मेरी आत्मकथा / अध्याय 2 / चार्ली चैप्लिन / सूरज प्रकाश

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हालांकि हम यतीम खाने यानी वर्कहाउस में जाने की ज़िल्लत के बारे में जानते थे लेकिन जब मां ने हमें वहां के बारे में बताया तो सिडनी और मैंने सोचा कि वहां रहने में कुछ तो रोमांच होगा ही और कम से कम इस दमघोंटू कमरे में रहने से तो छुटकारा मिलेगा। लेकिन उस तकलीफ से भरे दिन मैं इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता था कि क्या होने जा रहा है जब तक हम सचमुच यतीम खाने के गेट तक पहुंच नहीं गये। तब जा कर उसकी दुखदायी दुविधा का हमें पता चला। वहां जाते ही हमें अलग कर दिया गया। मां एक तरफ महिलाओं वाले वार्ड की तरफ ले जायी गयी और हम दोनों को बच्चों वाले वार्ड में भेज दिया गया।

मैं मुलाकात के पहले ही दिन की दिल को छू लेने वाली उदासी को भला कैसे भूल सकता हूं। यतीम खाने के कपड़ों में लिपटी मां को मुलाकातियों के कमरे की ओर जाते हुए देखना। वह कितनी बेचारी और परेशान हाल दिखायी दे रही थी। एक ही सप्ताह में उसकी उम्र ज्यादा नज़र आने लगी थी और वह दुबला गयी थी। लेकिन उसका चेहरा हमें देखते ही दमकने लगा था। सिडनी और मैं रोने लगे जिससे मां को भी रोना आ गया और उसके गालों पर बड़े-बड़े आंसू ढरकने लगे। आखिर उसने अपने आप को संभाला और हम तीनों एक खुरदरी बेंच पर जा बैठे। हम दोनों के हाथ उसकी गोद में थे और वह धीरे-धीरे उन्हें थपका रही थी। वह हमारे घुटे हुए सिर देख कर मुस्कुरायी और जैसे सांत्वना देते हुए थपकियां सी देने लगी। हमें बताने लगी कि हम जल्दी ही एक बार फिर एक साथ रहने लगेंगे। अपने लबादे में से उसने नारियल की एक कैंडी निकाली जो उसने एक नर्स के कफ को लेस लगा कर कमाये पैसों से खरीदी थी। जब हम अलग हुए तो सिडनी लगातार भरे मन से उससे कहता रहा कि उसकी उम्र कितनी ज्यादा लगने लगी है। • सिडनी और मैंने जल्दी ही अपने आपको यतीम खाने के माहौल के हिसाब से ढाल लिया लेकिन उदासी की काली छाया हमेशा हमारे ऊपर मंडराती रहती थी। मुझे बहुत ही कम घटनाएं याद हैं लेकिन दूसरे बच्चों के साथ एक लम्बी-सी मेज पर बैठ कर दोपहर का भोजन करना अच्छा लगता था और हम इसकी राह देखा करते थे। इसका मुखिया यतीम खाने का ही एक निवासी हुआ करता था। यह व्यक्ति पिचहत्तर बरस का एक बूढ़ा आदमी था। उसका चेहरा गम्भीरता ओढ़े रहता था। उसकी दाढ़ी सफेद थी और उसकी आंखों में उदासी भरी होती थी। उसने मुझे अपने पास बैठने के लिए चुना क्योंकि मैं ही वहां सबसे छोटा था और जब तक उन लोगों ने मेरे सिर की घुटाई नहीं कर दी, मेरे बहुत ही सुंदर घुंघराले बाल हुआ करते थे। बूढ़ा आदमी मुझे अपना "शेर" कहा करता था और बताता कि जब मैं बड़ा हो जाऊंगा तो मैं एक टॉप हैट लगाया करूंगा और उसकी गाड़ी में पीछे हाथ बांधे बैठा करूंगा। वह मुझे जिस तरह का स्नेह देता, मैं उसे बहुत पसंद करने लगा था। लेकिन अभी एकाध दिन ही बीता था कि वहां एक और छोटा-सा लड़का आया और उस बूढ़े के पास मेरी वाली जगह पर बैठने लगा। लेकिन जब मैंने पूछा तो उसने मौज में आ कर बताया कि हमेशा छोटे और घुंघराले बालों वाले लड़के को ही वरीयता दी जाती है।

तीन सप्ताह के बाद हमें लैम्बेथ यतीम खाने से यतीमों और असहायों के हॉनवैल स्कूल में भेज दिया गया। ये स्कूल लंदन से कोई बारह मील दूर था। घोड़ों द्वारा खींची जाने वाले बेकरी वैन में यह बहुत ही रोमांचकारी यात्रा थी और इन परिस्थितियों में सुखद भी क्योंकि हॉनवैल के आस-पास का नज़ारा उन दिनों बहुत ही खूबसूरत हुआ करता था। वहां शाहबलूत के दरख्त थे, पकते गेहूं से भरे खेत थे और फलों से खूब लदे फलोद्यान थे; और तब से खुले इलाकों में बरसात के बाद की खूब तेज़ और माटी की सोंधी-सोंधी खुशबू मुझे हमेशा हॉनवैल की याद दिला जाती है।

वहां पहुंचने पर हमें अनुमति वाले वार्ड के हवाले कर दिया गया और विधिवत स्कूल में डालने से पहले हमें डाक्टरी और मानसिक निगरानी में रखा गया। इसका कारण ये था कि तीन या चार सौ बच्चों में अगर एक भी ऐसा बच्चा आ गया जो सामान्य न हो या बीमार वगैरह हो तो ये स्कूल के स्वास्थ्य के लिए खराब होता ही, खुद बच्चे को भी विकट हालत से गुज़रना पड़ सकता था।

शुरू के कुछ दिनों तक तो मैं खोया-खोया सा रहा। मेरी हालत बहुत ही खराब थी। इसका कारण यह था कि यतीम खाने में तो मां को मैं हमेशा अपने आस-पास महसूस करता था और इससे मुझे बहुत सुकून मिलता था लेकिन हॉनवैल में आने के बाद यही लगता कि हम एक दूसरे से मीलों दूर हो गये हैं। सिडनी और मेरा दर्जा बढ़ा दिया गया और हमें अनुमति वाले वार्ड से निकाल कर विधिवत स्कूल में डाल दिया गया। यहां हमें एक दूसरे से अलग कर दिया गया। सिडनी बड़े बच्चों के साथ जाने लगा और मैं शिशुओं के साथ। हम अलग-अलग ब्लाकों में सोते थे और एक-दूसरे से कभी-कभार ही मिल पाते। मेरी उम्र छ: बरस से कुछ ही ज्यादा थी और मैं तनहा था। ये बात मुझे खासी परेशान करती। खास तौर पर गर्मियों की रात, सोते समय प्रार्थना करते समय जब मैं रात के सोने की कमीजें पहने वार्ड के बीचों-बीच दूसरे बीस नन्हें मुन्ने बच्चों के साथ घुटनों के बल झुक कर प्रार्थना करता और दूर डूबते सूर्य को और ऊंची नीची पहाड़ियों की तरफ लम्बोतरी खिड़की में से देखता और जब हम सब भर्राये गले से बेसुरी आवाज़ में गाते तो मैं अपने आपको इससे सब से अलग-थलग पाता।

साथ दो मेरा; रात तेजी से गहराती है

अंधियारी होता जाता है घना: प्रभु साथ दो मेरा

जब और मददगार रह जायें पीछे और आराम हो जाये दुश्वार

ओ निर्बल के बल, साथ दो मेरा

ये तभी होता कि मैं अपने-आपको पूरी तरह हताश पाता। हालांकि मैं प्रार्थना के बोल नहीं समझता था, लेकिन ये धुन और धुंधलका मुझे उदासी से भर जाते।

लेकिन तब हमारी खुशी और आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब दो महीने के भीतर ही मां ने हमारी रिहाई का बंदोबस्त कर दिया था और हमें एक बार फिर से लंदन और लैम्बेथ यतीम खाने में भेज दिया गया। मां यतीम खाने के गेट पर अपने खुद के कपड़े पहने हमारी राह देख रही थी। उसने रिहाई के लिए आवेदन सिर्फ इसीलिए दिया था कि वह एक दिन अपने बच्चों के साथ गुज़ारना चाहती थी और उसकी इच्छा थी कि दो-चार घंटे बाहर गुज़ार कर फिर उसी दिन वापिस लौट आये। मां चूंकि यतीम खाने में ही रह रही थी इसलिए यह प्रपंच ही एक मात्र तरीका बचा था उसके पास कि दिन हमारे साथ गुज़ार सके।

हमारे भीतर जाने से पहले ही हमारे निजी कपड़े हमसे ले लिये गये थे और उन्हें गर्म पानी में खंगाल दिया गया था। अब ये कपड़े हमें बिना इस्त्रीत किये लौटा दिये गये। जब हम यतीम खाने के गेट से बाहर निकले तो मां, सिडनी और मैं, तीनों ही मुचड़े हुए कपड़ों में नमूने नज़र आ रहे थे। एकदम सुबह का वक्त था और हमें कहीं भी नहीं जाना था इसलिए हम केनिंगटन पार्क की तरफ चल दिये। पार्क तकरीबन एक मील दूर था। सिडनी के पास नौ पेंस थे जो उसने रुमाल में गांठ बांध कर रखे हुए थे। इसलिए हमने आधा पौंड ब्लैक चेरी ली और पूरी सुबह पार्क में एक बेंच पर बैठ कर चेरी खाते हुए गुज़ार दी। सिडनी ने अखबार के पुराने कागजों को मोड़-तोड़ कर उसे सुतली से कस कर बांध दिया और हम तीनों काफी देर तक इस काम चलाऊ गेंद से पकड़ा-पकड़ी खेलते रहे। दोपहर के वक्त हम एक कॉफी शॉप में गये और अपने बाकी सारे पैसों से दो पेनी का केक, एक पैनी की सूखी, नमक लगी मछली और अध पेनी की दो कप चाय खरीद कर खर्च कर डाले। हमने ये चीज़ें मिल बांट कर खायीं। इसके बाद हम फिर पार्क में वापिस लौट आये। इसके बाद मैं और सिडनी फिर से खेलते रहे और मां क्रोशिया ले कर बैठ गयी।

दोपहर के वक्त हम वापिस यतीम खाने की तरफ चल दिये क्योंकि मां बहुत ही बेशरमी से बोली कि हम चाय के वक्त तक ज़रूर पहुंच जायेंगे। वहां के अफसर लोग बहुत ही खड़ूस थे क्योंकि इसका मतलब होता कि हमें फिर से उन सारी प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता। हमारे कपडेख गर्म पानी में खंगाले जाते और सिडनी और मुझे हॉनवैल लौटने से पहले यतीम खाने में और वक्त गुज़ारना पड़ता। हां, इससे हमें मां से एक बार फिर मिलने का मौका मिल जाता।

लेकिन इस बार हम हॉनवैल में लगभग एक बरस तक रहे। यह बरस बहुत ही रचनात्मक था। मैंने स्कूल जाना शुरू किया और मुझे अपना नाम लिखना सिखाया गया," चैप्लिन।" ये शब्द मुझे बहुत आकर्षित करते और मुझे लगता - ये ठीक मेरी ही तरह हैं।

हॉनवैल स्कूल दो हिस्सों में बंटा हुआ था। एक हिस्सा लड़कों के लिए था और दूसरा लड़कियों के लिए। शनिवार की दोपहर स्नानघर नन्हें मुन्नों के लिए आरक्षित रहता और बड़ी लड़कियां उन्हें नहलाती। हां, ये बातें उस वक्त से पहले की हैं जब मैं सात बरस का नहीं हुआ था। और एक तरह की नाज़ुक मिज़ाजी वाली लज्जा इस तरह के अवसरों के साथ जुड़ी रहती। चौदह बरस की युवा लड़की मेरे पूरे शरीर पर तौलिया रगड़ रही हो तो झेंप तो होनी ही थी। सचेत झेंप के ये मेरे पहले मौके थे।

सात बरस की उम्र में मुझे नन्हें मुन्ने बच्चों के वार्ड में से स्थानांतरित करके बड़े बच्चों के वार्ड में भेज दिया गया। यहां बच्चों की उम्र सात से चौदह बरस के बीच थी। अब मैं बड़े बच्चों की सभी गतिविधियों में भाग ले सकता था। ड्रिल, एक्सरसाइज और हफ्ते में दो बार स्कूल के बाहर हम नियमित रूप से सैर को जाते।

हालांकि हॉर्नवेल में हमारी अच्छी तरह से देखभाल की जाती थी लेकिन फिर भी माहौल पर मुर्दनगी छायी रहती। वहां की हवा में ही उदासी थी। उन गांवों की गलियों में से हम सैकड़ों बच्चे एक के पीछे एक चलते। मैं सैर के उन अवसरों को कितना अधिक नापसंद करता था, और उन गांवों को, जिन में से हम गुज़र कर जाया करते थे, उन स्थानीय लोगों का हमें घूर-घूर कर देखना। हमें 'बूबी हैच के बाशिंदे' के नाम से पुकारा जाता था। ये यतीम खाने के लिए बोलचाल का शब्द था।

बच्चों के खेल का मैदान लगभग एक एकड़ लम्बा-चौड़ा था। इसमें लम्बे-चौड़े पत्थर जड़े हुए थे। इसके चारों तरफ एक मंजिला ईंट की इमारतें थीं जिनमें दफ्तर, भंडार घर, डॉक्टर का एक औषधालय, दांतों के डॉक्टर का कमरा और बच्चों के कपड़ों के लिए अल्मारियां थीं। अहाते के आखिरी सिरे पर एक अंधेरा कमरा था। उसमें इन दिनों चौदह बरस के एक छोकरे को बंद करके रखा गया था। लड़कों के अनुसार वह लड़का आफत की पुड़िया था। एक गया गुज़रा चरित्र। उसने दूसरी मंज़िल की खिड़की से कूद कर स्कूल से भाग जाने की कोशिश की थी और वहां से छत पर चढ़ गया था। जब स्टाफ के लोग उसके पीछे चढ़े तो उसने उन पर चीज़ें फेंक कर मारनी शुरू कर दीं और उन पर शाहबलूत फेंके। ये किस्सा तब हुआ जब हम नन्हें-मुन्ने सो रहे थे। अगली सुबह हमें इस किस्से का पूरा का पूरा हिसाब-किताब बड़े बच्चों ने सुनाया था।

इस तरह की बड़ी हरकतों के लिए हर शुक्रवार को बड़े वाले जिमनाशियम में दंड मिला करता था। ये एक साठ फुट लम्बा और चालीस फुट चौड़ा अंधियारा-सा हॉल था। इसकी छत ऊंची थी और ऊपर की कड़ियों तक रस्सियां लटकी हुई थीं। शुक्रवार की सुबह, सात से चौदह बरस के बीच की उम्र के दो या तीन सौ बच्चे प्रवेश करते और वे मिलिटरी के जवानों की तरह आते, और स्क्वायर के तीनों तरफ खड़े हो जाते। सबसे दूर वाले सिरे पर, यानी चौथी तरफ एक लम्बी-सी स्कूली मेज के पीछे शरारती बच्चे अपने-अपने अपराध की सज़ा सुनने और सज़ा पाने के लिए एकत्र होते। ये मेज आर्मी वालों की खाने की मेज जितनी लम्बी थी। डेस्क के सामने तथा दायीं तरफ एक ईज़ल थी जिस पर हाथों में बांधने वाले स्ट्रैप लटकते रहते और फ्रेम से एक टहनी झूलती रहती।

छोटे-मोटे अपराधों के लिए बच्चे को लम्बी मेज पर लिटा दिया जाता। बच्चे का चेहरा नीचे की तरफ होता और उसके पैर एक सार्जेंट पट्टों से कस देता। तब दूसरा सार्जेंट आता और बच्चे की कमीज को उसकी पतलून में से खींच कर बाहर निकाल देता और उसके सिर के ऊपर की तरफ कर देता, और उसकी पतलून को कस कर खींचता।

एक थे कैप्टन हिन्ड्रम। नेवी से रिटायर हुए शख्स। वजन उनका रहा होगा कोई दो सौ पौंड। उनका एक हाथ पीछे रहता और दूसरे हाथ में वे मारने के लिए छड़ी थामे रहते। छड़ी की मोटाई होती हाथ के अंगूठे के बराबर और लम्बाई कोई चार फुट। वे तन कर खड़े हो जाते।

वे छड़ी को लड़के के चूतड़ों के आर-पार नापते, और तब हौले से और पूरी नाटकीयता के साथ वे छड़ी ऊपर उठाते और एक सड़ाक के साथ लड़के के चूतड़ों पर पड़ती। नज़ारा दिल दहला देने वाला होता और निश्चित रूप से लड़का बेहोश हो कर नीचे गिर जाता।

पिटाई के लिए कम से कम तीन छड़ियों का और अधिकतम छ: का प्रावधान था। यदि दोषी को तीन से ज्यादा छड़ियों की मार पड़ती तो उसकी चीखें दिल दहला देने वाली होतीं। कई बार ऐसा भी होता कि वह आश्चर्यजनक रूप से शांत रहता या बेहोश ही हो चुका होता। ये मार आदमी को अधमरा कर देने वाली होती इसलिए शिकार को तो अक्सर ही एक तरफ ले जाना पड़ता और उसे जिमनाशियम में ले जा कर लिटाना पड़ता, जहां उसे दर्द कम होने तक कम से कम दस मिनट तक तिलमिलाना और दर्द के मारे ऐंठना पड़ता था। दर्द कम होने पर उसके चूतड़ों पर धोबन की उंगलियों की तरह तीन चौड़ी धारियां बन चुकी होतीं।

भूर्ज का मामला अलग था। तीन संटियां खाने के बाद लड़के को दो सार्जेंट सहारा कर इलाज के लिए सर्जरी में ले जाते।

लड़के यही सलाह देते कि कोई भी आरोप लगने पर मना मत करो, बेशक आप निरपराध हों, क्योंकि दोष सिद्ध हो जाने पर आपको अधिकतम मार पड़ेगी। आम तौर पर लड़के निर्दोष होने पर भी अपनी ज़ुबान नहीं खोलते थे और चुपचाप मार खा लेते थे।

अब मैं सात बरस का हो चला था और बड़े बच्चों के सैक्शन में था। मुझे याद है जब मैंने पहली बार इस तरह की पिटाई देखी थी। मैं शांत खड़ा हुआ था और मेरा दिल तेजी से धड़कना शुरू हो गया जब मैंने अधिकारियों को भीतर आते देखा। डेस्क के पीछे वह जांबाज़ बहादुर था जिसने स्कूल से भाग जाने की कोशिश की थी। डेस्क के पीछे से हमें मुश्किल से उसका सिर और कंधे ही नज़र आ रहे थे। वह एकदम पिद्दी-सा नज़र आ रहा था। उसका चेहरा पतला, लम्बोतरा और आंखें बड़ी थीं। वह बहुत छोटा-सा लगता था।

प्रधान अध्यापक ने धीमे स्वर में आरोप पत्र पढ़ा और पूछा,"दोषी या निर्दोष?"

हमारे जांबाज़ हीरो ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन सीधे उनकी आंखों में देखता रहा। इसके बाद उसे ईज़ल पर ले जाया गया और चूंकि वह ज़रा सा ही था, उसे साबुन की एक पेटी पर खड़ा कर दिया गया ताकि उसकी कलाइयों में पट्टे बांधे जा सकें। उसे भूर्ज की छड़ी से तीन बार पीटा गया और फिर उसे सर्जरी के लिए ले जाया गया।

गुरुवार के दिन खेल के मैदान में एक बिगुल बजता और हम खेलते हुए जहां के तहां मूर्तियों की तरह जड़ खड़े हो जाते। तब कैप्टन हिन्ड्रम एक मेगाफोन के ज़रिये उन छोकरों के नाम पुकारते जिन्हें शुक्रवार को दंड भोगने के लिए हाजिर होना है।

मेरी हैरानी का ठिकाना न रहा जब एक गुरुवार मेरा नाम पुकारा गया। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि मैंने ऐसा क्या कर डाला होगा। फिर भी किसी नामालूम कारण से मैं रोमांचित था। शायद इसलिए कि मैं इस नाटक के केन्द्र में होने जा रहा था। ट्रायल के दिन मैं आगे की तरफ बढ़ गया। हैड मास्टर ने पूछा,"तुम पर आरोप है कि तुमने लैट्रिन को आग लगायी।"

यह सच नहीं था। कुछ छोकरों ने पत्थर के फर्श पर कुछ कागज जला डाले थे और संयोग से मैं उस वक्त लैट्रिन का इस्तेमाल करने के लिए वहां जा पहुंचा। लेकिन आग जलाने में मेरी कोई भूमिका नहीं थी।

"तुम दोषी हो या नहीं?"

मैं नर्वस हो गया था और अपने नियंत्रण से बाहर की ताकत में मैं चिल्लाया,"दोषी।" न तो मैंने प्रायश्चित महसूस किया और न ही अन्याय की भावना ही महसूस की लेकिन एक तरह का भयमुक्त रोमांच मुझे लगा जब मुझे डेस्क के पास ले जाया गया और मेरे चूतड़ों पर तीन संटियां फटकारी गयीं। दर्द इतना जान लेवा था कि मेरी तो सांस ही थम गयी। लेकिन मैं चिल्लाया या रोया नहीं और हालांकि मैं दर्द के मारे अधमरा हो गया था और आराम करने के लिए चटाई पर ले जाया गया था, मैं अपने आपको पराक्रम के साथ विजेता समझ रहा था।

सिडनी तो रसोई में काम कर रहा था, उस बेचारे को सज़ा के दिन तक इसके बारे में कुछ पता ही नहीं चला। और उसे दूसरों के साथ जिम में लाया गया तो वह मुझे सज़ा वाली मेज पर औंधे लेटे और सिर लटकाये देख कर हैरानी से दंग रह गया था। उसे झटका लगा था। उसने बाद में मुझे बताया था कि जब उसने मुझे चूतड़ों पर तीन बेंत खाते देखा था तो वह गुस्से के मारे रो पड़ा था।

छोटा भाई अपने बड़े भाई को "भैया" कहकर बुलाता था तो उसमें एक तरह की गर्व की भावना भर जाती थी और एक सुरक्षा का भी अहसास होता था। मैं अक्सर डाइनिंग रूम से बाहर आते समय अपने इस "बड़े भैया" को देखा करता था। वह रसोई में काम करता था इसलिए अक्सर मेरे हाथ में ढेर सारे मक्खन के साथ एक बेड स्लाइस चुपके से सरका देता था। मैं इसे अपनी जर्सी में छुपाकर बाहर ले आता और एक अन्य छोकरे के साथ मिल-बांट कर खा लेता। ऐसा नहीं था कि हमें भूख लगी होती थी, दरअसल मक्खन का इतना बड़ा लोंदा एक असाधारण विलासिता की बात होती थी। लेकिन यह ऐय्याशी भी बहुत ज्यादा दिन तक नहीं चली क्योंकि उसे हॉनवेल छोड़कर एक्समाउथ ट्रेनिंग शिप पर जाना पड़ा।

यतीम खाने में रहने वाले लड़कों को ग्यारह बरस की उमर में विकल्प दिया जाता था कि वे जलसेना या थलसेना, दोनों में से कोई एक चुन लें। यदि वह जल सेना पसन्द करे तो उसे एक्समाउथ पर भेज दिया जाता था, हालांकि यह अनिवार्य नहीं था लेकिन सिडनी तो सागर की विराटता में रह कर अपना जीवन बनाना चाहता था। और एक दिन वह मुझे हॉनवेल में अकेला छोड़कर चला गया।

बच्चों का अपने बालों से खास तरह का जुड़ाव होता है। जब उनके बाल पहली बार काटे जाते हैं तो वे बुरी तरह से रोते और छटपटाते हैं। चाहे बाल घने उगें, सीधे हों या घुंघराले हों, उन्हें ऐसा ही लगता है कि मानो उनसे उनके व्यक्तित्व का कोई हिस्सा अलग किया जा रहा हो।

हॉनवेल में दाद, रिंगवार्म की महामारी फैली हुई थी। यह बीमारी छूत की बीमारी है और बहुत ही तेजी से फैलती है। इसलिए जो भी बच्चा इसकी चपेट में आता था उसे पहली मंजिल पर एक अलग कमरे में रहना पड़ता था, जहां से खेल का मैदान नज़र आता था। अक्सर हम खिड़कियों में से देखते कि वे दीन-हीन बच्चे बड़ी हसरत भरी निगाहों से हमारी ओर टकटकी लगाए देखते रहते थे। उनके घुटे हुए सिरों पर आयोडिन के भूरे चकत्ते नजर आते। उन्हें देखना बहुत ही दिल दहला देने वाला होता और हम उनकी तरफ बहुत ही घृणापूर्वक देखते।

इसलिए जैसे ही एक दिन अचानक ही एक नर्स ने डाइनिंग हाल में मेरे सिर पर हाथ रखा और बालों में उंगलियां फिराने के बाद घोषणा की कि मेरे सिर में दाद हो गयी है तो मैं सकते में आ गया और बुक्का फाड़ कर रो पड़ा।

इलाज में हफ्तों लग गये। लगता था, समय ठहर गया है। मेरा सिर मूंड दिया गया था और मैं रुई धुनने वालों की तरह हर समय सिर पर एक रुमाल बांधे रहता था। बस, मैं एक ही काम नहीं करता था और वो ये कि कभी भी खिड़की से नीचे झांक कर नीचे खड़े लड़कों की तरफ नहीं देखता था, क्योंकि मैं जानता था कि वे लड़के ऊपर फंसे बच्चों को किस हिकारत भरी निगाह से देखते थे।

मेरी बीमारी के दौरान मां मुझसे मिलने आयी। उसने कुछ जुगत भिड़ा कर हमें यतीम खाने से बाहर निकालने का रास्ता निकाल लिया था और अब हम लोगों के लिए एक बार फिर अपना घर बसाना चाहती थी। उसकी मौजूदगी फूलों के गुलदस्ते की तरह थी। ताज़गी और स्नेह की महक से भरी हुई। उसे इस तरह देख कर मुझे अपनी गंदी और बेतरतीब हालत पर और घुटे सिर पर आयोडिन लगा देख कर अपने आप पर शर्म आयी।

नर्स ने मां से कहा,"इसके गंदे मुंह की वजह से इस पर नाराज़ न हों।"

मां हँसी और मुझे याद है कि किस तरह से ये कहते हुए उसने मुझे अपने सीने में भींच लिया था और चूम लिया था,"तेरी इस सारी गंदगी के बावजूद मैं तुझे प्यार करती हूं मेरे लाल।"

इसके तुरंत बाद ही सिडनी एक्समाउथ पर चला गया और मैंने हानवेल छोड़ दिया ताकि मैं अपनी मां के पास रह सकूं। उसने केनिंगटन रोड के पीछे वाली गली में एक कमरा किराये पर ले लिया था और कुछ दिन तक तो वह हमारा भरण-पोषण करने की हालत में रही। थोड़े ही दिन बीते थे कि हम एक बार फिर यतीम खाने के दरवाजे पर खड़े थे। हमारे इस तरह से वहां वापिस जाने के पीछे कारण ये थे कि मां कोई ढंग का रोजगार तलाश नहीं पायी थी और थियेटर में पिता जी के दिन खराब चल रहे थे। इस थोड़े से अरसे के दौरान हम पिछवाड़े की गलियों के एक कमरे से दूसरे कमरे में शिफ्ट होते रहे। ये गोटियों के खेल की तरह था और अपनी आखिरी चाल के बाद हमने खुद को फिर से यतीम खाने में पाया।

अलग ही अलग रहते हुए हमें दूसरे यतीम खाने में भेज दिया गया। और वहां से हमें नोरवुड स्कूल भेज दिया गया। यह स्कूल हॉनवेल के मुकाबले बेहतर था। यहां की पत्तियां गहरी हरी और दरख्त ज्यादा ऊंचे थे। शायद इस ग्रामीण इलाके में भव्यता तो ज्यादा थी लेकिन परिवेश मायूसी से भरा हुआ था।

एक दिन की बात, सिडनी फुटबाल खेल रहा था। तभी दो नर्सों ने उसे खेल से बाहर बुलाया और उसे बताया कि तुम्हारी मां पागल हो गई है, उसे केनहिल के पागलखाने में भेजा गया है। सिडनी ने जब यह खबर सुनी तो किसी भी किस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और वापिस जाकर अपने खेल में मशगूल हो गया। लेकिन खेल खत्म होते ही वह एक सुनसान कोने में गया और फूट-फूट कर रोया।

सिडनी ने जब मुझे यह खबर दी तो मैं यक़ीन ही नहीं कर पाया। मैं रोया तो नहीं लेकिन पागल कर देने वाली उदासी ने मुझे घेर लिया। उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। माँ जो इतनी खुशमिजाज़ और दिल की साफ़ थी, भला पागल कैसे हो सकती है। मोटे तौर पर मैंने यही सोचा कि माँ ने जान-बूझ कर अपने दिमाग के दरवाज़े बंद कर दिये होंगे और हमें बेसहारा छोड़ दिया है। मैं हताशा में यह कल्पना करने लगा कि वह परेशान हाल मेरी तरफ़ देख रही है और उसके बाद शून्य में घूर रही है।

आधिकारिक रूप से यह खबर हमें एक हफ्ते बाद मिली। यह भी सुनने में आया कि अदालत ने पिता के ख़िलाफ डिक्री जारी कर दी है कि उन्हें सिडनी और मुझे अपनी निगहबानी में लेना ही होगा। पिता के साथ रहने की संभावना ही उत्तेजना से भर देने वाली थी। मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में उन्हें सिर्फ़ दो बार ही देखा था। एक बार मंच पर और दूसरी बार केनिंगटन रोड में एक घर के आगे से गुज़रते हुए जब वे फ्रंट गार्डन के रास्ते से एक महिला के साथ चले आ रहे थे। मैं एक पल के लिए ठिठका था और उनकी तरफ़ देखने लगा था। मुझे पूरा यक़ीन था कि वे मेरे पिता ही हैं। उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझसे मेरा नाम पूछा था। इस परिस्थिति की नाटकीयता का अंदाज़ा लगाते हुए मैंने भोलेपन से सिहरते हुए कहा था,"चार्ली चैप्लिन।" तब उन्होंने जानबूझ कर उस महिला की तरफ देखा, अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला और आधे क्राउन का सिक्का मुझे थमा दिया। बगैर कुछ और सोचे मैं सीधा घर की तरफ लपका और माँ को बताया कि मैं अपने पिता से मिलकर आ रहा हूं।

और अब हम उनके साथ जाकर रहने वाले थे। कुछ भी हो, केनिंगटन रोड जानी-पहचानी जगह थी और वहां नॉरवुड की तरह अजनबियत और मायूसी नहीं थी।

अधिकारी हमें एक बेकरी वैन में बिठा कर 287 केनिंगटन रोड ले गये। यह वही जगह थी जहां मैंने अपने पिता को बगीचे के रास्ते से गुज़रते हुए देखा था। दरवाजा एक महिला ने खोला। यह वही महिला थी जो उस दिन पिता के साथ थी। वह ऐय्याश और चिड़चिड़ी-सी लगने वाली औरत लगती थी। इसके बावजूद वह आकर्षक, लम्बी और सुंदर देहयष्टि की मालकिन थी। उसके होंठ भरे-भरे और उदास थे। आंखें कबूतरी जैसी थीं। उसकी उम्र तीस बरस के आस-पास हो सकती थी। उसका नाम लुइस था। ऐसा प्रतीत हुआ कि मिस्टर चैप्लिन घर पर नहीं थे। लेकिन सामान्य कागज़ी कार्रवाई पूरी करने और हस्ताक्षर वगैरह करने के बाद अधिकारी हमें लुइस के जिम्मे छोड़ गये। लुइस हमें ऊपर वाली मंज़िल पर आगे वाली बैठक में ले गयी। जब हम कमरे के भीतर पहुंचे तो एक छोटा-सा बच्चा फर्श पर खेल रहा था। बड़ी-बड़ी, गहरी आंखों और घने भूरे बालों वाला एक निहायत ही खूबसूरत बच्चा। ये बच्चा लुइस का बेटा था। मेरा सौतेला भाई।

परिवार दो कमरों में रहता था और हालांकि सामने वाला कमरा बहुत ब़ड़ा था लेकिन उसमें रौशनी ऐसे छन कर आती थी मानो पानी के नीचे से आ रही हो। सारी चीजें लुइस की ही तरह मायूस नज़र आती थीं। वाल पेपर उदास नज़र आता था। घोड़े के बालों से भरा फर्नीचर उदासी भरा था और ग्लास केस में पाइक मछली जो अपने ही बराबर एक और पाइक अपने भीतर ठूंसे हुए थी, और उसका सिर पहले वाली के मुंह से बाहर लटक रहा था, बुरी तरह से उदास नज़र आते थे।

लुइस ने पिछवाड़े वाले कमरे में सिडनी और मेरे सोने के लिए एक अतिरिक्त बिस्तर लगवा दिया था लेकिन ये बिस्तर बहुत ही छोटा था। सिडनी ने सुझाव दिया कि वह बैठक में सोफे पर सो जाया करेगा लेकिन लुइस ने उसे बरज दिया,"तुम्हें जहां सोने के लिए कहा गया है, तुम वहीं सोवोगे।" इस संवाद से विकट मौन पसर गया और हम चुपचाप पिछवाड़े वाले कमरे की तरफ बढ़ गये।

हमारा जिस तरीके से स्वागत हुआ था, उसमें लेशमात्र भी उत्साह नहीं था। और इसमें हैरानी वाली कोई बात भी नहीं थी। सिडनी और मैं अचानक उसके ऊपर लाद दिये गये थे। वैसे भी हम अपने पिता की छोड़ी गयी पत्नी के ही तो बच्चे थे।

हम दोनों चुपचाप बैठे उसे काम करते देखते रहे। वह खाने की मेज पर कुछ तैयारियां कर रही थी। तब उसने सिडनी से कहा,"ऐय, क्या निठल्ले की तरह से बैठे हो, कुछ काम-धाम करो और इस सिगड़ी में कोयले भरो।" और तब वह मेरी तरफ मुड़ी और कहने लगी,"और तुम लपक कर जाओ और व्हाइट हार्ट की बगल वाली कसाई की दुकान से एक शिलिंग के छीछड़े लेकर आओ।"

मैं उसकी मौजूदगी और पूरे माहौल के आतंक से बाहर निकलने पर खुश ही था क्योंकि एक अदृश्य भय मेरे भीतर उगने लगा था और मैं चाहने लगा था कि हम वापिस नौरवुड लौट जायें।

पिताजी देर से घर वापिस आये और उन्होंने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। वे मुझे बहुत अच्छे लगे। खाना खाते समय मैं उनकी एक एक गतिविधि को ध्यान से देखता रहा। वे किस तरह से खाते थे और किस तरह से चाकू को पैन की तरह पकड़ते थे और उससे गोश्त की बोटियां काटते थे। और मैं बरसों-बरस उनकी नकल करता रहा।

जब लुइस ने पिताजी को बताया कि सिडनी यह शिकायत कर रहा था कि उसका बिस्तर छोटा है तो उन्होंने कहा कि वह बैठक में सोफे पर सो जाया करेगा। सिडनी की जीत ने लुइस को और भी भड़का दिया और उसने सिडनी को इस बात के लिए कभी माफ नहीं किया। वह हमेशा पिताजी के कान सिडनी के खिलाफ भरती रहती। लुइस हालांकि अक्खड़ और चिड़चिड़ी थी और हमेशा असहमत ही रहती थी लेकिन उसने मुझे एक बार भी पीटा नहीं या कभी डांटा फटकारा भी नहीं। लेकिन इस बात ने कि वह सिडनी को नापसंद करती है, मुझे हमेशा डराये रखा और मैं उससे भय खाता रहा। वह जम के पीती थी और उसकी यह बात मुझे भीतर तक हिला कर रख देती थी। वह अपने छोटे बच्चे के मासूम चेहरे को निहारती हुई हंसती थी और वह अपनी खराब ज़बान में उसे कुछ कहता रहता था। पता नहीं क्यों, मैं उस बच्चे के साथ हिल-मिल नहीं सका। वैसे तो वह मेरा सौतेला भाई था लेकिन मैंने उससे शायद ही कभी बात की हो, बेशक मैं उससे चार बरस बड़ा भी था। जब कभी भी लुइस पी कर बैठती और क़ुड़-कुड़ करती रहती तो मैं भीतर तक हिल जाता था। दूसरी तरफ सिडनी था, उसने इन बातों पर कभी भी ध्यान ही नहीं दिया। शायद ही कोई ऐसा समय रहा हो जब वह रात में देर से न आया हो। मुझ पर यह बंदिश थी कि मैं स्कूल से सीधा ही घर आऊं और घर आते ही मुझे तरह तरह के कामों के लिए दौड़ाया जाता।

लुइस ने हमें कैनिंगटन रोड के स्कूल में भेजा। यह मेरे लिए बाहरी दुनिया का एक छोटा-सा टुकड़ा था क्योंकि मैं दूसरे बच्चों की मौजूदगी में खुद को कम तन्हा महसूस करता था। शनिवार के दिन आधी छुट्टी रहती थी, लेकिन मैं कभी भी इस दिन का इंतज़ार नहीं करता था क्योंकि मेरे लिए इसका मतलब था कि जल्दी घर जाना, झाड़ू पोंछा करना, चाकू साफ करना, और तो और, लुइस उस दिन हर हाल में पीना शुरू कर देती थी। जब मैं चाकू साफ कर रहा होता था तो वह अपनी एक सखी के साथ बैठ जाती, पीती रहती और ज़ोर-ज़ोर से अपनी सखी से कड़ुआहट भरे स्वर में शिकायतें करती रहती कि उसे सिडनी और मेरी देखभाल करनी पड़ती है और किस तरह से उसके साथ यह अन्याय किया जा रहा है। मुझे याद है कि उसने मेरी तरफ इशारा करते हुए अपनी सखी से कहा था कि ये तो फिर भी ठीक है लेकिन दूसरा वाला तो आफत की पुड़िया है और उसे तो ज़रूर ही सुधार घर में भेज देना चाहिए। इतना ही नहीं, वो तो चार्ली की औलाद भी नहीं है। सिडनी के बारे में यह बदज़ुबानी मुझे भयभीत कर देती थी। मैं हताशा से भर जाता और मायूस-सा अपने बिस्तर पर जा कर ढह जाता और आंखें खोले निढाल-सा पड़ा रहता था। उस वक्त मैं आठ बरस का भी नहीं हुआ था लेकिन वे दिन मेरी ज़िन्दगी के सबसे लम्बे और उदासी भरे दिन थे।

कई बार शनिवार की रात को जब मैं खुद को बुरी तरह से हताश महसूस करता तो पिछवाड़े के बेडरूम के पास से गुज़रते हुए किसी दो धौंकनियों वाले बाजे, कन्सर्टिना का संगीत सुना करता। कोई जाते-जाते हाइलैंड मार्च की धुन बजा रहा होता और उसके साथ लुच्चे लड़कों और खिड़ खिड़ करती फेरी करके सामान बेचने वाली लड़कियों की आवाजें सुनाई देतीं। संगीत का प्रवाह और प्रभाव भी मेरी बेरहम उदासी पर कोई खास असर नहीं कर पाता था। इसके बावजूद संगीत दूर जाता हुआ धीमा होता चला जाता और मैं उसके चले जाने पर अफसोस मनाता। कई बार कोई फेरी वाला गली से गुज़रता। एक खास फेरी वाले की मुझे याद है जो रात को रूल ब्रिटानिया की धुन पर आवाज़ निकालता था और उसे झटके के साथ खत्म कर देता। दरअसल वह घोंघे बेच रहा होता था। तीन दरवाजे छोड़कर एक पब था, जिसके बंद होते समय मैं ग्राहकों की आवाज़ें सुन सकता था। वे नशे में धुत गाते, भावुकता भरा एक उदास गीत जो उन दिनों खासा लोकप्रिय हुआ करता था।

पुराने वक्त की खातिर मत रहने दो नफरत को जिंदा

पुराने वक्त की खातिर कहो भुला दोगे और कर दोगे माफ

जिंदगी इतनी छोटी कि मत गंवाओ लड़ने में

दिल इतने कीमती कि मत तोड़ो इन्हें

मिलाओ हाथ और खाओ दोस्ती की कसमें

पुराने वक्त की खातिर

मैं भावनाओं को कभी पसंद नहीं कर पाया था लेकिन मुझे ये गीत मेरी उदास हालत में एक बहुत ही नजदीकी साथी की तरह प्रतीत होता था और मुझे लोरी की तरह से सुला दिया करता था।

जब सिडनी रात में देर से लौटता, और ऐसा अक्सर होता था कि वह बिस्तर में सोने के लिए जाने से पहले खाने की अलमारी पर हल्ला बोलता था। इससे लुइस बहुत ताव खाती थी। एक रात जब वह पी रही थी तो वह कमरे में आयी और सिडनी की चादर खींच कर चिल्लाई और उससे बोली कि दफा हो जाओ यहां से। लेकिन सिडनी इसके लिए तैयार था, तुरंत उसने अपने तकिये के नीचे हाथ डाला और एक छोटा सा खंजर निकाला। इसमें एक लम्बा बटन हुक था और उस पर उसने तेज धार दे रखी थी।

"आओ तो जरा मेरे पास और मैं ये तुम्हारे पेट में घुसेड़ दूंगा," सिडनी चिल्ला पड़ा था। लुइस हक्की-बक्की सी पीछे हटी थी,"ऐ क्यों रे, ये हरामी का पिल्ला तो मुझे मार डालेगा।"

"हां, मैं तुम्हें मारूंगा," सिडनी ने बड़े ही नाटकीय अंदाज में कहा।

"ज़रा घर आने तो दे मिस्टर चैप्लिन को।"

लेकिन मिस्टर चैप्लिन कभी-कभार ही घर आते थे। अलबत्ता, मुझे शनिवार की एक शाम की याद है। लुइस और पिताजी बैठे पी रहे थे। और पता नहीं किस वज़ह से हम मकान मालकिन और उसके पति के साथ पहली मंज़िल पर उनके सामने वाले कमरे के आगे की जगह पर बैठे हुए थे। चमकीली रौशनी में मेरे पिता का चेहरा बहुत ही ज्यादा पीला लग रहा था। और वे बहुत ही खराब मूड में अपने आपसे कुछ बड़बड़ा रहे थे। अचानक उन्होंने अपनी जेब में हाथ डाला और ढेर सारे पैसे निकाले और गुस्से में चारों तरफ उछाल दिये। सोने और चांदी के सिक्के। इसका असर अतियथार्थवादी था। कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला। मकान मालकिन अपनी जगह से चिपकी रह गयी। लेकिन मैंने देखा कि उसकी निगाह सोने के एक सिक्के का पीछा कर रही थी जो लुढ़कता हुआ दूर एक कुर्सी के नीचे जा पहुंचा था। मेरी निगाहें भी उसी सिक्के का पीछा कर रही थी। अभी भी कोई भी नहीं हिला था। मैंने सोचा, मैं ही सिक्के उठाने का श्रीगणेश करूं। मेरे पीछे मकान मालकिन और दूसरे लोग भी उठे। और सावधानी पूर्वक बिखरे सिक्के बीनने लगे, इस तरह से कि पिता की धमकाती आंखों के आगे अपनी हरकत को वाजिब ठहरा सकें।

एक शनिवार की बात है, मैं स्कूल से लौटा तो देखा, घर पर कोई भी नहीं है। सिडनी हमेशा की तरह सारे दिन के लिए फुटबाल खेलने गया हुआ था। मकान मालकिन ने बताया कि लुइस अपने बेटे के साथ सुबह से ही बाहर गयी हुई है। पहले तो मैने राहत महसूस की क्योंकि लुइस के न होने का मतलब था कि मुझे पोंछा नहीं लगाना पड़ेगा, चाकू-छुरियां साफ नहीं करनी प़ड़ेंगी। मैं खाने के समय के बाद भी बहुत देर तक उनका इंतज़ार करता रहा, तब मुझे चिंता घेरने लगी। शायद वे लोग मुझे अकेला छोड़ गए थे। जैसेड़जैसे दोपहर ढलती गई, मुझे उनकी याद सताने लगी। ये क्या हो गया था? कमरा मनहूस और पराया-सा लग रहा था और उसका खालीपन मुझे डरा रहा था। मुझे भूख भी लग आयी थी। इसलिए मैंने अलमारी में खाने को कुछ तलाशा लेकिन वहां कुछ भी नहीं था। मैं अब खाली घर के भीतर और देर तक खड़ा नहीं रह सकता था इसलिए मैं हताशा में बाहर आ गया और पूरी दोपहर मैंने बाजारों में आवारागर्दी करते हुए गुज़ार दी। मैं लैम्बेथ वॉक पर और दूसरी सड़कों पर भूखा-प्यासा केक की दुकानों की खिड़कियां में झांकता चलता रहा और गाय और सूअर के मांस के गरमा-गरम स्वादिष्ट लजीज पकवानों को और शोरबे में डूबे गुलाबी लाल आलुओं को देख-देख कर मेरे मुंह में पानी आता रहा। मैं घंटों तक सड़क के किनारे मजमेबाजों को तरह-तरह की चीज़ें बेचते देखता रहा। इस तरह के भटकाव से मुझे थोड़ी राहत मिली और कुछ देर के लिए मैं अपनी परेशानी और भूख को भूल गया था।

जब मैं वापिस लौटा तो रात हो चुकी थी। मैंने दरवाजा खटखटाया लेकिन कोई जवाब नहीं आया। सब बाहर गये हुए थे। थका मांदा मैं केनिंगटन क्रॉस रोड पर जा कर, घर के पास ही एक पुलिया पर जा कर बैठ गया और निगाह अपने घर पर रखी कि शायद कोई आ जाये। मैं थका हुआ था और बुरी हालत थी मेरी। मैं इस बात को भी सोच-सोच कर परेशान हो रहा था कि सिडनी भी कहां चला गया। आधी रात होने को थी और एकाध भूले-भटके आवारा को छोड़ कर केनिंगटन रोड पूरी तरह शांत और उजाड़ थी। कैमिस्ट और सरायों की बत्तियों को छोड़ कर बाकी सारी दुकानों की बत्तियां बंद होने लगी थीं।

तभी संगीत की आवाज सुनायी दी। दिल की गहराइयों को छू लेने वाला संगीत। ये आवाजें व्हाइट हार्ट कार्नर पब की दहलीज से आ रही थीं और सुनसान चौराहे पर एकदम साफ गूंज रही थीं। धुन जिस गीत की थी वह था, 'द हनीसकल एंड द बी' और इसे क्लेरिनेट और हार्मोनियम पर पूरी तन्मयता से बजाया जा रहा था। मैं इससे पहले कभी भी संगीत लहरियों को ले कर सचेत नहीं हुआ था। लेकिन ये गीत तो अद्भुत और शानदार था। इतना अलौकिक और खुशी से भर देने वाला। गर्मजोशी और आश्वस्ति से भर देने वाला। मैं अपनी हताशा भूल गया और सड़क पार वहां तक चला गया जहां वे संगीतज्ञ थे। हार्मोनियम बजाने वाला अंधा था और उसकी आंखों की जगह पर गहरे खोखल थे। और एक जड़ कर देने वाला, बदसूरत चेहरा क्लेरिनेट बजा रहा था।

संगीत सभा जल्द ही खत्म हो गयी और उनके जाते ही रात फिर से पहले से भी ज्यादा उदास हो गयी। मैं सड़क पार कर घर की तरफ आया। थका मांदा और कमज़ोर। मैंने इस बात की भी परवाह नहीं की कि कोई घर लौटा भी है या नहीं। मैं सिर्फ बिस्तर पर पहुंच कर सो जाता चाहता था। तभी मैंने हल्की रौशनी में बगीचे के रास्ते से किसी को अपने घर की तरफ जाते हुए देखा। ये लुइस थी और साथ में उसका बेटा था जो उसके आगे-आगे भागा जा रहा था। मुझे ये देख कर गहरा सदमा लगा कि वह बुरी तरह से लड़खड़ा रही थी और एक तरफ बहुत ज्यादा झुकी जा रही थी। पहले तो मैंने यही सोचा कि कहीं उसके साथ कोई दुर्घटना हो गयी होगी और उसमें उसका पैर जख्मी हो गया होगा लेकिन तभी मैंने महसूस किया कि वह बुरी तरह से नशे में थी। मैंने उसे पहले कभी भी इस तरह से नशे में धुत्त नहीं देखा था। उसकी इस हालत में मैंने यही उचित समझा कि उसके सामने न ही पड़ा जाये तो बेहतर। इसलिए मैं तब तक रुका रहा जब तक वह घर के अंदर नहीं चली गयी। कुछ ही पलों के बाद मकान मालकिन आयी तो मैं उसके साथ भीतर गया। मैं जब अंधेरे में सरकते हुए सीढ़ियां चढ़ रहा था कि किसी तरह उसकी निगाह में आये बिना अपने बिस्तर तक पहुंच जाऊं। लुइस सीढ़ियों पर एकदम सामने आ खड़ी हुई,"ऐ, कहां चले जा रहे हो ओ नवाबजादे? ये तेरा घर नहीं है।"

मैं बिना हिले डुले खड़ा रहा।

"आज रात तुम यहां नही सोवोगे। समझे। बहुत झेल चुकी मैं तुम दोनों को। दफा हो जाओ यहां से। तुम और तुम्हारा वो भाई। करने दो अपने बाप को तुम लोगों की तीमारदारी।"

मैं बिना हिचकिचाहट के मुड़ा और सीढ़ियों से नीचे उतर कर घर से बाहर हो गया। अब मैं बिल्कुल भी थका हुआ नहीं था। मुझे मेरी दूसरी दिशा मिल चुकी थी। मैंने सुना था कि पिता जी प्रिंस रोड पर क्वींस हैड पब में जाया करते हैं। ये पब आधा मील दूर था। इसलिए मैं उस दिशा में चल पड़ा। मैं उम्मीद कर रहा था कि वे वहां पर मुझे मिल जायेंगे। लेकिन मैंने जल्दी ही उनकी छाया आकृति अपनी तरफ आती देखी। वे गली के लैम्प की रौशनी में चले आ रहे थे।

मैं कुनमुनाया,"वो मुझे अंदर नहीं आने दे रही। और मुझे लगता है वह पीती रही है।"

जब हम घर की तरफ चले आ रहे थे तो वे हिचकिचाये,"मेरी खुद की हालत बहुत अच्छी नहीं है।"

मैंने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की कि वे बिलकुल ठीक-ठाक हैं।

"नहीं, मैं नशे में धुत्त हूं।"

उन्होंने बैठक का दरवाजा खोला और वहां मौन और डराने की मुद्रा में खड़े रहे और लुइस की तरफ देखते रहे। वह फायर प्लेस के पास खड़ी, मैंटलपीस पकड़े लहरा रही थी।

"तुमने इसे भीतर क्यों नहीं आने दिया?"

वह अकबकाई-सी पिता जी की तरफ देखती रही और फिर बुड़बुड़ाई,"तुम भी जहन्नुम में जाओ। तुम सब।"

अचानक पिता ने बगल की अलमारी में से कपड़े झाड़ने का भारी ब्रश उठाया और लुइस की तरफ ज़ोर से दे मारा। ब्रश का पिछला हिस्सा ठीक उसके चेहरे के एक तरफ जा लगा। उसकी आंखें बंद हुईं और वह फर्श पर ज़ोर की आवाज़ करते हुए भहरा कर गिर गयी मानो वह खुद इस उपेक्षा का स्वागत कर रही हो।

पिता की ये करनी देख कर मुझे धक्का लगा। उनकी इस तरह की हिंसा देख कर मेरे मन से उनके प्रति सम्मान की भावना जाती रही थी। और उसके बाद फिर क्या हुआ था, इस बारे में मेरी याददाश्त बहुत धुंधली-सी है। मेरा विश्वास है कि बाद में सिडनी आया था और पिता जी ने हम दोनों को बिस्तर पर लिटा दिया था और घर से चले गये थे।

मुझे पता चला था कि पिताजी और लुइस का उस सुबह ही झगड़ा हुआ था क्योंकि पिताजी उसे छोड़ कर अपने भाई स्पैंसर के पास दिन बिताने के लिए चले गये थे। उनके भाई के लैम्बेथ के आस-पास कई सराय घर थे। अपनी हैसियत के प्रति संवेदनशील होने के कारण लुइस ने इस बात को पसंद नहीं किया कि वह स्पैंसर चैप्लिन के घर जाये और पिताजी अकेले ही चले गये थे। और बदले के भावना से जलते हुए लुइस ने दिन कहीं और बिताया था।

वह पिता को प्यार करती थी। हालांकि मैं उस वक्त बहुत छोटा था लेकिन मैं इस बात को महसूस कर सका था कि जब वह रात के वक्त फायरप्लेस के पास बेचैन और उनकी उपेक्षा से आहत खड़ी थी। मुझे इस बात का भी यकीन है कि वे भी उसे प्यार करते थे। मैंने इस बात को कई मौकों पर खुद देखा। ऐसे भी वक्त आते थे कि जब वे आकर्षक लगते, स्नेह से पेश आते और थियेटर के लिए निकलने से पहले शुभ रात्रि का चुंबन दे कर जाते। और किसी रविवार की सुबह, जब उन्होंने पी नहीं रखी होती थी, वे हमारे साथ नाश्ता करते और लुइस को उन कलाकारों के बारे में बताते जो उनके साथ काम कर रहे होते थे। वे हम सब को ये बातें बता कर खूब हंसाते। मैं मुंह बाये गिद्ध की तरह उनकी तरफ देखता रहता और उनकी हर गतिविधि को अपने भीतर उतारता रहता। एक बार जब वे बहुत ही खिलंदड़े मूड में थे तो अपने सिर पर तौलिया बांध कर मेज के चारों तरफ अपने नन्हें बेटे के पीछे-पीछे दौड़ते हुए बोलते रहे,"मैं हूं राजा टर्की रूबार्ब।"

शाम को आठ बजे थियेटर के लिए निकलने से पहले वे पोर्ट वाइन के साथ छ: कच्चे अंडे निगल जाते। वे शायद ही कभी ठोस आहार लेते। यही उनकी खुराक थी जो उन्हें पूरा दिन चुस्त-दुरुस्त बनाये रखती। वे शायद ही कभी घर आते। कभी आते भी तो सिर्फ़ नशा उतरने तक सोने के लिए आते थे।

एक दिन बच्चों के प्रति क्रूरता की रोक-थाम करने वाली सोसाइटी से कुछ लोग लुइस से मिलने आये। वह उन्हें देख कर बुरी तरह बेचैन हो गयी थी। वे लोग इसलिए आये थे क्योंकि पुलिस ने उन्हें बताया था कि उन्होंने सिडनी और मुझे आधी रात को तीन बजे चौकीदार की कोठरी के पास सोये हुए पाया था। यह उस रात की बात थी जब लुइस ने हम दोनों को बाहर निकाल कर दरवाजा बंद कर दिया था और पुलिस ने जबरदस्ती उससे दरवाजा खुलवाया था और हमें भीतर लेने के लिए उससे कहा था।

अलबत्ता, कुछेक दिनों के बाद, पिता जब दूसरे प्रदेशों में अभिनय में व्यस्त थे, लुइस को एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि मां ने पागलखाना छोड़ दिया है। एक या दो दिन के बाद मकान मालकिन ऊपर आयी और बताने लगी कि दरवाजे पर एक औरत खड़ी है जो सिडनी और चार्ली को पूछ रही है।

"जाओ, तुम्हारी मां आयी है।" लुइस ने कहा। थोड़ी देर के लिए भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी। तभी सिडनी कूदा और तेज़ी से दौड़ते हुए सीधे मां की बांहों में जा समाया। मैं उसके पीछे-पीछे लपका। यह वही हमारी प्यारी, मुस्कुराती मां थी और उसने हम दोनों को स्नेह से अपने सीने से लगा लिया था।

लुइस और मां का एक दूसरे से मिलना, खासा परेशानी का कारण बन सकता था, इसलिए मां दरवाजे पर ही खड़ी रहीं और हम दोनों भाई अपनी चीजें समेटते रहे। दोनों तरफ कोई कड़ुवाहट या दुर्भावना नहीं थी बल्कि सिडनी को विदा करते समय लुइस का व्यवहार बहुत ही अच्छा था।

मां ने हेवर्ड अचार फैक्टरी के पास केनिंगटन क्रॉस के पीछे वाली गली में एक कमरा किराये पर ले लिया था। हर दोपहर को वहां एसिड की तीखी गंध वातावरण में फैलने लगती, लेकिन कमरा सस्ता था और हम सब एक बार फिर साथ-साथ रह पा रहे थे। मां की सेहत बहुत अच्छी थी और ये बात हमने कभी सोची ही नहीं कि वह कभी बीमार भी रही थी।

मुझे इस बात का ज़रा-सा भी गुमान नहीं है कि हमारा वह अरसा कैसे गुज़रा। न तो मुझे किसी सीमा से ज्यादा तकलीफ की याद है और न ही किसी ऐसी समस्या की जिसका समाधान हमारे पास न हो। पिता की ओर से हर सप्ताह मिलने वाली दस शिलिंग की राशि आम तौर पर नियमित रूप से मिलती रही और, हां, मां ने सीने-पिरोने का काम फिर से हाथ में ले लिया था और गिरजा घर के साथ फिर से संबंध बना लिये थे।

उस समय की एक घटना खास तौर पर याद आ रही है। हमारी गली के एक सिरे पर कसाईघर था जहां हमारी गली में से हो कर कटने के लिए भेड़ें ले जायी जाती थीं। मुझे याद है कि एक भेड़ बच कर निकल भागी थी और गली में दौड़ती चली गयी थी। सब लोग ये तमाशा देखने लगे। कुछेक लोगों ने उसे दबोचने की कोशिश की और दूसरे कुछ लोग अपनी जगह ही कूद-फांद रहे थे। मैं खुशी के मारे खिलखिला कर हँस रहा था। ये नज़ारा इतना ज्यादा हास्यास्पद लग रहा था। लेकिन जब भेड़ को पकड़ लिया गया और वापिस कसाईघर की तरफ ले जाया गया तो त्रासदी की सच्चाई मुझ पर हावी हो गयी और मैं भाग कर घर के अंदर चला गया। मैं चिल्ला रहा था और ज़ार-ज़ार रोते हुए मां को बता रहा था,"वे लोग उसे मारने के लिए ले जा रहे हैं, वे लोग उसे मारने के लिए ले जा रहे हैं।" वह तीखी, वसंत की दोपहर और उस भेड़ का कॉमेडी-भरा पीछा करना, कई दिन तक मेरे दिलो-दिमाग पर छाये रहे। और मुझे लगता है कि शायद कहीं इसी घटना ने ही मेरी भावी फिल्मों के लिए ज़मीन तैयार की हो। त्रासदी और कॉमेडी का मिला-जुला रूप।

स्कूल अब नयी ऊंचाइयां छू रहा था। इतिहास, कविता और विज्ञान। लेकिन कुछ विषय बहुत ही जड़ और नीरस थे। खास तौर पर अंक गणित। उसके जोड़-भाग मुझमें किसी लिपिक और कैश रजिस्टर, उसके इस्तेमाल की छवि पैदा करते थे और और सबसे बड़ी बात, ये लगता था कि ये रेज़गारी की कमी से एक बचाव की तरह है।

इतिहास मूर्खताओं और हिंसा का दस्तावेज था। कत्ले-आम और राजाओं द्वारा अपनी रानियों, भाइयों और भतीजों को मारने का सतत सिलसिला; भूगोल में सिर्फ नक्शे ही नक्शे ही थे; काव्य के नाम पर अपनी याददाश्त की परीक्षा लेने के अलावा कुछ नहीं था। शिक्षा शास्त्र मुझे पागल बनाता था और तथ्यों की जानकारी में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी।

काश, किसी ने कारोबारी दिमाग इस्तेमाल किया होता, प्रत्येक अध्ययन की उत्तेजनापूर्ण प्रस्तावना पढ़ी होती जिसने मेरा दिमाग झकझोरा होता, तथ्यों के बजाये मुझ में रुचि पैदा की होती, अंकों की कलाबाजी से मुझे आनंदित किया होता, नक्शों के प्रति रोमांच पैदा किया होता, इतिहास के बारे में मेरा दृष्टिकोण विकसित किया होता, मुझे कविता की लय और धुन को भीतर उतारने के मौके दिये होते तो मैं भी आज विद्वान बन सकता था।

अब चूंकि मां हमारे पास वापिस लौट आयी थी, उसने थियेटर की तरफ मेरी रुचि फिर से जगानी शुरू कर दी थी। उसने मुझमें यह अहसास भर दिया था कि मुझ में थोड़ी-बहुत प्रतिभा है। लेकिन ये सुनहरा मौका बड़े दिन से पहले तब तक नहीं आया था जब तक स्कूल ने अपना संक्षिप्त नाटक सिंडरेला नहीं खेला था और मुझे अपने आपको वह सब अभिव्यक्त करने की ज़रूरत महसूस होने लगी थी जो मुझे मां ने सिखाया-पढ़ाया था। कुछ कारण थे कि मुझे नाटक के लिए नहीं चुना गया था, और भीतर ही भीतर मैं कुढ़ रहा था और महसूस कर रहा था कि बेहतर होता, मैं नाटक में भूमिका करूं बजाये उनके जो इस नाटक के लिए चुने गये थे। जिस तरह से बच्चे नीरस ढंग से और कल्पना शक्ति का सहारा लिये बिना अपनी भूमिका अदा कर रहे थे, उससे मुझमें खीज पैदा हो रही थी। बदसूरत बहनों में न कोई उत्साह था न ही भीतरी उमंग। वे अपनी लाइनें रटे-रटाये ढंग से पढ़ रही थीं जिसमें स्कूल के बच्चों वाली भेड़-चाल और खीझ पैदा करने वाली कृत्रिमता का दबाव था। मैं मां की दी हुई शिक्षा के साथ बदसूरत बहनों में से एक की भूमिका भला कैसे कर सकता था। अलबत्ता, जिस लड़की ने सिंडरेला की भूमिका की थी, उसने मुझे बांध लिया था। वह खूबसूरत और नफासत पसंद थी और उसकी उम्र चौदह बरस के आस-पास थी। मैं उससे गुपचुप प्यार करने लगा था। लेकिन वह मेरी पहुंच से दूर थी। सामाजिक तौर पर भी और उम्र के लिहाज से भी।

मैंने जब नाटक देखा तो मुझे ये बकवास लगा लेकिन लड़की की खूबसूरती के कारण मैंने इसे पसंद किया। उस लड़की ने मुझे उदास कर दिया था। अलबत्ता, मैंने इस बात को शायद ही महसूस किया था कि दो महीने बाद मेरी ज़िंदगी में कितने शानदार पल आने वाले थे कि मुझे हर क्लास के सामने ले जाया गया और -मिस प्रिशिला की बिल्ली का पाठ करने के लिए कहा गया। ये एक स्वांग भरी कविता थी जो मां ने अखबारों की दुकान के बाहर देखी थी और ये उसे इतनी अच्छी लगी कि वह खिड़की पर से नकल करके घर लेती आयी। कक्षा में खाने की छुट्टी के समय मैं उसे एक लड़के को सुना रहा था। तभी मिस्टर रीड, हमारे स्कूल के अध्यापक, ने अपने कागजों पर से ध्यान हटा कर देखा। वे इसे सुन कर इतने खुश हुए कि जब कक्षा के सब बच्चे वापिस आ गये तो उन्होंने मुझे ये सुनाने के लिए कहा। पूरी कक्षा हंसते-हंसते लोट पोट हो गयी। इस वजह से पूरे स्कूल में मेरा नाम फैल गया और अगले दिन मुझे स्कूल की हर कक्षा में, लड़के-लड़कियों की सभी कक्षाओं में ले जाया गया और उसका पाठ करने के लिए कहा गया।

हालांकि मैंने पांच बरस की उम्र में दर्शकों के सामने मंच पर मां की जगह लेते हुए अभिनय किया था लेकिन ग्लैमर से ये मेरा पहला होशो-हवास वाला साबका था। अब स्कूल मेरे लिए उत्तेजनापूर्ण हो चुका था और अब मैं शर्मीला और गुमसुम-सा लड़का नहीं रहा था। अब मैं अध्यापकों और बच्चों, सबका चहेता विद्यार्थी बन चुका था। इससे मेरी पढ़ाई में भी सुधार हुआ, लेकिन मेरी पढ़ाई में फिर से व्यवधान आया जब मुझे अष्टम लंकाशायर बाल गोपाल मंडली के साथ क्लॉग नर्तकों के एक ट्रुप में हिस्सा लेना पड़ा।