शशांक / खंड 1 / भाग-17 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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तरला का संवाद

“तरला! तू कल कहाँ थी? मैं तेरे आसरे में रात भर सोई नहीं, रात भर जँगले के पास बैठी रही। माँ ने पूछा, कह दिया बड़ी उमस है। तू कल आई क्यों नहीं?”

जिसने यह बात पूछी वह पूर्ण युवती थी, अवस्था बीस वर्ष से कुछ कम होगी। तपाए हुए सोने का सा रंग और गठीला शरीर था। सौ बात की एक बात यह कि वह असामान्य सुन्दरी थी, उसका सा रूप संसार में दुर्लभ समझिए। सूर्योदय से दो दण्ड पीछे तरला घर लौटकर आई। आते ही वह सीधे अपने प्रभु की कन्या के पास गई जिसने देखते ही यही कहना आरम्भ किया। तरला ने कुछ हँसकर उत्तर दिया “कल मैं अभिसार को गई थी। तुम्हारा दूतीपन करते करते मैंने भी अपने लिए एक नवीन नगर ढूँढ़ लिया”।

“तेरे मुँह में आग लगे। पहले यह बता कि तू क्या कर आई।”

तरला-करूँगी और क्या? अपने मन का नवीन नगर मिलने पर जो सब करते हैं वही मैंने भी किया। रात भर कुंज में रहकर सबेरे ऑंख मलती मलती घर आ रही हूँ। तुममें यही तो बुराई है कि सच सच बात कहने से चिढ़ जाती हो। मैं दासी हूँ तो क्या मेरी रक्त मांस की देह नहीं है, मेरे मन में उमंग नहीं है? भगवान् ने क्या प्रेम तुम्हीं लोगों के लिए बनाया है? रास्ते में कुँवर कन्हैया मिल गए, तब उनकी बात टाल कर कैसे चली आती? मेरा वस भी अभी कुछ अधिक नहीं है। बहुत हूँगी, तुमसे दो एक बरस बड़ी हूँगी। अभी न मेरे दाँत टूटे हैं, न बाल पके हैं।

युवती-अरे! तू मर जा। यमराज के यहाँ जा। न जाने यमराज क्यों कहाँ भूले हुए हैं? यदि तुझे नगर ही मिल गया तो फिर लौटकर आई क्या करने? मुझे खबर देने? तरला, अब इधर उधर की बात छोड़ ठीक ठीक कह कि क्या कर आई। मुझसे अब विलम्ब नहीं सहा जाता।

तरला-तुम्हारे ही लिए तो मैं लौट आई। बहुत उतावली न करो। चलो, भीतर चलो।

युवती तरला के कन्धो पर हाथ रखे घर के भीतर गई। एक कोठरी में पहुँचकर तरला ने उसके किवाड़ भीतर से बन्द कर लिए। युवती ने उसके गले में हाथ डालकर पूछा “उनसे भेंट हुई?”

“हुई।”

युवती ने उसे हृदय से लगा लिया। तरला ने कहा “क्या यही मेरा पुरस्कार है?” युवती ने उत्तर दिया “और पुरस्कार तेरे नगर आकर देगे।”

“मेरा नहीं, तुम्हारा।”

“मेरा क्यों, तेरा; जिसके लिए तू अभिसारिका होकर गई थी”।

“अरे वह तो एक बुङ्ढा बन्दर है। कल रात को उसके गले मे रस्सी डाल आई हूँ; किसी दिन जाकर नचाऊँगी।

“यह सब तो तेरी बात है। सच सच बता, उनसे भेंट हुई थी”?

“सच नहीं तो क्या झूठ”?

युवती ने तरला का हाथ पकड़ उसे खिड़की के पास बैठाया और आप भी वहीं जा बैठी। तरला धीरे धीरे गुनगुनाने लगी-

जोगी बने पिय पन्थ निहारत भूलि गई चतुराई।

युवती ने झुँझला कर तरला के गाल पर एक चपत जमाई। तरला हँस पड़ी और बोली “और मैं क्या बताऊँ?” युवती रूठ गई और मुँह फेरकर अलग जा बैठी। तरला मनाने लगी “यूथिका देवी! इधर देखो। अच्छा लो, अब कहती हूँ”। युवती का मन चट से पिघल गया। उसने तरला की ओर मुँह किया। तरला कहने लगी “आज सचमुच उनसे भेंट हुई। पहले तो मैंने उनके पिता के पास जाकर कहा कि मेरी सेठानीजी ने सेठ वसुमित्र के पास कुछ रत्न परीक्षा के लिए भेजे थे, वे रत्न कहाँ हैं। आप कुछ बता सकते हैं? बुङ्ढा चकपका उठा और बोला कि मैं कुछ भी नहीं जानता; वसुमित्र तो मुझसे कुछ भी नहीं कह गया है। बुङ्ढा एक प्रकार से स्वभाव का अच्छा है, उसके मन में छल कपट नहीं है। उसे मेरी बात पर विश्वास आ गया और उसने चट वसुमित्र का ठिकाना बता दिया। बुङ्ढा मेरे साथ एक आदमी किए देता था। मैंने देखा, यह तो भारी विपत्ति लगी। किसी प्रकार बुङ्ढे से अपना पल्ला छुड़ाकर मैं चली आई। पता तो जान ही चुकी थी; मैं चल पड़ी। नगर के बाहर एक पुराने विहार में वे रखे गए हैं। वे पूरे बन्दी तो नहीं हैं, पर किसी प्रकार भाग नहीं सकते। भिक्खु उन पर बराबर दृष्टि रखते हैं।

यूथिका-तूने उनसे कुछ कहा?

तरला-न जाने कितनी बातें कहीं। तुमने जो कुछ कहा था वह तो मैंने कहा ही; उसके ऊपर और दस बातें अपनी ओर से बढ़ाकर कह आई हूँ। मैंने कहा 'सेठजी! मैं सागरदत्ता की कन्या यूथिका की दूती होकर तुम्हारे पास आई हूँ। तुम्हारे

विरह में वह सूखती चली जा रही है, टहनी से टूटकर गिरना चाहती है। और यह भी कहा कि यदि तुम उससे मिलना चाहते हो तो चैत की चाँदनी में वर के वेश में-

युवती ऑंख निकाल कर बोली “फिर!”

तरला-देखो, तुहारा रसज्ञान दिन दिन कम होता जा रहा है।

युवती-तरला! तेरे पैरों पड़ती हूँ, यह सब रहने दे। और क्या कहा, यह बता।

तरला-पहले जाते ही तो मैंने पूछा कि भैयाजी! क्या इसी प्रकार दिन काटोगे? उत्तर मिला 'जान तो ऐसा ही पड़ता है'।

युवती के दोनों ओठ कुछ फरक उठे। तरला कहने लगी “पहले तो मैंने उन्हें देखकर पहचाना ही नहीं। पहचानती कैसे? न वे काले भँवर से कुंचित केश हैं, न वह वेश है। जिन्हें मैं वसुमित्र कहा करती थी, उनका सिर मुँड़ा हुआ है; अनशन करते करते चेहरा पीला पड़ गया है; शरीर काषाय वस्त्र से ढका है। नाम तक बदल गया है। अब वसुमित्र कहने से उनका पता नहीं लग सकता। अब उनका नाम है जिनानन्द।” युवती तरला की गोद में मुँह छिपाकर सिसक सिसक रोने लगी। तरला उसे समझा बुझाकर फिर कहने लगी-

“तुम्हें जिस बात का डर था, वह बात नहीं है। वसुमित्र तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते थे, इसलिए उनके पिता चारुमित्रा ने उन्हें संसार से अलग नहीं किया है। चारुमित्रा के मरने पर वसुमित्र ही उनकी अतुल सम्पत्ति के अधिकारी होते। इसलिए बौद्ध संन्यासियो ने उन्हें वसुमित्र को बौद्ध संन्यासी बना देने का उपदेश दिया। भिक्खु हो जाने पर फिर सम्पत्ति पर अधिकार नहीं रह जाता, सम्पत्ति बौद्ध संघ की हो जाती है। बौद्ध संघ की इसी सहायता के लिए ही चारुमित्रा ने अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान कर दिया है।

यूथिका-तो अब उपाय?

तरला-उपाय वही भगवान् हैं। मठ से लौटती बार मैंने बड़ी बिनती से भगवान् को पुकारा था। जान पड़ता है, भगवान् ने पुकार सुन ली और मार्ग में ही उन्होंने एक उपाय खड़ा कर दिया। मठ में बहुत से दुष्ट भिक्खु हैं। उनमें एक अधोड़ या बूढ़ा भिक्खु है। वहाँ से लौटते लौटते दिन ढल गया और अधेरा हो गया। मैं जल्दी जल्दी बढ़ी चली आ रही थी। इतने में मुझे जान पड़ा कि कोई पीछे पीछे आ रहा है। पहले तो मैं बहुत डरी। कई बार अधेरे में छिप रही कि वह निकल जाय; पर उसने किसी प्रकार पीछा न छोड़ा। घड़ी भर तक मैं ऑंख मिचौली खेलती रही। अन्त में मैंने उसका मुँह देख पाया। देखते ही शरीर में गुदगुदी लगी, मैंने अपने भाग्य को सराहा। मठ का वही बुङ्ढा बन्दर मेरे पीछे लगा आ रहा था।

यूथिका-मुँहजला कहीं का!

तरला-तुम वसुमित्र के मुँह की ओर क्यों ताकती रह जाती थीं, क्यों तुम्हारी पलकें नहीं पड़ती थीं, अब जाकर मुझे समझ पड़ा है।

यूथिका ने कोई उत्तर न दिया, धीरे से तरला के गाल पर एक चपत जमाई। तरला कहने लगी “तुम मेरी बात का विश्वास तो मानोगी नहीं, व्यर्थ क्यों अपने कुँवर कन्हैया का रूप वर्णन करके सिर खपाऊँ। तुम्हारी ही बात कह सकती हूँ। मैंने बाहर निकलकर नागर के साथ बातचीत की। प्रेम का पन्थ ही कुछ निराला है, तुम जानती ही हो। उस रसालाप का आनन्द मैं क्या कहूँ? सेठ के बेटे के मुँह में मुँह डालकर किस आनन्द से बातचीत करती थीं, है स्मरण? बस उसी से समझ लो। ऐसी सुहावनी चाँदनी में नागर कहीं नगरी को छोड़ सकता है? अग्नि के अभाव में चन्द्र को साक्षी बनाकर हम दोनों ने गान्धार्व विवाह कर लिया...”।

यूथिका-चल तू बड़ी दुष्ट है। तेरा यह सब रस रंग मुझे इस समय नहीं सुहाता है, मेरे सिर की सौगन्धा, सच सच कह क्या हुआ।

तरला-कहती हूँ न, भला यह कौन सी बात है कि तुम मेरी प्रेमकथा न सुनो। यही न कि तुम्हारा यौवन मुझसे अभी कुछ नया है, इससे क्या हुआ?

यूथिका चिढ़कर उठा ही चाहती थी कि तरला ने उसका हाथ थाम कर बैठाया और बोली “सुनो, कहती हूँ, इतनी उतावली न करो। वह बुङ्ढा भिक्खु सचमुच मेरे लिए पागल होकर मेरे पीछे लगा था। ज्यों ही मैं ओट से निकल कर उसके सामने आई वह मेरे पैरों पर लोट गया। मैं भी उसे बढ़ावा देकर स्वर्ग का स्वप्न दिखाने लगी। मैं वसुमित्र से कह आई हूँ कि जिस प्रकार से होगा उस प्रकार से मैं तुम्हें छुड़ाऊँगी। रास्ते में सोचती आती थी कि कहने को तो मैंने कह दिया पर छुड़ाऊँगी किस उपाय से, इतने में भगवान ने एक उपाय खड़ा कर दिया। उस बुङ्ढे से मैं कह आई हूँ कि कल फिर मिलूँगी। उसकी सहायता से मैं मठ के भीतर जाऊँगी और वसुमित्र को छुड़ाऊँगी। किस उपाय से छुड़ाऊँगी यह अभी तक मैं नहीं स्थिर कर पाई हूँ। अब इस विषय में और कुछ बातचीत न करना। सेठानी जी पूछें तो कह देना कि तरला अपनी मौसी की लड़की के ब्याह में कहीं बाहर गई है, पाँच सात दिन में आवेगी। मेरी मौसेरी बहिन का नाम यूथिका है।”

यूथिका-तेरे मुँह में लगे आग!

तरला-अब इस बार आग नहीं, घी गुड़।

यही कह कर तरला हँसती हँसती चली गई।