बंद कमरा / भाग 22 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

और कितने दिन? कितने दिन सहन करना पड़ेगा इस आतंकवाद को? उसे पता नहीं।ऐसे ही हर दिन कुछ न कुछ निर्दोष लोग मरते होंगे। लेकिन वे लोग जिनके मरने से दुनिया में कुछ सुधार आता, वे लोग मीडिया के कैमरे में बंद होकर भाषण देते नजर आते हैं। उस दिन की घटना ने सबको हिलाकर रख दिया था। टी.वी चालू करते ही वह दिल दहला देने वाला दृश्य दुकानों और मकानों के भग्नावशेष, जले हुए साइन बोर्ड, आदमियों की लाशों के ढेर, बिखरे हुए उनके शरीर के अंग, किसी के हाथ किसी के पैर, दर्द से कराहते हुए आदमी और असहाय होकर शून्य की तरफ देखता हुआ निर्वाक शिशु।

चारों तरफ बारुद की गंध मानो इंसान के मन को विषाक्त कर दे रही हो। कभी आकाश से बम गिर रहा था तो कभी इंसान की नकली हँसी से बम गिर रहा था। उस लड़की की क्या गलती थी जो आसाम से भ्रमण पर दिल्ली आई हुई थी और अपने परिजनों के लिए कुछ सामान के वास्ते बाजार गई हुई थी? उस लड़के की क्या गलती थी जो सुदूर बिहार से यहाँ होटल में काम करने आया था? क्या जवाब देगा आतंकवाद उस छोटी-सी बच्ची को? जिसको उसके माँ-बाप टी.वी. देखता छोड़कर आए थे यह कहते हुए कि एक घंटे के भीतर वे उसके लिए खिलौने और मिठाई लेकर आएँगे। उस बच्ची को तो यह भी पता नहीं कि उसके सिर पर लाखों रुपए का हाउस बिÏल्डग लोन बाकी है और कुछ ही दिन बाद उसे दर-दर की ठोकरें खानी पडेगी। उसे ऐसा लग रहा था मानो इंसान के दिल में प्यार नाम की कोई चीज नहीं है। और ईश्वर कुंभकर्ण की नींद सो गए है। उसे इंसानों की करुण-पुकार बिल्कुल भी सुनाई नहीं पड़ रही है। क्या शफीक भी इस तरह के जानलेवा षड़यंत्रों में शामिल था? उसने एक छोटा-सा ई-मेल लिखा था, जिसमें वह अपने आपको निर्दोष साबित कर रहा था और अपनी बदकिस्मती को कोस रहा था। उसके बाद से उसकी तरफ से सारे ई-मेल बंद हो गए थे। कूकी की धीरे-धीरे इंसान के ऊपर से आस्था और विश्वास उठने लगा था। उसे बहुत कष्ट हो रहा था। कभी-कभी वह शफीक को संदेह की दृष्टि से भी देखती थी।

कूकी के सामने बार-बार वही दृश्य आ रहा था और उसे विचलित कर दे रहा था। कहीं शफीक इस तरह की आतंकवादी गतिविधियों में शामिल तो नहीं? कूकी इस विभिषीका के कारण अपने आप को अपने और पराए में फर्क समझने में असमर्थ पा रही थी। यहाँ तक कि उसे गुलाब की पंखुडियों में भी बम होने का अंदेशा लगता था। जैसे कि दीपावली उत्सव से पहले पहाडगंज और सरोजिनी नगर मार्केट के सीरियल बम ब्लास्ट ने दिल्ली महानगर को बुरी तरह से थर्रा दिया था, उस अवस्था में भगवान की इस दुनिया को सुंदर कैसे कहा जा सकता है?

चारों तरफ धुँए के गुबार ने महानगरी को अपनी चपेट में ले लिया था। चारों तरफ हताहत लोगों की करुण चीत्कार से जमीन काँप रही थी। बाजार श्मशान - घाट में बदल गया था। कूकी को बहुत दुख लग रहा था। अगर अभी शफीक खुले आसमान के नीचे होता और अपने प्रेम को पहले जैसी कविताओं के माध्यम से जाहिर कर रहा होता तो वह उससे जरुर पूछती, "जहाँ चारों तरफ विध्वंस का तांडव चल रहा हो शफीक उस अवस्था में भी तुम प्रेम करने के बारे में सोचते हो? तुम अपनी पेंटिंग में इस क्षण को यादगार बनाने के लिए लाल रंग का छींटा डालकर क्यों नहीं छोड़ देते? तुम्हीं ने तो मेरा परिचय करवाया था पिकासो के चित्र के साथ। तुम्हीं ने तो कहा था, पहले विश्वयुद्ध ने पिकासो की चित्रकला शैली में एक विशेष परिवर्तन ला दिया था। पिकासो ने क्यूबा की शैली का परित्याग कर दिया था और क्लासिक चित्रकला की शैली की तरफ रुख करते हुए पारंपरिक वेशभूषा और आदमियों के सटीक चेहरों के चित्र बनाना शुरु कर दिया था। उस समय उनकी मॉडेल हुआ करती थी, मारितेरेज बाल्टेयर। मगर अचानक विश्वयुद्ध की विभीषिका ने उनकी चित्रकला की शैली को बदल दिया था। धीरे-धीरे उनके मॉडल का चेहरा विकृत होता जा रहा था। विश्वयुद्ध के परवर्ती समय में अनुशासन हीनता, अत्याचार, निराशा, हताशा और दुख के भावों को पिकासो ने एक विकृत चेहरे के माध्यम से पेश करने का प्रयास किया था।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पिकासो की पेंटिंगें अजीबो गरीब रुप धारण कर चुकी थी। उन पेंटिंगों में उन्होंने विकृत चेहरों को दर्शाया था, जिसमें ध्वंस और यंत्रणा के स्वरुप साफ झलक रहे थे।

मैं चाहती हूँ, शफीक, तुम भी समय को अपनी मुट्ठी में पकड़ लो। तुम भी अपने रंगों से कैनवास पर इंसान की निराशा, यंत्रणा, असहायता और हवस की ओर अग्रसर होती हुई इंसानी बर्बरता को दर्शाओ। सभी चैनलों पर एक ही खबर दिखाई जा रही थी। वही दिल दहलाने वाला भयंकर दृश्य। कूकी ने टी.वी बंद कर दिया।

बच्चें अपने- अपने स्कूल चले गए थे। अनिकेत उस समय विदेश जाने से पहले अपनी माँ को मिलने के लिए गाँव गया हुआ था।कूकी घर में अकेली थी। अनिकेत के कुवैत जाने की बात को लेकर उसे बड़ा डर लग रहा था।उसके मन में खूब सारी दुश्चिंताएं जन्म ले रही थी। भीतर ही भीतर तरह-तरह की आशकाएँ उसे खाए जा रही थी। कितना अच्छा होता, अगर कंपनी अनिकेत की विदेश-यात्रा के प्रस्ताव को निरस्त कर देती। मुखर्जी और गुप्ता दोनो ने बड़ी चालाकी के साथ इस प्रस्ताव को केंसल करवा दिया। कुछ न कुछ बहाना बनाकर अपनी विदेश यात्रा को टलवा दिया था।

कमल के पत्ते के ऊपर पानी की एक बूँद की तरह डगमगा रही है अभी जिंदगी, एक बार घर से बाहर निकले तो जिंदा घर वापस आओगे, उसकी भी कोई गारंटी नहीं। हर दिन कुछ न कुछ लोग आतंकवाद का शिकार बनेंगे, आजकल यह एक आम बात हो गई है। इसी दौरान कूकी ने बांग्लादेश का एक अखबार पढ़ा था। शायद वह अखबार प्रथम आलो या इत्तेफाक या युगांतर था। किसी ने अपने आलेख में कवि काजी नजरुल इस्लाम की कविता का उदाहरण देते हुए लिखा था "मऊ-लोभी" "मऊ लभी" अर्थात् महु लोभी मतलब मौलवी। कवि काजी नजरुल इस्लाम के अनुसार शहद का लोभी मौलवी होता है। मरने के उपरांत जन्नत में ऐशो आराम और हूर परियों को पाना ही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है। आजकल कौमी मदरसों में भी यह सिखाया जाता है कि मरने के बाद जन्नत में केवल जेहादी लोग ही हूरों के साथ सुख-शांति से रह सकते हैं। जो भी मुस्लिम जेहादी बनकर जितने काफिरों को मौत के घाट उतारेगा, उसे उतनी ही ज्यादा हूरों का आनंद मिलेगा।

उस आलेख को पढ़कर कूकी को अचरज होने लगा था। क्या इस दुनिया में परियों का अभाव है? प्रेम, खुशी और संभोग का इतना अभाव? जिस जन्नत को हमने कभी देखा नहीं। जन्नत है भी या नहीं? उसके नाम पर मौत को गले लगाने का क्या तात्पर्य है?

तो क्या वास्तव में जन्नत में हूरों के साथ संभोग करने की प्रबल इच्छा के कारण चारो तरफ आंतकवाद की यह आग फैली हुई है? शायद नहीं, यह बात गलत है। उन कुबेरपति राष्ट्रों से पूछिए। उन महत्वाकांक्षी देशों से जवाब तलब कीजिए जो आतंकवादी षडयंत्रों को रचकर सालों-साल से निरीह मासूम इंसानों के ऊपर जुल्म ढाते आ रहे हैं।

पूछिए, अमेरिका से पूछिए। अफगानिस्तान से रुस की सेना को हटाने के लिए जिन आयुधों और अपनी सेना का उपयोग किया था, जिन ह्मदयहीन रोबोटों का निर्माण किया था। अब वह सेना कहाँ जाएगी? वे आयुध और वे रोबोट किस गड्ढे में गाड़े जाएँगे? वे लोग इतनी पुरानी तालीम को किस तरह भूल पाएँगे। गोला-बारुद, अस्त्र-शस्त्र तो हमेशा खून और जिंदगी माँगते हैं।

टी.वी. खोलते ही फिर मौत का वही नंगा नाच। मनहूस दिन था वह। कूकी फुर्सत में थी मगर शफीक के ई-मेल अपने कम्प्यूटर में खोज नहीं पा रही थी। मानो उस बमब्लास्ट ने उसको भी आहत कर दिया हो।वह पत्थर की मूरत बन गई थी। उसका मन धुँए और बारुद की गंध से पिकासो की पेंटिंग की तरह विकृत होता जा रहा था। मानो किसी ने प्रेम की भावना को गुलाब की पंखुडियों की तरह मसलकर फेंक दिया हो। सही मायने में प्रेम को पहचान पाना भी मुश्किल हो गया है। मगर वह कुछ दिन पहले तो केवल प्रेम के आधार पर ही अपनी जिंदगी गुजार रही थी।