लो मशाल, अब घर-घर को आलोकित कर दो (मुरली मनोहर प्रसाद सिंह) / नागार्जुन

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तोतारटंत वेदपाठी ब्राह्मणों के ज्ञानकेंद्र से नागार्जुन की शिक्षादीक्षा नहीं हुई और न ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा संस्थानों में ही उन्हें ‘ज्ञानदान’ मिला। घर से भागे हुए एक तरुण के रूप में उन्होंने प्राचीन काल से चली आ रही श्रमण संस्कृति के ज्ञानमार्ग से शिक्षा दीक्षा प्राप्त करने के लिए नेपाल, तिब्बत और श्रीलंका के बौद्ध अध्ययन केंद्रों की सहायता ली। शिक्षा दीक्षा और ज्ञान साधना के दूसरे स्रोत के रूप में कभी यहां, कभी वहांμन जाने कितने स्थानों और लोगों के बीच घुमक्कड़ी करके ज्ञानान्वेषण और जीवनानुभव से नागार्जुन ने अपने को समृद्ध किया। शिक्षा दीक्षा और ज्ञान साधना के तीसरे केंद्र के रूप में नागार्जुन जनसंघर्षों के विद्यालयों से मृत्यु-पर्यंत सीख और सबक लेते-देते रहे। शास्त्रों की शब्दावली में कहें तो विद्या से कहीं ज़्यादा अविद्या ग्रहण करने का यह सिलसिला निरंतर जारी रहा। उपुर्यक्त तीनों प्रकार की ज्ञानधाराओं ने नागार्जुन के स्रष्टा साहित्यकार और बहुज्ञ पंडित व्यक्तित्व का निर्माण किया। उनके समकालीन कवियों में क्या ऐसा भी कोई रचनाकार था, जो संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभं्रश, बांग्ला, मराठी, गुजराती, सिंधी, मैथिली, भोजपुरी आदि भाषाओं में पारंगत हो? नागार्जुन के रचनाकार व्यक्तित्व की इन विशिष्टताओं के कारण ही एक ओर उनकी रचनावली में हम जनकविताएं पाते हैं; दूसरी ओर भारतीय काव्य पंरपरा में रचीबसी क्लासिक कृतियों की भी आभा देखते हैं। वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति का गहरा प्रभाव नागार्जुन की सृजन-प्रक्रिया में परिलक्षित होता है। अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में यह कहना सटीक है कि संस्कृत काव्यशास्त्रा के आचार्यों ने कवियों के लिए जिन-जिन निषिद्ध क्षेत्रों की घोषणा की थी, नागार्जुन उन वर्जित क्षेत्रों में प्रवेश कर अनुपम रचनाएं करते रहे हैं। जहां तक नागार्जुन की संस्कृत कविताओं का प्रश्न है, कमलेश दत्त त्रिपाठी यह बताते हैं कि संस्कृत काव्य की जनोन्मुख धारा वस्तुतः शूद्रक, धर्म कीर्ति, योगेश्वर, क्षेमेंद्र आदि के कृतित्व में स्पष्ट रूप से विद्यमान है। नागार्जुन अपनी संस्कृत, मैथिली, बांग्ला और हिंदी कविताओं में इसी दूसरी धारा से अपना रिश्ता जोड़ते हैं। इसलिए उनके कवि-व्यक्तित्व की सम्यक परख करते हुए इस बात को याद रखना आवश्यक है कि वे जनता के दुःख दर्द और संघर्ष के गायक-चितेरे होने के साथ-साथ एक ऐसे रचनाकार भी हैं जो जनता के बीच से पैदा होता है, अपने अंचल और स्वेदश की मिट्टी से अंकुरित-पल्लवित होता है। यह भी स्मरणीय और विशेष तौर पर उल्लेखनीय है कि जनकवि की यह संज्ञा उन रचनाकारों के लिए प्रचलित हुई थी जो टोले-मुहल्ले, हाट-बाज़ार, मेलेठेले, नुक्कड़ सभा, धरने-प्रदर्शन तथा रेल के डब्बों में अपनी कविताएं सुनाते थे, वहीं रमे रहते थे और अपनी कविता-पुस्तिकाएं स्वयं ही बेचते थे। 1857 नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 247 की पहली आज़ादी की लड़ाई के दौरान जनबोलियों तथा उर्दू-हिंदी के सक्रिय रचनाकारों ने जन-साहित्य की जिस परंपरा का सूत्रापात किया था, नागार्जुन उसी की अगली कड़ी बनकर सामने आये थे। बाबा रामचंद्र, राहुल सांकृत्यायन, कार्यानंद शर्मा, स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व वाले किसान-आंदोलनों के बीच जनबोलियों तथा उर्दू-हिंदी के जनकवियों की पूरी एक जमात मौजूद रही है। नागार्जुन के प्रसंग में इसका प्रमाण स्वयं उनके बड़े बेटे शोभाकांत ने प्रस्तुत किया है। ‘नागार्जुन रचनावली’ के पांचवें खंड की भूमिका में उन्होंने उल्लेख किया है: ‘1942 में यात्राी ने ‘बूढ़वर’ और ‘विलाप’ नाम से दो बुकलेट छपवायी। बूढ़वर में बूढ़वर नाम वाली कविता और विलाप में विलाप। ये दोनों बुकलेट्स उन दिनों हाटों, बाज़ारों, मेलों, रेल के डब्बों में खूब बिकीं। यात्राी स्वयं भी कविता पाठ करके इन बुकलेटों को बेचा करते थे।’ ज़ाहिर है कि मैथिली की इन कविताओं की चर्चा गांव-गांव तक पहुंच गयी। हिंदू राष्ट्रवाद के उन्मादी नाथूराम गोड्से ने जब 1948 के 30 जनवरी के दिन प्रार्थना सभा में गांधी की हत्या की तो नागार्जुन ने ‘शपथ’ नाम से चार कविताओं (शपथ, तर्पण, गोड्से और मत क्षमा करना) की एक पुस्तिका छपवायी तो उसे जगह-जगह घूम कर नागार्जुन ने स्वयं भी उसकी बिक्री की तथा उस पुस्तिका को हिंदी-उर्दू क्षेत्रा के अनेक कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ताओं ने भी सारे उत्तर भारत में पहुंचा दिया। ज़ाहिर है कि हज़ारों की संख्या में इस पुस्तिका की बिक्री इसलिए भी संभव हो पायी चूंकि बिहार सरकार ने इसके प्रचार-प्रचार पर पाबंदी ही नहीं लगायी, कानूनी कार्रवाई करके नागार्जुन को गिरफ़्तार भी कर लिया था। जन-कविता की इस परंपरा को व्यापक स्तर पर संगठित करने और आगे बढ़ाने के उद्देश्य से प्रगतिशील लेखक संघ ने इलाहाबाद में आयोजित 1947 के अपने अधिवेशन के दौरान जनबोलियों के रचयिताओं का स्वतंत्रा सम्मेलन भी किया। ‘संकेत’ में प्रकाशित भगवत शरण उपाध्याय के ‘प्रगति का ऐरावत’ शीर्षक आलेख से पता चलता है कि उल्लिखित जनकवि सम्मेलन में अवधी के वंशीधर शुक्ल, ब्रजभाषा के मूढ़ जी और साहेब सिंह मेहरा, भोजपुरी के रामकेर, गंगाशरण पांडे और धर्मराज, मुंगेरी मगही के श्री नंदन और बैजनाथ कुम्हार, मैथिली के विजय जी, अंगिका मगही के अधिक लाल और कानपुरी आल्हा की रचना करने वाले सुदर्शन ने अपनी कविताएं सुनायी थीं। इन सभी रचनाकारों की काव्य-पुस्तिकाएं हज़ारों की संख्या में वहां बिकी, चूंकि विशाल श्रोतासमूह ने उन जनकवियों का दिल खोलकर स्वागत किया। इन जनकवियों को हिंदी प्रकाशकों की वितरण-व्यवस्था पर कभी भरोसा नहीं रहा। नागार्जुन की भी यही स्थिति रही है। 10 सितंबर 1994 के दिन नागार्जुन ने रामविलास शर्मा को लिखे अपने पत्रा में यह बताया कि: ‘मैं क्या कर रहा हूं इन दिनों? झख नहीं मार रहा हूं भाई! एक नया धंधा ज़ोरों से शुरू कर दिया है, यानि? यानि... एक प्रख्यात साहित्यकार हैं नागार्जुन साहब! मैं उन्हीं की चाकरी बजा रहा हूं आजकल! नागार्जुन-साहित्य का प्रचार-प्रसार करने का। ठेका ले लिया है। बुकसेलरी कर रहा हूंμबिहार के सत्राह जिले हैं, पता है न? एक-एक करके सभी जिलों की धूल छानने का संकल्प लिया है। अभी पूर्णिया से वापस लौटा हूं। दो सप्ताह के अंदर दो हज़ार की पुस्तकें बेची हैंμअभी तीन ट्रिप पूर्णिया की ओर 248 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 लगाऊंगा। ततः परम? सहरसा! ततः परम दो महीने का विश्रामμयानि जाड़ों में पटना बैठकर लिखाई चलेगी। होली के बाद छोटानागपुर जिलों की ख़ाक छानने का इरादा है।’ हिंदी के कुलीन भद्रसमाज में अभिजन लेखकों को कविता पुस्तकों के प्रकाशक नहीं मिल रहे थे, अज्ञेय और नेमिचंद्र जैन ने तारसप्तक के प्रकाशन की पृष्ठभूमि के रूप में इस तथ्य का खुलासा किया है। इस पृष्ठभूमि में आसानी से यह समझा जा सकता है कि नागार्जुन किस प्रक्रिया में जन-जन के बीच लोकप्रिय जनकवि बने। तारसप्तक, दूसरा सप्तक आदि के प्रकाशन के साथ प्रयोगवाद तथा ‘परिमल’ नामक संगोष्ठी के संगठन-आयोजन के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि स्वाधीन भारत के पूंजीवादी विकास की नीति के तहत शहरीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई, उसके प्रवक़्ता रचनाकारों के लिए स्वदेश का अभिप्राय था शहर, महानगर और अभिजन। परिमलवादियों की सांस्कृतिक-साहित्यिक परियोजना में गांव का अर्थ था भदेस (रस्टिक)। उनके स्वदेश में भदेस के लिए कोई जगह नहीं थी। इन लोगों की रचना-प्रक्रिया में व्यक्ति-स्वातंत्रय और अमूर्त्त मानवाद को तो सम्मानित स्थान प्राप्त था, पर उत्पीड़ित जनगण की समस्या और उनके दर्दनाक हाहाकार के लिए कोई भी जगह नहीं थी। 1914 में ही अपनी एक मैथिली कविता ‘कविक स्वप्न’ में नागार्जुन ने जनपक्षधर साहित्य पर वैचारिक आक्रमण करने वाले कवियों का हुलिया पेश किया था: तेरा मन दौड़ता है महलों की तरफ़ बड़े-बड़े धनिकों, दरबार की तरफ़! ग़रीबों की तरफ़ किसी की जाती है नज़र देखता है कौन मेरी अश्रुधार की तरफ़। कर रहे अपनी प्रतिभा खर्च तुम उन्हीं लोगों के सुखद स्वागत गान में, जिनके रैयत फूट-फूट कर रो रहे हैं घर-आंगन औ खेत-खलिहान में। जब ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ के धूल भरे मैला आंचल की भावभूमि को तिलांजलि देकर सुमित्रानंदन पंत ने महर्षि अरविंद के अध्यात्म का चोला ग्रहण किया और ‘स्वर्ण धूलि’ तथा ‘स्वर्णकिरण’ नाम से अपने कविता-संग्रह प्रकाशित कराये तो नागार्जुन की एक कवित्वपूर्ण टिप्पणी ‘कवि कोकिल’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इस कविता में वे सत्ताधारी वर्ग के हित में पाले पोसे गये स्वप्ननीड़ के भस्मसात होने की चेतावनी देते हैं: सुरभित चीनांशुक फैलाकर राखों पर, झूलों पर अजी, धन्य हो कवि कोकिल तुम आज नहीं तो कल अवश्य ही नंदनवन में आग लगेगी भस्मसात होने वाला है नीड़ तुम्हारा काम आयेगी स्वर्ण किरण की जाली पैरा सूट बना लेना प्रिय नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 249 डैनों में रह गयी न ताक़त उड़ तो क्या सकते हो!! लगभग इन्हीं दिनों योगिराज अरविंद को संबोधित अपनी कविता में नागार्जुन उन्हें ‘आज़ाद हिंद के पोप’ की संज्ञा देते हुए कह चुके थे कि अपने आध्यात्मिक दर्शन द्वारा वे आंख मंूद कर ‘क्षणिक सत्य की तुच्छ भूमि’ से ऊपर उठकर चिदानंद की रोचक मदिरा बांट रहे हैं और उनके चेले ‘शांतिपाठ करते फिरते हैं। विप्लव के क्षेत्रों में।’ उन्हें एक जनधर्मी कवि की यह परिहासपूर्ण टिप्पणी भी सुनायी गयी थी कि उनकी ध्यान-धारणा से बाहर आती स्वर्णकिरण की जाली होने लगता रह-रह अंतः विस्फोट तत्कालीन पत्रा-पत्रिकाओं और साहित्यिक संगोष्ठियों के उसी सरगर्म माहौल में नागार्जुन की कविता को लेकर परिमल मंडली की ओर से कहा जा रहा था कि वे प्रचारवादी हैं भदेस कविता लिखते हैं; बल्कि यहां तक कि उन्हें कवि मानने से भी लगभग इनकार कर दिया गया था। जो लोग उनकी कविता में भदेस देखते थे, दरअसल वे स्वदेश को समझने से भी इनकार कर रहे थे। ज़ाहिर है इस वितंडावाद में भी नागार्जुन अपना पक्ष रखते और उनसे पूछते हैं कि व्यक्ति-स्वातंत्रय के रेशमी दुकूल के साथ उनके मुंह में रखी आत्मा की बांसुरी क्या कर रही है? पता नहीं कितने हैं छेद तुम्हारी आत्मा की बांसुरी में! बजती है, फूंक से, अथवा बिन फूंके ही? पता नहीं रूपहली या सुनहली कैसी है तुम्हारी आत्मा की बांसुरी पहाड़ी या देशवाली, किस बांस की बनी है? परिमलवादियों के हृदय को ढूंढ़ते हुए उसे नागार्जुन देखते हैं ‘विकट दरार में खोयी हुई मणि-सा’। इसके बाद वे सुनाते हैं: आत्मा की बांसुरी से उठता है अनहद नाद सुनने को जिसे अंतः श्रुति चाहिए सर्वतंत्रा स्वतंत्रा, निर्लिप्त निरंजन कलाकार अंतरतर के प्रति सर्वथा ईमानदार अपनी अबूझ काव्यवस्तु और आत्मक्रीड़ा को तरह-तरह के रूपविधानों से अलंकृत करने वाली प्रयोगवादी-रूपवादी उद्भावनाओं में फंसे परिमलवादियों से नागार्जुन ने वाद-विवाद किया। ‘वे और तुम’ शीर्षक कविता इसी संदर्भ की एक कड़ी है: 250 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 वे लोहा पीट रहे हैं तुम मन को पीट रहे हो वे पत्तर जोड़ रहे हैं तुम सपने जोड़ रहे हो उनकी घुटन ठहाकों में घुलती है और तुम्हारी घुटन? इसके साथ ही शिल्प के अतिरंजित आग्रहों पर भी नागार्जुन ने टिप्पणी की: मत करो पर्वाह क्या है कहना कैसे कहोगे इसी पर ध्यान रहे चुस्त हो सेंटेंस, दुरुस्त हो कड़ियां पके इत्मीनान से गीत की बड़ियां ऐसी भी जल्दी क्या है? ... तलधर, घोलकर, बघार कर कहो वस्तु है भूसी, रूप है चमत्कार ध्वनि और व्यंग्य पर मरता है संसार। एक जनपक्षधर कृतिकार की ओर से तत्कालीन रचनाशीलता के कलावादी-रूपवादी दुराग्रहों को लेकर व्यंग्योक्ति और उपालंभ व्यक्तिगत द्वेष की भावना से सर्वथा मुक्त है। यह चेतावनी उस समय ज़रूरी थी। चूंकि प्रगतिशील आंदोलन और प्रयोगवादी आंदोलन के बीच एक स्पष्ट विभाजन था। पहला जनोन्मुख सांस्कृतिक क्रियाकलाप था और दूसरा यूरोपीय-अमरीकी प्रेरणा से गढ़ा गया अभिजनमुखी सांस्कृतिक कर्म। नागार्जुन की उल्लिखित कविताएं इस अंतर को पूरी गहराई से उद्घाटित कर देती हैं। ख़ासकर इस बात की रोशनी में उपर्युक्त वक्रोक्तियों और टिप्पणियों का अभिप्राय पूरी तरह खुलता है, जब हम यह पाते हैं कि कविता के रूप विधान के क्षेत्रा में जितने विविध प्रकार के प्रयोग नागार्जुन ने किये, प्रगतिशील कृतिकारों ने किये, जनबोलियों के रचनाकारों ने किये, उतने कलात्मक प्रयोग परिमलवादियों के यहां लाख ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलते। सांस्कृतिक कर्म में नयी-नयी उद्भावनाओं और भावोन्मेष का स्रोत लोक, जन और हमारी परंपरा है। इस बात के प्रति प्रयोगवादी-परिमलवादी एक तरफ़ जहां सजग न थे, वहीं दूसरी ओर प्रयोग की विविधता की झूठी दुंदुभि बजाकर व्यक्तिवादी रचनाकार आत्मप्रतिष्ठा में डूबे हुए थे। मो.: 09818859545