सागर के इस पार से उस पार से / कृष्ण बिहारी / पृष्ठ 2

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हाथों की अबूझ लकीरें

सिक्किम की नौकरी मैंने एक झटके में छोड़ दी थी। बिना आगा-पीछा सोचे। इससे पहले भी मैंने ऐसा कई बार किया था। कई नौकरियाँ तो मेरे हिसाबसे बहुत छोटी भी थीं। पर, दो-तीन नौकरियाँ तो सचमुच न केवल ठीक-ठाक बल्कि बहुत ठीक थीं। लेकिन तब बात और थी। मैं अविवाहित था और ऐसे खतरे उठा सकता था। मगर एक बच्चे का बाप अचानक ऐसा निर्णय लेना यह नियात अव्यावहारिक थी। खैर—जो मुझे करना था वह कर चुका था और मैं अब यह भी कह सकता हूँ कि एक बच्चे का या कई बच्चे का बाप होना व्यक्ति के चरित्र को नहीं बदल सकता। निर्णय लेने के क्षण कुछ ही होते हैं।

इस्तीफा देने के बाद ही मेरे निकटतम मित्र जान सके थे कि मैंने नौकरी छोड़ दी। वे सब भी सकते की हालत में थे। ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि बीस मिनट पहले मैंने उन सबके साथ स्कूल के अटेंण्डेंस रजिस्टर पर इनकमिंग कॉलम में हस्ताक्षर किए थे तो इस्तीफा देने की बात तक मन में नहीं थी।

ज़ाहिर है कि जो कुछ हुआ वह तत्कालीन प्रधानाचार्य की बदतमीजी को न सह पाने की प्रतिक्रिया में हुआ था। मैंने उनकी मेज़ से ही क़ाग़ज लेकर उन्हीं के सामने इस्तीफा लिखा और उनके मुँह पर दे मारा था जबकि उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थी। उन्होंने मुझे टार्चर करने के लिए एक नुस्खे को आजमाना चाहा था जो उनके ही गले पड़ गया। मैंने अपना इस्तीफा देते हुए उनसे कहा—‘‘अब मैं आपके अधीन काम नहीं करूँगा।’’ और उनके चेम्बर से बाहर निकल आया और अपने फ्लैट पर जाने के लिए चल पड़ा। उन दिनों मैं स्कूल के ही अलॉट किए फ्लैट में रहता था जो तिब्बत रोड पर था मैं अपनी गति से स्कूल गेट की ओर चला जा रहा था और वह घबराएँ हुए मेरे पीछे थे कि इस तरह बिना एक महीने की नोटिस दिए मैं नौकरी नहीं छोड़ सकता। उनकी पीछा करती आवाज़ का मुझ पर कोई असर नहीं था।

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