बंद कमरा / भाग 1 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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कटे हुए पंखों वाली एक परी हो तुम।" उसने लिखा था। हर रोज ऐसी ही कुछ-न-कुछ कविता लिखकर वह भेजता था, ठीक उसी तरह जैसे कोई अठारह-उन्नीस साल का एक नवयुवक अपनी स्कर्ट पहनने वाली प्रेमिका को लिख रहा हो। उसने अपने ई-मेल में लिखा था, "कटे हुए पंखों वाली एक परी हो तुम। तुम्हारे प्यारे-प्यारे उन पंखों को किसी ने अपने पास रख लिया है। अगर वे पंख तुम्हें कोई लौटा देता, तो क्या तुम मेरे पास होती ?"

कूकी उन ई-मेलों को बार-बार पढ़कर शर्म से लाल हो जा रही थी। जाने-अनजाने वे ई-मेल किसी की नजर में न पड़ जाए, यही सोचकर वह उन्हें एक जंक फोल्डर के अंदर डालकर रख देती थी. कुछ दिनों से उसे लग रहा था जैसे वह अपनी युवावस्था में लौट आई हो। सारी दुनिया उसे बहुत अच्छी लगने लगी थी। वह मानो लौट आई हो अपनी सोलह साल की उम्र में।

भले ही, कूकी एक कवयित्री नहीं थी, जैसे वह भी कोई कवि नहीं था; फिर भी उसका हर ई-मेल कविताओं से परिपूर्ण होने के साथ-साथ एक नएपन का आभास देता था। कविता लिखते-लिखते कभी वह अचानक से गद्य-जगत में प्रवेश कर जाता था तो कभी कभी गद्य लिखते लिखते अचानक से काव्य-जगत में कविता की धारा बनकर बहने लग जाता था।

पहले-पहले कूकी अपने मन के दरवाजे खोलने के लिए हिचकिचाहट अनुभव कर रही थी। इसलिए कुंठाग्रस्त होकर उसने उत्तर दिया था।

"आपने मेरे मन को कुरेद दिया, मेरा रोम-रोम सिहर उठा। उम्र के इस पड़ाव पर मेरी साँवली त्वचा अपने गृहस्थ-धर्म के पालन में व्यस्त है। मेरे अभ्यस्त पाँव बार-बार मेरे दरवाजे की चौखट पर लौट आते हैं। अब मेरे पंखों में वह पुरानी रंगत कहाँ ? कि तुम आवाज दो और मैं उड़ जाऊँ। अब मेरे लिए ना कोई विस्तीर्ण आकाश है और ना ही उसकी नीलिमा का कोई महत्व"।

कूकी के इस ई-मेल के जवाब में उसने लिखा था "तुम इतनी उदास क्यों हो ? शायद तुम्हें मालूम नहीं है, जब से तुम मेरी जिंदगी में आई हो, तब से मैने नए-नए सपनें देखना शुरू किया है। इससे पहले मैं एक अकेले आदमी का जीवन जी रहा था। अगर तुम मेरी जिंदगी में न आती, तो शायद मैं वापस लौट जाता, जिसको आज तक मैने केवल बर्बाद किया है। जानती हो, मैं क्या चाहता हूँ ? मैं चाहता हूँ, फूल की पंखुडियों की तरह खिले-खिले तुम्हारे नाजुक पाँवों के तलवों पर परागकण बनकर चिपक जाऊँ और बस, तुम्हारी पायल की सुरीली झंकार को सुनता रहूँ।" ऐसी ही सब बातें करते-करते वह कविता बनाने लगता था। इसी तरह कभी कविता बनाते-बनाते सामान्य-सी बातें करने लगता था।

ऐसे ही, जब कूकी सोलह-सत्रह साल की थी, ठीक इसी तरह प्यार भरे वाक्य अनिकेत उसके लिए लिखा करता था।

"मैं तुम्हारे पाँवों का अलता बन जाऊँ, मेरा जीवन धन्य-धन्य हो जाए।"

उस समय अनिकेत की उम्र लगभग बीस-इक्कीस साल की रही होगी। आजकल अनिकेत के सिर के बाल पकने शुरु हो गए हैं। और कूकी के चेहरे में भी काफी बदलाव आ गया है। वह जैसे किसी सुदूर क्षितिज के पास अपने यौवन को पीछे छोड़कर आगे बढ़ गई हो। और प्रेम ? जैसे कि किसी पुराने ग्रंथ के मटमैले पन्नों के भीतर दबकर रह गया हो।

वह तरह-तरह के तरीकों को अपनाते हुए कूकी के मन में इस बात का विश्वास लाने की कोशिश करता था, वह कोई फ्लैटरी नहीं कर रहा है, बल्कि वह उसको बेहद प्यार करने लगा है। अपने प्यार का इजहार करने के लिए कभी वह उसे अपने रेखाचित्र बनाकर भेजता था तो कभी वह अच्छी-अच्छी किताबों से अनमोल वचनों को उद्धृत करके भेजता था। एक बार उसने आइन्सटीन की कुछ पंक्तियों का उल्लेख किया था "ग्रेवीटेशन केन नाट बि हेल्ड रेस्पोन्सिबल फॉर पीपुल फालिंग इन लव "।

धीरे-धीरे कर उसने कूकी के दिल में अपनी जगह बना ली थी। लेकिन कूकी को अजीब-सा लग रहा था, कि जिस आदमी ने उसे कभी भी नहीं देखा, वह आदमी अपने दिल में एक गहरी तड़प लिए उसे इतना प्यार कैसे कर सकता है ? अपनी जिज्ञासा का समाधान न पाकर उसने एक दिन इस बात को उससे पूछा भी था।

बड़े ही अद्भुत ढंग से उसने उत्तर दिया था कूकी के इस सवाल का। कौन कहता है, मैने तुम्हें नहीं देखा ? देखकर बताओ, तुम ठीक ऐसी दिखाई देती हो या नहीं ? ई-मेल के अटैचमेंट को डाउनलोड़ करने पर एक रेखाचित्र उभर कर सामने आया और उसका मानना था कि वह रेखाचित्र उसके उसकी कूकी का है। पिछले कुछ दिनों से कूकी के बारे में जो-जो भावनाएँ उसके मन में आई थी, उन्हीं भावनाओं के आधार पर उसने वह चित्र बनाया था। कूकी को इस बात का अहसास हुआ कि सही मायने में कलाकार लोग बड़े ही अद्भुत किस्म के होते हैं। चित्र में जिस लड़की की तस्वीर बनाई गई थी, उस लड़की के कंधे से थोड़ा नीचे तक घने काले बाल झूल रहे थे। उसके चेहरे पर दिखाई दे रहे थे विश्वास और अविश्वास के मिले-जुले भाव। जहाँ उसका एक स्तन खुला दिखाया हुआ था, वहीं उसके दूसरे स्तन के स्थान पर लच्छेदार अंगूर दिखाए गए थे। कटि-प्रदेश में एक सर्पिल लता दिखाई हुई थी तथा नाभि के ऊपर पदम रागमणि जैसे कुछ रंग चितेरे हुए थे। कूकी बार-बार उस पेंटिंग को ध्यान से देखती थी। बारम्बार देखते-देखते उसे मन ही मन लगने लगा था जरुर कहीं न कहीं उस चित्र का उससे ताल्लुकात है। उसकी सुराही-सी लंबी गर्दन है ? उसके उभरे हुए स्तनों से ? अथवा गोल दबी हुई नाभि से ? नहीं। शायद कुछ सामंजस्य है तो होठों पर थिरकती मंद-मंद मुस्कराहट से। उसके बाद, क्या कूकी अपने आपको अपने भीतर बांधकर रख पाती ?

मगर वह तो एक ऐसे-चौराहे पर खड़ी थी, वहाँ से अगर वह उस आदमी की तरफ दो कदम आगे बढ़ाती तो स्वतः एक कदम पीछे लौटती। नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं थी। कूकी परपुरुष प्रेम की बात सोचकर विचलित नहीं थी। उसके मन में संदेह और भय के उत्पन्न होने के अन्य कुछ कारण थे। शायद हो सकता है उस आदमी ने उसके मनोभाव को पहले से ही पढ़ लिया था, इसलिए उसको अंतर्द्वंद्व से ऊपर ऊठने के लिए कहता था वह। यह ही नहीं, वह यह भी कहता था, देखो, हमें देश, जाति और धर्म जैसी तुच्छ बातों से ऊपर उठना होगा। कभी भी ऐसी बातों को अपने दिल में घर मत करने देना।

किन्तु कूकी अपने सदियों पुराने संस्कारों से उभर नहीं पा रही थी। बचपन से वह पठान बस्ती के पास में रहती थी। स्कूल में दो-चार मुसलमान लड़कियाँ उसकी सहेलियाँ भी थीं। वह उनके घर कभी-कभी घूमने जाती थी। उसकी खास सहेली शबनम का परिवार पैसे वाला था। उसका घर हमेशा सुसज्जित रहता था और उसके घर की बगिया में कलम किए हुए गुलाब के फूलों की एक अलग से सुंदर क्यारी थी। उसके घर में डॉवरमेन कुत्ते को देखकर वह भयंकर तरीके से डर जाती थी। बगीचे में सफेदा पेड़ के तले बैठकर शबनम उसको बिस्मिल्ला की रोमाँचक कहानियाँ सुनाती थी। कूकी की दूसरी सखी का नाम था लतफा। उसका घर एक पठान बस्ती के अंदर था, बहुत ही गंदा, मिट्टी का कच्चा घर, घुप अंधेरे से भरा हुआ। घर के आंगन में बकरियों और मुर्गियों का मल-मूत्र इधर-उधर बिखरे हुए थे। एक बार उसने उनके रसोई घर के बरामदे के पास में रखे हुए सिलबट्टे के ऊपर मुर्गियों की विष्ठा गिरी हुई देखी थी।

लेकिन कूकी उन लोगों को कभी भी अपने घर नहीं बुलाती थी। जब वे लोग उसके घर आना-चाहते थे, तो वह किसी न किसी तरह का बहाना बनाकर उन्हें इधर-उधर की बातों में घुमा देती थी। ऐसा भी नहीं था कि उसकी सहेलियाँ उसके घर बिल्कुल भी नहीं आती थी। एक-दो बार उसकी सहेलियाँ उसको मिलने उसके घर आई थी, परन्तु उनके जाने के बाद माँ गुस्से से तमतमा उठी थी।

गुस्से में वह घर का सामान इधर-उधर फेंकने लगती थी। उनके जाने के बाद वह बेडशीट, जिन पर वे लोग बैठे थे, धोना शुरु कर देती थी। चूँकि गद्दा तो धोया नहीं जा सकता था, इसलिए उस पर गंगा जल का छिड़काव करके उसको पवित्र किया जाता था। जिन बर्तनों में उनको नाश्ता खिलाया जाता था, उन बर्तनों को घर के पिछवाड़े ले जाकर कूकी को ही माँजना पड़ता था। उस समय कूकी, भले ही, पिटाई के ड़र से बर्तन माँज देती थी मगर उसका दिल कभी भी इस बात के लिए गवाही नहीं देता था कि मुसलमान लोग अछूत होते हैं।

यह बात सही थी, कूकी उन्हें अछूत, बिल्कुल नहीं मानती थी मगर उसके मन के किसी कोने में कहीं न कहीं उनके प्रति एक अविश्वास की भावना छुपी हुई थी। मुसलमानों के प्रति इस अविश्वास की भावना के पीछे उसके कोई निजी कारण नहीं थे, मगर वह बचपन से सुनती आ रही थी, "किसी जिन्दे मुसलमान का विश्वास करना तो दूर की बात, किसी मरे हुए मुसलान का भी विश्वास नहीं करना चाहिए।" जिस तरह दुनिया में कई चीजों को बिना देखे ज्यों का त्यों मान लिया जाता है, ठीक उसी तरह उसने भी इस बात को अपने गाँठ बाँध लिया था। भले ही, मुस्लिम बस्ती के लोग किसी दूसरे ग्रह के निवासी नहीं थे, मगर फिर भी उन्हें मित्र पक्ष के लोग नहीं माना जा सकता था थे, मानो वह मुस्लिम बस्ती एक 'मिनी -पाकिस्तान' की तरह हो।

वह आदमी पाकिस्तानी था। यह कूकी ने कभी सोचा भी नहीं था कि कुछ ही दिनों में वह किसी पाकिस्तानी आदमी को दिल दे बैठेगी। किसी भी प्रकार से वह उस आदमी के प्यार को नकार नहीं पा रही थी, बल्कि हर दिन अकेले में उसका ई-मेल खोलकर बैठ जाती थी। संयोगवश किसी दिन उसे ई-मेल का उत्तर देने में देर हो जाती थी, तो अगले दिन दुःख भरा एक ई-मेल उसकी प्रतीक्षा करते मिलता था। वह आदमी लिखता था, "मुझे फूट-फूटकर रोने की इच्छा हो रही है।"

हर रात मेरे सपने सुनहरे,
भटकते उन अज्ञात जगहों पर,
जहाँ कभी मेरे पाँव पड़े ही नहीं
वहाँ मैं तुम्हारे ख्यालों में खोकर
प्रेम-निवेदन करताहूँ रो-रोकर

कूकी ने उसको अपने दैनिक क्रियाकलापों की एक समय सारिणी भेज दी थी। और उसे प्यार से समझाती थी कि उत्तर देने में थोड़ी-बहुत देर अगर हो भी जाए तो उसे इस तरह बैचेन नहीं होना चाहिए लेकिन वह खुद उस आदमी का ई-मेल पढ़कर उदास हो जाती थी। कभी-कभी वह आदमी दुखी होकर लिख भेजता था,

"यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि किसी भी अवस्था में मैं भारत नहीं आ सकता और न ही तुम मेरे पास पाकिस्तान आ सकती हो। दोनो देशों के मध्य कटु राजनैतिक संबंध, वीसा की समस्या तथा तरह-तरह के प्रतिबंध हमें एक-दूसरे से कोसो दूर रखेंगे। यह भी हो सकता है कि इस जन्म में हम एक दूसरे को मिलना तो दूर की बात, देख भी नहीं पाए। फिर भी अगर तुम चाहो तो हम एक दूसरे का मृत्यु-पर्यन्त साथ दे सकते हैं। मन में ऐसी भावना कभी मत लाना कि तुम हिन्दू हो और मैं मुसलमान, तुम भारतीय हो और मैं पाकिस्तानी।"

उसने कभी वर्जीनिया वुल्फ को पढ़ा था"एक स्त्री होने के नाते मेरा कोई देश नहीं है। एक स्त्री होने के नाते सारी दुनिया मेरा दश है।" मगर 'पाकिस्तानी' कहने से जैसे उसके सामने आतंकवाद का नंगा नाच नजर आने लगता था। कल अगर इस बात की जानकारी उसके पति और बच्चों को हो गई तो ? कल अगर उसका बेटा, भगवान न करे, पूछ बैठा, "माँ, तुमने एक पाकिस्तानी से प्रेम करने की हिम्मत कैसे की ?"

उसका बेटा किसी रुढ़िवादी से कम नहीं था। जैसे ही वह किसी मुसलमान का नाम सुन लेता था तो उसका खून खौलने लगता था। उसका छोटा बेटा हमेशा कूकी से परछाई की तरह लिपट कर रहता था। वह माँ को दिल से प्यार करता था, इसलिए वह माँ को पास बिठाकर समझाने की चेष्टा करेगा "माँ, आप नहीं जानती हो, पाकिस्तानी लोग आतंकवादी होते हैं।"

उस समय कूकी क्या जवाब देगी ?

नहीं, वह आदमी न तो कभी नमाज पढ़ता था और न ही रमजान के महीने में कोई रोजे रखता था। यहाँ तक कि इदुलफितर के दिन भी वह ईदगाह में नहीं जाकर घर में चुपचाप सोते रहता था। ऐसी बात नहीं थी कि वह अल्लाह को नहीं मानता था। अल्लाह में उसका प्रगाढ़ विश्वास था फिर भी वह अपने आपको काफिर कहता था। वह अपने प्रत्येक ई-मेल में कूकी से कुछ न कुछ ऐसे सवाल पूछता था जिसका वह उत्तर नहीं जानती थी। अपने उत्तर में कूकी उसको पुराण, उपनिषदों के कई दृष्टांत देती थी। प्रत्येक दृष्टांत को ध्यान पूर्वक पढ़ने के बाद वह प्रभावित होकर लिखता था, "सही मायने में हिन्दू-आध्यात्मिक शास्त्रों, पुराणों और धार्मिक मान्यताओं के पीछे एक दर्शन छिपा रहता है, जबकि ऐसे दर्शन कुरान में नहीं मिलते। कुरान केवल सामाजिक प्रतिबद्धता के उपदेश देता है, जिसका मुख्य उद्देश्य एक सशक्त समाज का निर्माण करना होता है।"

अपने बचपन के दिनों में जब वह कभी सुबह जल्दी-जल्दी उठ जाया करती थी तो कूकी को पास वाली किसी मस्जिद से 'अल्ला-हो-अकबर' की आवाज सुनाई देती थी। उस जमाने में हिन्दू मंदिरों में सुबह के समय आडियो कैसेट के भजन नहीं लगाए जाते थे। जब उसके मोहल्ले के मंदिर सोए रहते थे, तब भोर से ही मस्जिद जाग जाती थी. कभी-कभी नींद में खलल पड़ने पर उसकी छोटी बहन चिल्ला उठती थी, "क्या खुदा को सुनाई नहीं पड़ता है ? सुबह-सुबह इतने जोर से बाग देकर खुदा को क्यों बुलाया जाता है ?" एक बार कूकी शबनम के साथ मस्जिद के अंदर गई थी। शबनम ने उसे मस्जिद की सारी जगहें दिखाई थी। उस समय कूकी की उम्र दस या ग्यारह साल रही होगी। मस्जिद की एक खाली जगह के अंदर कूकी की आँखें भगवान की किसी प्रतिमा को तलाश रही थी, मगर शबनम से उस बारे में पूछने का उसका साहस नहीं हुआ। उसको बुरी तरह डर लग रहा था, कहीं कोई यह न कह दे, "यह हिन्दू लड़की मस्जिद में कैसे घुस गई ?"

मस्जिद के भीतर उसका मन ही मन दम घुट रहा था, इसलिए वह जल्दी से बाहर निकल आई। उस दिन के बाद उसके मन में और मस्जिद देखने का ख्बाव अधूरा का अधूरा रह गया। उसके लिए केवल निराकार और अस्ष्टता ही इस्लाम धर्म का प्रतीक है, हालाँकि तब तक वह यह बात अच्छी तरह जान चुकी थी कि इस्लाम धर्म में मूर्तिपूजा निषेध है। एक बार वह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में मन्नत माँगने भी गई थी । तब भी उसका मन हल्के अंधेरे मकान के अंदर भगवान की किसी प्रतिमा को खोज रहा था खोजते-खोजते उसका मन अपने आप शून्यता से भर गया था।

कूकी उस समय हिन्दू-धर्म का खूब मजाक उड़ाती थी। वह कहती थी, हमने अपनी अंतर्हीन इच्छाओं की पूर्ति के लिए तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का निर्माण किया है। कभी धन के लिए, कभी पढ़ाई के लिए, कभी प्रेम के लिए तो कभी उद्योग-धंधों में लाभ होने के लिए। प्रत्येक देवी-देवता के लिए एक अलग-सी व्यवस्था और अलग-सा विभाग। इतना जानते हुए भी उसका मन एक मूर्तिविहीन शून्य इमारत के अंदर एक चिर परिचित मूर्ति की खोज में लगा हुआ था। वह अच्छी तरह जानती थी कि ई•ार इश्वर निराकार, अजन्मा, सर्वव्यापी और अंतर्यामी हैं। तब भी उसका मन उस शून्य इमारत को ईश्वर मानने के लिए राजी नहीं हो रहा था।

किंतु प्रेम क्या किसी धर्म की परवाह करता है ? प्रेम का वास्तविक धर्म होता है उबड़-खाबड़ रास्तों पर बढ़ते जाना। ऐसा लग रहा था मानो कूकी पर किसी ने मोहिनी जादू कर दिया हो। जिस अंदाज में वह लिखता था ठीक वैसा ही अनुभव कूकी को होने लगता था। एक बार उसने लिखा था, "फॉर, यू सी, इच डे आई लव यू मोर, टुडे मोर देन यस्टरडे एंड लेस देन टूमारो ।"

कूकी को भी इस बात का अनुभव हो रहा था कि शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह उसका प्रेम उज्ज्वलता की एक नई कला को हर दिन जोड़ता ही जा रहा था। उस आदमी की निष्कपटता उसको सबसे ज्यादा आकृष्ट करती थी।

पहले ई-मेल में ही उसने अपने बारे में सब कुछ खोलकर बता दिया था। जैसे कि उसकी दो पत्नियाँ तथा चार बच्चे हैं। पहली पत्नी उसके गाँव मं रहती है तथा वहाँ की साज-सँभाल लेती है। आजकल उसके साथ उसका कोई शारीरिक संबंध भी नहीं है। पहली पत्नी की दोनो बेटियाँ उसके साथ शहर में रहती हैं तथा अपनी आगे की पढ़ाई कर रही हैं। उसकी दूसरी पत्नी कभी उसकी छात्रा हुआ करती थी। उसकी शादी होने से पहले ही उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित हो गया था और उसका गर्भ भी ठहर गया था। यही नहीं उसका लिंडा जानसन नाम की अमेरिकन लड़की के साथ भी कई दिनों तक शारीरिक संबंध रहे थे। और उस अमेरिकन लड़की ने ही उसको सिखाया था कि किस तरह खुले मन से सेक्सुअल लाइफ को जिया जा सकता है। पता नहीं आजकल वह लड़की कहाँ है ? इस बारे में उसे बिल्कुल भी जानकारी नहीं है।

किसी अखबार की तरह उसका पूरा जीवन पढ़ने के बाद कूकी के मुँह से अपने आप यह बात निकल आई "बहुत ही परवर्टेड आदमी है।" एम.एफ. हुसैन के मॉधुरी प्रेम की तरह वह उस आदमी के प्रेम का उपभोग नहीं कर पा रही थी चाहे आईनस्टीन हो या फ्लैबार्ट, हर महान प्रतिभा के साथ परवर्सन जुड़ा हुआ रहता है। बल्कि उनका यही गुण उनकी सृजनशीलता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है। एक तरफ उस आदमी की खुली स्पष्ट बातों ने जहाँ कूकी के दिल को प्रभावित किया था, वहीं दूसरी तरफ उसके इधर-उधर मुँह मारने के अवगुण ने कूकी के मन में उसके प्रति घृणा के बीज बो दिए थे।

उस आदमी का मेल पढ़ने के बाद कूकी के मन में मुसलमानों के निकाहनामा के बारे में जानने की उत्सुकता पैदा हुई। उसे यह बात पहले से पता थी कि मुसलमान लोग चार शादी कर सकते हैं। जिस तरह हिंदुओं के बच्चे एक आकाश की तरह एक पिता पर भरोसा करके तथा एक धरती जैसी एक माँ की छाती के ऊपर पाँव रखकर बड़े हुए हैं, उसी तरह मुसलमानों के बच्चें एक आकाश के ऊपर भरोसा करके तथा चार धरतियों के ऊपर पाँव रखकर किस तरह बड़े होते होंगे ? वे लोग किस धरती को अपनी माँ मानते होंगे ? इस विषय पर एक बार कूकी ने प्रो. सिद्दकी से प्रश्न पूछा था। काफी गहन अध्ययन करने के बाद प्रोफेसर सिद्दकी ने अपनी पवित्र पुस्तक कुरान की आयतों का हवाला देते हुए कहा था, "इस्लाम धर्म कभी भी चार शादियों को प्रोत्साहित नहीं करता है। वास्तव में, यह नियम असहाय अबला नारियों के रक्षणार्थ बनाया गया था। युद्ध की विभीषिका में प्रायः पुरुष वीर गति को प्राप्त हो जाते थे। तब नारियों और पितृहीन संतानों के संरक्षण के साथ-साथ उनके चरित्र को अधोपतन होने से रोकने के लिए बहु विवाह प्रथा का प्रचलन था।"

प्रो. सिद्दकी के तर्क सुनने के बाद कूकी के मन को भले ही थोड़ा-सा सकून मिला था। लेकिन उस आदमी ने किसी असहाय नारी का भला करने के लिए दूसरी शादी नहीं की थी। और लिंडा जानसन के साथ उसके प्रेम संबंध को क्या नाम दिया जा सकता था ? तब भी कूकी उसके प्रेमजाल से मुक्त नहीं हो पा रही थी। उसे मन ही मन ऐसा लग रहा था कि किसी ने भी इतना प्रगाढ़ प्रेम पहले उसको कभी नहीं दिया था।

धीरे-धीरे कर कूकी अपने घर-संसार से दूर होती जा रही थी। जैसे उसे एक विचित्र प्रकार का मति-भ्रम हो रहा हो। उसको लगने लगा था उसके पास सिवाय उस आदमी के और कोई नहीं था। आजकल वह अपने बच्चों को विभिन्न प्रकार के व्यंजन वनाकर नहीं खिला पा रही थी। यहाँ तक कि, अनिकेत के शर्ट के टूटे बटन तक ठीक नहीं कर पा रही थी वह। बगिया के फूलों ने पहले की तरह हँसना-मुस्कराना छोड़ दिया था। फूलों की पंखुडियों पर कीड़े लगना शुरु हो गए थे और धीरे-धीरे वे पंखुडियाँ किसी कुष्ट रोगी के अंगों की भाँति क्षय होती जा रही थी। घर के लॉन में जगह-जगह पर घास उखड़ गया था तथा किसी गंजे सिर की भाँति दिखाई देने लगा था। घर के कोनों-कोनों में मकड़ियों ने अपना जाल बुनना शुरु कर दिया था। पूजा अलमारी में रखी मूर्तियों के ऊपर धूल की मोटी परतें जमती जा रही थी। उसकी इस अन्यमनस्कता का पूरी तरह लाभ उठाते हुए नौकरानी भी जैसे-तैसे अपना काम करके जल्दी चली जाती थी। एक घोर अव्यवस्था के बीच से होकर गुजर रहा था उसका घर- संसार । तब कहाँ थी कूकी ?

रात-दिन कम्प्यूटर में बैठकर चिट्ठी टाइप करना उसे सबसे ज्यादा सुखद लगता था। जो बातें उसके ह्मदय में अभी तक अव्यक्त रह गई थी वह उन सभी बातों को भाषा का रूप देने का प्रयास कर रही थी। उसे इस बात पर भी आश्चर्य लगता था बहुत सारी बातें अभिव्यक्त करने के बाद भी कई नई-नई बातें उसके हृदय-पटल पर नई घास की भाँति उगकर तैयार हो जाती थी।

उन्होंने सोच लिया था कि वे तीन विषय पर बातचीत करेंगे। पहला विषय घर की दुनियादारी के बारे में, दूसरा अमूर्त प्रेम के विषय पर तथा तीसरा दैहिक प्रेम पर वार्तालाप करेंगे। इस दौरान कूकी ने बहुत सारे ऐसे नए-नए शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त कर ली थी जिसको अपने जीवन में पहले कभी भी सुन नहीं रखा था।

जब कभी भी कूकी अखबारों, न्यूज चैनलों तथा नेताओं के भाषण से भारत और पाकस्तान के गिरते संबंधों के बारे में खबरें सुनती थी तो वह बुरी तरह से विचलित हो उठती थी। भारत और पाकिस्तान के बीच बिगड़ते संबंधों को लेकर दोनो देशों के बीच युद्ध की आशंका से बुरी तरह व्यग्र हो उठती थी कूकी। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। वह नहीं समझ पा रही थी कि अगर दोनो देशों के मध्य युद्ध छिड़ गया तो वह क्या करेगी ? यहाँ उसका सारा परिवार बच्चें और पति, माँ-बाप, भाई-बहन सारे सगे-संबंधी रहते हैं। और अगर किसी देश पर परमाणु-विस्फोट कर दिया तो सब जगह तबाही-तबाही मच जाएगी। सब-कुछ सर्वनाश हो जाएगा। उसके मन में यह भी लग रहा था कि पाकिस्तान के किसी अनजान मुहल्ले में उसका हृदय धड़क रहा है। अगर किसी देश ने परमाणु बम फेंक दिया तो उसका वहाँ स्पंदित ह्मदय भी खून से लथपथ होकर बिखर जाएगा।

कभी-कभी कूकी को लगता था, हमारे देश के दो टुकड़े भारत और पाकिस्तान नहीं होने चाहिए थे। क्या जरुरत थी देश को दो टुकड़ों में बाँटने की ? बँटवारे के दिन से दोनो देशों में आमने-सामने की लड़ाई चलती आ रही है। दो औरतों की तरह एक दूसरे के ऊपर किसी न किसी ची चीज को लेकर लगातार दोषारोपण करते आ रहे हैं।

कूकी ने कभी कश्मीर नहीं देखा था। ऐसा क्या है कश्मीर में ? सुन्दर स्त्री को लेकर दोनो देशों के बीच अन्तर्कलह बढ़ता ही जा रहा है। पहले-पहले कश्मीर की आतंकवादी गतिविधियों के बारे में सुनते ही कूकी का खून खौल उठता था। खूंखार आतंकवादियों की बर्बरता को देखकर कूकी सोचने लगती थी, उन लोगों के पास दिल जैसी कोई चीज नहीं है। स्पार्टा की तरह पाकिस्तान जेहाद के नाम पर आतंकवादियों को जन्म दे रहा था, मगर उस आदमी को जानने के बाद कूकी की सारी धारणा बदल गई थी। उसको लगता था, पाकिस्तानी सैन्य-शासन के भीतर अभी भी कुछ बुद्धिजीवी व हृदयवान लोग जिन्दा हैं।

अनिकेत और कूकी एक हिल स्टेशन का भ्रमण करने के बाद लौट रहे थे। ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलने के कारण उन्हें दिल्ली में तीन दिन के लिए रुकना पड़ गया था। इधर-उधर घूमते-घामते एक दिन वे दोनों "धूमिमल आर्ट गैलरी" में चले गए थे। कूकी की कला के प्रति थोड़ी-बहुत रूचि थी मगर अनिकेत का कला के प्रति कोई लगाव नहीं था। अनिकेत अक्सर कहता था, आधुनिक कविताओं की तरह आधुनिक आर्ट भी मेरी समझ से परे है। एक अभिजात्य पूर्ण और शांत परिवेश में कूकी के आगे-पीछे घूमते-घामते अनिकेत को एक घुटन-सी महसूस होने लगी, अनिकेत कूकी से बाहर जाने की इजाजत लेने लगा, “बाहर जाकर एकाध सिगरेट पीकर आता हूँ, तुम्हें इसमें कोई आपत्ति तो नहीं है ?"

अब कूकी आर्ट गैलरी में अकेले-अकेले घूम रही थी। दीवारों पर टँगी हुई प्रत्येक पेंटिंग को वह गहराई से जानने की चेष्टा कर रही थी। उसी समय एक विचित्र पेंटिंग ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। बहुत ही अद्भुत अकेलापन था उस पेंटिंग में। उसे ऐसा लग रहा था जैसे कोई उसका हाथ पकड़कर खींचकर ले जा रहा हो, एक अनजान शहर की अनजान गलियों के भीतर, जहाँ एक उदास इंसान बैठकर उसका बेसब्री से इंतजार कर रहा हो। भले ही, वह आदमी इतना गंभीर दिखाई दे रहा था कि उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकल रहा था, मगर उसके मन की अव्यक्त व्यथा उसके चेहरे पर चारो तरफ स्पष्ट झलक रही थी। पेंटिंग के नीचे छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा हुआ था, "एलिएनेशन, आयल आन कैनवास, 191 न् 142 सेमी, मोहम्मद सफीक, पब्लिश्ड बाय पाकिस्तानी आर्ट फॉरम, लाहौर।

कूकी के पास पेंटिंग खरीदने जितने पैसे नहीं थे। फिर भी कूकी को मन ही मन ऐसा लग रहा था अगर वह पेंटिंग उसे नहीं मिल पाई तो उसका जीवन व्यर्थ हो जाएगा। वह सोचने लगी कि पैसे वाले लोग पेंटिंग की कलात्मकता को शायद ही समझ पाते होंगे वे लोग अपना शौक पूरा करने के लिए केवल दिखावे के लिए पेंटिंग खरीदतें हैं. उसमे पेंटिंग की कला को समझने की परख है, मगर उसके पास उसे खरीदने के लिए पैसे नही है। इस पेंटिंग के अलावा उसे उस दिन और कोई पेंटिंग इतनी पसंद नहीं आई। इधर-उधर जाकर फिर से वह 'एलिएनेशन'पेंटिंग के पास लौट आती थी। काऊन्टर मे "मैडम, अगर आप यह पेंटिंग खरीदना चाहती हो तो खरीद सकती हो। उसकी एक प्रतिलिपि हमारे पास उपलब्ध है।"

यह सुनकर कूकी खुश हो गई थी। पेंटिंग की प्रतिलिपि उसी विवरणिका समेत लेकर लौट आई थी वह। शफीक अहमद का ई-मेल आई.डी. उसे इसी विवरणिका से प्राप्त हुआ था। जिस दिन उसने शफीक के मन का दरवाजा खटखटाया था, उसे क्या मालूम था कि एक दिन वह व्याकुल होकर उससे कहने लगेगा, "हर रात मेरे सपने सजीले, भटकते उन अज्ञात जगहों पर, जहाँ मेरे पाँव कभी पड़े ही नहीं।"

कूकी ने उससे पूछा था, "आप भारत क्यों नहीं आ सकते ? जबकि दोनों देशों के बीच में आवाजाही के प्रतिबंध काफी हद तक हटा दिए गए हैं इसके अतिरिक्त , आप एक महान कलाकार भी हो। आपकी 'द एलिएनेशन' पेंटिंग कलाकृति से आपका नाम संपूर्ण एशिया में विख्यात हैं। आपको इधर आने से कौन रोक सकता है ? सीमा किरमानी का नाट¬नाट्य दल अगर कलकत्ता के अकादमी भवन में अपने नाटक की प्रस्तुति कर सकता है, पाकिस्तान की क्रिकेट टीम भारत के शहर-शहर में घूमकर अपने खेल का प्रदर्शन कर सकती है तो आपको कौन रोक सकता है ?"

इस प्रश्न के उत्तर से किनारा करते हुए उसने कूकी का मन बहलाने के लिए बदले में प्रेम की कविता लिखकर भेजी थी। कविता लिखते समय वह जितना भाव-विह्वल हो उठता था, उतना ही चेटिंग करते समय वह स्पष्टवादी। कूकी के सवालों के जवाब मानो वह भी कई दिनों से ढूँढ रहा था। "सीमा किरमानी का नाट्य दल अगर कलकत्ता के अकादमी भवन में अपने नाटक की प्रस्तुति कर सकता है, पाकिस्तान की क्रिकेट टीम भारत में खेल सकती है तो आपको भारत आने से कौन रोक सकता है ?" बहुत सोच-समझकर उसने एक दिन लिखा था "यह मत सोचो कि पृथ्वी पर केवल भारत और पाकिस्तान ही दो देश हैं। इन दोनों देशों के अतिरिक्त भी बहुत सारी जगह खाली पड़ी हुई हैं। जहाँ हम दोनो पूर्ण आजाद होकर घूम सकेंगे, एक दूसरे से घंटो-घंटो बातचीत कर सकेंगे, चाँदनी रात में तुम्हारे कान में प्रेम कविता सुना पाऊँगा। दोनो देशों के बीच के सारे प्रतिबंधों तथा तार की घेराबंदी को उस जगह का एक कमरा और एक बिस्तर तोड़कर टुकडे-टुकड़े कर देगा। मैं उसी दिन की तलाश में हूँ, ऐसी जगह पर तुम्हें एक दिन बुलाकर ले जाऊँगा। कूकी को मन ही मन फिर से लगने लगा कि वह आदमी उसे सपने दिखा रहा है। एक ही प्रकार का अनुत्तरित प्रश्न लगातार लिखने के काम से कूकी का मन मुक्त होना चाहता था। उसी समय फिर एक बार उस आदमी ने सपने दिखाना शुरु कर दिया। सचमुच में इस पृथ्वी पर बहुत सारी जगह हैं। दो प्राणियों के लिए कितनी जगह चाहिए ? उस समय जब कूकी सपनों की कशीदाकारी करने में व्यस्त थी, ठीक उसी समय उस आदमी ने उसके आगे एक अनोखा प्रस्ताव रखा।

"तुम जानती हो, मैं अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट पेंटिंग को तुम्हारे रंगों से रंगना चाहता हूँ। मेरे पास आओ, मेरा वीर्य धारण कर मुझे पितृत्व प्रदान करो।"

उस आदमी के इस तरह के स्पष्ट आह्वान से कूकी का मन कुछ विचलित हो उठा तो कुछ आह्लादित। किसी सुदूर जगह से कूकी के लिए खुला निमंत्रण आ रहा है, मानो वह एक देवी हो और बहुत दूर से उसका एक भक्त अपने हाथ में पूजा की थाली लिए दौड़ा आ रहा हो। कूकी का मन इधर-उधर भटकने लगा। ये सब बातें वह किसको बताएगी ? कौन उसकी बात सुनेगा ? उसका मन हो रहा था किसी को बताने के लिए कि दिल खोलकर वह किसी को बता दे, देखिए मेरे लिए भी किसी का दिल धड़क रहा है। केवल मेरे लिए। कूकी का मन हिलोरे मारने लगा था कविता लिखने के लिए। उसके भीतर ही भीतर एक अनजान भय उमड़ रहा था जैसे कि समुंदर की हिलोरे मारती हुई लहरे उसको छूकर दूर चली जा रही हो।

अंत में कूकी ने लिखा था, "ठीक है, मैं तैयार हूँ तुम्हारा वीर्य-ग्रहण करने के लिए। मैं तैयार हूँ तुमको पितृत्व प्रदान करने के लिए। आ जाओ, मेरे पास। मैं पूरी तरह समर्पित हूँ तुम्हें पितृत्व प्रदान करने के लिए। जरा ध्यान से देखो, तुम्हारे जीवन की सबसे सुंदर पेंटिंग के लिए मैं कैनवस बनकर तैयार खड़ी हूँ। तुम्हारी 'एलिएनेशन' के बाद बनने वाली सर्वश्रेष्ठ कलाकृति के लिए मैं तैयार हूँ।"

कूकी के सहमति भरे जवाब से वह आदमी निश्चित रूप से बहुत खुश हो गया था। उसने अपने अगले मेल में लिखा था "तुम मेरे जीवन का एक नया सवेरा हो। जब से तुम मेरी जिंदगी में आई हो, तबसे मैने अपने जीवन को नए तरीके से देखना शुरु किया है। तुम्हारा प्यार पाकर मैं अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ पेंटिंग बनाऊँगा। तुम्हारे नाम के साथ मैं अपना नाम भी जोड़ दूँगा। तुम मेरे जीवन का एक नया सवेरा हो, इसलिए आज से तुम मेरे लिए कूकी नहीं, बल्कि रूखसाना हो। मैं तुम्हें रुखसाना नाम से सारी दुनिया में परिचित कराना चाहता हूँ।"

कूकी की छाती धक्-धक् करने लगी। मानो किसी ने उसके समग्र अस्तित्व को छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित कर दिया हो। वह अब वह नहीं रही, दूसरी कोई और हो गई। तब वह आज तक क्या थी ? किससे प्रेम करता था वह आदमी ? कूकी या रुखसाना से ? मगर कूकी तो उस आदमी के साथ कभी निकाह करना नहीं चाहती थी। वह तो केवल उससे प्रेम करना चाहती थी, एक निस्वार्थ प्रेम बिना किसी शर्तों के। मगर उसकी तरफ से इतनी सारी शर्तें क्यों ? क्यों वह कूकी को रुखसाना के नाम से परिचित कराना चाहता है ?

रुखसाना कौन है ? कहाँ थी वह आज तक ? वह उसके अंदर छुपी हुई थी अथवा कुरान के पन्नों के भीतर ? मेरी तरफ देखो, मुझे अच्छी तरह परख लो। मैं जैसी भी हूँ, उसी भाव से मुझे छूकर देखो । मेरे संपूर्ण अहम की सत्ता यथावत ग्रहण करो। मुझे मत बदलो मेरा चेहरा जैसा भी है, वैसा ही रहने दो। उम्र के दाग को मत धोओ। रुखसाना की सारी संभावनाओं को वैसे ही रहने दो। मेरे समग्र व्यक्तित्व को बिना किसी परिवर्तन के ऐसे ही स्वीकार करो. मुझे मत बदलो। बताओ, सही-सही बताओ, तुम वास्तव में किसको चाहते हो, अपनी पूरी कूकी को या फिर नई-नवेली रुखसाना को ?

बेचैन -सी हो गई कूकी। कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर अंगुलियाँ चल नहीं पा रही थी। प्रथमतः अक्षर उचित शब्दों का रूप नहीं ले पा रहे थे। काफी कोशिश करने के बाद अंत में जैसे-तैसे करके कूकी ने अपना वक्तव्य पूरा किया। उसे लिखने के बाद वह अपने आपको काफी हल्का अनुभव करने लगी थी। उसका आकाश में चिड़िया की तरह उड़ने का मन हो रहा था। उसका मन कर रहा था वह वापस अपने घर और अपनी बगिया की ओर लौट आए। बगीचे में गुलाब के फूलों की पत्तिया मुरझाने लगी थी, डालिया के पौधों पर कलियाँ नहीं खिल पा रही थी। इधर-उधर उग आई जंगली घास के बीच में कुछ पौधें मलिन और उदास दिखाई देने लगे थे। घर के कोने-कोने में मकड़ियों ने अपना जाल बुन लिया था। घर के फर्नीचर पर धूल की मोटी परत जम गई थी। अलमारी में साड़ियाँ इधर-उधर बिखरी हुई पड़ी थी। बाथरुम की खिड़की के ऊपर पीपल का एक छोटा सा पेड़ अपनी जड़े जमा चुका था। बहुत दिन हो गए थे कूकी को अपना घर-संसार को छोड़े हुए। उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह अभी-अभी लौटकर घर आ रही हो।

धीरे-धीरेकर कूकी अपना घर संवारने -सजाने लगी। बगिया के फूलों के पौधों के साथ वह दिल खोलकर बातें करने लगी। उसको वापिस अपनी दुनिया में आया देखकर बगिया के सारे पौधे खिल उठे। सभी के कपड़ों पर उसने इस्तरी की। फिर उसने घर में सभी को मूली-आलू का पराँठा तथा फूल गोभी की स्वादिष्ट सब्जी बनाकर खिलाई। इस तरह उसका सारा घर एक बार फिर से खिलखिला उठा।

फिर भी कूकी के मन के किसी कोने में एक रूखसाना छटपटा रही थी। कई दिन हो गए थे उसको जवाब लिखे हुए मगर आज तक वह उसे भेज नहीं पाई थी। उस दिन के बाद कम्प्यूटर स्क्रीन पर कूकी के नाम से कोई संदेश नहीं आया था। इन बाक्स के ऊपर लिखा हुआ था, "अपठित मेल शून्य हैं।"

फिर भी कूकी का दिल दुखी हो रहा था कि वह आदमी हर दिन अपना मेल बॉक्स खोलकर उसका कोई संदेश नहीं पाकर बुरी तरह निराश हो जाता होगा। शायद वह जरुर सोचता होगा, हो न हो, कूकी के साथ कोई दुर्घटना जरुर घटी होगी। कूकी को ऐसा लग रहा था जैसे कि वह आदमी समय-बेसमय कूकी के घर का दरवाजा खटखटा रहा हो तथा दरवाजा नहीं खोलने पर खिड़की के पास बाहर खड़ा होकर वह अन्यमनस्क होकर सिगेरट के ऊपर सिगेरट के कश लगा रहा होगा। वह कूकी की एक झलक पाने के लिए बुरी तरह बैचन हो गया होगा।

एक बार फिर कूकी कम्प्यूटर के सामने आकर बैठ गई। बैठी तो ऐसी बैठी रही कि उसके शरीर में से उग आ रहे थे डाल पत्तियाँ, जिसे ढकती जा रही थी दीमक की गुदा और जिस पर रंगते जा रहे थे बड़े-बड़े सरीसृप। अपनी अंगुलियो में बिना कोई हरकत किए की- बोर्ड के सामने मूर्तिवत बैठी रही कूकी। शायद उसकी अंगुलियाँ की-बोर्ड पर खटरागी के लिए चंचल हो उठेगी। शायद अभी वह कुछ न कुछ जरुर लिखेगी। "हाय, मुझे देखो, मैं तुम्हारी दुनिया में वापस लौट आई हूँ। मैं अब कूकी नहीं, बल्कि तुम्हारी रुखसाना हूँ। नाम में ऐसा क्या रखा है ? नाम तो केवल निमित्त मात्र है। तुम अपना वीर्य-सिचन कर पितृत्व प्राप्त करने के अधिकारी बनो। तुम अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ पेंटिंग का काम अभी से शुरु कर सकते हो।" देखते-देखते कूकी की अंगुलियाँ की- बोर्ड पर खटर-पटर करने लगी। कुछ पंक्तियाँ लिखने के बाद कूकी चुपचाप बैठी रही। वह अपना एक पुराना मेल खोलकर पढ़ने लगी। जिसमें उसने लिखा था कि वह केवल कूकी बनकर जीना चाहती थी।

दूसरी चिट्ठी लिखने के बाद कूकी जड़वत हो गई। कुंठाग्रस्त होकर वह कम्प्यूटर के पास बैठ गई। अमृत बनकर किसी को अमरत्व प्रदान करेगी या लौट आएगी अपने घोंसले में ? लेकिन उसके प्यार का क्या होगा ? क्या होगा उस प्यार का जो इतने दिनों से उसके दिल में पैदा हुआ था ? प्रेम से वंचित होकर क्या जिंदा रह पाएगा वह आदमी ? एक तरफ अनिकेत और उसका घर-संसार, दूसरी तरफ सफीक और उसका अमरत्व दोनो जैसे कूकी की तरफ अपने हाथ बढ़ाए जा रहे हो। किसी एक जगह पर खड़ी होकर धीरे-धीरे पत्थर में परिवर्तित हो रहे अपने पाँवों को कूकी उठाने की चेष्टा कर रही थी, मगर वह नहीं समझ पा रही थी कि वह अपने पाँव किस दिशा में बढ़ाँए ? उसे अनुभव हो रहा था, उसकी अंगुलियों में कुछ हरकत होने लगी हैं। कुछ ही देर बाद वे अंगुलियाँ की-बोर्ड़ पर तेजी से दौड़ना शुरु कर देगी। फिर भी वह कम्प्यूटर के सामने चुपचाप बैठी रही। "नूनी" जी हाँ, जूलियस सीजर ने क्लियोपेट्रा का नाम रखा था नूनी। प्यार में कोई भी नाम दिया जा सकता है तब उसमें आपत्ति किस चीज को लेकर ? क्यों कूकी व्यर्थ में इतनी दुविधा में पड़ गई है ? अगर किसी ने उसका नया नाम रखकर उसको एक नया जन्म प्रदान किया है, तो उसमें परेशान होने की बात कहाँ है ?

कूकी ने तीसरी चिट्ठी लिखी।

"मैं तैयार हूँ तुम्हारी प्रेमिका बनकर नया जीवन जीने के लिए। आज से मुझे आप किसी भी नाम से पुकारो, मुझे किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं है।"

तुम्हारी रुखसाना।