भाग - 10 / मेरे मुँह में ख़ाक / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

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चाँद-चेहरों के लिए सीखे हैं

सुप्रसिद्ध शायर मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी शायरी के तीन रंग बताए हैं। पाप-पूर्ण, श्रृंगार-पूर्ण और आध्यात्म-पूर्ण। मौलाना की तरह चक्की की मेहनत तो बड़ी बात है, मिर्जा अब्दुल वदूद बेग ने तो काव्याभ्यास से भी मन पर बोझ नहीं डाला फिर भी वह अपनी कला (फोटोग्राफी) को इन्हीं तीन जानलेवा युगों में बाँटते हैं। यह और बात है कि उनके यहाँ यह क्रम बिल्कुल उल्टा है। रहे हम तो हम अभी रूसो की तरह इतने बड़े आदमी नहीं हुए कि अपने ऊपर सार्वजनिक रूप से पाप और बदचलनी का इल्जाम लगाने के बाद भी अपने और पुलिस के बीच एक सम्मानित दूरी बनाए रख सकें लेकिन वास्तविकता यह है कि मिर्जा की तरह हम भी कला के मारे हुए हैं और हमारा नाता भी इस कला से उतना ही पुराना है। जहाँ तक याद पड़ता है स्लेट पर 'कलम गोयद कि मन शाहे-जहानम' (लेखनी ने कहा कि मैं संसार का शासक हूँ) लिख-लिख कर खुद को गुमराह करने से पहले हम कोडक ब्राउन कैमरे का बटन दबाना सीख चुके थे लेकिन जिस दिन से मिर्जा की खींची एक नंगी खुली तस्वीर (जिसे वह फिगर स्टडी कहते हैं) को लंदन की एक पत्रिका ने मुद्रण के जेवरों से सजाया, हमारी अकुशलता के नए-नए पहलू उन पर उजागर होते रहते हैं।

मिर्जा जब से बोलना सीखे हैं अपनी जुबान को हम पर अभ्यास कराते रहते हैं और अक्सर उपमा और यमक अलंकार से मामूली गाली-गलौज में एक साहित्यिक मान पैदा कर देते हैं। अभी कल की बात है कहने लगे, 'यार बुरा मत मानना, तुम्हारी कला में कोई प्लॉट - कोई पेंच, मेरा मतलब है, कोई मोड़ नजर नहीं आता।' हमने कहा, 'प्लॉट तो उर्दू नाविलों में होता है, जिंदगी में कहाँ?' बोले, 'हाँ! ठीक कहते हो, तुम्हारा छायांकन भी तुम्हारी जिंदगी ही की छाया है। यानी एक सिरे से जलील होने की अनुसरण न हो सकने वाली शैली।'

हरचंद कि यह बीन बजाना हमारे काम न आया लेकिन यही क्या कम है कि मिर्जा जैसे बुद्धिमान कान पकड़ते हैं और हमारे तुच्छ जीवन को उच्च शैक्षिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करते हैं। यानी उसे सामने रख कर अपनी संतान को उपदेश देते हैं, शिक्षा देते हैं और चेतावनी देते तथा डाँट-डपट करते हैं। इन पन्नों में हम अपनी जीवन-शैली के कारक और व्याख्या देकर पाठकों के हाथ में नाकामी की कुंजी नहीं देना चाहते। अलबत्ता इतना जुरूर निवेदन करेंगे कि मिर्जा की तरह हम अपनी नालायकी को क्रमिक विकास के युगों में नहीं बाँट सकते, लेकिन जो सज्जन हमारी लज्जित हुई रुचि की कथा पढ़ने का कलेजा रखते हैं वो देखेंगे कि हम सदा से हाजिओं के पासपोर्ट, फोटो और ऐतिहासिक खंडहरों के चित्र ही नहीं उतारते रहे हैं।

गुजर चुकी है ये फस्ले-बहार हम पर भी

लेकिन हम किस गिनती में हैं। मिर्जा अपने आगे बड़े-बड़े फोटोग्राफरों को तुच्छ समझते हैं। एक दिन हमने पूछा, 'मिर्जा! दुनिया में सबसे बड़ा फोटोग्राफर कौन है? यूसुफ कार्श या सिसिल बेटन?' मुस्कुराते हुए बोले, 'तुमने वह दंत-कथा नहीं सुनी? किसी नादान ने मजनूँ से पूछा, खिलाफत पर हक हुसैन का है या यजीद का? बोला, अगर सच पूछो तो लैला का है।'

इधर चंद साल से हमने यह परिपाटी बना ली है कि हफ्ते भर शारीरिक और मानसिक टूट-फूट के बाद इतवार को मुकम्मल SABATH (यहूदी और ईसाई ग्रंथों के अनुसार आराम का दिन) मनाते हैं और सनीचर की मनौतियों भरी शाम से सोमवार की अशुभ सुबह तक हर वह क्रिया अपने ऊपर हराम कर लेते हैं जिसमें कार्य का मामूली सा शक या आशंका हो। छह दिन दुनिया के, एक दिन अपना (मिर्जा तो इतवार के दिन इतना आजाद और खुला-खुला महसूस करते हैं कि सुबह की नमाज के बाद दुआ नहीं माँगते और सोमवार की कल्पना से ही उनका जी इतना उलझता है कि एक दिन कहने लगे, इतवार अगर सोमवार के दिन हुआ करता, तो क्या ही अच्छा होता।) यह बात नहीं कि हम मेहनत से जी चुराते हैं। जिस व्यस्तता में (फोटाग्राफी) इतवार गुजरता है, उसमें मेहनत तो उतनी ही पड़ती है जितनी दफ्तरी काम में लेकिन फोटोग्राफी में भेजा भी इस्तेमाल करना पड़ता है और मॉडल अगर सीधे न बैठने वाले बच्चे हों तो न केवल अधिक बल्कि बार-बार इस्तेमाल करना पड़ता है। इससे बचने के लिए मिर्जा ने अब हमें कुछ उस्तादों के गुर सिखा दिए हैं। मसलन एक तो यही कि पक्षियों और बच्चों का चित्र खींचते समय केवल आँख पर फोकस करना चाहिए कि उनका सारा व्यक्तित्व खिंचकर आँख में आ जाता है और जिस दिन उनकी आँख में ये चमक न रही, दुनिया अंधेर हो जाएगी। दूसरे यह कि जिस बच्चे पर तुम्हें प्यार न आए, उसकी तस्वीर हरगिज न खींचियो। फ्रांस में एक स्तर-प्रेमी चित्रकार गुजरा है जो असील घोड़ों के चित्रांकन में सिद्धहस्त था। कला की उत्कृष्टता उसे इतनी प्यारी थी कि जो घोड़ा दोगला या बीस हजार फ्रैंक से कम कीमत का हो उसकी तस्वीर हरगिज नहीं बनाता था। चाहे उसका मालिक बीस हजार मेहनताना ही क्यों न पेश करे।

महीना याद नहीं रहा। शायद दिसंबर था। दिन अलबत्ता याद है इसलिए कि इतवार था और उपरोक्त उल्लिखित नियमों से लैस। हम स्वयं पर साप्ताहिक बेध्यानी लादे हुए थे। घर में हमारे प्रिय पड़ोसी की बच्ची नाजिया, अपनी सैफू (सियामी) बिल्ली की मानवाकार तस्वीर खिंचवाने आई हुई थी। मानवाकार से तात्पर्य शेर के बराबर था। कहने लगी, 'अंकल! जल्दी से हमारी बिल्ली का फोटो खींच दीजिए। हम अपनी गुड़िया को अकेला छोड़ आए हैं। कल सुबह से बिचारी के पेट में दर्द है। जभी तो कल हम स्कूल नहीं गए।' हमने झटपट कैमरे में तेज-रफ्तार फिल्म डाली। तीनों फ्लड लैंप ठिकाने से अपनी जगह रखे। फिर बिल्ली को दबोच-दबोच के मेज पर बैठाया और उसके मुँह पर मुस्कुराहट लाने के लिए नाजिया प्लास्टिक का चूहा हाथ में पकड़े सामने खड़ी हो गई। हम बटन दबाकर 1/100 सेकेंड में उस मुस्कुराहट को अमरत्व प्रदान करने वाले थे कि फाटक की घंटी इस जोर से बजी के सैफू उछलकर कैमरे पर गिरी और कैमरा कालीन पर। दोनों को इसी हालत में छोड़ कर हम असमय आने वालों के स्वागत को दौड़े।

अर्पित करूँगा आपको हज का सवाब मैं

फाटक पर शेख मुहम्मद शम्सुल हक खड़े मुस्कुरा रहे थे। उनकी ओट से रुई के दगले में लिपटे एक और बुजुर्ग प्रकट हुए जिन पर नजर पड़ते ही नाजिया ताली बजा के कहने लगीः

'हाय! कैसा क्यूट सेंटाक्लाज है।'

यह शेख मुहम्मद शम्सुल हक के श्रद्धेय मामूजान निकले जो हज को तशरीफ ले जा रहे थे और हम दोनों जन को पुण्य में शरीक करने के लिए ग्राम चाकसू से अपना पासपोर्ट फोटो खिंचवाने आए थे।

'मामूजान तो हठ कर रहे थे कि फोटोग्राफर के पास ले चलो, बला से पैसे लग जाएँ, तस्वीर तो ढंग की आएगी। बड़ी मुश्किलों से यहाँ आने के लिए माने हैं।' उन्होंने अपने अवतरित होने का कारण बताया।

ड्राइंग रूम में घुसते ही शेख मुहम्मद शम्सुल हक के मामूजान किबला दीवारों पर पंक्तिबद्ध सजे सुंदरियों के चित्रों को आँखें फाड़-फाड़ कर देखने लगे। हर तस्वीर देखने के बाद मुड़कर एक बार हमारी सूरत जुरूर देखते। फिर दूसरी तस्वीर की बारी आती और एक बार फिर वह हम पर निगाह डालते जो किसी तरह कुत्सित न थी। जिन नजरों से वे ये तस्वीरें देख रहे थे उन से स्पष्ट था कि इस दृष्टि के मालिक का संबंध उस नस्ल से है जिसने रुपए पर बनी रानी विक्टोरिया के बाद किसी औरत की तस्वीर नहीं देखी। एक बाँकी-सी तस्वीर को जरा पास जाकर देखा। लाहौल पढ़ी और पूछा, 'ये आपके लड़के ने खींची है?' निवेदन किया, 'जी नहीं, वो तो तीन साल से सातवीं में पढ़ रहा है।' बोले, 'हमारा भी यही विचार था, एहतियातन पूछ लिया।'

शेख मुहम्मद शम्सुल हक के मामूजान किबला (अपनी और कंपोजीटर की आसानी के लिए आगे उन्हें सिर्फ मामू लिखा जाएगा। जिन पाठकों को बुरा लगे वो हर बार मामू की जगह, शेख मुहम्मद शम्सुल हक के मामूजान किबला, पढ़ें) हमारे मार्ग-दर्शन के लिए अपने स्वर्गीय ताया की एक मिटी-मिटाई तस्वीर साथ लाए थे। शीशम के फ्रेम को मेंहदी रचे अँगोछे से झाड़ते हुए बोले, 'ऐसी खींच दीजिए।' हमने तस्वीर को गौर से देखा तो पता चला कि मामू के बुढ़ऊ-ताऊ भी वही रुई का दगला पहने खड़े हैं जिस पर उल्टी कैरियाँ बनी हुई हैं। तलवार को बड़ी मजबूती से पकड़ रखा है - झाड़ू की तरह। निवेदन किया, 'श्रद्धेय पासपोर्ट फोटो में तलवार की इजाजत नहीं।' फरमाया, 'आपको हमारे हाथ में तलवार नजर आ रही है?' हम बहुत कटे, इसलिए कि मामू के हाथ में वाकई कुछ भी नहीं था सिवाय एक हानिरहित गुलाब के, जिसे सूँघते हुए वह पासपोर्ट फोटो खिंचवाना चाहते थे।

मामू के कान 'ट' की तरह थे, बाहर को निकले हुए। इससे यह न समझा जाए कि हम शारीरिक विकार का उपहास कर रहे हैं। अस्ल में इस उपमा से हम कानों की लाभदायकता प्रदर्शित करना चाहते हैं क्योंकि ईश्वर न करे कानों की बनावट ऐसी न होती तो उनकी तुर्की टोपी सारे चेहरे को ढक लेती, प्रारंभिक तैयारियों के बाद बड़ी खुशामद करके उन्हें फोटो के लिए कुर्सी पर बिठाया। किसी तरह नहीं बैठते थे। कहते थे, 'भला यह कैसे हो सकता है कि आप खड़े रहें और मैं बैठ जाऊँ।' खुदा-खुदा करके वह बैठे तो हमने देखा कि उनकी गरदन हिलती है। स्पष्ट है हमें इस प्राकृतिक कंपन पर क्या आपत्ति हो सकती थी। अस्ल मुसीबत यह थी कि गरदन अगर दो सेकेंड हिलती तो टोपी का फुंदना दो मिनट तक हिलता रहता। इन दोनों कार्यक्रमों के एक अद्वितीय अंतराल में हमने 'रेडी' कहा तो दृश्य ही कुछ और था। एकदम अकड़ गए और ऐसे अकड़े कि बदन पर कहीं भी हथौड़ी मार कर देखें तो टन-टन आवाज निकले। डेढ़-दो मिनट बाद तीसरी बार रेडी कह कर कैमरे के छेद से देखा तो चेहरे से डर लगने लगा। गरदन पर एक रस्सी जैसी नस न जाने कहाँ से उभर आई थी। चेहरा लाल, आँखें उस से अधिक लाल। अचानक एक अजीब आवाज आई अगर हम उनके मुँह की तरफ न देख रहे होते तो यकीनन यही समझते कि किसी ने साइकिल की हवा निकाल दी है।

'अब तो साँस ले लूँ?', सारे कमरे की हवा अपनी नाक से पंप करते हुए पूछने लगे। अब सवाल यह नहीं था कि तस्वीर कैसी और किस पोज में खींची जाए। सवाल यह था कि उनकी श्वसन-क्रिया को कैसे जारी रखा जाए कि तस्वीर भी खिंच जाए और हम इरादतन कत्ल से भी बच जाएँ। अपनी निगरानी में उन्हें दो-चार साँस ही लिवा पाए थे कि मस्जिद से अजान की आवाज बुलंद हुई और पहली 'अल्लाहो-अकबर' के बाद, मगर दूसरी से पहले मामू कुर्सी से हड़बड़ा के उठ खड़े हुए। शीशे के जग से वुजू किया। पूछा, 'मक्का किस तरफ है?' हमारे मुँह से निकल गया, 'पश्चिम की तरफ।' बोले, 'हमारा भी यही विचार था मगर एहतियातन पूछ लिया।' इसके बाद नमाज की चटाई माँगी।

मामू ने पलंगपोश पर दोपहर की नमाज पढ़ी। आखिर में ऊँची आवाज में दुआ माँगी, जिसे वह लोग जिनका विश्वास थोड़ा कमजोर है, इच्छाओं की सूची कह सकते हैं। नमाज से निवृत्त हुए तो हमें संबोधित करके बड़ी नर्मी से बोले, 'चार फर्जों के बाद दो सुन्नतें पढ़ी जाती हैं। तीन सुन्नतें किसी नमाज में नहीं पढ़ी जातीं। कम-से-कम मुसलमानों में।'

दूसरे कमरे में खाने और आराम के बाद चाँदी की खिलाल से प्राचीन आदत के अनुसार अपने नकली दाँतों की रेखें कुरेदते हुए बोले, 'बेटा, तुम्हारी बीवी बहुत सुघड़ है। घर बहुत ही साफ-सुथरा रखती है। बिल्कुल अस्पताल लगता है।' इसके बाद उनकी और हमारी संयुक्त जान फिर निकलना शुरू हुई। हमने कहा, 'अब थोड़ा रिलैक्स कीजिए।' बोले, 'कहाँ करूँ?' कहा, 'मेरा मतलब है जरा बदन ढीला छोड़ दीजिए और यह भूल जाइए कि आप कैमरे के सामने बैठे हैं।' बोले, 'अच्छा, ये बात है! फौरन बँधी हुई मुट्ठियाँ खोल दीं। आँखें झपकाईं और फेफड़ों को अपनी प्राकृतिक क्रिया फिर शुरू करने की इजाजत दी। हमने इस 'नेचुरल पोज' से फायदा उठाने की गरज से दौड़-दौड़ कर हर चीज को आखिरी 'टच' दिया जिसमें यह लगा बँधा वाक्य भी शामिल था, 'इधर देखिए, मेरी तरफ, जरा मुस्कुराइए।' बटन दबाकर हम शुक्रिया कहने ही वाले थे कि ये देखकर ईरानी कालीन पैरों तले से निकल गया कि वह हमारे कहने से पहले ही खुदा जाने कब से रिलैक्स करने के लिए अपनी बत्तीसी हाथ में लिए हँसे चले जा रहे थे। हमने कहा, 'साहब। अब न हँसिए।' बोले, 'तो फिर आप सामने से हट जाइए।' हमें उनके सामने से हटने में जियादा सोच विचार नहीं करना पड़ा। इसलिए कि उसी वक्त नन्हीं नाजिया दौड़ी-दौड़ी आई और हमारी आस्तीन का कोना खींचते हुए कहने लगी, 'अंकल! हरी अप! प्लीज! नमाज की चटाई पर बिल्ली पंजों से, वुजू कर रही है। हाय अल्लाह! बड़ी क्यूट लग रही है।

फिर हम इस दृश्य की तस्वीर खींचने और मामू लाहौल पढ़ने लगे।

अगले इतवार को हम प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस के फोटो की रीटचिंग में जुटे हुए थे। पतलून की पंद्रहवीं सिलवट पर कलफ - इस्त्री करके हम अब होंठ का मस्सा छुपाने के लिए जीरो नंबर के ब्रश से मूँछ बनाने वाले थे कि इतने में मामू अपनी तस्वीर लेने आ धमके। तस्वीरें कैसी आईं, इसके बारे में हम अपने मुँह से कुछ कहना नहीं चाहते। संवाद खुद चटाख-पटाख बोल उठेगा :

'हम ऐसे हैं?'

'क्या निवेदन करूँ।'

'तुम्हें किसने सिखाया तस्वीर खींचना?'

'जी! खुद ही खींचने लग गया।'

'हमारा भी यही विचार था मगर एहतियातन पूछ लिया।'

'आखिर तस्वीर में क्या खराबी है?'

'हमारे विचार में यह नाक हमारी नहीं है।'

हमने उन्हें सूचित किया कि उनके विचार और उनकी नाक में कोई साम्य नहीं है। इस पर उन्होंने ये जानना चाहा कि अगर तस्वीर को खूब बड़ा किया जाए, तब भी नाक छोटी नजर आएगी क्या?

लाभकारी उपदेश

दूसरे दिन मिर्जा एक नए ढंग से होटल 'मोंटीकार्लो' के बॉलरूम में उतारी हुई तस्वीरें दिखाने आए और हर तस्वीर पर हमसे इस तरह दाद वसूल की जैसे मराठे 'चौथ' वसूल किया करते थे। यह स्पेन की एक स्ट्रिप्टीज डांसर (जिसे मिर्जा सिसली की नर्तकी कहे चले जा रहे थे) की तस्वीरें थीं जिन्हें नग्न तो नहीं कहा जा सकता था, इसलिए कि सफेद दस्ताने पहने हुए थी। गर्म काफी और अज्ञानपूर्ण प्रशंसा से जब वह मूड में आ गए तो मौका गनीमत जानकर हमने मामू की अन्यायपूर्ण बातें उन्हें बताईं और सलाह माँगी। अब मिर्जा में बड़ी पुरानी कमजोरी यह है कि उनसे कोई मशवरा माँगे तो हाँ में हाँ मिलाने के बजाय सचमुच मशवरा ही देने लग जाते हैं फिर यह भी है कि हमारी सूरत में कोई ऐसी बात जुरूर है कि हर शख्स का अचानक सीख देने का जी चाहता है। चुनांचे फिर शुरू हो गए।

'साहब! आपको फोटो खींचना आता है, फोटो खिंचवाने वालों से निपटना नहीं आता। सलामती चाहते हो तो कभी अपने सामने फोटो देखने का मौका मत दो। बस मोटे लिफाफे में बंद करके हाथ में थमा दो और चलता करो। विक्टोरिया रोड के चौराहे पर जो फोटोग्राफर है - लहसुनिया दाढ़ी वाला अरे भई। वही जिसकी नाक पर चाकू का निशान है। आगे का दाँत टूटा हुआ है। अब उसने बड़ा प्यारा नियम बना लिया है। जो ग्राहक दुकान पर अपनी तस्वीर न देखे उसे बिल में 25 प्रतिशत कैश छूट देता है और एक तुम हो कि मुफ्त तस्वीर खींचते हो और शहर भर के बदसूरतों की गालियाँ खाते फिरते हो। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि तुमने किसी की तस्वीर खींची हो और वह हमेशा के लिए तुम्हारा जानी दुश्मन न बन गया हो।'

बहुसंतति और हम नख-शिख विकार भरे

सीख देने की धुन में मिर्जा भूल गए कि दुश्मनों की सूची में बढ़ोत्तरी करने में खुद उन्होंने हमारा काफी हाथ बँटाया है। जिसका अंदाजा अगर आप को नहीं है तो आने वाली घटनाओं से हो जाएगा। हमसे कुछ दूर पी.डब्ल्यू.डी. के एक नामी-गिरामी ठेकेदार तीन कोठियों में रहते हैं। मार्शल-लॉ के बाद से बेचारे इतने कमजोर दिल हो गए हैं कि बरसात में कहीं से भी छत गिरने की खबर आए, उनका कलेजा धक से रह जाता है। हुलिया हम इसलिए नहीं बताएँगे कि इसी बात पर मिर्जा से बुरी तरह डाँट खा चुके हैं -'नाक फिलिप्स के बल्ब जैसी, आवाज में बैंक-बैलेंस की खनक, जिस्म खूबसूरत सुराही की तरह - यानी बीच से फैला हुआ।' हमने आउट लाइन ही बनाई थी कि मिर्जा घायल लहजे में बोले, 'बड़े हास्यकार बने फिरते हो। तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि शारीरिक विकृतियों का उपहास करना हास्य-व्यंग्य नहीं।' करोड़पति हैं मगर इन्कमटैक्स के डर से अपने को लखपति लिखवाते हैं। दाता ने उनकी तबीयत में कंजूसी कूट-कूट कर भर दी है। रुपया कमाने को तो सभी कमाते हैं, वह रखना भी जानते हैं। कहते हैं कि आमदनी बढ़ाने की आसान तरकीब यह है कि खर्च घटा दो। मिर्जा से किंवदंती है कि उन्होंने अपनी बड़ी बेटी को इस कारण से स्त्री-धन नहीं दिया कि उसकी शादी एक ऐसे शख्स से हुई थी जो खुद लखपति था और दूसरी बेटी को इसलिए नहीं दिया कि वह दिवालिया था। साल छह महीने में नाक की कील भी बेच खाता। बहरहाल लक्ष्मी घर में ही रही।

हाँ! तो इन्हीं ठेकेदार साहब का जिक्र है जिनकी जायदाद लिखित-अलिखित, ब्याहता और अनब्याहता का चित्र एक मानसिकता बयान करने वाले शायर ने एक पंक्ति में खींच कर रख दिया है -

इक-इक घर में सौ-सौ कमरे, हर कमरे में नार

इस सुंदर परिस्थिति के नतीजे अक्सर हमें भुगतने पड़ते हैं। वह इस तरह कि हर नए पैदा होने वाले बच्चे के अकीके और पहली सालगिरह पर हम ही से यादगार तस्वीर खिंचवाते हैं और यही क्या कम है कि हमसे कुछ नहीं लेते। इधर ढाई तीन साल से इतनी कृपा और करने लगे हैं कि जैसे ही परिवार-अनियोजन की शुभ-घड़ी आती है तो एक नौकर दाई को और दूसरा हमें बुलाने दौड़ता है। बल्कि एक-आध बार तो ऐसा हुआ कि 'वो जाती थी कि हम निकले।' जिन साहब को इस बयान में पड़ोसी की शरारत नजर आए, वह ठेकेदार साहब के एलबम को देख सकते हैं। हमारे हाथ की एक नहीं दर्जनों तस्वीरें मिलेंगी जिनमें श्रीमान कैमरे की आँख में आँख डाल कर नवजात के कान में अजान देते हुए नजर आते हैं।

आए दिन की जच्चगियाँ झेलते-झेलते हमारी जान साँसत में आ गई थी मगर लाज और शिष्टतावश खामोश थे। अक्ल काम नहीं करती थी कि इस 'शौक के काम' को कैसे बंद किया जाए। मजबूरन (अंग्रेजी मुहावरे के अनुसार) मिर्जा को अपने विश्वास में लेना पड़ा। मलाल भरा हाल सुनकर बोले, 'साहब इन सब परेशानियों का हल एक फूलदार फ्रॉक है।' हमने कहा, 'मिर्जा! हम पहले से ही सताए हुए हैं। हम से यह एब्सट्रैक्ट बातचीत तो न करो। बोले, 'तुम्हारी ढलती जवानी की कसम! मजाक नहीं करता। तुम्हारी तरह पड़ोसियों के दिल के टुकड़ों की तस्वीरें खींचते-खींचते अपना भी भुरकस निकल गया था। फिर मैंने तो यह किया कि एक फूलदार फ्रॉक खरीदी और उसमें एक नवजात शिशु की तस्वीर खींची और उसकी तीन दर्जन कॉपियाँ बनाकर अपने पास रख लीं। अब जो कोई अपने नवजात की तस्वीर की फरमायश करता है तो यह शर्त लगा देता हूँ कि अच्छी तस्वीर चाहिए तो यह खूबसूरत फूलदार फ्रॉक पहना कर खिंचवाओ। फिर कैमरे में फिल्म डाले बगैर बटन दबाता हूँ और दो तीन दिन का भुलावा देकर उसी चित्र की एक कॉपी पकड़ा देता हूँ। हर बाप को उसमें अपना साम्य दिखाई पड़ता है।'

घटनाएँ और प्राथमिक कानूनी सहायता

हमारे पुराने जानने वालों में आगा इकलौते आदमी हैं जिनसे अभी तक हमारी बोलचाल है। इसका इकलौता कारण मिर्जा यह बताते हैं कि हमने कभी उनकी तस्वीर नहीं खींची। हालाँकि हमारी कलागत योग्यता से वह भी अपने तौर पर लाभान्वित हो चुके हैं। फायदे की स्थिति यह थी कि एक इतवार को हम अपने 'डार्करूम' (जिसे सोमवार से शनिवार घर वाले टायलेट कहते हैं) में अँधेरा किए एक मारपीट से भरपूर राजनीतिक सभा के प्रिंट बना रहे थे। घुप्प अँधेरे में एक मुन्ना-सा लाल बल्ब जल रहा था, जिस से बस इतनी रोशनी निकल रही थी कि वो स्वयं नजर आ जाता था। पहले प्रिंट पर काली झंडियाँ साफ नजर आने लगी थीं लेकिन लीडर का चेहरा किसी तरह उभर के नहीं आता था। लिहाजा हम इसे बार-बार चिमटी से तेजाबी घोल में गोते दिए जा रहे थे। इतने में किसी ने फाटक की घंटी बजाई और बजाता चला गया। हम जिस समय चिमटी हाथ में लिए पहुँचे हैं, तो घर वाले ही नहीं, पड़ोसी भी दौड़ कर आ गए थे। आगा ने हथेली से घंटी का बटन दबा रखा था और लरजती काँपती आवाज में उपस्थितों को बता रहे थे कि वह किस तरह अपनी सधी-सधाई पुरानी कार में अपनी राह चले जा रहे थे कि एक ट्राम दनदनाती हुई 'राँग साइड' से आई और उनकी कार से टकरा गई। हमारे मुँह से कहीं निकल गया, 'मगर थी तो अपनी ही पटरी पर?' तिनतिनाते हुए बोले, 'जी नहीं, टेक ऑफ करके आई थी?' यह मौका उनसे उलझने का नहीं था, इसलिए कि वह जल्दी मचा रहे थे। उनके अनुसार रहा-सहा सम्मान कराची की मिट्टी में मिला जा रहा था और इसी कारण टक्कर होने के एक दो सेकेंड पहले ही वह कार से कूद कर गरीबखाने की तरफ रवाना हो गए थे ताकि चालान होते ही अपनी सफाई में बतौर तर्क नंबर दो घटना का फोटो मय फोटोग्राफर पेश कर सकें। तर्क नंबर एक यह था कि जिस पल कार ट्राम से टकराई, वह कार में मौजूद ही नहीं थे।

हम जिस हाल में थे, उसी तरह कैमरा लेकर आगा के साथ हो लिए और हाँफते-काँपते मौका-ए-वारदात पर पहुँचे। देखा कि आगा की कार का बंपर ट्राम के बंपर पर चढ़ा हुआ है। अगला हिस्सा हवा में लटका हुआ है और एक लौंडा पहिया घुमा-घुमा कर दूसरे से कह रहा है, 'अबे फजलू! इसके तो पहिए भी हैं।'

आगा का आग्रह था कि तस्वीरें ऐसे कोण से ली जाएँ जिससे साबित हो पहले गुस्सैल ट्राम ने कार के टक्कर मारी। इसके बाद कार टकराई। वह भी सिर्फ अपने बचाव के लिए। हमने एहतियातन अपराधिन के हर पोज की तीन-तीन तस्वीरें ले लीं, ताकि उसमें वर्णित कोण भी, अगर कहीं हो तो आ जाए। दुर्घटना को फिल्माते समय हम इस नतीजे पर पहुँचे कि इस पेशबंदी की बिल्कुल जुरूरत न थी। इसलिए कि जिस कोण से चुटैल अपराधिन पर चढ़ी थी और जिस पैंतरे से आगा ने ट्राम और कानून से टक्कर ली थी, उसे देखते हुए उनका चालान आत्महत्या की कोशिश में भले ही हो जाए, ट्राम को नुकसान पहुँचाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। इधर हम क्लिक-क्लिक तस्वीर पर तस्वीर लिए जा रहे थे उधर सड़क पर तमाशा देखने वालों की भीड़ का हुजूम था कि बढ़ता जा रहा था। हमने कैमरे में दूसरी फिल्म डाली और कार का 'क्लोजअप' लेने की खातिर मिर्जा हमें सहारा देकर छत पर चढ़ाने लगे। इतने में एक गबरू पुलिस सार्जेंट भीड़ को चीरता हुआ आया। आकर हमें उतारा और नीचे उतार कर चालान कर दिया -सार्वजनिक स्थल पर मजमा लगा कर जानबूझ कर रुकावट पैदा करने के आरोप में और मिर्जा के अनुसार, वह तो बड़ी खैरियत हुई कि वो वहाँ मौजूद थे, वर्ना हमें तो कोई जमानत देने वाला न मिलता, खिंचे-खिंचे फिरते।

दूसरा निकाह और हम बेचारे

यह पहला अवसर नहीं था कि हमने अपनी तुच्छ योग्यता से कानून और इंसाफ के हाथों को मजबूत किया (क्षमा कीजिए, हम फिर अंग्रेजी मुहावरा इस्तेमाल कर गए, मगर क्या किया जाए, अंग्रेजों से पहले ऐसा बिजोग भी तो नहीं पड़ता था) अपने बेगानों ने कई बार यह सेवा निःशुल्क हम से ली है। तीन साल पहले का जिक्र है, वह कानून अभी लागू नहीं हुआ था जिसे मिर्जा निकाह-नियोजन कानून कहते हैं मगर प्रेस में इसके समर्थन में लेख और भाषण धड़ाधड़ छप रहे थे जिनके गुजराती अनुवादों से घबराकर 'बिनौला-किंग' सेठ अब्दुल गफूर इब्राहीम हाजी मुहम्मद इस्माईल यूनुस छाबड़ी वाला एक लड़की से चोरी छुपे निकाह कर बैठे थे। हुलिया न पूछें तो बेहतर है। आँख वालों को इतना इशारा काफी होगा कि अगर हम उनका हुलिया ठीक-ठीक बताने लगें तो मिर्जा चीख उठेंगे, 'साहब! यह हास्य-व्यंग्य नहीं है।' इससे यह न समझा जाए कि हम उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। अनुभवी हैं। हमने कुछ अर्से से यह नियम बना लिया है कि किसी इनसान को उपेक्षा से नहीं देखना चाहिए। इसलिए कि हमने देखा कि जिस किसी को हमने तुच्छ समझा, वह तुरंत उन्नति कर गया। हाँ, तो हम कह रहे थे कि जिस दिन से बीबियों की संख्या का कानून लागू होने वाला था, उसकी 'चाँद रात' को सेठ साहब बहुत घबराए हुए घर पधारे थे। उनके साथ घबराहट का कारण भी थी जो काले बुरके में थी और बहुत खूब थी।

रात के दस बज रहे थे और कैमरा, स्क्रीन और रोशनियाँ ठीक करते-करते ग्यारह बज गए। घंटे भर तक सेठ साहब हमारी CANDID FIGURE STUDIES को इस तरह घूरते रहे कि पहली बार हमें अपनी कला से शर्म आने लगी। बोले, 'अजुन बिगड़ैली बाइयों की फोटोग्राफी लेने में तो तुम एक नंबर उस्ताद हो। पन कोई भैन बेटी कपड़े पहन कर फोटो खिंचवाए तो क्या तुम्हारा कैमरा काम करिंगा?' हमने कैमरे के सच्चरित्र होने की जमानत दी और तिपाई रखी। तिपाई पर सेठ साहेब को खड़ा किया और उनके बाईं तरफ दुल्हन को (सैंडिल उतरवा कर) खड़ा करके फोकस कर रहे थे कि वह तिपाई से छलाँग लगाकर हमारे पास आए और टूटी-फूटी उर्दू में जिसमें गुजराती से जियादा घबराहट की मिलावट थी, निवेदन किया कि सुरमई पर्दे पर आज की तारीख कोयले से लिख दी जाए और फोटो इस तरह लिया जाए कि तारीख साफ पढ़ी जा सके। हमने कहा, 'सेठ! उसकी क्या तुक है?' तिपाई पर वापस चढ़ के उन्होंने जोर से हमें आँख मारी और अपनी टोपी की तरफ ऐसी दीनता से इशारा किया कि हमें उनके साथ अपनी इज्जत आबरू भी मिट्टी में मिलती नजर आई। फिर सेठ साहब अपना बायाँ हाथ दुल्हन के कंधे पर मालिकाना अंदाज में रख कर खड़े हो गए। दायाँ हाथ अगर और लंबा होता तो खुदा की कसम उसे भी वहीं रख देते। फिलहाल उसमें जलता हुआ सिगरेट पकड़े थे। हमारा रेडी कहना था कि फिर छलाँग लगाकर हमसे लिपट गए। या अल्लाह! खैर! अब क्या लफड़ा है? मालूम हुआ, इस बार वह खुद अपनी आँख से यह देखना चाहते थे कि वह कैमरे में कैसे नजर आ रहे हैं। खुशामद-दरामद करके फिर तिपाई पर चढ़ाया और इससे पहले कि घड़ियाल रात के बारह बजा कर नई सुबह और निकाह पर रोक के कानून के लागू होने का ऐलान करता, हमने उनके निकाह के गुप्त रिश्ते का दस्तावेजी सुबूत कोडक फिल्म पर सुरक्षित कर लिया।

अस्ल कठिनाई यह थी कि तस्वीर खींचने और खिंचवाने के नियमों से बारे में जो निर्देश सेठ साहब गुजराती भाषा या इशारों से देते रहे, उनका उद्देश्य हमारी नाकारा समझ में यह आया कि दुल्हन सिर्फ उसी लम्हे नकाब उलटे, जब हम बटन दबाएँ और जब हम बटन दबाएँ तो चश्मा उतार दें। उनका बस चलता तो वह कैमरे का भी लैंस उतरवा कर तस्वीर खिंचवाते।

रात की जगार से तबीयत सारे दिन सुस्त रही इसलिए दफ्तर से दो घंटे पहले ही उठ गए। घर पहुँचे तो सेठ साहब और ब्याहता को बरामदे में टहलता हुआ पाया। गरदन झुकाए, हाथ पीछे को बाँधे, बेचैनी की हालत में टहले चले जा रहे थे। हमने कहा, 'सेठ अस्सलामुअलैकुम!' बोले, 'वालैकुम, पन फिल्म को गुस्ल कब देगा?' हमने कहा, 'अभी सेठ!' फिर उन्होंने इच्छा जाहिर की कि उनकी जीवन-संगिनी की तस्वीर को उनकी उपस्थिति में 'स्नान' कराया जाए। हमने जगह की तंगी का बहाना लिया जिसके जवाब में सेठ साहब ने हमें बिनौले की एक बोरी का लालच दिया। जितनी देर फिल्म डेवलप होती रही, वह फ्लश की जंजीर से लटके, इस दोषी के क्रिया-कलाप की कड़ी निगरानी करते रहे।

हम फिक्सर में आखिरी डोब दे चुके तो उन्होंने पूछा, 'क्लियर आई है?' अर्ज किया, बिल्कुल साफ, लकड़ी की चिमटी से टपकती हुई फिल्म पकड़ कर हमने उन्हें भी देखने का मौका दिया। शार्क-स्किन का कोट ही नहीं, ब्रेस्ट पाकेट के बटुए का उभार भी साफ नजर आ रहा था। तारीख निगेटिव में उल्टी थी मगर साफ पढ़ी जा सकती थी। चेहरे पर भी उनके अनुसार, बड़ी रोशनाई थी। उन्होंने जल्दी-जल्दी दुल्हन की अँगूठी के नग गिने और उन्हें पूरे पाकर ऐसे संतुष्ट हुए कि चुटकी बजा कर सिगरेट छंगुलिया में दबा के पीने लगे। बोले, 'मिश्टर, यह तो सोलह आने क्लियर है। आँख, नाक, जेब पॉकेट, एक-एक नग चुगती सँभाल लो। अपने बही-खाते के माफिक। अजुन अपनी ओमेगा वॉच की सुई भी बरोबर ठीक टैम देती पड़ी है। ग्यारह क्लाक और अपुन के हाथ में जो एक ठो सिगरेट जलता पड़ा है, वह भी साला एकदम लैट मारता है।' यह कह कर वह किसी गहरी सोच में डूब गए। फिर एक झटके से चेहरा उठाकर कहने लगे, 'बड़े साहब। उस सिगरेट पे जो साला K-2 लिखैला है उसकी जगह Players No.3 बना दो नी।'

दरबारे-अकबरी में पेशी

खैर! यहाँ तो समस्या सिगरेट पर ही टल गई, वरना हमारा अनुभव है कि सौ प्रतिशत पुरुष और निन्यानवे प्रतिशत महिलाएँ तस्वीर में अपने को पहचानने से साफ इनकार कर देते हैं। बाकी रहीं एक प्रतिशत, सो उन्हें कपड़ों की वजह से अपना चेहरा स्वीकार करना पड़ता है लेकिन अगर इत्तिफाक से कपड़े भी अपने न हों तो फिर शौकिया फोटोग्राफर को चाहिए कि वक्त और रुपया बर्बाद करने का कोई और काम तलाश करे जिसमें कम-से-कम मारपीट की संभावना तो न हो। इस कला में दखल न रखने वालों की आँखों को खोलने के लिए हम सिर्फ एक घटना सुनाते हैं। पिछले साल बगदादी जिमखाना में तंबोला से तबाह होने वालों की मदद के लिए पहली अप्रैल को अकबर महान खेला जाने वाला था और पब्लिसिटी कमेटी ने हमसे निवेदन किया था कि हम ड्रेस रिहर्सल की तस्वीरें खींचें ताकि अखबारों को दो दिन पहले उपलब्ध कराई जा सकें।

हम जरा देर से पहुँचे। चौथा सीन चल रहा था। अकबरे-आजम दरबार में विराजमान थे। उस्ताद तानसेन बैंजो पर हजरत फिराक गोरखपुरी का तिगजला (एक ही जमीन में तीन संयुक्त गजलें) मालकौंस में गा रहे थे। जो हजरात इस राग या किसी तिगजले की लपेट में आ चुके हैं, कुछ वही अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर यह दोनों इकट्ठा हो जाएँ तो इनकी संगत क्या कयामत ढाती है। अकबर-महान का पार्ट जिमखाने के प्रोपेगंडा सिक्रेट्री सिबगे (शेख सिबगतुल्लाह) कर रहे थे। सर पर टीन का नकली ताज चमक रहा था, जिसमें से अब तक अस्ली घी की लपटें आ रही थीं। शाही ताज पर शीशे के पेपरवेट का कोहेनूर हीरा जगमगा रहा था। हाथ में इसी धातु यानी अस्ली टीन की तलवार जिसे घमासान का रण पड़ते ही दोनों हाथों से पकड़ के वह कुदाल की तरह चलाने लगते। आगे चल कर हल्दी घाटी की लड़ाई में यह तलवार टूट गई तो खाली मियान से जौहर दिखाते रहे। अंततः यह भी जवाब दे गई कि राणा प्रताप का सर इससे भी सख्त निकला। फिर महाबली इसकी आखिरी पच्चर तमाशाइयों को दिखाते हुए हथियारखाने के दारोगा को समसामयिक गालियाँ देने लगे। आदत के मुताबिक गुस्से में आपे से बाहर हो गए लेकिन मुहावरे को हाथ से न जाने दिया। दूसरे सीन में शहजादा सलीम को आड़े हाथों लिया। सलीम अभी अनारकली पर अपना वक्त बरबाद कर रहा था। उसका दौरे-जहाँगीरी बल्कि नूरजहाँगीरी अभी शुरू नहीं हुआ था। डाँट-डपट के दौरान जिल्ले-सुब्हानी ने अपने निजी हाथ से एक तमाचा भी मारा जिसकी आवाज आखिरी पंक्ति तक सुनी गई। तमाचा तो अनारकली के गाल पर भी मारा था मगर इसका जिक्र हमने आवश्यक रूप से नहीं किया, क्योंकि महाबली ने कुछ इस अंदाज से मारा कि पास से तो हमें यही लगा कि वह दो मिनट तक अनारकली का मेकअप से तमतमाया हुआ गाल सहलाते रहे - पाँचों उँगलियों पर गाल के निशान बन गए थे

अकबर : शेखू! अनारकली का सर तेरे कदमों पर है मगर उसकी नजर ताज पर है।

सलीम : मुहब्बत अंधी होती है आलमपनाह!

अकबर : मगर इसका यह मतलब नहीं कि औरत भी अंधी होती है।

सलीम : लेकिन अनारकली औरत नहीं लड़की है आलमपनाह।

अकबर : (आस्तीन और त्यौरी चढ़ाकर) ऐ तैमूरी खानदान की आखिरी निशानी। ऐ कपूत मगर (कलेजा पकड़ के) इकलौते बेटे। याद रख, मैं तेरा बाप भी हूँ और वालिद भी।

इस ड्रामाई रहस्योद्घाटन को नई नस्ल की जानकारी के लिए रिकार्ड करना चूँकि बहुत आवश्यक था इसलिए हम कैमरे में 'फ्लैशगन' फिट करके आगे बढ़े। यह अहसास हमें बहुत बाद में हुआ कि जितनी देर हम फोकस करते रहे, महाबली अपनी शाही जिम्मेदारी यानी डाँट-डपट छोड़-छाड़ साँस रोके खड़े रहे। वह जो एकदम खामोश हुए तो पिछली सीटों से तरह-तरह की आवाजें आने लगीं :

'अबे! डायलॉग भूल गया क्या?'

'तमाचा मार के बेहोश हो गया है!'

'महाबली! मुँह से बोलो!'

अगले सीन में फिल्मी टैक्नीक के मुताबिक एक 'फ्लैश-बैक' था। महाबली की जवानी थी और उन पर अभी पाउडर नहीं बुरका गया था। बागी-ए-आजम, हेमू बक्काल तमाशाइयों की तरफ मुँह करके सजदे में पड़ा था और हजरत जिल्ले-सुब्हानी तलवार सूँते भुट्टा सा उस का सर उड़ाने जा रहे थे। हम भी फोटो खींचने लपके लेकिन फुट लाइट्स से कोई पाँच गज दूर होंगे कि पीछे से आवाज आई - बैठ जाओ युसूफ कार्श! और इसके फौरन बाद एक अकृपालु हाथ ने बड़ी बेदर्दी से पीछे से कोट पकड़ के खींचा। पलट के देखा तो मिर्जा निकले। बोले, 'अरे साहब, ठीक से कत्ल तो कर लेने दो। वर्ना साला उठ के भाग जाएगा और फिर विद्रोह का बिगुल बजा देगा।'

दूसरे ऐक्ट में कोई उल्लेखनीय घटना, यानी हत्या नहीं हुई। पाँचवें दृश्य में शहजादा सलीम, अनारकली को इसी तरह हाले-दिल सुनाता रहा, जैसे इमला लिखवा रहा हो। तीसरे ऐक्ट में सिबगे, हमारा मतलब है, जिल्ले-सुब्हानी, शाही पेचवान की गजों लंबी रबर की नाल (जिस से दिन में जिमखाने के लान को पानी दिया गया था) हाथ में थामे अनारकली पर बरस रहे थे और हम दर्शकों की हूटिंग के डर से 'विंग' में दुबके हुए इस सीन को फिल्मा रहे थे कि सामने के 'विंग' से एक दुधमुँहा स्टेज पर घुटनियों चलता हुआ आया और गला फाड़-फाड़ के रोने लगा। अंततः ममता इश्क और एक्टिंग पर भारी पड़ी और उस लाजवंती ने तख्ते-शाही की ओट में दर्शकों से पीठ करके उसका मुँह कुदरती डाइट से बंद किया। इधर महाबली खून के से घूँट पीते रहे। हमने बढ़कर परदा गिराया।

अंतिम ऐक्ट के अंतिम सीन में अकबर-महान का जनाजा बैंड-बाजे के साथ बड़े धूम-धड़क्के से निकला जिसे फिल्माने के बाद हम ग्रीन रूम में गए और सिबगे को मुबारक बाद दी कि इससे बेहतर मुर्दे का पार्ट हमारी नजर से आज तक नहीं गुजरा। उन्होंने बतौर शुक्रिया कोरे कफन से हाथ निकालकर हम से मिलाया किया। हमने कहा, 'सिबगे! और तो जो कुछ हुआ सो हुआ मगर अकबर कोहेनूर हीरा कब लगाता था?' कहने लगे, 'तभी तो हमने नकली कोहेनूर लगाया था।'

'डेवलपर' को बर्फ से 70 डिग्री ठंडा करके हमने रातों-रात फिल्म डेवलप की। दूसरी दिन वादे के अनुसार तस्वीरों के प्रूफ दिखाने जिमखाने पहुँचे। घड़ी हमने आज तक नहीं रखी। अंदाजन रात के ग्यारह बज रहे होंगे। इसलिए कि अभी तो डिनर की टेबिलें सजाई जा रही थीं और उनकी सजावट बनने वाले सदस्य 'रेनबो रूम' (बार) में ऊँचे-ऊँचे स्टूलों पर टँगे न जाने कब से हमारी राह देख रहे थे। जैसे ही मेंबर हमारी सेहत के जाम की आखिरी बूँद पी चुके, हमने अपने चमड़े के बैग से 'रश प्रिंट' निकाल कर दिखाए - और साहब! वह तो खुदा ने बड़ा करम किया कि उनमें एक भी खड़े होने के काबिल न था। वरना हर सदस्य! क्या मर्द, क्या औरत, आज हमारे कत्ल का मुलजिम होता।

जिल्ले-सुबहानी ने कहा, हमने अनारकली को उसकी गुस्ताखियों पर डाँटते वक्त आँख नहीं मारी थी। शाहजादा सलीम अपना फोटो देख कर कहने लगे कि यह तो निगेटिव है। शेख अबुल फज्ल ने कहा, नूरजहाँ, शेर अफगन की विधवा, तस्वीर में ऊपर से नीचे तक अफगान मर्द नजर आती है। राजा मानसिंह कड़क के बोले कि हमारे मलमल के अंगरखे में टोडरमल की पसलियाँ कैसे नजर आ रही हैं? मुल्ला दो प्याजा ने पूछा, यह मेरे हाथ में दस उँगलियाँ क्यों लगा दीं आपने। हमने कहा, आप हिल जो गए थे। बोले, बिलकुल गलत। खुद आप का हाथ हिल रहा था बल्कि मैंने हाथ से आपको इशारा भी किया था कि कैमरा मजबूती से पकड़िए। अनारकली की माँ जो कि बड़े कत्ले-ठल्ले की औरत हैं, तुनक कर बोलीं, अल्लाह न करे, मेरी चाँद-सी बन्नो ऐसी हो (उनकी बन्नो के चेहरे को अगर चाँद की उपमा दी जा सकती तो यह वह चाँद था जिसमें बुढ़िया बैठी, चरखा कातती नजर आती है।) सारांश यह कि हर शख्स को शिकायत थी, हर शख्स खफा था। अकबर-महान के नौरत्न तो नौरत्न, महल के हीजड़े तक हमारे खून के प्यासे हो रहे थे।

पैदा होना पैसा कमाने के उपाय का

हमसे जिमखाना छूट गया। औरों से क्या शिकायत, सिबगे तक खिंचे-खिंचे रहने लगे। हमने सोचा, चलो तुम रूठे, हम छूटे। दुख है कि उनकी नाराजगी और हमारा सुख थोड़े दिन का साबित हुआ क्योंकि दस पंद्रह दिन बाद उन्होंने छठे तल पर स्थिति अपने फ्लैट पर 'सिबगे एडवरटाइजर्स (पाकिस्तान) प्राइवेट लिमिटेड' का चंचल-सा सायनबोर्ड लगा दिया जिसे अगर बीच सड़क पर लेट कर देखा जाता तो साफ नजर आता। दूसरा नेक काम उन्होंने यह किया कि हमें एक नए साबुन, 'स्कैंडल सोप' के विज्ञापन के लिए तस्वीर खींचने पर नियुक्त किया। अजब इत्तिफाक है कि हम खुद कुछ अर्से से बड़ी तीव्रता से महसूस कर रहे थे कि हमारे यहाँ औरत, इबादत और शराब को अब तक क्लोरोफार्म की जगह इस्तेमाल किया जाता है, यानी दर्द और तकलीफ का अहसास मिटाने के लिए न कि सुरूर और खुशी के लिए। इसी अहसास को सुन्न कर देने वाली पिनक की तलाश में थके हारे ललित-कलाओं तक पहुँचते हैं और यह जाहिर-सी बात है कि ऐसी अय्याशी को पेशा नहीं बनाया जा सकता। इसलिए पहली ही बोली पर हमने अपने कला-धन से पीछा छुड़ाने का फैसला कर लिया। फिर पारिश्रमिक भी ठीक-ठाक था। यानी ढाई हजार रुपए जिसमें तीन रुपए नक्द उन्होंने हमें उसी समय अदा कर दिए और इसी रकम से हमने गेवर्ट की 27 डिग्री की सुस्त रफ्तार फिल्म खरीदी जो त्वचा के निखार और नर्मी को अपने अंदर धीरे-धीरे समो लेती है। 'चेहरा' उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी स्कैंडल सोप बनाने वालों के सर थी। तस्वीर की पहली और आखिरी शर्त यह थी कि 'सेक्सी हो'। इस सु-उद्देश्य के लिए जिन महिला की सेवाएँ पेश की गई वह बुर्के में बहुत सुंदर मालूम होती थीं। बुर्का उतरने के बाद खुला कि -

खूब था पर्दा, निहायत मसलहत की बात थी

सेक्स-अपील तो एक तरफ रही, इस दुखिया के तो मुँह में मक्खन भी नहीं पिघल सकता था। अलबत्ता दूसरी मॉडल का 'मितव्ययी लिबास' अपने को छुपाने में सकारण असमर्थ था। हमने चंद 'रंगीन शाट' तीखे-तीखे कोणों से लिए और तीन-चार दिन बाद मिर्जा को प्रोजेक्टर से TRANSPARENCIES दिखाईं। कोडक के रंग दहक रहे थे। विद्रोही रेखाएँ पुकार-पुकार कर शरीर की उद्घोषणा कर रही थीं। हमने इस पहलू पर ध्यान दिलाया तो बोले, 'यह शरीर की उद्घोषणा है या कपड़े के उद्योग के खिलाफ युद्ध की घोषणा?'

तीसरी 'सिटिंग' से दस मिनट पहले मिर्जा वादे के अनुसार हमारी मदद को आ गए। सोचा था कुछ नहीं तो दुसराथ रहेगी। फिर मिर्जा का अनुभव उन सब गलतियों के कारण, जो वह करते रहे हैं, हम से कहीं जियादा विस्तृत और रंगारंग है, लेकिन उन्होंने तो आते ही आफत मचा दी। अस्ल में वह अपने नए रोल (हमारे कला-परामर्शदाता) में फूले नहीं समा रहे थे। अब समझ में आया कि नया नौकर दौड़ के हिरन के सींग क्यों उखाड़ता है और अगर हिरन भी नया हो तो - असदुल्लाह खाँ कयामत है

वैसे भी वह मेकअप वगैरह के बारे में कुछ दुर्भावनाएँ रखते हैं जिन्हें वो उस वक्त मॉडल के चेहरे पर थोपना चाहते थे मसलन काली औरतों के बारे में उनका विचार है कि उन्हें सफेद सुर्मा लगाना चाहिए। अधेड़ उम्र के मर्द के दाँत, बहुत उजले नहीं होने चाहिए वर्ना लोग समझेंगे नकली हैं वगैरह-वगैरह। बोले, 'लिपस्टिक पर वैस्लीन लगवाओ। इससे होंट VOLUP TUOUS (मादक) लगने लगेंगे। आजकल मर्द उभरे-उभरे गुर्दे जैसे होंठ पर मरते हैं। और हाँ, यह फटीचर चश्मा उतार के तस्वीर लो।' हमने झगड़ा मिटाने को चश्मा उतार दिया। बोले, 'साहब! अपना नहीं, उसका।' बाद में बोले, 'फोटो के लिए नई और चमकीली साड़ी मुनासिब नहीं है। खैर, मगर कम-से-कम सैंडल तो उतरवा दो। पुराना-पुराना लगता है।' हमने कहा, तस्वीर चेहरे की ही जा रही है, न कि पैरों की।' बोले, 'अपनी टाँग न अड़ाओ। जैसे उस्ताद कहता है वैसे ही करो।' हमने बेगम का शैंपेन के रंग का नया सैंडल ला दिया और यह अजीब बात है कि उसे पहन कर उसके 'एक्सप्रेशन' में एक खास दबदबा आ गया। बोले, 'साहब! यह तो जूता है अगर किसी की बनियान में छेद हो तो उसका असर भी चेहरे के एक्सप्रेशन पर पड़ता है।' यह नुक्ता बयान करके वह हमारे चेहरे की तरफ देखने लगे।

आँखें मेरी बाकी उनका

ऐड़ी से चोटी तक सौंदर्य सुधार करने के बाद उसे सामने खड़ा किया और वह प्यारी-प्यारी नजरों से कैमरे को देखने लगी। मिर्जा फिर बीन बजाने लगे, 'साहब! यह फ्रंट पोज, यह दो कानों बीच एक नाक वाला पोज सिर्फ पासपोर्ट में चलता है। आपने यह नहीं देखा कि इसकी गरदन लंबी है और नाक का कट यूनानी, चेहरा साफ कहे देता है कि मैं सिर्फ प्रोफाइल के लिए बनाया गया हूँ।' हमने कहा, 'अच्छा, बाबा, प्रोफाइल ही सही।'

इस तकनीकी समझौते के बाद हमने तुरत-फुरत कैमरे में 'क्लोज अप लैंस' फिट किया। सुरमई पर्दे को दो कदम पीछे खिसकाया। सामने एक हरा काँटेदार कैक्टस रखा और उस पर पाँच सौ वाट की स्पॉट लाइट डाली। उसकी ओट में गाल का फूल। हलका-सा आउट ऑफ फोकस ताकि रेखाएँ और मुलायम हो जाएँ। वह दसवीं बार तनकर खड़ी हुई। सीना आसमान-सा तना हुआ। निचला होंठ सोफिया लारेन-सा आगे को निकाले। आँखों में 'इधर देखो, मिरी आँखों में क्या है?' वाली कैफियत लिए और मीठी-मीठी रोशनी में बल खाते हुए नख-शिख फिर गीत गाने लगे। रंग फिर कूकने लगे। आखिरी बार हमने छेद से और मिर्जा ने कपड़ों से पार होती हुई नजर से देखा। मुस्कुराती हुई तस्वीर लेने की गरज से हमने मॉडल को आखिरी व्यवसायिक निर्देश दिया कि जब हम बटन दबाने लगें तो तुम हौले-हौले कहती रहना, चीज, चीज, चीज, चीज।

यह सुनना था कि मिर्जा ने हमारा हाथ पकड़ लिया और इसी तरह बरामदे में ले गए। बोले, 'कितने फाकों में सीखी है यह ट्रिक? क्या रेड़ मारी है मुस्कुराहट की। साहब! हर चेहरा हँसने के लिए नहीं बनाया गया है। खासतौर से पूरब वालों का चेहरा। कम-से-कम यह चेहरा।' हमने कहा, 'जनाब! औरत के चेहरे पर पूरब-पश्चिम बताने वाला कुतुबनमा थोड़े ही लगा होता है। यह तो लड़की है। बुद्ध तक के होंठ मुस्कुराहट से झुके हुए हैं। लंका में नारियल और पाम के पेड़ों से घिरी हुई एक नीली झील है, जिसके बारे में यह परंपरा चली आती है कि इसके पानी में एक बार गौतमबुद्ध अपना चेहरा देखकर यूँ ही मुस्करा दिए थे। अब ठीक उसी जगह एक खूबसूरत मंदिर है जो उनकी मुस्कुराहट की याद में बनाया गया है।' मिर्जा ने वहीं बात पकड़ ली। बोले, 'साहब! गौतम बुद्ध की मुस्कुराहट और है, मोनालिजा की और। बुद्ध अपने-आप पर मुस्कुराए थे, मोनालिजा दूसरों पर मुस्कुराती है। शायद अपने शौहर के सीधेपन पर। बुद्ध की मूर्तियाँ देखो, मुस्कुराते वक्त उनकी आँखें झुकी हुई हैं, मोनालिजा की खुली हुई। मोनालिजा होंटों से मुस्कुराती है, उसका चेहरा नहीं हँसता। उसकी आँखें नहीं हँस सकतीं। इसके विपरीत अजंता की औरत देखो, उसके होठ बंद हैं मगर नैन-नक्श खुल-खेलते हैं। वह अपने समूचे बदन से मुस्कुराना जानती है। होंठों की कली जरा नहीं खिलती, फिर भी उसका भरा-भरा बदन, उसका अंग-अंग मुस्कुराता है।' हमने कहा, 'मिर्जा! इसमें अजंता एलोरा की बपौती नहीं, बदन तो मर्लिन मुनरो का भी खिलखिलाता था।' बोले, 'कौन मसखरा कहता है? वह गरीब उम्र-भर हँसी और हँसना न आया। साहब! हँसना न आया। इसलिए कि वह जनम-जनम की निंदासी थी। उसका रुवाँ-रुवाँ बुलावे देता रहा, उसका सारा वुजूद, एक-एक पोर, एक-एक स्वेद ग्रंथि -

इंतिजारे-सेद में इक दीदा-ए-बेख्वाब था

वह अपने छतनार बदन, अपने सारे बदन से आँख मारती थी। मगर हँसी? उसकी हँसी एक मदभरी सिसकी से कभी आगे न बढ़ सकी। अच्छा आओ, अब मैं तुम्हें बताऊँ कि हँसने वालियाँ कैसे हँसा करती हैं -

जातति थी, इक नार अकेली, बीच बजार भयो गजराए

आप हँसी, कुछ नैन हँसे, कुछ नैनन बीच हँसो कजराए

हार के बीच हमैल हँसी, बाजुबंदन बीच हँसो गजराए

भावें मरोर के ऐसी हँसी जस चंद को दाब चलो बदराए

मिर्जा ब्रज-भाषा के इस सवैये का अंग्रेजी अनुवाद करने लगे और हम कान लटकाए सुनते रहे लेकिन अभी तीसरी पंक्ति की हत्या नहीं कर पाए थे कि सिबगे के सब्र का पैमाना छलक गया क्योंकि मॉडल सौ रुपए फी घंटा के हिसाब से आई थी और डेढ़ सौ रुपए गुजर जाने के बावजूद अभी तक पहली क्लिक की नौबत नहीं आई थी।

तस्वीरें कैसी आईं? तीन कम ढाई हजार रुपए वसूल हुए या नहीं? विज्ञापन कहाँ छपा? लड़की का फोन नंबर क्या है? स्कैंडल सोप फैक्ट्री कब नीलाम हुई? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर हम बहुत जल्द लेख के माध्यम से देंगे। फिलहाल पाठकों को यह मालूम करके प्रसन्नता होगी कि मिर्जा के जिस पाले-पोसे कैक्टस को हमने दमकते हुए गाल के आगे रखा था, उसे फरवरी में फूलों की प्रदर्शनी में पहला पुरस्कार मिला।

(जुलाई - 1964 ई.)

समाप्त।