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नई प्रगति का प्रवर्तक है, जिसमें शॉ और आस्कर वाइल्ड का सुन्दर समन्वय हुआ है. अभी तक हमारा हिन्दी ड्रामा घटनाओं और चरित्रों और कथाओं के आधार पर ही रखा गया है. कुछ समस्या नाटक भी लिखे गए हैं. जिनमें रूढ़ियों का या नए-पुराने विचारों का खाका खींचा गया है, पर सब कुछ स्थूल, घटनात्मक दृष्टि से हुआ है, जीवन और उसकी भिन्न-भिन्न समस्याओं पर सूक्ष्म, पैनी, तात्त्विक, बौद्धिक दृष्टि डालने की चेष्टा नहीं की गयी जो नए ड्रामा का आधार है.’’

प्रेमचन्द को भुवनेश्वर ने कितना प्रभावित किया था इसका प्रमाण हैं उपर्युक्त पंक्तियाँ. भुवनेश्वर एक साथ शॉ और वाइल्ड होना चाहते थे. शॉ होना प्रेमचन्द के लिए अच्छी बात थी, किन्तु आस्कर वाइल्ड की विशेषताएँ वे छोड़ कर आगे बढ़ें, ऐसा प्रेमचन्द चाहते थे. उन्होंने निष्कर्ष देते हुए लिखा- ‘‘भुवनेश्वर प्रसाद जी में प्रतिभा है, गहराई है, दर्द है, पते की बात कहने की शक्ति है, मर्म को हिला देने की वाक्चातुरी है. काश, वह इसका उपयोग ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ जैसी रचनाओं में करते. आस्कर वाइल्ड के गुणों को लेकर क्या वह उसके दुर्गुणों को नहीं छोड़ सकते.’’

प्रेमचन्द ने ‘कारवाँ’ की समीक्षा जितने जोरदार ढंग से लिखी है, उतनी किसी दूसरी पुस्तक की नहीं. जितनी भुवनेश्वर की प्रशंसा की है, किसी लेखक की नहीं. वे भुवनेश्वर को कितना मानते थे, स्नेह करते थे, उनके शब्दों में छलछला रहा है. बस वे चाहते थे कि वाइल्ड के दुर्गुणों को छोड़कर वे आगे बढ़ें. लेकिन ऐसा हो नहीं सका.

प्रेमचंद ने बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में भुवनेश्वर की रचनात्मक प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए लिखा- ‘‘मेरी समझ में भुवनेश्वर सबसे अधिक प्रतिभा सम्पन्न हैं, शर्त एक ही है कि वह अपनी प्रतिभा को आलस्य, खयाली पुलाव पकाने, सिगरेट फूँकने और इश्कबाजी के चक्कर में बरबाद न कर दे. उसके पास अभिव्यक्ति की असाधारण शक्ति है, आस्कर वाइल्ड और शॉ के रंग में.’’

भुवनेश्वर मानव स्वभाव की पतनशील प्रवृत्तियों को अपने लेखन से ज्यादा अपने जीवन में जगह दे चुके थे और उसी दिशा में आगे बढ़ रहे थे. वे रिश्ते-नाते, घर-परिवार सभी को त्यागकर साहित्य-सेवा में आये और अद्भुत, अश्रुतपूर्व, मौलिक उद्भावनाओं से परिपूर्ण अनेक रचनाओं की सृष्टि की, जिसकी चमक आज भी फीकी नहीं हुई है.

‘कारवाँ’ में संकलित छह एकांकियों के अलावा उनके महत्त्वपूर्ण एकांकी निम्नलिखित हैं- 1936 ई. में ‘मृत्यु’, ‘हम अकेले नहीं’, ‘सवा आठ बजे’, 1938 के ‘हंस’ के एकांकी नाटक विशेषांक में प्रकाशित ‘स्ट्राइक’, जिसका जिक्र रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में है. इसी वर्ष ‘हंस’ में ही ‘ऊसर’ एवं ‘रूपाभ’ के पाँचवें अंक (अक्टूबर, 1938 ई.) में ‘आदमखोर’ नामक नाटक छपा. 1940 ई. में गोगोल के नाटक का एकांकीकरण ‘इन्सपेक्टर जनरल’ प्रकाशित हुआ.1941 ई. में ‘विश्ववाणी’ पत्रिका में ‘रोशनी और आग’ नामक एकांकी छपा. 1942 ई. में प्रतीकवादी शैली में उनका प्रथम एकांकी ‘कठपुतलियाँ’ का प्रकाशन. 1945 ई. में ‘फोटोग्राफर के सामने’ और उनका सर्वाधिक चर्चित एकांकी ‘ताम्बे के कीड़े’ 1946 ई. में छपा. 1948 ई. ‘इतिहास की केंचुल’, 1949 ई. में ‘आजादी की नींव’, ‘जेरुसेलम’, ‘सिकन्दर’, 1950 ई. में ‘अकबर’, ‘चंगेज खाँ’ और अन्तिम एकांकी ‘सींकों की गाड़ी’ का प्रकाशन हुआ. ये भुवनेश्वर के अमर एकांकी हैं, जो विभिन्न पाठ्य-पुस्तकों में संकलित होते रहे हैं और किसिम-किसिम के लिखे हिन्दी साहित्य के इतिहासों में एकांकी विधा के प्रसंग में उल्लेख किये जाते रहे हैं. सभी इतिहासकारों ने एक स्वर में यह स्वीकार किया कि नए ढंग के एकांकी नाटक लिखने की शुरुआत भुवनेश्वर ने ही की. यह ध्यान में रखने की बात है कि हिन्दी में पहला एकांकी-संग्रह जयशंकर प्रसाद का 1929 में प्रकाशित ‘एक घूंट’ है एवं दूसरा 1935 ई. में प्रकाशित ‘कारवाँ’. इस तरह यह निर्विवाद रूप से हिन्दी साहित्य के इतिहास में सर्वसम्मत रूप में दर्ज कर लिया गया कि भुवनेश्वर का एकांकी-साहित्य में अप्रतिम योगदान है.

1936 ई. में भुवनेश्वर लखनऊ में रह रहे थे. वहीं उनकी निराला से अक्सर भेंट हो जाया करती. उसी समय निराला ने अपनी कमर से ऊपर तक नग्न तस्वीर खिंचवाई. यह तस्वीर उनके लम्बे निबन्ध ‘मेरे गीत और कला’, (जो ‘माधुरी’ के तीन अंकों में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था.) की पहली किस्त के साथ ‘माधुरी’ के मार्च, 1936 अंक में प्रकाशित हुई. भुवनेश्वर ने लखनऊ के कैसरबाग में स्थित पुस्तकालय में बैठकर निराला का यह निबन्ध ध्यान से पढ़ा और उनके इस चित्र ने उनको काफी प्रभावित किया. निराला की अर्धनग्न यह तस्वीर भुवनेश्वर को बहुत दिलचस्प लगी. लगा कि उनके ही जैसा अजब, गजब और बेबाक एक तेजस्वी व्यक्तित्व है हिन्दी में, जो शालीनता, सज्जनता, पूर्वाग्रह, नैतिकता की दीवार तोड़कर, अपने ओढ़े हुए सभी आवरण हटाकर, साहित्य में संघर्ष कर रहा है. अक्टूबर महीने के प्रारम्भ में ही भुवनेश्वर ‘माधुरी’ के दफ्तर गये और उसके सम्पादक रूपनारायण पाण्डेय से कहा कि वे निराला पर एक लेख लिखना चाहते हैं, पर पारिश्रमिक तुरंत चाहिए. रूपनारायण पाण्डेय ने इसे स्वीकार कर लिया. भुवनेश्वर ने ‘माधुरी’ के दफ्तर में बैठकर निराला पर एक अद्भुत लेख लिखा, जिसके प्रारम्भ में उन्होंने निराला से बातचीत का एक टुकड़ा रखा, फिर निराला पर अपनी विलक्षण राय रखी- ‘‘निराला बंगाली संस्कृति का कवि है. वह संस्कृति जो ‘टैगोर की द्रुत मैनरिज्म’ से पैदा हुई है, जिसके अति विश्लेषण में कबीर, ब्लेक सभी आते हैं. पंत को उसने बार-बार टैगोर का प्रोटेजे बताया है, पर सत्य यह है कि निराला टैगोर को पचा न सका. वह मैनरिज्म का कवि है, वह उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का कवि है, वह अपने सर्वोत्तम रूप में भी एक चतुर शिल्पी है. शायद महान भी, पर महान कवि नहीं. निराला में टैगोर की शक्ति नहीं, ‘जुही की कली’, ‘तुम और मैं’ वगैरह में अर्थ की स्थूलता है. निराला मेहनती है, आत्माभिमानी है, विशाल हृदय है, उसकी कविता में साधना है, अध्यवसाय है, कारीगरी है, कोमलता है, पर वही नहीं है जिसके बगैर वह न ब्राउनिंग है, न बर्न्स, केवल निराला है. वह बना सकता है, पर निर्माण नहीं कर सकता. वह जीवन को पचा नहीं सकता. कथाकार की हैसियत से निराला गम्भीर विवेचन का पात्र नहीं है.’’

नवम्बर, 1936 की ‘माधुरी’ में भुवनेश्वर का यह लेख छपा. इस लेख की हिन्दी के साहित्यकारों के बीच काफी चर्चा हुई. इस तरह की भाषा में हिन्दी में लिखी यह पहली आलोचना थी. तब निराला इलाहाबाद के लीडर प्रेस में वाचस्पति पाठक के साथ रह रहे थे. ‘राम की शक्तिपूजा’ उसी समय साप्ताहिक ‘भारत’ में प्रकाशित हुई थी. भुवनेश्वर के इस लेख से वे बहुत दुखी और क्षुब्ध हुए. निराला को लगा कि यह उनकी रचनाशीलता पर भीषण तौर पर किया गया हमला है. 7 नवम्बर को निराला ने रामविलास शर्मा को लिखे पत्र में पूछा- ‘माधुरी’ में मुझपर छपा वह लेख भुवनेश्वर वाला तो देखा होगा? फिर 8 नवम्बर को उन्होंने रामविलास शर्मा को सूचित किया कि माधुरी का उत्तर कल भेज रहा हूँ. साथ दो और आदमियों के संस्मरण हैं भुवनेश्वर पर. फिर 9 नवम्बर को पत्र में लिखा- ‘‘श्री भुवनेश्वर प्रसाद को उत्तर भेज चुका हूँ. मैंने भूमिका भर लिखी है, मुझे ही लिखना था, क्योंकि बातचीत उन्होंने मेरी लिखी है, उनका परिचय मेरे मित्र पं. वाचस्पति पाठक और बलभद्र प्रसाद मिश्र एम. ए. (आपकी तरह प्रयाग विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कालर) ने लिखा है, दोनों पत्र भेज दिये हैं जो बड़े चुभते हुए हैं. वहाँ छपते-छपते पढ़ लीजियेगा. उनके लिये बड़े तिक्त साबित होंगे.’’ पत्र के अंत में उन्होंने रामविलास शर्मा को सुझाव दिया- ‘‘आप साहित्यिक तरीके से एक लेख लिखकर भुवनेश्वर प्रसाद से अंगरेजी और फ्रेंच का ज्ञान थोड़ा-बहुत प्राप्त करने की कोशिश करें तो क्या बुरा है : Morbidity तो वे आपको बहुत दिनों तक बतायेंगे, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ. उनके उत्तर में मैंने आपका थोड़ा-सा उल्लेख किया है कि ‘‘स्कॉलर कवि मित्र श्री रामविलास शर्मा के यहाँ कला की रूपरेखा लिखी.’’

भुवनेश्वर को साहित्य से खारिज कर देने वाला निराला का यह उग्र लेख वाचस्पति पाठक एवं बलभद्र प्रसाद मिश्र की टिप्पणियों के साथ ‘माधुरी’ के दिसम्बर, 1936 अंक में छपा, जिसमें उनके फरेबी स्वभाव और मनगढंत हाँकने वाला सिद्ध किया. अब तक भुवनेश्वर अपनी प्रतिभा के दम पर अपने आपको प्रगतिशील, नए साहित्य-विवेक और विद्रोही चेतना से सम्पन्न ऊँचाई पर महसूस करते रहे थे, पर इस लेख ने पहली बार उन्हें धराशायी कर दिया था. वे निरीह और हताश नजर आये. उन्होंने निराला को उत्तर दिया, जो जनवरी, 1937 की ‘माधुरी’ में छपा- ‘‘अगर निराला जी का Vindication है तो कुरुचिपूर्ण, अगर Revenge तो बहुत सख्त. मैं फिर कहता हूँ कि इस प्रसंग में कमोबेश मैंने उनके शब्द ही दोहराये हैं और बर्न्स वाली बात उस वक्त मुत्तलक नहीं हुई थी. रहा एम.ए. और आई.सी.एस. का फरेब, मैं अपराधी प्लीड करता हूँ, कर चुका हूँ कई बार. परिस्थितियाँ बलवती मनुष्य से इससे भी जघन्य काम करवाती हैं, मुझसे करवा चुकी हैं. इन्हें संग्राम करते हुए एक कलाकार पर दाग लगाने के लिए प्रयोग करना हलकापन है. खैर! अगर इस बात से जन्म भर के लिए मैं ज्ंइवव किया जा सकता हूँ मेरी बला इसकी परवा करे.’’ अंत में उन्होंने लिखा कि ‘‘अब अपनी ओर से इसे (यानी इस प्रसंग को) समाप्त ही करता हूँ. अगर मैं वाकई मर गया हूँ तो गालिब का एक शेर निराला जी, मिश्र जी, पाठक जी और पसेपर्दा और सज्जन सुन लें-

गर नहीं है मेरे मरने से तसल्ली न सही

इम्तहाँ और भी बाकी हों तो यह भी न सही ।’’

रामविलास शर्मा ने निराला की जीवनी लिखते हुए इस प्रसंग का विस्तार से उल्लेख किया है। मैं इस प्रसंग को जब भी पढ़ता हूँ, मुझे फणीश्वरनाथ रेणु की ‘अगिनखोर’ कहानी की याद आती है, जिसे उन्होंने पटना के दो विद्रोही युवा लेखकों को एक चरित्र में ढालकर ‘अगिनखोरजी’ बनाकर कुछ वैसा ही प्रसंग खड़ा किया था। 1972 ई. में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में जब वह कहानी प्रकाशित हुई थी तब ये दोनों युवा लेखकों (आलोक धन्वा और जुगनू शारदेय) ने उनसे पटना कॉफ़ी हाउस में तीव्र बहस की थी कि उनके चरित्र को आधार बनाकर उन्होंने क्यों वह कहानी लिखी?

रामविलास शर्मा ने इस प्रसंग के अन्त में लिखा है —  ‘‘भुवनेश्वर कलाकार थे। घिर जाने पर साफ़गोई से काम लेते थे। अपनी पूँजी बहुत कम थी। दूसरों से उधार लिए हुए माल पर अपनी विट से पालिश ही कर सकते थे। पर बहुत से आई०सी०एस० अफ़सरों, एम०ए० पास होनहारों और प्रोफ़ेसरों से वह ज़्यादा क़ाबिल थे। यही सबब है कि इस वर्ग के लोगों को इतने दिन तक वह चकमा देते रहे, भेद खुल जाने पर भी उनकी प्रतिभा की दाद देनेवाले उसमें दस-पाँच फिर भी बचे रहे। निराला विचलित हुए, अपने साथ दो अन्य व्यक्तियों के लेख लेकर उत्तर देने आए, यह भुवनेश्वर की सफलता थी।’’

ख़ानाबदोश अर्थात् बेघरबार, आवारा, चकमा देने वाला, छली, ठग, जालसाज भुवनेश्वर की अजीबोगरीब दास्तान चलती रही। वे इलाहाबाद, लखनऊ और काशी की गलियों में घूमते-फिरते कई लेखकों को अनायास दिखलाई पड़ते और फिर ओझल हो जाते। भोजन-पानी का इन्तज़ाम हुआ, फिर किसी पुस्तकालय में पढ़ते नज़र आते। वहीं बैठकर कुछ लिखते। कभी पत्र-पत्रिकाओं के दफ़्तर में। उनकी रचनाएँ यदा-कदा छपती रहतीं। भुवनेश्वर में इतनी प्रतिभा थी कि कहीं नौकरी कर सकते थे, घर बसा सकते थे, व्यवस्थित जीवन जीते हुए विपुल साहित्य रच सकते थे। किन्तु उन्होंने अपने जीवन को स्वेच्छाचारी बनाया था। उनकी मृत्यु के बाद उनका अन्तिम संस्कार करने वाला न कोई था और न उनकी रचनाओं को सहेजने वाला। उनका जीवन जैसा बिखरा था, उनकी रचनाएँ भी बिखरी रह गई। 2010 ई. में उनके शताब्दी वर्ष में हिन्दी रंगमंच का ध्यान फिर भुवनेश्वर पर गया। मीराकान्त ने ‘भुवनेश्वर-दर-भुवनेश्वर’ नामक नाटक लिखा, जो भुवनेश्वर के जीवन एवं एकांकियों से टुकड़े लेकर अद्भुत रूप में संयोजित है। इसे सुशील कुमार गौतम ने अपने निर्देशन में 17 अक्टूबर, 2010 को कनक थियेटर ग्रुप के द्वारा लिटिल थियेटर ग्रुप ऑडिटोरियम में प्रस्तुत किया। इसके साथ ‘कंजूस’ नामक एकांकी भी प्रस्तुत किया गया। ‘भुवनेश्वर-दर-भुवनेश्वर’ में यह दिखलाया गया कि भुवनेश्वरवाद क्या है और किस तरह बदनाम भुवनेश्वर का जन्म हुआ, जिसने स्वेच्छा से बदनामी की चादर ओढ़कर भी रचनाशीलता की बुलन्दियों को छुआ, वैसा लेखक उग्र थे, निराला थे और फिर स्वयं भुवनेश्वर।

रामविलास शर्मा जिस तरह भुवनेश्वर की प्रतिभा का सम्मान करते थे, उससे भी बढ़कर उनकी कदर करने वाले शमशेर बहादुर सिंह थे। 1958 ई. के जनवरी में जब भुवनेश्वर की मृत्यु की खबर आई तो वह शमशेर को झकझोर गई और उन्होंने भुवनेश्वर पर एक कविता लिखी जो हरिशंकर परसाई के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका ‘वसुधा’ में छपी। बाद में उस कविता को शमशेर ने संशोधित-परिवर्तित कर ‘कुछ और कविताएँ’ (1961) में शामिल किया। किन्तु, रामविलास शर्मा को उसका पहला प्रारूप ही पसन्द था. जब उन्होंने शमशेर की कविताओं पर ‘धर्मयुग’ (27 जून, 1965 ई.) में ‘शमशेर बहादुर सिंह : गहरे बीहड़ संस्कारों वाला काव्य-व्यक्तित्व’ नामक लेख लिखा, तो ‘वसुधा’ में प्रकाशित कविता के पाठ को ही ज्यादा सही बताया। भुवनेश्वर पर लिखी यह शमशेर की एक अमर कविता है, जो उनके जीवन और साहित्य को समझने का एक नया नज़रिया देती है। यह पूरी कविता इस तरह है :

"आदमी रोटी पर ही ज़िन्दा नहीं

तुमसे बढ़कर और किसने

हर सच्चाई को अपनी कड़ुई मुस्कराहट भरी भूख

के अन्दर

जाना होगा ?

पता नहीं तुम कहाँ किस सदाव्रत का हिसाब

किस लोक में

लिख रहे हो

बग़ैर खाए-पिए ...

सिर्फ़ अमरूदों की सी गोरी सुनहरी धूप अंगों की

फ्रेम से उभरती हो कमरे के एकान्त में,

भुवनेश्वर,

जहाँ तुम बुझी हुई आँखों के अन्दर

एज़रा पाउण्ड के टुकड़े,

इलियट के बिब्लिकम पीरियड्स

किसी ड्रामाई ख़ाब में,

पॉल क्ली के घरौंदों में, एक फ्रीवर्स की तरह तोड़ देते हो

ख़ाब में ही हंसते हुए !

आह ! बदनसीब शायर, नाटककार, फ़कीरों में

नव्वाब, गिरहकट

आज़ाद अघोरी साधक !

होठ बीड़ी-सिगरेट की नीलिमा से (चूमे हुए किसी रूप के)

किसी एक काफ़िर शाम में,

किसी क्रास के नीचे

वो दिन, वो दिन ...

धुंधली छतों में बिखर गए हैं

शराब के, शबाब के, दोस्त एहबाब के वो — 

वो ‘विटी’ गुनाह-भरे

ख़ूबसूरत बदमाश दिन

चले गए हैं...

हाँ, तपती लहरों में छोड़ गए हैं वो

संगम गोमती दशाश्वमेध के

सैलानियों की बीच

न जाने क्या

एक टूटी हुई नाव की तरह,

जो डूबती भी नहीं, जो सामने हो जैसे,

और कहीं भी नहीं।"

शमशेर ने भुवनेश्वर की जीवन्त और यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत की है, साथ ही उनके साथ के अपने लगाव को मार्मिकता से उजागर किया है। भुवनेश्वर अपने अन्तिम दिनों में ज़्यादातर बनारस में विदेशी सैलानियों के बीच रहते थे। यदा-कदा जब कभी इलाहाबाद आते तो शमशेर के साथ ही रहते। उनकी लिखी हुई अनेक रचनाएँ शमशेर के यहाँ अप्रकाशित पड़ी रहतीं। 1950 के बाद अपनी रचनाओं के प्रकाशन की उनको चिन्ता ही नहीं रह गई थी। शमशेर ने उनकी कुछ रचनाओं को तब इलाहाबाद की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाया था। उन्होंने अंगरेज़ी में भी काफ़ी कुछ लिखा था। शमशेर ने ‘निष्कर्ष’ के तीसरे एवं चौथे संयुक्त संकलन में, जिसके सम्पादक धर्मवीर भारती और लक्ष्मीकान्त वर्मा थे और जो जनवरी, 1957 में प्रकाशित हुआ था, भुवनेश्वर की एक अंगरेज़ी कविता का अनुवाद प्रकाशित करवाया था, जो उनकी अन्तिम प्रकाशित रचना है। कविता का शीर्षक है : ‘बौछार पे बौछार’

बौछार पे बौछार

सनसनाते हुए सीसे की बारिश का ऐसा जोश

गुलाबों के तख़्ते के तख़्ते बिछ गए क़दमों में

कायदे से अपने रंग फैलाए मेह से कुम्हलाए हुए

आग आवश्यकता से अधिक पीड़ा का बदला चुकाने को

पीड़ा निर्बीज करने वाली उस आग से भी अधिक

दल के दल बादल

कि हौले-हौले कानाफुसियाँ हैं अफ़वाहों की

जो अपशकुन बन कर फैली हैं

किसी...दीर्घ आगत भयानक यातना की

फौजी धावा हो जैसे, ऐसा अन्धड़

बादलों के परे के परे बुहार कर एक ओर कर रहा

ऐसी-ऐसी शक़्लों में छोड़ते हुए उनको

कि भुलाए न भूलें

आदमी पर आदमी का ताँता

और हरेक के पास

बड़े ही मार्मिक जतन अलगाई हुई अपनी

एक अलग कहानी

उसी व्यक्ति को लेकर

जो सदा वही एक कुर्ता पहने

उसी एक दिशा में चला जाता रहा

रहम पर रहम की मार

मरदूद करार देने उसी व्यक्ति को

और उसके साथ उसे मठ के पुजारी को भी

जो शपथ ले-ले के जीतों और मुर्दों की

कम से आधे पखवारे में एक बार तो

झूठ बोलता ही है।