भाग - 2 / मेरे मुँह में ख़ाक / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जुलेखा का हाथ

अंग्रेजी के पितामह डाक्टर सैमुअल जॉन्सन का यह कथन दिल की कालिख से लिखने के लायक है कि जो शख्स रुपए के लालच के अलावा किसी और भावना के कारण किताब लिखता है उससे बड़ा गधा इस धरती पर कोई नहीं। हम भी इस कथन को शब्दशः मानते हैं बशर्ते कि किताब का अर्थ वही हो जो हम समझते हैं यानी चैक-बुक या रोकड़-बही। प्राक्कथन में यह स्पष्टीकरण अत्यंत आवश्यक है कि यह किताब किस आर्थिक या दैविक आदेश के दबाव से निढाल होकर लिखी गई। चुनांचे जो लेखक बुद्धिमान हैं वह कस्तूरी की तरह खुद बोलते हैं, जो और अधिक बुद्धिमान हैं वह अपने कंधों पर दूसरों से बंदूक चलवाते हैं। स्वयं प्राक्कथन लिखने में वही आसानी और फायदे निहित हैं जो खुदकुशी में होते हैं; यानी देहांत की तिथि, हत्या का उपकरण और हत्या के स्थान का चयन मृतक खुद करता है और पाकिस्तान की दंड-संहिता में यह इकलौता अपराध है जिसकी सजा सिर्फ इस सूरत में मिलती है कि अपराधी अपराध करने में कामयाब न हो। 1961 में पहली नाकाम कोशिश के बाद अल्लाह के करम से हमें एक बार फिर यह शुभ घड़ी अपनी लेखनी से स्वयं प्राप्त हो रही है - तेशा बगैर मर न सका कोहकन 'असद'

यह किताब 'चराग तले' के पूरे आठ साल बाद प्रकाशित हो रही है। जिन प्रशंसकों को हमारी पहली किताब में ताजगी, जिंदादिली और जवानी का अक्स नजर आया, संभव है उनको दूसरी में बुजर्गी के आसार दिखाई दें। इसका कारण हमें तो यही मालूम होता है कि उनकी उम्र में आठ साल की बढ़ोत्तरी हो चुकी है।

इनसान को हैवाने-जरीफ (प्रबुद्ध जानवर) कहा गया है लेकिन यह हैवानों के साथ बड़ी जियादती है, इस लिए कि देखा जाए तो इनसान वह अकेला जानवर है जो मुसीबत पड़ने से पहले मायूस हो जाता है। इनसान अकेला जानदार है जिसे दुनिया बनाने वाले ने अपने हाल पर रोने के लिए अश्रु-ग्रंथियाँ प्रदान की हैं। अधिक इस्तेमाल से यह बढ़ जाएँ तो भावुक व्यंग्यकार दुनिया से यूँ कुपित हो जाते हैं जैसे पुराने युग में स्वामी अपनी लौंडियों से रूठ जाया करते थे। दूसरों की चूक पर उन्हें हँसी के बजाय गुस्सा आ जाता है। बुद्धिमान लोगों की एक किस्म वह भी है जो मूर्खों को सिरे से बर्दाश्त ही नहीं कर सकती लेकिन जैसा कि 'मार्क्विस दि सेद' ने कहा था, वह यह भूल जाते हैं कि सभी इनसान मूर्ख होते हैं। उन्होंने तो यह मशवरा भी दिया है कि अगर तुम वाकई किसी मूर्ख की सूरत देखना नहीं चाहते तो खुद को अपने कमरे में तालाबंद कर लो और शीशा तोड़ कर फेंक दो।

लेकिन हास्य-व्यंग्य लेखक के लिए नसीहत, फजीहत और उलाहना हराम हैं। वह अपने और कड़वे तथ्यों के बीच अट्टहास की एक आदमकद दीवार खड़ी कर लेता है। वह अपना हँसता हुआ मुँह, सूरजमुखी के फूल की तरह हमेशा प्रकाशपुंज की तरफ रखता है और जब उसका सूरज डूब जाता है तो अपना मुँह उधर कर लेता है जिधर वह फिर उदित होगा।

हमः आफताब बीनम हमः आफताब गोयम

न शबम न शब परस्तम कि हदीसे-ख्वाब गोयम

( मैं सूरज देखता हूँ तो सूरज ही कहता हूँ यानी उजाले की बात करता हूँ। न मैं रात हूँ और न रात का पुजारी कि स्वप्नकथा सुनाऊँ)

हास्य की इंद्रिय ही दरअस्ल इनसान की छठी इन्द्रिय है। यह हो तो इनसान हर जगह से सरलता से निकल जाता है।

बेनश्शः किसको ताकते-आशोबे-आगही

(मस्ती के बिना जागृति का तूफान सहने की किसमें शक्ति है।)

यूँ तो हास्य, मजहब और अल्कोहल हर चीज में आसानी से घुल जाते हैं, खास तौर से उर्दू साहित्य में, लेकिन हास्य के अपने तकाजे और नियम हैं। पहली शर्त यह है कि गुस्सा, बेजारी और ईर्ष्या को दिल में जगह न दें वर्ना यह बूमरेंग पलट कर खुद शिकारी का काम तमाम कर देता है। मजा तो जब है कि आग भी लगे और कोई उँगली न उठा सके कि 'ये धुआँ सा कहाँ से उठता है।' व्यंग्यकार तब तक होंठों में दबी मुस्कान के लायक नहीं जब तक उसने दुनिया और दुनिया वालों से रज के प्यार न किया हो। उनसे, उनकी प्रेमविहीनता और विमुखता से, उनके आमोद और होशियारी से, उनके दामन के धब्बों और पवित्रता से। एक पैगंबर के दामन पर पड़ने वाला हाथ गुस्ताख जुरूर है लेकिन वह आशा और लालसा से भरा हुआ भी है। यह जुलेखा का हाथ है - ख्वाब को छूकर देखने वाला हाथ।


'सबा के हाथ में नरमी है उनके हाथों की'

एक विशिष्ट शैली के लेखक, जो साहित्यमर्मज्ञ होने के अलावा हमारे तरफदार भी हैं, (तुझे हम वली समझते जो न सूदख्वार होता - की हद तक) ने एक पत्रिका में दबी जुबान से यह शिकवा किया कि हमारे शरारत भरे लेखन में आज की समस्याओं का अक्स नहीं है और न ही इसमें राजनैतिक दुख-दर्द है। अपनी सफाई में हम संक्षेप में इतना ही निवेदन करेंगे कि अगर तानों-उलाहनों से दूसरों में सुधार आ सकता तो बारूद के आविष्कार के जुरूरत न होती। मौलाना रूमी जो बातों-बातों (इशारों) में सब कुछ कह जाते हैं, एक अँधेरी रात की बात सुनाते हैं। फरमाते हैं कि जंगल बियाबान में एक बच्चा अपनी माँ से चिपट कर कहने लगा कि माँ! अँधेरे में मुझे एक काला भूत नजर आता है और मारे डर के मेरी तो घिघ्घी बंध जाती है। माँ ने जवाब दिया, बेटा! तू मर्द बच्चा है, डर को दिल से निकाल दे। अब की बार जैसे ही वह दिखाई दे, आगे बढ़के हमला कर देना। वहीं पता चल जाएगा कि सच्चाई है या केवल तेरा वहम। बच्चे ने पूछा, अम्मी! अगर उस काले भूत की माँ ने भी उसे यही नसीहत कर रखी हो तो...?

कुछ इलाज इसका भी ऐ शीशागराँ है कि नहीं?

कुछ दिन बाद वह पत्रिका जो प्रबुद्धजन की अगुआ थी और जिसमें इन पंक्तियों के लेखक की राजनैतिक अचेतना और अरुचि की जाँच की गई थी, नवाब कालाबाग के हुक्म से बंद कर दी गई। हमारे आलोचक ने एक पी.डब्ल्यू.डी. के ठेकेदार के यहाँ बहैसियत पब्लिसिटी मैनेजर नौकरी कर ली। फकीर (मैं) ने भी प्रेमविहीन मित्रों और अनाश्रयी नगर से विदा ली और बोरिया-बिस्तर सँभाल दाता की नगरी की राह ली।

ऊ बसहरा रफ्तो-मा दर कूचाहा रुसवा शुदेम

(उसने बियाबान का रास्ता लिया और मैं गली-गली बदनाम हुआ।)

'प्रोफेसर', 'जरा आलू का कुछ बयाँ हो जाए' और 'बाइफोकल क्लब' इसी यात्रा के वृत्तांत हैं। पढ़ने वालों को इनका रंग अगर अलग दिखाई पड़े तो यह लाहौर के जिंदादिल लोगों के सामीप्य का असर है।

लोग क्यों, कब और कैसे हँसते हैं? जिस दिन इन प्रश्नों का सही-सही उत्तर मिल जाएगा, आदमी हँसना छोड़ देगा। रहा यह सवाल कि किस पर हँसते हैं तो यह हुकूमत की सहनशीलता पर निर्भर है। अंग्रेज सिर्फ उन चीजों पर हँसते हैं जो उनकी समझ में नहीं आतीं जैसे पंच के लतीफे, मौसम, औरत और प्रतीकात्मक कला इसके विपरीत हम लोग उन चीजों पर हँसते हैं जो अब हमारी समझ में आ गई हैं - मसलन अंग्रेज, इश्किया शायरी, रुपया कमाने की तरकीबें, प्रजातंत्र।

फकीर की गाली, औरत के थप्पड़ और मसखरे की बात से दुखी नहीं होना चाहिए। यह कथन हमारा नहीं मौलाना उबैद जकानी का है। व्यंग्यकार इस कारण भी लाभ में रहता है कि उसकी अश्लील से अश्लील स्पष्ट गलती के बारे में भी पढ़ने वाले को यह अंदेशा लगा रहता है कि मुमकिन है इसमें भी हास्य-व्यंग्य का कोई बारीक पहलू छुपा हो जो शायद मौसम की खराबी की वज्ह से उसकी समझ में नहीं आ रहा। इस मूल अधिकार पर अधिकार छोड़े बिना यह मान लेने में कोई हरज नहीं कि हम भाषा और व्याकरण की पाबंदी पर अकारण संकोच नहीं करते। अपनी अक्षमता की स्वीकारोक्ति इसलिए और भी जुरूरी है कि आजकल कुछ लेखक बड़ी कोशिश और मेहनत से गलत भाषा लिख रहे हैं। हाँ कभी-कभार बेध्यानी या आलस में सही भाषा लिख जाएँ तो और बात है। भूल-चूक किस से नहीं होती?

आदरणीय व दयालु जनाब शानुल-हक-हक्की ने जिस ध्यान और मुहब्बत से इस संकलन के पाँच निबंधों का अध्ययन किया उसके लिए लेखक सर से पैर तक आभारी है। उन्होंने न सिर्फ उपयोगी सुझावों से सम्मानित किया बल्कि यह कह कर लेखक का दिल भी बढ़ाया कि आप कहीं-कहीं घिसे-पिटे मुहावरे प्रयोग कर जाते हैं लेकिन आपका इमला (श्रुतिलेख) बेहद 'ओरीजनल' है चुनांचे 'मबदा' को मब्दः, 'परवाह' को परवा और वतीरा (बीच में 'तोय') को वतीरा (बीच में 'ते') लिखना हमने उन्हीं से सीखा और यह भी उन्हीं से मालूम हुआ कि अताई और तोता ('तोय') का सही इमला अताई और तोता (ते से) है। सुधार के जोश में हम तवायफ को भी 'ते' से लिखने पर तैयार थे लेकिन तोते वाली बात दिल को नहीं लगी। इसलिए कि तोते को अगर तोय से लिखा जाए तो न केवल यह कि अधिक हरा मालूम होता है बल्कि तोय का गोला जरा ढंग से बनाएँ तो चोंच भी नजर आने लगती है।

और झूठ क्यों बोलें, तवायफ-उल-मुलूकी (अराजकता) का सही मतलब भी हक्की साहब ही ने बताया वरना हम तो कुछ और समझे बैठे थे। अरबी और फारसी की बस इतनी जानकारी है कि मैट्रिक तक हम ऐजन को किसी लिख्खाड़ शायर का तखल्लुस (उपनाम) समझकर हर गजल के ऐजन पर अपना खून खौलाते रहे। अच्छा याद आया! राहजन का शाब्दिक अर्थ मिर्जा ने जने-बाजारी (बाजारू औरत) बताया था और सच तो यह कि जब से इसके सही मानी मालूम हुए हैं, 'ग़ालिब' और आतिश की पंक्तियों 'होकर असीर दाबते हैं राहजन के पाँव' 'हजार रहजने-उम्मीदवार राह में हैं' का सारा मजा ही जाता रहा। अब कहाँ से लाऊँ वह अज्ञानता के मजे?

बहरहाल हक्की साहब शोध के मैदान के योद्धा हैं उन्हें प्राचीन शब्दों और घटनाओं के अलावा कोई और बात मुश्किल ही से याद रहती है। मसलन वह यह फौरन बता देंगे कि तईं (लिए) कब साहित्य से हटाया गया; उस्ताद (ग़ालिब) के काव्य में 'आईना' कितनी बार आया है; सितमपेशा डोमनी ने मुगल बच्चे को किस सत्र में जुदाई का दाग दिया; उस्ताद के मकान का पता और बकाया किराया क्या था, लेकिन अपने मकान का पता बताने के लिए उन्हें बेगम से संशय का आदान-प्रदान करना पड़ता है। वह खुद भी अपनी अनुपस्थित-बुद्धि के चुटकुलों को सिक्खों के समझकर खूब मजा लेते हैं। एक दिन THE ABSENT MINDED PROPFESSOR से फिल्म की रिजर्वेशन बुकिंग की 'क्यू' में भेंट हो गई। थोड़ी देर बाद हम दोनों 'क्यू' से इस पर बहस करते हुए गुत्थम-गुत्था निकले, बल्कि निकाले गए कि सही लफ्ज 'कमीज' है या 'कमीस'। मिर्जा से संपर्क साधा तो बोले, 'सही पहनावा बुशर्ट है!' बाहर निकले तो हमने अपनी कार का दरवाजा खोला और हक्की साहब शुक्रिया अदा करते हुए दाखिल हो गए। दाखिल ही नहीं हुए बल्कि स्टीयरिंग व्हील सँभाल लिया। अपने कोट की अंदर-बाहर की जेबों को खँगालने के बाद हाथ की इत्तिफाकी रगड़ से हमारी पतलून की जेब को भी टटोल लिया। अंततः अपनी कमीज की जेब से एक चाबी बरामद की, पूरा जोर लगाने के बाद यह चाबी न लगी तो फरमाया कि इस बेहूदे ड्राइवर को हजार बार कह चुका हूँ कि किसी और वर्कशॉप में सर्विस कराए। जब भी सर्विस होती है एक नई खराबी पैदा हो जाती है। हमने साहस करके निवेदन किया, कसूर दरअस्ल हमारी कार के छेद का है जो आप की चाबी में फिट नहीं हो रहा है। चमक कर बोले 'हाँ! कुसूर पर खूब याद आया आपने एक जगह 'फौतीदगी' लिखा है। यह मारवाड़ियों की-सी उर्दू आपने कहाँ से सीखी?' निवेदन किया, 'मारवाड़ में, जहाँ हम पैदा हुए।' हमें कार से उतार कर फुटपाथ पर गले लगाते हुए बोले, 'तो गोया उर्दू आपकी मातृभाषा नहीं है हालाँकि आपकी पत्नी तो मूलतः उर्दूभाषी हैं।' खुदा उन्हें खुश रक्खे कि उन्होंने हमारी उर्दू की नोक-पलक सँवारने में हमारी बेगम का हाथ बँटाया है।

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

24 अक्टूबर 1969 ई.

पुनश्च! रस्मे-दुनिया, मौका और दस्तूर तो नहीं लेकिन मकते में कुछ ऐसी सुखनगुस्तराना बात आ पड़ी है कि जनाब जमील अहमद कुरैशी खुशनवीस (सुलेखक) का कर्ज उतारना जुरूरी हो गया। चार साल पहले उन्होंने इस किताब की किताबत (हस्त-लेखन) के दौरान हाशिए पर पेन्सिल से जगह-जगह अपने निजी विचारों से संकुचित लिपि में ज्ञान बढ़ाया (आखिर में तो ओछे निशानों पर उतर आए थे!! ? X) और नक्ल के साथ अधर्म की निशानदेही भी करते रहे। जैसे एक निबंध में हमने अपने शिकार के सिलसिले में गाँव ढिल्लम बग्गन का खाका उड़ाया था। उन्होंने पांडुलिपि पर कलम फेरते हुए हाशिए पर अंकित किया 'मगर यह तो मेरा पैतृक गाँव है' और उसकी जगह खुद से 'टोबा टेक सिंह' जड़ दिया जहाँ शायद उनकी सुसराल है। पेज 207 पर हमने लिखा था कि एक खेल (FARCE) में शहंशाह अकबर ने अनारकली के सुंदर मुख पर इस अंदाज से तमाचा मारा कि हमें तो दूर से यही लगा कि महाबली पाँच मिनट तक अनारकली का गाल सहलाते रहे। जमील साहब ने जैसे-तैसे किताबत तो कर दी लेकिन 'पाँच मिनट' के गिर्द पेन्सिल से गोला बनाकर हाशिए पर इसे ओछी हरकत लिखा। इस एतराज को ध्यान में रख कर हमने पाँच मिनट के बजाय दो मिनट कर दिया है।

1965 की किताबत में कुछ हिस्से किताबत के विचार से काफी कमजोर थे। उन्हें हमने निकाल दिया। फिर जमील साहब ने चुन-चुन कर वह पन्ने अलग किए जो उनके विचार में निबंध लेखन के लिहाज से काफी कमजोर थे। जब दोनों कार्य सख्ती से और बिना रक्तपात के पूरे हुए तो पता चला कि किताब में सिवाय प्राक्कथन के कुछ शेष नहीं रहा, वह भी इसलिए कि अभी लिखा नहीं गया था।

चुनांचे टुकड़े-टुकड़े जिगर को फिर जमा किया। जून 1969 में सारी किताब की दूसरी बार काफी खर्चे से किताबत शुरू हुई जिसका अक्से-जमील (सुंदर प्रतिबिंब) प्रस्तुत है।

जमील साहिब ने वचनानुसार नजरअंदाज किया, लेकिन हमने भी इस बार पांडुलिपि और आफसेट के मैटर पर हाशिया बिल्कुल नहीं छोड़ा था।

यूसुफ़ी

जमील का निवेदन : लेखक को अब भी हाशियों से विरोध है तो बंदा तीसरी बार किताबत करने के लिए तैयार है।

जमील अहमद कुरैशी

बकलम खु