बंद कमरा / भाग 2 / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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रुखसाना,
शब्द अधरों पर धरे के धरे रह गए,
सारी आवाज गले में दबकर रह गई
अभिव्यक्ति की सारी आर्द्रता सूख गई,
शब्दों के अर्थ अपना रूप बदलते गए,
तुम्हें खोजने के सारे प्रयासों में,
इन पहेली वाले शब्दों के साथ,
मुझे पूरी तरह बाहर निकाल दो
और बदल डालो मेरा व्यर्थ जीवन

इस बार शफीक ने एक छोटी कविता भेजी थी। यद्यपि शफीक की वह पेंटिंग ही उन दोनों के बीच में अपने संबंध का मुख्य आधार थी, उस पेंटिंग के अलावा कूकी को शफीक की दूसरी कोई पेंटिंग देखने का मौका नहीं मिला। इस बार जिस शफीक से वह मिली वह कवि था। उसका हर ई-मेल कविताओं से भरा रहता था।

पूछने पर उसने बताया "मैं पहले कवि नहीं था। तुमने ही मुझे कवि बनाया है। तुम्हारे प्यार ने ही मुझ कविता लिखने के लिए प्रेरित किया है। तुम भी कवयित्री बन सकती हो। अपनी सारी अनुभूतियों को समेटकर मेरे पास कविता के रूप में भेज सकती हो।"

लेकिन कूकी के लिए अनुभूतियों को कविता में पिरोना संभव नहीं होता था। क्या इसका मतलब उस आदमी की तुलना में कूकी के अंदर प्रेम की अनुभूतियाँ कम थी?

कूकी ने उत्तर दिया था, "तुम्हारी तरह मैं भाषा को तोड़ -मरोड़कर सही ढंग से सजा नहीं पाती हूँ। इसके अलावा मेरी भाषा इतनी शुद्ध भी नहीं।"

शफीक ने इस पर लिखा था, " जुबान में क्या रखा है? तुम तो इशारों से ही अपनी बात समझा देती हो, वही तो मेरे लिए काफी है।

शफीक की इस उदारता ने कूकी पर प्रभाव डाला था। वह आदमी कूकी को अथाह प्यार करता है, इसलिए भारत जैसे अनजान देश के राजनैतिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक वातावरण के बारे में बहुत कुछ जानने के लिए लाइब्रेरी से इन विषयों पर कई किताबें इकट्ठा कर पढ़ना शुरु किया था। इतना ही नहीं, रोजाना थोड़ा-थोड़ा करके कूकी से उसकी मातृभाषा भी सीखते हुए कूकी के नाम एक संदेश लिखा था। "मैं तुमसे प्यार करता हूँ। इस छोटे से वाक्य को कहने के लिए मैने सारा संसार ढूँढ लिया है। जैसे

लैटिन में - 'ते आमो।'

ग्रीक में - 'जे ताइमा।'

पुर्तगाली में - 'आमो।'

स्वीडिश में - 'जम ए लश्कर डिग।'

हिब्रू में - 'आनि ओहेब ओटेक।'

स्पेनिश, डच, जापानी, एल्बेनियन, मोरक्को, पोलिश, रशियन इसी प्रकार विश्व की अड़तीस भाषाओं में अपने मनोभाव को प्रकट किया था। अंत में लिखा था इन सभी के अर्थ मालूम हैं? इन सभी का अर्थ है- आई लव यू।

कूकी पढ़ते-पढ़ते थक गई और मन ही मन हँसने लगी। दो-चार को छोड़कर बाकी सब को याद रखना कूकी के लिए संभव नही था। ऐसे एक पागल इंसान के बारे मे वह और ज्यादा क्या कहती?

अट्ठारह वर्ष का एक नटखट लड़का? या एक जीनियस? जंगली अथवा सृजनशील? इस बार कूकी ने उसको संबोधित करते हुए लिखा था "माई हॉट एण्ड स्वीट हमबर्गर।"

"हमबर्गर? मैं तुम्हारा हरबर्गर क्यों?" शफीक ने पूछा था।

"इसका कारण यह है तुम्हारे अंदर एक बुजुर्ग की बुद्धिमता के साथ-साथ एक युवक की यौवनसुलभ चंचलता भी है।"

कूकी की प्रशंसा भरी बातों को सुनकर शफीक का मन प्रफुल्लित हो गया था। कूकी कभी उसको 'सूरज' के नाम से तो कभी 'बरगद के पेड़' के नाम से संबोधित करती थी। कि वह उसका निर्भय आश्रय स्थली होने के साथ-साथ एक अटूट आश्वासन की छाया प्रदान करने वाला था। शफीक हमेशा कूकी के इस तरह के हास्यास्पद तथा सृजनशील संबोधनों की खुले दिल से तारीफ किया करता था, जैसे वे दोनों 'भाषा का खेल' खेल रहे हो।

एक बार कूकी आठ दिन के लिए बाहर गई हुई थी, जब वह वापस घर लौटी तो उसने देखा कि उसके मेल- इनबाक्स में कई मेल आए हुए थे। उस आदमी की बैचेनी वास्तव में किसी को भी व्याकुल कर देने वाली थी, जैसे कि उसकी कोई कीमती चीज किसी भीड़ के अंदर खो गई हो। और वह उस भीड़ के अंदर अपनी खोई हुई मणि को नहीं खोज पा रहा हो। उसकी अवस्था ठीक उसी तरह थी जैसे बिन पानी तड़पती मछली।

उसने लिखा था :-

तुम्हारे बिना एक सप्ताह
जैसे कि बिना पवन का एक पल
बिना पानी का एक दिन
बिना भोजन के कई दिन
तुम्हारे बिना एक सप्ताह
जैसे कि बिना धूप-छाँव का एक महीना
तुम्हें सुने बिना एक सप्ताह
जैसे कि एक साल का गुजर जाना
बिना संगीत, बिना पंक्षियों की चहचहाट
बिना बारिश की बूँदे, बिना बादलों की गड़गड़ाहट
तुम्हारे सहचर्य के बिना एक सप्ताह
नींदविहीन रातें, विश्रामविहीन हृदयगति
बीत जाते हैं सारे दिन सौन्दर्य हीनता में
जिधर देखता हूँ मेरे चारों तरफ सब कुरुप ही कुरुप
सुंदरता तो है केवल तुम्हारे अधरों की मुस्कान में
तुमसे बिना बातें किए एक सप्ताह
मेरे लिए एक वर्ष के निर्वासन से कम नहीं
एक निर्जन द्वीप के भीतर किसी जंगल में
मेरे चारों तरफ असंख्य लोग होने के बावजूद भी
तुम्हारे बिना एक सप्ताह
किसी अगम्य स्थान में अकेले एक साल गुजारने जैसा
जहाँ जीवन जीवनहीनता में परिणित हो जाता हो।
प्रियतमा, तुम्हारे बिना एक सप्ताह .....

उसको मिले अनेक मेलों में में एक मेल ऐसा भी था जिसमें एक पंक्ति इस तरह लिखी हुई थी, "मैं

तुम्हारे प्यार में अंधा हो गया हूँ मेरा हाथ थामने के लिए जल्दी लौटकर आओ।"

स्कूल या कॉलेज जमाने में ऐसी ही पंक्ति कूकी ने पढ़ी थी। शायद उड़िया कवि उपेन्द्र भांज द्वारा रचित थी "नया नया अंधा हुआ हो जैसे..."

कूकी अपने हर मेल को बहुत सोच समझ कर लिखती थी। उसके हर मेल तर्क संगत तथा आवेगविहीन होते थे। कूकी की भाषा इस प्रकार की होती थी मानो वह मालकिन हो और शफीक उसका सेवक। वह उसकी हर बात को महत्व देता था और उसके अनुसार चलने की कोशिश करता था। कभी-कभी कूकी को ऐसा लगता था मानो वह उसका शरारती बेटा है, जो अधिक लाड-प्यार पाकर आजकल बेलगाम हो गया था। कूकी उसको सही रास्ते पर लाने की कभी भी कोशिश नहीं करती थी। जबकि शफीक खुद ही उसके कदम के साथ अपने कदम मिलाकर एक दूसरी दुनिया की ओर बढता जा रहा था। जिस तरह कूकी की दुनिया उसके लिए आश्चर्यजनक थी, ठीक उसी तरह उसकी दुनिया कूकी के लिए।

एक बार शफीक ने अपनी आश्चर्यजनक दुनिया के रहस्यो पर से परदा हटाते हुए कहा था, "मैने आज तक बावन औरतों के साथ संभोग किया है। रुखसाना, क्या तुम्हारे पास इस प्रकार का कोई अनुभव है?"

उसके बाद अपनी बहादुरी दिखाते हुए उसने अपने गोपनीय सामूहिक सभोग के बारे में वर्णन किया था। उस 'मेल' को पढ़ने के बाद, पता नहीं क्यों, कूकी का मन खराब हो गया था। मानो एक ही झटके में कई दिनों की आस्था और विश्वास का स्तंभ टूटकर चूर-चूर हो गया हो। एक लंपट आदमी के साथ इतने दिनों से जुड़ी हुई थी कूकी। छिः! जिस आदमी को वह प्यार करती है, वह आदमी अपने पतन के अंतिम छोर तक पहुँचा हुआ है। ऐसे एक पतित आदमी के चक्कर में फँस गई है वह? वह अपने आपको मन ही मन धिक्कारने लगी। उसे लगने लगा था कि उसे भावनात्मक रूप से प्रताड़ित किया गया है। उसके बारे में वह जितनी गहराई से सोचती जा रही थी, उतनी ही अधिक वह अपने आपको अंधेरेगर्त में पा रही थी।

ऐसे इंसान के साथ पहले कभी कूकी का परिचय नहीं हुआ था। परपुरुष व परस्त्री-गमन के बारे में उसने पहले से थोड़ा बहुत सुन रखा था। अपने मन में कभी किसी के प्रति आकर्षण पैदा होने पर वह तुरंत अगले पल अपनी सारी दुर्बलताओं और वासनाओं को धो डालती थी जैसे कि गंदे हाथों को साबुन से धोना।

इसका मतलब इतने बड़े संसार में एक ऐसी भी दुनिया है? यद्यपि ऐसी कुछ बातें कूकी के कान में आई थी, उनकी सोसायटी के कुछ लोग भी इस तरह की गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। टेलीवीजन के कुचर्चित कार्यक्रमों से भी उसको इसी तरह की कुछ-कुछ बातों की भनक लगी थी। वह सोच भी नहीं पा रही थी, कैसी-कैसी मनोस्थिति वाले लोग इस दुनिया में रहते हैं? उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। मानो अचानक तबीयत खराब हो गई हो। उसे लग रहा था जैसे कि कोई अनावश्यक और अव्यक्त चीज उल्टी के रुप में बाहर निकल जाएगी। शफीक के सामूहिक संभोग के सारे गोपनीय दृश्य उसके दिमाग में एक-एक करके घूम रहे थे। उसके बारे में सोच-सोचकर उसका सिर फटे जा रहा था।

कूकी ने शफीक को कभी प्रत्यक्ष देखा नहीं था। कूकी के पास उसका एक मात्र वही फोटो या जिसको उसने शुरु-शुरु में कूकी के पास भेजा था। उसी फोटो को देखकर कूकी कल्पना कर रही थी, इसी आदमी ने इतना कुकर्म किया है। शफीक के लिए जो स्वर्गीय आनंद उसके लिए वह सब नारकीय वासना थी।

क्यों उसने ऐसे लंपट आदमी के साथ इतने दिनों तक अपना संबंध बनाए रखा? उसके साथ संबंध जोड़ना तथा उसको हमेशा अपने दिल में संभालकर रखना महज एक कल्पना नहीं थी? वर्तमान को आनंद से जिओ। रही आने वाले कल की बात, उसे कल के भरोसे छोड़ दो।

क्या कोई इंसान अपने लिए जीता है? उसके चार बच्चे कैसे होंगे? जिनके माँ-बाप रातभर नाइट क्लबों में ऐशो आराम की जिंदगी जी रहे होंगे। घर में बच्चों को कौन पढ़ाता होगा, ए फॉर एपल और (ए प्लस बी) का वर्ग...? बच्चों के दिमाग पर क्या गुजरती होगी?

पता नहीं क्यों, कूकी उस आदमी की जीवन शैली को लेकर बहुत दुखी हो गई? जब उसे उस आदमी की वह पंक्ति याद आ जाती थी, "मैने अपने जीवन में बावन अलग-अलग औरतों के साथ संभोग किया है।" उसे सोच-सोचकर उबकाइयाँ आने लगती थी। कैसी धारणा रखता है वह औरतों के बारे में? केवल शारीरिक सुख देने वाली मशीन? हृदय नाम की चीज क्या खो गई है उसकी दुनिया से? उसकी अपनी दुनिया में हृदय, मन आवेग, रुचि जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते हैं। केवल शरीर ही सबकुछ है? पता नहीं, शफीक के अंदर हृदय नाम की कोई चीज है भी या नहीं।

इसका मतलब आज तक उस आदमी ने अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से उसे धोखा दिया है। उसने उसके साथ विश्वासघात किया है। शायद उसकी तालिका में अगला नंबर कूकी का होगा, तिरेपनवाँ? उस आदमी को भले ही कूकी को स्पर्श करने का अवसर नहीं मिला, मगर ई-मेल के जरिए वे दोनो एक दूसरे को पूरी तरह से उपभोग कर चुक थे। उसको एक ऐसे आदमी के सामने निर्वस्त्र होना पड़ा है जिसके पास कूकी के शरीर के अलावा किसी भी चीज का कोई महत्व नहीं था। यही सोचकर कूकी आत्मग्लानि से भर गई।

धीरे-धीरे कर कूकी का दुःख और पश्चाताप क्रोध में बदल रहा था। बेवजह वह किसी पर भी चिड़चिड़ा जाती थी। मानो उसका बसा-बसाया घर उज़ड़ गया हो। वह एक गलत आदमी का हाथ पकड़कर मानो अपना घर छोड़कर चली गई हो और किसी भी हालत में वह अपने घर वापस नहीं जा पाएगी। वह जरुरत से ज्यादा गंभीर रहने लगी। बच्चें और अनिकेत उसके इस तरह के बदले हुए व्यवहार से दुःखी हो गए थे। एक बार अनिकेत ने कूकी से पूछा - "कूकी, ऐसा तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है क्या? क्या फिर से पेट की वही पुरानी बीमारी सताने लगी है?"

कुकी थोड़ा चिड़चिड़ाते हुए बोली थी, "नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। अगर मेरे पेट में दर्द होता तो यह बात क्या मैं तुमसे छिपाती? कैसी बहकी-बहकी बातें करते हो आप भी?"

"अच्छा-खासा घर में बैठी हुई हो, मेरी तरह आफिस में आठ-दस घंटे ड्यूटी करनी नहीं पड़ती है। फिर भी हमेशा गंभीर मुद्रा बनाकर क्यों रहती हो? क्या घर से कोई फोन आया था?"

"नहीं, मुझे ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। मैं भला गंभीर क्यों रहूँगी?"

कूकी मन ही मन सोचने लगी थी, क्या अनिकेत उसका चेहरा देखकर उसके मन की सारी बातें पढ़ ली है? अपने चेहरे की बदली भाव-भंगिमाओं को छुपाने का प्रयास करते हुए कूकी कहने लगी, "क्या हर समय नाचते-कूदते रहना चाहिए? 'हा हा ही ही' करते रहना चाहिए? अगर कोई कुछ समय के लिए चुप्पी बांध ले तो इसका मतलब कतई यह तो नहीं है कि उसकी दुनिया में कोई तूफान आया हो।"

छोटे बेटे ने कहा, "मम्मी, आप जब इतना चुपचाप रहती हो तो हमें यह घर काटने दौड़ता है।"

अनिकेत ने कहा, "अपनी मम्मी को कुछ मत बोलो, बेटा। पता नहीं क्यों, उसका मूड़ अच्छा नहीं है।"

कूकी के मस्तिष्क में यह बात कौंध रही थी, क्या कहीं वास्तव में उसकी मनोस्थिति उसके चेहरे पर एक काले बादल की तरह उमड़-धुमड़ रही है। उसकी छाती में दर्द के काँटे चुभ रहे थे। वह किसी दूसरे से यह बात कैसे करती? दो नाव में पाँव रखकर क्या वह चल पाएगी? उसके निरीह परिवार के प्रति क्या वह अन्याय नहीं कर रही है? कूकी ने बहुत सोच-समझकर अंतिम निर्णय लिया कि आज के बाद वह कभी भी अपने मन को उधर भटकने नहीं देगी। मन के उस दरवाजे को वह हमेशा- हमेशा के लिए बंद कर देगी।

इधर अनिकेत ने दोनों बच्चों को अच्छी तरह समझा दिया था कि उनमे से कोई भी कूकी को बिना मतलब का परेशान न करे। यह सुनकर दोनो बच्चें अपनी दुनिया में व्यस्त रहने लगे। अनिकेत भी जब घर में रहता था या तो अखबार या फिर दूरदर्शन की खबरों में मशगूल रहने लगा था। कूकी को अपना घर किसी श्मशान-घाट से कम नहीं लगता था।

अगले दिन कूकी चुपचाप अपने बिस्तर पर पड़ी रही थी। वह यह भी भूल गई थी कि वह किसी की पत्नी तथा किसी की माँ भी है। जब तक वह रसोई नहीं बनाएगी, उन लोगों का पेट कैसे भरेगा? अनिकेत भी दूरदर्शन की खबरें सुनते-सुनते बोर होकर अचानक उठकर उसके पास चला जाता था तथा उससे पूछने लगता था, "बहुत ज्यादा खराब लग रहा है? कुछ दवाई दूँ? चले, एक बार जाकर किसी डॉक्टर को दिखा देते हैं।"

"तुम व्यर्थ में परेशान मत होओ। थोड़ी देर बाद उठकर मैं घर के सारे काम निपटा लूँगी।"

"रहने दो, थोड़ा और आराम कर लो, आज हम सभी ब्रैड -आमलेट खाकर अपना काम चला लेंगे। क्या कह रहे हो बच्चो? ब्रैड -आमलेट खाओगे न?"

"हाँ पिताजी, खा लेंगे। लेकिन एक दिन आप हमें पिज्जा जरुर खिलाना। ठीक है? छोटे बेटे ने कहा।

कूकी अपने आपको भयंकर आहत अनुभव कर रही थी। यह क्या हो गया सब? जहाँ उस पर जान छिड़कने वाला एक भरापूरा परिवार उसके इर्द-गिर्द घूम रहा है तब भी उसे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे उसका सारा घर संसार उजड़ गया हो? वह अपना मुँह लटकाए ऐसे क्यों बैठी है? अपनी स्वार्थगत आकांक्षा, आशा, प्रेम, घृणा से परे भी उसकी कोई न कोई भूमिका बनती है अपने परिवार के लिए। अपने दायित्वों के निवर्हन से दूर भागना क्या उचित है?

इसी अंतर्द्वंद्व में उलझी कूकी खाना बनाने के लिए जल्दी से उठकर तैयार हो गई। मगर उसको दिल से प्यार करने वाले परिवार ने उसे कोई भी काम करने की इजाजत नहीं दी और उसे छोड़ दिया ऐसे ही दुःख के महासागर में गोते लगाने।

अगले दिन जब सब अपने-अपने काम पर चले गए थे तब कूकी के अभ्यस्त कदम अपने आप कम्प्यूटर की तरफ बढ़ गए। और कुछ ही क्षण में उसके हठी मन ने एक बार फिर खोल दिया इंटरनेट का पिटारा। वह सोच रही थी शायद उसका उत्तर नहीं पाकर उस आदमी ने अवश्य कोई न कोई मेल किया होगा। एक जवान लड़की की तरह अपने प्रेमी से मिलने की असह्र तड़प उसके सीने की धड़कनों को बढ़ा दे रही थी। की-बोर्ड पर अंगुलियाँ अपने आप थिरकने लगी। जब उसने अपना ई-मेल आई.डी खोला, तो उसने देखा कि इनबॉक्स खाली था। कोई भी संदेश उसके नाम का नहीं आया था।

मगर ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था जब वह किसी काम से घर से बाहर रहती थी तब भी उसके नाम का कोई न कोई मैसेज इनबॉक्स में अवश्य मिलता था।। फिर आज ऐसा क्या हो गया उसका कोई मैसेज नहीं आया हुआ था इनबॉक्स में? कहीं ऐसा तो नहीं है वह आदमी कूकी के प्रेमपाश से मुक्त होना चाह रहा हो? शायद यही कारण रहा होगा कि उसने कूकी को बावन स्त्रियों के साथ अपने यौन-संबंधों के बारे में सविस्तार बताया था। क्या वह यही चाहता था कि उन यौन-संबंधों के बारे में जानकर कूकी के मन में घृणा के भाव जागृत हो जाए तथा वह अपने आप उससे कटकर बहुत दूर चली जाए?

उसदिन कूकी ने कम के कम पाँच-छह बार इंटरनेट लगाकर देखा था कि कहीं उसे नाम का कोई मैसेज आ गया हो। जितनी बार वह इंटरनेट लगाती थी, अपने नाम कोई मेसेज न पाकर उतनी ही ज्यादा निराश हो जाती थी। सोच-सोचकर वह बेहाल हो जाती थी। किसके सामने वह अपने इस दुःख को प्रकट करेगी? वह कोई राधा तो नहीं थी जो अपनी सखियों को बुलाकर कहती, "हे विशाखा सुनो, हे ललिता सुनो, तुम मेरी खास सखियाँ हो इसलिए पूछ रही हूँ। मेरा मन प्रेम की अग्नि से जल रहा है, कैसे उसको शांत करुँ? उसका कोई रास्ता बताओ।" थक-हारकर दुखी होकर वह अपने खाली घर के अंदर बहुत जोर से चिल्लाने लगी, "शफीक, तुम कहाँ हो?"

अपनी व्यग्रता पर काबू पाने के लिए कूकी बिना किसी मन के, टी.वी. लगाकर देखने लगी। मगर टी.वी. पर आने वाला कोई भी धारावाहिक उसके दिल को छू नहीं रहा था। वह शांति से सोना चाहती थी

मगर उसकी आँखों में नींद कहाँ? वह शफीक के ख्यालों में इस तरह डूबी हुई थी कि उसे कोई भी चीज समझ में नहीं आ रही थी रह-रहकर शफीक की बातें याद आने लगती थी,

"तुम्हारे भीतर मैने अपने अस्तित्व को मिटा दिया
तुम्हारे बिना मैं अपने आप को खोजते हुए पाता हूँ
एक बार फिर से खो जाने के लिए।"

कूकी अपने गम भूलाने के लिए सोच रही थी कि वह अपने पडोसी के घर चली जाए। कम से कम अपने पड़ोसियों से कुछ बातचीत करेगी तो अपने दिल के दुःख भूल जाएगी। पिछली रात के दुख की तुलना में आज रात का दुख पूरी तरह अलग था। पिछले रात के दुख के पीछे अपमान-बोध एक मुख्य कारण था, जिसमें जड़ा हुआ था आत्मग्लानि का एक मनोभाव। उसे बहुत बड़ा धोखा हुआ है एक लंपट के हाथों। उस आदमी ने उसके सच्चेपन, उसके गांभीर्य और उसके अहंकार को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है और वह मानो अट्टाहास करते हुए कह रहा हो, "तुम जानती हो, मैं किसी भी औरत का दिल जीत सकता हूँ।"

एक लंपट के हाथों अपमानित होने का दुख नहीं था अगले दिन। दुख तो था उसे अगले दिन अपने आप से हारने का, अपने प्रियतम को खो देने का। वह शफीक को किसी भी हालात में खोना नहीं चाहती थी। पिछली रात का वह अपमान-बोध, वह पश्चाताप जैसे कि उसके मन से गायब हो चुके थे।

दो दिन के बाद कूकी ने देखा उसके नाम का एक ई-मेल आया हुआ था।

"ऐसा क्या हो गया है तुम्हें? तुम कुछ भी उत्तर नहीं दे रही हो?क्या तुम्हारी तबीयत खराब है? या घर में कोई दिक्कत है? या फिर कहीं बाहर चली गई हो मुझे बिना बताए? क्या मेरे मेल से तुम्हें किसी प्रकार का दुःख पहुँचा है?

जैसे कि वह आदमी बुरी तरह झुंझला गया हो।

"मुझे पता नहीं क्यों, मैने तुम्हे मिस किया जितना ज्यादा कर सकता था, उससे ज्यादा मिस किया।"

कूकी का जीवन एक बार फिर से सुवासित हो उठा। उसके अधरों पर मुसकान छाने लगी। उसके घर में फिर से एक बार उजाला हो गया। उसे ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उसके रास्ते में पडे हुए पत्थर को दरकिनार कर दिया हो। अब सब-कुछ धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से चलने लगेगा। किसी को कानो कान पता भी नहीं चलेगा उसकी हँसती-रोती दुनिया के बारे में।

एक बार फिर कूकी लौट आई कम्प्यूटर के पास, एक नशेड़ी आदमी की तरह। प्रेम की परिभाषा के बारे में लिखते-लिखते अनजाने में उसने उस आदमी की भर्त्सना करते हुए कुछ वाक्य लिख दिए।

"एक रेंगते हुए केटरपिलर की जिंदगी जीने से क्या लाभ ? प्रेमविहीन होकर केवल शारीरिक सुख की लालसा रखने वाले किसी भी आदमी की तुलना उस कुत्सित रेंगते हुए केटरपिलर के अलावा किसके साथ की जा सकती है? क्या तुम्हारे दिमाग में यह बात है कि मैने किसी शारीरिक सुख की खातिर तुम्हारे साथ संबंध स्थापित किया है? काश! मुझे ये बातें पहले से मालूम होती।"

"तुमने दूसरी बार फिर मेरा अपमान किया है। तुमने वापस मुझे केटरपिलर के नाम से गाली दी है।" शफीक ने लिखा था।

"हाँ मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कभी मेरा जीवन एक रेंगते हुए केटरपिलर की तरह हुआ करता था। हाँ, मैने जवानी के जोश में हर रात तरह-तरह की औरतों को भोगा है। लेकिन रूखसाना, तुम वह पहली औरत हो, जिसने मुझे निस्वार्थ और निश्छल प्रेम की ओर आकर्षित किया है। किसी दूसरी औरत के साथ तुम्हारी तुलना कतई नहीं की जा सकती। एक दिन यह बात मैं तुम्हें सिद्ध करके दिखा दूँगा कि सही मायने में मैं तुमको कितना प्यार करता हूँ। मैं तुम्हारा दिल से सम्मान करता हूँ। "आइ विल प्रूफ इट वन डे। डोंट लीव मी। आइ बो माय हेड़ आन योर फिट, फॉरगिव मी, बट डोंट लीव मी। प्लीज़ डोन्ट काल मी केटरपिलर।"