मन्नू भंडारीः जैसा मैने पाया / अजित कुमार / पृष्ठ 2

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मन्नू भंडारी : शालीनता और सौजन्य का एक आख्यान -2

उन दोनों के साथ लगभग पैंतालीस-पचास वर्षों की अपनी मित्रता के दौरान जहाँ मैंने देखा कि हिन्दी में दोनों के ही समर्थक तथा विरोधी खेमे बन चले हैं, मेरी भावना ने उन दोनों को अपने निकट बनाये रखा और मैंने गौर किया कि जहाँ अपनी स्वाधीनता बनाये रखने के हठ के अलावा, राजेन्द्र ने मन्नूजी से- उनकी बातों के उत्तर में खामोश रहने या सो जाने को छोड़

(जो अवश्य असह्य रहा होगा यद्यपि वे सफ़ाई में बताते कि लताड़ से उनको नींद आ जाती है)-

कोई अन्य दुर्व्यवहार नहीं किया, साथ ही मुझे घनिष्ट मित्र समझते हुए भी मन्नूजी की कोई गम्भीर शिकायत कभी नहीं की (सिवा इसके कि गुट्ठल स्नेह्जी की तुलना में मन्नू ‘डिमांडिंग होते हुए भी सीधी और सरल है’ जिसका अर्थ मैंने लगाया था कि उन्हें टेढी बीबी मिली होती तो शायद उनकी अक्ल कुछ ठिकाने आती)

हाँ, कुछ वर्ष पहले, जब उन्होंने मन्नूजी के विषय में कोई क्षुद्र टिप्पणी लिखी थी, हम कुछ मित्रों ने उन्हें आड़े हाथों लिया था और मुझे जानकर खुशी हुई कि अपनी अड़ियल फ़ितरत के बावजूद, अन्तत: उन्होंने सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगी… लगभग इसी तरह, मैंने देखा कि चरम हताशा या कटुता के क्षणों में भी मन्नूजी ने अपनी नारीसुलभ सरलता-शिष्टता नहीं त्यागी ।

अवश्य ही, राजेन्द्र की ही तरह मन्नूजी के भी कुछ निन्दक ज़रूर होंगे -एकाध का अनुमान तो मुझे भी है, पर जहां तक मुझे पता है, मन्नूजी ने, भरसक, स्वयं राजेन्द्र के लिये, उनके व्यवसाय के लिए, उनके सामाजिक-साहित्यिक-वैयक्तिक सम्बन्धों के लिये, ननदों-देवरों सहित अपनी ससुराल के तमाम पारिवारिक दायित्वों के लिये- लीक से हटकर भी- अधिक-से-अधिक करने-निभाने का बल-बूता काफ़ी लम्बे समय तक बनाए रखा ।

यही नहीं, कटु से कटु क्षणों में भी उन्होंने मेरे सामने एकाधिक बार मंज़ूर किया कि

‘अजितजी, कुछ भी हो, निकम्मा सही, पर मेरा आदमी है तो सुन्दर और सजीला’

जिसमें निहित दुलार और अभिमान को मैंने सराहा और उसे दोनों के बीच मौजूद गहरे रिश्ते का सबूत माना, केवल इस नाते नहीं कि राजेन्द्र सजीले-सुन्दर व्यक्ति हैं –वह तो वे हैं ही -और अब निकम्मे न रह, हर लिहाज से पर्याप्त सफल हो गये हैं… इस नाते भी कि राजेन्द्र ने खुद ही कई बार यह जाना-पहचाना कि एक मित्र के रूप में वे मन्नूजी पर किस क़दर भरोसा कर सकते हैं । सौभाग्यवश, मैं इसका साक्षी भी रहा कि उन दोनों में अपने-अपने राग-विराग के बावजूद, गज़ब की तटस्थता, पारस्परिक लगाव और जीवनी-शक्ति रही है ।

इसीमें यह जोड़ना भी ज़रूरी समझता हूँ कि मन्नूजी ने भले ही मात्रा में राजेन्द्र की अपेक्षा बहुत कम लिखा हो पर लेखन की प्रतिबद्धता उनमें लगभग राजेन्द्र जैसी ही रही- मन्नूजी भी उसे पूरी गम्भीरता और समर्पण की भावना से थामे रहीं । साथ ही उन दोनों ने मेरे जैसे व्यक्ति की मित्रता झेली, जिसके लिये लेखन कभी प्राथमिक नहीं रहा, वह जीवन के बहुतेरे कामों में से केवल एक और अकसर सबसे अन्त में आनेवाला काम था,-- भले ही प्रिय लेकिन किसी भी बहाने टाला जा सकने वाला ।

इस जोड़ी के प्रति और लेखन को ओढना-बिछौना मानने-समझनेवाले बहुतेरे अन्य मित्रों के प्रति मेरे आकर्षण का रहस्य भी शायद यही था कि जहाँ वे सब सचमुच दत्तचित्त लेखक रहे- एक विशेष अर्थ में ‘प्रोफ़ेशनल’, वहाँ मैं शुरू से लेकर अब तक शौकिया- अमेचर- लेखक बना रहा या कहूँ, मैंने वैसा ही होना चाहा ।

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मन्नूजी को लिखते या लेखन-प्रक्रिया से गुज़रते देखने का अवसर मुझे थोड़ा-बहुत मिला है और उनकी यह आदत मुझे पसन्द आई कि जब किसी विचार ने उन्हें बहुत मथा तो मित्रों के बीच कभी-कभी उसकी चर्चा उन्होंने भले की हो ताकि जब वे उसे लेखन में सचमुच उतारने बैठें तो सामग्री पके-पकाये रूप में उनको उपलब्ध रहे लेकिन मेरी नज़र में आया कि वास्तविक लेखन के दौरान वे उसके बारे में अधिक बात नहीं करती थीं, अपने लेखन की निजता, विशेषता या ‘प्राइवेसी’ बनाये रखती थीं ।

एकाध बार उन्होंने ज़िक्र तो किया था कि ‘आपका बंटी’ के मूल में मोहन राकेश और ‘महाभोज’ के मूल में सुखाड़ियाजी उनके ध्यान में थे पर जब वे एकाग्रचित्त से काम करने के लिये घर छोड़, मिरांडा हाउस होस्टल में रह ‘आपका बंटी’ लिख रही थीं, तब हमने ‘धर्मयुग’ में भले उसे धारावाहिक रूप में पढा पर मन्नू जी ने उसके अंश पढकर हमें कभी नहीं सुनाये । इसी तरह, ‘महाभोज’ लिखने के दौरान भी उन्होंने उसे अपने तक ही सीमित रखा । उसे लिख चुकने के बाद एक मित्र अधिकारी को इस दृष्टि से पढाया ज़रूर था कि सरकारी तन्त्र विषयक कोई भूल-चूक रचना में न रह गयी हो लेकिन जहाँ तक मुझे पता है, मेरी तरह अपने आधे-अधूरे लेखन को ही अपना पूरा लेखन उन्होंने नहीं बनाया, न उसके प्रति मेरे-जैसा ढीला-ढाला, ‘कैज़ुअल’ रुख अपनाया…

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कविता तो वे लिखती नहीं, मेरी एकाध कविता पर निगाह पड़ने के बाद शायद उन्होंने कविता पढना भी छोड़ दिया गोकि सोचता हूं वे राजेन्द्र सी कविताद्रोही न होंगी । उनके गद्य में जो निष्प्रयासता दिखती है, उसकी सिद्धि के लिये उन्होंने कितना प्रयास किया, यह मैं नहीं जानता । यदि उन्होंने अपने लेखन के विभिन्न प्रारूप सहेजकर रखे होंगे तो उनके निरीक्षण से शायद अध्येताओं को पता लग सके, पर जब वे कुछ दिनों के लिये हमारे साथ, स्नेहमयी के रामगढ-स्थित घर में रहीं, और अपनी ताज़ी किताब ‘एक कहानी यह भी’ का कुछ हिस्सा वहाँ रहकर लिखा तो मैं लेखन के प्रति उनकी निष्ठा, गम्भीरता और अनुशासन से बहुत प्रभावित हुआ था ।

साथ ही, आतिथेय के घर की व्यवस्था में उनकी रुचि-प्रवृत्ति ने भी मुझे मुग्ध किया गोकि मैं यह पहले से जानता था और देखता भी था कि अपने घर को सुचारु रीति से चलाने-सजाने-सँवारने में वे कितनी कुशल हैं और सेवकों को सिखाने-समझाने को कितनी सूझ-बूझ और होशियारी से अंजाम देती हैं ।

कौन जाने, यही पद्धति वे लिखने में भी अपनाती हों, पर मैंने तो उनका लिखा हुआ जो भी पढा, सीधा-सरल-सहज रूप से नि:सृत पाया और इसे उनके लेखन का एक विशेष गुण भी समझा । शायद यही वजह रही होगी या कोई अन्य कि कविता और कथा के परम पारखी डा0 नामवर सिंह ने कुछ वर्ष पूर्व मेरी पत्नी स्नेहमयी चौधरी के पाँचवें कविता-संग्रह ‘हड़कम्प’ का, उनकी अनुपस्थिति में, लोकार्पण करते हुए यह राय ज़ाहिर की थी कि जिस तरह वे मन्नूजी को राजेन्द्र यादव की तुलना में बेहतर कथाकार मानते रहे हैं, उसी तरह स्नेहमयी चौधरी को भी अजितकुमार से बेहतर कवयित्री समझते हैं । मैं यह तो नहीं जानता कि इस टिप्पणी पर राजेन्द्र तथा उनकी विशाल प्रशंसकमंडली की प्रतिक्रिया क्या होगी पर मैंने उस अवसर पर भी यही कहा था और आज भी मानता हूँ कि मेरी माँ सुमित्राकुमारी सिनहा तो खैर मुझसे अच्छी लेखिका थीं ही, मेरे बाद लिखना शुरू करनेवाली छोटी बहन कीर्ति चौधरी भी मुझसे अच्छा लिखती थी और उसके भी बाद सामने आईं मेरी पत्नी स्नेहमयी चौधरी तो मुझे पीछे छोड़ बहुत आगे बढ गयीं । यही क्यों, यदि परिवार के बीच ही साहित्यिक फ़ैसले करने हों तो मैं कहना चाहूँगा कि मेरे बहनोई ओंकारनाथ श्रीवास्तव हम सभीसे कहीं अधिक प्रतिभाशाली लेखक थे और ओंकार-कीर्ति की बेटी- अंग्रेज़ी में लिख रही अतिमा श्रीवास्तव का तो कहना ही क्या । पर यह अवसर मन्नूजी की चर्चा का है, उसका उपयोग आत्म-प्रचार के लिये क्यों करूँ ।…

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अनेक वर्ष पड़ोस में बिताने के बाद, जब हम दूर-दूर जा बसे, पिछले तीसेक बरसों के दौरान- मैं तो ललक कर गाहे-बगाहे पहुँचता रहा, पर उन दोनों का वैशाली, पीतमपुरा आना लगभग खत्म हो गया है । तो भौतिक निकटता और भौतिक दूरी से पड़ जानेवाले फ़र्क को भी मैं रेखांकित करना चाहूँगा जिसे नज़रअन्दाज़ करने पर ‘एब्सेन्स मेक्स द हार्ट ग्रो फ़ाण्डर’ जैसी अनुभूति होती है और जिसकी सच्चाई को मेरे उस मित्र ने रेखांकित किया था जिनकी मेज़ जब तक दफ़्तर की सहयोगिनी की मेज़ के साथ सटी रही, परस्पर प्रेम बढता रहा और जब दोनों की मेज़ें दूर-दूर हो गईं तो प्रेम भी घटते-घटते आखिरकार मिट गया ।

वैसी दूरी तो हमारे बीच नहीं आई, पीतमपुरा- हौज़खास-मयूरविहार के बीच मौजूद फ़ासलों, बढती उम्रों और मन्नूजी के

‘आप फ़ोन पर एक रुपया भी नहीं खरच सकते’

जैसे मीठे उलाहनों के बावजूद … लेकिन यह सच है कि सन साठ के बादवाले दशक में जब हम दोनों के परिवार निकट के मोहल्लों- माडलटाउन और शक्तिनगर- में रहते थे… हर रोज़ बात होती थी, हर अगले रोज़ मुलाक़ात …

तब की एक घटना सुनाता हूँ जब उचंग उठने पर मैं घर में भी किसी को बताये बिना स्नेहमयी के साथ अचानक उनके जन्मस्थान मौरावाँ पहुँच गया था जो एक समय खत्री तालुकेदारों का गढ होने के बावजूद तब उजड़ चुका था… वहाँ के घर में बस परिवार का पुराना सेवक, स्नेह का मुँहबोला भाई, ननकू रहता था जिसने तीन-चार दिन हमारी बड़ी सेवा की । उस मधुर यात्रा का हाल मैंने अपने एक सफ़रनामे ’बढता हुआ गाँव या पिछड़ा हुआ शहर’ में लिखा भी है, जिसके अन्त में जो ज़िक्र छूट गया था, उसका बयान अब करता हूँ क्योंकि उसका गहरा सम्बन्ध मन्नूजी-राजेन्द्र के साथ हमारी उन दिनों की दोस्ती से है ।

हुआ यों कि मौरावां में रहने-घूमने-लोगों से मिलने-जुलने के बाद जब हम दोनों लौटने लगे, ननकू ने स्थानीय मिठाईवाले से खरीद, हाँडी-भर उम्दा कलाकन्द हमारे साथ कर दी, जिसे हाथ में लटकाये जब मैं दिल्ली के जी- 6, माडल टाउन वाले घर में सुबह- सुबह घुसने को था, देखता क्या हूँ- गली के दूसरे छोर से मन्नूजी और राजेन्द्र चले आ रहे हैं । वे लोग पिछले तीन दिनों से फ़ोन-पर फ़ोन मिलाने और हमारा कोई समाचार न पाने से चिन्तित हो, स्वयं देखने आए थे कि आखिर माजरा क्या है ?

हमारी गली में घुसते ही राजेन्द्र की नज़र मुझपर पड़ी-- स्नेह घर के भीतर जा चुकी थीं-- मैं स्कूटरवाले की अदायगी के लिये तब तक बाहर ही था… इसमें दिलचस्प बात यह हुई कि जब हम हँसते-बोलते चाय पी रहे थे और मैं हाँडी से कलाकन्द निकाल खाते-खिलाते हुए मौरावाँ की दास्तान उनको बता रहा था, जहाँ के खत्री तालुकेदारों ने रेल की पटरी वहाँ से इसलिये नहीं निकलने दी थी कि इंजन की सीटी बजने से उनकी नींद में खलल पड़ेगा… राजेन्द्र ने मेरी पीठ पर अपना प्यारभरा सुपरिचित मुक्का जमाते हुए कहा-

‘मैंने जब तुम्हारे हाथ में लटकती हाँडी देखी तो अन्देशा हुआ- कहीं तुम स्नेहजी को गंगा-किनारे फूँक-ताप कर हाँडी में उनकी अस्थियाँ बटोर तो वापस नहीं लौट रहे…इतने दिनों से तुमलोगों का कोई हाल न मिलने से खटका बना ही हुआ था… फिर सड़क पर अकेले तुमको देख यही खयाल मन में सबसे पहले आया’…

यह सुन, तब तो हम चारो बड़ी देर तक हँसते रहे थे…लेकिन आज भी यह बात मेरे मन में इसलिये अटकी हुई है क्योंकि उसके साथ राजेन्द्र की वह खास विनोद-वृत्ति जुड़ी थी जिसे अंग्रेज़ी में कह सकते हैं- ‘राइ सेन्स आफ़ ह्यूमर’- हिन्दी में, शायद औघड़ अन्दाज़। हम दोनों उस ज़माने में अकसर घर-बार छोड़ बाबा-चेला बनने के मनसूबे बाँधा करते थे जो कभी पूरे न हो सके ।

– ‘बन को चले राम रघुराई, संग में चलीं जानकी माई’…

सुनाकर राजेन्द्र कहा करते- ‘देखा, ‘जान को माई’ वहाँ भी लग लीं, बन में भी रामजी के प्राण नहीं छोड़े- ऐसे जंगल में जाने से क्या फ़ायदा’ …

फिर अपनी योजना फिस्स होते देख मैं राजेन्द्र की मांसल, गुदगुदी हथेलियों के अनोखे गठजोड़ से उत्पन्न उनकी विशेष ताली और उससे संलग्न धुन- ‘बाबा मौज करेगा’… बाबा तो मौज करेगा’ पर लोट-पोट हो जाता था । उसके बाद, हठकर, उनसे ब्रजभाषा की परेड और सुअरों के बीच सुबह-सुबह हाजत रफ़ा करने के चटपटे क़िस्से सुन जब मैं हँसते-हँसते पागल हो जाने से बच पाता तो मन्नूजी से कहता-

‘जब आपने बाबा को मौज करने की इतनी छूट दे ही दी तो भोगिये खुशी-खुशी … और इसमें शक नहीं कि खुशी या नाखुशी से उन्होंने उसे भोगा या भुगता भी …

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चुहलभरे वे दिन अब नहीं रहे ,अपने-अपने द्वीपों में सिमटे हम पड़े रहते हैं, न्यूरैल्जिया के दर्द से परेशान मन्नूजी, झुकी कमर में चुभती हड्डी से दुखी स्नेहमयी, लक़वे के हमलों का मारा मैं…और तो और जिन्हें उम्र में अधिक होने के बावजूद हम सबसे टाँठा और सख्तजान समझते थे- उन राजेन्द्र के बारे में भी कल पता चला- पीठ ने बेहाल कर रखा है ।

लेकिन भरोसा मुझे पूरा है कि हम सबका प्यारा यह ‘डोरियन ग्रे’ अखाड़े की मिट्टी में लोटपोट, उठ खड़ा हो, अपना मोर्चा सँभाले रखेगा, सदा की भाँति अल्हड़-मस्त बना रहेगा और उसकी जिजीविषा का संस्पर्श मन्नूजी के भी नूरैल्जिया को आपरेशन हो जाने के बाद, समूल उखाड़ फेंकने में सहायक साबित होगा ।

इन कल्पनाओं में मग्न मैं आँख मूँद उन गुज़र चुके दिनों को याद करता हूँ… राजेन्द्र स्नेह के कविता संग्रह का नाम सुधारते हुए कहते थे- ‘इसे कीजिये- ‘पूरा पाठ गलत’ लेकिन वे ‘पूरा गलत पाठ’ रखने की अपनी ज़िद पर अड़ी रही थीं…यह बहस लम्बी खिंची थी… बरस- दर- बरस राजेन्द्र, लालानी जी और चोरड्याजी आदि मित्रों के साथ गपशप करते, खाते-पीते हमने ‘कंस’ तथा ‘हंस’ से जुड़ी कितनी बेशुमार योजनाएँ बनाई थीं…जो मन्नूजी बाद के वर्षों में सार्वजनिक भागीदारी से लगातार कतराने लगीं उन की सफल अध्यापिका के रूप में एक समय कितनी अधिक ख्याति थी … तब शान्त- स्थिर स्वर से दिये गये अपने सन्तुलित भाषणों द्वारा वे पूरी सभा को किस भाँति मन्त्रमुग्ध रखती थीं …

तकलीफ़ इसकी नहीं कि वह सब गुज़र गया…क्या हम जानते नहीं कि सब दिन एक-से नहीं रहते…धीरज धरने के लिये अब भी हमारे पास बहुत कुछ शेष है, मसलन कवि की यह उक्ति-

‘दिन यदि चले गये वैभव के, तृष्णा के तो नहीं गये… साधन सुख के गये हमारे, रचना के तो नहीं गये।‘

और यह मात्र संयोग नहीं कि राजेन्द्र-मन्नू की सुयोग्य बेटी का नाम भी ‘रचना’ है ।

उसने अन्यान्य क्षेत्रों में सफल होने के बाद, इधर देश की उल्लेखनीय नृत्यांगना के रूप में अपनी अच्छी पह्चान बनाई है । उसके विख्यात छायाकार पति ‘दिनेश’ और उन दोनों की प्यारी बेटियाँ- मायरा और माही- राजेन्द्र-मन्नूजी के कितने अधिक सुख-संतोष का निमित्त हैं और मुझ जैसे परिवार के इष्ट-मित्र उनके माध्यम से अपना जीवन फिर से किस भाँति जीने का आनन्द पा सकते हैं- इसका दिलासा भी कुछ कम नहीं । जिस तरह हमारे पुरखे हमारी शक्ल में शायद लौटे होंगे, उसी तरह हम भी शायद अपने बाद की पीढियों में जीवित रहेंगे ।