माधवी / भाग 2 / खंड 3 / लमाबम कमल सिंह

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बिछोह

“शावक के पकड़े जाने से हिरणी

जैसे सहती बिछोहाग्नि भागते-फिरते

जैसे गिरती रात्रि की ओस पत्तों पर

बहर रहे आँसू, सहा जा रहा बिछोह-ताप तड़प-तड़प।“

कालेन् (कालेन् : मणिपुरी वर्ष का दूसरा माह) माह की पूर्णिमा आ गई। बीच-बीच में बारिश होने से तालाब, नाले, झील आदि सारे जलाशय पानी से लबालब भर गए। कुमुदिनी, कमल आदि जल-पुष्प जगह-जगह प्रफुल्लित होने लगे। उरीरै, चम्पा, नागकेशर, मल्लिका आदि अनेक स्थल-पुष्प बगिया में, आँगन के किनारे, और बाड़े के सहारे उन्मुक्त रूप में खिलने लगे। दिन की धूप का सारा ताप शान्त करके रात्रि में चन्द्रमा ने अपनी शीतल ज्योत्स्ना बिखेरनी शुरू कर दी। नव-किसलयों से भरे घने पत्तों वाले पेड़, पूर्ण प्रफुल्लित पुष्प, पानी से लबालब भरे तालाब, झीलें और नदियाँ-ये सब चाँदनी की किरणें पड़ने से धवल हो गए। पुष्पगन्ध भरे मन्द-मन्द बहते पवन के मानव-शरीर को स्पर्श करने मात्र से दिन-भर की धूप का ताप मिट गया। ज्योत्स्ना-स्नात हरे पत्ते मन्द समीर द्वारा छू लिए जाने-भर से झिलमिलाने लगे। ऐसी आनन्दमयी रात्रि में राजकुमार वीरेन्द्र सिंह अपने मित्र शशि के साथ घर से निकला और सीधे उरीरै के प्रवेश-द्वार के भीतर चला गया।

आँगन के एकदम छोर पर घने पत्तों वाला मल्लिका का एक पौधा था। वीरेन् और शशि को सीधे घर के अन्दर जाने में थोड़ा संकोच हुआ, इसलिए वे फूल तोड़ने के बहाने मल्लिका के उस पौघे की ओट में खड़े हो रहे। उसी समय उरीरै भी घरेलू काम-काज से निपटने के बाद पसीने से भीगने के कारण सुस्ताने की इच्छा से एक छोटा-सा पंखा लिए बाहर निकली। चाँदनी में धवल मल्लिका को खिलते देख तोड़ने के लिए पौधे के समीप तक चली आई। पौधे की ओट में कुछ लोगों के छिपे हाने का आभास हुआ, तो डर के मारे घर के अन्दर भागने को मुड़ी, तभी वीरेन् ने झट से उठकर “धीरज रखो, घबराओ मत” कहते हुए उरीरै की कलाई पकड़ ली। मुड़कर देखने पर वीरेन् को पाया तो अचानक अति प्रसन्नता से रोमांचित होने के कारण पसीने की बारीक बूँदों से भीगी उरीरै कुछ भी नहीं बोल सकी। जैसे प्रेमी-प्रमिका मुलाकात के पहले, अमुक-अमुक बात कहने की सोचते हैं, किन्तु जब मुलाकात होती है, तो कुछ भी नहीं कह पाते; वैसे ही उस एकान्त के समय मुलाकात होगी, यह विश्वास न रहने के कारण कोई विशेष तैयारी भी नहीं की थी, और विशेषकर घर पर तो लड़कियाँ अधिक शर्मीली होती हैं; इसी कारण उरीरै सिर झुकाए चुप रह गई। वीरेन् भी चुप रह गया, शशि भी कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर तक वहाँ सन्नाटा छाया रहा। मल्लिका पुष्प का मकरन्द-पान कर रहा एक भ्रमर शायद अपनी हँसी नहीं रोक सका, गुनगुनाते हुए उड़कर चला गया। हवा के मन्द-मन्द चलने से आपस में टकराते पत्ते ऐस लगे कि जैसे वे ताली बजाकर हँस रहे हों। तारे भी एक-दूसरे को आँख मारते हुए टिमटिमाने लगे। किन्तु तब तक भी उरीरै ने अपना चेहरा ऊपर नहीं उठाया। वीरेन् ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, “इतनी जल्दी भुला दिया! वारुणी-दर्शन के दिन की मुलाकात, हैबोक् पर्वत के उद्यान में हुआ वादा और मुलाकात - वह सब कुछ ही दिनों में भूल गई हो! अगर पता होता कि इतनी जल्दी भुला दोगी, तो व्यर्थ में प्रेम की कल्पना करते हुए अपने मन को परेशान नहीं करता।” यह सुनते ही मन से घायल उरीरै ने धीरे-धीरे उत्तर दिया, “एक बार ही सही, कब मेरे यहाँ आओगे, इसी प्रतीक्षा में हूँ। बोलना नहीं आता, इसलिए चुप हूँ।” यह कहकर सिर झुकाए अपना अगूँठा जमीन पर रगड़ने लगी। उसकी यह बात सुनते ही शशिकुमार सिंह (लोग उसे शशि के नाम से पुकारते हैं) ने कहा, “बोलना आता है या नहीं, इसका साक्षी मैं हूँ - हैबोक् पर्वत के उद्यान में वीरेन् के साथ पहली मुलाकात के दौरान शायद कुछ भी नहीं बोली थी।” यह सुनते ही और भी लज्जा से भरकर सिर पहले से अधिक झुका लिया। साथ में उरीरै की कोई सहेली होती और वह “लड़कियाँ घर पर गूँगी ही होती हैं” कह पाती तो वह उचित उत्तर होता। हैबोक् पर्वत के उद्यान में तो उरीरै की एक सहेली थी - वीरेन् अकेला था, और अब वीरेन् के साथ उसका एक मित्र है और उरीरै अकेली है, इसलिए शर्मीली उरीरै की लज्जा और अधिक बढ़ गई - उरीरै यह प्रकट नहीं कर सकी - वीरेन् और शशि भी नहीं समझ सके। वह उसे भूल गई है, उपेक्षा करने लगी है और भुवन के साथ उसका प्रेम-सम्बन्ध हुआ होगा - ऐसा सोचकर उसके मन को अत्यधिक दुख हुआ। वीरेन् बोला, “भुला दो या नहीं, वचन के अनुसार यह बताने आया हूँ - कल मुझे परदेश जाकर पाँच-छह वर्ष तक वहीं रहना है। विश्वास नहीं कि जब मैं लौटूँगा, तब तुम्हें इस घर में फिर देख भी पाऊँगा! फिर भी मुझ अभागे की कभी याद आए और देर रात्रि के समय पोखरी के किनारे वाले चम्पा के पेड़ पर बैठकर कोई कोकिल कूके तो समझना कि वो मैं हूँ।” “कल परदेस चला जाऊँगा”, यह सुनते ही दुख में डूबी दीर्घ श्वास लेते हुए जब कुछ कहने को हुई, तभी घर में से माँ बार-बार 'उरीरै-उरीरै' पुकारने लगी। वीरेन् और शशि तुरन्त चले गए। उरीरै वीरेन् को नहीं रोक सकी, हृदय में बिछोहाग्नि का दाह लिए अकेली टुकुर-टुकुर देखती रह गई।

माँ के बार-बार पुकारने पर अन्दर जाने को विवश, किन्तु माँ को पता न चले, इसलिए आँखों की कोरों से बहनेवाले आँसुओं से भीगे दोनों कपोलों को बार-बार रगड़ने-पोंछने के कारण सूजा चेहरा लिए उरीरै घर के अन्दर चली गई। “देर हो गई, खाना पकाओ” माँ की यह बात सुनते ही उसने तुरन्त खाना पकाया। पहले से ही माँ अपनी बेटी के साथ खाना खाती थी, वह कभी अकेली नहीं खाती, इसलिए उरीरै को खाने के लिए बुलाया; उरीरै खाने के पास ही बैठी, लेकिन एक कौर भी ठीक से नहीं खाया। इकलौती बेटी की इस हालत केा देखकर माँ-बाप घबरा गए। विभिन्न, प्रकार के खाद्य पदार्थ निकालकर दिए, किन्तु उसने 'अस्वस्थ हूँ' कहकर चखे तक नहीं। जिस बेटी को सूर्य और चन्द्रमा की भाँति देखते थे (बहुत ही प्यारी सन्तान के लिए प्रयुक्त मणिपुरी मुहावरा, जो हिन्दी मुहावरे 'आँखों का तारा होना' से मिलता-जुलता भाव प्रकट करता है), उसके मुँह से 'अस्वस्थ हूँ' सुनते ही माँ और बाप दोनों का मन अत्यधिक व्याकुल हो उठा। दोनों ने बेटी के अगल-बगल बैठकर पंखा झलना और शरीर को दबाना शुरू किया। माँ-बाप यह नहीं समझ सके कि यह, शरीर को दबाने से ठीक होनेवाला रोग नहीं है। “इस हालत में तो मैं एकान्त में अपन प्रियतम के बारे में कुछ भी नहीं सोच सकूँगी” यह सोचकर उरीरै “मैं कुछ-कुछ ठीक हो गई हूँ, अब सोऊँगी” कहते हुए तुरन्त उठकर अपने बिस्तर पर चली गई। माँ-बाप भी उसका कहा सच मानकर सो गए।

उरीरै ने पूरी रात एक पल के लिए भी आँखें नहीं झपकाईं-सोचने लगी, “कितनी अभागी है नारी-जात! जब वह स्वयं यहाँ आया-जिसके बारे में मैं सोचती रही कि कब उससे एक बार मिल पाऊँगी, तब अपने मन की कोई बात प्रकट नहीं कर सकी! अब सन्देह ही कहाँ है, जैसा वह सोचकर गया है, उसी के आधार पर परदेस-प्रवास के दौरान मुझ अभागी को तो भुला ही देगा। हे लज्जा! तुम बहुत निष्ठुर हो। लोग कहते हैं, लज्जा नारी का अलंकार है, मेरे हृदय में गिुम्फित इस दाह का कारण, लज्जा तुम हो!” यह सब सोचते-सोचते आँखों से बहते आँसुओं से तकिया पूरी तहर भीग गया, काँटों के बिस्तर पर लेटने के समान कष्ट महसूस होने लगा। प्रेम-वियोग का ताप बढ़ जाने के कारण उठकर बिस्तर पर बैठ गई, बहुत कुछ सोचते-सोचते पल-भर के लिए भी आराम के न मिलने से इसी आशा से कि कहीं मल्लिका के पौधे के पास शायद वह हो, धीरे से दरवाजे की अर्गला खोलकर देर रात्रि में बाहर निकल आई। तब तक चाँदनी बिखरी हुई थी - चारों ओर तो सन्नाटा छाया था। उरीरै तेजी से मल्लिका के पौधे के पास चली गई, लेकिन वीरेन् वहाँ नहीं था। मल्लिका के पौधे के पास ही खाली जह देख प्रेम-दाह का ताप बढ़ जाने के कारण बोली, “हे मल्लिका! तुम बहुत निष्ठुर हो! मैं अबोध, लज्जा के कारण अपने प्रियतम को पकड़ कर बाँध नहीं सकी, तो तुम क्या करती रही? हर रोज तुम्हें पानी से सींचने और तुम्हारे चारों ओर की लिपाई-पुताई करने के बदले यही तुम्हारी कृतज्ञता है? हे पवन! व्यर्थ में झाड़ियों के बीच खिलनेवाले फूल की सुगन्ध वहन करते हो! मुझे अभागिन का दुख भरा सन्देश लेकर मेरे प्रियतम के पास तक एक बार तो जाओ।”

यह कहते हुए उरीरै धरती पर लोटने लगी, लेकिन जब उसे ध्यान आया कि कहीं उसके माँ-बाप को इसका पता चल गया तो, तब उसकी पीड़ा कुछ कम हुई और वह घर के अन्दर चली गई। हे लज्जा! तुम बहुत बलवान हो! एक पल के लिए भी निद्रा-देवी मुझे इस पीड़ा से विश्राम नहीं दिला सकी, लज्जा तुमने इस पीड़ा की मात्रा घटा दी। उरीरै फिर सोचने लगी, “सुबह होते ही नारी-जात की सारी लज्जा त्यागकर प्रियतम को एक बार देखूँ!” इस भावना के साथ वह सुबह की प्रतीक्षा करने लगी। खैर, लज्जा और प्रेम-पीर, तुम दोनों में कौन अधिक बलवान होता है, हमें देखना है।